English Literature – Poetry ☆ – ‘Inevitable Fate…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Inevitable Fate...’ ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Inevitable Fate…~? ☆

It’s just a thought which occurred while untangling the maze, called: Life. I found that the “Life” is a quest, an exploration of the transient nature of the human existence. Mortality reigns supreme. The flame of the time, doesn’t spare anyone. Even the most powerful authoritarian personality; be it a king or a pauper has to face the same fate. Even the all powerful “devil” having unimaginable power, glory and vanity is reduced to “a handful of ashes”.

The destiny’s message is very clear: that our evanscent life, will someday be gone, and like ashes will get merged into the dust; and, our grandeur and might will be of no use. It’s a humbling reminder of the inevitability of death and the importance of cherishing every moment of the life, living in harmony with the utmost humility.

€€€€€€€€€€€€€€

☆ ~ Inevitable Fate…~? ☆

A lifetime of grandeur with power & clout abound,

A devil who once thought himself above the rest,

Now just a handful of ashes, lies in mundane dust,

His pompous glory decimated, and legacy unblest

*

His wealth, his status, his power, all lost to time,

His existence, a brief momentary shining light,

His memory, a faint whisper, consigned to flame

Extinguished now, lost in the oblivious dark night

*

A humbling truth, awaiting us all, when death knocks

All the grandeur, all the might, gets reduced to dust,

That our lives, like ashes, will, someday, be gone

A poignant reminder, of fragile life’s inevitable trust

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

24 September 2024

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  साधन  ? ?

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’)

असंख्य आदमियों की तरह

आज एक और

आदमी मर गया,

अपने पीछे वे ही

अमर प्रश्न छोड़ गया,

समकालीन प्रश्न-

अब यह आदमी नहीं रहा

ऐसे में हमारा क्या होगा?

सार्वकालिक प्रश्न-

जन्म से पहले

आदमी कहाँ था,

मृत्यु के बाद

आदमी कहाँ जाएगा?

लगता है जैसे

कई तरह के प्रयोगों का

रसायन भर है आदमी,

जीवन की थीसिस के लिए

शोध और अनुसंधान का

साधन भर है आदमी।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-६ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-६ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सुग्रीव गुफा के सामने खूब खुला मैदान है। यहाँ कभी इंद्र पुत्र वानर राज बाली का दरबार लगता होगा। गुफा के ऊपर-नीचे वानरों का हुजूम जमा रहता होगा। इसी मैदान में श्रीराम ने पेड़ों की ओट से बालि को मारा होगा। हम सभी लोग उसी मैदान पर कदमताल करके तुंगभद्रा नदी के तीर पहुँचे। वहाँ किनारे पर कुछ नाव ढिली हैं। जो बाली को श्राप देने वाले मतंग ऋषि की गुफा तक ले जाने का एक सवारी का 500/- रुपये लेती है। नौका विहार हेतु किसी की इच्छा नहीं जागी। सभी लोग फोटोग्राफी का शौक पूरा करने में व्यस्त हो गए। हमने उत्सुक लोगों को तुंगभद्रा नदी का भूगोल समझाया।

‘तुंग’ और ‘भद्रा’ नामक दो नदियों के संगम से जन्म लेने वाली तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। नदी का उद्गम पश्चिम घाट पर कर्नाटक के ‘गंगामूल’ नामक स्थान से होता है। प्रमुख रूप से तुंगभद्रा नदी की पांच सहायक नदियां हैं, औकबरदा, कुमुदावती,  वरदा, वेदवती व हांद्री तुंगभद्रा में आकर मिलती हैं। पश्चिमी घाट के अलग-अलग पर्वत श्रृंखलाओं से निकलने वाली तुंग और भद्रा नदियां कर्नाटक के शिमोगा नामक स्थान से ‘तुंगभद्रा’ के रूप में अपनी यात्रा की शुरूआत करती है। कर्नाटक के विभिन्न क्षेत्रों से बहते हुए तेलगांना व आंध्र प्रदेश राज्य के अलग-अलग जिलों में प्रवाहित होकर अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव में आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी में मिलने के साथ ही अपना सफ़र समाप्त करती है। कृष्णा नदी आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है।

श्रीराम ने हम्पी में तुंगभद्रा के जल का आचमन किया था। यहीं श्री हनुमान पैदा हुए। महाभारत में इसे तुंगवेणा कहा गया है। पद्म पुराण में हरिहरपुर को तुंगभद्रा के तट पर स्थित बताया गया है। बाल्मीकि रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता है।  श्रीमदभागवत् में भी तुंगभद्रा का उल्लेख मिलता है,

