हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्षितिज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – क्षितिज ? ?

छोटे-छोटे कैनवास हैं

मेरी कविताओं के ;

आलोचक कहते हैं,

और वह बावरी

सोचती है-

मैं ढालता हूँ

उसे ही अपनी

कविताओं में,

काश!

उसे लिख पाता

तो मेरी कविताओं का

कैनवास

क्षितिज हो जाता!

?

© संजय भारद्वाज  

संध्या 5:31, दि. 25 दिसंबर 2015

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 160 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 160 – मनोज के दोहे ☆

महा- कुंभ का आगमन, बना सनातन पर्व।

सकल विश्व है देखता, करता भारत  गर्व।।

 *

प्रयाग राज में भर रहा, बारह वर्षीय कुंभ।

पास फटक न पाएगा, कोई शुंभ-निशुंभ।।

 *

गँगा यमुना सरस्वती, नदी त्रिवेणी मेल।

पुण्यात्माएँ उमड़तीं, धर्म-कर्म की गेल।।

 *

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर संक्रांति पर्व।

ब्रह्म-महूरत में उठें, करें सनातन गर्व।।

 *

गंगा तट की आरती, लगे विहंगम दृश्य।

अमरित बरसाती नदी, कल-कल करती नृत्य।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 328 ☆ लघुकथा – “एंकर…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 328 ☆

?  लघुकथा – एंकर…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह एंकर है। शो होस्ट करती है। उस पर कभी लाइव कंसर्ट, कभी टीवी  तो कभी रेडियो के एंकर की जिम्मेदारी होती है। लाइव शो के उन घंटों में बिना किसी फ्लाइट में बैठे ही उसका फोन फ्लाइट मोड में होता है, और वह दुनियां से बेखबर, दर्शकों को अपनी खनखनाती आवाज से एक स्वप्न लोक में ले जाती है। जब वह बोलती है , तो बस वह ही बोलती है, शो को एक सूत्र में बांधे हुए। जैसे एंकर तूफानी समुद्र में भी जहाज को स्थिर बनाए रखता है। उसके लाइव शो भी बस उसके इर्द गिर्द ही होते हैं।  हर शो के बाद लोग उसकी आवाज के उतार चढ़ाव और संयोजन की प्रशंसा में इंस्टा पर कमेंट्स करते हैं। उसे अपने स्टड होस्टिंग टेलेंट पर नाज होता है।

लेकिन आज स्थिति अजब थी, उसका टी वी शो शिड्यूल था, और उसी वक्त उसके बचपन की सखी नीरा का रो रो कर बुरा हाल था। नीरा की मम्मी मतलब उसकी रीमा मां जिन्होंने बचपन में उसके बेजान घुंघराले उलझे बालों में तेल डालकर उसकी खूब हेड मसाज की थी, उसी वक्त आपरेशन थियेटर में थीं। सच कहें तो उसके स्टड व्यक्तित्व को गढ़ने में रीमा मां का बड़ा हाथ था। वे ही थीं जो उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे दुनियादारी के पाठ पढ़ाया करती थी, और उसे उसके भीतर छिपे टेलेंट को हौसला दिया करती थीं। उनके ही कहने पर उसने पहली बार अपने स्कूल में एनुअल डे की होस्टिंग की थी। इसी सब से  पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली की मम्मी को वह  कब आंटी से रीमा मां कहने लगी थी, उसे याद नहीं।

इधर स्टूडियो में उसका लाइव शो टेलिकास्ट हो रहा था, उधर आपरेशन थियेटर में रीमा मां का क्रिटिकल आपरेशन चल रहा था। बाहर नीरा हाथों की अंगुलियां भींचे हुए कारीडोर में चक्कर लगा रही थी। उसका टेलिकास्ट पूरा हुआ और वह अस्पताल भागी, वह नीरा के पास पहुंची ही थी कि आपरेशन थियेटर के बाहर लगी लाल बत्ती बुझ गई। डाक्टर सिर लटकाए बाहर निकले, आई एम सॉरी, उन्होंने कहा। नीरा उसकी बांहों में अचेत ही हो गई। उसने नीरा को संभाला, और उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगी।

विषम स्थिति से उसे खुद को और नीरा को निकालना होगा, वह अपनी रीमा मां की एंकर है, स्टड और बोल्ड।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – कूड़ेदान )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ?

पिछली रात मेरे घर में कुछ मेहमान आए थे, रात को सोने में देरी हो गई थी तो सुबह न जल्दी नींद खुली और न घर का कूड़ा मुख्य दरवाज़े के बाहर रखा।

सुबह आठ बजे के करीब घंटी बजी। मुझे कुछ देर और सोने की इच्छा थी पर दरवाज़े पर कौन है यह तो देखना ही था। मैं झल्लाकर उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने मोहल्ले का सफ़ाई कर्मी राजू खड़ा था। मुस्कराकर नमस्ते कहकर बोला, तबीयत ठीक नहीं माताजी?

मैंने अलसाते हुए कहा – नहीं, ठीक है बस नींद नहीं खुली।

– आपको डायाबेटिज़ है माताजी ?

– हाँ राजू, बहुत साल हो गए। तुम्हें कैसे पता?

– आपके सूखे कूड़े दान में इंजेक्शन का ढक्कन रहता है न तो मालूम पड़ा। रोज़ सोचता हूँ पूछूँ पर आप सुबह ही कूड़ा रख देती हैं तो मुझे मौका नहीं मिलता पूछने का। अपना ध्यान रखो माताजी।

– अरे राजू कूड़ा तो सुबह अंकल ही रखते हैं। आज वे मंदिर चले गए और मेरी नींद न खुली। बेल बजाकर कूड़ा उठाने के लिए थैंक यू राजू।

सफ़ाईवाला राजू कूड़ा लेकर चला गया।

मुझे मेरे प्रति उसकी चिंता और सद्भावना अच्छी लगी। यही तो इन्सानियत होती है।

कुछ दिन बाद मुझे कुछ सामान लेने के लिए पास की दुकान जाना था। मैं सामान लेकर लौटी तो थोड़ी थकावट के कारण मोहल्ले के एक बेंच पर बैठ गई।

बेंच के पीछे से कुछ परिचित -सी आवाज़ आई तो मैंने बेंच के पीछे झाँककर देखा। सफ़ाईवाला राजू और उसका साथी बानी दोनों बेंच के पीछे तंबाकू खाने बैठे थे।

हमारे मोहल्ले के बेंच सिमेंट से बने ऊँचे बेंच हैं। कोई पीछे बैठा हो तो पता नहीं चलता।

मैं चुपचाप बैठी रही। वे आपस में बातें करने लगे।

– “606 वाले अंकल लगता है बहुत दारू पीते हैं। रोज़ बोतलें निकलती हैं उनके घर से। ” राजू बोला।

– “उनको छोड़ ई बिल्डिंग 201 की मैडम हैं न जो अकेली ही रहती हैं, अरे वह मोटी सी, बहुत ज़ोर से हँसती है वह तो 606 की भी गुरु है। ” बानी बोला।

– क्यों उनकी बोतलें ज़्यादा होती है क्या?

– बोतलें तो होती ही हैं साथ में खूब सिगरेट भी फूँकती हैं। वह तो मुझे हर महीने 100 रुपये एकश्ट्रा देती है बोतलें उठाने के लिए। फिर बोतलें बेचकर मैं भी कुछ और रुपया कमा लेता हूँ। आपुनको तो फायदा है रे पर उनका क्या?

– सही है। बोतलें बेचकर कमाता तो मैं भी हूँ।

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दोनों शायद मुँह में ठूँसे हुए तंबाकू का मज़ा ले रहे थे।

थोड़ी देर बाद राजू बोला- लाश्टवाली ऊपर के घर में जो साहब और मैडम रहते हैं न वे बहुत बाहर से खाना मँगवाकर खाते हैं।

– तेरेको कैसे मालूम?

– अरे बाज़ार के वे गोल काले डिब्बे नहीं क्या आते सफेद ढक्कनवाले। अक्सर सूखे कचरे में वे पड़े रहते हैं और खाना बरबाद भी करते हैं।

– ये अमीरों के चोंचले ही कुछ अलग होते हैं।

– सही कहा इनको अन्न के लिए कोई सम्मान नहीं रे। खाना बरबाद करना तो अमीरी के लक्षण हैं। एक हमी को देख लो दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक लोगों के घर- घर जाकर कूड़ा उठाते रहते हैं। शाम तक तो आपुन के बदन से भी कूड़े का बास आता है। साला नशीबच खोटा है अपुन का।

– सब भाग्य का खेल है रे ! आपुन लोगों के नसीब में गरीबी लिखी है। पता नहीं इन बड़े अमीरों को खाना फेंकने की सज़ा कभी मिलेगी भी कि नहीं।

– मिलती है रे सज़ा, झरूर मीलती है। वो 303 की ऊँची माताजी है न, बड़ी सी बिंदी लगाती है, उसको डायाबिटीज़ है। यार ! कभी तो कुछ बुरा किया होगा न जो आज रोज़ खुद कोइच सुई टोचती रहती है। बुरा लगता है रे बुड्ढी दयालु है। हम गरीबों को अच्छा देखती भी है पर देख भुगत तो रही है न?

मैं और अधिक समय वहाँ न बैठ सकी। कुछ तीव्र तंबाकू की गंध ने परेशान किया और कुछ उनकी आपसी बातों ने।

मैं मन ही मन सोचने लगी कि अपना घर साफ़ करके कूड़ा जब हम बाहर रखते हैं तब प्रतिदिन कूड़ा साफ़ करनेवाला घर के भीतर के इतिहास -भूगोल की जानकारी पा जाता है। हमारे खान -पान और चरित्र का परिचय शायद हमारे कूड़ेदान ही बेहतर दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

23/10/24, 3.30pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 583 ⇒ संकल्पों का संविधान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकल्पों का संविधान।)

?अभी अभी # 583 ⇒ संकल्पों का संविधान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नया वर्ष, नया संकल्प, जितने वर्ष, उतने संकल्प। संकल्प के प्रति इतनी निष्ठा, मानो संकल्प नहीं संविधान हो। संकल्प और संविधान में कोई अंतर ही नहीं रह गया। आम आदमी संकल्प और संविधान दोनों से अनजान होता है। शायद अब उसे बाइबल और रामायण की तरह संविधान का भी पाठ करना पड़े। जागो, नागरिक जागो।

मेरी और संविधान की उम्र लगभग बराबर ही है। हिंदी में कहें तो ” मैं भी ७५ भाग रहा हूं। ” (I am also running 75 .)

संकल्प को तोड़ने की संविधान में कोई सजा नहीं है, लेकिन संविधान का पालन अनिवार्य है। संविधान में अगर कर्तव्य है तो अधिकार भी। संकल्प में केवल आपका विवेक काम करता है, शुभ संकल्प से बड़ा कोई नव वर्ष का उपहार नहीं।।

वैसे तो संकल्प विकल्प मन ही करता है, लेकिन संकल्प मन की लगाम को कसने का एक स्थूल प्रयास है। मन के घोड़े बड़े चंचल होते हैं, और वे किसी चाबुक अथवा लगाम के गुलाम नहीं। यह निर्मोही मन खुद ही हमें मोह के जाल में फांस लेता है और संकल्प की काट, कोई ना कोई सुविधाजनक विकल्प ढूंढ ही लेता है।

आत्मा की तरह मन भी शरीर में कहीं दिखाई नहीं देता। नित्य, शुद्ध और अजर अमर होते हुए भी, जिस तरह जीव के संपर्क में आकर यह जीवात्मा हो जाती है, ठीक उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ और मोह के संस्कारों में पड़कर हमारा शुद्ध और पवित्र मन भी मैला हो जाता हैं।।

घर की मैली चादर तो फिर भी आसानी से धोई, सुखाई जा सकती है, लेकिन मन का मैल साफ करने का कोई सर्फ अथवा डिटर्जेंट अभी ईजाद नहीं हुआ। बस दही की तरह मन को मथकर पहले मक्खन और बाद में उसे तपाकर ही शुद्ध चित्त वाला घी प्राप्त हो सकता है। मन को मथना और फिर उसे तपाना ही तो शुभ संकल्प का विधान है।

जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, उसी तरह छोटे छोटे संकल्पों से ही मन रूपी दैत्य पर काबू किया जा सकता है। संकल्प का कोई पल नहीं होता, कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता।।

