English Literature – Articles ☆ The Foundations of Happiness and Well-being: A Positive Psychology Perspective – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ – The Foundations of Happiness and Well-being: A Positive Psychology Perspective – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Happiness is more than fleeting joy; it encompasses a sense of contentment, purpose, and the belief that one’s life is meaningful and worthwhile. Positive psychology offers insights into how we can cultivate this deeper sense of well-being by focusing on key elements and practical strategies.

The Five Pillars of Well-being:

Positive psychology identifies five essential components of well-being:

  1. Positive Emotion: Experiencing joy, hope, warmth, and contentment. These emotions can relate to the past (e.g., satisfaction, pride), the present (e.g., calm, pleasure, flow), or the future (e.g., hope, optimism).
  2. Engagement: Deep involvement in activities that capture our interest and challenge us. This state, known as “flow,” occurs when we lose track of time and are fully absorbed in what we are doing.
  3. Relationships: Strong connections with family, friends, and colleagues bring richness to life. Relationships flourish through mutual support, regular interactions, and meaningful communication.
  4. Meaning: Finding purpose by connecting to something larger than ourselves, whether through work, spirituality, or contributing to society.
  5. Accomplishment: Achieving goals and recognising our successes provides motivation and fulfilment.

Each of these pillars can be cultivated to enhance overall well-being.

Understanding the Happiness Formula:

Happiness, according to positive psychology, is influenced by three factors:

H = S + C + V

  H: Enduring level of happiness.

  S: Set range of happiness, influenced by genetics (approximately 50%).

  C: Circumstances of life (around 10%).

  V: Voluntary activities (about 40%), which we can control.

While our genetic predisposition and life circumstances play a role, a significant portion of our happiness comes from intentional actions.

Common Barriers to Happiness:

  1. The Happiness Thermostat: Our happiness tends to revert to a baseline level regardless of life’s highs or lows.
  2. The Hedonic Treadmill: We quickly adapt to positive changes, leading to rising expectations and diminishing satisfaction.

 Strategies to Boost Happiness:

  1. Practise Gratitude: Reflect daily on three things you are grateful for. This “What-Went-Well” exercise shifts focus to the positives.
  2. Engage Fully: Immerse yourself in activities that bring you joy or challenge you. Pursue hobbies, sports, or creative endeavours.
  3. Foster Relationships: Build strong social ties by showing interest, offering support, and creating rituals, such as shared meals or regular outings.
  4. Find Meaning: Contribute to a cause larger than yourself. Volunteer, mentor, or participate in activities that resonate with your values.
  5. Savour Life’s Pleasures: Take time to enjoy small joys, like a beautiful sunset or a heartfelt conversation.
  6. Simplify: Declutter your schedule and focus on what truly matters. Say no to unnecessary commitments.

Cultivating Virtues and Strengths:

Happiness also stems from living virtuously. Positive psychology highlights six universal virtues:

Wisdom: Gained through curiosity and learning.

Courage: Shown through perseverance and integrity.

Humanity: Expressed in kindness and generosity.

Justice: Fostered by fairness and leadership.

Temperance: Practised through self-control and humility.

Transcendence: Found in gratitude, spirituality, and a sense of purpose.

Discovering and using your personal strengths daily can create lasting fulfilment.

The Three Lives of Happiness:

Positive psychology outlines three types of fulfilling lives:

  1. The Pleasant Life: Enjoying positive emotions and simple pleasures.
  2. The Good Life: Using personal strengths to find gratification in work, relationships, and play.
  3. The Meaningful Life: Connecting your strengths and virtues to a higher purpose.

Practical Exercises for Happiness:

The Gratitude Visit: Write a heartfelt letter to someone who has positively influenced your life, and deliver it in person.

Acts of Kindness: Perform three kind acts weekly, whether for friends, strangers, or family.

Mindful Living: Practise meditation, yoga, or mindful breathing to reduce stress and cultivate peace.

Forgiveness Exercise: Write a letter forgiving someone who hurt you, even if you don’t send it.

