Learn meditation step by step. Practice meditation breath by breath.
When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.
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Instructions:
Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.
Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.
FIRST TETRAD (BODY GROUP):
Be aware of your breath around your nostrils as you breathe in and as you breathe out. Do not try to regulate your breath in any way. Observe your natural breath as it is.
Breathing in long, understand: I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.
Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.
Be aware of your body as you breathe in and as you breathe out.
Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.
Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.
Don’t worry if your mind wanders away, gently bring it back and observe your breath.
Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.
SECOND TETRAD (FEELINGS GROUP):
Be aware of your feelings you breathe in and as you breathe out.
Breathe in experiencing your feelings, breathe out experiencing your feelings.
Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.
Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.
Be aware of your mental processes as you breathe in and as you breathe out.
Breathe in experiencing mental formations, breathe out experiencing mental formations.
Breathe in tranquilizing mental formations, breathe out tranquilizing mental formations.
Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.
THIRD TETRAD (MIND GROUP):
Be aware of your mind as you breathe in and as you breathe out.
Breathe in experiencing the mind, breathe out experiencing the mind.Breathe in gladdening the mind, breathe out gladdening the mind.
Breathe in concentrating the mind, breathe out concentrating the mind.
Breathe in liberating the mind, breathe out liberating the mind.
Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.
May all beings be happy, be peaceful, be liberated.
A poetry collection written by Ms. Neelam Saxena Chandra along with co-author Simran Chandra published by Omji Publishers finds a place in Limca Book of Records for being the first book to be co-authored by a mother-daughter duo.
It is a collection of 55 Poems on different genres of life. While writing this book the Author Ms. Simran Chandrawas student of Class XII, DPS, ELDECO, LUCKNOW. Writing poetry is her passion. One of her poems was published in an international anthology and a few others in national anthologies and magazines. Ms. Neelam Saxena Chandrais an engineer by profession (General Manager (Electrical), Pune Metro). More than six hundred of her stories/poems have been published in various leading Indian as well as international journals and anthologies. She has won several awards.
Shri Tuhin A. Sinha an Indian Author and politician says – “It is a rare providence, when both, a mother and daughter write poems which are published together … Neelam & Simran are talented poets …. their poems are simple, yet immensely rassuring and inspiring. They bring out the positive side of life in every situation and encourage you to look at the brighter side of things. The effort is indeed commendable!”
(श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने आखिर रिटायर्ड लोगों की खोपड़ी “घुसपैठ के बहाने “अच्छी तरह से खंगाल ही लिया। )
घुसपैठ के बहाने
रिटायर हुए लोगों से घुसपैठ पर बातचीत ………….
(नागरिकता और घुसपैठियों को लेकर सब परेशान हैं टीवी चैनल और पार्टी वाले ज्यादा परेशान हैं चुनाव के डर से। कुछ डुकरों के टाइम पास के लिए एक सवाल पूछा गया, सबके अलग अलग जबाब पढ़िये।)
सवाल – रिटायर होने के बाद टाईम पास कैसे कर रहे हैं ? घुसपैठ के बारे में आपके क्या विचार हैं ?
