हिंदी साहित्य – आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक शोधपरक आलेख क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -”)

☆ आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रेम – सौंदर्य और अद्भुत कल्पनाओं के सुख – सागर से दूर व्यंग्य में कड़वे सच के दर्शन होते हैं। सामान्य व्यक्ति सामाजिक विसंगतियों, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि से पीड़ित है, किंतु कुछ कर नहीं पाता अतः जब कोई इन मुद्दों को विषय बनाकर निडरता पूर्वक अपनी लेखनी से उन पर प्रहार करता है तो लोगों को उसमें अपनी बात नजर आती है। लोग व्यंग्यकार और उसकी रचना से ठीक उसी तरह जुड़ जाते हैं जिस तरह अन्याय के विरुद्ध लड़ते किसी फिल्म के हीरो से। यही कारण है कि व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

व्यंग्य – चिंतकों द्वारा आजकल व्यंग्य पर तरह – तरह के विमर्श किए जा रहे हैं। व्यंग्य के जन्म और विकास की लम्बी पड़ताल की जा रही है। व्यंग्य दुनिया में कैसे आया? व्यंग्य कहाँ से पैदा होता है ? व्यंग्य का मुख्य स्त्रोत क्या है ? व्यंग्य का वो कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। कथित विद्वानों द्वारा इन प्रश्नों के न मानने योग्य हास्यास्पद जवाब भी दिए जा रहे हैं।

मेरे अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। इसे तत्व के बजाय यौगिक अथवा मिश्रण कहना अधिक उचित जान पड़ता है। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतीकरण से अलग-अलग अर्थ प्रकट करता है।

नारद मुनि मात्र ‘नारायण-नारायण’ भी भिन्न-भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके ‘नारायण-नारायण’ कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किन्तु व्यंग्य केवल कागज पर सवार शब्दों की नाव नहीं है अपितु शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म दे देता है। जिस तरह परिस्थितिवश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय और क्रोध के भाव पैदा होते हैं, उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है अतः व्यंग्य को मनोभाव भी कहा जा सकता है। व्यंग्य शब्दों के साथ ही वाणी, हावभाव और सिर्फ नजरों से भी व्यक्त किया जा सकता है।

साहित्य में व्यंग्य का विकास हास्य से मानने वालों का कथन मानव विकास के “डार्विन सिद्धांत” जैसा ही अमान्य हो चुका हास्यास्पद सिद्धांत लगता है। हास्य को व्यंग्य का जन्मदाता कदापि नहीं कहा जा सकता। हास्य और व्यंग्य जुड़वा हो सकते हैं, किन्तु पृथक-पृथक हैं। इनके प्रभाव भी अलग-अलग हैं। हास्य सभी को आनंद की अनुभूति कराता है, प्रसन्नचित्त कर देता है जबकि व्यंग्य सबको आनंद की अनुभूति नहीं कराता। इससे यदि कुछ लोग प्रसन्न होते हैं तो अनेक लोग आहत, अपमानित, क्रोधित और दुखी भी होते हैं। कुछ कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि हिन्दी साहित्य का विकास अभी भी बाकी है। व्यंग्य, साहित्य के मुकाबले अल्पायु वाला है। यहाँ यही कहा जा सकता है कि विकास एक निरंतर होने वाली प्रक्रिया है, इसे कभी भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक व्यंग्य की बात है तो वह सदा से है, यह बात अलग है कि पहले यह खरपतवार की भांति उपेक्षित रहा।

हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है कि – ‘‘व्यंग्य जीवन की आलोचना है। वे व्यंग्य को विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। व्यंग्य एक गंभीर चीज है। हंसने-हंसाने की चीज नहीं। व्यंग्य निष्पक्ष ईमानदारी के बिना पैदा नहीं हो सकता और यह ईमानदारी अपने युग के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति होनी चाहिये।”

यदि व्यंग्य की इस “परसाई परिभाषा” को मान लिया जाए तो व्यंग्य मात्र निंदा बनकर रह जाएगा। समाचार लेखन में अथवा व्यंग्यकार के लेखन में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाएगा। निःसंदेह परसाई जी की ऊपर लिखी बातें मानी जा सकती हैं, किन्तु यह भी सच है कि व्यंग्यकार का नजरिया पत्रकार से अलग होता है। पत्रकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्ड का पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सीधा-सीधा पर्दाफाश करता है, जबकि व्यंग्यकार उसकी निंदा करता है। तथ्यों पर ईमानदार रहते हुए उसकी खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकता।

समय, काल, समाज को बदलता है, समाज नजरिये को और नजरिया लेखन को। संभवतः हम दोहा, चौपाई की भांति व्यंग्य की घेराबंदी नहीं कर सकते। न ही उसे किसी सरगम में कसा जा सकता है। वह नजरिये को तीखी धार से प्रस्तुत करती स्वंतत्र अभिव्यक्ति है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “परिवर्तन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆

✍ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

सड़क पर यातायात बहुत बढ गया। ट्रैफिक जाम हो जाता। ऑफिस जाने आने वाले सुबह शाम परेशान होते, खीजते। व्यवस्था को दोष देते। प्रिंट और मीडिया पत्रकार ट्रैफिक जाम और परेशान नागरिकों के विविध एंगल से प्रभावी फोटो समाचार के साथ प्रकाशित करते। जनता तो खीजते, घिघियाते बड़बड़ाते हुए सहन करने में नंवर वन पहले थी और आज भी है। सोचती है कि हमारा धर्म सहना है। घर हवा पानी सड़क के लिए सरकार कर के रूप में जो माँगे वह अदा करना है। जनता बहुत धार्मिक है, सहनशील है, उदार है और ईश्वर सहित सब पर विश्वास करती है।

जनता के सब्र को फल मिला और मंत्री जी निरीक्षण करने आ गए। स्थिति परिस्थिति का जायजा लिया और सड़क चौराहे के ऊपर उत्तर से दक्षिण की ओर ऊपरी पुल बनाने का निर्णय सुना दिया। निर्णय पर कार्रवाई चलती रही, सड़क का अध्ययन नाप जोख होने लगा। एंक्रोचमेंट हटाए जाने लगे। छोटे मोटे खोमचे वाले, चायपान का ठेला लगाने वाले, सड़क के हिस्से को फुटपाथ समझ उस पर सामान बेचने वाले, धंधा बंद होने से परेशान तो हुए, भुनभुनाते हुए इधर उधर भागने लगे। दो पहिया वाले और पैदल चलने वाले थोड़े खुश हुए कि उन्हें आवागमन के लिए थोड़ी जगह मिल गई। सात आठ महीने ऐसे ही गुजर गए।

इन सबके चलते एक दिन पुल के पिलर के लिए गड्ढे खोदने की प्रक्रिया दिखाई दी। खुदाई प्रक्रिया से सड़क पर अवरोध आने लगा। लोग खुदाई स्थल के दाएं बाएं से अपने दुपहिया चौपहिया वाहन निकाल जैसे तैसे आने जाने लगे। पैदल चलने वालों के लिए तो सड़क पर जगह पहले ही कम थी, अब और अधिक कम हो गई। जाम में खड़े वाहनों के बीच से या इधर उधर से सड़क पार करने वाले वृद्धों, महिलाओं व व्यक्तियों को देखकर वाहन चालकों की निगाहों में प्रश्न उबलते से दिखते कि लोग सड़क पर पैदल क्यों चलते हैं, सड़क पर आते ही क्यों हैं? बच्चों को देखकर उनकी निगाहों में थोड़ा रहम भी दिखाई दे जाता।

सड़क चौक के इधर उधर बने पिलर कांक्रीट की मोटी और भारी बड़ी चादरों से ढंके जाने लगे। असल में ये चादरें नहीं पुल के हिस्से थे जो मशीनों द्वारा बनाए जाते मशीनों द्वारा ऊपर चढाए जाते और मशीनों द्वारा ही एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच बिछा दिए जाते । नीचे केवल गड्ढे खोदे गए। पिलर भी ऐसे खडे किए जाते हैं कि नीचे सीमेंट बालू कुछ दिखाई नहीं देता। लोहे की सरियों का बड़ा सा गोल जाल खड़ा किया जाता है और मशीन से तैयार कांक्रीट उस जाल में उड़ेल दिया जाता है। और कुछ दिन में पिलर खडे हो जाते हैं। केवल पिलर के आसपास की जमीन पर बैरियर लगा कर सड़क को छोटा अवश्य करना पड़ता है और आवागमन के लिए रास्ते मोड़ दिए जाते हैं।

अब चौराहे के ऊपर पुल बिछाना शुरू हुआ तो चौराहे पर पुल के नीचे आना जाना बंद कर दिया गया और वाहनों का रूट बदल दिया गया । आम गरीब नागरिकों के लिए सबसे अधिक सुविधाजनक साधन सरकारी बस के अड्डे को इधर उधर बिखरा दिया। चौराहे के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में बस चौराहे तक आतीं और वहीं से लौट जाती हैं। नियमित बस यात्री को अपने निश्चित स्थान पर बस न पाकर, जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ जिस किसी प्रकार पहुंच कर बस पकड़नी होती है और वापसी में उसी जगह उतरना होता है। घर से बस पकड़ने के लिए पहुंचने और वापसी में घर तक पहुंचने के लिए पुल बनाने के लिए किए गए परिवर्तन को सहन करना ही होगा। जब पुल बन जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही तो विकास होगा। उपलब्ध सड़क पर बढती वाहनों की संख्या से उत्पन्न समस्या से निपटने के लिए परिवर्तन तो होगा ही।

 

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ. गुलाब चंद पटेल

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “युग द्रष्टा अटल” – संपादन –डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆ समीक्षा – डॉ. गुलाब चंद पटेल  ☆