चंद्रवसा ताम्रपर्णी  अवटोदा  कृतमाला  वैहायसी,

कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुंगभद्रा कृष्णा।

आदि गुरू शंकराचार्य ने आठवीं सदी में इसी नदी के तट पर ‘श्रृंगेरी मठ’ की स्थापना की थी। 14वीं शताब्दी में प्रसिद्ध राजा कृष्णदेवराय का विजयनगर साम्राज्य इसी नदी के किनारे बसा हुआ था। उसका बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम इसी राज्य में था।

यह समूचा क्षेत्र गोलाकार और अंडाकार चट्टानों से पटा है। लगता है इन्ही चट्टानों से बाली और सुग्रीव में लड़ाइयाँ होती होंगी। वानर सेना के सैनिक इन्ही पत्थरों से कसरत करते होंगे। इसी तरह का एक पत्थर सुग्रीव ने गुफा के मुहाने पर रखकर उसका मुँह बंद कर दिया होगा। गुफा के सामने से एक रास्ता तुंगभद्रा के किनारे तक जाता है। उससे नदी किनारे पहुँचे। वहाँ बाँस की गोल नौकाओं में छै-आठ लोगों को बिठाकर आधा घंटे का नौकायन भी कराया जाता है। एक व्यक्ति का किराया पाँच सौ रुपये बताया। किसी ने भी नौकायन करने की हिम्मत नहीं जुटाई। रामायण केंद्र के बैनर के साथ एक घंटा फोटोग्राफी और सेल्फी का खेल चलता रहा। साथियों ने सैकड़ों फोटो लिए। उनका मोबाईल का स्टोरेज भर गया। मेमोरी के लिए मोबाईल ख़ाली किए जाने लगे। अगला पड़ाव विजयनगर साम्राज्य का गौरव विरूपाक्ष गोपुरम था। जिसे देखने के पहले थोड़ा सा विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति, विकास और विनाश की कहानी जानना उपयुक्त रहेगा। विजयनगर साम्राज्य के इतिहास को जाने बगैर हम्पी की महत्ता नहीं समझ सकते हैं।

गाइड हमें पाँच-दस मिनट में हज़ार सालों का ग़लत सलत इतिहास बताते हैं और हम आँखें फाड़ उन्हें देखते रहते हैं क्योंकि हमें इतिहास पता नहीं होता है। हम्पी के इतिहास को समझने हेतु हमें विजयनगर साम्राज्य और बहमनी साम्राज्य के उद्भव तदुपरांत विखंडन को जानना होगा।

दक्षिण में इस्लाम का प्रवेश अलाउद्दीन ख़िलजी के देवगिर आक्रमण से होता है। उसका चाचा और ससुर जलालुद्दीन ख़िलजी 1290 से 1296 तक दिल्ली का सुल्तान था, उसने 1295 में अलाउद्दीन को भेलसा अर्थात् विदिशा को लूटने की अनुमति दी थी। उस समय विदिशा पाटलिपुत्र से सूरत बंदरगाह के बीच एक महत्वपूर्ण कारोबारी ठिकाना था। वहाँ कई अरबपति कारोबारियों का निवास था। अलाउद्दीन भेलसा नगर को लूटने के बाद संतुष्ट न हुआ। उसने कारोबारियों के बच्चों को गुदड़ी से लपेट कर आग से भूनने का आदेश दिया तो कारोबारियों ने हंडों में भरकर बेतवा नदी के तल में गाड़े धन का पता बता  दिया।  करोड़ों का सोना चाँदी हीरा जवाहरात लूटकर संतुष्ट न हुआ। अलाउद्दीन की निगाह दक्षिण के देवगिर हिंदू राज्य पर थी। वहाँ से लूटे धन का उपयोग दिल्ली का सुल्तान बनने में करना चाहता था।

उसने सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी से भेलसा को पुनः लूटने की अनुमति ली, और सीधा देवगिर पर धावा बोला। देवगिर से अकूत संपत्ति लूटकर मानिकपुर-कारा में गंगा नदी के इस पर डेरा डाल सुल्तान जलालुद्दीन को पैग़ाम भिजवाया कि लूट का माल इतना अधिक है कि वह एकसाथ दिल्ली नहीं पहुँचा पा रहा है। सुल्तान यहीं आकर माल ले जायें। जलालुद्दीन गंगा पार करके इस पार उतरा, तब अलाउद्दीन ने उसे क़त्ल करके दिल्ली की सल्तनत हथिया ली। 

