हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “चौथी सीट“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆

✍ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

जब राज बहादुर  बुढापे की ओर बढने लगे तो उनके बेटे ने घर की जिम्मेदारी में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो उसकी ओर से निश्चिंत हो गए। चाहते थे कि हाथ पाँव चलते बेटे का भी विवाह हो,  परंतु बेटा जगदीश यह कह कर टाल देता कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट हो जाए और स्वतंत्र रूप से गृहस्थी चलाने योग्य हो जाए तब विवाह की सोचेगा। उसने अपने पिता से कहा कि घर बनाते समय जो कर्ज चुक भी नहीं पाया और बहन के विवाह में कर्ज और चढ गया तो ऐसी हालत में और खर्च बढाना उचित नहीं है। राज बहादुर अंदर ही अंदर यह सुनकर प्रसन्न होते लेकिन बिना दर्शाए कहते, “कहते तो ठीक हो पर सही उम्र में काम होना उचित रहता है। समाज भी देखना पड़ता है।” वे केवल कहने के लिए कहते, पालन करने के लिए नहीं।

ऐसे ही समय ठीक ठाक कट रहा था। बेटी एक बच्चे की माँ बन गई थी। जगदीश का भी विवाह हो गया। काम भी ठीक चल ही रहा था। राज बहादुर कढाई का काम करते थे पर नज़र कमजोर होने की वजह से काम बंद कर दिया था। फिर भी जो काम मिलता कर लिया करते। उनकी आमदनी में घर चल जाता था पर वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके जिससे बुढापे में पैंशन मिल सके। न सरकारी नौकरी थी न किसी बड़ी कंपनी की नोकरी, जिससे रिटायर होने पर पैंशन मिलती है।वरिष्ठ नागरिक की उम्र पार करने पर उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन के लिए कोशिश की।  केंद्र व राज्य सरकार की पेंशन योजना में पैंशन के लिए आवेदन करने गए तो बताया गया कि केवल निराधार वृद्धों को पैंशन दी जाती है। निराधार का मतलब जिनके बेटा न हो। अगर  बेटा हो भी तो परिवार की आय एक निश्चित रकम से कम होनी चाहिए। उनके बेटे जगदीश की आय आयकर के दायरे में तो नहीं आती परंतु उस सीमा से अधिक थी जिस सीमा तक सरकार की पैंशन मिलती है। राज बहादुर यह तो कह ही नहीं सकते कि उनका बेटा नहीं है। जगदीश एक कंपनी में काम करता था। उसके वेतन से घर चल जाता था। फिर भी कुछ ऐसे काम थे कि उसका वेतन कम पड़ जाता। घर का टैक्स यानी प्रापर्टी टैक्स तीन गुना बढ़ गया था और जगदीश टैक्स जमा नहीं कर पा रहा था। टैक्स जमा न करने के नोटिस आते तो जगदीश अपने पिता तक नहीं पहुंचने देता।

तीन साल का प्रापर्टी टैक्स देना बाकी था, इसका नोटिस देखा तो राज बहादुर सोच में पड़ गए। सोच रहे थे कि जगदीश ने टैक्स जमा क्यों नहीं किया?  जगदीश से पूछने में भी उन्हें संकोच हो रहा था। क्योंकि, जगदीश ने उनसे कभी कुछ छुपाया ही नहीं। वे सोच रहे थे कि जरूर कोई गंभीर बात है।  खाना खाने के बाद सब सोने चले गए पर राज बहादुर को नींद नहीं आ रही। वे वॉशरूम के लिए उठे तो देखा जगदीश के कमरे की लाइट जल रही है। पता नहीं उन्हें कमरे में झाँकने की इच्छा ने मजबूर कर दिया। वे किसी के कमरे में झाँकने को बहुत बुरा मानते थे। परंतु इस बार वे अपने आपको रोक नहीं सके। देखा जगदीश लेपटॉप खोल कर बड़ी गंभीरता से कुछ देख रहा है और कागज पर कुछ नोट करता जा रहा है।  आखिर कमरे में घुसते हुए पूछ बैठे,

 “जगदीश बेटा अभी तक सोए नहीं? क्या काम बहुत ज्यादा है। ” जगदीश चौंक गया। कुर्सी से उठा और सोचा कि पिताजी से छुपना ठीक नहीं तो  बोला, “पापा जॉब ढूंढ़ रहा हूँ। कंपनी में छँटनी हो रही है। एकाध हफ्ते में मेरा नंबर भी आ सकता है।” “छँटनी?” “हाँ पापा छँटनी, तीन साल से यह तलवार लटकी हुई है पर अब सिर पर गिरने ही वाली है। मैंने प्रॉपर्टी टैक्स जमा नहीं किया बल्कि छोटी सी बचत कर रहा था ताकि अचानक ऐसा वक्त आए तो कम से कम रसोई चल सके। नया जॉब मिलने पर टैक्स जमा कर दूंगा। सॉरी पापा!” राज बहादुर सोचते रहे कि दिन पर दिन बढती महँगाई, तीन गुना घर का टैक्स और बेरोज़गारी की लटकती तलवार, जीना कैसे संभव होगा। ऊपर अँधेरे में आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बड़बड़ाए “जीने की संभावना मर नहीं सकती।” तभी जगदीश कमरे से बाहर निकल आया और बोला, “पापा मुझे नया जॉब मिल जाएगा। कल इंटरव्यू है।”  राज बहादुर के चेहरे पर कैसे भाव आए, उन्हें जगदीश नहीं देख सका।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन से आजाद ।)

☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 

क्या बात है दादाजी मम्मी पापा घूमने जाते हैं और हमें छोड़ जाते हैं? हम सब साथ जाते तो कितना मजा आता।

कोई बात नहीं बेटा रिंकू हम दोनों घर में खूब मजे करेंगे और कल मैं तुम्हें सुबह पार्क भी ले जाऊंगा। चलो तुम्हें क्या खाना है मैं वही बनाता हूं। वह लोग तो बाहर खाने में पता नहीं क्या कचरा सड़ा गला कितने दिनों का बासी खाएँगे। मैं तुम्हें ताजा फ्रेश  खिलाता हूं। आलू और मटर की सब्जी बढ़िया रोटी में तुमको रोल करके देता हूं। तुम्हारी दादी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी। मैं उन्हें देखते-देखते ही सीख गया। आज काम आ रहा है।

दादाजी, मैं भी जब बड़ा हो जाऊंगा तो उन्हें लेकर कहीं नहीं जाऊंगा हम और आप चलेंगे?

