हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उम्मीद जाग्रत रखें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें

हरियाली हो हर मौसम में,

रंग बिरंगी क्यारी हो।

बागों की डाली- डाली भी

अनुपम अद्भुत न्यारी हो।।

*

संस्कार अरु संस्कृतियों का

संगम प्यारा- प्यारा है।

आओ मिल सब सृजन करेंगे

ये संसार हमारा है।।

संसार रूपी बगिया में फूलों की तरह खिलना, महकना और मुस्कुराहट बिखेरने आना चाहिए। जो हो रहा है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ते जाना, कदम से कदम मिलाते हुए जो भी निरंतर चला है उसे न केवल अपनों का साथ मिला है वरन प्रकृति ने भी उसके लिए अपने दोनों हाथ खोल दिये हैं। कहते हैं जो सोचो वो मिलेगा, बस सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ऊर्जान्वित रहिए। यही सब तो आस्था, संस्कार, श्रद्धा, विश्वास व संस्कृति सिखाती है। बस मनोबल कम नहीं होना चाहिए। उम्मीद की डोर थामे अच्छा सोचें अच्छा करें।

गंगा की बहती धारा से,

मन पावन हो जाता है।

सुख -दुख सब इसमें तजकर के,

मनुज मनुज बन पाता है।।

*

अहंकार परित्याग करें तो,

चमन चमन बन जायेगा।

ऋषि मुनि सारे हवन करेंगे

स्वर्ग धरा पर आयेगा।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #215 – लघुकथा – नियति – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा नियति ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 215 ☆

☆ लघुकथा – नियति  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

” सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

” हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथ पैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में… । “

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

” वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 254 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें ( बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य ) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन।लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित बारह दर्जन से अधिक राजकीय प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 254 ☆ 

बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

कहतीं कई कहानी।।

 *

काश! परी यदि मैं बन जाती

हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

शाला पढ़ने  जाता।।

 *

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

खेल खेलती सँग में।

पर्वों पर उपहार बाँटती

रँग जाती मैं रँग में।।

 *

सैर भी करती बाग बगीचे

उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

रहती सदा मगन मैं।।

 *

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

घूम मजे कर लेती।।

 *

नींद हो गई सुंदर पूरी

सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ संपादकीय आवाहन ☆ सम्पादक मंडळ – ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

📖  संपादकीय आवाहन 📖

आपण देत असलेल्या उत्तम प्रतिसादाबद्द्ल सर्व साहित्यिकांचे मनःपूर्वक आभार! विषयांची विविधता असूनही आपण सर्वजण उत्साहाने लिहीत असता. त्यामुळे भरपूर साहित्य प्राप्त होते.

आम्हाला येणा-या अडचणी लक्षात घेऊन आम्ही आपणाला काही सूचना करू ईच्छितो. त्याचा विचार करावा ही विनंती:

  1. आपले साहित्य पाठवण्यापूर्वी शुद्धलेखन तपासून पहावे.
  2. आपले साहित्य विशिष्ट दिवशी किंवा त्या दरम्यान यावे यासाठी पुरेश्या कालावधीपूर्वी पाठवावे. पुढील आठ दिवसांचा आराखडा तयार असतो. त्यात ऐन वेळेला बदल करणे शक्य होत नाही.
  3. एकाच विषयावर अनेक लेख, कविता आल्यानंतर साधारणपणे प्रथम आलेले साहित्य प्रथम प्रकाशित होईल.
  4. कविता पाठवताना एकाच विषयावर एकाच वेळेला अनेक कविता पाठवू नयेत.
  5. कोणते साहित्य कोणाकडे पाठवायचे यासंबंधी पूर्वी सूचना दिल्या आहेत. त्यांचे काटेकोरपणे पालन करावे. एकच साहित्य संपादक मंडळातील सर्वांकडे पाठवू नये, ही विनंती.

येणा-या अडचणी लक्षात घेऊन या सूचना केल्या आहेत. तरी कोणतेही गैरसमज करून न घेता सहकार्य करावे ही विनंती.

– संपादक मंडळ

ई – अभिव्यक्ती, मराठी विभाग

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? ☆ श्री कमलेश भारतीय और डॉ मनोज छाबड़ा

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वटपौर्णिमा….! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वटपौर्णिमा….! 

गेली अनेक वर्षे

तू माझ्यासाठी

वडाची पूजा करते आहेस

मला दीर्घायुष्य

मिळावं म्हणून..

आणि त्याचबरोबर

पुढची सात जन्म

पती म्हणून

मी तुझ्या आयुष्यात

यावं म्हणून ही…

कदाचित तुझ्या

ह्या सा-या इच्छा

पुर्ण होतील..

