(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चेतना के स्वर…“।)
अभी अभी # 559 ⇒ चेतना के स्वर श्री प्रदीप शर्मा
जीव जड़ नहीं चेतन है। चेतना तो पेड़ पौधों और वनस्पति में भी है, लेकिन उनका विकास जड़ से ही तो होता है। जीव की उत्पत्ति भी बीज से ही होती है। एक बीज से ही पूरा वृक्ष आकार लेता है, मानव हो अथवा महामानव, सभी माता के गर्भ से ही जन्म लेते हैं।
जड़ चेतन में हमें जो भेद दिखाई देता है, वह भी स्थूल ही है। परोक्ष रूप से देखा जाए तो पूरी सृष्टि में ही चेतन तत्व समाया हुआ है। अगर पंच महाभूत चेतन नहीं होते तो हमारे शरीर का भी निर्माण नहीं होता। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हमारा कारण शरीर बना है। प्राण तत्व तो इतना सूक्ष्म है, कब जीव में प्रवेश करता है और कब और कहां विलीन हो जाता है, कुछ पता ही नहीं चल पाता। ।
पदार्थ जिसे विज्ञान की भाषा में matter कहते हैं, उसके भी विशिष्ट गुण धर्म होते हैं। पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती हैं, ठोस, द्रव और गैस। ठोस पदार्थों का आकार और आयतन निश्चित होता है।
द्रवों का आयतन निश्चित होता है, लेकिन वे अपने कंटेनर के आकार के मुताबिक ढल जाते हैं. ऑक्सीजन और हीलियम गैसों के उदाहरण हैं.कहीं पहाड़ तो कहीं समंदर। जब कि गैसों का कोई निश्चित आकार या आयतन नहीं होता।
आप मरे और जग प्रलय। हम तो मरते ही चेतना शून्य हो जाते हैं, हमारा जीवन संगीत ठहर जाता है, चेतना के स्वर टूट, बिखर जाते हैं। जब कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक नई शुरुआत है, फिर भोर है, प्रभात है, किसी घर में अहीर भैरव के स्वर गूंज रहे हैं, जागो मोहन प्यारे, लेकिन हम, इस सबसे अनजान हैं, क्योंकि मेरा जीवन सपना टूट गया। ।
यह जीवन और यह दुनिया ही हमारा संसार है, हमारा अस्तित्व है, क्योंकि इसके आगे हमारी चेतना का विकास ही नहीं हुआ है, कूप मंडूक होते हुए भी हमारी अस्मिता और अहंकार के कारण हम किसी सर्वज्ञ से कम नहीं। हमने पत्थर को भगवान मान तो लिया, लेकिन कभी जानने की कोशिश नहीं की।
हम मृत्यु और प्रलय में ही उलझे रहे, अमर होने की केवल कोशिशें करते रहे, कभी महामृत्यु और महाप्रलय की ओर हमारा ध्यान गया ही नहीं। जब तक हम अपने भय पर विजय प्राप्त नहीं करते, मृत्यु पर कैसे विजय प्राप्त कर पायेंगे। ।
जीवन कभी भी ठहरता नहीं, जल की कलकल ध्वनि ही जीवन संगीत है, पक्षियों का कलरव, बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, सूर्य की सुनहरी धूप और चंद्रमा की कलाएं, चांदनी, ध्रुव नक्षत्र और तारागण ही केवल अखिल ब्रह्मांड का हिस्सा नहीं, स्वर्ग लोक, पाताल लोक और नर्क की धारणा, से भी परे सप्त लोक भी है। कौन ऋषि है और कौन तारा, सुन चंपा सुन तारा, यह इतना आसान नहीं।
इस चेतन तत्व में ही परा चेतना के स्वर हैं। अपना पराया भूलकर, चित्त शुद्धि के पश्चात् ही परा चेतना की यात्रा शुरू होती है। उस यात्रा का कोई पासपोर्ट नहीं कोई वीजा नहीं, कोई आधार, कोई पहचान पत्र नहीं। जो अपने आप को पूरी तरह भूलकर उस परमात्मा में समा गया, उसकी चेतना के सभी स्वर झंकृत हो गए। नूपुर सबद रसाल, बसो मोरे नैनन में नंदलाल। ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “काउंटर गर्ल” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 322 ☆
लघुकथा – काउंटर गर्ल… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसने बचपन से ही पढ़ा था रंग, रूप, धर्म, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के सभी अधिकार समान होते हैं । सिद्धांत के अनुसार नौकरी में चयन का आधार योग्यता मात्र होती है।
किन्तु आज जब इस बड़े से चमकदार शो रूम में उसका चयन काउंटर गर्ल के रूप में हुआ तो ज्वाइनिंग के लिए जाते हुए उसे अहसास था कि उसकी योग्यता में उसका रंग रूप, सुंदरता, यौवन ही पहला क्राइटेरिया था । यह ठीक है कि उसका मृदु भाषी होना, और प्रभावी व्यक्तित्व भी उसकी बड़ी योग्यता थी, पर वह समझ रही थी कि अलिखित योग्यता उसकी सुंदरता ही है। वह सोच रही थी, एयर होस्टेस, एस्कार्ट, निजी सहायक कितने ही पद ऐसे होते हैं जिनमें यह अलिखित योग्यता ही चयन की सर्वाधिक प्रभावी, मानक क्षमता है।
काले टाइडी लिबास में धवल काउंटर पर बैठी वह सोच रही थी नारी को प्रकृति प्रदत्त कोमलता तथा पुरुष को प्रदत्त ही मैन कैरेक्टर को स्वीकार करने में आखिर गलत क्या है ?