सुल्तान बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि (वर्तमान औरंगाबाद) के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रतिवर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया। परंतु रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः उसने मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजी। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी को दिल्ली भेज दिया, जहाँ उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र ने सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।

अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-

* देवगिरि के यादव,

* दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और

* द्वारसमुद्र के होयसल।

देवगिरी के बाद, अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में उसने दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के इलाक़े असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजी, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली। इसी अवसर पर उसने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था। वह कोहिनूर हीरा इंग्लैंड के राजमुकुट की शान बढ़ाता है।

होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की। अलाउद्दीन उन राज्यों का हराकर उनसे वार्षिक कर लेने तक ही सीमित रहा। हिंदुओं को मुसलमान बनाने का काम अभी आरम्भ होना था। इस प्रकार दक्षिण भारत के तीनों समृद्ध राज्यों में इस्लाम का प्रवेश हुआ। इसका श्रेय मलिक काफ़ूर को जाता है।

हमारी बस जिस मार्ग से हम्पी की ओर जा रही है।  इसी जगह से लंकेश सीता जी को आकाश मार्ग से ले जा रहा था। तब सीता जी ने उत्तरीय वस्त्र यहाँ गिराया था। चारों तरफ़ बड़े-बड़े गोल शिलाखंड किसी अनोखे लोक का भान करा रहे हैं। शिलाखंडों के बीच में कहीं-कहीं पोखर दिख जाते हैं। इधर-उधर पेड़ों पर वानर किलोल करते हैं। यह इलाका किष्किंधा नाम से जाना जाता था। दक्षिण भारत के इतिहास में कभी अनेगुंडी सुना था। अभी जिस जगह से गुजर रहे हैं। यह वही अनेगुंडी है, जिसे पहले किष्किंधा कहा जाता था, कर्नाटक के कोप्पल जिले के गंगावती में एक गाँव है। यह हम्पी से भी पुराना है, जो तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। पास के एक गाँव निमवापुरम में राख का एक पहाड़ है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह राजा बाली के दाह संस्कार के अवशेष हैं। अलाउद्दीन खिलजी तक उस इलाक़े में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। यह इलाका हरिहर-बुक्का भाइयों का इंतज़ार कर रहा था। चौदहवीं सदी दिल्ली में ख़िलज़ी वंश  का अंत हुआ और तुर्को-अफ़ग़ान तुगलकों का समय शुरू हुआ।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 556 ⇒ समय सीमा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय सीमा।)

?अभी अभी # 556 ⇒ समय सीमा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

समय को भी क्या कोई, कभी बांध पाया है। समय अपने आप में सीमातीत भी है और समयातीत भी। हमें समय थोक में नसीब नहीं होता, टुकड़ों टुकड़ों में परोसा जाता है समय हमें। समय अपनी गति से चलता रहता है, हम समय देखते ही रह जाते हैं, और समय हमसे आगे निकल जाता है। समय की गति तो इतनी तेज है कि वह पलक झपकते ही गुजर जाता है। बहता पानी है समय।

हमें अक्सर लगता है, कि हमारे पास बहुत समय है, लेकिन हम समय को न तो ताले में ही बंद कर सकते हैं, और न ही उसे किसी बैंक में फिक्स्ड डिपॉज़िट करवा सकते हैं। समय वह जमा राशि है, जिसे जमा करो तो ब्याज पर ब्याज लगने लगता है, और जो मूल है, वह भी खतरे में पड़ जाता है।।

समय को न तो हम बचा सकते और न ही खर्च कर सकते, बस केवल इन्वेस्ट कर सकते हैं। पैसे की ही तरह, अगर समय को भी अच्छे काम में लगाया जाए, तो समय अच्छा चलता है। लोग अक्सर हमसे थोड़ा समय मांगा करते हैं। क्या उनके पास अपना समय नहीं है। क्या करेंगे, वे हमारा समय लेकर। हम भी उदार हृदय से अपना थोड़ा समय उन्हें दे भी देते हैं और फिर शिकायत करते हैं, फालतू में हमारा समय खराब कर दिया। मानो, समय नहीं, शादी का सूट हो। जिसे आप कम से कम ड्राइक्लीन तो करवा सकते हैं। खराब समय का आप क्या कर सकते हैं।

क्या हुआ, अगर उसने आपका थोड़ा सा समय खराब कर दिया। आपने जिंदगी में कौन सा समय का अचार डाल लिया। समय को तो खर्च होना ही है। आदमी पहले समय खर्च करके पैसे कमाता है और फिर खराब समय के लिए पैसे बचाकर रखता है। क्या पैसे बचाने से अच्छा समय आता है। कुछ भी कहो, खराब समय में पैसा ही काम आता है।।

