हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 225 ☆ कहानियों से जुड़ाव… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना कहानियों से जुड़ाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 225 ☆ कहानियों से जुड़ाव

कैसी भी घटना हो, समझाने हेतु आस पास से जुड़ी कहानियाँ ही सबसे सरल माध्यम होतीं हैं। जो कुछ हम देखते हैं उसे अपने शब्दों में ढाल कर सरलतम रूप से कहने पर बात हृदय में घर कर जाती है।

यही कारण है कि जब से बच्चा कुछ समझने लायक होता है हम उसे छोटी- छोटी प्रेरक कहानियों के द्वारा शिक्षा देते हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी वे आसपास देखते हैं उसे अवलोकन के द्वारा सीख कर आपको वापस लौटाते हैं।

अतः आप बच्चों में जो संस्कार देखना चाहते वो पहले आपको पालन करना होगा तभी उनसे ये उम्मीद की जा सकेगी कि वो भी रिश्तों के महत्व को समझें और जीवन रूपी किताब के पन्ने न बिखरने दें।

समय- समय पर हम महान व्यक्तियों की जयंती मनाते हैं इस अवसर पर उनके गुणों पर प्रकाश डालना, जीवनचर्या, समाज को उनका योगदान इन पहलुओं पर चर्चा आयोजित करते हैं।

अपने कार्यस्थल पर ऐसे फ़ोटो रखना, डायरी में उनके चित्र और तो और अपने बच्चों के नाम भी उनके ही नाम पर रखकर हम वही गुण उनमें देखना चाहते हैं। ये तो सर्वथा सत्य है कि हम जो देखते हैं सोचते हैं वैसे ही अनयास बनते चले जाते हैं, हमारा मनोमस्तिष्क उसे ग्रहण कर लेता है और उसे ही आदर्श बना कर श्रेष्ठता की ओर बढ़ चलता है।

***

तिनकों को जोड़कर

धीरज को धर कर

छत हो उम्मीद वाली

कार्य ऐसे कीजिए।। 

*

पास व पड़ोस होना

कोई भी कभी न रोना

सबका विकास होवे

ध्यान यही दीजिए।। 

*

चलिए तो हौले- हौले

मीठे बोल बोले- बोले

कड़वे वचन छोड़

क्रोध सारा पीजिए।।

*

परिवेश रूप ढलें

खुशियों के दीप जलें

प्रेम की दीवाल जहाँ

ऐसा घर लीजिए।।

***

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना गाँव के चौराहे पर)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव के चौराहे पर ‘शहरी विकास योजना’ की चर्चा के नाम पर एक भव्य सभा का आयोजन किया गया। अध्यक्ष महोदय अपने फोल्डिंग कुर्सी पर विराजमान थे, जबकि बाकी जनता खड़े-खड़े ताली बजाने में व्यस्त थी। “दोस्तों,” अध्यक्ष ने माइक संभालते हुए कहा, “हमारा गाँव अब विकास की ओर अग्रसर है।” पीछे से किसी ने व्यंग्य में फुसफुसाया, “हाँ, विकास की ओर तो जा रहे हैं, पर पैर में जूते कहाँ हैं?”

सभा में पहली पंक्ति में बैठे रामलाल, जो चाय की दुकान के मालिक थे, अपनी बहादुरी के किस्से सुनाने में व्यस्त थे। “भाई, मैंने तो दिल्ली जाकर देखा, वहाँ की लड़कियाँ जीन्स पहनती हैं। हमारे गाँव में तो अब भी घूँघट में ही दुनिया बसी है।” उनकी बात सुनकर सामने बैठा नत्थू हँस पड़ा, “अरे भाई, दिल्ली की लड़कियाँ तो इतनी समझदार हैं कि अंग दिखाने और छिपाने दोनों में पारंगत हैं। तुम तो चाय बेचते रहो।”

चाय की दुकान पर दूसरा मुद्दा था, जानवरों के नाम पर होने वाले ताने। मुनिया ने बड़े गुस्से से कहा, “अगर कोई मुझे कुत्ता कहे तो मैं उसे थप्पड़ मार दूँगी, लेकिन शेरनी कहे तो गर्व महसूस होगा।” चमेली ने तुरंत जवाब दिया, “अरे मुनिया, तू ये क्यों भूलती है कि शेरनी भी जानवर ही है? तारीफ चाहिए, सच्चाई से डर लगता है।”

दूसरी तरफ, ठाकुर साहब अपनी नई गाड़ी लेकर गाँव में घूम रहे थे। उनके हाथ में हीरे जड़ी अंगूठी चमक रही थी। गाड़ी रोककर उन्होंने जेब से छोटा सा दर्पण निकाला और खुद को निहारने लगे। “ठाकुर साहब, हीरा धारण किया है, फिर बार-बार दर्पण क्यों देखते हैं?” रामलाल ने पूछ लिया। ठाकुर साहब हँसते हुए बोले, “हीरा तो दूसरों को दिखाने के लिए है, लेकिन अपनी शक्ल देखने के लिए दर्पण चाहिए।”