ठीक है  अच्छे से पढ़ाई कर लो रिंकू।

तभी अचानक बहू बेटे आ जाते हैं और बहू रिंकू की बात सुन लेती है। बाबूजी आप छोटे से बच्चे के कान में हमारे खिलाफ क्या-क्या भरते रहते हैं? कल हम इसे हॉस्टल भेज देंगे आपकी संगत में यह बिगड़ जाएगा।

हां बात तो सही है तुम्हारी। रेनू जब मैं छोटा था तो बाबूजी मुझे यही बात कहते रहते थे। हां किशोर मैं तुम्हें यही बात तो कहता रहता था लेकिन तुमने मेरी बात सुनी कहा विदेश पढ़ने के लिए भेजा था अपने लिए कुछ ना रखते हुए तुम्हें पढ़ाया लिखाया। और मुझे क्या पता था कि तुम मेरा ही जीवन नर्क बनाओगे। नहीं तो तुम कभी रेनू से शादी करते?

मैं इतना ख्याल रखती हूं बाबूजी आपका। तब भी आप मेरे लिए ऐसे ही सोचते हैं अब तो लग रहा है कि आपको वृद्ध आश्रम के रास्ते दिखाने पड़ेंगे।

मैं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा। पंडित जी के आश्रम में अभी जा रहा हूं। यह तो मैं पोते के मोह में यहां पर था। रिंकू में जा रहा हूं पास में आश्रम और मंदिर है तुम बेटा आते रहना। मुझे तुम पर गर्व है तुम मेरी तरह बनना। अपने माता-पिता की तरह नहीं। आज तुम्हारा धन्यवाद अदा करता हूं कि तुम लोगों ने मुझे इस बंधन से आजाद कर दिया। मैं थोड़ा लोभी हो गया था।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 259 ☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 259 ?

☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गॅसवरचं दूध ऊतू जाणं

तसं नित्याचंच

आणि बोलणं खाणं अटळ!

कानकोंडं होणं, अपराधी वाटणं,

चुटपूट लागणं, हे ही वर्षानुवर्षे!

दूध ऊतू गेलं की वाईट वाटतं ते

साय वाया गेल्याचं,

अंशानं लोणीतुपाचंही नुकसान!

अनेकदा ठरवूनही,

नाही थांबवता आलं ऊतू जाणं!

फायद्याची गणितंही

 नाहीच साधता आली!

आजी म्हणाली होती एकदा,

“आवडत नसलं तरी ,

 कपभर दूध घेत जा रोज, कॅल्शियम असतं त्यात!”

अंगी लागण्यापेक्षा ऊतूजाणंच

अंगवळणी पडत गेलं!

नवरा म्हणतो कुत्सितपणे,

“आमच्या घरी रोजच रथसप्तमी”

स्वतःच्या वेंधळेपणाचं समर्थन न करता ,

मी ही गॅसवर दूध ठेवून,

उचलते फोन, घुटमळते टीव्ही समोर, डोकावते वर्तमानपत्रात…..

गॅसवरच्या दूधासारखंच

मनाचंही ऊतूजाणं !

मनाला शिस्त लावण्याऐवजी,

कृष्णार्पण म्हणून टाकावं,

सा-याच ऊतू जाण्याला!

हेच तेवढं हाती उरलंय ……

ऊतू जाणं अटळ झालंय!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंत ऋतुच्या शुभेच्छा… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वसंत ऋतुच्या शुभेच्छा ..☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆  

(अष्टाक्षरी)

वसंताला येता भर

वारा हळुंच झुलतो

गुलाबाच्या कळीसह

गीत प्रणयाचे गातो

*

आनंदाने डोलणार्‍या

कळीसवे बागडतो

उद्या पूर्ण फुलण्याचे

स्वप्न तिला दाखवतो

*

फुलणार्‍या कळीसंगे

झिम्मा फुगडी खेळतो

चार दिवस सुखाचे

आनंदाने घालवतो

*

एक फुल कोमेजते

दुजे सुरेख खुलते

भुंग्याचाही गुंजारव

कळी डौलात डोलते

*

वसंताचा जाई थाट

रोपे बनती उदास

ग्रीष्म करतो कहर

वर्षा देई पुन्हा श्वास

*

ऋतुराज पावसाळा

येतो जरी सालोसाल

दरवर्षी आनंदाचे

वाण वाटे हरसाल

 

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बोध… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बोध… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

लहान होवून

याचक व्हावे

काहीच न मागून

मोठेपण घ्यावे…

 

जन्माला येण्याचे सार्थक

पुन्हा जन्माला न येणे

आणि उत्तम मरण म्हणजे

पुन्हा मरावे न लागणे..

 

विषारी विष

विषयातच आहे

दु:खाचे मूळ

जो विषयासक्त आहे..

 

येते जग जिंकता

ज्याने जिंकले मना

सद्गुरू कोण?

जो बोट धरून मोक्षापर्यंत नेई जना…

संदर्भ:- डॉ श्री.द.देशमुख – आद्य शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरी

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ … जुळल्या सगळ्या त्या आठवणी… ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ … जुळल्या सगळ्या त्या आठवणी… ☆ सौ. अमृता देशपांडे 

परवाच आमच्या ऑफिसने निवृत्त स्टाफसाठी स्पेशल पिकनिक ठरवली होती……त्याबद्दल..

एखादा दिवस असाही असेल… याची कधी कल्पनाही केली नव्हती. असा विचार करताना मन मागच्या 25 वर्षे मागे धावलं. खूप खूप आठवणी  ” मी आधी, मी आधी ” करत धावू लागल्या.