पैसा बचाया जाए कि समय बचाया जाए ! समय तो निकलता ही चला जा रहा है। अच्छे समय में समझदारी इसी में है, पैसा कमाया जाए और बचाया जाए। समय तो पंछी है, समय का पंछी उड़ता जाए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 140 ☆ गीत – ।।एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 140 ☆

☆ गीत ।।एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।। विधा।। गीत ।।

***

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।

हर किसी के दिल में  निशानी  बन कर जाओ।।

***

भुला न पाए कोई  वो  किस्सा  बन कर जाना।

करना कुछ भीड़ का मत हिस्सा बन कर जाना।।

जीवन अनमोल कि सूरत पहचानी बन कर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

ये जीवन तभी सफल कि कुछ खास बनाकर जाना।

फिर न मिलेगी जिंदगी कि इतिहास बनाकर जाना।।

मत रुकें कभी कदम कि वो  रवानी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

यह जिंदगी जैसी  भी बस  एक बार मिलती है।

कोशिश वालों को  सफलता बार-बार मिलती है।।

हर किसीके दिल की तुम दीवानगी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बन कर जाओ।।

***

जिंदगी पल – पल हर  क्षण बस ढलती जा रही है।

जैसे कि बस रेत  मुठ्ठी  से फिसलती जा रही है।।

सहयोग साथ रखना कि मत अभिमानी बनकर जाओ।

एक ही मिला जीवन कि कहानी बनकर जाओ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 206 ☆ कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 206 ☆ कविता – निभानी सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

स्वार्थ की अब राजनीति है,  स्वार्थ मय व्यवहार है

सत्ता हथि‌याने को बढ़ा है हर जगह तकरार है।

समस्यायें हल न होती आये दिन नित बढ रहीं

राजनीति में लेन-देन का अब गरम बाजार है।।

 *

समझ हुई कम,  दिख रहा है, बुद्धि भी बीमार है

हौसले लेकिन बड़े हैं, पाने को अधिकार है।

 *

दल के प्रति निष्ठा घटी है दल में भी गुट बन गये-

लड़खड़ाती रहती इससे आये दिन सरकार है।

 *

भूल गये उनको जिन्होंने देश के हित जान दी

कल की पीढी के हित लगाई बाजी अपने प्राण की।

 *

हँसते फाँसी पे फूले त्याग सब कुछ देशहित

गजब की निष्ठा थी जिनको देश के सम्मान की

 *

दूरदर्शी अव रहे,  कम दृष्टि ओछी हो गई

स्वार्थ में डूबी समझ ज्यों अचानक खो गई

 *

बढ़ती जाती द्वेष-दुर्भावना  की मन में भावना

जाने क्यों सद्‌भावना की ऐसी दुर्गति हो गई

 *

राजनीति को सूझ-बूझ  समझदारी चाहिये

और सब जन सेवकों को खबरदारी चाहिये ।

 *

देश ने तो सब को, सब कुछ चाहिये जो सब दिया

निभाना अब सब को अपनी जिम्मेदारी चाहिये

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मिटे प्रकाशाचे राज्य… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ मिटे प्रकाशाचे राज्य सुश्री नीलांबरी शिर्के 

मिटे प्रकाशाचे राज्य

पडे काळोखाची मिठी

बंद पापण्यांच्या आत

सैलावती निरगाठी

*

मनातल्या निरगाठी

मनातच  सुटतात

पापणीच्या अंधारात

उरातून फुटतात

*

 उरी फुटता फुटता

 शल्य पापणीच्या काठी

 गळणारा अश्रु टिपे

 तम हलकेच ओठी

*

या तमसावरती

तिची जडलिय प्रित

तिचे दु:ख चुंबुनीया

प्रकाशी  ठेवी हसवीत

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अघटित… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?  कवितेचा उत्सव  ?

☆ अघटित… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

 हे अघटित आहे खास,

 थंडीत आकाश ढगाळ !

 मनास करते उदास,

 अन् थेंबात उगवे सकाळ!…. १

*

 उबदार थंडीची शाल,

 हेमंत ऋतु पांघरतो!

 घेऊनी ढगाची झूल,

 नकळत दिवस उगवतो…. २

*

 गेलास ऋतुरंग बदलून,

 लपलास कुठे घननिळा?

 प्रश्न पडला मम मनाला,

पावसाळा की हिवसाळा!… ३

*

 शांत, स्तब्ध निसर्गाला,

 निश्चल केले कोणी ?