शांता, जो शादी के बाद गाँव लौटी थी, अपनी सहेली से कह रही थी, “पिता की गरीबी सह ली, पर पति की गरीबी बर्दाश्त नहीं होती। हर दिन उधार का रोना लेकर आते हैं।” उसकी सहेली ने मुस्कुराते हुए कहा, “बहन, यही तो हमारी संस्कृति है। शादी के बाद औरतों का अधिकार है कि पति की गरीबी पर व्यंग्य करें।”

सभा के पीछे एक शराब की दुकान पर लंबी लाइन लगी थी। वहीं पास में एक खंडहर पड़ा था, जहाँ कभी अस्पताल हुआ करता था। नत्थू ने रामलाल से कहा, “अगर इस खंडहर को फिर से अस्पताल में बदल दिया जाए, तो गाँव का जीवन बदल जाएगा।” रामलाल ने चाय का कप उठाते हुए कहा, “तू सही कहता है। लेकिन लोग डॉक्टर को भगवान मानते हैं और शराब को दोस्त। दोस्त को कौन छोड़ता है?”

अध्यक्ष महोदय ने सभा के अंत में घोषणा की, “हम गाँव में पाँच नई शराब की दुकानें खोलेंगे।” जनता ने जोरदार तालियाँ बजाईं। पीछे से किसी ने चुटकी ली, “और अस्पताल का क्या?” अध्यक्ष ने मुस्कुराते हुए कहा, “अस्पताल की जरूरत तभी पड़ती है, जब शराब नहीं होती।”

सभा खत्म हुई, पर नत्थू वहीं खड़ा सोच रहा था। “हम सब कितने अजीब हैं। दूसरों की गलतियाँ गिनाने में माहिर, पर अपनी कमियों को छिपाने में और भी ज्यादा।” और चौराहे पर विकास का तमाशा जारी रहा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 323 ☆ आलेख – “ऐप्स की दुनिया…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 323 ☆

?  आलेख – ऐप्स की दुनिया…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हमारे जीवन को आसान, सुविधाजनक और मनोरंजक बनाती , हर मोबाईल की सर्वाधिक जरूरत है ऐप्स की दुनिया। आप सोचिए भर और सर्च कीजिए , आपकी आवश्यकता का कोई ना कोई ऐप सुलभ होगा। नहीं हो तो भी सरलता से डेवलप किया जा सकता है। ऐप्स की दुनिया हमें विभिन्न प्रकार के ऐप्स प्रदान करती है जो हमारी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

सोशल मीडिया ऐप्स हमें अपने दोस्तों और परिवार, समाज के साथ जुड़ने की अवसर देते हैं। आज हम सब फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने प्रियजनों के साथ जुड़ सकते हैं। गेमिंग ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें मनोरंजन प्रदान करते हैं। पबजी, क्लैश ऑफ क्लैन्स, कैंडी क्रश और फॉर्टनाइट जैसे ऐप्स का उपयोग करके हम अपने खाली समय को मनोरंजक बना सकते हैं।

ऐप्स की दुनिया में हमें शिक्षा और ज्ञान के ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें विभिन्न विषयों में जानकारी प्रदान करते हैं। हम डुओलिंगो, कोर्सेरा, एडएक्स अकादमी जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने विषय ज्ञान को और बढ़ा सकते हैं।

ऐप्स की दुनिया में हमें स्वास्थ्य और फिटनेस के ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें स्वस्थ और फिट रहने में मदद करते हैं। हम मायफिटनेसपैल, हेडस्पेस, कैलम और नाइके ट्रेनिंग क्लब जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने स्वास्थ्य और फिटनेस को बेहतर बना सकते हैं।

ऐप्स की दुनिया में हमें वित्तीय ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें अपने वित्त को प्रबंधित करने में मदद करते हैं। हम पेटीएम, गूगल पे, फोनपे, और ज़िप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने वित्त को प्रबंधित कर सकते हैं।

इसके अलावा, ऐप्स की दुनिया में हमें यात्रा ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें यात्रा करने में मदद करते हैं। हम गूगल मैप्स, उबर, ओला, और मेकमायट्रिप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपनी यात्रा को आसान बना सकते हैं।

ऐप्स की दुनिया में हमें खाना ऑर्डर करने के लिए ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें अपने पसंदीदा खाने को घर पर मंगाने में मदद करते हैं। हम जोमाटो, स्विगी, फूडपांडा, और उबर ईट्स जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने पसंदीदा खाने को घर पर मंगा सकते हैं।

ऐप्स की दुनिया में हमें मनोरंजन के लिए ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें विभिन्न प्रकार के मनोरंजन प्रदान करते हैं। हम नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम वीडियो, हॉटस्टार, और यूट्यूब जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने पसंदीदा टीवी शो और मूवीज़ देख सकते हैं।