पण मला

एक प्रश्न नेहमी पडतो…

तुझ्या दीर्घ आयुष्याचं काय..?

 

माझ्या सारखं

तुला ही दीर्घ आयुष्य

मिळायला हवंच की…

तू नसलीस तर

मी मला मिळणाऱ्या

दीर्घा आयुष्याचं काय करू…?

 

जर वडाच्या झाडाला

फेऱ्या मारून मला

दीर्घायुष्य मिळणार असेल

तर तुला दीर्घायुष्य मिळण्यासाठी

मी वडाची पूजा करायला

काय हरकत आहे…?

 

कदाचित हा मुद्दा

सर्वांना पटेल असं होणार नाही..

पण तुझ्यासाठी

मी वडाची पूजा करायला

कधीही तयार आहे

कारण मला तू माझ्या

शेवटच्या श्वासापर्यंत सोबत हवी आहेस…

ते ही पुढची सात जन्म…!

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मयसभा…☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मयसभा☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

 फुलांच्या जखमा

 कंटकांचे टाके

 चिंध्यांची ही लाज

 गोधडीच झाके

*

 मोहरांचे दान

 फाटकीच झोळी

 करंट्या नशीबा

 शिव्यांची लाखोली

*

 कासावीस तृष्णा

 तटस्थ सागर

 शमवाया आले

 पाषाण -पाझर

*

 आहे सुरक्षित

 वहिवाट वाटे

 तिलाही फुटती

 सतराशे फाटे

*

 किती जाहिरात

 ढोल ताशे टाळ

 छद्मी भक्तीतून

 दैवत गहाळ

*

 दावितो नक्षत्रे

 आकाशीचा बाप

 पदरी धरेच्या

 उल्कांचीच राख

*

 जन्म मयसभा

 फसवी सुंदर

 डोईवर धरा

 पायाशी अंबर!

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

असे अचानक दाटून यावे

आकाशी त्या काळे मेघ

 सौंदामिनीने हळू रेखावी

 काळ्या ढगावर रुपेरी रेघ

*

क्षितिजावरती मेघ डंबरी

इंद्रधनुने पुलकित व्हावी

तळहाताची ओंजळ माझी

 प्राजक्ताने गंधित व्हावी

*

तृषार्त झाल्या या सृष्टीला

पाचूचे त्या स्वप्न पडावे

वसुंधरेने खुशीत येऊन

मृद्धगंधाचे गाणे गावे

*

स्वप्ना मधला पाऊस आता

झिम्माड फुगडी घालत यावा

घराघराचा ऊंबरठा त्या

 जलधारांनी सचैल न्हावा

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५९ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र-“नव्या जागी रुजू व्हाल तेव्हा शेगावला जाऊन महाराजांचे आशीर्वाद घेऊन मगच रुजू व्हा. सगळं छान होईल. ” काकू म्हणाल्या.

मीही हेच ठरवलं होतं. काकूंच्या तोंडून जणूकांही गजानन महाराजच ‘तथास्तु’ म्हणालेत असं वाटलं आणि मी निश्चिंत झालो!

पण हे वाटतं तेवढं सोपं नसून या नंतर येणारा प्रत्येक क्षण माझी कसोटी पहाणारा ठरणार आहे याची पुसटशीही कल्पना मला नव्हती!)

काकूंचा निरोप घेऊन मी बाहेर पडलो. बोलाफुलाला गांठ पडावी तसं त्याच संध्याकाळी मला रिलीव्ह व्हावं लागलं. सामानाची बांधाबांध, रात्रीच्या प्रायव्हेट लक्झरी स्लीपिंग कोचचं रिझर्वेशन हे व्याप होतेच.. पण सर्व स्टाफ मेंबर्सच्या आपुलकीच्या सहकार्यामुळे सगळं सुरळीत पार पडलं. अकोला ब्रँचचा चार्ज ज्या परिस्थितीत मला घ्यावा लागणार होता याचा विचार केला तर तिथं काय वाढून ठेवलं असेल याच विचाराने मी एरवी अस्वस्थ झालो असतो. पण आश्चर्य म्हणजे रात्रभर मनात या कशाचंच दडपण नव्हतं. उद्या अकोल्याला पोचल्यानंतर तातडीने चांगल्या लॉजचा शोध घेऊन, सकाळी ब्रॅंचला रिपोर्ट करण्यापूर्वी शेगावला जाणं कसं जमवायचं याचेच विचार मनात होते. मी अकोल्याला बसमधून उतरलो तेव्हा पहाटेचे चार वाजले होते. तो गुरुवार असणं हा मला एक शुभशकूनच वाटला. मनानं उभारी धरली तरी आदल्या संपूर्ण दिवसभराची दगदग आणि रात्रभराच्या प्रवासातलं जागरण यामुळे शांत झोप नव्हतीच. सगळं शरीर ठणकत होतं. पण आता झोपून चालणार नव्हतं. मी वेळ न दवडता रिक्षा करून स्टॅंडपासून जवळचंच एक लॉज गाठलं, तेव्हा पहाटेचे सव्वा चार वाजले होते.