 चैतन्य कधी त्या येईल,

 वाट पाहते मी मनी !…. ४

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता आणि मोह…  ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

स्वपरिचय  

शिक्षण- M Sc. (Mathematics)

कार्यक्षेत्र – गृहिणी

परिचय – संत साहित्य-भगवद्गीता, ज्ञानेश्वरी, दासबोध, गाथा, आत्माराम, अमृतानुभव, एकनाथी भागवत इ. अभ्यास सुरू आहे. त्यासंबंधी लिखाण  सुरू आहे. स्त्री संतांविषयी लिहिले आहे. काही कविता व ललित लेख लिहिले आहेत.

☆ गीता आणि मोह ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

मोह ही एक मानसिक अवस्था आहे. ते एक आवरण आहे. ज्यामुळे खऱ्या ज्ञानाला माणूस दुरावतो. हा मोह माणसाच्या विकासाच्या आड येतो. त्याचा परिणाम माणसाच्या ज्ञान, विचार आणि आचरणावर होतो. सारासार विवेक दूर होतो. मन भ्रमित होते. योग्य-अयोग्य कळत नाही.

हा मोह तीन प्रकारच्या असू शकतो. १) वस्तूचा २) सत्ता संपत्तीचा किंवा ३) व्यक्तीचा. कारणे कोणतीही असली तरी माणूस कर्तव्यमूठ होतो. आणि परिणाम त्याला स्वतःला व इतरांनाही त्रासदायक होतो. गीतेचा जन्म ही मोहातूनच झाला आहे. मोह निवारण हा गीतेचा हेतू आहे. ते गुरुच करू शकतो.

धृतराष्ट्राला झालेला पुत्र मोह. जो गीतेच्या पहिल्या श्लोकातूनच व्यक्त होतो. ‘मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।’ माझी मुले आणि पांडूची मुले काय करीत आहेत? माझी मुले आणि पांडव असा भेद त्याच्या ठिकाणी स्पष्ट दिसतो. बाह्यदृष्टीने अंध असणारा धृतराष्ट्र पुत्र प्रेमामुळे अंतःचक्षुनेही अंध झाला आहे. सारासार विचार विसरला आहे. योग्यता नसतानाही आपल्या पुत्राला राज्य मिळावे अशी त्याची इच्छा आहे. या पुत्रमोहाने आपल्या पुत्रांच्या यशासाठी कोणताही भलाबुरा मार्ग आचारण्याला त्याची ना नव्हती. म्हणून पांडवाना त्यांचे हक्काचे राज्य न देण्याच्या निर्णयाला त्यांनी विरोध केला नाही. पण हा पुत्र मोहच पुढे कौरवांच्या नाशाला कारण झाला.

दुर्योधनाला झालेला सत्तेचा मोह. सत्तेसाठी दुर्योधन कायमच पांडवाना पाण्यात पाहत आला. त्याच्या या अहंकाराचे पोषण शकुनी मामा कडून कायमच झाले. पांडवाना वनवास, विजनवास, द्रौपदी वस्त्रहरण अशी संकटांची मालिकाच भोगावी लागली. सत्तेच्या मोहापायी पांडवांना त्यांच्या वाट्याचे राज्य द्यायला दुर्योधनाने नकार दिला. उलट ‘सुईच्या अग्रावर राहील एवढीही जमीन देणार नाही’ असे उर्मटपणे सांगितले. विदूर व श्रीकृष्ण यांच्या सांगण्याचा उपयोग झाला नाही. धर्माधर्माचा त्याला विसर पडला होता. ‘जानामि धर्मं न मे प्रवृत्तिः। जानामि अधर्मं न मे निवृत्तिः।’ असे तो कबूल करतो. असा हा मोहाचा परिणाम माणसाला विचारहीन बनवितो. आपलेच करणे बरोबर असेच त्याला वाटते. कोणाचे ऐकून घेण्याच्या मनस्थितीत माणूस नसतो. दुर्योधनाचा मोह हा अहंकारातून, सत्तालालसेतून, पांडवांच्या द्वेषातून निर्माण झाला होता. म्हणून आपले हक्काचे राज्य मिळवण्यासाठी पांडवाना कौरवांबरोबर युद्ध करावे लागले. ते धर्मयुद्ध होते. अधर्माविरुद्धचे होते.