इस प्रकार, ऐप्स की दुनिया हमें विभिन्न प्रकार के ऐप्स प्रदान करती है जो हमारे जीवन को आसान, सुविधाजनक और मनोरंजक बनाता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #198 – व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 198 ☆

☆ व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।

ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-12-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 561 ⇒ बड़े दिन का दर्द… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े दिन का दर्द।)

?अभी अभी # 561 ⇒ बड़े दिन का दर्द…  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अभी जाड़े का वर्ष का सबसे छोटा दिन गुज़र गया। बड़ा दिन भी करीब है। लेकिन मेरा दिल बहुत छोटा होता जा रहा है। न जाने क्यों हम छोटे दिनों को बड़ा दिन कहते हैं। छोटे दिल वाले होते हुए भी बड़े दिल वाला होने का नाटक करते हैं।

दिन का लंबा होना और छोटा होना तो समझा जा सकता है ! गर्मी में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं और सर्दियों में दिन छोटे और रातें बड़ी हुआ करती हैं। लेकिन इंसान का दिल एक ही शक्ल का होता है, न बड़ा न छोटा। फिर भी किसी को बड़े दिल वाला और किसी को तंग दिल इंसान भी कहा जाता है।।

दिल पर या तो शायरी होती है या फिर डॉक्टर की रिसर्च ! दिन भर बहस हो सकती है, लेकिन दिन पर हम बातें कम ही करते हैं। दिल पर दिन भर बातें हो सकती हैं, लेकिन दिन पर हमने कभी दिल भर के बातें शायद ही कभी की हों।

दिल का दर्द रात को भी उठ सकता है। दिन के दर्द पर शायद ही किसी ने रात भर चर्चा की हो। सभी जानते हैं दिल की ही तरह, दिन भी सिर्फ बड़ा-छोटा ही नहीं, अच्छा-बुरा होता है। कहने वाले तो यहाँ तक कह गए, कि दिन बुरे होते हैं, हालात बुरे होते हैं, आदमी तो बुरा नहीं होता।।

आप मानें या न मानें ! खुश हों, या न हों। बड़ा दिन तो आकर ही रहेगा। आपके दिन अच्छे चल रहे हों, या बुरे। दिल में आपके उत्साह, उमंग हो, या न हो। आप दिन को बड़ा मानते हों या न हों। 25 दिसंबर तो बड़ा दिन है, और बड़ा ही रहेगा। कल ही किसी ने मुझे marry Christmas कह दिया। अंग्रेज़ी में marry और merry बहुत कंफ्यूज करते हैं। मैंने फिर भी उन्हें धन्यवाद दे दिया।

एक हफ्ते बड़े दिनों की छुट्टी रहती है। महानगर की होटलें और मॉल्स दिन रात जगमगाएँगे। लोग हँसेंगे, नाचेंगे, खुशियाँ मनाएंगे। जो बड़े दिन को अपना दिन नहीं मानते, वे दिल मसोसकर रह जाएँगे। सबकी खुशी में जो खुश रहना सीख लेते हैं, जिनका दिल उदार है, बड़ा है, वे ही बड़ा दिन मनाएंगे।।

मैं भी अपने दिल के दर्द को छुपाकर, बड़े दिल वाला बनकर, बड़े दिन का स्वागत करूँगा। Merry x-mas ! सबको बड़ा दिन, दिल से मुबारक …!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 232 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 232 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पैने दो-दो सींग जड़े हैं

हरा-हरा है छिलका।

पानीफल मीठा-मीठा है

सूखा आटा मिल का।

नाम बताओ कौन चेस्टनट

कौन है संघाटिका।

कहे उसे हम वारिकुंज भी

कौन है विषाणिका।

 *

उथले पानी में है होता

फाइबर होता है भरपूर।

प्रोटीन, पोटैशियम इसमें

थायराइड को करता दूर।

 *

विटामिन बी छह भी इसमें

मोटापा को दूर भगाता।

श्रृंगमूल , जलकंटक भी कहते

दूर तनाव मौज बढ़ाता।

 *

हलवा खाओ, स्वाद बढ़ाओ

व्रत त्यौहारों काम जो आता।

कौन विषाणी भारत का है

शक्ति अपनी सदा बढ़ाता।

सभी का उत्तर- सिंघाड़ा।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “काय हवय…?” ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

काय हवय…? ☆ श्री सुजित कदम ☆

☆ 

त्या दिवशी मंदीरातून

देवाच दर्शन घेऊन मी बाहेर पडलो

तेवढ्यात…

मळकटलेल्या कपड्यांबरोबर

लेकराचा मळकटलेला हात

समोर आला…!

मी म्हंटलं काय हवंय..?

त्यांनं…

पसरलेला हात मागे घेतला आणि

क्षणात उत्तर दिलं … आई…!

मी काहीच न बोलता

खिशातलं नाणं त्याच्या मळकटलेल्या

हातावर ठेऊन निघून आलो…

पण.. तो मात्र

वाट पहात बसला असेल…

मळकटलेला हात पसरल्यावर

त्यानं असंख्य जणांना दिलेल्या

उत्तराच्या उत्तराची…!