पुस्तक – ‘युग द्रष्टा अटल’ (काव्य-संग्रह)

संपादन – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक, लुधियाना (पंजाब)

समीक्षक – डॉ. गुलाब चंद पटेल, गांधी नगर (गुजरात)

डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी एक उच्च कोटी के कवि थे और मूल्य आधारित विचार धारा से चलनेवाले सिद्धांतवादी नेता के साथ ही संवेदनशील राज नेता भी थे ।इनके लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी  का यह काव्य संग्रह अटल जी के व्यक्तित्व को उजागर करता है।

युग द्रष्टा अटल जी उम्दा व्यक्तित्व के साथ प्रखर वक्ता, कवि पत्रकार, दूरदर्शी ह्रदयस्पर्शी वाणी के साथ विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ था। वे 1996 मे भारत के प्रधान मंत्री बने थे। इनकी मृत्यु 16 अगस्त 2018 को हुई थी। 

स्व. अटल जी का “मेरी इक्यावन कविताएं“ प्रसिद्ध काव्य संग्रह था। उसका विमोचन दिल्ली मे भारत के पूर्वा प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिंह राव के कर कमलों से हुआ था। ‘यक्ष प्रश्न’ कविता भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखी थी। वे आज नहीं हे, कल नहीं होंगे। अटल बिहारी जी भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुये थे।

स्व. अटल जी ने राष्ट्र धर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन पत्र पत्रिकाओ का सम्पादन कार्य कुशलतापूर्वक किया था। अटल जी भारत संघ के ग्यारहवे प्रधान मंत्री बने थे।

ऐसे महान व्यक्तित्व के लिए डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक जी ने इस काव्य संग्रह का बहुत सुंदर संपादन किया है। आपने अटल जी के काव्य के सांस्कृतिक चेतना विषय पर शोध कार्य किया है।

‘युग द्रष्टा अटल’ काव्य-संग्रह मै कुल मिलकर 62 कवियों की रचनाओं को स्थान मिला है। जिसमे गुजरात के डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, डॉ गुलाब चंद पटेल, फोरम महेता और पंजाब की कवयित्री डॉ जसप्रीत कौर फ़लक की रचना को स्थान मिला है। अटल जी का विश्वास और इरादा अटल था।अटल जी के लिए बहुत ही सुंदर रचनाएँ इस काव्य संग्रह मै शामिल हैं। यह काव्य संग्रह भावी युवा पीढ़ी के लिए नवीन ऊर्जा प्रदान करेगा। पाठकों को भी राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देने हेतु प्रेरित करेगा।

भारत सरकार के सड़क सुरक्षा, सड़क परिवहन मंत्रालय के सदस्य और भाजपा के प्रवक्ता कमाल जीत सोई ने इस काव्य संग्रह के सृजन को साहित्य के क्षेत्र मै अभूत पूर्व योगदान देनेवाला बताया है। यह काव्य संग्रह बुद्धिजीवी पाठको के साथ-साथ युवा पीढ़ी को देश प्रेम और राष्ट्र निर्माण के प्रति अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने वाला इनके संदेश में बताया है।

डॉ महेश सोनी भाजपा मण्डल मंत्री जिला पाली राजस्थान ने अपने संदेश मै युग द्रष्टा अटल काव्य संग्रह अटलजी के व्यक्तित्व और सृजनात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित काव्य-कृति बताया है।

डॉ राजेंद्र सिंह साहिल, अध्यक्ष (हिन्दी विभाग),  गुरु हरगोविंद सिंह खालसा कॉलेज, लुधियाना पंजाब ने बताया है कि डॉ फ़लक स्वयं भी अटल काव्य की विशेषज्ञ हैं।इन्होने बताया है कि अटल जी के काव्य संग्रह में राष्ट्रीय एवं संस्कृतिक चेतना विषय पर डॉ जसप्रीत कौर फ़लक ने पी एच डी की उपाधि प्राप्त की है। यह इनका सार्थक और सफल प्रयास है। इस सृजनात्मक कार्य के लिए ढेरों बधाइयाँ भी प्रदान की गई हैं।

समपादकीय लेख मे डॉ जसप्रीत कौर फ़लक जी ने बताया है कि इनका कविता के प्रति आकर्षण बचपन से ही था। इन्होने अपने भीतर काव्य का प्रवाह हमेशा महसूस किया है। यही कारण है जिसके लिए इन्हें अटल जी की रचनाओ ने प्रभावित किया है।

काव्य संग्रह के अंत में पुस्तक के पीछे स्व अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार उद्धृत हैं।

जो जितना ऊंचा,

उतना ही एकाकी होता है,

हर भर को स्वयं ही ढोता है,

चेहरे पर मुसकानें चिपका,

मन ही मन रोता है।

 