महापराक्रमी अर्जुन सुद्धा मोहात अडकला. ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेsअच्युत’ असे भगवंतांना सांगणारा अर्जुन समोर युद्धभूमीवर आप्तस्वकियांना व गुरुजनांना पाहून धर्मसंमुढ झाला. त्यांच्या विषयी करुणा निर्माण झाली. ‘ भ्रमतीव च मे मनः’ (१/३०) तो भ्रमित झाला. गांडीव गळून पडले. शरीराला कापरे भरले. क्षत्रिय धर्माचे आचरण कठीण झाले. या मोहाचे सामर्थ्य इतके जबरदस्त होते की, तो संन्यासाच्या गोष्टी करू लागला. स्वजनांना मारण्याचे पाप करण्यापेक्षा युद्ध न करण्याचा पळपुटेपणा त्याला योग्य वाटू लागला. युद्धाचा परिणाम कुलक्षयापर्यंत पोहोचला. ज्ञानेश्वर अर्जुनाच्या या स्वजनासक्तीचे वर्णन महामोह असे करतात. ‘तैसा तो धनुर्धर महामोहे। आकळीला। ।'(ज्ञा१/१९०) अर्जुनाचा पराक्रम, स्वधर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा सर्व स्वजन मोहाने झाकले गेले. उलट तो श्रीकृष्णाला आपण कसे योग्य आहोत ते ऐकवू लागला. शेवटी धर्मसंमूढ झालेल्या त्याने श्रीकृष्णाचे शिष्यत्व पत्करले. त्याला शरण गेला. ‘शिष्यस्तेsहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’ (गी२/७). मोह दूर करण्याचे काम गुरुच करू शकतो. तेव्हा कृष्णाने गीतोपदेश केला. उपदेश करताना ते म्हणतात,

यदा ते मोहकलिलं बुध्दिर्व्यतितरिष्यति।

सदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।

(गी२/५२)

जेव्हा तुझी बुद्धी हे मोहरूपी मालीन्य पार करून जाईल तेव्हाच या सर्व विचारातून तू विरक्त होशील. म्हणून मोह दूर करणे हे गीतेचे प्रयोजन ठरते. सगळी गीता सांगून झाल्यावर अठराव्या अध्यायात भगवंत अर्जुनाला विचारतात, ‘अर्जुना, तुझा मोह गेला की नाही?’ यावर अर्जुनाचे उत्तर फार सुरेख आहे. 

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा तत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोsस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

(गी. १८/७३)

भगवंतांनी अर्जुनाचा मोह दूर केला. तो संशय मुक्त झाला. श्रीकृष्णाच्या बोलण्याप्रमाणे करायला तयार झाल्या. तशी कबुली त्याने दिली. मोहनिरसन हे गीतेचे फलित प्राप्त झाले. नातेवाईकांच्या विषयीच्या ममतेतून, करुणेतून अचानक निर्माण झालेल्या मोहाचे निरसन झाले. तो युद्धाला तयार झाला. अज्ञानाने नाही तर पूर्ण ज्ञान होऊन, स्वतःच्या इच्छेने. येथे कोणतीही बळजबरी नाही. अंधश्रद्धा नाही.

अर्जुनाला मोहाचे दुष्परिणाम सांगणारे पंधरा-वीस श्लोक तरी गीतेत आहेत. वेळोवेळी प्रसंगानुरुप ते सांगून अर्जुनाला मोह किती हानी कारक आहे आणि मोहातून बाहेर पडणे कसे श्रेयस्कर आहे हे भगवंतांनी अर्जुनाला पटवून दिले. आणि शेवटी अर्जुन जेव्हा युद्ध करायला तयार झाला तेव्हा भगवंतांची खात्री झाली की गीतोपदेशाचे सार्थक झाले.

अशाप्रकारे जग हे मोहाने बाधित झालेले आहे. रामायणात अगदी सीतेलाही कांचनमृगाचा मोह आवरला नाही. हा व्यक्तिगत पातळीवरचा आणि शुल्लक गोष्टीसाठी, तरीही तो तिला टाळता आला नाही. म्हणून राम रावण युद्ध झाले. तर अर्जुनाला स्वजनासक्ती रूप मोह झाला पण तो भगवंतांना टाळता आला. दूर करता आला. म्हणून महाभारताचे युद्ध झाले. दोन्हीत दुष्ट शक्तींचा पराभव आहे. पण दोघांच्या मुळाशी मोहच आहे.