बंसल जी – बैंक ने बीस साल पत्नी से दूर रखा ,अब हिसाब किताब पूरा कर रहा हूं , जमा नामे में फर्क को ढूंढ रहा हूं ।मोहल्ले वाले घुसपैठिया कह कहकर चिढ़ाने लगे हैं जब नौकरी में थे तो महीने दो महीने में घर आते थे तो सबसे मिलते – जुलते थे। अब घर ही में घुसे रहते हैं।
मिश्रा जी – लोगों को समझा रहा हूं कि बैंक ने दो साल पहले क्यूं रिटायर किया ।पड़ोसन कहती है आपको बैंक ने भले रिटायर कर दिया है पर आप तो बिल्कुल जवान लगते हैं …….. जब से उसने ऐसा कहा है तभी से उनके घर में हमारी घुसपैठ बढ़ गई है।
तिवारी जी – अरे साहब बिल्कुल मस्त हो गए हैं ,मस्ती कर रहे हैं ,पड़ोसन से गप्प करते हैं , उनके छोटे – मोटे काम कर देते हैं, घरवाली से थोड़ा झगड़ा – अगड़ा कर लेते हैं। बाकी टाइम में टीवी चैनलों पर 40 लाख घुसपैठियों के ऊपर चलने वाली बहसें और वोट राजनीति का मजा लेते रहते हैं।
जोशी जी – जब तक नौकरी में रहे, बैंक को खूब चूना लगाया ,चूना लगाने की आदत पड़ गई थी ,इसलिए चूना लगाने की जगह तलाशते हैं ।अच्छे नागरिक बनने की कोशिश कर रहे हैं पर असाम के चुनाव के पहले नागरिकता पर सवाल अचानक बहुत उठ गए हैं। घुसपैठियों पर नजर रखते हैं पर चुप रहते हैं इसलिए मोहल्ले के बच्चे चिढ़ाने लगे हैं,
“जोशी पड़ोसी कुछ भी देखे, हम कुछ नहीं बोलेगा”
बतरा जी – देखो साधो, अपनी शुरु से खुचड़ करने की आदत रही है। इसीलिए हर बात में खुचड़ करके टाइम पास कर लेते हैं। बैंक वालों से जाकर लड़ते हैं, कांऊटर वाली को परेशान करते हैं, फिर घर आकर पत्नी को पटाते हैं। मेहमानों की घुसपैठ से परेशान हो गए हैं इसलिए घुसपैठियों के बारे में कुछ बोलना अभी ठीक नहीं है।
नेमा जी – कुछ नहीं यार, हर दम कुछ नहीं करने के बारे में सोचते रहते हैं। मन में सैकड़ों इच्छाओं का द्वंद चलता रहता है मन में ऊंटपटांग इच्छाओं की घुसपैठ के कारण किसी काम में मन नहीं लगता। माल्या और नीरव मोदी की नागरिकता पर चिंतन – मनन करते हैं। जब वे लोग पचीस तीस हजार करोड़ रुपये खाकर भाग गए तो सरकार पासपोर्ट जब्ती पर नये नियम बनाने का सोच रही है इस बात से और परेशान हो गए हैं।
शर्मा जी – भोजन भजन फटाफट करते हैं, फिर भविष्य फल पढ़ के नर्मदा मैया के दर्शन करते हैं, लौटते समय भंवरलाल पार्क में डुकरों के साथ चुनाव और घुसपैठियों पर बहस लड़ाते हैं फिर बस पकड़कर मंदिर के सामने बैठ जाते हैं।
जैन साब – लड़के की दुकान में बैठ के हिसाब किताब करके कुछ महिलाओं को गलत नं के कपड़े दे देते हैं ।
विचारधारा की घुसपैठ के कारण लड़की की जमीं जमाई शादी टूट गई इसलिए लड़की की शादी के लिए बाकी टाइम में लड़का ढूंढते हैं, दरअसल में लड़की ने लड़का पसंद कर लिया था शादी के कार्ड भी छप गए थे, प्रधान सेवक की आर्थिक नीतियों पर लड़के लड़की में बहस हो गई लड़का अंधमूक समर्थक था तो शादी टूट गई।
विश्वकर्मा जी – पंचर की दुकान खोल ली है ,पंचर करने और बनाने में टाइम का पता नईं चलता। बरसात के गड्ढों में छुपीं कीलें टायर ट्यूब में घुसपैठ कर जाते हैं तो बिजनेस बढ़िया चलता है।
पांडे जी – रिटायर होने के बाद तम्बाकू चूना मलने का शौक पाल लिया। ऊंगली में चूना लगाके घिसाई करने में मजा आता है फिर बढ़िया पान लगवा कर रगड़ा डाल देते हैं,पान वाले से बतियाते हुए पीक मारते हैं और दो चार ठो पान और लपटवा के डाक्टर के यहां की लाइन में लग जाते हैं। पैरों में आयी सूजन के लिए डाॅ का कहना है कि पेट में पटारों ने घुसपैठ की है।
सोनी जी – पूछ के क्या करोगे, बैंक ने कुछ करने लायक ही नहीं छोड़ा, पूरा चूस लिया, प्रमोशन की परीक्षा में नागरिकता और घुसपैठियों का निबंध नहीं लिख पाए थे तो प्रमोशन भी नहीं दिया और लफड़ों में फंसाकर वीआरएस दे दिया।
गुप्ता जी – का बतायें भैया… रिटायर का हुए ,कोई कुछ समझतै नैई हैं, न घर के न घाट के । बीबी कुत्ता जी कह के बुलाती है और बीच-बीच में घुसपैठिया घोषित करने की धमकी देती है।
स्वामी जी – कोई काम न धाम तो डी ए का हिसाब लगाते रहते हैं समझ नईं आत तो बैंक मनेजर के पास चले जात हैं। बैंक वाला चिढ़ने लगा है गार्ड घुसने नहीं देता। आजकल डिबिया में किमाच लेकर जाते हैं जो भी मिसबिहेव करता है उसकी सीट तरफ फूंक देते हैं।