आपल्या शिक्षणाचा आणि डिग्रीचा कोट घालून, दर्जेदार पोस्टचा काटेरी मुकुट स्वीकारलेले सर्वेसर्वा ऑफिसर्स.

जबाबदारीची जागा सांभाळताना त्यांची होणारी तारेवरची कसरत त्यांच्या व्यक्तिमत्वातून व्यक्त होत होती. बिनचूकपणा, शिस्त, आणि वक्तशीरपणा यांचा परिपाठ स्वतः कृतीत आणून इतरांना मार्गदर्शन करणारे वरच्या श्रेणीचे ऑफिसर्स ही काॅर्पोरेशनची दर्जेदार संपत्ती होती. तसेच

त्यांच्या मार्गदर्शनाप्रमाणे आणि आदेशाप्रमाणे काम करणारे कर्मचारी ह्या सर्वांचा एकसंध परिवार म्हणजे आपले काॅर्पोरेशन. हा परिवार सकाळी 9 ते संध्याकाळी 6 वाजेपर्यंत एकत्र एका छताखाली नांदत होता.

लहान लहान कामापासून मोठ्या मोठ्या कामात येणा-या अडचणी एकमेकांच्या सहाय्याने, सल्लामसलतीने सोडवल्याही जात होत्या. काम करताना अनेकदा चुकाही होतच होत्या, पण त्यात सुधारणा करून आपला परफाॅर्मन्स चांगला होण्यासाठी धडपडही होती.

व्यक्तिगत आयुष्यातले चढ-उतार, आनंदाचे-दुःखाचे प्रसंग , एकमेकांना मानसिक आधार देणे, अशी वाटचाल चालू होती.

प्रमोशन मिळालेले खुशीत, तर न मिळालेले नाराज! अशा संमिश्र घटना 3-4 वर्षात घडायच्या.

त्यावेळी  काम करताना ऑफिस फाईल्स हे महत्वाचं आणि एकमेव माध्यम होतं. जेव्हा आपल्या प्रपोजल नोटवर APPROVED असा शेरा मिळून ठसठशीत, वळणदार सही दिसली की खूप मस्त वाटायचं.

कित्येकदा अनेक शासकीय, बिन शासकीय आस्थापनातून, विभागातून ( गोव्यातच नव्हे तर देशभरात ) लेडीज स्टाफवरती होणारे नकोसे अनुभव कानावर यायचे. त्यावेळी आपल्या ऑफिसमध्ये मिळणारी मानसिक, भावनिक आणि शारिरीक सुरक्षितता प्रकर्षाने जाणवायची.

ऑफिसमधले असलेलं वातावरण अतिशय सौजन्यपूर्ण होतं. साधेपणा, शालीनता , आदर, नम्रता ह्या शब्दांना मान होता. तो प्रत्येकाच्या बोलण्यातून     वागण्यातून दिसत होता. माझ्याकडे जर कुणी काही विचारायला आले तर नकळत उभी राहून त्यांचे बोलणे ऐकणे, ही न सांगता होणारी प्रतिक्रिया होती. आवाज मोठा करून बोलणे, मोठमोठ्याने हसणे ह्यावर  स्वतःच घातलेली बंधने होती.

 हा

ऑफिसमधल्या आधीच्या लोकांनी घालून दिलेला संस्कार- ठेवा होता.

वर्षामागून वर्षे गेली. हळूहळू एक एक जण 58-60 वयाला येवून निवृत्तीला पोचले. आणि गेल्या दहा पंधरा वर्षात बघता बघता एक पिढीच निवृत्त झाली.

काल पहिल्यांदाच कितीतरी वर्षांनी सर्वांना एकत्र येण्याची संधी मिळाली आणि पूर्वीचे राग-लोभ, रुसवे-फुगवे सर्व विसरून एकमेकांना भेटताना, बोलताना, क्षेमकुशल विचारताना होणारा आनंद प्रत्येकाच्या चेह-यावर ओसंडून वहात होता. जे कुणी हे जग सोडून गेले, त्यांच्या आठवणींनी मन भरून येत होते. कालचा दिवस एक अलौकिक, अकल्पनीय आनंदाने भारलेला होता. . काहीतरी हरवलेलं सापडल्याचा अनुभव होता.

इतक्या वर्षांनी एकत्र भेटून झालेला आनंद एक अनामिक आत्मिक सुखदायी होता. हे मात्र नक्की.

तरूण पिढीच्या शिलेदारांनीही भरभरून , आपुलकीने आणि आतिथ्यपूर्वक सरबराई केली, पाहुणचार केला.

PICNIC EVENT

WELL PLANNED

WELL ORGANISED

WELL MANAGED

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वाटणी… भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

 

? जीवनरंग ?

☆ वाटणी… भाग – २ ☆ श्री दीपक तांबोळी

(अर्थात कायद्याच्या भाषेत आणि संपत्तीचे वाटेहिस्से करतांना या वैयक्तिक भावनांना काही स्थान नव्हतं.)  – इथून पुढे —

” बरोबर आहे तुझं वहिनी ” मी तिला सहानुभूती दाखवत म्हणालो ” रविवारी मी तिथं जाईन तेव्हा तुझ्या या भावना नक्की लक्षात ठेवेन “

” थँक्यू भाऊजी.माझी तुम्हांला एकच विनंती आहे की सारासार विचार करुनच निवाडा द्या.बापूंवर तुमच्या वडिलांचे आणि तुमचेही खुप उपकार आहेत.त्यामुळे तुमचा शब्द ते खाली पडू देणार नाहीत “

” चालेल वहिनी. बघतो काय करायचं ते “

“ओके भाऊजी “

तिने फोन कट केला आणि मी विचारात पडलो.

बापूकाकांचा सगळा इतिहास मी आठवला आणि मला सुरेखा वहिनी जे म्हणत होती ते सगळं पटू लागलं.पण योगेश आणि रमेशच्या आर्थिक परीस्थितीतला जमीन आसमानाचा फरक मला वकील या नात्याने सुरेखा वहिनीच्या बाजूने निवाडा करण्यास थांबवत होता.