 आपण तर सामान्य माणसं आपल्या रोजच्या धकाधकीच्या जीवनात स्पर्धा आहे, संघर्ष आहे, हेवेदावे मत्सर आहे. त्यातून अनेक मोहाचे प्रसंग येत असतात. त्यातूनच आपण आपल्याला सांभाळले पाहिजे. अर्जुनाला सावरणारा तो भगवंत आपल्याही हृदयात आहे याची जाण ठेवून त्याचे स्मरण करून विवेकाने अविवेकावर मात करावी. स्वतःचा तोल धळू देऊ नये. नेहमी सावध असावे. हेच अर्जुनाच्या उदाहरणांनी सर्व समाजाला भगवंतांना सांगायचे आहे. शेवटी आपण सारे अर्जुन आहोत.

मोहाविषयी सांगणारे गीतेतील श्लोक क्रमांक

२/६३, ४/३५, ५/२०, ६/३८, ७/१३, ७/२०, ७/२५, १५/५, १५/१९, १६/१६, १७/१३, १८/७, १८/२५, १४/२२……

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सामान… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? जीवनरंग ?

☆ सामान… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

नुकतीच दिवाळी होऊन गेली आणि दिवाळी निमित्ताने भारतात आलेली कीर्ती परत अमेरिकेत जायला निघाली.

आई- वडिल, सासू -सासरे इतर काही नातेवाईक यांच्या गोतावळ्यात बसलेली कीर्ती एका डोळ्यात हसू एका डोळ्यात आसू घेऊन रमलेली होती.

सगळे तुला जाताना हे हवे का? ते हवे का? विचारत होते. आई- सासूबाई वेगवेगळी पिठे लोणची इ. खायचे पदार्थ द्यायची तयारी करत होते.

 कीर्ती म्हणाली किती सामानाची अदलाबदल करत असतो ना आपण••• लहानपणची भातुकली बाहुला बाहुली लग्नाचे वय झाले की सोडतो, लग्न झाले की माहेर, माहेरच्या काही गोष्टी सोडतो, लग्नानंतरही नवर्‍याची बदली, दुसरे घर बांधणे, ई काही कारणाने नेहमीच सामान बदलत रहातो. आणि मग बदल हा निसर्ग नियम आहे असे वाक्य कीर्तीला आठवले आणि आपण सतत सामान बदलतो आहे म्हणजे नैसर्गिक जीवन जगतो आहे असे वाटले.

आता सुद्धा भारतात यायचे म्हणून अमेरिकेहून काही सामान मुद्दाम ती घेऊन आली होती आणि जाताना ते सामान तिकडे मिळते म्हणून येथेच सोडून नव्याच सामानासह ती अमेरिकेला निघाली होती.

आपल्या माणसांचे प्रेम जिव्हाळा पाहून ती सुखावली असली तरी यांना सोडून जायचे म्हणून मन भरून येत होते.

कितीही निवांत सगळी तयारी केली, आठवून आठवून आवश्यक सामानाने तिची बॅग भरली तरी ऐनवेळी जाताना लगीन घाई होऊन कोणी ना कोणी अगं हे असू दे ते असू दे म्हणून तिच्या सामानात भर घालतच होते.

जाण्याचा दिवस आला आणि सगळे सामान घेऊन ती बाहेर पडली आणि गोतावळा भरल्या अंत:करणाने तिला निरोप देत होते. बायबाय टाटा करत होते आणि अरे आपले खरे सामान म्हणजे हा गोतावळा आहे आणि तेच आपण येथे ठेऊन अमेरिकेत जात आहोत या विचाराने तिच्या काळजात चर्रर्रss झाले आणि ते भाव तिच्या डोळ्यातून गालावर नकळत वाहिले.

काही जण विमानतळापर्यंत तिला सोडायला आले होते. तेथेही पुन्हा यथोचित निरोप घेऊन कीर्ती एकटीच आत गेली. फ्लाईटला अजून उशीर असल्याने वेटिंगरूम मधे बसली आणि आपली मुले नवरा तिकडे अमेरिकेत वाट पहात आहेत. तिकडे आपले घर आहे आपल्याला त्यासाठी तिकडे जावेच लागणार••• नाईलाज आहे याची जाणिव होऊन कीर्ती सावरली.

तरी तिच्या मनातून इथले क्षण, इथला परिवार त्यांचे बोलणे हसणे वागणे हे जातच नव्हते. तिकडच्या आठवणींनी जबाबदारी तर इकडच्या आठवणीतून जपलेली आपुलकी माया प्रेम दोघांची सरमिसळ होऊन मन हेलकावू लागले असतानाच तिला तिचे कॉलेजचे दिवस पण आठवू लागले•••

ती आणि विजय एकाच कॉलेजमधे वेगवेगळ्या शाखांमधे शिकत असले तरी स्पर्धांच्या निमित्ताने एकत्र येत होते. दोघांचे विचार जुळले आणि नकळत ते प्रेमात गुंतले. पण लग्न करायचे म्हटल्यावर त्याच्या घरून कडकडून विरोध झाला आणि विजयनेही तिला सॉरी म्हणून विसरून जा म्हटले.