जिस तरह संविधान में अनुच्छेद होते हैं और संविधान की आत्मा को चोट पहुंचाए बिना भी समय और परिस्थिति अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार संकल्पों में भी विकल्पों का प्रावधान भी है। आपने एक जनवरी को ही संकल्प ले लिया कि आज से पूरे वर्ष सुबह ठंडे पानी से स्नान करूंगा, लेकिन अगर दो रोज बाद ही अगर जुकाम और बुखार आ जाए, तो संकल्प में भी संशोधन का विधान है। आपातस्थिति में गर्म पानी से भी स्नान किया जा सकता है।

कहीं कहीं तो संकल्पों में भी मध्यम मार्ग ढूंढ लिया जाता हैं, यह चित्त ही कई अगर और मगर लगा लिया करता है। कुछ लोग प्रवास के दौरान सभी संकल्प त्याग देते हैं, तो कुछ लोग विवाह जैसे मंगल कार्य के लिए अपने आपको संकल्प मुक्त कर देते हैं। इस तरह संकल्प के संविधान के सभी अनुच्छेदों में आपको छेद ही भले ही मिल जाएं, लेकिन फिर भी वे कभी संकल्पों की आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं करते। जिस तरह पंडित जी जल के आचमन के साथ कुछ संकल्प लेने को कहते हैं, वे स्वत: ही जल के साथ, आपात धर्म के दौरान, लिया हुआ संकल्प भी छोड़ देते हैं। आखिर संकल्प भी हमारे मन की खेती ही तो है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 214 – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻लघु कथा 🌻 कुंभ स्नान 🌻

सारा विश्व, भारतवर्ष प्रयागराज में आस्था के प्रतीक कुंभ महोत्सव में मांँ गंगा स्नान महत्व को अपना धर्म – कर्म की राह में एक कदम आगे बढ़ा रहा है। जय- जयकार करते सभी सोशल मीडिया, चैनल भक्ति से सराबोर दैनिक समाचार पत्र, और जगह जगह कुंभ जाने की इच्छा।

श्री राम और रामायण पर आस्था और पूर्ण विश्वास रखने वाली श्रेया का विधिवत चौपाई का पठन करना प्रतिदिन का उसका नियम था।

वह कर्म का लेख और भाग्य विधाता को सर्वोपरि मान कर अपने जीवन में आने वाली सभी कठिनाईयाँ सब सहती जा रही थी। ।

घर के आसपास रिश्ते- नाते, अडोसी – पड़ोसी, कुटुंब परिवार सभी कुंभ जाने की बात कर रहे थे। ठिठुरती ठंड में पतिदेव पेपर पढ़ने में तल्लीन।

चाय लेकर सोची वह भी याचना करके देखे की कुंभ ले चले। धीरे से दबी जुबान में श्रेया ने कहा – – सुनिए सभी कुंभ स्नान को प्रयागराज जा रहे हैं क्या? हम लोग भी जाएंगे।

कुटिलता भरी मुस्कान लिए अत्यधिक कड़वाहट भरे शब्दों का इस्तेमाल करते सौरभ उठा बाथरूम से भरी बाल्टी का पानी श्रेया के ऊपर डालते बोला – – हो गया पतिदेव के हाथ से कुंभ स्नान। इस जन्म तुम आराम से स्वर्ग पहुँच जाओगी। ठंड की सिहरन से श्रेया कांपने लगी।

पास के मंदिर में घंटी की आवाज और जोर-जोर से रामायण की चौपाई सुनाई दे रही थी—-

बरु भल बास नरक कर ताता।

दुष्ट संग जनि देई बिधाता।।

🙏हर हर गंगे 🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 116 – देश-परदेश – ठंड बहुत है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 116 ☆ देश-परदेश – ठंड बहुत है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इन शब्दों के उपयोग से हम अपनी लेट लतीफी पर पर्दा डालने का कार्य करते हैं। मौसम को हथियार बनाना सब से आसान जो होता हैं।

कुछ दिन पूर्व जयपुर से दिल्ली प्रातः काल टैक्सी से यात्रा करनी थी। जयपुर से जाने वाले वर्तमान में परिचितों के लिए मिठाई के स्थान पर विश्व प्रसिद्ध कचौरी चाहे प्याज,कोटा या दाल वाली को ही प्राथमिकता देते हैं। मेजबान भी मीठे के नाम से परहेज करते हैं।