शनिवारचा दिवस उजाडला.आज कोर्टात खुप कामं होती.दोनतीन केसेसमध्ये ऑर्ग्यूमेंटस् होती.सगळ्या केसेस मालमत्ता विवादाच्या होत्या.दहादहा पंधरापंधरा वर्ष चालणाऱ्या या खटल्यांमध्ये खरं तर काहीच दम नव्हता.दोन्ही पक्षांनी समजूतीने वाद सोडवला तर एका क्षणात निकाल लागू शकत होते.पण माणसाची दुसऱ्याला ओरबडण्याची स्वार्थी प्रवृत्ती त्याला तसं करु देत नाही. अर्थात या प्रवृत्तीमुळेच आमच्यासारखे वकील पोट भरत होते नव्हे गब्बर होत चालले होते.खेड्यापाड्यातून कामधंदा सोडून आलेली आणि दिवसभर कोर्टाच्या आवारात उदासवाणा चेहरा करुन बसलेली माणसं पाहिली की वाईट वाटायचं.कोर्टाची पायरी शहाण्या माणसाने चढू नये असं जे म्हणतात ते अगदी खरं होतं.कोर्टात फिरतांना मला सहजच रमेश आणि योगेशची आठवण आली.रविवारी जर दोघंही अडून बसले तर कदाचित बापूकाका वारल्यानंतर त्यांचाही खटला कोर्टात उभा राहिल.आणि अशा वेळी आपण कुणाचं वकीलपत्र घ्यायचं हा मला पेच पडणार होता.पण मी मनाशी निश्चय केला की काही झालं तरी दोघांना कोर्टाची पायरी चढू द्यायची नाही.

रात्री नऊ वाजता जेवण झाल्यावर मी बातम्या बघण्यासाठी टिव्ही लावला तोच मोबाईल वाजला.शैला वहिनीचा फोन होता.मला हसू आलं.या दोन्ही जावांनी मला जज्ज बनवून टाकलं होतं आणि दोघीही एखाद्या वकिलासारखी आपापली बाजू मांडत होत्या.

” हं बोल शैला वहिनी”

” भाऊजी उद्या येताय ना?”

” हो.येतोय ना “

” भाऊजी तुम्ही म्हणाल ते आम्ही मान्य करु.तुम्ही इतके मोठे वकील.तुम्ही योग्य तोच निर्णय द्याल.पण भाऊजी तुम्हांला आमची परिस्थिती माहिती आहेच.आम्ही कसं धकवतो आमचं आम्हांला माहित.शेती अशी बेभरवशाची.जेव्हा उभं पिक पावसामुळे किंवा वादळामुळे वाया जातं तेव्हा शेतकऱ्याच्या मनाची काय स्थिती होत असेल हे सुरेखा वहिनींना कसं माहित असणार?मागच्या वर्षी  टमाट्याचं बंपर पिक आलं.पण भाव इतका पडला की टमाटे अक्षरशः फेकावे लागले.कर्ज काढून शेती करावी आणि सावकाराचं व्याज भरु शकू इतकंही उत्पन्न मिळत नाही अशी परीस्थिती असते. आता घराचे वाटेहिस्से झाले आणि अर्धी शेती जर रमेश भाऊजींनी घेतली तर आम्हांला उपाशीच मरायची वेळ येणार आहे.तीच गोष्ट घराची.त्यातही भाऊजींना वाटा द्यायचं म्हंटलं तर आम्ही रहायचं कुठे?सुरेखा वहिनी नेहमी सगळ्यांना सांगत असतात की आम्ही घराला इतके पैसे लावले ,शेतीसाठी इतका पैसा दिला पण आमच्या अडचणी त्यांच्या लक्षात येत नाहीत. तुम्हांला तर माहितच आहे की बापू किती तिरसट स्वभावाचे आहेत,त्यातून ते सतत आजारी असतात.पण आम्ही सांभाळतोच आहे ना त्यांना?दर महिन्याला त्यांना तीनचार हजाराची औषधं लागतात.कोण करतं हा खर्च?आम्हीच ना?भाऊजी रमेश भाऊजींकडे कशाचीच कमतरता नाही. दणदणीत पगार आहेच शिवाय सुरेखा वहिनींची कमाईही काही कमी नाही. असं असतांनाही बापूंच्या इस्टेटीवर त्यांनी डोळा ठेवणं कितपत योग्य आहे तुम्हीच सांगा.कमीतकमी आमच्या परीस्थितीचा तर त्यांनी विचार करावा”

मी गोंधळात पडलो.तिचंही म्हणणं खरंच होतं.सुरेखा वहिनीचं असा इस्टेटीतला वाटा मागणं म्हणजे स्वतःचं ताट भरलेलं असतांनाही दुसऱ्याच्या ताटातले पदार्थ मागण्यासारखंच होतं.खरं तर सुरेखा वहिनी मोठ्या मनाची आहे हे मी अनेकदा अनुभवलं होतं.कुणालाही मदत करतांना ती सढळ हाताने मदत करायची.पाहुणचारातही ती कसलीच कसर सोडायची नाही. मग बापूंच्या संपत्तीच्या बाबतीतच ती का अडून बसलीये हे काही मला समजत नव्हतं.अर्थात मी आता माझं मत मांडणार नव्हतोच.

” वहिनी उद्या मी येतोच आहे.तर सगळे मिळून ठरवूया ना “

” भाऊजी माझी तुम्हाला एकच विनंती की रमेश भाऊजींना सांगा की सुरेखा वहिनींना उद्या आमच्याकडे आणू नका.तसं बापूंनी सांगितलं आहेच पण तुमचं त्या ऐकतील.त्या आल्या तर रमेश भाऊजी त्यांच्या मताप्रमाणेच चालतील”

” बरं मी सांगून पहातो “

” धन्यवाद भाऊजी.या मग उद्या.बैठक दुपारी चार वाजता आहे.पण तुम्ही जेवायलाच या.सुनंदा वहिनींनाही घेऊन येताय ना सोबत?”