 

© श्री सुजित कदम

मो .. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “गवतपात्याचे हायकू…” ☆ प्रा. भरत खैरकर☆

प्रा. भरत खैरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “गवतपात्याचे हायकू” ☆ प्रा. भरत खैरकर 

दवाचा थेंब

गवतपात्यावर पडला

मधातुन चिरला….

 *

सुर्याचे किरण

पात्यावर थांबले

लख्ख चकाकले!

 *

लढवितो वारा

तृणांकुरावरी

इवलाल्या तलवारी…

 *

एक फुलपाखरू

पात्यावर बसलं

हलकेच झुललं…

© प्रा. भरत खैरकर

संपर्क – बी १/७, काकडे पार्क, तानाजी नगर, चिंचवड, पुणे ३३. मो.  ९८८१६१५३२९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- किर्लोस्करवाडी येथील आमच्या आठ वर्षांच्या वास्तव्यात आम्हा कुटुंबियांशी मनाने जोडले गेलेले हे पाटील कुटुंब. १९६७ मधे आम्ही कि. वाडी सोडल्यानंतर त्या कुणाशीच भेटी सोडाच आमचा संपर्कही रहाणे शक्य नव्हतेच. पण याला लिलाताई मात्र अपवाद ठरली होती!)

लिलाताईचं हे असं अपवाद ठरणं खूप वर्षांनंतर पुढं कधीतरी माझ्या संसारात घडणार असलेल्या दु:खद घटनेतून मला सावरुन जन्म, मृत्यू आणि पुनर्जन्म या संकल्पनांमधे लपलेलं गूढ ओझरतं तरी मला जाणवून देण्यास ती निमित्त ठरावी अशी ‘त्या’चीच योजना होती! ‘त्या’च्या या नियोजनाचे धागेदोरे लिलाताईशी आधीपासूनच असे जोडले गेलेले होते हे त्या आश्चर्यकारक घटनाक्रमानंतर मला मनोमन जाणवलंही होतं! आज या लेखनाच्या निमित्तानं हे सगळं पुन्हा जगताना दत्त महाराजांच्या माझ्यावरील कृपालोभाचं मला खरंच खूप अप्रूप वाटतंय!

या सगळ्यातली लिलाताईची भूमिका समजून घेण्यासाठी भूतकाळातल्या पाटील कुटुंबियांच्या आणि विशेषत: लिलाताईसंबंधीच्या आठवणींचा मागोवा घेणं आवश्यक आहे.

हे पाटील कुटुंब आर्थिकदृष्ट्या कनिष्ठ स्तरापेक्षाही खालच्या स्तरातलं. तरीही कष्ट करीत मानानं जगणारं. लिलाताईच्या आईबाबांचा त्यांच्या लहानपणी सर्रास रुढ असलेल्या बालविवाहाच्या प्रथेनुसार नकळत्या वयातच लग्न झालेलं होतं. लिलाताई मोठ्या भावाच्या पाठीवरची आणि बहिणींमधे मोठी. एकूण पाच बहिणी आणि सहा भाऊ असं ते तेरा जणांचं कुटुंब. वडील किर्लोस्कर कारखान्यात कामगार. जेमतेम पगार. आर्थिक ओढाताण कधीच न संपणारी. सततच्या बाळंतपणांमुळे आई नेहमी आजारी. त्यामुळे घरची सगळी कामं लिलाताई आणि तिच्या पाठची बेबीताई दोघी शाळकरी वयाच्या असल्यापासूनच त्यांच्यावर येऊन पडली होती. हे सगळं सांभाळून अभ्यासही करणं झेपेना म्हणून बेबीताईने सातवी नापास झाल्यावर शाळा सोडलेली. लिलाताई मात्र अभ्यासात अतिशय हुशार. वर्गात नेहमीच पहिला नंबर. फक्त अभ्यासच नाही तर गाणं, वक्तृत्त्व, चित्रकला सगळ्याच स्पर्धांमधे तिचा पहिला नंबर ठरलेला. अतिशय शांत, सोशिक, हसतमुख, सात्विक वृत्तीची आणि स्वाभिमानी. मराठा कुटुंबात लहानाची मोठी होऊनही पूर्ण शाकाहारी. इंग्रजी, गणित, मराठी सगळ्याच विषयांवर तिचं प्रभुत्त्व! त्यामुळे शाळेतले मुख्याध्यापक आणि शिक्षक सर्वांचीच ती आवडती होती!

पण म्हणून अभ्यासाचं निमित्त करून तिने घरची कामं कधीही टाळली नाहीत. पाठच्या बहिणीच्या बरोबरीने पुढाकार घेऊन सगळ्या भावंडांची आणि घरकामाची जबाबदारी ती समर्थपणे आणि तेही हसतमुखाने पार पाडत राहिली. ती नववी पास होऊन दहावीत गेली तेव्हा दहावीत नापास झालेला तिचा मोठा भाऊ तिच्याच वर्गात आलेला. पुढे अकरावीत गेल्यावर (त्या वेळची मॅट्रिक) स्वतःबरोबरच त्यालाही अभ्यासात मदत करीत ती ते वर्ष पूर्णतः अभ्यासात व्यस्त राहिली. खूप शिकून मोठ्ठं व्हायचं आणि आपल्या घराला गरिबीच्या खाईतून बाहेर काढायचं हे तिचं एकमेव स्वप्न होतं! पण तसं व्हायचं नव्हतं. उलट त्या गरिबीच्याच एका अनपेक्षित फटक्याने तिचं स्वप्न चुरगाळून टाकलं. याला त्याच्याही नकळत निमित्त झाला होता तो तिच्याच वर्गात शिकणारा हाच तिचा मोठा भाऊ आणि रूढी-परंपरा न् सामाजिक रितीरिवाजांचा पगडा असणारे, सरळरेषेत विचार करीत आयुष्य ओढणारे तिचे कष्टकरी वडील! कारण मॅट्रिकच्या परीक्षेसाठी बोर्डाच्या परीक्षेचा फॉर्म भरायचा शेवटचा दिवस जवळ येत चालला तरीही दोघांच्या फाॅर्म फीच्या पैशांची सोय झालेली नव्हती. खरंतर वडील त्याच चिंतेत आतल्या आत कुढत बसलेले. अखेर फॉर्म भरायचा शेवटचा दिवस उजाडला तेव्हा सकाळी सात वाजता कारखान्यांत कामाला निघालेल्या वडिलांना लीलाताईने आज फॉर्म भरायची शेवटची तारीख असल्याची आठवण करुन दिली. “दुपारच्या जेवायच्या सुट्टीपर्यंत मी कांहीतरी व्यवस्था करतो” असं सांगून त्याच विवंचनेत असलेले वडील खाल मानेने निघून गेले.

पण पैशाची कशीबशी सोय झाली ती फक्त एका फाॅर्मपुरतीच. मुलीपेक्षा मुलाचं शिक्षण महत्त्वाचं म्हणून वडिलांनी तिच्या मोठ्या भावाचा फॉर्म भरायला प्राधान्य दिलं. ‘ तू हवं तर पुढच्या वर्षी परीक्षेला बस’ असं हिला सांगितलं.

ती आतल्या आत कुढत राहिली. अभ्यास, परीक्षा या सगळ्यावरचं तिचं मनच उडालं.

मुख्याध्यापकांना सगळं समजलं तोवर खूप उशीर झाला होता. ते

तिच्यावर चिडलेच. ‘तू लगेच माझ्याकडे कां नाही आलीस? मला कां नाही सांगितलंस? मी फाॅर्मचे पैसे भरले असते’ म्हणाले. पण तोवर वेळ निघून गेलेली होती. नशिबाला दोष देत तिने तेही दुःख गिळलं. आपले वडील वाईट नाहीयेत, दुष्ट नाहीयेत हे स्वतःच्याच मनाला परोपरीने समजावून सांगितलं. नंतरच्या वर्षी मॅट्रीकची परीक्षा पास झाली पण परिस्थितीचा विचार करून नाईलाजाने तिने तिथेच आपलं शिक्षण थांबवलं!

शिक्षण थांबलं तरी स्वत: पूर्णवेळ गरजवंत घरासाठीच नाही फक्त तर स्वत:चा आनंद शोधत ती स्वत:साठीही जगत राहिली. भल्या पहाटे उठून घरासमोरच्या अंगणात सडा रांगोळी घालणं हे तिचं ठरलेलं काम. अंगणात रोज रेखाटलेल्या नवनव्या रांगोळ्या हे संपूर्ण कि. वाडीत वाखाणलं जाणारं तिचं खास वैशिष्ट्य होतं. तिच्या चिमटीतून अलगदपणे झरझर झिरपणाऱ्या रांगोळीच्या रेखीव अशा वळणदार रेखाकृतींमधले आकर्षक आकृतीबंध दृष्ट लागण्याइतके सुंदर असत. काॅलनीतले सगळेच ओळखीचे. त्यामुळे रस्त्यावरुन येणाजाणाऱ्या सर्वांच्याच नजरा आणि पाऊले पाटलांच्या अंगणाकडे हमखास वळायचीच!शिवणकला तर तिने निदान प्राथमिक तंत्र शिकून घेण्याची संधी मिळालेली नसतानाही सरावाने शिकून घेत त्याला कल्पकतेची जोड देऊन त्यात प्राविण्य मिळवलं होतं. त्याकाळी ‘फॅशन डिझाईन’ या संकल्पनेचा जन्मही झालेला नव्हता तेव्हाची ही गोष्ट. तिच्या कल्पनेतून साकारलेल्या विविध आकर्षक फॅशन डिझाईन्सवर तिच्या रांगोळ्यांतल्या आकृतीबंधांवर असायचा तसाच खास तिचा असा ठळक ठसा उमटलेला असे!

गणित हा विषयतर तिच्या आवडीचाच. त्याकाळी शिकवण्यांचं प्रस्थ रुढ नव्हतं झालेलं. तरीही अगदीच कुणी गळ घातली तर ‘मी माझं काम करता करता शिकवणार’ या अटीवर ती दरवर्षी अकरावीतल्या एक-दोन मुलांसाठी गणिताची स्पेशल ट्युशन घ्यायची. याखेरीज आपल्या सर्व भावंडांचा ती स्वत: अभ्यास घ्यायची तो वेगळाच. यातून महिन्याभरांत होणारी तिची कमाई वडिलांच्या तुटपुंज्या पगाराच्या जवळपास असायची जी घरासाठीच खर्चही व्हायची.

लिलाताईचीही दत्तावर अतिशय श्रध्दा होतीच. तिच्या रोजच्या कामांच्या धबगडयांत नित्यनेमांना कुठून वेळ असायला? मात्र आमच्या अंगणात दत्तपादुकांची

प्राणप्रतिष्ठा झाल्यापासून अंत:प्रेरणेनेच असेल पण कांही विशिष्ट संकल्प न सोडताही अगदी साधेपणाने लीलाताईचा नित्यनेम सुरु झाला होता. रोजचं सडासंमर्जन होताच ती आधी स्नान आवरुन पादुकांची पूजा संपण्यापूर्वीच बाहेर येऊन उभी रहायची आणि माझ्या बाबांनी तिला तीर्थप्रसाद देताच प्रदक्षिणा घालून एकाग्रतेने हात जोडून नमस्कार करायची. तिचा हा नित्यनेम पुढे अनेक दिवस न चुकता निर्विघ्नपणे सुरूही होता. पण एक दिवस अचानक याच पाटील कुटुंबाचं स्वास्थ्य नाहीसं करणारी ‘ती’ विचित्र घटना घडली.. ! म्हटलं तर एरवी तशी साधीच पण लिलाताईचं आत्मभान जागं करीत त्या घरालाच हादरा देऊन गेलेली!!

तो प्रसंग तिच्या दत्तगुरुंवरील श्रद्धेची कसोटी पहाणारा ठरला होता आणि माझ्या बाबांकडून तिच्या विचारांना अकल्पित मिळालेल्या योग्य दिशेमुळे ती त्या कसोटीला उतरलीही!

तो दिवस न् ती घटना दोन्हीही माझ्या मनातील लिलाताईच्या आठवणींचा अविभाज्य भाग बनून गेलेले आहेत!

 क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ताशा, वेश्या, आणि कविता… एक सत्यकथा…भाग – १ ☆ श्री नितीन सुभाष चंदनशिवे ☆

श्री नितीन सुभाष चंदनशिवे

 

?जीवनरंग ?

☆ ताशा, वेश्या, आणि कविता… एक सत्यकथा…भाग – १ ☆ श्री नितीन सुभाष चंदनशिवे 

शेवटची लोकल नुकतीच निघून गेली आणि फ्लॅटफार्म रिकामं झालं. मुसळधार पाऊस कोसळून ओसरता झाला होता. रिमझिम बऱ्यापैकी सुरूच होती. बाकड्यावर पोतं टाकलं आणि अंगावर एक चादर घेऊन मी आडवा झालो. मला आठवतंय त्या दिवशी नगरपालिकेच्या निवडणुकांचा निकाल लागला होता. बाहेर रस्त्यावर विजयी उमेदवारांची मिरवणूक चालू होती. पाऊस थांबल्यामुळे तिला आणखी जोर चढला होता. फटाक्यांचा माळा वाजत होत्या. ढोल ताश्यांचा आवाज आणखीन वाढला होता. तासभर धिंगाणा सुरूच होता. त्या आवाजाच्या गर्दीत बच्चनच्या ताशाचा आवाज मी बरोबर हेरला आणि बच्चनला यायला उशीर होणार याची खात्री झाली. झोप लागत नव्हती. भूक लागली होती. उठून बसलो आणि तंबाखूचा विडा मळायला सुरवात केली.

विडा मळत असताना मागून मंगलचा आवाज आला “क्या कालू झोपला नाहीस अजून”. “अगं बच्चन अजून आला नाही”… असे म्हणत, मी बाकड्यावर पुन्हा बसकण मारली. ओठावर दोन बोटं गच्च दाबून थुकलो. पिचकारी फ्लॅटफार्मच्या बाहेर गेली. हा माझा छंद होता.