वर्मा जी– देखो भाई हम शुद्ध लाला ठहरे ,अभी भी ला ..ला…के चक्कर में रहते हैं
पहले कुछ फायदा कराओ तब सवाल का जबाब पाओ।
श्रीवास्तव जी – रिटायर होने होने के बाद ज्यादा ही काम बढ़ गए हैं, आंख ,नाक ,दिल की सर्विसिंग कराने के चक्कर में डाक्टरनी से इश्क में पड़ गए हैं। “जब सबै भूमि गोपाल की” तो कहां के घुसपैठिया……. और कैसी नागरिकता…. ।
**********अभी इतने लोग से ही बात हो पाई है,आपकी और किसी से इस बारे में बात हो तो जरूर बताईयेगा …..
(सुश्री मालती मिश्राजी का यह आलेख आपको जीवन के उन क्षणों का स्मरण करवाता है जो हम विकास की दौड़ में अपने अतीत के साथ खोते जा रहे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त कठिन था कि इस आलेख को जीवन यात्रा मानूँ या संस्मरण। अब आप स्वयं ही तय करें कि यह आलेख जीवन यात्रा है अथवा संस्मरण।)
वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया, ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है।
मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था…कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी।
बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते।
उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिर भी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि “और कितनी दूर है?” और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते “बस थोड़ी दूर” और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता।
डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं।
धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।
अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं, परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे।
कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-“मिल गई फुरसत बिटिया?” पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है।
अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं, इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके।
विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है, जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।
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हृदय की बायपास सर्जरी करवा कर रामदीन कुछ दिन भोपाल में विश्राम के बाद बहु-बेटे के साथ आ गया।
ऑपरेशन के बाद सारे परिचित , शुभचिंतक वहां घर पर मिलने आते रहे। इन सब के बीच कालोनी में ही रहने वाले अपने अंतरंग मित्र शेखर की अनुपस्थिति रह-रह कर कचोटती रही।
अपने मित्रों की सूची में जब भी शेखर की बात आती, रामदीन विषाद व रोष से भर जाता। एक वर्ष बीतने को आया किन्तु इस अवधि में न तो शेखर की ओर से और न, ही रामदीन की ओर से परस्पर एक दूसरे से सम्पर्क कर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास हुआ।
इतने अनन्य मित्र की इस बेरुखी से स्वाभाविक ही शेखर के प्रति रामदीन के मन में खीझ भरी इर्ष्या ने घर कर लिया था। समय बेसमय जब भी मित्र की याद आते ही मुंह कसैला सा होने लगता था।
वर्षोपरान्त रामदीन का पुनः मेडिकल चेकअप के लिए भोपाल जाना हुआ। वहां अस्पताल में अनायास ही शेखर से सामना हो गया, देखकर हतप्रभ रह गया।
देखा कि- शेखर अपनी पत्नी का सहारा लिए कंपकंपाते हुए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल रहा है।
पता चला कि, रामदीन के ऑपरेशन के समय से ही वह पार्किसंस की असाध्य बीमारी से ग्रसित चल रहा है।
विस्मित रामदीन के मन में अनजाने ही संवादहीनता के चलते मित्र शेखर के प्रति उपजे अब तक के सारे कलुषित भाव एक क्षण में साफ हो गए।
(34 years ago in the night of December 2-3, 1984, MIC gas was leaked from the Union Carbide, Bhopal. My poem is a tribute to all those people who lost their life in this incident. This poem has been cited from my book “The Variegated Life of Emotional Hearts”.)