“नाही. उद्या रोटरीक्लबचा एक कार्यक्रम आहे तिथे ती जाणार आहे “

” बरं पण भाऊजी मी जे बोलले ते नक्की लक्षात ठेवा “

” हो नक्की”

तिने फोन बंद केला आणि मी विचारात पडलो.बापूकाका खरं तर माझ्या वडिलांचे चुलत भाऊ.पण माझ्या वडिलांनी सर्वांशी संबंध जपले होते.अगोदर नामांकित सरकारी वकील आणि नंतर जिल्हा न्यायाधीश झाल्यामुळे त्यांना आमच्या सर्वच नातेवाईकांमध्ये मानाचं स्थान होतं.त्यांचा शब्द सहसा कुणी खाली पडू देत नसायचं.तीच परंपरा वारशानुसार माझ्याकडे चालत आली होती.प्रतिष्ठित वकील असल्यामुळे माझ्याही शब्दाला खुप मान होता.त्यातून बापूकाकांच्या कुटुंबावर माझ्या वडिलांचे खुप उपकार होते.त्यांच्या पत्नीच्या म्हणजे लक्ष्मीकाकूंच्या कँन्सरच्या आजारात त्यांनी पाण्यासारखा पैसा खर्च केला होता.विशेष म्हणजे त्यातला एक रुपयासुध्दा त्यांनी बापूकाकांना मागितला नव्हता.मी स्वतः रमेशला सरकारी नोकरीत लावून दिलं होतं शिवाय योगेशला अनेकदा आर्थिक मदत केली होती.या सगळ्या कारणांनी बापूकाकांच्या संपत्तीच्या वाट्याहिश्शाचा मी जो निवाडा करेन तो सर्वांना मान्य होणार होता.अर्थात शैला वहिनी म्हणत होती ते मला पटत होतं शिवाय बापूकाकांची स्वतःचीही इच्छा योगेशला सर्व काही देऊन टाकायची होती.रमेश त्याला हरकत घेईल असंही वाटत नव्हतं.त्यामुळे सुरेखावहिनी कितीही बरोबर असली तरी माझा निर्णय योगेशच्या बाजूनेच झुकला होता.

रविवारी सकाळी घरी आलेल्या काही पक्षकारांशी चर्चा करुन मी दहा वाजता माझ्या असिस्टंटसोबत निघालो.साठ किलोमीटरवर आमचं गांव होतं.अकरा सव्वाअकराशी मी बापूकाकांकडे पोहचणार होतो.जातोच आहे तर जरा शेताकडेही चक्कर मारावी या हिशोबाने मी लवकर निघालो.रमेश मात्र तीन वाजताच तिथे पोहचणार होता.जेवतांना या वाटणी प्रकरणावर चर्चा होणार आणि साध्यासरळ रमेशला बापूकाका गुंडाळतील असं वाटून सुरेखा वहिनीने तर त्याला लवकर जायला मनाई केली नसेल हा विचार माझ्या मनात चमकून गेला.

गावापासून पाचेक किलोमीटर अंतरावर असतांना माझा बालमित्र शरद मला दिसला.बाईकवर कुठेतरी जात होता.त्याला पाहून मी कार थांबवली.

” काय रे शरद कुठे निघालास?”मी गाडीबाहेर येत त्याला विचारलं.

” तालुक्याला काम होतं जरा.आज काय बैठक आहे म्हणे वाट्याहिश्शाची?योगेश काल सांगत होता “

” हो अरे.खरं तर अशी मध्यस्थी करणं मला बरं वाटत नाही. पण बापूकाकांचा आग्रह होता म्हणून आलो “

” बरं झालं तू आलास.गावांतही तुला मान आहे.तुझा शब्द कुणी खाली पडू देणार नाही.आणि तू योग्यच निवाडा करशील यात शंका नाही “

मग आम्ही बराच वेळ बोलत बसलो.तो निघाल्यावर मीही निघालो.बापूकाकांच्या घराकडे न जाता मी नदीकडे गाडी वळवली.नदीच्या काठावर एक शंकराचं पुरातन मंदिर होतं.त्याचं दर्शन मला घ्यायचं होतं.मंदिराजवळच्या वडाच्या पारावर काही मंडळी पत्ते खेळत बसली होती.ती खेळण्यात इतकी मग्न होती की मी गाडी बंद करुन मंदिराजवळ आलो तरी त्यांचं लक्ष नव्हतं.मी शंकराचं दर्शन घेऊन बाहेर आलो आणि मला योगेश त्या मंडळीत पत्ते खेळतांना दिसला.

” योगेशsss” मी हाक मारली तसा तो दचकला. मला पहाताच तो पत्ते टाकून उठला.त्याच्यासोबत खेळणाऱ्यांचा मात्र चांगलाच रसभंग झालेला दिसला.

” दादा तुम्ही इकडे कसे?”ओशाळवाणं हसत त्याने विचारलं.

“काही नाही. मंदिरात दर्शनासाठी आणि नदीत पाणी किती आहे ते पाहण्यासाठी आलो होतो.तू इथे काय करतोहेस?”

“काही नाही दादा.बस काहीतरी टाईमपास करतोय “

“का?आज शेतीची कामं नाहीत?”

” माणसं गेली आहेत दादा.मीही सकाळी एक चक्कर मारुन आलो ” तो घाईघाईत बोलला ” बरं चला घरी जाऊ.बापू वाट बघत असतील तुमची”

” हो चालेल.चल बैस गाडीत “

त्याला गाडीत घेऊन मी त्यांच्या घरी आलो.घर अनेक वर्षांपासून आहे त्याच स्थितीत होतं.मी आत शिरलो.बाहेरच्या खोलीत खुप पसारा पडला होता.योगेशने खुर्च्यांवरचा पसारा उचलला.

“बसा दादा.शैला जयंतदादा आलेत गं.पाणी घेऊन ये “योगेश आत गेला आणि शैला वहिनी लगबगीने बाहेर आली.