Embracing a Happier Life:

Happiness isn’t a destination but a journey. Engage deeply in meaningful activities, nurture your relationships, and practise gratitude. By aligning your actions with your values and strengths, you can build a life rich in joy, purpose, and connection.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 88 ☆ बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 88 ☆

✍ बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जैसे अभी है ऐसे कभी हम नहीं रहे

इतने तो जिंदगी में कभी ग़म नहीं रहे

फ़रियाद में हो दम तो सुने हाल ही ख़ुदा

सहरा में सबके वास्ते ज़मज़म नहीं रहे

मन मानता नहीं है फ़ज़ीयत करा रहा

पहले से आज मुझमें वो दमखम नहीं रहे

 *

दुश्मन थे चंद दोस्त की भरमार थी मेरे

फ़ितनों के जाल ज़ीस्त में पर कम नहीं रहे

 *

बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं

हाथों में कामरेड के परचम नहीं रहे

 *

कितनी सियाह रात सितारे न चाँद है

जुगनू जो लड़ने आये उतने  तम नहीं रहे

 *

आँखों के रो के सूख गए आबशार सब

इस हिज़्र में अब मेरे नयन नम नहीं रहे

 *

नेकी को डाल देते थे दरिया में जो कभी

इस दौर में वो दोसतो आदम नहीं रहे

 *

गिरगिट सा रंग जबसे बदलना  है आ गया

अपनी ज़ुबाँ पे आदमी कायम नहीं रहे

 *

मौसम न ख़ुशगवार ये लगता बहार का

जबसे अरुण हमारे वो जानम नहीं रहे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 560 ⇒ कृष्ण-सुदामा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृष्ण-सुदामा।)

?अभी अभी # 560 ⇒ कृष्ण-सुदामा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब भी आदर्श मित्रता की बात होगी, कृष्ण सुदामा का जिक्र अवश्य होगा।

कलयुग में आप इसे मित्रता की पराकाष्ठा कह सकते हैं। जिस तरह राधा कृष्ण का प्रेम अलौकिक था, उसी तरह यह मित्रता भी अलौकिक ही थी। जब राधा कृष्ण एक ही थे, तो कृष्ण सुदामा दो कैसे हो सकते हैं।

एक जिस्म दो जान एक कहावत बनकर रह गया है, और जिसे आजकल जुमले की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है। दोस्ती कितनी भी पक्की हो, नि:स्वार्थ हो, दोनों मित्र एक दूसरे पर जान छिड़कते हों, सुख दुख में काम आते हों, लेकिन उनकी तुलना कृष्ण सुदामा से नहीं की जा सकती।।

A friend in need

is a friend in deed.

कृष्ण सुदामा बचपन के मित्र थे, सादीपनी आश्रम में साथ साथ पढ़े थे। कुछ उनकी ऐसी घटनाएं भी थीं, जहां सुदामा ने कथित रूप से अपने बाल सखा के हिस्से का भाग चोरी से स्वयं खा लिया था, जिसके फलस्वरूप उसे घोर आर्थिक अभाव और कष्ट में पूरा जीवन गुजारना पड़ा और अंत में मित्र कन्हैया ने ही उनका बेड़ा पार लगाया, जब द्वारका नगरी में उनका पुनर्मिलन हुआ।

कृष्ण लीला और अन्य कथाओं में भी सुदामा को अत्यंत दीन हीन, फटे हाल और कृशकाय दर्शाया गया है। बी आर चोपड़ा की महाभारत में भी सुदामा को एक गरीब ब्राह्मण ही बताया गया है। पर प्रश्न उठता है कि सुदामा क्या सिर्फ अपने मित्र कृष्ण के सखा थे। क्या उनकी श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और समर्पण मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम के भाई भरत से कम थी।।

जिन लोगों ने सुदामा चरित्र पढ़ा है, वे जानते हैं सुदामा का चरित्र चित्रण कथाओं में कभी श्रीकृष्ण के एक अनन्य भक्त के रूप में नहीं किया गया। कृष्ण सुदामा में सांसारिक मित्रता का आपस में कोई भाव नहीं था। सुदामा तो शबरी की भांति ही श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कन्हैया कृष्ण अगर निष्ठुर थे, तो भक्त सुदामा भी कम नहीं थे। जो कृष्ण कभी वापस गोकुल और मथुरा नहीं लौटे, उनसे सुदामा ने कभी आशा ही नहीं की थी, कि वे कभी जीवन में अपने मित्र की सुध लेंगे।

