मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ रिटायर्ड वडील… कवी – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ रिटायर्ड वडील… कवी – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

आज जेवून झाल्यावर

वडील बोलले…

” मी आता रिटायर होतोय.

मला आता नवीन कपडे नकोत.

 जे असेल, ते मी जेवीन.

रोज वाचायला पेपर नको.

आजपासून बदामाचा शिरा नको,

मोटर गाडीवर फिरणं बंद,

बंगला नको, बेड नको,

एका कोप-यात, झोपण्यास थोडी जागा मिळाली तरी खूप झालं.

आणि हो तुमचे, सुनबाईचे मित्र व मैत्रिणी,

चार पाहुणे आले तर

मला अगोदर सांगा.

 मी बाहेर जाईन.

 पण त्यांच्यासमोर ‘बाबा, तुम्ही बाहेर बसा’

 असं सांगू नका.

 तुम्ही मला जसं ठेवाल,

तसा राहीन. “

 

काहीतरी कापताना सुरीनं

बोट कापलं जावं आणि

टचकन डोळ्यांत पाणी यावं,

काळीजच तुटावं,

अगदी तसं झालं…

 

एवढंच कळलं, की

आजवर जे जपलं,

ते सारंच फसलं…

 

का वडिलांना वाटलं,

ते ओझं होतील माझ्यावर… ?

 

मला त्रास होईल,

जर ते गेले नाहीत कामावर… ?

 

ते घरात राहिले, म्हणून

कोणी ऐतखाऊ म्हणेल…

 

की त्यांची घरातली किंमत

शून्य बनेल… ?

 

आज का त्यांनी

दम दिला नाही… ?

 

“काय हवं ते करा, माझी तब्बेत बरी नाही,

मला कामावर जायला जमणार नाही… “

 

खरंतर हा अधिकार आहे,

त्यांचा सांगण्याचा.

पण ते काकुळतीला का आले… ?

 

ह्या विचारातच माझं मन खचलं.

 नंतर माझं उत्तर

मला मिळालं…

 

जसजसा मी मोठा होत गेलो,

वडिलांच्या कवेत

मावेनासा झालो.

 

तेव्हा नुसतं माझं शरीरच वाढत नव्हतं, तर त्याबरोबर

वाढत होता तो माझा अहंकार

आणि त्यानं वाढत होता,

तो विसंवाद…

 

आई जवळची वाटत होती.

पण, वडिलांशी दुरावा साठत होता…

 

मनांच्या खोल तळापर्यंत

प्रेमच प्रेम होतं.

पण,

ते कधी शब्दांत

सांगताच आलं नाही…

 

वडिलांनीही ते दाखवलं असेल.

पण, दिसण्यात आलं नाही.

 

मला लहानाचा मोठा करणारे वडील,

स्वत:च स्वतःला लहान समजत होते…

 

मला ओरडणारे – शिकवणारे वडील,

का कुणास ठाऊक

बोलताना धजत नव्हते…

 

मनानं कष्ट करायला

तयार असलेल्या वडिलांना,

शरीर साथ देत नव्हतं…

 

शून्यातून सारं उभं केलेल्या तपस्वीला,

घरात नुसतं बसू देत नव्हतं…

 

हे मी नेमकं ओळखलं… !

 

खरंतर मी कामावर जायला लागल्यापासून,

सांगायचंच होतं त्यांना,

की थकलाहात, तुम्ही आराम करा.

पण

आपला अधिकार नव्हे,

सूर्याला सांगायचा, की

“मावळ आता”… !

 

लहानपणीचे हट्ट पुरवणारे

वडील…

 

मधल्या वयांत अभ्यासासाठी

ओरडणारे वडील…

 

आणि नंतर चांगलं वागण्यासाठी

कानउघडणी करणारे वडील…

 

आजवर सारं काही देऊन

कसलीच अपेक्षा न ठेवता,

जेव्हा खुर्चीत शांत बसतात,

तेव्हा वाटतं, की जणू काही

आभाळच खाली झुकलंय !

 

कधीतरी या आभाळाला

जवळ बोलवून

खूप काही

बोलावसं वाटतं… !

 

पण तेव्हा लक्षात येतं, की

आभाळ कधीच झुकत नाही,

 ते झुकल्यासारखं वाटतं… !

 

आज माझंच मला कळून चुकलं,

की आभाळाची छत्रछायाही

खूप काही देऊन जाते… !