जरूरी यह है की,

ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिस से मनुष्य ,

ठूंठ–सा खड़ा न रहे ,

औरों से घुले-मिले ,

किसी को साथ ले ,

किसी के संग चले,

अटल जी के जन्मदिवस के अवसर पर उन्हें पुष्पार्पित कर सादर प्रणाम करते हैं।

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

कवि, लेखक और अनुवादक

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 53 – अलार्म…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 53 – अलार्म श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मोबाइल का अलार्म लगातार बज रहा था और सुनीता  बार-बार बंद कर  दे रही थी। मां ने आवाज लगाई  तो उसने रजाई को और ऊपर तक तान कर सो गई। मां ने इस बार जोर से चिल्लाया आखिरी बार बोल रही हूं, उठ कर नीचे जाकर नाश्ता कर लो।  जल्दी उठो वरना अकेली ही घर में रह जाओगी। मैं ताला लगा कर ऑफिस चली जाऊंगी।

सुनीता अलसाई सी चिल्लाकर बोली  मैं कल जरूर आपके साथ कॉलेज जाउंगी आज सारा दिन घर में सोने दो।

माँ ने कहा – कल तो कभी आयेगा ही नहीं? चलो! अब जल्दी से उठकर तैयार जाओ। आज बहुत कोहरा है बाहर कुछ दिख भी नहीं रहा है ठंडी हवा से शरीर कंपकंपा रहा है।

कुछ देर बाद दोनों सड़क पर थे। सुनीता की माँ का ध्यान बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी और फुटपाथ में बैठे हुए कुछ लोगों की ओर गया।

इतनी ठंड में सुबह सुबह ये बच्चे कैसे खेल रहे हैं और सभी लोग काम पर जा रहे हैं। ठंड तो सबको लगती है, मुझे भी लग रही है। लेकिन देखो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे। मैं पढ़ी लिखी थी इसलिए नौकरी कर तुम्हें पढ़ा रही हूं। अपना और तुम्हारा ध्यान रख रही हूं। तुम बड़ी ऑफिसर बनो। सामाजिक ताकत तो एक बड़े पद पर रहकर ही मिलती है। अन्यथा ये समाज के भेड़िये तुम्हें खा जाएंगे। ठंड में इंसान मजबूर होकर काम पर जाता है। तुम अच्छे से पढ़ाई करो और एक बड़ी ऑफिसर बनो।

अपने लक्ष्य को सामने रखो अपने आप ठंड भाग जाएगी। अपने मन में दृढ़ निश्चय करो। अलार्म बजते ही तुम समय के साथ नहीं चलोगी तो पीछे रह जाओगी। समय किसी के लिए रुकता नहीं है। देखो बातों बातों में तुम्हारा कॉलेज आ गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 254 ☆ त्या  वाटेवर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 254 ?

☆ त्या  वाटेवर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गतकाळाचा  जन्म जिव्हाळा

आठवणींचा फक्त पाचोळा

त्या वाटेवर ……

 

हुंदडणारे मुग्ध बालपण

नात्यांची गहिरी गुंफण

त्या वाटेवर …….

 

खळखळणारा  अवखळ ओढा

सोनपिवळ्या तरवडाची  गर्दी

पाण्या मधली  दाट लव्हाळी

इथेच होती एकेकाळी …….

पाहते आता ठक्क कोरडी

फुफाटलेली ओढ्याची जागा

त्या वाटेवर ……

 

बुजलेल्या  ढव-याची  खूण,

पाषाणाची  जुनी शुष्क डोण

त्या वाटेवर …….

 

दगडी वाड्याच्या  जागी आता

बोरी ,बाभळी आणि  सराटा ,

परी वास्तुचे  रक्षण करतो ,

भुजंग काळाचा निरंतर …..

त्या वाटेवर ………..

© प्रभा सोनवणे

१४ नोव्हेंबर २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “कवितेचे झाड….” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “कवितेचे झाड…. ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

मनास अंकुर फुटता

भावनांचा जन्म होई

शब्दातून मग कवितेस

फुटे नवी पालवी….

*

अनुभवांचे खतपाणी

संवेदनांचे सिंचन

विचारांची निगराणी

कल्पना वास्तवाचे मिलन…

*

कधी मोहर कधी पानगळ

कवितेचे झाड अवखळ

तिच्यासोबत मी कणखर

आणि जगणे सहज, सुंदर….

*

प्रेम आनंदाने बहरते

कवितेचे झाड माझे

मायेच्या सावलीत त्याच्या

ही शब्दकळी सुखावते….

💞शब्दकळी विजया 💞 

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचा ☆ काळरात्र… ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

📚 क्षण सृजनाचा 📚

☆ काळरात्र… ☆ श्री सुनील देशपांडे 

कोयनानगर – ज्या भूमीवर माझं बालपण, शालेय शिक्षण झालं ती स्वप्ननगरी १९६७ मध्ये ११ डिसेंबर या दिवशी भूमिगत (!) झाली.  त्याच्या आठवणी अजूनही मधून मधून डोके वर काढतात आणि कधी कधी काव्यरूपातही उमटतात.