लेकिन मित्र सुदामा को कहां अपनी सुध थी। भक्त विभक्त नहीं होता, अनासक्त होता है। यह भी श्रीकृष्ण की ही लीला थी कि उन्होंने अपने मित्र सुदामा की पत्नी को प्रेरणा दी और उन्हें द्वारका मुट्ठी भर चावल के साथ आने के लिए प्रेरित किया।

उसके आगे तो सब कृष्ण की ही लीला है जिसे हम गलती से मित्रता की पराकाष्ठा मान बैठे हैं।

कृष्ण सुदामा कभी दो थे ही नहीं, एक ही थे। भक्त कभी अपने भगवान से अलग हो ही नहीं सकता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक शोधपरक आलेख क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -”)

☆ आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रेम – सौंदर्य और अद्भुत कल्पनाओं के सुख – सागर से दूर व्यंग्य में कड़वे सच के दर्शन होते हैं। सामान्य व्यक्ति सामाजिक विसंगतियों, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि से पीड़ित है, किंतु कुछ कर नहीं पाता अतः जब कोई इन मुद्दों को विषय बनाकर निडरता पूर्वक अपनी लेखनी से उन पर प्रहार करता है तो लोगों को उसमें अपनी बात नजर आती है। लोग व्यंग्यकार और उसकी रचना से ठीक उसी तरह जुड़ जाते हैं जिस तरह अन्याय के विरुद्ध लड़ते किसी फिल्म के हीरो से। यही कारण है कि व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

व्यंग्य – चिंतकों द्वारा आजकल व्यंग्य पर तरह – तरह के विमर्श किए जा रहे हैं। व्यंग्य के जन्म और विकास की लम्बी पड़ताल की जा रही है। व्यंग्य दुनिया में कैसे आया? व्यंग्य कहाँ से पैदा होता है ? व्यंग्य का मुख्य स्त्रोत क्या है ? व्यंग्य का वो कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। कथित विद्वानों द्वारा इन प्रश्नों के न मानने योग्य हास्यास्पद जवाब भी दिए जा रहे हैं।

मेरे अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। इसे तत्व के बजाय यौगिक अथवा मिश्रण कहना अधिक उचित जान पड़ता है। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतीकरण से अलग-अलग अर्थ प्रकट करता है।

नारद मुनि मात्र ‘नारायण-नारायण’ भी भिन्न-भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके ‘नारायण-नारायण’ कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किन्तु व्यंग्य केवल कागज पर सवार शब्दों की नाव नहीं है अपितु शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म दे देता है। जिस तरह परिस्थितिवश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय और क्रोध के भाव पैदा होते हैं, उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है अतः व्यंग्य को मनोभाव भी कहा जा सकता है। व्यंग्य शब्दों के साथ ही वाणी, हावभाव और सिर्फ नजरों से भी व्यक्त किया जा सकता है।

साहित्य में व्यंग्य का विकास हास्य से मानने वालों का कथन मानव विकास के “डार्विन सिद्धांत” जैसा ही अमान्य हो चुका हास्यास्पद सिद्धांत लगता है। हास्य को व्यंग्य का जन्मदाता कदापि नहीं कहा जा सकता। हास्य और व्यंग्य जुड़वा हो सकते हैं, किन्तु पृथक-पृथक हैं। इनके प्रभाव भी अलग-अलग हैं। हास्य सभी को आनंद की अनुभूति कराता है, प्रसन्नचित्त कर देता है जबकि व्यंग्य सबको आनंद की अनुभूति नहीं कराता। इससे यदि कुछ लोग प्रसन्न होते हैं तो अनेक लोग आहत, अपमानित, क्रोधित और दुखी भी होते हैं। कुछ कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि हिन्दी साहित्य का विकास अभी भी बाकी है। व्यंग्य, साहित्य के मुकाबले अल्पायु वाला है। यहाँ यही कहा जा सकता है कि विकास एक निरंतर होने वाली प्रक्रिया है, इसे कभी भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक व्यंग्य की बात है तो वह सदा से है, यह बात अलग है कि पहले यह खरपतवार की भांति उपेक्षित रहा।

हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है कि – ‘‘व्यंग्य जीवन की आलोचना है। वे व्यंग्य को विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। व्यंग्य एक गंभीर चीज है। हंसने-हंसाने की चीज नहीं। व्यंग्य निष्पक्ष ईमानदारी के बिना पैदा नहीं हो सकता और यह ईमानदारी अपने युग के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति होनी चाहिये।”