“इथून शेगावला पहिली बस कधी आहे? ” चेकइनच्या फॉर्मॅलिटीज सुरू असतानाच मी रिसेप्शनला विचारलं.

“आत्ता पाच वाजता. नंतर साधारण दीड दोन तासांच्या अंतरानं. “

‘आता आराम करायच्या मोहात पडायचं नाही. कांहीही झालं तरी पाचची बस चुकवायची नाही.. ‘ मी स्वतःलाच बजावलं आणि…. ,

“रूमवर गरम चहा पाठवून द्या लगेच आणि गरम पाणी असेलच ना आंघोळीसाठी? ” मी विचारलं.

किमान या दोन साध्या गोष्टी माझ्यासाठी त्या क्षणी तरी अत्यावश्यकच होत्या.

“कॅन्टीन सहाला सुरू होईल साहेब.. आणि गरम पाणी सात नंतर. “

यावर बोलण्यासारखं काही नव्हतंच. नाईलाजाने मी रूम गाठली. पाय धुऊन कपडे बदलले. तातडीनं शेगावच्या बससाठी बाहेर पडणं आवश्यक होतं आणि माझं थकलेलं शरीर तर अंथरुणाला पाठ टेकायला आसुसलेलं होतं! ही बस चुकली तर सगळं वेळापत्रकच विस्कळीत होणार होतं पण त्याला आता नाईलाज होता. कारण आंघोळ न करता शेगावला जाणं योग्य वाटेना. अखेर आता तातडीने शेगावसाठी निघणं शक्य नाही हे मी मनाविरुद्ध स्वीकारलं आणि अंथरुणाला पाठ टेकली. तो एकच क्षण आणि त्यानेच जादूची कांडी फिरवावी तसं झालं! सहजच माझं लक्ष समोरच्या भिंतीकडे गेलं आणि समोर जे पाहिलं त्या दृश्यानेच गारूड केलं. मी भान हरपून पहातच राहिलो! त्या संपूर्ण भिंतीवर गजानन महाराजांचं खूप मोठ्ठं अतिशय जिवंत असं चित्र रंगवलेलं होतं! त्यांच्या मिष्कील हसऱ्या नजरेने ते माझ्याकडेच पहात असल्याचा भास मला झाला न् मी ताडकन् उठून बसलो. घड्याळ पाहिलं. साडेचार वाजून गेले होते. बॅग उचकटून मी घाईघाईने टॉवेल /कपडे घेऊन बाथरूमकडे धावलो. गार पाण्याचे चार तांबे अंगावर घेऊन आंघोळ उरकली. तेवढ्यानंही प्रवासाचा शीण निघून गेल्यासारखं मन प्रसन्न झालं. घाईघाईने कपडे बदलून, सॅक घेऊन बाहेर धावलो. रिसेप्शनजवळ किल्ली दिली आणि गडबडीने बाहेर पडलो. जवळपास रिक्षा दिसत नव्हती आणि रिक्षासाठी थांबायला माझ्याकडे वेळ नव्हता. स्टॅन्ड जवळ आहे हा अंदाज होताच. मी क्षणाचाही विलंब न लावता स्टॅंडच्या दिशेने धाव घेतली तेव्हा पावणेपाच वाजून गेलेले होते. स्टॅण्ड जवळ जाताच त्याक्षणीच्या अनिश्चित परिस्थितीत धीर न सोडता निकराचा एक शेवटचा प्रयत्न म्हणून थेट स्टॅंडवर जाऊन चौकशी करून प्लॅटफॉर्म शोधण्यात वेळ न घालवता मी बसेस् बाहेर पडतात तिथून आत जायचा निर्णय घेतला. त्या दिशेने धावत फारतर दोन-चार पावलेही गेलो नसेन तेवढ्यांत समोरून एक बस बाहेर पडताना दिसली. प्रयत्न करूनही अंधारात बस वरचा बोर्ड दिसत नव्हता. पुढे झेपावत हात हलवून मी बस थांबवायचा केविलवाणा प्रयत्न केला. बस थांबली. कंडक्टरने दार उघडलं. बस कुठं जाणाराय याची चौकशी केली. आश्चर्य म्हणजे ती शेगावला जाणारीच बस होती. मी गडबडीने बसमधे चढलो न् पाहिलं तर बस पूर्ण रिकामी होती. बसमधे फक्त कंडक्टर. जणू खास माझ्यासाठीच ती बस सोडलेली असावी तसा मी एकटाच प्रवासी आहे हे लक्षांत येताक्षणी मनाला स्पर्शून गेलेलं अतीव समाधान तोवरच्या धावपळीचा सगळा शीण नाहीसा करणारं होतं! !

