योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with the Mind – Learning Video #6 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH THE MIND

Learning Video #6

Learn and practice meditation breath by breath. When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.

Video link:

Instructions:

Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.

Breathing in long, understand:I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.

Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.

Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.

Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.

Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.

Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.

As you breathe in and out, observe your mental processes.

Be aware of the mental processes.

Breathe in experiencing mental formations, breathe out experiencing mental formations.

Breathe in tranquilizing mental formations, breathe out tranquilizing mental formations.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated.

Open your eyes and come out of meditation.

(Based on the Anapanasati Sutta)

 

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

[email protected]

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry – Tragedy of Humanity – Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

Tragedy of Humanity

(34 years ago in the night of December 2-3, 1984, MIC gas was leaked from the Union Carbide, Bhopal. My poem is a tribute to all those people who lost their life in this incident.  This poem has been cited from my book “The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

I heard that

in unknown nations

unknown human beings were

knowingly or unknowingly

burnt alive

killed in gas chambers

burnt in radiation…..

 

Since then

our humanity

has been lost in space

and slept in vain.

 

Remember those moments

when MIC1 was leaked

from a pesticide factory

in that dark night

when

the entire world was sleeping

and

an innocent child was weeping

embraced by

the poisonous gas

in the dead mother’s lap.

 

A youth

just slept

taking his last breath

on a nearby road

who was blessed

for longevity

by an astrologer.

 

Alas!

That innocent child…. and

so-called long-lived youth

are the sign of

thousands of dead human beings.

On that night

black or white

rich or poor

and

beyond the definition of racism

were not running

but,

entire humanity

was running.

 

Those

who smelled MIC1

slept with last breath

and

those who could not…

they are sick

and

approaching to slow death

with the side effect.

 

We can only remember

their souls

in anniversaries

of such tragedies

that is becoming

the dark side of

the humanity

the history.

  1. MIC – Methyl Isocyanate.

© Hemant Bawankar

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – गैस त्रासदी – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

गैस त्रासदी

(आज से  34 वर्ष पूर्व  2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड, भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी ।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम
गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।
बन्द
हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।
यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

जलाओ
शौक से जलाओ
आखिर
ये सब
प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

बरसों पहले
हिटलर के गैस चैम्बर में
कुछ इंसान
तिल तिल मरे थे।
हिरोशिमा नागासाकी में
कुछ इंसान
विकिरण में जले थे।

तब से
हमारी इंसानियत
खोई हुई है।
अनन्त आकाश में
सोई हुई है।

याद करो वे क्षण
जब गैस रिसी थी।

यूका प्रशासन तंत्र के साथ
सारा संसार सो रहा था।

और …. दूर
गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।

ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।

अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।

जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।

धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।

सबको श्रद्धांजलि!
गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

© हेमन्त बावनकर

Please share your Post !

Shares

संस्मरण-भूली हुई यादें – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

भूली हुई यादें

(वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री जयप्रकाश पाण्डे जी हमारी पीढ़ी के उन सौभाग्यशाली लोगों में शामिल हैं  जिन्हें कई वरिष्ठ हस्तियों से व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिनमें प्रमुख तौर पर स्व श्री हरीशंकर परसाईं और आचार्य रजनीश जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। हम समय समय पर उनके संस्मरणों का उल्लेख अपने पाठक मित्रों  से साझा करते रहेंगे।)  

इन दिनों डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपनी पुरानी यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है।

जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं, वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है।  लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्टर संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आँखें गवां चुके थे। माँ पिता जी गाँव में थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते। एक दिन घर पहुँचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।

कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे, थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ।

बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डी एन जैन महाविद्यालय  में पढ़ाते थे।

अभी दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे एक दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे……

अब बताओ कि 48 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहाँ से दिखायें, जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में सब यादें अचानक उभर आयीं। तब दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है…….