यदि व्यंग्य की इस “परसाई परिभाषा” को मान लिया जाए तो व्यंग्य मात्र निंदा बनकर रह जाएगा। समाचार लेखन में अथवा व्यंग्यकार के लेखन में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाएगा। निःसंदेह परसाई जी की ऊपर लिखी बातें मानी जा सकती हैं, किन्तु यह भी सच है कि व्यंग्यकार का नजरिया पत्रकार से अलग होता है। पत्रकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्ड का पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सीधा-सीधा पर्दाफाश करता है, जबकि व्यंग्यकार उसकी निंदा करता है। तथ्यों पर ईमानदार रहते हुए उसकी खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकता।

समय, काल, समाज को बदलता है, समाज नजरिये को और नजरिया लेखन को। संभवतः हम दोहा, चौपाई की भांति व्यंग्य की घेराबंदी नहीं कर सकते। न ही उसे किसी सरगम में कसा जा सकता है। वह नजरिये को तीखी धार से प्रस्तुत करती स्वंतत्र अभिव्यक्ति है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “परिवर्तन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆

✍ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

सड़क पर यातायात बहुत बढ गया। ट्रैफिक जाम हो जाता। ऑफिस जाने आने वाले सुबह शाम परेशान होते, खीजते। व्यवस्था को दोष देते। प्रिंट और मीडिया पत्रकार ट्रैफिक जाम और परेशान नागरिकों के विविध एंगल से प्रभावी फोटो समाचार के साथ प्रकाशित करते। जनता तो खीजते, घिघियाते बड़बड़ाते हुए सहन करने में नंवर वन पहले थी और आज भी है। सोचती है कि हमारा धर्म सहना है। घर हवा पानी सड़क के लिए सरकार कर के रूप में जो माँगे वह अदा करना है। जनता बहुत धार्मिक है, सहनशील है, उदार है और ईश्वर सहित सब पर विश्वास करती है।

जनता के सब्र को फल मिला और मंत्री जी निरीक्षण करने आ गए। स्थिति परिस्थिति का जायजा लिया और सड़क चौराहे के ऊपर उत्तर से दक्षिण की ओर ऊपरी पुल बनाने का निर्णय सुना दिया। निर्णय पर कार्रवाई चलती रही, सड़क का अध्ययन नाप जोख होने लगा। एंक्रोचमेंट हटाए जाने लगे। छोटे मोटे खोमचे वाले, चायपान का ठेला लगाने वाले, सड़क के हिस्से को फुटपाथ समझ उस पर सामान बेचने वाले, धंधा बंद होने से परेशान तो हुए, भुनभुनाते हुए इधर उधर भागने लगे। दो पहिया वाले और पैदल चलने वाले थोड़े खुश हुए कि उन्हें आवागमन के लिए थोड़ी जगह मिल गई। सात आठ महीने ऐसे ही गुजर गए।

इन सबके चलते एक दिन पुल के पिलर के लिए गड्ढे खोदने की प्रक्रिया दिखाई दी। खुदाई प्रक्रिया से सड़क पर अवरोध आने लगा। लोग खुदाई स्थल के दाएं बाएं से अपने दुपहिया चौपहिया वाहन निकाल जैसे तैसे आने जाने लगे। पैदल चलने वालों के लिए तो सड़क पर जगह पहले ही कम थी, अब और अधिक कम हो गई। जाम में खड़े वाहनों के बीच से या इधर उधर से सड़क पार करने वाले वृद्धों, महिलाओं व व्यक्तियों को देखकर वाहन चालकों की निगाहों में प्रश्न उबलते से दिखते कि लोग सड़क पर पैदल क्यों चलते हैं, सड़क पर आते ही क्यों हैं? बच्चों को देखकर उनकी निगाहों में थोड़ा रहम भी दिखाई दे जाता।