” अरे बापरे.भाऊजी लवकर आलात?तुम्ही तर बारा वाजता येणार होतात ना?”

तिने मला वाकून नमस्कार केला आणि ती भरभर पसारा आवरायला लागली.तेवढ्यात बापूकाका बाहेर आले.तब्येत बरीच खराब दिसत होती.मी त्यांना नमस्कार केला.

” लवकर आलास?”

” हो.शंकराच्या मंदिरात जाऊन दर्शन करायचं होतं आणि म्हंटलं जरा नदीही किती भरलीये ते बघू.जास्त काही पाणी दिसत नाहिये”

” सध्या पाऊसच कुठे व्यवस्थित पडतोय?जेव्हा पाहिजे तेव्हा पडत नाही आणि नको तेव्हा मुसळधार पडून सगळी पिकं खराब करतो “

तेवढ्यात मला पसारा आवरल्याने कोपऱ्यात शिलाई मशीन दिसली

– क्रमशः भाग दुसरा.  

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ काडी काडीचे घरटे… – लेखक : मुसाफिर ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता सुहास पंडित ☆

सौ. स्मिता सुहास पंडित

⭐ मनमंजुषेतून ⭐

☆ काडी काडीचे घरटे… – लेखक : मुसाफिर ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता सुहास पंडित ☆

मधुचंद्राहून ठाण्याला घरी आल्यावरची पहिली रात्र… नाही नाही. ‘ती’वाली रात्र नव्हे. त्या रात्रीचा पहिला स्वयंपाक, शेजारच्या शेगडीवर कुकर फुसफुसत होता.(कोकणस्थ) गोड-आमटी करायची गोड जबाबदारी माझ्यावर होती.

मी गॅस लावायला काडेपेटी हातात घेतली मात्र. माझ्या पाठीवर एक स्पर्श झाला. मी लाजून चूर. मनाने कायशिशी मोहरून गेले. अजूनही आमचा माफक रोमान्स चालू होता ना.

माझे गाल लाल व्हायला लागले, सॉरी मी गोरी नाही. सबब माझे गाल चॉकलेटी व्हायला लागले.

तिरपा कटाक्ष टाकून मागे बघते तो साक्षात सासु माँ.. शेजारी गॅस चालू आहे ना मग नवीन काडी कशाला पेटवली ? त्या काडीने माझ्या रोमान्सची झिंग क्षणात काडीमोल होऊन मी भानावर आले. सासूमाँनी मला दुसरी काडेपेटी दाखवली,

ज्यात जळलेल्या काड्या होत्या एक शेगडी पेटलेली असेल तर नवीन काडी लावायची नाही. जळलेल्या जुन्याकाडीनेच पेटलेल्या शेगडीवरून विस्तव उचलायचा. आता कुकरचा अती प्रशस्त-ओबेस देह शेगडीवर तापलेला असताना, त्याखालून जुन्याकाडीने विस्तव कसा पळवावा ? 

मग सांडशीच्या तोंडात जुनी काडी.. आणि तो पलीता कुकरच्या कुल्ल्या खाली अशी कसरत झाली. अखेर आमटीखाली गॅस लागला.तो पर्यंत मी गॅसवर होते कारण कर-कटेवरी घेऊन सासु माँ माझ्या प्रत्येक कृतीकडे डोळे बारीक करून बघत होत्या. 

दुसऱ्या दिवशी फुरसतीत सासुमांनी मला उभे उभे तुकडे केलेली जुनी पिवळी-पोस्टकार्ड दाखवली. त्या लांब लांब – तुकड्यांनी ह्या शेगडीवरून त्या शेगडीवरचा अग्नी प्रज्वलित करायला सोप्पा कसा पडतो त्याचं प्रात्यक्षिक दाखवल.

हे बघ प्रत्येकवेळी नवीन काडी लावायची नाही. आम्ही काडी-काडी जोडून वाचवलेल आहे, तेव्हा कुठे हे आजचे दिवस दिसतायत. आज मनात येत, नवीन पिढीची सून असती तर त्या एका न पेटवलेल्या काडीने तिने एव्हाना काडीमोड सुद्धा घेतला असता.

सासूमांची काडी-काडी कॉन्सेप्ट स्वयंपाकघरातच नव्हे तर घरभर वावरत असे. प्रत्येक वस्तू वापरताना आणि जुनी होऊन टाकताना त्यांची परमिशन लागे. अगदी अंतर्वस्त्रसुद्धा त्यातून सुटली नव्हती.चिंधीवाली कडे अंतर्वस्त्र विकली जातात हा ज्ञान साक्षात्कार मला त्यांनीच घडवला.

जुने परकर, ब्लाऊझ, साड्या वगैरे मंडळींची रवानगी, कपाटातून स्वयंपाकघरात होत असे. घासलेली भांडी पुसून जागच्या जागी ठेवायला,हात पुसायला आणि स्वयंपाकघरातला कार्यभाग संपला की त्यांचे deputation पाय पुसणे म्हणून होत असे.

आंघोळीच्या गरम पाण्यात रवी व ताकाचं भांडं धुणे. दुधाच्या पिशव्या धुवून वाळवून विकणे.दुधाच्या कोरड्या पिशव्यांनी तर आमच्या घरात इतिहास घडवला होता. त्या पिशवीने काय काय पाहिलं नव्हतं ? त्यात सासु माँ च्या प्रभातफेरीतील पुष्पचौर्य – रहस्यमयी कथा लपलेल्या असत.

जास्वंदीच्या अन मोग-याच्या टप्पोऱ्या कळीचा उमलण्यापूर्वीचा कळीदार प्रवास त्या पिशवीतून होत असे. त्यातच देवळातल्या मैत्रिणींना वाटण्यासाठी तिळगुळ असत.दशभुजा गणपतीच्या देवळातून संकष्टीच्या प्रसादाचे मोदक त्या दूध पिशवीच्या पालखीतूनच घरी येत. हनुमान जन्मोत्सवाचा सुंठवडा त्यातूनच येई आणि रामा- शिवा- गोविंदा ह्या मानक-यांचे प्रसाद सुद्धा कधी चैत्र तर कधी श्रावण महिना साधून, त्या पिशवीतून आमच्या घरी येत.