कवी : अज्ञात 

संग्राहक :श्री. अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, 

kelkaramol.blogspot.com  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – खंडोबाची वारी… – ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? खंडोबाची वारी? श्री आशिष  बिवलकर ☆

चंपाषष्ठी आज | डोंगुर जेजुरी |

खंडोबाची वारी | भक्तीमय ||१||

*

मल्हारी मार्तंड | जय खंडेराया |

जेजुरी गडाया | येळकोट ||२||

*

सोन्याची जेजुरी | उधळी भंडारा |

वाजतो नगरा | मार्तंडाचा ||३||

*

हळद खोबरं | भारी उधळण |

पिवळं अंगण | खंडोबाचं ||४||

*

देव साधा भोळा | भरीत भाकर |

चव रुचकर | नैवेद्यासी ||५||

*वाघ्या मुरळीचा | खेळ जागरण |

गोंधळाचा सण | गडावरी ||६||

*

देवा खंडेराया | भरुनिया तळी |

पसरतो झोळी | कृपेसाठी ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 219 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 219 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

युवती

कन्या

बेटी की इच्छाओं को?

कैसे कुचल दिया

उसके स्वप्रों को ।

दानदाता होने के

अहं ने

तुमसे करवा लिया

अकरणीय ।

याचक गालव को

सौंप देते

अपना राज्य

कर लेते पुण्य लाभ।

किन्तु नहीं,

बेटी को

जड़ वस्तु मानकर

तुमने

फेंक दिया

रूप के लोभियों

और

देह के दरिन्दों के बीच!

सामाजिक प्रथा

या

ऋषि के वरदान का

कवच मत पहिनना ।

धिक्कार है तुम्हें।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 219 – “लोकतंत्र के सुसुप्त बहरों के…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत लोकतंत्र के सुसुप्त बहरों के...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 219 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “लोकतंत्र के सुसुप्त बहरों के...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

सिमट गये

सारे अहसास

लिपट गये

तने से सायास

बिम्ब नदी की

उदास लहरों के ।

हरियाली

जैसे हो सर्द

बिखरी है

पेडों के गिर्द

टहनियाँ डालियों

के पास

बुनती हैं

ढेरो प्रयास

गाँवो से लौट

चुके शहरों के ।

पत्तों की

ठहरी आवाज

खोज रही

जंगल का राज

गायन करती

हवा लगती है

गाती है द्रुत

में खम्माज

जूड़े में बँधे हुये

गजरों के ।

बगुलों की

भागती कतार

लगती है जैसे

सरकार किसी

नये शाश्वत

अभियान पर

जता रही

सबका आभार

लोकतंत्र के

सुसुप्त बहरों के ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संकल्प ? ?

कैद कर लिए मैंने

विकास की यात्रा के

बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

अब इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर

जो उगा सकें

हरे पौधे और हरी घास,

अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का

साक्षी नहीं बना सकता मैं..!

?

© संजय भारद्वाज  

13 जून 2016, सुबह 10.23 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी

☆ कहाँ गए वे लोग # ४० ☆

☆ “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

महान व्यक्ति अपने कर्मों की छाप और कदमों के अमिट निशान दुनिया में छोड़ जाते हैं, ऐसे ही महान शख्स थे स्व. यशवंत शंकर धर्माधिकारी। आपका जन्म स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सामाजिक सुधार आंदोलनों के नेता, विनोबा भावे के अनन्य सहयोगी एवं गांधीवादी विचारधारा के समर्थक वर्धा के श्री शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी के परिवार में हुआ था। प्रतिष्ठित परिवार से जो सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, कर्मठता के संस्कार उन्हें मिले उन्हीं सब का निर्वहन कर उन्होंने अपने व्यक्तित्व को और अधिक सुरभित बनाया । धर्माधिकारी जी ने नागपुर से 1952 में विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की तदोपरान्त उन्होंने संस्कारधानी जबलपुर में वकालत का कार्य प्रारंभ किया । इस क्षेत्र में वे लगभग 45 वर्ष तक  सेवाएं प्रदान करते रहे । उन्होंने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ न्याय क्षेत्र में भी बुलंदियां हासिल कर शोहरत प्राप्त की । उनकी शख्सियत को नजरअंदाज करना न तो समाज के लिए संभव था और न ही सरकार के लिए । उनके परिश्रम, लगन, ईमानदारी और बुद्धिमत्ता ने उन्हें 12 अगस्त 1971 में महाधिवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया। नियम-सिद्धांतों, नैतिकता और ईमानदारी की डोर से बंधे धर्माधिकारी जी को आपातकाल में श्री जयप्रकाश नारायण को अपने आवास में अपने सानिध्य में रखने के कारण 1975 में नैतिक जिम्मेदारी के तहत पद त्याग करना पड़ा उन्होंने साबित कर दिया कि –

कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे में ढल गए

कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए

ऊंचाईयां उन्होंने केवल न्याय के क्षेत्र में ही तय नहीं की थी, वे श्रेष्ठ साहित्यकार भी थे। उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी हिंदी, मराठी और अंग्रेजी साहित्य पर उनका पूर्ण अधिकार था । इतिहास, दर्शन तथा आध्यात्म में भी उनकी गहरी पैठ थी । सच्चाई की जितनी कड़वाहट  उनके व्यवसाय से जुड़ी थी, संगीत की उतनी ही मधुरता उनके जीवन में घुली थी। वे संगीत के भी बेहद शौकीन थे। विभिन्न शैक्षिक, सांस्कृतिक आध्यात्मिक कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति उनकी रुचि का परिचायक थी । साधारणता यह देखा जाता है कि साहित्य और कला प्रेमी खेल के मैदान से दूर रहते हैं, किंतु उन्हें खेल में भी दिलचस्पी थी और भी इसका भरपूर आनंद भी लेते थे ।

श्री धर्माधिकारी जी महान शिक्षाशास्त्री और शिक्षा प्रेमी थे। नगर के गौरवशाली गोविंदराम सेक्सरिया अर्थ वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर के लम्बे समय तक शासी निकाय के अध्यक्ष रहे। उनके मार्गदर्शन में महाविद्यालय पुष्पित, पल्लवित हुआ और प्रदेश के श्रेष्ठ महाविद्यालय में अपना स्थान बनाया । एड. धर्माधिकारी जी रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के कार्य परिषद के साथ-साथ अनेक महाविद्यालयों  में भी शासी निकाय के सदस्य रहे। शहर की कोई भी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था ऐसी नहीं होगी जिससे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उनका संबंध न रहा हो।

इन सब के अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात है उनका विनम्र होना और इंसानियत के गुणों से भरपूर होना। मुझे याद आती है अपने बाल्यकाल की एक घटना । चूँकि मेरे पिता स्व. प्रो.एन के पाण्डेय गोविंदराम सेक्सरिया महाविद्यालय में ही प्राध्यापक थे और आदरणीय धर्माधिकारी जी के घर महाविद्यालयीन कारणों से आना-जाना होता रहता था । उन दिनों मेरी मां रीढ की हड्डी की समस्या से परेशान थीं और उनके लिए चलना-फिरना कठिन हो गया था ऐसे समय में उन्होंने अपने ड्राइवर बाबूराव जी को स्पष्ट निर्देश दिया कि जब तक मां का इलाज पूर्ण नहीं हो जाता वह उनके लिए कार की व्यवस्था बनाए रखे । सरस्वती-लक्ष्मी पुत्र धर्माधिकारी जी के संवेदनशील, मानवता पूर्ण व्यवहार ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उच्च वर्ग में जन्मे पले बढ़े श्री धर्माधिकारी जी समवर्गी में ही नहीं अपितु मध्यम और निम्न वर्गी लोगों में भी अत्यंत लोकप्रिय थे। छोटे-बड़े सभी लोग उन्हें प्यार और आदर से दादा और काका जैसे संबोधनों से संबोधित करते थे। उनके वात्सल्य पूर्ण स्नेहिल व्यवहार को मैं आज भी नहीं भूल पाती जब मैं कक्षा सातवीं की स्टूडेंट थी तब उन्होंने एक बार मुझे बग्घी में घुमाया था और रास्ते भर पिताजी की तरह सिद्धांतों के साथ ईमानदारी की राह पर चलने, कठिन परिश्रम और समय का पाबंद रहने की शिक्षा दी थी। युवा- वृद्ध, बालक सबसे उनका प्रेम पूर्ण व्यवहार रहता था। गरीबों के प्रति उनकी सहृदयता देखते ही बनती थी। वे  सबके दुख-सुख में शरीक होकर सुख को दूना और दुख को आधा कर देते थे। 15 जून 1996 को उनके निधन पर हर किसी को लगा कि कोई अपना चला गया जीवन शून्य बनाकर।  खुशमिज़ाज़, शौकीन, हंसमुख, मिलनसार, सहनशील प्रकृति के धनी एड. यशवन्त शंकर धर्माधिकारी जी की पत्नी श्रीमती यशोदा धर्माधिकारी जी भी शिक्षा और समाज सेवा में सदैव अग्रणी रहीं । समाज सेवा की परंपरा को आगे बढ़ाया उनके पुत्र स्व. प्रियदर्शन धर्माधिकारी जी ने, जो नगरीय प्रशासन राज्य मंत्री भी रहे। पुत्रवधु श्रीमती प्रीति धर्माधिकारी जी भी निरंतर शिक्षा और समाज सेवा में उदारता के साथ जुड़ी हैं । पुत्री स्व.की शुभदा पांडे जी ने भी शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान की। 

दादा वाय.एस.धर्माधिकारी को सादर नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Journey Through New Zealand’s Natural and Cultural Masterpieces: # 6 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Journey Through New Zealand’s Natural and Cultural Masterpieces: # 6 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

The day began with a serene morning drive along the Thermal Explorer Highway from Taupō to Rotorua. The highway, aptly named, offers breathtaking vistas of geothermal activity and lush landscapes that beckon travellers to pause and admire their beauty. Before setting off, we indulged in a quick but delightful breakfast at the Cozy Corner Café in Taupō—a charming vegan café with gracious hosts. Ordering Indian vegetarian food in New Zealand can be a quirky experience, as the definition of “vegetarian” often includes eggs or fish sauce. However, the café’s understanding approach made the meal a delight.

The journey itself was an adventure, with mesmerising hotspots tempting us to stop and soak in the scenery. Rotorua awaited us with its unique charm, and at its heart lay the Redwoods Forest, or as the locals call it, Whakarewarewa Forest. This towering expanse of Californian Redwoods is simply otherworldly. The moment we stepped into the forest, a phrase came to mind: wah, kya re, wah re waah! A playful nod for Indian visitors, this phrase echoes the wonderment of seeing such grandiose trees in this faraway land. And doesn’t it remind one of New Zealand’s warm greeting, Kia Ora? Perhaps, in light-hearted banter, we might quip back, Kya hora?—a testament to the linguistic ties that make these two distant nations seem a little closer.

 

We opted for the Redwoods Treewalk, an enchanting experience that lets you wander amidst these majestic giants from an elevated perspective. It was here that Wordsworth’s lines sprang to mind:

 

“For oft, when on my couch I lie

In vacant or in pensive mood,

They flash upon that inward eye

Which is the bliss of solitude;

And then my heart with pleasure fills,

And dances with the daffodils.”

 

Only this time, the daffodils were replaced by the serene redwoods, towering with timeless grace. The tranquillity of the forest filled our hearts with the bliss Wordsworth so beautifully captured.

 

Lunch was a vibrant affair at El Mexicano Zapata Cantina, where we were treated to some of the finest Mexican cuisine we had tasted during our New Zealand sojourn. The flavours were authentic, and the traditional Jarritos drink transported us straight to Mexico with its nostalgic charm.

 

Time slipped away quickly, and we made our way to Hamilton, eager to explore the famed Hamilton Gardens. This was not just a garden but a kaleidoscope of cultures and history brought to life through meticulous landscaping. Walking through the themed gardens felt like stepping into a dream—an immersion into worlds crafted with incredible artistry. It is no wonder the Hamilton Gardens are regarded as one of the country’s crown jewels.

 

As twilight descended, we rounded off the day with a hearty meal at Beeji Ka Dhaba, a haven for lovers of Indian cuisine. The oversized parathas, served with a generous dollop of white butter, were a culinary embrace that reminded us of home.

 

The journey back to Auckland was long, but our hearts were light with the memories of a day steeped in natural splendour and cultural discovery. From the towering redwoods of Rotorua to the enchanting gardens of Hamilton, New Zealand revealed itself as a land of wonders, where every corner holds a story waiting to be discovered.

#redwoods #hamiltongardens #newzealand #redwoodstreewalk #rotorua

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth # 31 – The Electoral Cow: From Sacred Symbol to Forgotten Promise… ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his Satire The Electoral Cow: From Sacred Symbol to Forgotten Promise...

☆ Witful Warmth# 31 ☆

☆ Satire ☆ The Electoral Cow: From Sacred Symbol to Forgotten Promise…  ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

In the grand spectacle of Indian democracy, where the colors of campaigns paint every wall, street, and heart, one figure stands apart as a timeless icon: the cow. Yes, the revered bovine, the embodiment of purity and sustenance, finds herself thrust into the limelight every five years, her significance growing in direct proportion to the urgency of the elections. But, alas, once the ballots are counted and the promises have evaporated, our beloved cow retreats into the shadows, forgotten until the next democratic carnival.

During the election season, cows become the unofficial mascots of manifestos. From posters plastered with slogans glorifying their sanctity to candidates offering garlands to actual cows on camera, the nation seems to unite under the banner of bovine adoration. “Protect the cow!” they cry, equating its welfare with the prosperity of the land. Committees are formed, sanctuaries are promised, and speeches are delivered with dramatic flair, often featuring a candidate stroking a bewildered cow as if they’ve just unlocked the secret to national harmony.

But the real drama begins after the elections. Once the ink has dried on the voters’ fingers and the victors take their oath, the cows are quietly ushered offstage. The sanctuaries become mirages, the committees dissolve into bureaucratic oblivion, and the promises evaporate faster than milk left out in the summer sun. The cows, having served their electoral purpose, are left to wander aimlessly—both literally and metaphorically—as the political machinery moves on to more “pressing” matters.

This cyclical amnesia isn’t new, of course. The cow has been a silent participant in India’s political theater for decades, a mute witness to the ebb and flow of rhetoric. During elections, she’s elevated to divine status, her image adorning banners, her name invoked in fiery debates. Political parties compete to outdo each other in their devotion, promising everything from free fodder to state-of-the-art shelters. The sheer creativity of these pledges would be admirable if it weren’t so blatantly opportunistic.

However, come post-election reality, the cows find themselves back in the mundane world of potholed streets and neglected fields. The promised shelters remain blueprints; the free fodder is nowhere to be seen. Stray cows wander urban jungles, dodging traffic and scavenging for scraps, their plight a stark contrast to the reverence showered upon them just weeks earlier. It’s as if the electoral cow and the real cow exist in parallel universes, one revered and the other ignored.

One might ask: why does the cow occupy such a peculiar position in our politics? The answer lies in her symbolic power. In a country as diverse and complex as India, the cow represents a unifying ideal—a symbol of cultural identity and traditional values. By aligning themselves with this symbol, politicians tap into a reservoir of emotional resonance, crafting an image of themselves as protectors of heritage. It’s a strategy that works remarkably well, as evidenced by the fervor it generates among voters.

But this strategy also reveals the hollowness of much of our political discourse. The cow becomes a convenient prop, a tool to distract from substantive issues like unemployment, education, and healthcare. While leaders wax poetic about cow protection, the real problems facing farmers—including those who rear these very cows—are conveniently sidelined. The irony is as thick as the butter churned from her milk: the very creature they claim to cherish becomes a pawn in a game that cares little for her actual well-being.

And what of the voters? Are we not complicit in this charade? We cheer for the promises, applaud the symbolism, and cast our votes, only to lament the broken pledges later. Perhaps it’s time we held our leaders accountable, demanding not just words but actions. After all, if the cow truly is a symbol of our values, shouldn’t her welfare reflect our collective conscience?

Imagine a world where post-election reality matches pre-election rhetoric. Sanctuaries would thrive, stray cows would find homes, and farmers would receive genuine support. The cow would no longer be a fleeting mascot but a true beneficiary of the promises made in her name. Such a world might seem idealistic, but isn’t it worth striving for?

Until then, the cow will continue to play her dual role: a sacred symbol during election season and a forgotten figure in its aftermath. She will graze on the empty promises of manifestos, her plight a silent reminder of the gap between words and deeds. And as the political circus moves on, we, too, will move on—until the next election, when the cow will once again take center stage, her significance rediscovered, her symbolism renewed.

In the end, the story of the electoral cow is a satire not just of politics but of us as a society. It’s a tale of misplaced priorities and selective memory, of sacred symbols turned into political tools. The question is: will we continue to fall for the same old tricks, or will we demand better? The answer, like the cow’s next appearance, is just a vote away.