आजवरच्या असंख्य प्रवासांमधला तो प्रवास मी कधीच विसरू शकणार नाही. तो प्रवास फक्त शेगावचा नव्हता. कारण मी थेट महाराजांपर्यंत जाऊन पोचल्याचा आभास निर्माण व्हावा असे अनेक अनुभव पुढे अकोल्याच्या माझ्या त्या अल्प वास्तव्यात मला आले. अकोल्यातलं जेमतेम सहा महिन्यांचं माझं वास्तव्य. या दरम्यान दर पौर्णिमेला शेगावला दर्शनाला जाण्याचे योग सहज जुळून येत असत. शेगावहून मुद्दाम आणलेली गजानन महाराजांची पोथी मी याच अल्पवास्तव्यात सर्वप्रथम वाचली, तेव्हा.. ‘ तू स्वतःच ती पोथी एकदा वाच म्हणजे तुझं तुलाच समजेल हे गजानन महाराज कोण ते‌.. ‘ हे माझ्या ताईचे शब्द शब्दश: खरे झाल्याची मनाला स्पर्शून गेलेली अनुभूति मला अनेक अर्थाने समृध्द करणारी होती! माझ्या अंतर्मनातला तो आणि गजानन महाराजांसारख्यांचं अवतारी रूप यांच्यामधलं अद्वैत मला लख्खपणे जाणवलं ते ही पोथी वाचल्यानंतरच!

‘आपल्या घरी चालत आलेला दत्तसेवेचा राजमार्ग सोडून ताई ही पोथी कां वाचते? ‘ या त्यावेळी केवळ अज्ञान आणि अहंकारातून माझ्या मनात निर्माण झालेल्या प्रश्नाचं उत्तर ही पोथी वाचूनच मला मिळालं! किंबहुना माझ्या मनातल्या तेव्हाच्या त्या प्रश्नातली निरर्थकताही मला नेमकी जाणवली. जसा कांही तो प्रश्न मी महाराजांनाच विचारला असल्यासारखं त्या प्रश्नाचं नेमकं उत्तर महाराजांनी १९ व्या अध्यायात मला दिलं असल्याचं प्रथम वाचनातच माझ्या लक्षात आलं. या अध्यायात श्री वासुदेवानंद सरस्वती टेंबे स्वामी आपल्याला भेटायला येणार असल्याचा संकेत गजानन महाराजांना मिळतो तेव्हा गजानन महाराज त्यांच्या सेवेकऱ्याला यांची पूर्वकल्पना देताना म्हणतात, ” अरे बाळा, उदयिक माझा बंधू येतो देख मज साठी भेटण्या, त्याचा आदर करावा l” ती भेट कशी तर फक्त कांही सेकंदांची! ‘एकमेकांसी पहाता, दोघे हसले तत्वता l हर्ष उभयतांच्या चित्ता, झाला होता अनिवार ll ‘ असं नेमक्या शब्दातलं त्यांच्या भेटीचे वर्णन!

ही नजर भेट होताच एकमेकांकडे पाहून स्मितहास्य आणि.. ” बंधो, आम्ही निघतो.. ” असे टेंबे स्वामी महाराजांचे अनुमती मागणारे मोजके शब्द आणि त्यानंतर गजानन महाराजांनी होकारार्थी मान हलवताच त्यांचे निघून जाणे… सगळंच अतर्क्य! श्री गजानन महाराज आणि टेंबे स्वामी महाराज दोघेही समकालीन आणि दोघांचेही नियत कार्य पूर्ण होताच त्यांची झालेली अवतार समाप्ती! या अवतारी पुरूषांच्या अवतारकार्याचे प्रयोजन आणि नियोजन या दोन्हींमागचं गूढ म्हटलं तर अनाकलनीय पण तरीही सहजसोपंसुध्दा! आता हेच पहा ना. श्री. टेंबे स्वामी अतिशय कर्मठ आणि गजानन महाराज अतिशय साधे, सोवळ्या-ओवळ्याचा कसलाच विधिनिषेध न बाळगणारे… आणि तरीही त्या दोघांमधे हे सख्य आणि हे अद्वैत कसं? हाच प्रश्न त्यांच्या सेवेकऱ्याच्या मनात निर्माण झाल्याचे जाणवताच त्या शंकेचे निरसन करताना कर्म, भक्ती आणि योग या परमेश्वरापाशी नेणाऱ्या तीनही वाटांचं गजानन महाराजांनी केलेले नेमकं निरूपण मुळातूनच वाचावं असंच आहे. माझ्या अंतर्मनातल्या ‘ तो’ चं खरं स्वरूप मला लख्खपणे जाणवलं म्हटलं ना ते हे सगळं समजून घेतल्यानंतरच, हे मला आवर्जून सांगावंसं वाटतं!