त्यात कधी सुट्टी नाणी विराजमान होत तर एखादी फाटलेली पण खपावयची असलेली दहा रुपयांची नोट ही असे. कहर म्हणजे एकदा तर बँकेच्या लॉकरमधले किडुक-मिडुक सासु मां नी त्या पिशवीतून घरी आणल्यावर मात्र मी त्यांना कोपऱ्यापासून हात जोडले होते.

जी गत दुधाच्या पिशवीची तीच इतर वस्तूंची.

आणि केवळ सासुमाँच नव्हे तर तिच्या पिढीने हाच पुनर्वापर-मंत्र जपला. दिवाळीच्या वेळी वापरलेल्या मातीच्या पणत्या स्वच्छ पुसून माळ्यावरती चढत. तीच कथा कंदील किंवा चांदणीची असे.तीच कथा मोती साबणाची असे एक मोतीसाबण सलग सहा वर्ष वापरलाय आहात कूठे दिवाळी भाऊबीज झाली की मोतीसाबण सूकवून परत खोक्यात भरून ठेवणीच्या कपाटात. इस्त्रीची एकदा वापरलेली साडी त्याच घडिवर घडी पाडून कपाटात जायची आणि अर्थातच पुन्हा नेसली जायची. अश्या कित्येक गोष्टी.

चहाच्या कानतुटक्या-अँटिक-कपमध्ये वाटलेली हिरवी चटणी ठेवणे, क्वचित तो कप विरजणासाठी वापरणे त्याच क्रोकरी सेटच्या (?) विजोड झालेल्या बश्या झाकण म्हणून वापरणे. तुटक्या प्लास्टिक बादल्यामध्ये झाडे लावणे. रिकाम्या डालडा-डब्यात तुळस लावण्याचे सत्कार्य ज्या कुणी सर्वप्रथम केले असेल त्याला काटकसर आणि पर्यावरण प्रेमाचे एकत्र नोबेल कां बर देऊ नये ?

पूर्ण वापर झाल्याशिवाय फेकणे ह्या गुन्ह्याला त्या सर्वांच्याच राज्यात क्षमा नव्हती. फ्रीजमधे हौसेने आणून ठेवलेल्या आणि न वापरून एक्सपायरी डेटलेल्या सरबताच्या, व्हिनेगरच्या बाटल्या टाकायला काढल्या की सासु मां चा तिळपापड होत असे. वापरायची नव्हती तर आणली कशाला इतकी महागातली बाटली ? आम्ही नाही बाई अश्या वस्तू कधी टाकल्या.

एक्सपायरी डेट नसलेले अमर आयुर्वेदिक काढे त्यांना भारी प्रिय. वस्तूंचा पुनर्वापर हा शब्द कधीही न ऐकता सासू मां नी त्या कल्पनेची अम्मल बजावणी किती तरी वर्षे आधीच केलेली होती. साधे इस्त्रीचे कपडे घरी आले तरी त्या कागदाचा बोळा न होता तो रद्दीच्या गठ्ठ्यात जाई आणि त्याला बांधलेला पांढरा दोरा गुंडाळून एका विशिष्ठ ठिकाणी ठेवलेला असे.

भेटवस्तुचे चकचकीत रंगीत कागद निगुतीने घडी करून ठेवलेले असत. त्यांच्या पिढीने अश्या अनेक प्रकारे कचरा संवर्धन केले. लाकूड, प्लास्टिक, काच आणि कपड्यांचेच नव्हे तर तव्यावरच्या उष्णतेचे सुद्धा रीसायकलिंग केले.पोळ्या झाल्यावर त्या तापलेल्या तव्यावरच फोडणी करणे. फोडणीचे काम नसेल तर क्वचित त्या तव्याचा शेक दुधाच्या पातेल्याला देणे.

वरणभात शिजल्यावर कुकर गरम असतानाचे तळातले पाणी फोडणीची-वाटी, किंवा दह्याची – वाटी वगैरे ओशट भांडी धुवायला वापरणे हे सर्वमान्य होते. भांड्याच्या बिळात लपलेले तूप गरम कुकरात ठेवून पातळ करून ते पोळीला लावणे आणि शेवटी ते भांड घासायला टाकण्यापूर्वी त्यातून हात फिरवून तो ओशटपणा हाता किंवा पायाला चोळणे हे करणारी सासु मां ची पिढी आता राहिली नाही.

काय ती जुनी बोचकी सांभाळून ठेवता तुम्ही ? सगळ फेकून द्या हे वाक्य त्या पिढीला आमच्या पिढीकडून अनेकदा ऐकायला लागलं असेल आणि त्या मंडळींनी ही नव्या संसारात आमच्या वस्तूंची अडगळ नको म्हणून गपचुप ऐकलेही असेल.

आम्हीही शौर्य दाखवून अशी अनेक प्लास्टिकची, कपड्यांची, भांड्यांची, काचेची, कागदाची बोचकी बेमुर्वतखोरपणाने फेकली आहेत. जुन्या वस्तू फेकून देऊन नव्या आणणे ह्याला मुळीच डोकं नाही लागत, लागते ती फक्त मस्ती आणि बेफिकिरी पण वस्तू, तिच्या शेवटच्या श्वासापर्यंत वापरायला बुध्दी आणि मन ह्या पलीकडेही जाऊन एक पर्यावरण प्रेम लागत ज्याचा उल्लेख त्या पिढीने कधी केला नसेल पण त्या विचाराचं आचरण मात्र आवर्जून केलं.

ती पिढी जगलीही तशीच आणि गेलीही तशीच शरीराच्या प्रत्येक अवयवाचा पूर्ण वापर करून ते जीर्ण शिर्ण झाल्या शिवाय त्या पिढीतल्या कुणी मरण ही पाहिले नाही. सासु मां सुद्धा अठ्याईंशी वर्षे परिपूर्ण जगून मग गेल्या.