©  जय प्रकाश पाण्डेय

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जिनगी का यो यो बीप टेस्ट – श्री शांतिलाल जैन 

श्री शांतिलाल जैन 

जिनगी का यो यो बीप टेस्ट

(आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी का यह व्यंग्य कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा था। सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें  कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए।)

“हलो अम्मा, हम गोपाल बोल रहा हूँ…..परणाम……हम ठीक हूँ अम्मा…वारंगल आ गया हूँ….काहे ? काहे क्या अम्मा, हम बताये था ना आपको… हम ‘यो यो टेस्टवा’ पास कर रहे हैं. का बतायें अम्मा…..जिनगी के खेल में बने रहना है तो यो यो टेस्टवा तो पास करना ही पड़ेगा ना… का है कि फेल हो जाते तो मार दिये जाते….क्या पूछ रही हो…..कि क्या होता है ई टेस्टवा में. केतना तो छप रहा पेपर में. हम भी पेपर में ही पढ़े हैं. तुम समझ नहीं सकोगी अम्मा फिर भी बताये दे रहे हैं….ई टेस्टवा में दो सीधी गईल लाइन पर तनिक तनिक दूरी पर कई कोनवा रखे जाते हैं जिनके बीच बीस मीटर की दूरी होईल है. दौड़नेवाला एक लाईनवा के पीछे अपना पांव रखकर शुरुआत करता है और ईशारा मिलते ही दौड़ने लगता है. दो कोनवा के बीच की दूरी पर बनी दो लाईनों के बीच लगातार दौड़ना पड़ता है अम्मा और जब एक घंटी सी बजती है जिसे बीप कहते हैं तब मुड़ना होता है. हर बीप पर तेज़ और तेज दौड़ना होता है. तो अम्मा…शहर क्या कोन्स समझो. छपरा से सिलचर. सिलचर से जयपुर. जयपुर से रायपुर. रायपुर से भिवंडी. भिवंडी से राजकोट. राजकोट से वारंगल. दूरी मीटरवा में नहीं किलोमीटरवा में. लट्ठ की बीप बज उठती है तो पहले से तेज़ भागना पड़ता है अम्मा. ये हमरे जिन्दा रहने के‘यो-यो बीप टेस्ट’ हैं. आप तो जानती हो अम्मा पाँव जिस रेखा के पीछे रहा उसे ये लोग गरीबी की रेखा कहते हैं, बाबा के संकेतवा पे दौड़ना शुरू किये थे. पहला कोन सिलचर में रहा, दूसरा भिवंडी में, अभी आखिरी बीपवा राजकोट में बजल रहा.

…बस अम्मा आपका आशीरवाद ठहरा जो किसी तरह इस कोनवा तक आ गए. रेल छत पर भी तिल रखने की जगह नही थी. हम तो तीन बार बिजली के तार से टकराते टकराते बचे हैं मगर हाजीपुरवाला नरेन अँधेरे में छत से कब कहाँ गिरा पता भी नहीं चला. रोओ मत अम्मा….दरद कैसा ? टेस्टवा पास करने की खुसी में डंडा खाने का दरद भूल गए हैं.

अम्मा….बाबा बचपन में कहते थे ना हम भारतीय हैं – गलत कहते थे. हर कोन पर हम बिहारी हैं अम्मा. बीप बजानेवाले असमी, मराठी, गुजरती, तेलुगु या ऐसे ही कुछ कुछ हैं. केतना केतना दौड़े हैं – भारतीय कोई नहीं मिलल. का बताई अम्मा… टेस्टवा की बीप बजानेवाले महीनों काम करा लेते हैं फिर बिना पगार दिए बीप बजा देते हैं ससुरे. हम तो फिर भी दौड़ लेब अम्मा  – आपकी बहू मुश्किल से दौड़ पाती हैं. चिंकू को गोद में उठाये, परी को पीठ पर लादे गिरस्ती का सामानवा लिए दौड़ते हैं अम्मा. किसी तरह पहुँच जाते हैं दूसरे कोन पे…..हेलो अम्मा.. सुन रही हो….बाबा कहते थे ना अम्बेडकरजी लिखलवा क़ानून का केताब में कि सब बराबर हैं – ऊ गलत कहिन. लट्ठ उनकी केताब पे भी भारी पड़ता है. .. अभी रहेंगे यहाँ हम…यहाँ नई राजधानी बन रही है सो बीप बजने में समय बाकी है अभी… चलो रखते हैं… दस रूपये का रिचार्ज करवाए थे. बेलेंस ख़तम होने को है. खुसी बस इतनी कि जिनगी का यो यो टेस्ट किलियर करते जा रहे हैं…. अपना ख़याल रखना अम्मा. परणाम.