किती भावूक झाली होती ती••• त्यातून नकळत तिच्या तोंडून पूर्ण गाणेच बाहेर पडले होते•••

मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है – २

ओ ओ ओ ! सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं

और मेरे एक खत में लिपटी रात पड़ी है

वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो – २

मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है – २

 

पतझड़ है कुछ… है ना ?

ओ ! पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट

कानों में एक बार पहन के लौट आई थी

पतझड़ की वो शाख अभी तक कांप रही है

वो शाख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो – २

 

एक अकेली छतरी में जब आधे आधे भीग रहे थे – २

आधे सूखे आधे गीले, सुखा तो मैं ले आयी थी

गीला मन शायद बिस्तर के पास पड़ा हो ! 

वो भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो।।

एक सौ सोला चांद कि रातें एक तुम्हारे कां0धे का तिल – २

गीली मेंहदी कि खुशबू, झुठ-मूठ के शिकवे कुछ

झूठ-मूठ के वादे सब याद करा दूँ

सब भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो – २

एक इजाज़त दे दो बस, जब इसको दफ़नाऊँगी

मैं भी वहीं सो जाऊंगी

मैं भी वहीं सो जाऊंगी

खरंच असे कितीतरी सामान आपण आपल्या मनातही ठेवत असतो नाही का? पण परिस्थिती आली तर अवघड असूनही ते सामानही फेकून देता आले पाहिजे. आणि तेच कीर्तीने केले असल्याने ती नव्या माणसाचे नव्या घरातले सामान त्यामधे ठेऊ शकली होती.

मग अध्यात्माने तिचे मन नकळतच भरले आणि आपल्या मनाची सफाई जो नेमाने करतो त्याचे जीवन सौख्य शांती समाधानाने भरून पावते हे वाक्य आठवले. काही लोकांबद्दलचा राग, मत्सर, हेवा ई. अनेक विकारांचे सामान मनात साठले तर शांती समाधान सौख्य ठेवायला जागा उरत नाही म्हणून वेळीच हे नको असलेले सामान बाहेर फेकून दिले पाहिजे तरच सगळे व्यवस्थित होऊ शकते. याचा अनुभव तिने घेतलाच होता.

फ्लाईटची वेळ आली आणि ती सगळे सोपस्कार करून विमानात बसली मात्र, तिला जाणवले साधा प्रवास म्हटला तरी आपण किती सामान जमवतो? आधारकार्ड, पासपोर्ट, व्हिसा, एअर टिकेट••• प्रवास संपला तर टिकेट फेकून देतो पण इतर सामान जपूनच ठेवतो.

अमेरिकेत पोहोचायला २२ तासांचा अवधी होता. कीर्तीचे विचारचक्र चालूच होते.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         तिच्या बाजूच्या सीटवरील व्यक्ती सांगत होती, त्या व्यक्तीचे वडील काही दिवसांपूर्वी वारले आणि त्यासाठी सगळी महत्वाची कामे सोडून त्या व्यक्तीला भारतात यावे लागले होते.

पल्याच विचारात गर्क असलेली कीर्ती अजून विचारात गढली गेली. जाणारी व्यक्ती निघून गेली पण तिने जमा केलेली माया मालमत्ता स्थावर जंगम हे सगळे इथेच सोडून गेली की••• हौसेने, जास्त हवे म्हणून, आवडले म्हणून, कधीतरी उपयोगी पडेल म्हणून, आपल्या माणसांना आवडते म्हणून आयुष्यभर माणूस कोणत्याना कोणत्या कारणाने सामान जमवतच जातो पण तो••• क्षण आला की सगळे सामान येथेच ठेऊन निघूनही जातो•••

तेवढ्यात तिला आठवले कोणीतरी सांगितले होते की परदेशात जायचे तर तिथली करंन्सी न्यायला लागते. मग इथले पुण्यकर्म हीच परलोकातील करन्सी असल्याने हे पुण्यकर्माचे सामानच जमवले पाहिजे.

ती अमेरिकेत पोहोचली होती पण आता ती पुण्यकर्माचे आधारकार्ड, स्वर्गाचा व्हिसा आणि सुगुणांचा पासपोर्ट हे सामान जमवण्याच्या विचारातच

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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