आज निसर्गाचा, सृष्टीचा पोएटिक जस्टिस लावायला बसल तर आमच्या पिढीला आणि आमच्या पुढच्या पिढीला निसर्ग पूर्ण जगून नाहीं देणार. आम्ही न वापरता फेकलेल्या आणि अकाली टाकलेल्या वस्तुंसारखाच आमच्या ही शरीराचा आणि आयुष्याचा ही अकाली शेवट होईल आणि आम्हीच ह्या पृथ्वीतलावर तयार केलेल्या, टाकलेल्या वस्तूंच्या कचऱ्यात विलीन होईल अस वाटत राहात.

लेखक : मुसाफिर …

प्रस्तुती : सौ. स्मिता सुहास पंडित 

सांगली – ४१६ ४१६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “जुवे बेट…” – लेखक – अज्ञात ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “जुवे बेट”  – लेखक – अज्ञात ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

‘पृथ्वीवरचा स्वर्ग’ असे कोकणाचे वर्णन केले जाते. याच कोकणात सुंदर समुद्र किनाऱ्यांसह अनेक छुपी पर्यटनस्थळ आहेत. यापैकीच एक आहे चारही बाजूने पाण्याने वेढलेले छुपं गाव. इथं घराबाहेर होड्या पार्क केलेल्या असतात. रत्नागिरीतून राजापूर आणि मग जैतापूर असा बस प्रवास. यानंतर मग जैतापूरहून होडी किंवा बोटीतून जुवे गावात पोहचता येते. पर्यटन दृष्ट्या या गावाचा मोठ्या प्रमाणात विकास झालेला नाही. यामुळे हे ठिकाण पर्यटकांपासून अलिप्त आहे. नारळी पोफळीच्या बागा. मधोमध भुई आणि चहुबाजूंनी निळेशार पाणी. या गावचे निसर्ग सौंदर्य मन मोहून टाकणारे आहे. राजापूरची अर्जुना नदी अर्धचंद्राकृती आकार जिथे घेते तिथेच हे सुंदर ठिकाण आहे. चारही बाजूंनी समुद्रांनी वेढलेल्या या गावात जाण्यास होडी शिवाय पर्याय नाही. जैतापूर, बुरंबेवाडी, धाऊलवल्ली यांच्या मध्ये जैतापूर खाडीत जुवे हे गाव आहे. जैतापूर जवळ धाऊलवल्ली जवळ हे जुवे बेट आहे. कोकणातील या छुप्या बेटाचे नाव आहे जुवे बेट.

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचतांना वेचलेले ☆ शांत स्वरात बोला… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. शीतल कुलकर्णी ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

शांत स्वरात बोला…  – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. शीतल कुलकर्णी 

शांत स्वरात बोलल्यास साक्षात ईश्वरच त्या घरात वास्तव्य करतो .

चढलेला मोठा आवाज…

आपल्याला वडीलधारी माणसे सांगत आली आहेत की, घरामध्ये चढ्या आवाजात बोलू नये. विषारी लहरी पसरतात. मृदू स्वरात संवाद करावा. कितीही संताप आला तरी मनावरचे नियंत्रण आणि आवाजाचा आवेग शांत ठेवावा.

घरात हसतमुखाने वावरावे. मुलांना खूप प्रेम देऊन त्यांना आपलेसे करावे.

घरांतील नोकरवर्गावरही तारस्वरात ओरडू नये. कारण त्यांना राग येतो व त्यांच्या दुखावलेल्या मनातल्या ऋण लहरी अशुभ अनुभव देऊ लागतात. अचानक पोट बिघडते. भूक मंदावते. अस्वस्थ वाटू लागते. म्हणून कोणालाच चढ्या आवाजात रागावणे किंवा शिव्या देणे हे अदृष्य लहरींची शिकार होण्याची वेळ आणते. काही क्षण प्रतिक्रिया देऊ नये. मग गवत नसलेल्या जागी पडलेला अग्नी जसा आपोआप शांत होतो, तसा आपलाही राग आवरला जातो.

शुभ लहरींचेही तसेच आहे. १२ हजार मैलांवर असलेल्या मुलाला आई आशीर्वाद देते आणि त्याला प्रसन्न वाटू लागते. २५ वर्षाच्या कर्णाला पाहून कुंतीचे  उत्तरीय ओले होते. वासराला पाहून गायीला पान्हा फुटतो.

एखाद्या गरजू याचकाला आपण मदत केली तर त्याला होणाऱ्या आनंददायी लहरी आपला उत्साह वाढवितात. एखाद्या सफाई कामगाराला बक्षीस दिले तर तो हात उंचावून आशीर्वाद देणार नाही, ‘थँक यू’ म्हणणार नाही; पण त्याच्या मनातून निघणाऱ्या आनंद लहरींमुळे तुमच्या शरीराभोवती एक विशिष्ट चुंबकीय तरंग तयार होऊन तुम्हाला आगळावेगळा उत्साह वाटेलच.

म्हणून दानधर्माचे अपार माहात्म्य आहे.

फक्त मनुष्ययोनीला बोलण्याची देणगी देवाने दिली आहे. ती दाहक बोलण्याने अपमानित होते.

म्हणून संवाद साधताना, मंत्रपठण करताना, स्तोत्रे म्हणताना, आरती करताना, पोथी वाचताना, आपला स्वर कमालीचा मृदू असावा.  भले तुम्ही मग कितीही बैठक, सत्संग करा; पण बोलण्यावर आणि स्वभावावर ताबा नसेल तर त्याचा काहीच उपयोग नाही. तुमच्या आरडाओरडा करणाऱ्या स्वभावाने कोणीच तुमचा रिस्पेक्ट करत नाही. शक्य असेल तेवढे शांतपणे बोला, शांतपणे वागा. तरच तुम्ही केलेल्या अध्यात्माचा फायदा होईल. नाही तर  सगळं व्यर्थ आणि देखावा आहे.

 

लेखक: अज्ञात

प्रस्तुती :सौ. शीतल कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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