सड़क चौक के इधर उधर बने पिलर कांक्रीट की मोटी और भारी बड़ी चादरों से ढंके जाने लगे। असल में ये चादरें नहीं पुल के हिस्से थे जो मशीनों द्वारा बनाए जाते मशीनों द्वारा ऊपर चढाए जाते और मशीनों द्वारा ही एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच बिछा दिए जाते । नीचे केवल गड्ढे खोदे गए। पिलर भी ऐसे खडे किए जाते हैं कि नीचे सीमेंट बालू कुछ दिखाई नहीं देता। लोहे की सरियों का बड़ा सा गोल जाल खड़ा किया जाता है और मशीन से तैयार कांक्रीट उस जाल में उड़ेल दिया जाता है। और कुछ दिन में पिलर खडे हो जाते हैं। केवल पिलर के आसपास की जमीन पर बैरियर लगा कर सड़क को छोटा अवश्य करना पड़ता है और आवागमन के लिए रास्ते मोड़ दिए जाते हैं।

अब चौराहे के ऊपर पुल बिछाना शुरू हुआ तो चौराहे पर पुल के नीचे आना जाना बंद कर दिया गया और वाहनों का रूट बदल दिया गया । आम गरीब नागरिकों के लिए सबसे अधिक सुविधाजनक साधन सरकारी बस के अड्डे को इधर उधर बिखरा दिया। चौराहे के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में बस चौराहे तक आतीं और वहीं से लौट जाती हैं। नियमित बस यात्री को अपने निश्चित स्थान पर बस न पाकर, जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ जिस किसी प्रकार पहुंच कर बस पकड़नी होती है और वापसी में उसी जगह उतरना होता है। घर से बस पकड़ने के लिए पहुंचने और वापसी में घर तक पहुंचने के लिए पुल बनाने के लिए किए गए परिवर्तन को सहन करना ही होगा। जब पुल बन जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही तो विकास होगा। उपलब्ध सड़क पर बढती वाहनों की संख्या से उत्पन्न समस्या से निपटने के लिए परिवर्तन तो होगा ही।

 

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ. गुलाब चंद पटेल

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल  ☆

पुस्तक – ‘युग द्रष्टा अटल’ (काव्य-संग्रह)

संपादन – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक, लुधियाना (पंजाब)

समीक्षक – डॉ. गुलाब चंद पटेल, गांधी नगर (गुजरात)

डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी एक उच्च कोटी के कवि थे और मूल्य आधारित विचार धारा से चलनेवाले सिद्धांतवादी नेता के साथ ही संवेदनशील राज नेता भी थे ।इनके लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी  का यह काव्य संग्रह अटल जी के व्यक्तित्व को उजागर करता है।

युग द्रष्टा अटल जी उम्दा व्यक्तित्व के साथ प्रखर वक्ता, कवि पत्रकार, दूरदर्शी ह्रदयस्पर्शी वाणी के साथ विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ था। वे 1996 मे भारत के प्रधान मंत्री बने थे। इनकी मृत्यु 16 अगस्त 2018 को हुई थी। 

स्व. अटल जी का “मेरी इक्यावन कविताएं“ प्रसिद्ध काव्य संग्रह था। उसका विमोचन दिल्ली मे भारत के पूर्वा प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिंह राव के कर कमलों से हुआ था। ‘यक्ष प्रश्न’ कविता भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखी थी। वे आज नहीं हे, कल नहीं होंगे। अटल बिहारी जी भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुये थे।

स्व. अटल जी ने राष्ट्र धर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन पत्र पत्रिकाओ का सम्पादन कार्य कुशलतापूर्वक किया था। अटल जी भारत संघ के ग्यारहवे प्रधान मंत्री बने थे।

ऐसे महान व्यक्तित्व के लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी ने इस काव्य संग्रह का बहुत सुंदर संपादन किया है। आपने अटल जी के काव्य के सांस्कृतिक चेतना विषय पर शोध कार्य किया है।

‘युग द्रष्टा अटल’ काव्य-संग्रह मै कुल मिलकर 62 कवियों की रचनाओं को स्थान मिला है। जिसमे गुजरात के डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, डॉ गुलाब चंद पटेल, फोरम महेता और पंजाब की कवयित्री डॉ जसप्रीत कौर फ़लक की रचना को स्थान मिला है। अटल जी का विश्वास और इरादा अटल था।अटल जी के लिए बहुत ही सुंदर रचनाएँ इस काव्य संग्रह मै शामिल हैं। यह काव्य संग्रह भावी युवा पीढ़ी के लिए नवीन ऊर्जा प्रदान करेगा। पाठकों को भी राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देने हेतु प्रेरित करेगा।