घर के पास के कचौरी निर्माता को फोन पर जानकारी प्राप्त की कितने बजे कचौरी उपलब्ध हो जाएगी। उसने साढ़े सात पर सभी वैरायटी की गारंटी ली। सुबह जब आठ बजे उसके यहां पहुंचे तो बोला अभी तो आधा घंटा और लगेगा। उसने भी ठंड का हवाला दे कर हमारे गुस्से को ठंडा कर दिया। हमने भी तर्क दिया क्या ठंड अचानक आ गई है ? वो हंसते हुए बोला इतनी देरी तो स्वाभाविक हैं। रात को दुकान बंद करने के समय बहुत देरी हो जाती हैं। आजकल लोग निशाचर हो गए हैं। स्विगी वाले “कचोरीखोरों” को रात्रि ग्यारह बजे तक घर पहुंच सेवा देने में तत्पर रहते हैं। आप जैसे बुजुर्ग ही सुबह सुबह हमारी दुकान पर आकर बहस कर दिमाग खाते हैं।

हमारी समझ में आ गया, इसे अवश्य बस कंडक्टर और सेवानिवृत आई ए एस के थप्पड़/ झगड़े वाली कहानी की जानकारी होगी। हम भी आधे घंटे तक इंतजार कर कचौरी ले कर आ गए। अब ठंड बहुत बढ़ गई, मोबाइल पर उंगलियां नहीं चल रहीं हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #269 ☆ अंधाराच्या छाताडावर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 269 ?

☆ अंधाराच्या छाताडावर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

कोणी नसता सोबत माझ्या सोबत करतो मला काजवा

अंधाराच्या छाताडावर आहे दिसतो मला काजवा

 *

अंधाराला घाबरते मी त्यास बरोबर कळते आहे

सामसूम ह्या रस्त्यावरती कवेत धरतो मला काजवा

 *

धरून हाती चुंबन घ्यावे असे वाटते जेव्हा जेव्हा

तेव्हा हाती लागत नाही पाहुन पळतो मला काजवा

 *

वैरी नाही मी तर त्याची हे त्यालाही माहित आहे

जवळी जाता पळून जातो का घाबरतो मला काजवा

 *

मैत्र जमवुनी कधी कधी तो चंद्रावरती करतो स्वारी

नको नको त्या खोड्या करतो आणिक छळतो मला काजवा

 *

आकाशी तो फिरतो म्हणुनी त्यास वाटते तारा झालो

दृष्टी माझी पक्की आहे सहजच कळतो मला काजवा

 *

कधी अचानक अंधारातच गायब होतो कळण्या आधी

मला एकटे सोडुन जातो भय दाखवतो मला काजवा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कवीनायक… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कवीनायक… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

कविच्या उरात शब्दांची वरात

कल्पना भरात विवेकशृंगार.

 *

मनाच्या माहेरी भावना दाटती

अक्षरे भेटती हृदय स्पंदनी.

 *

नाचती आनंदे ऋतूंची प्रसंगे

निसर्ग अभंगे चरण पाखरे.

 *

ऐसेही रचित प्रज्ञेच्या सेवेत

कवण कवेत विसावे प्रतिभा.

 *

जे न देखियती तेजस्वी अलोक

कृपेचा पाईक कवीचे जीवन.

 *

लेखणी प्रसन्न सत्याचे दृष्टांत

कवीचा निष्ठांत आत्माही कविता.

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जरी निसटले बरेच काही… ☆ सौ. सुनिता जोशी ☆

सौ. सुनिता जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जरी निसटले बरेच काही… ☆ सौ. सुनिता जोशी ☆

जरी निसटले बरेच काही…

थोडे नवे गवसत गेले…

ओंजळ थोडी रिती झाली…

तरी झरे नवे बहरून आले…

 *

असेच आले वादळ काही…

क्षणात कुणास घेऊन गेले…

नाती काही विरत गेली…

पण बीजांकुरही दिसू लागले…

 *

खरे-खोटे दिसले काही…

सत्तेपुढे झुकून गेले…

विश्वासाची साथ बदलली…

तरी डाव नवा टाकून आले…

 *

निखळ जगणे संपले काही…

स्वार्थीच सारे बनून गेले…

मानवतेची हाक हरपली…

पण नव्या जाणिवा दावू लागले…

वाईट-साईट संपावे काही…

गतवर्षाच्या संध्याकाळी…

माणुसकी ही जात उरावी…

नव्या वर्षाच्या गर्भाठायी…

© सौ. सुनिता जोशी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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