☆ काळरात्र … ☆ श्री सुनील देशपांडे 

ती काळरात्र होती, भूमीतुनी उसळली.

तोडून काळजाचा, लचका, निघून गेली

ती काळरात्र होती, फाडून भूमी आली.

गाडून स्वप्ननगरी, कोठे निघून गेली ?

 *

झोपेत साखरेच्या, देऊन वेदनांना,

क्रूर हसत होती, ती काळरात्र होती.

कित्येक चांदण्यांना, विझवून ती निमाली,

की कृष्णविवर कोठे, शोधून लुप्त झाली?

 *

कित्येक भक्त होते, देवास प्यार झाले.

ती काळरात्र मग का, देवाकडून आली?

कित्येक संत गुरुजन, मंत्रून भूमि गेले.

तप पुण्य त्या जनांचे, उधळून ती परतली.

 *

कित्येक वर्ष सरले, तो काळ निघून गेला.

पण काळजावरी ती, दुश्चिन्ह कोरूनी गेली.

 — श्री सुनील देशपांडे

© श्री सुनील देशपांडे

पुणे, मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रिय डिसेंबर… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

?  विविधा ?

☆ प्रिय डिसेंबर… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

प्रिय डिसेंबर महिना,

कितीरे वाट पहायला लावतोस

अगदी वर्षाच्या शेवटी येतोस बघ..

बारा भावंडातील शेंडेफळ ना. म्हणून सर्वांचा लाडका..

हिरव्यागार निसर्गाच्या पायघड्यांवरून धुक्याची शाल लपेटून गुलाबी थंडी पसरवत एखाद्या रूपगर्वितेसारखा दिमाखात येतोस,

सर्वांना भरभरुन चैतन्य व उत्साह देतोस अगदी हातचे काही न राखता…

भरपूर खा… प्या… व्यायाम करा असा संदेश घेऊन तू येतोस त्यामुळे दिवाळी नंतर आलेली मरगळ झटकून गृहिणी परत लगबगीने खाद्य पदार्थ करायला लागतात

सुरुवात होते ती डिंकाच्या लाडवाने बाजरीचा भात वांग्याचे भरीत मिरचीचा ठेचा त्याबरोबर गरम गरम भाकरी हुलग्याचे शिंगोळे वेगवेगळ्या चटण्या यामुळे रसना तृप्त होते

हा स्वर्गिय आनंद फक्त तूच देऊ शकतोस

हुरडा पार्टी तर तुझ्या शिवाय होतच नाही आणि पतंगोत्सव तो तुला मानाचा शिरपेच देऊन जातो

रात्री शेकोटीच्या भोवती बसून मारलेल्या गप्पा गाणी यांचा आनंद केवळ अवर्णनीय…

अश्या सर्व उत्साहवर्धक वातावरणातच तुझ्या मुळे दत्तजयंतीच्या निमित्ताने श्री दत्तगुरुंचे कृपाशिर्वाद आम्हाला मिळतात

नाताळ हा सण जायच्या आधी तू आम्हाला तो भेट म्हणून देतोस. तुझ्यावरच्या प्रेमाने आम्ही तो स्वीकारतो आणि सांताक्लाँजच्या प्रेमात पडून नाताळचा आनंद घेतो

तू आम्हाला खूप जवळचा वाटतोस… वर्षभरातील सर्व गुपिते उघड करण्याचे हक्काचे ठिकाण म्हणजे तू…

वर्षभरातील केलेल्या घटनांची तसेच चुकांची कबुली व नवीन संकल्प तुझ्याच साक्षीने होतात

चांगल्या वाईट गोष्टींचा पाढा तुझ्या समोरच वाचला जातो

पण सर्व माफ करुन नवीन उमेद तूच देतोस. आणि येतो तो तुला निरोप देण्याचा दिवस…

तुझ्या मुळेच आम्हाला नवीन वर्ष चुका सुधारण्याची संधी नवी स्वप्ने साकारण्याची जिद्द मिळते..

आम्ही धूमधडाक्यात तुला निरोप देतो. या कृतज्ञता सोहळ्यात गुंग असतानाच तू हुलकावणी देऊन निघून जातोस… हुरहुर लावून… मन हळवे करुन…

सदैव तुझ्या प्रेमात,

 

🌹🌹

लेखक : अज्ञात 

संग्राहक :श्री. अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, 

kelkaramol.blogspot.com  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘सहानुभूति…’ – लेखक – अज्ञात ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆ ‘सहानुभूति…’ – लेखक – अज्ञात ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

मी एका घराजवळून जात असताना अचानक मला त्या घरातून एका लहान मुलाच्या रडण्याचा आवाज ऐकू आला. त्या मुलाच्या रडण्याच्या आवाजात एवढी वेदना होती की आत जाऊन ते मूल का रडत आहे हे जाणून घेण्यापासून मी स्वतःला रोखू शकलो नाही.