भारत सरकार के सड़क सुरक्षा, सड़क परिवहन मंत्रालय के सदस्य और भाजपा के प्रवक्ता कमाल जीत सोई ने इस काव्य संग्रह के सृजन को साहित्य के क्षेत्र मै अभूत पूर्व योगदान देनेवाला बताया है। यह काव्य संग्रह बुद्धिजीवी पाठको के साथ-साथ युवा पीढ़ी को देश प्रेम और राष्ट्र निर्माण के प्रति अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने वाला इनके संदेश में बताया है।

डॉ महेश सोनी भाजपा मण्डल मंत्री जिला पाली राजस्थान ने अपने संदेश मै युग द्रष्टा अटल काव्य संग्रह अटलजी के व्यक्तित्व और सृजनात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित काव्य-कृति बताया है।

डॉ राजेंद्र सिंह साहिल, अध्यक्ष (हिन्दी विभाग),  गुरु हरगोविंद सिंह खालसा कॉलेज, लुधियाना पंजाब ने बताया है कि डॉ फ़लक स्वयं भी अटल काव्य की विशेषज्ञ हैं।इन्होने बताया है कि अटल जी के काव्य संग्रह में राष्ट्रीय एवं संस्कृतिक चेतना विषय पर डॉ जसप्रीत कौर फ़लक ने पी एच डी की उपाधि प्राप्त की है। यह इनका सार्थक और सफल प्रयास है। इस सृजनात्मक कार्य के लिए ढेरों बधाइयाँ भी प्रदान की गई हैं।

समपादकीय लेख मे डॉ जसप्रीत कौर फ़लक जी ने बताया है कि इनका कविता के प्रति आकर्षण बचपन से ही था। इन्होने अपने भीतर काव्य का प्रवाह हमेशा महसूस किया है। यही कारण है जिसके लिए इन्हें अटल जी की रचनाओ ने प्रभावित किया है।

काव्य संग्रह के अंत में पुस्तक के पीछे स्व अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार उद्धृत हैं।

जो जितना ऊंचा,

उतना ही एकाकी होता है,

हर भर को स्वयं ही ढोता है,

चेहरे पर मुसकानें चिपका,

मन ही मन रोता है।

 

जरूरी यह है की,

ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिस से मनुष्य ,

ठूंठ–सा खड़ा न रहे ,

औरों से घुले-मिले ,

किसी को साथ ले ,

किसी के संग चले,

अटल जी के जन्मदिवस के अवसर पर उन्हें पुष्पार्पित कर सादर प्रणाम करते हैं।

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

कवि, लेखक और अनुवादक

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 53 – अलार्म…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 53 – अलार्म श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मोबाइल का अलार्म लगातार बज रहा था और सुनीता  बार-बार बंद कर  दे रही थी। मां ने आवाज लगाई  तो उसने रजाई को और ऊपर तक तान कर सो गई। मां ने इस बार जोर से चिल्लाया आखिरी बार बोल रही हूं, उठ कर नीचे जाकर नाश्ता कर लो।  जल्दी उठो वरना अकेली ही घर में रह जाओगी। मैं ताला लगा कर ऑफिस चली जाऊंगी।

सुनीता अलसाई सी चिल्लाकर बोली  मैं कल जरूर आपके साथ कॉलेज जाउंगी आज सारा दिन घर में सोने दो।

माँ ने कहा – कल तो कभी आयेगा ही नहीं? चलो! अब जल्दी से उठकर तैयार जाओ। आज बहुत कोहरा है बाहर कुछ दिख भी नहीं रहा है ठंडी हवा से शरीर कंपकंपा रहा है।

कुछ देर बाद दोनों सड़क पर थे। सुनीता की माँ का ध्यान बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी और फुटपाथ में बैठे हुए कुछ लोगों की ओर गया।