“नव्या जागी रुजू व्हाल तेव्हा शेगावला जाऊन महाराजांचे दर्शन घ्या आणि मगच रूजू व्हा. सगळं छान होईल” असं काकू मला म्हणाल्या होत्या. मीही तेच ठरवलं होतं. म्हणूनच काकूंच्या तोंडून गजानन महाराजच ‘तथास्तु’ म्हणालेत असंच मला वाटलं होतं. यातल्या ‘सगळं छान होईल’ म्हणजे नेमकं काय आणि कसं याचा प्रत्यय, कलियुगातला एखादा चमत्कार घडावा तसाच माझ्या अकोल्यातील वास्तव्यात लवकरच मला अगदी अकल्पितपणे येणार होता‌, पण त्याबाबतीत मी स्वत: मात्र तेव्हा अनभिज्ञच होतो! !

क्रमश:…  (दर गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पटावरची प्यादी… भाग १ ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? जीवनरंग ❤️

☆ पटावरची प्यादी… भाग १ ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

तिचा हात हातात धरून प्रसाद जाधव तलावाकिनारी बसला होता. त्यांचं लग्न ठरलं होतं, साखरपुडा झाला होता आणि आज शनिवारी संध्याकाळी निवांतपणे फिरण्यासाठी ते दोघं तलावावर आले होते. त्यांचं arranged marriage होतं. त्यामुळे या अशा भेटीतूनच एकमेकांच्या विषयीची छापील बायोडाटामध्ये न छापलेली माहिती एकमेकांना होत होती.

मावळत्या सूर्यनारायणाकडे बघत तिने त्याला विचारलं, “शहरातले तुम्ही, मग या जंगलांचे वेड तुम्हाला कसं काय लागलं? “

खरंच होतं ते. त्याच्या अनेक मित्रांना हाच प्रश्न पडला होता. जन्मापासूनच तो अस्सल पुणेरी. पण त्याला आवड होती ती जंगलांची. त्याने वनशास्त्र (forestry) विषयात पदव्युत्तर शिक्षण घेतले होते. आजही तो एका पर्यावरण विषयक सामाजिक कार्य करणाऱ्या नॉन-गव्हर्मेंटल ऑर्गनायझेशन (NGO) मध्ये कार्यरत होता.

तिच्या प्रश्नावर तो नुसताच हसला, त्याने काहीच उत्तर दिलं नाही.

“असे कधी झालं का हो, ” तिनं अजून विषयाचा पिच्छा सोडला नव्हता, “की तुम्हाला वाटलं, की आपलं चुकलंच. आपण या असल्या विषयात यायलाच नको होतं. ” 

हा प्रश्न तसा अनपेक्षित होता, पण या प्रश्नाने कुठेतरी त्याच्या मनाची तार आर्तपणे छेडली गेली. इतका वेळ मोकळाचाकळा बसलेला तो, आता अचानक सावरून बसला. इतका वेळ त्याच्या ओठावरती अलगद विलसत असलेलं स्मितहास्य गायब झालं, कपाळावर आठ्या पडल्या आणि तो म्हणाला, “मी तुला एक गोष्ट सांगतो. एक आटपाट जंगल होतं”, आटपाट नगर होतं या चालीवर त्याने गोष्टीला सुरुवात केली,

“खूप मोठ्ठं जंगल! आणि या जंगलात वाघोबा सापडतात का हे बघण्यासाठी आमच्या NGO तर्फे, वनखात्याची रीतसर परवानगी वगैरे घेऊन, मी आणि माझे सहकारी गेलो होतो. जर वाघोबा सापडले असते, तर हे जंगल व्याघ्र अभयारण्य म्हणून घोषित झालं असतं.

वाघ शोधण्यासाठी आम्ही जंगलात ठिकठिकाणी कॅमेरा ट्रॅप लावले होते. या कॅमेरांचं वैशिष्ट्य असं असतं, की त्या कॅमेऱ्याच्या टप्प्यात हालचाल झाली की आपोआप तिथे फोटो काढला जातो. रात्रीच्या अंधारात पाणी पिण्यासाठी ज्या वेळेला श्वापदं बाहेर पडतात, तेव्हा त्यांच्या हालचालीने हे कॅमेरा ऍक्टिव्हेट होतात आणि फोटो काढले जातात.