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 113 ☆ देश-परदेश – न्यौता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
न्यौता, आमंत्रण, बुलावा…
इन्विटेशन ये एक ऐसी क्रिया है, जो किसी भी पारिवारिक, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, निज़ी आयोजनों का पहला कदम होता है।
बचपन में भी पिताजी को इस प्रकार के आमंत्रण आते थे। कभी वो कहते मैं अकेला ही जाऊंगा क्योंकि आमंत्रण सिर्फ मेरे नाम से है। परिवार सहित आमंत्रण आने पर हम सब भाई बहन भी कार्यक्रमों में भाग लेते थे।
शनै शनै न्यौता की परिभाषा समझ में आने लगी थी। जब कभी हमारे परिवार में कोई आयोजन होता तो भी “जैसे को तैसा” वाला फॉर्मूला लगा कर ही आमंत्रित किया जाता था। जिसने हमे परिवार सहित बुलाया उसको हम भी परिवार सहित बुलाते थे।
दूर दराज के शहर में रहने वाले रिश्तेदारों को पोस्ट कार्ड द्वारा अग्रिम सूचना प्रेषित की जाती थी। आयोजन से कुछ दिन पूर्व आमंत्रण पत्र भी भेजा जाता था। राजा महाराजा अपने दूत और कभी कभी तो कबूतर पक्षी से भी आमंत्रण भिजवाते थे। बहन और बेटी को तो निजी रूप में उसके शहर में जाकर पूरी इज्जत और आदर से आग्रह किया जाता था। लेकिन फिर भी फूफा कई बार नाराज़ हो जाते थे।
सदी के महानायक बिग बी ने जब अपने पुत्र के विवाह में कुछ मित्रों को आमंत्रित नहीं किया था, तो फिल्म उद्योग के नामी नाम दिलीप साहब, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोगों ने विवाह की मिठाई भी लेने से सार्वजनिक रूप से इन्कार कर दिया था।
“न्यौता में घोचा” ये किसी भी आयोजन में होना स्वाभाविक है। आज कल तो फोन, व्हाट्स ऐप, कार्ड आदि का प्रयोग होता हैं। आयोजन कर्ता के लिए ये सब से कठिन कार्य होता है।
नाराज़ तो लोग इस बात से भी हो जाते है, की फलां ने व्हाट्स ऐप का नया ग्रुप बनाया है, लेकिन हमें उसमें नहीं जोड़ा। हमने तो उसे अपने ग्रुप में सबसे पहले सदस्य बनाया था।
सेवानिवृत साथी भी कार्यरत साथियों के न्योते की बाट जोहते रहते हैं। फिर जब निमंत्रण नहीं आता तो कहते है, हमने तो उनको परिवार सहित बुलाया था, लेकिन वो अब भूल गए। सेवानिवृत साथी ये भूल जाते है, कि जब उन्होंने बुलाया था, तो दोनों सहकर्मी थे। अब दोनों की परिस्थितियां भिन्न हैं।
बिन बुलाए मेहमान बनने भी कोई बुराई नहीं हैं। समाज में ऐसे लोगों को ठसयीएल की संज्ञा दी गई हैं। सभ्य लोग तो इसको “मान ना मान मैं तेरा मेहमान” कह देते हैं। बचपन में कुछ मित्रों के साथ हमने भी बिना बुलाए बहुत सारे कार्यक्रमों में खूब मॉल उड़ाया था। अब आने वाले नए वर्ष की दावतों में ऐसे प्रयास करने पड़ेंगे। क्योंकि उम्र दराज लोगों को कम ही इस प्रकार के न्योते मिलते हैं।
☆ व्रतोपासना – ४. घराची निंदा करू नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
जरा वेगळे वाटते ना? पण आपण स्वतःशी थोडा विचार केला तर किंवा काही लोकांचे बोलणे ऐकले तर आपल्याला लक्षात येते, की घराला सहज नावे ठेवली जातात. किंवा काही मंडळी इतरांच्या घराशी आपल्या घराची तुलना करतात आणि घरी बोलावण्याचे टाळतात.
आज आपण हा विचार करु या. आपण जेथे राहतो त्या घरात आपल्याला कसे वाटते. या घराने आपल्याला काय काय दिले? आपली किती सुख दुःखे आपल्या बरोबर अनुभवली आहेत? आपल्याला किती संरक्षण, आधार दिला आहे. लहान मुलांना तर स्वतःचे घर खूप प्रिय असते. लहान मुले वैश्विक शक्तीशी जोडलेली असतात. घरातील चांगली ऊर्जा त्यांना समजते. आपल्याला घर निर्जीव वाटत असेल तरी त्यालाही भावना असतात. ते आपल्याशी बोलते. जसे आपण नवी खरेदी केली की आपल्याला आनंद होतो तसेच घरही प्रसन्न होते. घराची स्वच्छता केली, रंग दिला किंवा घरातील वस्तूंच्या जागा बदलल्या तरी आपण म्हणतो घराची ऊर्जा बदलली आहे. घरात छान प्रसन्न वाटत आहे. असे बरेच प्रसंग आपल्याला आठवतील. घराची विविध रुपे आपण अनुभवतो. पण लक्षात घेत नाही. आणि कधी कधी घराची निंदा करतो. अगदी सहज या घराने मला काय दिले? असे वैतागाने म्हणून जातो. त्यावेळी घर नाराज होते. आपले पूर्वज कायम म्हणतात, वास्तू नेहेमी तथास्तू म्हणत असते. म्हणून चांगले बोला आपले पूर्वज फार महत्वाचे सांगत होते. त्यांचे सगळे सांगणे शास्त्रावर आधारित होते. त्यामुळे घराची निंदा करु नये. हे खूप महत्वाचे वाटते. या. साठी पुढील काही संकल्प महत्वाचे वाटतात.
घरासाठी संकल्प
घरात सगळेजण देवाचे करतात. पोथी वाचन अनेक वर्षे सुरु आहे. घरात सुबत्ता आहे. सर्व भौतिक सुविधा आहेत. हे सगळे असले तरी एखादा छोटासा किंतू असतो. आणि सर्व सुखांच्या आड येणारे हेच असते. थोडक्यात म्हणजे सगळे उत्तम आहे, पण….. असे ऐकू येते. आणि हा पण म्हणजे पाणी साठ्यातून जसे पाणी झिरपते तसे असते.
तर या झिरपणाऱ्या पाण्याला/पणला /किंतूला दूर करु या.
या साठी काही गोष्टी करु या.
आपण देवपूजा, पोथी वाचन आरती किंवा अजून काही करत असू तर ते उत्तमच आहे. पण एक असे असते या सगळ्याची ठराविक वेळ असते. त्या वेळी आपले विचार अत्यंत उत्तम, सकारात्मक असतात. पण हे सगळे झाल्यावर नंतर पुन्हा असे विचार कधी करतो? याचा विचार प्रत्येकाने करावा. या गोष्टी आपण दिवसातून एकदा किंवा दोनदा करतो. पण आपण पाणी पिणे, चहा घेणे, जेवणे, झोप घेणे अशा आणि काही आवश्यक गोष्टी वारंवार करतो. मग आपल्या कुटुंबा विषयी असे सकारात्मक विचार (संकल्प) सुद्धा सतत करायला हवेत.
घरातील व्यक्ती एकमेकांशी मैत्रीपूर्ण वागणे. आनंदाने संवाद करणे, एकमेकांमचा सर्वांनी स्वीकार करणे या साठी काही संकल्प पुढील पद्धतीने करु या. कोणतीही पद्धत किंवा जमेल त्या पद्धती वापराव्यात.
घरात दर्शनी भागात सर्व सदस्य असतील असा फोटो लावणे. म्हणजे आनंदी फॅमिली फोटो घरात लावावा.
काही सकारात्मक वाक्ये नेहेमी उच्चारावीत. ही वाक्ये पुढील प्रमाणे.
▪️ आमचे घर हे एक पवित्र मंदिर आहे.
▪️ मी व घरातील प्रत्येक व्यक्ती पवित्र व शक्तिशाली वैश्विक शक्तीचा अंश आहेत.
▪️ सगळे सुखी व आनंदी आहेत.
▪️ सगळे एकमेकांना समजून घेत आहेत.
▪️ सगळ्या सदस्यांचे एकमेकांशी अत्यंत जिव्हाळ्याचे संबंध आहेत.
▪️ घरातील प्रत्येकाला त्यांच्या मनाप्रमाणे सुख व समाधान मिळालेले आहे.
▪️ आम्ही सगळे कायम एकमेकांच्या सोबत आहोत.
▪️ अशा घरात व घरातील सदस्यांच्या सोबत मी रहात आहे. त्या साठी देव/निसर्ग शक्ती / वैश्विक शक्ती यांचे मनापासून आभार!
रविवारचा दिवस. गर्दीने लडबडलेला एक मॉल जणू काही फुकट वस्तू वाटप सुरू आहे अशी गर्दी. त्यात एक चौकोनी कुटुंब. नवरा जीन्स आणि टीशर्ट घालून खाली सँडल्स किंवा लिंकिंग रोड crocs वगैरे घालून टिपिकल कंटाळलेला चेहरा घेऊन फिरत. मुलं वारा प्यायलेल्या वासरासारखी उधळलेली. बहुतेक बाग, मैदान, चौपाटी अश्या गोष्टी फार बघितल्या नसाव्यात. अर्थात हल्ली सज्जन, पांढरपेशे लोक अश्या ठिकाणी सहकुटुंब जाऊ शकत नाहीत इतकी गलिच्छ गर्दी तिथे असते ही गोष्ट वेगळी! तर ह्यांच्या दोन मुलांमधे अंतर साधारण पाच ते सात वर्षे. म्हणजे पहिली मुलगी असल्याने किंवा लग्नानंतर लगेच “डिफॉल्ट सेटिंग” मध्ये झाली असल्याने पुढे कॉन्फिडन्स आणि अनुभव जमा झाल्यावर “planned” असा नशिबाने सेकंड attempt मध्ये(च) झालेला वंशाचा दिवा. टिपिकली अश्या वृत्तीचे बिनडोक लोक वंशाचा दिवा पेटे पर्यंत आपली मेणबत्ती इतकी घासतात की शेवटी तीन चार पणत्या पदरात पडून त्यांची मेणबत्ती संपून जाते! असो ह्यांची पणती… आपलं.. ह्यांची मुलगी साधारण आठ ते नऊ वर्षांची आणि दिवा साडेतीन ते चार वर्षांचा. पण गोष्ट ह्यापैकी कोणाचीच नाहीये. गोष्ट आहे अजून एकही शब्द न लिहिल्याने लेट एन्ट्री घेणाऱ्या नायिकेची. त्या मुलांच्या आईची. सॉरी मम्माची !
तर ही मुलांची मम्मा, नवऱ्याला जान म्हणून आपल्याला जानू म्हणवून घेणारी ही “मॉर्डन” (हो त्यांच्या बेश्टी ग्रुपच्या इंग्रजी डिक्शनरी मधे मॉडर्न ऐवजी मॉर्डन म्हणायची प्रथा आहे. ) नारी अतिशय प्रातिनिधिक आणि टिपिकल आहे. मग ती कितीही कसोशीने आपले वेगळेपण जपायचा प्रयत्न करत असली तरीही! तिचं असं झालं की चाळीस पन्नास वर्षांपूर्वी मुंबईतून स्थलांतरित होऊन बोरिवली आणि मुलुंड ह्या मुंबईच्या सीमेपल्याड (आमच्या दृष्टीने शिवाजी पार्कचा सिग्नल ओलांडला की मुंबई संपते हा भाग वेगळा. असो!) एखाद्या वसई, नालासोपारा, डोंबिवली, ठाणे, कल्याण, बदलापूर, विरार, भिवपुरी किंवा पनवेल वगैरे सारख्या ठिकाणी बिऱ्हाड थाटलं. त्यांनीही दिव्याच्या प्रयत्नांत आपली मेणबत्ती वितळवत जन्माला घातलेल्या तीन पणत्या पैकी ही एक. नंतर अखेर वंशाला दिवा मिळाल्यावर वडील बोअरवेल ला पाणी लागल्यासारखे थांबले! असो! तर तिच्या सरळमार्गी वडिलांनी आयुष्यभर कॉलर घामाने भिजू नये म्हणून त्यावर रुमाल ठेऊन लोकलला लटकत सरकारी किंवा निमसरकारी नोकरी करून यथाशक्ती संसार रेटलेला असतो. फारसा बुध्यांक नसलेली चारही मुलं जेमतेम ग्रॅज्युएट होतात. हिने टिपिकली फर्स्ट attempt सेकंड क्लास बीए वगैरे केलेल असत. एक बहीण लग्न करून पुण्याला, दुसरीने गावातच रिक्षावाल्याशी लफड केल्याने तिला तिच्या मावशीच्या ओळखीने आणलेल्या स्थळी एकदम लखनौ किंवा पंजाब मध्ये पाठवलेली असू शकते. हिच्या भावाने म्हणजे वंशाच्या दिव्याने बहुतेक वेळेला दहावी नंतर विविध पर्याय जोखाळून शेवटी “हार्डवेअर डिप्लोमा” नामक अत्यंत जटिल कोर्स रेल्वे स्टेशन समोरच्या इमारतीत असलेल्या अनेक इन्स्टिट्युट पैकी एकात केलेला असतो आणि लग्नानंतर हिच्या घरातील पहिला “असेंम्बल्ड कॉम्प्युटर” त्यानेच बनवलेला असतो! आज साधारण बत्तीशीचा तो “मामा, मामी कधी आणणार” हा प्रश्न ऐकून कसनुस तोंड करून भाचरांच्या तोंडात डेअरी मिल्क कोंबून आपल्या तोंडातील गुटख्याची चुळ थुंकावी लागणार नाही ह्याची काळजी घेत असतो!
हिने मात्र नशीब काढलेल असत. हिचा नवरा मुळात हुशार, अनेकदा एकुलता एक, मुंबईत पार्ले पूर्व किंवा हिंदू कॉलनी किंवा गिरगाव अश्या ठिकाणी येथे वडिलोपार्जित घर असलेला, प्रेमळ आईवडील असलेला, उच्चशिक्षित, आयटी, bfsi किंवा एखाद्या सर्व्हिस सेक्टरशी संबंधित नोकरीत असलेला, नियमित परदेश वाऱ्या करणारा अथवा उत्तम चालणाऱ्या फॅमिली बिझनेसच्या तयार सिंहासनावर आरूढ झालेला सुस्वभावी आणि निर्व्यसनी अथवा लपून हळूच व्यसन करणारा “गुड बॉय” असतो. लपून हळूच व्यसन म्हणजे मित्रांबरोबर सिगारेट ओढली की घरून खिशातून आणलेली कोथिंबीर हातावर घासायची म्हणजे वास राहात नाही. मित्रांबरोबर एखादी बिअर घेतली तर बॅगेत कॅरी करत असलेल्या मिनी टूथपेस्टने हॉटेलच्या सिंक मध्ये दात घासायचे असे चाळे करणारा महाभाग!
तर त्यांचं लग्न होत. मुळात अग्रेसिव्ह असलेल्या हिला काही महिन्यात आपल्याला काय लॉटरी लागली आहे हे सहज लक्षात येत. मग हिच्या बापाच्या “quest for वंशाचा दिवा” ने जेरीस येऊन चार मुलांना वाढवणारी हिची ढालगज आई रोज दोन तास होणाऱ्या फोन कॉल्स दरम्यान “संसारावरची पकड” ह्या तिच्या आईने तिच्या आईकडून घेऊन हिच्या सुपूर्त केलेल्या अनुभवाच्या पुस्तकातील एकेक धडा तिला वाचून दाखवते आणि मुलगी तो व्यवस्थित इम्प्लिमेंट करते! नव्या नवलाईत नवऱ्याला मुठीत ठेवायला जे काही लागत ते ती त्याला बरोब्बर देत असते आणि नवरा त्या क्षणभराच्या आनंदासाठी नकळत आयुष्यभराच्या गुलामीकडे ओढला जात असतो! मग काही महिन्यांनी एक क्षण किंवा प्रसंग असा येतो की मुलगा आपली शिफ्ट झालेली लॉयल्टी (पक्षी गुलामी) दाखवून देतो आणि मुलाच्या आईवडिलांना आपला मुलगा आपला राहिला नाही हे लक्षात येत!
मग ह्यांची पहिली मुलगी दीडेक वर्षांची झाल्यावर प्ले स्कूल मध्ये जाऊ लागते. तिथे भेटणाऱ्या अनेक “समविचारी” आणि “समबुध्यांक” आणि समपार्श्वभूमी मम्माज बरोबर हिची ओळख होते आणि मग अचानक जिम, महागडे पार्लर, झुंबा, किटी पार्टी, सोशल मीडियावर गॉगल लावलेले फन विथ बेष्टीज छाप फोटो असा हीचा प्रवास सुरू होतो. सुरवंटाचे फुलपाखरू होते ! म्हणजे फुलपाखरू कसं हातात धरलं की त्याचे रंग हाताला लागतात तसंच हिचंही असतं ! हुशार माणसाला हिच्याशी दोन मिनिटे संवाद झाल्यावर वरचे रंग उडून आत असलेला मठ्ठ सुरवंट लगेच लक्षात येतो! मग सुरुवातीला म्हटल्याप्रमाणे पहिली मुलगी असल्याने किंवा लग्नानंतर लगेच “डिफॉल्ट सेटिंग” मध्ये झाली असल्याने पुढे कॉन्फिडन्स आणि अनुभव जमा झाल्यावर “planned” असा वंशाचा दिवा first attempt मध्ये होतो! आणि आयुष्य कृतार्थ होत!
मुलं हळूहळू मोठी होत असतात. नवरा आपल्या पदरी पडलं पवित्र झालं ह्या नात्याने कॅरी ऑन करत म्हातारा होत असतो आणि ही मात्र दर वर्षी अधिकाधिक तरुण आणि “मॉर्डन” दिसायच्या प्रयत्नात विनोदी दिसत असते. त्यात तो शोभत नसलेला खोटा श्रीमंती ऍटीट्युड आणि इंग्रजी बोलणे हिचं कचकड्याची बाहुली असणं ओरडून ओरडून जगाला सांगत असतात!
तर रविवारची संध्याकाळ. मॉल मध्ये गर्दी. नवरा आणि मुलगी शांत उभे. ही थुलथुलीत पोट दाखवणारा घट्ट स्लिव्हलेस टॉप, खाली मांड्यात रुतणारी स्ट्रेच जीन्स, त्याखाली हाय हिल सँडल्स, धारावी मेड प्राडा बॅग, लालसर डाय मधून अगोचर पणे दिसणाऱ्या काही पांढऱ्या केसांना झाकत डोक्यावर सरकवलेला महाकाय गॉगल, मेकअप चे थर लिंपलेला चेहरा अश्या गेटप मध्ये! नवरा कॉलेज गँगच्या व्हाट्सअप ग्रुप मध्ये गप्पा मारत. मुलगी बापाचा हात धरून आजूबाजूला बघत. ही आणि वंशाचा दिवा किड्स सेक्शन मध्ये. ही मुलाला एक टीशर्ट घालते. मग त्याला घेऊन नवऱ्याजवळ येते. नवऱ्याला म्हणते “Jaan see no is this t-shat happening to anshil?” नवऱ्याला मेल्याहून मेल्यासारखं होत. आजूबाजूला असलेल्या हुशार लोकांना अजून एक कचकड्याची बाहुली बघायचा आणि तिचं इंग्रजी ऐकल्याचा अनुभव येतो ! चांगल्या शाळेत शिकणारी तिची लहान मुलगी डोक्याला हात लावते. ते बघून बहुतेक आपल्या घरातील कचकड्याच्या बाहुल्यांची परंपरा संपून “संसारावर पकड” ह्या ग्रंथाचे विसर्जन करायची वेळ भविष्यात येणार असते हे जाणवून नवरा थोडा सुखावतो आणि परत मोबाईल मध्ये डोकं खुपसतो! आणि आपली नायिका, मॉर्डन मम्मा एक सेल्फी काढून तिच्या किट्टीपार्टी बेस्टीच्या ग्रुपमध्ये सेल्फी पोस्ट करते “एन्जॉइंग फन विथ फॅमिली इन अमुक तमुक मॉल”!-
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लेखक : श्री मंदार जोग
प्रस्तुती : उज्ज्वला केळकर
संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३ सेक्टर – ५, सी. बी. डी. – नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र
ज्या ज्या व्यक्ती माझ्या बालपणी माझ्या अत्यंत आवडत्या होत्या आणि कळत नकळत ज्यांच्या व्यक्तिमत्त्वाचा माझ्या मनावर प्रभाव होता त्यातलीच एक व्यक्ती म्हणजे कुमुदआत्या. कुमुद शंकरराव पोरे. पप्पांची म्हणजेच माझ्या वडिलांची मावस बहीण. पप्पांना सख्खी भावंड नव्हतीच. ते एकुलते होते पण गुलाब मावशी, आप्पा आणि त्यांची मुलं यांच्याशी त्यांची अत्यंत प्रेमाची आणि सख्यापेक्षाही जास्त जिव्हाळ्याची नाती होती.
कुमुदआत्या ही त्यांची अतिशय लाडकी बहीण. या बहीण भावांचे एकमेकांवर विलक्षण प्रेम. त्यांचं घर स्टेशन रोडला होतं. घरासमोर एक उसाचं गुर्हाळ होतं आणि तिथे पप्पा सकाळी ठाणे स्टेशनवर ऑफिसला जाण्यासाठी, दहा पाचची लोकल गाडी पकडण्यापूर्वी आपली सायकल ठेवत. संध्याकाळी परतताना ती घेऊन जात पण तत्पूर्वी त्यांचा गुलाब मावशीकडे एक हाॅल्ट असायचाच. रोजच. गुलाब मावशीचा परिवार आणि कुमुदआत्यचा परिवार एकाच घरात वर खाली राहत असे. पप्पा आल्याची चाहूल लागताच कुमुदत्या वरूनच, जिन्यात डोकावून विचारायची, ” जना आला का ग? त्याला म्हणाव “थांब जरासा” त्याच्यासाठी कोथिंबीरच्या वड्या राखून ठेवल्यात. आणते बरं का! येतेच खाली. “
पप्पा येताना भायखळा मार्केट मधून खूप सार्या भाज्या घेऊन यायचे. त्यातल्या काही भाज्या, फळे गुलाबमावशीला देत, कधी कुमुदात्यालाही देत. म्हणत, ” हे बघ! कशी हिरवीगार पानेदार कोथिंबीर आणली आहे! मस्त वड्या कर. ”
कुमुदआत्या पण लडिवाळपणे मान वळवायची आणि अगदी सहजपणे पप्पांच्या मागणीला दुजोरा द्यायची.
तसं पाहिलं तर एक अत्यंत साधा संवाद पण त्या संवादात झिरपायचं ते बहीण भावाचं प्रेम. प्रेमातला हक्क आणि तितकाच विश्वास.
घरी आल्यावर पप्पांकडून आम्हाला या कोथिंबीर वड्यांचं अगदी चविष्ट कौतुक ऐकायला मिळायचं. मी तेव्हा खट्याळपणे पप्पांना विचारायचे, ” एकटेच खाऊन येता? आमच्यासाठी नाही का दिल्या आत्याने वड्या?”
पण कुमुदआत्या आमच्या घरी यायची तेव्हा कधीही रिकाम्या हाताने यायचीच नाही. कधी रव्याचा लाडू, कधी कोबीच्या वड्या, सोड्याची खिचडी, कोलंबीचं कालवण असं काहीबाही घेऊनच यायची. ती आली की आमच्या घरात एक चैतन्य असायचं. तिचं बोलणं गोड, दिसणं गोड, तिच्या गोरापान रंग, उंच कपाळ, काळेभोर केस, कपाळावरचे ठसठशीत कुंकू आणि चेहऱ्यावरून ओसंडणारा मायेचा दाट प्रवाह, कौतुकभरला झरा.. ती आली की तिने जाऊच नये असंच वाटायचं आम्हाला. आमचं घर हे तिचं माहेर होतं आणि या माहेरघरची ती लाडकी लेक होती.
माझ्या आईचं आणि तिचं एकमेकींवर अतिशय प्रेम होतं. नणंद भावजयीच्या पारंपरिक नात्याच्या कुठल्याही कायदेशीर मानापमानाच्या भोचक कल्पना आणि अटींपलीकडे गेलेलं हे अतिशय सुंदर भावस्पर्शी नातं होतं. सख्या बहिणी म्हणा, जिवाभावाच्या मैत्रिणी म्हणा पण या नात्यात प्रचंड माधुर्य आणि आपुलकी होती. खूप वेळा मी त्यांना सुखदुःखाच्या गोष्टी करताना पाहिलं आहे. एकमेकींच्या पापण्यांवर हळुवार हात फिरवताना पाहिलं आहे. खरं म्हणजे त्या वयात भावनांचे प्रभाव समजत नव्हते. त्यात डोकावताही येत नव्हतं पण कृतीतल्या या क्षणांची कुठेतरी साठवण व्हायची.
आज जेव्हा मी कुमुदआत्यांसारख्या स्त्रियांचा विचार करते तेव्हा मनात येतं “एका काळाची आठवण देणाऱ्या, त्याच प्रवाहात जगणाऱ्या या साध्या स्त्रिया होत्या. लेकुरवाळ्या, नवरा मुलं— बाळं घर या पलिकडे त्यांना जग नव्हतं. स्वतःच्या अनेकविध गुणांकडे दुर्लक्ष करूनही त्या संसारासाठी आजुबाजूची अनेकविध नाती मनापासून जपत, नात्यांचा मान राखत, तुटू न देता सतत धडपडत जगत राहिल्या. विना तक्रार, चेहऱ्यावरचे समाधान ढळू न देता. पदरात निखारे घेऊन चटके सोसत आनंदाने जगल्या. त्यांना अबला का म्हणायचे? स्वतःसाठी कधीही न जगणाऱ्या या स्त्रियांना केवळ अट्टाहासाने प्रवाहाच्या विरोधात जायला लावून “अगं! कधीतरी स्वतःसाठी जग. स्वतःची ओळख, अस्तित्व याचं महत्त्व नाहीच का तुला?” असं का म्हणायचं? पाण्यात साखर मिसळावी तस त्यांचं जीवन होतं आणि त्यातच त्यांचा आनंद असावा.
मी आजच्या काळातल्या प्रगत स्त्रियांचा आदर, सन्मान, महानता, कौतुक बाळगूनही म्हणेन, ” पण त्या काळाच्या प्रवाहाबरोबर आनंदाने वाहत जाणाऱ्या स्त्रियांमुळेच आपली कुटुंब संस्था टिकली. नात्यांची जपणूक झाली. माणूस माणसाला बऱ्या वाईट परिस्थितीतही जोडलेला राहिला आणि हेच संचित त्यांनी मागे ठेवलं. ” असं वाटणं गैर आहे का? मागासलेपणाचं आहे का? जीवनाला शंभर पावले मागे घेऊन जाणार आहे का? माहित नाही. कालची स्त्री आणि आजची स्त्री यांचा तौलनिक विचार करताना माझ्या मनात प्रचंड गोंधळ या क्षणीही आहे. कुणाला झुकतं माप द्यावं हे मला माहीत नाही. संसाराचं भक्कम सारथ्य करणार्या या स्त्रियांमध्ये मी युगंधराला पाहते.
एकेकाळी खेळीमेळीत, आनंदाने, सौख्याने, आहे त्या परिस्थितीत समाधानाने राहणाऱ्या या कुटुंबात अनपेक्षितपणे गृहकलह सुरू झाले होते. भाऊ, पपी (कुमुदआत्याचे धाकटे भाऊ) यांचे विवाह झाले. कुटुंब विस्तारलं. नव्या लक्ष्म्यांचं यथायोग्य स्वागतही झालं. पण त्याचबरोबर घरात नवे प्रवाह वाहू लागले. अपेक्षा वाढल्या, तुझं माझं होऊ लागलं. नाती दुभंगू लागली. घराचे वासेच फिरले. एकेकाळी जिथे प्रेमाचे संवाद घडत तिथे शब्दांची खडाजंगी होऊ लागली. जीवाला जीव देणारे भाऊ मनाने पांगले. पाठीला पाठ लावून वावरू लागले. घरात राग धुमसायचा पण चूल मात्र कधी कधी थंड असायची. अशावेळी कुमुदआत्याच्या मनाची खूप होरपळ व्हायची. कित्येक वेळा तीच पुढाकार घेऊन भांडण मिटवायचा प्रयत्न करायची. जेवणाचा डबा पाठवायची. म्हातार्या आईवडिलांची, भावांची, कुणाचीच उपासमार होऊ नये म्हणून तिचा जीव तुटायचा. पण त्या बदल्यात तिचा उद्धारच व्हायचा. अनेक वेळा तिला जणू काही आई-वडिलांच्या घरातली आश्रित असल्यासारखीच वागणूक मिळू लागली होती. नव्याने कुटुंबात आलेल्यांना कुटुंबाचा पूर्वेतिहास काय माहित? हे घर वाचवण्यासाठी या पोरे दांपत्याने आपलं जीवन पणाला लावलं होतं याचा जणू काही आता साऱ्यांना विसरच पडला होता पण इतकं असूनही कुमुदआत्याने मनात कसलाही आकस कधीही बाळगला नाही. भाऊच्या किरणवर आणि पप्पी च्या सलील वर तर तिने अपरंपार माया केली. घरातल्या भांडणांचा या मुलांवर वाईट परिणाम होऊ नये म्हणून त्यांना सतत मायेचं कवच दिलं. कुमुदआत्या अशीच होती. कुठल्याही वैरभावानेच्या पलीकडे गेलेली होती. तिने फक्त सगळ्यांना मायाच दिली.
जेव्हा जेव्हा प्रातिनिधिक स्वरूपात मला कुमुदआत्याची आठवण येते तेव्हा सहज वाटतं, ” जगाला प्रेम अर्पावे खरा तो एकच धर्म हे निराळेपणाने तिला कधी शिकवावेच लागले नाही. प्रेम हा तिचा स्थायीभाव होता. मी कुमुदआत्याला कधीच रागावलेलं, क्रोधित झालेलं, वैतागलेलं पाहिलंच नाही. नैराश्याच्या क्षणी सुद्धा ती शांत असायची. कुणावरही तिने दोषारोप केला नाही. खाली उतरून झोपाळ्यावर एक पाय उचलून शांतपणे झोके घेत बसायची.
तशी ती खूप धार्मिक वृत्तीची होती. मी तिच्याबरोबर खूपवेळा कोपीनेश्वरच्या मंदिरात जाई. तिथल्या प्रत्येक देवाला, प्रत्येकवेळी पायातली चप्पल काढून मनोभावे नमस्कार करायची. साखरेची पुडी ठेवायची. मला म्हणायची हळूच, ” अग! सार्या देवांना खूश नको का ठेवायला?” तिच्या या बोलण्याची मला खूप मजा वाटायची. उपास तर सगळेच करायची. आज काय चतुर्थी आहे. आज काय एकादशी आहे. नाहीतर गुरुवार, शनिवार…जेवायची तरी कधी कोण जाणे! पपा तिला खूप चिडवायचे, कधीकधी रागवायचेही पण ती नुसतीच लडिवाळपणे मान वळवायची. अशी होती ती देवभोळी पण प्रामाणिक होती ती!
लाडकी लेक होती, प्रेमळ बहीण होती, प्रेमस्वरुप, वात्सल्यसिंधू आई होती, आदर्श पत्नी होती. तिच्या झोळीत आनंदाचं धान्य होतं त्यातला कणनिकण तिने आपल्या गणगोतात निष्कामपणे वाटला होता.
आजही माझ्या मनात ती आठवण आहे. प्रचंड दुःखाची सावली आमच्या कुटुंबावर पांघरलेली होती. आमच्या लाडक्या कुमुदआत्याला कॅन्सर सारख्या व्याधीने विळख्यात घेतलं होतं. मृत्यू दारात होता. काय होणार ते समजत होतं. जीवापाड प्रेम करणारा नवरा, अर्धवट वयातली मुलं, म्हातारे आई-वडील आणि तिच्यावर मनापासून प्रेम करणारी सारीच हतबल होती. त्याचवेळी आमच्या ताईचा जोडीदारही तितकाच आजारी होता. रोगाचे निदान होत नव्हतं. डॉक्टरही हवालदील झाले होते. पदरी दहा महिन्याचं मूल, संसाराची मांडलेली मनातली स्वप्नं, सारंच अंधारात होतं. कुठलं दुःख कमी कुठलं जास्त काही काही समजत नव्हतं.
इतक्या वेदना सहन करत असतानाही कुमुद आत्या म्हणत होती, ”मला अरुला भेटायचंय. बोलवा तिला. मला तिला काहीतरी सांगायचंय. ”
कुमुदआत्या इतकी लाडकी होती आमची की ताई त्या चिंतातुर मन:स्थितीतही तिला भेटायला स्वतःच्या छातीवरचा दुःखाचा दगड घेऊनच आली. तिला पाहून कुमुदआत्याचे डोळे पाणावले. तिच्या हातांच्या अक्षरश: पिशव्या झाल्या होत्या पण तिने ताईच्या चेहऱ्यावर मायेने हात फिरवला.
“अरु! बिलकुल काळजी करू नकोस, विश्वास ठेव, हिम्मत राख, अरुण (ताईचे पती) बरा होईल. मी माझ्या देवाला सांगितलंय “माझं सारं आयुष्य अरुणला दे.. त्याला नको नेऊस मला ने! बघ देव माझं ऐकेल आणि अगं! माझं जीवन मी छान भोगलं आहे. नवऱ्याचं प्रेम, हुशार समंजस मुलं आणि तुम्ही सगळे काय हवं आणखी? अरु बाळा! तुझं सगळं व्हायचंय. जाता जाता माझ्या आयुष्याचं दान मी तुझ्या पदरात टाकते. ”
त्यानंतर दोन दिवसांनीच कुमुदआत्या गेली. ती गेली तेव्हाचे बाळासाहेबांचे (कुमुदआत्याचे पती) शब्द माझ्या मनावर कोरले गेलेत.
“कुमुद तुझ्याविना मी भिकारी आहे.”
मृणाल शांतपणे कोसळलेल्या आपल्या वडिलांच्या पाठीवर हात फिरवत होती.
आपलं माणूस गेल्याचं दुःख काय असतं याची जाणीव प्रथमच तेव्हा मला झाली होती.
कुमुदआत्या गेली आणि अरुणच्या प्रकृतीत हळूहळू सुधारणा दिसू लागली. तो औषधांना, उपचारपद्धतींना साथ देऊ लागला होता. कालांतराने अरुण मृत्यूला टक्कर देऊन पुन्हा जीवनात नव्याने माघारी आला. ईश्वरी संकेत, भविष्यवाणी, योगायोग या साऱ्यांवर विश्वास ठेवायचा की नाही हा ज्याचा त्याचा प्रश्न आहे पण आलेल्या अनुभवांना तार्किक किंवा बुद्धिवादी अर्थ लावत बसण्यापेक्षा त्यांना जीवनाच्या एका मौल्यवान कप्प्यात जसेच्या तसेच बंदिस्त करून ठेवाववे हेच योग्य.
आज ६०/६२ वर्षे उलटली असतील पण मनातल्या कुमुदआत्याची ती हसरी, प्रेमळ, मधुरभाषी, मृदुस्पर्शी छबी जशीच्या तशीच आहे.
…… जेव्हा जेव्हा तिचा विचार मनात येतो तेव्हा एकच वाटते,
☆ “जबरा पहाडिया – ऊर्फ तिलका मांझी” ☆ सुश्री शोभा जोशी ☆
‘स्वातंत्र्याशिवाय जगणे म्हणजे आत्म्याशिवाय शरीर होय ‘असं अमेरिकन फिलाॅसाॅफर खलिल जिब्राननी म्हटलं आहे. इंग्रजांनी आपल्या देशाच्या आत्म्यावरच घाला घातला होता. त्याला इंग्रजांच्याआधिपत्याखालून मुक्त करण्यासाठी म्हणजेच देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देण्यासाठी जनजातीतील सुध्दा हजारो लोकांनी प्राणांचे बलिदान दिले. तिलका मांझी हा असाच एक जनजातीतील स्वातंत्र्य सेनानी ज्यानं देशाच्या स्वातंत्र्यासाठी प्राणांचं बलिदान दिलं.
ईस्ट इंडिया कंपनीने बादशहा शाहआलमकडून बंगाल, बिहार व ओरिसा या प्रांतांची दिवाणीची सनद मिळविली. तो १८व्या शतकाचा उत्तरार्ध होता. त्या काळापर्यंत भारतीय राजे जनजातींकडून महसूल वसूल करित नसत. पण जनतेचे अधिकाधिक शोषण करण्यासाठीच इंग्रजांनी भारतीय जनतेवर जबरदस्त महसूल लादला. त्यामुळे त्या भागातील सर्व जमातीच्या लोकांनी इंग्रज सत्तेविरूध्द लढे दिले. इंग्रजांनी, भारताच्या पूर्व व दक्षिण भागातील प्रदेश सर्वप्रथम गिळंकृत केल्याने याच भागातील भारतियांनी सर्वप्रथम त्यांना विरोध केला. म्हणून या भागातील क्रांतीवीर आद्यक्रांतीकारक ठरतात. त्यातील तिलका मांझी हा इंग्रजांविरूध्द लढणारा पहिला क्रांतिकारक ठरला.
बिहारच्या, बंगालला लागून असलेल्या राजमहल व भागलपूरमधल्या पहाडातील संथाल जमातीचा तिलका मांझी हा एक बहाद्दूर, शूरवीर व कुशल संघटक होता. त्याने या प्रदेशातील हिंदू-मुस्लीमांसह अन्य जातींमधीलही लढवय्यांचे उत्तम संघटन करून इंग्रजी सत्तेशी प्राणपणाने टक्कर देऊन आपल्या देशाच्या स्वातंत्र्यासाठी आपल्या प्राणांची आहुती दिली.
तिलकाचा जन्म ११ फेब्रुवारी १७५० रोजी सुलतानगंज ठाण्याअंतर्गत तिलकपूर या गावी, संथाल जमातीतील मुर्मू समाजात झाला.