© श्री शांतिलाल जैन 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक बहके बुजुर्ग का संकट – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

एक बहके बुजुर्ग का संकट

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी विगत पाँच दशक से भी अधिक समय से साहित्य सेवा के लिए समर्पित हैं।  चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्द राम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। आप म.प्र. हिन्दी  साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार एवं राजस्थान पत्रिका के सृजनशीलता सम्मान से सम्मानित हैं।  आपके  पाँच कथा संग्रह एवं दो व्यंग्य संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं।  साथ  ही  200  से अधिक कहानियाँ एवं लगभग इतने ही व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 

बब्बू भाई करीब पैंतीस साल की शानदार सेवा करके दफ्तर से बाइज़्ज़त और बेदाग़ रिटायर हो गये। रिटायर होने के बाद ज्यादातर रिटायर्ड लोगों की तरह न घर के रहे, न घाट के। रोज सवाल मुँह बाये खड़ा हो जाता कि कहाँ जायें और क्या करें। घर में ज्यादा धरे रहें तो आफत, ज्यादा घूमें घामें तो आफत।

बब्बू भाई की पूजा-पाठ में कभी रुचि रही नहीं। कभी घरवालों का जोर पड़ा तो मंदिर हो लिए, कभी घर में पूजा हुई तो यंत्रवत खानापूरी कर ली, और उसके बाद फुरसत। इसलिए रिटायरमेंट का वक्त पूजा-पाठ में गुजारने का वसीला नहीं बना, जो बहुत से रिटायर्ड लोग करते हैं।
बब्बू भाई सबेरे उठकर पास के पुल की तरफ निकल जाते। वहाँ धीरे धीरे टहलते रहते। पुल की दीवार से टिककर कानों में इयर फोन लगाकर पसंद के गाने सुनते रहते। इसी में घंटा डेढ़ घंटा कट जाता। कोई परिचित मिल जाता तो आराम से बात भी हो जाती।

इधर कुछ दिन से बब्बू भाई पास के पार्क में जाने लगे हैं। पार्क साफ-सुथरा है। घूमने के लिए पक्की पट्टी है, बैठने के लिए पत्थर की बेंचें हैं, बीच में हरी घास का मैदान है। बब्बू भाई गीत-गज़ल के शौकीन हैं। समझ भी रखते हैं। मोबाइल में यू-ट्यूब पर गज़लें लगा लेते हैं। बेंच पर बैठकर बड़ी देर तक सुनते रहते हैं और वाल्यूम बढ़ा देते हैं ताकि आसपास के लोग भी आनंद लें। बेगम अख्तर, जगजीत सिंह, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, नूरजहां, मलिका पुखराज के स्वर देर तक गूंजते रहते हैं। आजू-बाजू में टहलते लोग उन सुरों को सुनकर कुछ देर ठमक जाते हैं।

बब्बू भाई पार्क से संतुष्ट होकर, अच्छे संगीत को बांटने का एहसास लेकर लौटते हैं। बड़ी देर तक मूड अच्छा बना रहता है।
लेकिन मुहल्ले में बब्बू भाई के खिलाफ कुछ और खिचड़ी पकने लगी। मुहल्ले की महिलाओं ने बब्बू भाई की पत्नी से शिकायत की कि बब्बू भाई के लच्छन कुछ अच्छे नहीं हैं, वे पार्क में बैठकर ऊटपटाँग गाने सुनते रहते हैं। शिकायत है कि उनका आचरण बुजुर्गों जैसा कम और लफंगों जैसा ज्यादा है।

बब्बू भाई की पत्नी किराने की दूकान पर मुहल्ले की ‘बुआ जी’ से मिलीं तो बात और तफसील से हुई। बुआ जी बोलीं, ‘बहन अब क्या बतायें। आपके हज़बैंड पार्क में रोज इश्क विश्क वाले गाने लगाकर बैठ जाते हैं। कोई बेगम हैं जो गाती हैं– ‘अय मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, कोई गाती हैं ‘आज जाने की जिद न करो, यों ही पहलू में बैठे रहो’, मतलब यह सब कि सब काम-धंधा छोड़कर इनके बगल में धरे रहो। एक और गाती हैं ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ अब बताओ भैना, आपके हज़बैंड को इस उमर में ये गाने सुनना शोभा देता है क्या? बुढ़ापे में कोई गाये कि अभी तो मैं जवान हूँ तो कैसा लगेगा? एक और पाकिस्तानी गायक हैं जो गाते हैं कि तेरा छत पे नंगे पांव आना याद है। अब बताओ मुहल्ले के लड़के ये गाने सुनेंगे तो उनके दिमाग पर क्या असर पड़ेगा? वैसे ही नयी पीढ़ी का सत्यानाश हो रहा है। आपके हज़बैंड को चाहिए कि परलोक की चिन्ता करें और भजन कीर्तन वगैरह सुनें। उन्हें सत्संग में भेजा करो। संस्कार चैनल दिखाया करो। इस उम्र में इश्क के गाने सुनकर परलोक नहीं  बनने वाला।’