इतनी ठंड में सुबह सुबह ये बच्चे कैसे खेल रहे हैं और सभी लोग काम पर जा रहे हैं। ठंड तो सबको लगती है, मुझे भी लग रही है। लेकिन देखो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे। मैं पढ़ी लिखी थी इसलिए नौकरी कर तुम्हें पढ़ा रही हूं। अपना और तुम्हारा ध्यान रख रही हूं। तुम बड़ी ऑफिसर बनो। सामाजिक ताकत तो एक बड़े पद पर रहकर ही मिलती है। अन्यथा ये समाज के भेड़िये तुम्हें खा जाएंगे। ठंड में इंसान मजबूर होकर काम पर जाता है। तुम अच्छे से पढ़ाई करो और एक बड़ी ऑफिसर बनो।

अपने लक्ष्य को सामने रखो अपने आप ठंड भाग जाएगी। अपने मन में दृढ़ निश्चय करो। अलार्म बजते ही तुम समय के साथ नहीं चलोगी तो पीछे रह जाओगी। समय किसी के लिए रुकता नहीं है। देखो बातों बातों में तुम्हारा कॉलेज आ गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 254 ☆ त्या  वाटेवर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 254 ?

☆ त्या  वाटेवर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गतकाळाचा  जन्म जिव्हाळा

आठवणींचा फक्त पाचोळा

त्या वाटेवर ……

 

हुंदडणारे मुग्ध बालपण

नात्यांची गहिरी गुंफण

त्या वाटेवर …….

 

खळखळणारा  अवखळ ओढा

सोनपिवळ्या तरवडाची  गर्दी

पाण्या मधली  दाट लव्हाळी

इथेच होती एकेकाळी …….

पाहते आता ठक्क कोरडी

फुफाटलेली ओढ्याची जागा

त्या वाटेवर ……

 

बुजलेल्या  ढव-याची  खूण,

पाषाणाची  जुनी शुष्क डोण

त्या वाटेवर …….

 

दगडी वाड्याच्या  जागी आता

बोरी ,बाभळी आणि  सराटा ,

परी वास्तुचे  रक्षण करतो ,

भुजंग काळाचा निरंतर …..

त्या वाटेवर ………..

© प्रभा सोनवणे

१४ नोव्हेंबर २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “कवितेचे झाड….” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “कवितेचे झाड…. ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

मनास अंकुर फुटता

भावनांचा जन्म होई

शब्दातून मग कवितेस

फुटे नवी पालवी….

*

अनुभवांचे खतपाणी

संवेदनांचे सिंचन

विचारांची निगराणी

कल्पना वास्तवाचे मिलन…

*

कधी मोहर कधी पानगळ

कवितेचे झाड अवखळ

तिच्यासोबत मी कणखर

आणि जगणे सहज, सुंदर….

*

प्रेम आनंदाने बहरते

कवितेचे झाड माझे

मायेच्या सावलीत त्याच्या

ही शब्दकळी सुखावते….

💞शब्दकळी विजया 💞 

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचा ☆ काळरात्र… ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

📚 क्षण सृजनाचा 📚

☆ काळरात्र… ☆ श्री सुनील देशपांडे 

कोयनानगर – ज्या भूमीवर माझं बालपण, शालेय शिक्षण झालं ती स्वप्ननगरी १९६७ मध्ये ११ डिसेंबर या दिवशी भूमिगत (!) झाली.  त्याच्या आठवणी अजूनही मधून मधून डोके वर काढतात आणि कधी कधी काव्यरूपातही उमटतात.

☆ काळरात्र … ☆ श्री सुनील देशपांडे 

ती काळरात्र होती, भूमीतुनी उसळली.

तोडून काळजाचा, लचका, निघून गेली

ती काळरात्र होती, फाडून भूमी आली.

गाडून स्वप्ननगरी, कोठे निघून गेली ?

 *

झोपेत साखरेच्या, देऊन वेदनांना,

क्रूर हसत होती, ती काळरात्र होती.

कित्येक चांदण्यांना, विझवून ती निमाली,

की कृष्णविवर कोठे, शोधून लुप्त झाली?

 *

कित्येक भक्त होते, देवास प्यार झाले.

ती काळरात्र मग का, देवाकडून आली?

कित्येक संत गुरुजन, मंत्रून भूमि गेले.

तप पुण्य त्या जनांचे, उधळून ती परतली.

 *

कित्येक वर्ष सरले, तो काळ निघून गेला.

पण काळजावरी ती, दुश्चिन्ह कोरूनी गेली.

 — श्री सुनील देशपांडे

© श्री सुनील देशपांडे

पुणे, मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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