डोंगर दर्यातील निवासामुळे त्याचे शरीर दणकट बनले होते. त्याच्या अंगी असलेल्या ताकदीमुळे त्याला जबरा पहाडिया म्हणत. परंपरागत शिकारीचा व्यवसाय असल्याने तो नेमबाजीत तरबेज तसेच धाडसी होता. त्याच्या अंगी एक अध्यात्मिक शक्ती होती. ती त्याला कशी प्राप्त झाली माहित नाही. पण तो जे म्हणेल तसेच घडून येई असं म्हणतात. त्याच्या सात्विक जीवनपध्दतीमुळे तरूणांचा त्याच्याकडे सतत ओढा असायचा. त्याच्या अंगी असलेल्या अध्यात्मिक शक्तीमुळे लोकांची त्याच्यावरची श्रध्दा वाढू लागली. कोणत्याही जाती धर्माच्या लोकांविषयी त्याच्या मनात भेदभाव नव्हता. लोकांचा छळ करणार्या इंग्रजांना आपल्या प्रदेशातून हाकलून द्यायचा त्याने दृढसंकल्प केला.
भागलपूर मध्ये, आपल्या संकल्पपूर्तीसाठी तो तरूणांच्या गुप्त सभा घ्यायचा. ‘ एकी हेच बळ ‘हे त्याला माहित होतं म्हणून आदिवासी हिंदू व मुसलमानांचे त्याने एक उत्तम संघटन केले. ते सर्व लोक लहानपणापासूनच निशाणबाजीत तरबेज होते. वनवासींची जमीन, शेती, जंगलं, झाडं यावर इंग्रजांनी अधिकार गाजवायला सुरूवात केली होती.
इंग्रज, त्यांचे दलाल, जमीनदार, सावकार हे सर्व मिळून करीत असलेल्या शोषणाविषयी तिलकाने लोकांमध्ये जागृती निर्माण केली आणिाइंग्रजांना आपल्या देशातून हाकलून लावायचे याविषयी त्यांची मने तयार केली.
गंगेच्या काठच्या प्रदेशातून मार्गो व तेलियागदी या दर्यांमधून येणारा जाणारा इंग्रजांचा खजिना लुटून गोरगरीबांच्यात वाटून टाकण्यास त्याने सुरूवात केली. तो अत्यंत निःस्वार्थी होता. सन १७७६ मध्ये आॅगस्टस क्वीवलॅंड राजमहलचा मॅजिस्ट्रेट म्हणून आला. त्यानंतर तो भागलपूरचा मॅजिस्ट्रेट झाला.
गंगा व ब्राह्मी नद्यांच्या दुआबातील जंगल तराईच्या प्रदेशात तसेच मुंगेर, भागलपूर व संथाल परगाण्यात तिलकाच्या इंग्रजांशी अनेक लढाया झाल्या. तिलका मांझी त्यांना पुरून उरला. त्याच्या नेतृत्वाखालील वनवासी इंग्रजांना भारी पडत होते. इंग्रजांनी रामगढ कॅम्पवर ताबा मिळवला होता. तिलकाने पहाडिया सरदारांना बरोबर घेऊन १८७८मध्ये इंग्रजांचा पराभव करून रामगढ कॅम्प मुक्त केला.
जानेवारी १७८४ रोजी तिलका मांझीने भागलपूरवर चढाई केली. एका ताडाच्या झाडावर चढून त्याने, घोड्यावरून जात असलेल्या क्लीवलॅंडच्या छातीवर बाण मारला. क्लीवलॅंड तात्काळ घोड्यावरून खाली पडला आणि लगेच मरण पावला. त्याच्या निधनाने इंग्रज सैन्य हबकून गेले आणि मार्ग सापडेल तिकडे पळून गेले.
तिलका मांझीचा विजय झाला. त्याचे सैन्य विजयाचा आनंद साजरा करत असताना रात्रीच्या अंधारात सर आयर कूट व पहाडिया सरदार यांनी मिळून तिलका मांझीच्या बेसावध सैन्यावर अचानक हल्ला केला. त्या लढाईत तिलका मांझीचे बरेच सैनिक मारले गेले आणि पुष्कळसे गिरफ्तार करण्यात आले. तिलका मांझी आपल्या उरलेल्या सैनिकांसह सुलतानगंजच्या डोंगरात आश्रयाला निघून गेला आणि पुढची योजना ठरवू लागला. नंतर काही महिने त्याचे सैन्य इंग्रज सैन्याला आणि पहाडिया सैनिकांना गनिमीकाव्याने लढून बेजार करत होते.
तिलका मांझीचा पाडाव कसा करावा या विचाराने सर आयर कूट संत्रस्त झाला होता. त्याने तिलकाचे आश्रयस्थान असलेल्या डोंगरांना वेढे दिले. त्यांना बाहेरची रसद मिळू दिली नाही. अन्नपाण्यावाचून तिलकाच्या सैनिकांचे हाल होऊ लागले. तेव्हा गनिमीकाव्याने लढणे सोडून त्याने इंग्रजांशी आमने – सामने लढायचे ठरविले. आपल्या सैन्यासह तो डोंगर उतरून खाली आला व निकराने लढू लागला. त्या लढाईत धोक्याने तिलका इंग्रजांच्या हाती सापडला. त्याला जेरबंद करण्यात आले. सर आयर कूट त्यामुळे आनंदाने बेहोश झाला. त्याने तिलका मांझीला दोरखंडाने बांधून चार घोड्यांकरवी भागलपूरपर्यंत रस्त्यावरून फरपटत नेले. त्याचे अंग अंग सोलून निघाले तरी तो जिवंत राहिला. सर आयर कूटने त्याला भागलपूरच्या एका झाडावर फाशी दिली. नंतर त्याचे प्रेत त्या वडाच्या बुंध्याशी बांधून त्याच्या छातीत मोठे मोठे खिळे ठोकले. अशाप्रकारे या महान आदिवासी नेत्याने स्वातंत्र्याच्या बलिवेदीवर आपल्या प्राणांची आहुती दिली.
स्वातंत्र्यप्राप्तीनंतर भागलपूरमधील त्या चौकाला ‘ तिलका मांझी चौक ‘ असे नाव देण्यात आले आणि त्या चौकात एक चबुतरा उभारून त्यावर तिलका मांझीच्या पुतळ्याची प्रतिष्ठापना करण्यात आली. त्याचे नाव स्वातंत्र्याच्या इतिहासात अमर झाले.