आत गेल्यावर एक आई तिच्या दहा वर्षाच्या मुलाला हळूवारपणे मारतांना दिसली आणि ती स्वतःही मुलासोबत रडत होती. मी पुढे होऊन विचारले की, “ताई, या लहान मुलाला तुम्ही का मारताय? आणि तुम्ही स्वतःही का रडत आहात. “

ती म्हणाली, “भाऊ, याचे वडील देवाघरी गेले आहेत आणि आमची परिस्थिती खूपच नाजूक आहे. याच्या वडिलांच्या मृत्यूनंतर मी लोकांच्या घरी धुणं, भांडी, साफसफाई ची कामं करते आणि घराचा व याच्या शिक्षणाचा खर्च कसाबसा भागवते. आणि हा नालायक दररोज शाळेत उशीरा जातो आणि घरीही उशीरा येतो. कुठेही भटकत फिरतांना तो मुलांसोबत खेळण्यात गुंगून जातो आणि अभ्यासाकडे ही लक्ष देत नाही. त्यामुळे त्याचा शाळेचा गणवेश दररोज घाण होऊन जातो ज्यामुळे शाळेत शिक्षकही रागावतात. “

मी त्या मुलाला आणि त्याच्या आईला कसंतरी थोडेफार समजावून सांगितले आणि तेथून निघालो.

ही घटना होऊन थोडे दिवस उलटले होते आणि एके दिवशी सकाळी मी काही कामानिमित्त भाजी मंडईत गेलो होतो. तेव्हा अचानक माझी नजर त्याच दहा वर्षाच्या मुलावर पडली ज्याला घरात मार खाताना मी बघितले होते. मला दिसले की, तो मुलगा बाजारात फिरत होता आणि दुकानदार त्यांच्या दुकानासाठी भाजी विकत घेऊन पोत्यात भरतांना त्यातील थोडीफार भाजी खाली जमिनीवर पडलेली राहिली की, हा मुलगा लगेच ती उचलून आपल्या पिशवीत ठेवत होता.

हे बघून माझी उत्सुकता ताणली गेली व हे काय प्रकरण आहे असा विचार करत मी त्या मुलाच्या मागे गुपचूप जाऊ लागलो. त्याची पिशवी या खाली पडलेल्या व त्याने वेचलेल्या भाजीने भरल्यावर तो रस्त्याच्या कडेला बसला आणि जोरजोरात ओरडून ती भाजी विकायला लागला. त्याच्या चेहऱ्यावर धुळ व चिखलाचे पुट जमा झाले होते, गणवेश धुळीने माखलेला होता आणि डोळे पाणावलेले होते. असा दुकानदार मी आयुष्यात पहिल्यांदाच पाहत होतो.

त्याने बाजारात ज्या दुकानासमोर आपले छोटेसे दुकान मांडले होते, अचानक त्या दुकानातून एक माणूस उठला आणि त्याने लाथेने या मुलाचे दुकान लाथाडून टाकले आणि ओरडत शिव्या देत त्या मुलाला दूर ढकलून दिले.

मुलाच्या डोळ्यात अश्रू आले व मुकाट्याने पुन्हा त्याने तो विखूरलेला भाजीपाला गोळा करायला सुरुवात केली आणि काही वेळाने घाबरत त्याने आपली भाजी दुसऱ्या दुकानासमोर विकायला ठेवली. यावेळी ज्याच्या दुकानासमोर त्याने आपले छोटेसे दुकान मांडले होते तो चांगला माणूस असावा, कारण ती व्यक्ती त्या मुलाला काहीच बोलली नाही.

थोड्याशाच भाज्या होत्या आणि त्या इतर दुकानांपेक्षा कमी भावाने विकत होता म्हणून लवकरच त्याच्या जवळची भाजी विकली गेली. तो मुलगा उठला आणि त्या बाजारातील कपड्याच्या दुकानात गेला. माजी विकून आलेले पैसे त्या दुकानदाराला दिल्यानंतर दुकानात ठेवलेलं शाळेचं दफ्तर उचललं आणि काहीही न बोलता तो परत शाळेत गेला. मी पण त्याच्या मागे मागे जाऊ लागलो होतो.

मुलाने वाटेत रस्त्यावरील नळावर तोंड धुवून तो शाळेत गेला. मी पण त्याच्या मागे शाळेत गेलो. मुलगा शाळेत गेला तेव्हा त्याला एक तास उशीर झालेला होता. त्याच्या शिक्षकाने त्याला छडीने जोरदार फटके दिले. मी पटकन वर्गात जाऊन शिक्षकांना विनंती केली की या निरागस मुलाला मारू नका.

शिक्षक म्हणाले की तो रोज दीड तास उशिरा येतो, आणि भीतीपोटी त्याने शाळेत वेळेवर यावे म्हणून मी त्याला दररोज शिक्षा करतो. मी त्याच्या घरीही अनेकवेळा हे कळवले आहे.