बुआ जी आगे बोलीं, ‘और फिर आपके हज़बैंड ज़्यादातर पाकिस्तानी गायकों के गाने क्यों सुनते हैं? पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। हम पाकिस्तानी गायकों को घुसने नहीं देते। लेकिन आपके हज़बैंड उन्हें कान से और दिल से चिपकाए रहते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। इससे आपके हज़बैंड की देशभक्ति पर सवाल उठता है।’

बब्बू भाई की पत्नी ने लौटकर सब पति को बताया। बब्बू भाई भी चिंता में पड़ गये। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी!

अब बब्बू भाई पार्क में बैठते तो मुहल्ले की महिलाएं टहलते टहलते रुककर सुझाव देने लगतीं -‘भाई साहब, हरिओम शरन लगा लीजिए। ‘तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार’ या ‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे  आऊँ ‘।अनूप जलोटा को लगाइए। गजल वजल सुनना भूल जाएंगे। ‘ बब्बू भाई अब इयरफोन से ही सुनते ताकि आसपास के लोगों को हवा न लगे कि वे क्या सुन रहे हैं।

बब्बू भाई के पास अब सत्संग में चलने के निमंत्रण आने लगे। बब्बू भाई बहाना बनाकर बचते। मुहल्ले वाले उन्हें सुधारने पर आमादा हो गये थे। बुआजी ने बब्बू भाई की पत्नी को यह सलाह दे दी थी कि हर साल बब्बू भाई को तीर्थयात्रा पर ले जायें और हर महीने घर में सुन्दरकांड का पाठ करायें।

इस चौतरफा हमले से परेशान बब्बू भाई फिलहाल अंतर्ध्यान हो गये हैं। सुना है कि वे ससुराल-सेवन के लिए निकल गये हैं। एक दो महीने वहाँ रहेंगे, फिर दूसरी रिश्तेदारियां खंगालेंगे। फिलहाल उनका शहर लौटने का इरादा नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि उनकी अनुपस्थिति से मुहल्ले का प्रदूषण-स्तर कुछ कम हो जायेगा।

यह भी चर्चा है कि उनका इरादा नर्मदा किनारे एक दो एकड़ ज़मीन खरीदने का है जहाँ वे कुटिया बनाकर रहेंगे और जहाँ उन्हें टोकने और नसीहत देने वाला कोई न होगा।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार (मो. 9926660392)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

दिल्ली

किसे समझते हैं आप दिल्ली!

जगमगाती ज्योति से नहाए

लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक

संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन

व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए

युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर

लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन

दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,

विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय

सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और

जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय

यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के

नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान

इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को

छाती पेटे लगाए

लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल

अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक

रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,

वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे

अद्भुत विरासत साधे

स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान

आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !

 

कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती

काँखती,कराहती बहती

काली-कलूटी कुब्जा यमुना

दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच

अपने पशुओं के लिए घास ढोती

उपले थापती आधी दुनिया

माने औरत जाति

आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!

 

मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में

किताबों में सर गाड़े

या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में

बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में

छिपके बैठी होनहार पीढ़ी

रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस

पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ

और उनको ढोते दलाल

बोलो! किसे पुकारेंगे आप  दिल्ली?

 

ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती

मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ

मेट्रो, बस या बाज़ार में

पर्स और मोबाइल मारते  जेबकतरे

चिचिलाती धूप और शीत लहर में

पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़

क्या ये भी नहीं है दिल्ली?

 

संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में

घर-बार की होलिका जलाए

ककड़ी-से फटे होठों को चाटते

कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण

क़र्ज़ में डूबे किसान-से

चिंताओं के पहाड़ के साथ

अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा

चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !

चिल्लाते सहमे हुए पास आते

झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे

आशा में खड़े मज़दूर

इनमें सबके सब दिल्ली  के भले न हों

पर इन में भी  खोज  सकते हैं आप दिल्ली।

 

दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है

बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते

आम आदमियों के हिस्से में भी है

कुछ दिल्ली

इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो

हस्तिनापुर के झगड़े में

निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी

हाहाकारी हो सकती है दिल्ली

बारबाला भी नहीं है दिल्ली

जो सुरा परोसे और मुस्काए

और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए

दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है

दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है

उसके बरक्स

मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।

दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन

बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला

सात दिन का ही है सप्ताह

क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!

 

धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में

पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है

परिवार के हाल-चाल और नहीं भी

एकांत में थाम सकता है कोई हाथ

अपना सकता है जीवन भर के लिए

पल में छूट  सकता है कोई हाथ

पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है

कोई आदम की छाया भी

लेकिन दिल्ली निर्जन भी  नहीं है

डियरपार्क में बतकही हो सकती है

विश्वनाथ त्रिपाठी से

किसी आयोजन में मिल सकते हैं

नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे

हरनोट और दिविक रमेश

‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत

फाँकते आए मोरवाल

या उसे धकेलते

देश के कोने-कोने से आए

कई साहित्यकार छोटे-बड़े  गुट में

यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे

जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में

नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार

नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,

दिल्ली में बसना सब  चाहते हैं

लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से

किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में

बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली

वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में

इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं

जो बनाने को मठ

उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या

ला-ला के भरते रहे हैं

अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से

गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में

शकूर और दयाबस्ती में

नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी

कौन पूछे कि किस वजह से

आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही

बसते हैं हमारी दिल्ली में?

आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली

छानो ख़ाक

किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट

शर्माओ मत

कविता हो या राजनीति

सब गड्डमड्ड कर डालो

बढ़ो आगे

गढ़ो नए प्रतिमान

जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ

और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ

तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा

सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा

और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ

गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने

सबसे पहले उसी को पटखनी दो

जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट

फिर क्या है

मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ

पगुराओ गंधाती आत्म कथा

यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी

स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।

खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ

आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with feeling – Learning Video #5 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH FEELING

Learning Video #5

Having trained to breathe with the body earlier, we train to breathe with feelings in this session.

Instructions:

Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.

Breathing in long, understand:I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.

Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.

Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.

Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.

As you breathe in and out, observe your feelings.

Breathe in experiencing your feelings, breathe out experiencing your feelings.

Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.

Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated.

Open your eyes and come out of meditation gently.

(Based on the Anapanasati Sutta) 

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

Please share your Post !

Shares

पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – पंचमढ़ी की खोज – श्री सुरेश पटवा

आत्मकथ्य – पंचमढ़ी की खोज – श्री सुरेश पटवा 

(‘पंचमढ़ी की खोज’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक पंचमढ़ी की खोज पर उनका आत्मकथ्य।)

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िला की सोहागपुर तहसील में 1860 से 1870 के दशक में दो अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं जिन्होंने न सर्फ़ तहसील के जीवन को पूरी तरफ़ बदल कर रख दिया अपितु एक नया शहर पिपरिया अस्तित्व में आ गया, जिसे पंचमढ़ी के प्रवेश-द्वार और प्रोटीन से भरपूर तुअर दाल के लिए पूरे देश में जाना जाता  है। अंग्रेज़ों के सोहागपुर को रेल का ठिकाना बनाने से बस्ती के बाशिंदों को नई अंग्रेज़ी शिक्षा के द्वार खुल गए 50 किलोमीटर के घेरे से लोग पढ़ने-लिखने वहाँ आने लगे। इलाक़े में  यह उलाहना पूर्ण कहावत चल पड़ी कि “पढ़े न लिखे सोहागपुर रहते हैं”, जिसके जवाब में एक नई कहावत बाजु के नरसिंघपुर जिले में बन गई कि “पढ़ौ न लिखो होय, मनो नरसिंघपुरिया होय”। यह प्रतिस्पर्धा निरंतर है।

पहली घटना थी, सोहागपुर से इटारसी-जबलपुर खंड की रेल लाइन का बिछाना जिसके लिए लकड़ी सिलीपाट, लाल मुरम, पलकमती की बारीक रेत और सस्ता श्रम सोहागपुर की बस्ती ने उपलब्ध कराया। दूसरी घटना थी, जबलपुर को सेंट्रल प्राविन्स की राजधानी बनाकर होशंगाबाद को कमिशनरी और ज़िला मुख्यालय बनाना एवं होशंगाबाद जिले का  सीमांकन और फ़ौजी ठिकाने हेतु कैप्टन जेम्ज़ फ़ॉर्सायथ द्वारा खेतिहर ज़मीन की पहचान, कोयला के भण्डारों का पता लगाना व सुरक्षित अभयारण्य की स्थापना हेतु पंचमढ़ी की खोज।

जबलपुर से पंचमढ़ी तक की इस यात्रा में वन्य-जीवन, आदिवासी संस्कृति, सतपुड़ा की वनस्पति, आदम खोर का शिकार और क़दम-क़दम पर जोखिम के रोमांच है।

पंचमढ़ी की खोज से ……..

जेम्स फ़ॉर्सायथ ने जनवरी 1862 में जब पंचमढ़ी की तरफ अपनी यात्रा शुरु की तब तक रेल लाइन डालने के लिए बावई से बागरा तक आकर, रेल लाइन के किनारे-किनारे गिट्टी, रेत, सिलिपाट मजदूर मशीन और दूसरी अन्य चीजें ले जाने के लिए लाल मुरम डालकर एक कच्ची सड़क नरसिंघपुर तक बन गई थी। फ़ॉर्सायथ के पास एक बहुत होशियार और समझदार ऊँट था, जिसे उसने बुंदेलखंड में विद्रोहियों और ठगों की सफाई की मुहिम के दौरान पकडा था। वह ऊँट लावारिस घूम रहा था संभवत: उसके मालिक को ठगों ने ठिकाने लगा दिया हो और माल लूटकर ऊँट छोड दिया होगा। उस ऊँट की एक अजीब सी आदत थी कि वह कुछ दिनों के लिए फ़ॉर्सायथ को छोडकर जंगल की तरफ की तरफ ऊंटनी की खोज में निकल जाता था और निपट सुलझ कर पूँछ हिलाते हुए वापस मालिक के पास आ जाता था। तब उसकी आँखो और शरीर में एक चमक होती थी। प्रतिवर्ष अक्टूबर से दिसम्बर तक वह ऐसा ही करता था इसलिए फ़ॉर्सायथ ने उसका नाम ‘जंगली’ रख दिया था। जब वह जंगल से वापस आता तो जुगाली में मुँह चलाते हुए एकटक फ़ॉर्सायथ को देखता रहता था मानो कह रहा हो हमको तो मेम मिल गई पर तुम्हारी ऊँटनी कहाँ है।

आप अमेरिका का नक्शा देखें। उसमें उनके 52 राज्य की सीमाएँ आयताकार हैं। राज्य बनाने के लिए 1780 के आसपास सीथी-सीधी रेखाएँ खींच दी गईं थीं क्योकि तब तक ऊबड़-खाबड़ जमीन, कहीं-समतल, कहीं-पहाड़, कहीं-नदी, कहीं घाटी और कहीं खाइयाँ नापने के सूत्र विकसित नहीं हुए थे । ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और ग्लासगो विश्वविद्यालयों में पाइथागोरस के रेखागणित और बीजगणित के सूत्रों और सिद्धांतों पर फार्मूले विकसित किए गए जिनसे उन्नीसवीं सदी में सबसे पहले हिंदुस्तान को नापा गया। उस समय इंग्लैंड के लिए हिंदुस्तान सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि अमेरिका हाथ से निकल चुका था और आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अफ्रीका और कनाडा पूरी तरह हाथ में नहीं आए थे। ग्रीक के एरेटोस्थेनेस ने पृथ्वी के व्यास की गणना पता करने के लिए सूत्रों का प्रयोग किया था तदनुसार इंग्लैंड के भूगर्भशास्त्रियों ने पृथ्वी के केंद्र से सतह की दूरी 6371  किलोमीटर आँकी थी। अग्रेजों ने हिदुस्तान को नापने के लिए Great Trigonometric Survey नाम से एक प्रोजेक्ट 1802 में शुरू की, जिसमें भारत को कई ट्राइएंगल याने तिकोने में बाँटा गया। उन ट्राइएंगल का क्षेत्रफल निकाल कर सूबे और फिर देश का क्षेत्रफल आँका गया था।

प्रोजेक्ट के मुखिया थे विलियम लामटन, उनके सहायक थे जॉर्ज एवरेस्ट और उनके सहायक एंड्रू स्कॉट वॉ थे। विलियम 1823 में सिरोंज, मध्यप्रदेश तक का सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया बनाया गया जिसने 1861 तक माउंट एवरेस्ट को नाप दिया, उसे मलेरिया हो गया वह इंग्लैंड लौट गया। लेकिन काम पूरा न होने की वज़ह से प्रोजेक्ट एंड्रू स्कॉट वॉ को सौंपी गई जिसने 1871 में काम पूरा करके भारत का पहला अधिकृत नक्शा बना कर दिया। उन्हीं एंड्रू स्कॉट वॉ की ब्रिटिश आर्टिलरी में एक कैप्टन थे जेम्स फ़ॉर्सायथ जिन्होने पंचमढ़ी को खोज निकाला और आज की पंचमढ़ी की नींव रखी थी।

हिंदुस्तान के सर्वे के दौरान नर्मदा घाटी को मोटा-मोटा नाप में तो ले लिया गया था परंतु नाप के ट्राइएंगल हरदा से नर्मदा पार करके हँडिया, सिहोर, श्यामपुर दोराहा, विदिशा से सिरोंज शिवपुरी ग्वालियर होते हुए आगरा, दिल्ली तरफ निकल गए थे। दूसरी तरफ नागपूर से गोंदिया, राजनांदगांव, दुर्ग, रायपुर और बिलासपुर होते हुए बिहार होकर गोरखपुर निकल गए थे। इसी बीच 1857 का संग्राम शुरू हो क्या तो काम रुक गया, वह पुनः 1861 में जाकर शुरू हुआ। सवाल उठना लाजिमी है, तो फिर अकबर के जमाने में टोडरमल ने क्या किया था। उसने सिर्फ कृषि जोत योग्य ज़मीनों को गुणवत्ता के हिसाब से नाप कर लगान तय किया था। जिलों और नगर की सीमाएं नदी नालों के अनुसार तय होतीं थीं जो आज भी देखी जा सकती हैं। जैसे तवा नदी के इस तरफ सोहागपुर तहसील और उस तरफ होशंगाबाद तहसील या नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर या होशंगाबाद जिले और उत्तर में सागर और रायसेन जिले। मुगल काल तक हिंदुस्तान के वैज्ञानिक गणना आधारित नक्शे नहीं बने थे।