आमचं कामच हे होतं की रोज सकाळी जंगलात जिथे जिथे कॅमेरे लावले आहेत तिथे जायचं, तिथल्या मेमरी कार्डमध्ये काही फोटो निघाले आहेत का, त्याच्यात वाघ दिसतोय का हे बघायचं, ते मेमरी कार्ड काढून घ्यायचं, नवीन रिकामं मेमरी कार्ड कॅमेरामध्ये ठेवायचं आणि मुक्कामी परत येऊन लॅपटॉपवरती तो डेटा कॉपी करून घ्यायचा, त्याची नोंद करायची.

एका दिवशी आम्ही चौघेजण नेहमीप्रमाणे सकाळच्या वेळेला जंगलात फिरत होतो. आमचं सकाळचं काम संपलं, सोबत आणलेले डबे खाल्ले आणि दुपारी एकच्या सुमारास आम्ही तिथून बाहेर पडलो. जंगलाची हद्द जिथे संपते, तिथवर आलो, मी गेट उघडलं आणि गाडी गेटमधून बाहेर आल्यावर गेट बंद करत असताना माझ्या लक्षात आलं की जंगल हद्दीच्या बाहेर, गेट समोर ३०-४० जण उभे होते. मी गेट बंद करण्याच्या नादात होतो, त्यामुळे एवढं लक्ष दिलं नाही, पण नंतर पाहिलं, तर त्यांच्यातला एक जण येऊन आमच्या टीम लीडरशी हुज्जत घालत होता.

तिथली स्थानिक भाषा मला येत नव्हती त्यामुळे तो काय बोलत आहे हे मला सगळं नीट कळत नव्हतं पण त्याचे हातवारे, देहबोली हे बघता काहीतरी भांडण चालू होतं एवढं नक्की. बघता बघता त्या गर्दीतून दोन बायका पुढे आल्या, आमच्या लीडरला काहीतरी अद्वातद्वा बोलू लागल्या आणि एकीने तर पुढे येऊन सरळ त्यांच्या मुस्कटात भडकवली. हे काहीतरी भलतंच घडतंय हे लक्षात येऊन आम्ही सगळेचजण पुढे सरसावलो आणि त्यांच्याशी वाद घालू लागलो. अचानक त्यांच्यातले पाच सातजण आले आणि त्यांनी आम्हाला मारहाण करायलाच सुरुवात केली.

मी आमच्या जीपच्या पलीकडे होतो, त्या सगळ्यांपासून थोडासा दूर. मला ठाऊक होतं की इथून एक किलोमीटर अंतरावरती वनखात्याचं ऑफिस होतं आणि तिथेच जवळ पोलीस स्टेशन होतं. मी त्या दिशेने धावू लागलो, पण ती माणसं प्लॅनिंग करून पूर्ण तयारीतच आली होती. कोणीतरी पोलिसांकडे धावेल हे लक्षात घेऊन, त्या रस्त्यावरही दबा धरून त्यांची माणसं बसली होती.

त्यांनी मला पकडलं, आणि इतरांजवळ आणलं. आता आम्हा चौघांची साग्रसंगीत धुलाई चालू झाली होती. त्यांच्याकडे लाठ्याकाठ्या होत्या, त्याने ते आम्हाला धोपटून काढत होते. आम्ही पुरते घाबरलो होतो, कारण या जंगलामध्ये नक्षलवादीसुद्धा आहेत हे आम्हाला ठाऊक होतं, त्यामुळे आम्हाला कोण मारतंय? का मारतंय? हे मारणारे नक्षलवादी तर नाहीत ना? आणि आता आमचं पुढे काय होणार? अशी प्रश्नांची मालिकाच आमच्या डोळ्यासमोर नाचू लागली होती.

अर्धा एक तास मारहाण करून झाल्यावरती त्यांनी आम्हाला बांधलं आणि आमची वरात चालत चालत त्या पोलीस स्टेशनकडे आणली. जसे ते पोलीस स्टेशनकडे आले, तसं थोडंसं आम्हाला हायसं वाटलं, कारण हे जर नक्षलवादी असते तर ते आम्हाला पोलिसांकडे नक्कीच घेऊन आले नसते.

तिथल्या स्थानिक भाषेत त्यांनी पोलिसांकडे आमची तक्रार केली. आतापावेतो तिथे चांगलाच जमाव गोळा झाला होता. आम्हा चौघांना हाताला काढण्या बांधून गुन्हेगार म्हणून उभं केलं होतं.