मार खाल्ल्यावर तो मुलगा बिचारा वर्गात बसून अभ्यास करू लागला. मी त्याच्या शिक्षकाचा मोबाईल नंबर घेतला आणि घराकडे निघालो. घरी पोहोचल्यावर लक्षात आले की मी ज्या कामासाठी भाजी मंडईत गेलो होतो तेच नेमके मी विसरलो होतो. सायंकाळी तेथून परतताना मी बघितले की ते निरागस बालक घरी गेले आणि त्याच्या आईने त्याला पुन्हा मारहाण केली. रात्रभर माझं डोकं भणभणत होतं.

सकाळी उठल्यावर मी ताबडतोब मुलाच्या शिक्षकाला फोन करून विनंती केली की थोडा वेळ काढून त्यांनी मंडईला पोहोचावे. शिक्षकाने होकार दिला. सूर्य उगवला आणि मुलाची शाळेत जायची वेळ झाली. मुलगा आपले छोटे दुकान थाटण्यासाठी घरातून थेट बाजारात गेला.

मी तिच्या घरी गेलो आणि त्याच्या आईला म्हणालो, “ताई, माझ्यासोबत चला. तुमचा मुलगा शाळेत उशिरा का जातो हे मी तुम्हाला दाखवतो. “

“आज मी याला सोडणार नाही…. आता याला दाखवतेच… ” असं बडबडत ती लगेच माझ्यासोबत निघाली. मुलाचे शिक्षकही बाजारात आले होते. आम्ही तिघेही बाजारात तीन ठिकाणी जाऊन उभं राहिलो, आणि गुपचूप त्या मुलाकडे बघायला लागलो. आजही त्याला नेहमीप्रमाणे अनेक लोकांकडून फटकार आणि धक्काबुक्की सहन करावी लागली होती. आणि शेवटी तो मुलगा भाजी विकून कपड्याच्या दुकानात गेला.

अचानक माझी नजर त्याच्या आईवर पडली. तीच्या डोळ्यातून अश्रूंच्या धारा वहात होत्या. मी त्याच्या शिक्षकाकडे पाहिले. त्यांच्याही डोळ्यांतून अश्रू वाहत होते. त्या दोघांच्या चेहऱ्यावरून मला असे जाणवले की जणू त्यांच्या हातून त्या निरपराध बालकावर अन्याय झाला होता आणि आज त्यांना त्यांची चूक कळाली होती.

त्याची आई रडत रडतच घरी गेली आणि शिक्षकही पाणावलेल्या डोळ्यांनी शाळेत गेले. आजही मुलाने आलेले पैसे दुकानदाराला दिले आणि जाऊ लागला तेव्हा दुकानदाराने त्याला लेडीज सूट चे कापड दिले आणि म्हणाला, “बाळा, तू जमा केलेल्या सर्व पैशांचे हे कापड आहे. त्यांचे सर्व पैसे मिळाले. हे कापड आता तू घेऊन जा. “

मुलाने ते सूटचे कापड घेऊन शाळेच्या दप्तरात टाकले आणि शाळेत गेला. मी ही मागावर होतोच. शाळेत यायला आजही त्याला एक तास उशीर झालेला होता. तो थेट शिक्षकाकडे गेला, त्याचे दफ्तर बेंचवर ठेवले, आणि छडी ची शिक्षा स्वीकारण्यासाठी त्याने हात पुढे केला. शिक्षक आपल्या खुर्चीवरून उठले आणि त्यांनी मुलाला कवेत घेतले आणि ते रडू लागले. त्यांना पाहून मलाही अश्रू अनावर झाले. मी स्वतःला सावरत पुढे झालो, शिक्षकांना शांत केले आणि मुलाला विचारले की पिशवीतील सूट चे कापड कोणासाठी आणले आहेस.

मुलाने रडून उत्तर दिले की, “माझी आई श्रीमंत लोकांच्या घरी मजूर म्हणून काम करते. तिच्याकडे चांगले कपडे नाहीत व जे आहेत ते फाटलेले आहेत, शरीर पूर्णपणे झाकले जाईल असे कपडे नाहीत आणि माझ्या आईकडे पैसे नाहीत, म्हणून मी माझ्या आईसाठी हा सूट विकत घेतला आहे. “

“मग आज हे सूट चे कापड घरी नेऊन आईला देणार का?” मी मुलाला प्रश्न विचारला.

त्याच्या उत्तराने माझ्या आणि त्या मुलाच्या शिक्षकाच्या पायाखालची जमीन सरकली. मुलगा म्हणाला, “नाही काका, सुट्टी झाल्यानंतर मी शिंप्याला ते शिलाईसाठी देईन. ” शाळा सुटल्यावर दररोज काहीना काही काम करून त्याने शिंप्याकडे थोडे पैसे जमा केले होते. ते ऐकून आमचा कंठ दाटून आला.

आपल्या समाजातील कितीतरी गरीब आणि विधवा स्रियांच्या बाबतीत असे किती दिवस चालणार, त्यांची मुले सणाच्या आनंदात सहभागी होण्यासाठी किती दिवस तळमळत राहणार, असा विचार करून मी आणि शिक्षक रडत होतो.

अशा गरीब विधवांना देवाने दिलेल्या आनंदात काही अधिकार नाही का? आपण आपल्या आनंदाच्या प्रसंगी आपल्या इच्छेतील काही पैसे काढून आपल्या समाजातील गरीब आणि निराधारांना मदत करू शकत नाही का?

आपण सर्वांनी एकदा शांतपणे विचार करावा. आणि हो, जर तुमचे डोळे अश्रूंनी भरले असतील तर ते बाहेर पडू देण्यास अजिबात संकोच करू नका. शक्य असल्यास, ही प्रेरणादायी कथा त्या सर्व कर्तबगार लोकांना सांगा जेणेकरून आमच्या या छोट्याशा प्रयत्नाने कोणत्याही कर्तृत्ववान व्यक्तीच्या हृदयात गरीबांबद्दल सहानुभूतीची भावना जागृत होईल. आणि ही कथा कोणातरी गरीबाच्या घरात आनंदाचे कारण बनू दे.

मुळ हिंदी कथा लेखक- अज्ञात.

मराठी अनुवाद – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “अनामिक हुरहुर…” — ☆ सौ. प्रतिभा कुळकर्णी ☆

सौ. प्रतिभा कुळकर्णी 

स्वपरिचय 

सौ. प्रतिभा उल्हास कुळकर्णी.

शिक्षण- B.A.

संप्रत्ति – माझा स्वतःचा Milk Products चा व्यवसाय होता. आता बंद केला.

रुची – छंद… वाचन, लेखन, कुकिंग, पर्यटन इत्यादी ..

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☆ “अनामिक हुरहुर…” — सौ. प्रतिभा कुळकर्णी 

वर्षाचा शेवटचा आठवडा हा एक अनामिक हुरहुर घेऊन येतो. गतवर्षीच्या आठवणी आणि येणाऱ्या वर्षाची उत्सुकता…. खरंतर ही हुरहुर आयुष्याच्या प्रत्येक टप्प्यावरच असते, नाही का ?

तिचे तारुण्यात पदार्पण.. एक गोड हुरहूर…

नवविवाहिता ते मातृत्व… तिच्या आयुष्याची परिपूर्णता…. अत्यंत आनंदातही एक अनामिक हुरहुर….

आता तिचं तान्हुलं बालवाडीत जातं आणि तिला झालेला आनंद एकीकडे आणि आपलं बोट सोडून गेलेलं बाळ पहाताना हृदयात झालेली कालवाकालव एकीकडे… एक अनामिक हुरहूर!

तेच बाळ मोठं होतं…. त्याला पंख फुटतात आणि आकाशाला गवसणी घालण्यासाठी विश्वविद्यालयीन जगतात भरारी घेतं, त्यावेळेस तिचा आनंद काय वर्णावा!…. तरीही एक अनामिक हुरहूर असतेच.

आता तर तिचे पिल्लू स्वतःच्या पायावर उभे राहिले आहे… एवढेच नव्हे तर त्याने स्वतःबरोबर तिचेही नाव उज्ज्वल केले आहे… आणि आता आयुष्याच्या अगदी महत्त्वाच्या टप्प्यावर आले आहे. मग ती लेक असेल तर परक्याचेच धन…. ह्यापुढे तिचे नावासकट सारे आयुष्यच बदलणार आणि मुलगा असला तरीही त्याची सहचारिणी म्हणून एक नवीन व्यक्तीच आयुष्यात येणार आणि तिच्या घरट्यालाच नवं रूप येणार…. हीही एक अनामिक हुरहुर !

आयुष्याची सांजवेळ आणि तिच्या दुधावरच्या सायीचे आगमन…. आनंद आणि धास्तावलेलं मन……

पण ती आता तृप्त आहे… शांत आहे.

आयुष्याच्या साथीदाराचा हात हातात घेऊन निवांतपणे तिच्या गोकुळात रमली आहे.

मला वाटतं, आयुष्यातील ह्या अनामिक हुरहुरीवर तिने सकारात्मक वृत्तीने आणि स्वकर्तृत्वाने विजय मिळविला आहे.

असेच गतवर्षीच्या सार्‍या कटू आठवणींना मागे ठेवून नववर्षाला सामोरे जाऊया… एका गोड हुरहरी सह….

माझ्या सगळ्या मित्र -मैत्रिणींना नव वर्षाच्या खूप खूप शुभेच्छा!

© सौ. प्रतिभा कुळकर्णी

संपर्क – ६, हीरु नाईक बिल्डिंग, धुलेर, म्हापसा, गोवा – ४०३५०७. मोबाईल – ९९२३१४८९०४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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