© सुरेश पटवा

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आँचल : एक श्रद्धांजलि – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 
‘आँचल : एक श्रद्धांजलि’
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 
3 जुलाई, 2048. ऑप्शनल सब्जेक्ट हिंदी, क्लास टेंथ. भावार्थ के लिए मैम ने कविता पढ़ी -“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी”
“मैम, ये आँचल कैसा होता है ?”  अचकचा गई मैम. कैसे बताये ?
“आँचल पल्लू जैसा होता है.”
“मैम, ये पल्लू कैसा होता है ?” – एक स्टूडेंट ने पूछा.
“ओके. दुपट्टा देखा है ? या तुमारा ग्रान’मा का फोटू में कभी साड़ी, ओढ़नी, चुन्नी देखी होगी…वो भी नहीं……ओके. नो प्रॉब्लम. लुक एट मी, लाइक हम मॉडर्न इंडिया का वुमंस जींस और टॉप पहनता हैं ना. पहले का वुमन सलवार-कुर्ता-दुपट्टा पहनता था.” – मैम कविता से कपड़ों पर आ गई. पसंद का विषय. उन्होंने प्रोजेक्टर पर एक ओल्ड हेरिटेज साईट ऑन की.  “लुक हियर, ये सलवार, ये कुर्ता और उसके ऊपर ये जो दुपट्टा है ये पहनना कम्पलसरी था.”
“व्हाय मैम ?”
“हमारा कंट्री बैकवर्ड और दकियानूस होता था इसीलिए. जैसे जैसे कंट्री मॉडर्न बनता गया वैसे वैसे दुपट्टा कम्पलसरी से ऑप्शनल होता चला गया. उसकी जगह भी बदलती गई. पहले वो पूरे सीने पर था, फिर गले में लिपटा, फिर कंधे पर झूला. फिर लुप्त हो गया.”
“किसी ने उसे सेव नहीं किया ?”
“बचाने की कोशिशें पहले होती थीं.  एक बार एक हीरोईन ने कम्प्लेंट की – हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का. उड़ानेवाले की हवा टाईट करना पड़ी मगर दुपट्टा बचा लिया गया. ऑनलाइन कम्प्लेंट करने का चलन तो था नहीं, मीनाकुमारी को डांस परफॉर्म करके पुलिसवालों की कम्प्लेंट करानी पड़ी. बोला –‘सिपहिया से पूछो जिसने बजरिया में छीना दुपट्टा मेरा.’  पुलिसवाले को लाइन अटैच करके दुपट्टा वापस दिलवा दिया गया. फिर आर्थिक सुधारों के ट्रोजनहार्स में छुपकर जो हवा आई उसने लाल, पीले, हरे, मलमल के, शिफोन के, जार्जेट के हर तरह के दुपट्टे उड़ा दिये. अंकल सैम की हवा दिखती नहीं है मगर वह जिस देश में चल निकलती है भाषा,संस्कृति, संस्कार सब उड़ा ले जाती है.”
“मैम, वो पोयट आँचल, दूध, आँखें पानी – ऑल दिस क्यों लिखता था ?”
“हिन्दी का पोयट था ना. ओनली हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी में जीता था. ऐसा हिन्दी ही नहीं उर्दू का पोयट ने भी लिखा. यू नो, हिंदी-उर्दू का पोयट लोग का कारण हमारा देश अर्ली मॉडर्न नहीं बन सका. मौलाना हसरत मौहनी ने एक बार गलती से खेंच लिया पर्दे का कोना दफ़अतन.  महबूबा का वो मुँह छुपाना  उनकी मेमोरी में स्टोर हो गया. उन्होने गुलामअली साहब को लिखकर दिया जिन्होने लाखों लोगों को ये इंसिडेंस गा गा कर सुनाया. कितना लोग का कितना टाईम वेस्ट किया. तब कंट्री डिसाईड किया आगे से नो मोर दुपट्टा नो मोर मुँह छुपाना. उर्दू का पोयट के लिए तो रुख से सरकती थी नकाब आहिस्ता अहिस्ता. जवान लोग काम-धंधा छोड़कर घंटों छज्जे आई मीन बॉलकनी के सामने सरकी नकाब की एक झलक पाने के लिए खड़े रहते थे. प्रोडक्शन में कितने मेन-अवर्स का लॉस हुआ ! जीडीपी वेरी-वेरी लेट से बढ़ा.”
(क्लास में आखिरी बेंच पर बैठे एक लड़के ने दूसरे से फुसफुसा कर कहा – अबी वो सब चक्कर ख़त्म. अवनि से पूछ लिया आती क्या खंडाला. नखरे करे तो नेहा को लेकर निकल जाने का. टेंशन लेने का नई.)
“साईलेंट प्लीज.  नो क्रास टॉक.”
“मैम वो पोयट ने आँचल क्यों बोला दुपट्टा क्यों नहीं?”
“आँचल नार्मली साड़ी के पल्लू को कहते थे.”  मैम ने वेब-पेज बदला – “सी दिस ओल्ड फैशंड लेडी. इसने जो पहन रखा है उसे साड़ी कहा जाता था. मोस्ट बेकवर्ड इंडिया में वुमंस का यही मेन ड्रेस होता था. साड़ी का ये जो पार्ट दिख रहा है ना – कंधे से सामने नीचे आता हुआ इसे ही आँचल या पल्लू कहा जाता था. पोयट इसी की चर्चा कर रहे हैं. दूध से उनका आशय माँ की ममता से है जो कि अब भी वहीँ है और बच्चे का स्नेह भी वहीँ है – बस वो आँचल गायब हो गया है.”
गायब तो हिन्दी का कवि, उसकी कविता और उसका भावार्थ भी हो गया है बट एच्छिक विषय में सब चलता है. घंटी बजी. पीरियड ख़त्म हुआ. बाहर जाते जाते मैम ने कहा –“मैं क्राफ्टवाली मैम को बोलती हूँ. वो तुमको क्लॉथ लाकर दुपट्टा बनाकर सबमिट करने का प्रोजेक्ट करवायेंगी. ए ट्रिब्यूट टू अवर कल्चर बाय दुपट्टा.”
© शांतिलाल जैन

Please share your Post !

Shares