बारा वाजले होते जय हिंद थिएटर जवळ होतं. शेवटचा खेळ संपत आला तशी मंगल उभी राहत म्हणाली, ”चल आलेच मी तासाभरात”. असं म्हणून ती निघून गेली. तिच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे एक कटाक्ष टाकला आणि तोंडातला विडा बोटाने धरून भिरकावला. मंगल कोण कुठली माहीत नाही. आसऱ्याला एकत्र जमलेल्या गर्दीला एकच नातं असतं ते म्हणजे परिस्थितीचं. आणि म्हणाल तर फक्त ओळखीचं. मंगल इथं धंदा करत होती. शरीर विकून फक्त पोट भरत होती. मी बॅचलर मुलगा. दिवसभर काम आणि कॉलेज करून रात्र काढायला स्टेशनवर येणारा. इथं मी खरी जिंदगी जगलो. फार नाही पण तीन साडे तीन महिने तर नक्कीच.

अर्ध्या तासाने मंगल पुन्हा आली. चिडलेली आहे हे लगेच ओळखलं. आल्या आल्या तिने इशारा केला आणि मी तंबाखू मळायला लागलो. तिच्यासाठी विडा मीच मळत असे. विडा तिच्या हातावर देत म्हणालो “आज लवकर आलीस.. ” “अरे आज निकाल लागला ना, थिएटर रिकामच सालं. गिऱ्हाईकच नाही. जे रोजचे दोघेजण असतात तेपण दिसले नाहीत. तो नालायक नवीन आलेला पोलीस दोनशे रुपये फुकटचे घेऊन गेला. साला… हफ्ता आम्हाला पण द्यायला लागतो काळू “… तिचं बोलणं थांबवत मी आवंढा गिळत विचारलं “जेवलीस?”. मान झटकत छया करत खूप उपाशी असल्याचा इशारा तिने दिला. पण त्यातूनही ती म्हणाली “ तू खाल्लस काय?” मी नाही म्हणालो. त्यावर तिने पुन्हा विचारलं “बच्चन कुठाय” (शिवी)….. ? मी सांगितलं “आज मिरवणुकीत ताशा वाजवायला गेलाय तो”. मंगलने पण तंबाखू थुकली आणि म्हणाली, “थांब कायतरी बघते खायला.. काही नाही मिळालं तर आत्ता महालक्ष्मी येईल पुणे स्टेशनला जाऊ”. तेवढ्यात गाडीचा आवाज आलाच. मंगल म्हणाली, “चल त्या बाजूला जायला हवं नाहीतर उपाशी राहायला लागल आज चल उठ लवकर “.. मी चादर गुंडाळून हातात घेतली आणि आम्ही निघणार तेवढ्यात बच्चनचा आवाज आला. “ये काळू ये मंगला, अरे रुखो मुझे छोडके कहा जाते. ” या दोघांची हिंदी अशीच.

खांद्यावर ताशा अडकवलेला आणि हातात काळी पिशवी घेतलेला ताशेवाला बच्चन दिसला की मला बाप भेटल्यागत वाटायचं. त्याचं वय असेल चाळीस पंचेचाळीस. कधीतरी बोलण्यात परभणीच्या कोणत्यातरी भागातला आहे एवढंच कळलं होतं. बाकी काहीच माहिती नव्हती. त्यादिवशीपण हातात काळी प्लॅस्टिकची पिशवी दाखवत आम्हाला दोघांना म्हणाला “चलो खाना खाते है”

आम्ही लगेच बाकड्यावर बसलो पिशवी फोडली. गरम बिर्याणी तिघांसाठी आणली होती त्याने. मटण कशाचं म्हणून मी कधीही विचारलं नाही. मंगल म्हणाली “काय बच्चन आज लय खूष.. ‘ त्यावर ताशावर हात मारत बच्चन बोलला “बडी सुपारी मिली दो सो रुपया मिला. सौ का बिर्याणी लाया तेरे लिय.. ” बिर्याणी कधी संपली आणि पोट कधी भरून ढेकर आला कळलं नाही. रेल्वेच्या नळावर हात धूवून पाणी प्यालो आणि बाकड्यावर येऊन बसलो.

बराच वेळ तिघांच्या गप्पा चालायच्या. झोप आली की, मग आपापल्या बाकड्यावर जाऊन आम्ही झोपायचो.

त्याच फ्लॅटफॉर्मवर माझ्या बऱ्याच कवितांचा जन्म झालाय. आणि माझासुद्धा…

ताशेवाला बच्चन या बच्चन बरोबर गप्पा मारत असताना तो एकदा म्हणाला होता की, “काळ्या एक दिवस मी असा ताशा वाजवीन की या दफणभूमीतले मुडदे पण बाहेर येऊन नाचतील. ” त्याच्या या एका वाक्याने माझ्या मनावर खूप खोलवर परिणाम केला. साला साधा ताशा वाजवणारा माणूस पण हा सुद्धा एक ध्येय ठेऊन आहे आणि त्याच्या कलेशी किती इमान राखून आहे. कधी कधी मंगलपण लावण्या ऐकवायची. सोलापूरच्या तमाशात कामाला होती असे सांगायची. नंतर नवरा वारल्यावर तमाशा बंद झाल्यानंतर एका मुलाला भावाकडे ठेऊन ती या धंद्यात आणि पुण्यात आली होती. आम्हां तिघा कलाकारांची भेट रोज रात्री इथेच व्हायची. त्याचा ताशा तिची लावणी आणि माझी कविता असायची. त्यावेळी मी कधीच सभागृहात किंवा स्टेजवर कविता म्हणली नव्हती. फक्त लिहायचो आणि बडबडत बसायचो. माझं पब्लिक ही फक्त दोन माणसं. त्यांनी दिलेली जी दाद असायची ती दाद जगातल्या कोणत्याच कवीच्या वाट्याला आली नाही हे मी फार अभिमानाने सांगीन.

रात्री साडेअकरा वाजता मी हजेरी लावायचो ती उपाशी पोट घेऊनच. कारण कोणतंही नातं नसणारी पण हक्काची ही दोन माणसं मला उपाशी झोपू देत नव्हती. आणि मी जे म्हणेल ते ते मला खायला देत गेली. रूमची सोय झालेली असतानासुद्धा मी यांच्यासाठी फ्लॅटफॉर्म सोडायला तयार नव्हतो.

एकदा वर्तमान पेपरला सरस्वती विद्या मंदिर येथे राज्यस्तरीय आंतरमहाविद्यालयीन काव्यवाचन स्पर्धा असल्याची जाहीरात वाचली. बक्षीस तीन हजार रुपये होतं. मी बच्चनला आणि मंगलला ती वाचून दाखवली. माझी जायची कोणतीच इच्छा नव्हती पण बच्चन बोलला “तू जा इथं. ” मंगलनेही तेच वाक्य पुन्हा गिरवले. मला हुरूप चढला. पण घाबरलो होतो म्हणलं, “मला जमणार नाही बोलायला. आपला काय नंबर येणार नाही. आणि मी काय स्टेजवर जाणार नाही. ” त्यावर बच्चन म्हणाला, “देख जितने केलिय मत खेल. तू सिर्फ इधर जैसे बोलता है वैसेच उधर बोल. ” त्यावर मंगल म्हणाली “आणि अजून पंधरा दिवस वेळ आहे. प्रॅक्टिस कर. ” ती तमाशात काम केलेली असल्यामुळे प्रॅक्टिस वैगेरे तिला माहीत होतं.

मी तयार झालो. माझे लाडके मराठीचे प्राध्यापक रोकडे सर यांच्याकडून शिफारस पत्र घेतलं आणि नाव नोंदणी झाली. मग प्रॅक्टिस सुरू झाली. अनेक कवितांमधून माझी भारत माझा देश आहे ही कविता बच्चनला आवडायची त्याने तिच म्हणायला सांगितली. झालं तयारी झाली आणि स्पर्धेच्या आदल्या रात्री दोघांनीही शुभेच्छा दिल्या आणि सांगितलं उद्या भेटू काळू. आणि दोघेही अंधारात गेले. एकाच वयाचे होते दोघेही. तिला गिऱ्हाईक मिळालं नाही किंवा मिळालं तरीसुद्धा ते शारीरिक एकत्र येत होते. दोघांमध्ये प्रेम होतं का नव्हतं ते त्यांनाच माहीत. पण दोघेही कुणाला यायला उशीर झाला तर एकमेकांबद्दल काळजी करायचे. मी त्यांना चिडवायचो सुद्धा. अर्थात भाषा कमरेखालची असायची. जी मी इथेच शिकली होती.

स्पर्धेचा तो दिवस आठवतोय. शंभरच्यावर स्पर्धक आले होते आणि मंगेश पाडगावकर प्रमुख पाहुणे होते त्यांच्या हस्ते बक्षीस वितरण होतं. माझा नंबर आला मी जीव लावून कविता सादर केली. डोळ्यासमोर फक्त फ्लॅटफार्म आहे असे मनावर गोंदवून आणि समोर फक्त बच्चन आणि मंगलच आहेत असा विचार करून मी माझी आयुष्यातली पहिली कविता सादर केली. स्पर्धक संपले होते. अर्धा तास ब्रेक होता. त्यानंतर बक्षिस वितरण होतं. मी थांबावं का निघावं असा विचार करत होतो. कामाला सुट्टी टाकली होती. म्हणलं जाऊन तरी काय करायचं बसू इथंच. निदान पाडगावकरांना तरी बघून होईल. अर्धा तास खूप जीवघेणा गेला. पुन्हा हॉल गच्च भरला.

 प्रमुख पाहुणे पाडगावकर आणि इतर स्टेजवर स्थानापन्न झाले. कार्यक्रम सुरू झाला एक दोन मनोगतं झाली. नंतर पाडगावकर बोलले. आणि त्यानंतर बक्षिस वितरण सुरू झालं. उत्तेजनार्थ दोन बक्षिसं जाहीर जाहीर झाली. हॉल टाळ्यांच्या गजराने घुमत होता.

– क्रमशः भाग पहिला

© श्री नितीन सुभाष चंदनशिवे (दंगलकार)

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