त्या गावकऱ्यांची तक्रार होती की तिथल्या आदिवासी वनवासी बायका, ज्या जंगलामध्ये लाकूडफाटा गोळा करायला जात असत, त्यांची आम्ही छेड काढली, त्यांचा विनयभंग केला, त्यांच्यावर जबरदस्ती करण्याचा प्रयत्न केला.

हे समजताच आम्ही आश्चर्यचकित झालो, हे काहीतरी भयंकर कुभांड रचून आम्हाला त्यात गोवलं जात होतं.

स्वत:ची बुद्धी आणि शक्ती नसलेली – कोणाच्यातरी कुठल्यातरी अतर्क्य खेळातील पटावरची प्यादी झाल्याचं सपशेल जाणवत होतं. आता हे गावकरी आणखी काय करणार आणि पोलीस काय करणार – सगळाच भविष्यकाळ अनिश्चित आणि अंध:कारमय होता. गावकरी पोलिसांदेखत आमच्यावर भडास काढत होते, मारहाण करत होते, बायका आमच्या नावानं बोटं मोडत होत्या.

आश्चर्य म्हणजे पोलिसांची देहबोली बघून ते बहुधा या सगळ्या आरोपांशी सहमत वाटत नव्हते, ना ते आम्हाला मारहाण करत होते, ना आमच्याविरुद्ध काही लेखी तक्रार लिहून घेत होते. मराठी हिंदी चित्रपट बघून आपल्या मनात पोलिसांबद्दल खूप वेगवेगळे समज झालेले असतात, पण इथे जे काही जाणवत होतो ते असं की पोलीस कुठेतरी आम्हा चौघांच्या बाजूने आहेत.

बहुधा गावकऱ्यांच्याही हे ध्यानात आलं असावं. त्यांनी कोणाला तरी फोन लावला आणि तो फोन पोलीस इन्स्पेक्टरकडे दिला. इन्स्पेक्टरने फोनवरचं नाव पाहिलं, कपाळाला आठ्या घातल्या आणि फोनवर बोलू लागला. त्याने फोन ठेवला आणि त्यानंतर मात्र नाईलाजाने त्याने आमच्याविरुद्ध तक्रार लिहून घेतली.

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड, पुणे.  मो 8698053215

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ प्रेमाचे सिंचन… लेख क्र. १ ☆ सौ. गीता वासुदेव नलावडे ☆

सौ. गीता वासुदेव नलावडे

अल्प परिचय 

  • सेवानिवृत्त मुख्याध्यापिका.
  • गोरेगाव (पूर्व) मुंबई येथे सन्मित्र मंडळाच्या बैरामजी जीजीभाय प्राथमिक शाळेत मुख्याध्यापिका.
  • महापौर पुरस्कार, राष्ट्रपती पुरस्कार आणि अशा अनेक पुरस्कारांनी सन्मानित.
  • सध्या बोरिवली (मुंबई) व पुणे येथे वास्तव्य.

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ प्रेमाचे सिंचन… लेख क्र. १ ☆ सौ. गीता वासुदेव नलावडे ☆

विक्रांत मोरे (नाव बदललेले) काल माझ्याजवळ आला, अगदी शेजारी येऊन उभा राहिला. मी शिकवण्यात दंग होते. हळूच तो माझा पदर खेचत होता.

“काय रे? काही सांगायचंय का? ” असं विचारल्यावर अगदी अस्पष्ट आवाजात म्हणाला, “बाई, मला बक्षीस मिळालं. ” 

मी हसून मोठ्याने म्हणाले, “अरे वा, छान! कुठल्या स्पर्धेत बक्षीस मिळालं? ” माझ्या वाक्यासरशी सगळा वर्ग त्याच्याकडे बघू लागला, बाईंनी दखल घेतली याचा त्याला खूप आनंद झालेला दिसला.

विक्रांत दोन बहिणीच्या पाठीवरचा. तो अगदी लहान असतानाच आई गेली. घरची अगदी गरिबी. वडील कुठेतरी वॉचमन. मोठी बहीण १४-१५ वर्षांची, तीही नोकरी करत होती. दुसरी बहीण असेल दहा-बारा वर्षांची, परिस्थितीने अकाली गृहिणी केलं होतं बिचारीला.

वर्गात अगदी पहिलीपासून “तो अभ्यास करत नाही” अशी बाईंची तक्रार आणि घरी अभ्यास न करता बहिणींना मारतो ही बहिणींची तक्रार. मला मात्र तो कधीच आगाऊ किंवा आक्रमक वाटला नाही. काही विचारलं की खाली मान घालून जमिनीकडे बघायचा.