*

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 558 ⇒ इतिहास गवाह है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “इतिहास गवाह है।)

?अभी अभी # 558 ⇒ इतिहास गवाह है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

काल का पहिया हमेशा घूमता ही रहता है, सुबह, दोपहर, शाम, अतीत, वर्तमान, और भविष्य काल। आपने पुराना रोड रोलर देखा होगा, सड़क बनाने वाला, जिसके लोहे के तीन पहिये होते थे। हम शिव की तरह त्रिकालदर्शी तो नहीं, शायद इसीलिए अज्ञेय को यह कठोर सच स्वीकारना पड़ा ;

हम सब

काल के दांतों तले

चबते चले जाते हैं,

च्यूइंग गम की तरह

कच, कच, कच,

बड़ा कठोर सच।।

अतीत में क्या हुआ, इतिहास गवाह है, वर्तमान हमारी आज की दुनिया है और हम ही इसके गवाह हैं और कल क्या होगा, यह केवल ईश्वर ही जानता है। अतीत के लिए हम भले ही इतिहास को कटघरे में नहीं बुला सकते, लेकिन इतिहास के पन्ने तो माय लॉर्ड, हकीकत बयां कर ही सकते हैं, इसीलिए हम कहते हैं, इतिहास गवाह है।।

अगर इतिहास केवल किसी किताब के कुछ पन्ने हैं, तो किताब के पन्ने फाड़े भी जा सकते हैं, संविधान की तरह उसमें संशोधन भी किया जा सकता है। और अगर गवाह होस्टाइल हो जाए, तो इतिहास गवाह की तरह बदला भी जा सकता है।

बी.आर. चोपड़ा एक क्रांतिकारी फिल्म लेकर आए थे, समाज को बदल डालो, कल आदित्य अथवा उदय चोपड़ा इतिहास को बदल डालो और संविधान को बदल डालो, जैसी फिल्में भी बना सकते है। इतिहास गवाह है, हमें कितना गलत इतिहास पढ़ाया गया है।।

जिस तरह दर्पण झूठ नहीं बोलता, इतिहास भी झूठ नहीं बोलता। लेकिन हमें इतिहास पर तो भरोसा है, गवाह पर नहीं। हम तो आईने से भी हमारी पहली सी सूरत मांगते हैं। कम से कम हमारा इतिहास तो खूबसूरत हो, जिस पर हम नाज़ कर सकें, इतरा सकें।

हम जानते हैं एक गवाह की तरह हमारे इतिहास को भी तोड़ मरोड़कर, विकृत तरीके से पेश किया गया है। हमने बी.आर.चोपड़ा की महाभारत भी देखी है, जिसमें हरीश भिमानी कहते हैं, मैं समय हूं। हम समय के साथ खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकते। आज समय हमारी मुट्ठी में है। हम अगर समय को बदल सकते हैं तो इतिहास को भी बदल सकते हैं।।

नया इतिहास लिखने के दिन आ गए। एक नया स्वर्णिम इतिहास, जिसमें हमारा अतीत भी सुंदर था, वर्तमान भी श्रेष्ठ ही है और भविष्य तो सर्वश्रेष्ठ होगा ही। हिम्मते केवल मर्द ही नहीं, हर महिला और बच्चा बच्चा भी।

क्या आपको पूत के पांव पालने में नजर नहीं आ रहे। अच्छे दिन ही तो वह सिल्वर स्पून है, जो आज की पीढ़ी अपने मुंह में लेकर पैदा हुई है। हमारा देश सोने की चिड़िया था, सोने की चिड़िया है, और सोने की चिड़िया ही बना रहेगा, ईश्वर गवाह है। कोई शक ? जय हिन्द ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 216 कविता – राष्ट्रीय गणित दिवस पर गणितीय सॉनेट ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता राष्ट्रीय गणित दिवस पर गणितीय सॉनेट)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 216 ☆

☆ कविता -राष्ट्रीय गणित दिवस पर गणितीय सॉनेट ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

तीन-पाँच कर कर हम हारे,

नौ दो ग्यारह हुए न संकट,

एक-एक ग्यारह हों प्यारे।

हों छत्तीस तभी हम-कंटक।

आँखें चार न करे सफलता,

पाँचों उँगली हुई न घी में,

चार सौ बीसी कर जग छलता। 

उन्नीस बीस न चाहे जी में। 

चार बुलाए चौदह आए

एक आँख से देखें कैसे?

दो नावों पर पैर जमाए। 

चारों खाने चित हों ऐसे।

दो दिन का मेहमान नहीं गम

सुनों बात दो टूक कहें हम।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२२.१२.२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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