गेल्या वर्षी नऊ मुलं चौथीच्या वर्गात नापास झाली होती, त्यात हाही होता. सगळेच एककाच्या मार्कांचे धनी. मी हा वर्ग घ्यायचा म्हणजे ७०चा पट होणार, पण पालकांनी खूप आग्रह केला आणि यावर्षी मी चौथीचा वर्ग घेतला. सर्वप्रथम मी नापास झालेल्यांना सगळ्यांना विश्वासात घेतलं. रोज मनापासून अभ्यास केलात तर तुम्ही नक्कीच चांगल्या मार्काने पास व्हाल या आत्मविश्वासाचं बीज त्यांच्याते पेरलं. मला जमेल तसं त्यांच्याकडे लक्ष देऊ लागले आणि खरं सांगू, मुलांनीही मला निराश केलं नाही. एक ऋजुता सोडता (नाव बदललेलं) सर्व मुलं अत्यंत चांगल्या मार्कांनी पास झाली. माझा माझ्या डोळ्यांवर विश्वास बसेना एवढे छान मार्क मिळाले होते सगळ्यांना.

विक्रांतही खूप चांगल्या मार्कांनी पास झाला होता आणि तेव्हापासून अबोल असणारा विक्रांत माझ्याजवळ बोलू लागला. घाबरत घाबरत बोलणाऱ्या विक्रांतच्या मनावर, आपल्यात काही चांगले नाही आपले कोणी कौतुक करणार नाही हे दडपण असावे हे माझ्या शिक्षकी नजरेने लगेच हेरले आणि मी त्याच्या छोट्या गोष्टींची खूप आत्मीयताने दखल घेऊ लागले.

“अरे वा, विक्रांत, अक्षर छान काढले आहे, ” असं म्हटल्याबरोबर त्याच्या लहान चेहऱ्यावर हास्याचे गुलाब फुलंत. कालच्या प्रसंगाने त्याला खूप आनंद झालेला दिसला.

आज कामाच्या डोंगरात मी बुडून गेले होते. १२:१५ ला ऑफिसच्या दाराशी कोण घुटमळते म्हणून पाहिलं तर विक्रांत. म्हटलं “आत ये रे. ” तो आला. त्याच्या हातात घड्याळाचा खोका होता.

“बाई, हे बघा ते बक्षीस. ” असं म्हणून त्याने खोका माझ्या हातात ठेवला. मी सर्व काम बाजूला सारून त्याचं घड्याळ सर्व शिक्षिकांना दाखवलं, म्हटलं, “बघा ग, माझ्या विक्रांतला बक्षीस मिळालं. छान आहे ना घड्याळ! ” घड्याळ सगळ्यांना दाखवून मी पुन्हा व्यवस्थित त्याच्याकडे दिलं. त्यावेळेचा त्याचा आनंदाने उजळून निघालेला चेहरा अजूनही माझ्या नजरेसमोर तरळतोय.

माझ्या या दोन वाक्यांनी त्याला दिला प्रचंड आत्मविश्वास. त्याच्यातील नकारात्मक भूमिका जाऊन सकारात्मक रोपांची वाढ सुरू झालेली दिसली. नकळत अत्यानंदाने दोन अश्रू बाहेर टपकलेच. खूप खूप आनंद झाला मला. आज माझं रोप सुकत चालले होते परंतु प्रेमाच्या खताने ते पुन्हा मूळ धरू लागले होते, चांगले तरारून वाढीला लागले होते. एका शिक्षिकेला (शिक्षिका कमी पण आईच जास्त) यापेक्षा दुसरं काय हवं?

दिवसभर हा प्रसंग माझ्याभोवती पिंगा घालत होता. आजच्या मुलांना सगळ्यात जास्त गरज आहे ती प्रेमाची पण त्याचाच इतका तुटवडा आहे की विचारू नका. म्हणूनच आम्हा शिक्षकांचे काम जरा वाढलं आहे. शिकवण्याबरोबर थोडे प्रेमाचे खतही या रोपांना आवश्यक आहे, तरच ही रोपं निरोगी आणि टवटवीत होतील.

(हे प्रेम, आपुलकी, मायेचा ओलावा याची गरज आपल्या घरातील सदस्यांना देखील खूप असते. आपण आपल्या कामात मग्न असतो, गर्क असतो, खरंच वेळ नसतो. पण या नात्यांना जगवायचं, फुलवायचं, तर मनापासून घेतलेली दखल आणि प्रेमाच्या शब्दांचं सिंचन या दोन गोष्टींची नितांत गरज आहे.)

© सौ गीता वासुदेव नलावडे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares