हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है।)

?अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।

जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।

हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।

इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।

पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए।

हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।

हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।

विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।

कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मूले सरस्वती ! और सरस्वती किताबों से चलकर डिजिटल होती हुई बच्चों की नाजुक हथेलियों में मोबाइल में कैद हो गई। कम उम्र में आंखों पर चश्मा, गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर दबाव। घर, दफ्तर मोबाइल, पी सी, डेस्क टॉप। जिस इंसान ने कभी काम से पीठ नहीं चुराई, कमर का दर्द लिए, पीठ की एम .आई. आर., हड्डियों के डॉक्टर को दिखा रहा है। डॉक्टर की रिपोर्ट बयां कर रही है, और पीठ सुन रही है अपनी ही दास्तान।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 117 – देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 117 ☆ देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जुड़वां भाइयों में जब शक्ल मिलती है, तो ये अक्सर सुनने में आता है, कि शैतानी एक भाई करता है, और दंड दूसरे भाई को मिलता है। हमारी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाया जाता है, लड़की प्रेम एक भाई से करती है, और घूमने दूसरे भाई के साथ निकल जाती है। सीता और गीता नाम से भी एक ऐसी ही फिल्म आई थी। कुंभ में जुड़वा भाई गुम जाते है, एक ईमानदार तो दूसरा बेईमान बन जाता है। ये सब हमारे बॉलीवुड में ही होता है।

अब जब बात फिल्मों की हो रही है, तो मुम्बई का जिक्र ना हो, ये कैसे हो सकता हैं। मुम्बई और फिल्म जगत एक दूसरे के पूरक हैं। कुछ दिन पूर्व ही नवाब ऑफ पटौदी पर  हुए हमले के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ा गया, क्योंकि उसकी शक्ल सी सी टीवी कैमरे की तस्वीर से जो मिलती थी।

कुछ समय बाद उस संदिग्ध व्यक्ति को छोड़ दिया गया था। मीडिया ने उसको सभी चैनल पर दिखवाकर उसका खूब प्रचार प्रसार कर डाला था। मीडिया ट्रायल में उसको दोषी भी मान लिया था।

जब पुलिस ने उसको बरी किया तब तक उस व्यक्ति की मुम्बई की नौकरी चली गई है। नियोक्ता ने ये विचार किया होगा, पुलिस उससे आगे भी जिरह कर सकती है, इत्यादि। इन सबसे अच्छा है, उसको नौकरी से ही निकाल दो।

मामला इतना सीधा नहीं है, उस व्यक्ति का विवाह भी तय हो चुका था। अब उसकी सगाई भी टूट गई है। जीवन भर का दाग लग गया है। आने वाले समय में उसकी पहचान के साथ “सैफ का नकली कातिल” जैसे जुमले जुड़ जाएंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 – हर पल हो आराधना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अप्रतिम गीत हर पल हो आराधना”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 ☆

🌻 गीत 🌻 🌧️ हर पल हो आराधना 🌧️

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।

सच्चाई की राह में, प्रभु संभाले भार।।

 *

कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पूर्वज के भाग।

रहिमन धागा प्रेम का, मन में श्रद्धा जाग।।

गागर में सागर भरे, पनघट बैठी नार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

बूँद – बूँद से भरे घड़ा, बोले मीठे बोल।

मोती की माला बने, काँच बिका बिन मोल।।

सत्य सनातन धर्म का, राम नाम शुभ द्वार।

हर पर हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

परहित सेवा धर्म का, सदा लगाना टेर।।

अंधे का बन आसरा, करना तुम उपकार।

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

चार दिनों की चाँदनी, माटी का तन ठाट।

काँधे लेकर चल दिये, लकड़ी का है खाट।।

घड़ी बसेरा साधु का, थोथा सब संसार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नर्मदा जयंती विशेष – नर्मदा – वंदना ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

नर्मदा – वंदना ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

(नर्मदा जयंती 4 फरवरी पर विशेष)

रेवा मैया नर्मदा, है तेरा यशगान।

तू है शुभ, मंगलमयी, रखना सबकी आन।।

 *

शैलसुता, तू शिवसुता, तू है दयानिधान।

सतत् प्रवाहित हो रही, तू तो है भगवान।।

 *

जीवनरेखा नर्मदा, करती है कल्याण।

रोग, शोक, संताप को, मारे तीखे बाण।।

 *

दर्शन भर से मोक्ष है, तेरा बहुत प्रताप।

तू कल्याणी, वेग को, कौन सकेगा माप।।

 *

नीर सदा बहता रहे, कंकर है शिवरूप।

तू पावन, उर्जामयी, देती सुख की धूप।।

 *

अमिय लगे हर बूँद माँ, तू है बहुत महान।

तभी युगों से हो रहा, माँ तेरा गुणगान।।

 *

प्यास बुझाती मातु तू, देती जीवनदान।

तू आई है इस धरा, बनकर के वरदान।।

 *

अमरकंट से तू निकल, गति सागर की ओर।

तेरी महिमा का नहीं, मिले ओर या छोर।।

 *

संस्कारों को पोसकर, करे धर्म का मान।

तेरे कारण ही मिला, जग को नया विहान।।

 *

अंधकार को मारकर, तू देती उजियार ।

पावन तूने कर दिया, रेवा माँ! संसार।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #270 ☆ शोकांतिका (धृतराष्ट्र उवाच)… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 270 ?

शोकांतिका (धृतराष्ट्र उवाच) ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

संजया, तू जरी कौरवांच्या बाजूने

उभा असलास तरी

तुझ्या बोलण्यातून

मला पांडवांच्या विजयाची गाथा

ऐकू येते आहे.

मी आंधळा असलो तरी

उघड्या कानांनी

आपल्या अपयशाची लक्तरे

वेशीवर टांगलेली पहातो आहे

तुझ्या या रोजच्या संभाषणातून

कौरवांच्या कुठल्याही यशाचा मार्ग

मला समोर दिसत नाही

एकेक करून, आपले सैनिक

रोज आपल्याला सोडून जात आहेत

परतीचा कुठलाच मार्ग

आपल्यासमोर राहिलेला दिसत नाही

अपयशाच्या शेवटपर्यंत

तू असाच बोलत राहणार आहेस का?

तुझ्या या दिव्यदृष्टीपुढे

माझे काहीच चालत नाही

मी तुला आणि मलाही

थांबवू शकत नाही

हीच आजची शोकांतिका आहे…!

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शिशिर हवा… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शिशिर हवा… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

उजाडताना हिरव्या पदरी

पाचू मोती हे काठावरती

आणि सप्तरेशीम चैतन्य

शृंगार ल्याली माता धरती.

हसर्या वेलीवर मोगरा

प्राजक्ताचा उत्कर्ष फुलवा

शिशीर प्रारंभाची चाहुल

मस्त भाव काळीज गारवा.

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आयुष्याची सरगम… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

आयुष्याची सरगम… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

आयुष्याची सुरावट ”सा रे ग म प ध नी सा’ या सप्तसुरातून साकार होत असते किंवा केली जाते. हे सूर जितके सच्चे, तितके त्यातून निर्माण होणारे गीत सुरेल निघते. सप्तसुरांच्या संगतीने आपले आयुष्य सुंदर सुरमयी बनते कारण यातील प्रत्येक सूर हा त्याच्या विचाराशी किंवा आशयाशी सच्चा राहतो.

*सा.. *आयुष्याचा प्रारंभ हाच ‘सा’ मधून होतो त्यामध्ये जीवनाचे सातत्य समाविष्ट आहे.

 रे… रेंगाळणे.. आयुष्याची वाटचाल चालू असताना आपण अधून मधून थांबतो किंबहुना रेंगाळतो..

ही वाटचाल जेव्हा शांतपणे सुरू असते, तेव्हा ‘रे’ सुराची निर्मिती होते.

ग.. विचारांना ‘ग’गती देतो. तर कधी

‘ग’ हा गमावल्याची भावनाही निर्माण करतो.

म… मानून घेणे, हे ‘म’ चे वैशिष्ट्य आहे.. जे आहे त्यात समाधान मानून आपल्या आयुष्याची वाटचाल आपण सुखद करतो.

प.. मनाची व्याप्ती वाढवणे किंवा पसरवणे हे ‘प’ चे वैशिष्ट्य! सप्तसुरांतील ‘प’हा चढती कमान दाखवतो. !

ध.. ‘ध’धारण करणे.. मनाची शांतता धारण करणे हे शिकवणारा

हा ‘ध’ आहे. ‘ध-‘ धारयती हा पुढे

‘नि’ मध्ये जातो.

नि – निवृत्ती कडे वाटचाल..

जगण्यातून निवृत्ती घेता येणे हे बोलणे सोपे पण आचरण्यास अवघड असे तत्व!ही निवृत्ती ज्याला साधली त्याला ‘सा’ची सायुज्यता साधणे कठीण जात नाही..

सायुज्यता – मोक्षाच्या चार अवस्थांपैकी चौथी सायुज्यता!

ही साधली तर वरच्या ‘सा’च्याजवळ आपण पोचू शकतो असे म्हणायला हरकत नाही..

आयुष्याच्या सरगमातील हे ‘सारेगमपधनीसा’ चे सूर विचार केला तर किती वेगळे अस्तित्व दाखवतात ना?

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वाटणी… भाग – १ ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

 

? जीवनरंग ?

☆ वाटणी… भाग – १ ☆ श्री दीपक तांबोळी

एका केसची फाईल चाळत असतांनाच मोबाईल वाजला. बापूकाकांचं नांव स्क्रीनवर पाहून मला आश्चर्य वाटलं. कारण काका क्वचितच कुणाला स्वतःहून फोन करत.

” बोला काका. आज बऱ्याच दिवसांनी फोन केलात. तब्येत वगैरे ठिक आहे ना?”

” तब्येतीचं काय सांगायचं?तशी ठिक आहे पण सतत काहितरी आजारपण सुरुच असतं. जीवाला काही आराम नाही “

“आता वय झालं की असं होणारच. बोला आज कशी काय आठवण काढलीत?”

” फोन याचकरीता केला की आता माझ्या तब्येतीचं काही खरं राहीलं नाही. म्हंटलं काही बरंवाईट होण्याच्या आत घराचे वाटेहिस्से करुन द्यावेत. म्हणजे आपण गेल्यानंतर पोरांनी कोर्टकचेऱ्या करायला नकोत “

काका योग्य तेच म्हणत होते. मागेही त्यांना तसं सुचवण्याचा विचार माझ्या मनात आला होता पण ते त्यांना कितपत रुचलं असतं हा विचार करुन मी चुप बसलो होतो.

” हो बरोबर. मग तुमचा काय विचार आहे तसं मला सांगा म्हणजे तसं मृत्युपत्र तयार करता येईल”

” या रविवारी तुला गांवी यायला जमेल का?रमेशलाही बोलावून घेतो. गांवातल्या एकदोन प्रतिष्ठित मंडळींनाही सांगावा धाडतो. एकत्र बसून सगळ्यांच्या सल्ल्याने ठरवू. मग मृत्युपत्र बनवू “

” हो चालेल. पण तुमची इच्छा काय आहे ते तरी कळू द्या “

” तशी काय आपली फार मोठी इस्टेट नाही. एक घर आणि शेती याव्यतिरिक्त आपल्याकडे काहिही नाही. आणि तू तर बघतोच आहेस की रमेशचं सगळं व्यवस्थित चाललं आहे. सरकारी नोकरी आहे. शहरात स्वतःचं मोठं घर आहे. चारचाकी गाडी आहे. योगेशकडे त्यातलं काही नाही. कशीबशी शेतीवर गुजराण करतो बिचारा. म्हणून रहातं घर आणि शेती दोन्ही त्याच्या नावावर झालं तर बरं होईल “

काका योग्य तेच म्हणत होते. मी स्वतःही ते जाणून होतो.

“हो बरोबर. मला वाटतं काका रमेशही काही हरकत घेईल असं वाटत नाही. तो तसा समजदार आहे “

” मलाही तसंच वाटतं. रमेश चांगलाच आहे रे पण त्याची बायको जास्त शहाणी आहे. ती त्याला तसं करु देणार नाही “

सुरेखा वहिनी हुशार होती. उच्चशिक्षित होती हे मला माहित होतं पण आपल्या दिराची आर्थिक परिस्थिती तिलाही दिसत होती आणि अशीही तिच्या संसारात कोणत्याच गोष्टींची कमतरता नव्हती. त्यामुळे ती काही आडकाठी घेईल असं मला वाटत नव्हतं. अर्थात इस्टेटीचा प्रश्न आला की माणुसकी, रक्ताची नाती विसरली जातात, भाऊ भावाचा, मुलगा वडिलांचा खुन करायला मागेपुढे पहात नाही हे माझ्या वीस वर्षांच्या वकिली व्यवसायात मी अनेकदा अनुभवलं होतं.

” ठिक आहे काका. मी येतो. समोरासमोर बसुनच ठरवू. मात्र रमेशला सांगून ठेवा की सुरेखा वहिनीला सोबत आणू नकोस. भावांऐवजी जावांचीच भांडणं व्हायची ” मी हसत म्हणालो

” तसं काही होणार नाही पण ती भानगडच नको. मी रमेशला तसं सांगून पहातो. पण त्याचंही बायकोपुढे फारसं चालत नाही “

” तसं तर बहुतेक नवऱ्यांचं बायकोपुढे चालत नाही ” मी हसत म्हणालो ” पण ठिक आहे. सुरेखावहिनी आलीच तर मग काही इलाज नाही “

” खरंय. ठिक आहे. ये मग नक्की “

असं म्हणून काकांनी फोन बंद केला. माझ्या डोळ्यासमोर सुरेखावहिनी उभी राहिली आणि माझ्या लक्षात आलं की कुणी कितीही तिला नावं ठेवली तरी तिच्या हुशारीमुळेच रमेशची भरभराट झाली होती हे मात्र शंभर टक्के खरं होतं. ती महत्वाकांक्षी होती. रमेशला प्रमोशनच्या परीक्षा द्यायला लावून तिने हट्टाने त्याला अधिकारी बनवलं होतं. तिच्या तुलनेत रमेश अतिशय साधा होता. मी त्याला सरकारी नोकरीत लावलं नसतं तर तो आजही कुठल्यातरी दुकानात फालतू नोकरी करीत बसला असता. तसा तो मेहनती होता. मात्र स्वतःची प्रगती करुन घ्यायची हुशारी त्याच्यात नव्हती.

संध्याकाळी कोर्टातून घरी आलो. चहा घेऊन होत नाही तोच मोबाईल वाजला. स्क्रीनवर सुरेखावहिनीचं नांव वाचल्यावर माझ्या कपाळावर आठ्या पडल्या. आता ही बया काय म्हणते या विचारातच मी फोन उचलला

” भाऊजी मी सुरेखा बोलतेय. कामात तर नाही ना?नाहीतर नंतर फोन करते “

” नाही नाही. बोल ना “

” भाऊजी बापूंचा तुम्हांला फोन आला असेल. रविवारी तुम्हांला बोलावलं असेल. खरं ना? “

” हो बरोबर. का?काही अडचण?”

” नाही अडचण काही नाही. पण ते तुम्हांला हेच सांगतील की रमेशला काही कमी नाही तर घर आणि शेत योगेशला देऊन टाकूया “

मी सावध झालो. माझ्यातला वकील जागा झाला. ती माझं मत विचारणार होती आणि ते आताच उघड करणं चुकीचं झालं असतं

” तसं ते मला काही बोलले नाहीत. पण तसं ते पुढे बोलले तर मग तुझा विचार काय आहे ?”

“भाऊजी मी तुमचं मत विचारतेय. तुम्हांला काय वाटतं देऊन टाकावं सगळं योगेशभाऊजींना?”

मी आता काय बोललो त्याचा उल्लेख रविवारी होणाऱ्या चर्चेत नक्कीच झाला असता त्यामुळे मी माझं मत व्यक्त करणं चुकीचं होणार होतं.

” मला काय वाटतं यापेक्षा दोघा भावांना विशेषतः बापूकाकांना काय वाटतं ते महत्वाचं आहे वहिनी. कारण इस्टेट त्यांची आहे. रविवारच्या बैठकीत त्यावर चर्चा होईलच”

” भाऊजी मला मान्य आहे की आम्हांला कशाचीच कमतरता नाही. ह्यांची चांगली नोकरी आहे आणि माझा ब्युटीपार्लरचा व्यवसायही उत्तम सुरु आहे. पण मला सांगा लहानपणापासून आतापर्यंत बापूंनी ह्यांना काय दिलं?कोणतं बापाचं कर्तव्य त्यांनी पार पाडलं?माझ्यापेक्षा तुम्हीच हे जाणता की वयाच्या दहाव्या वर्षापासून हे काम करताहेत. त्याच्याही अगोदर पाच वर्ष हे त्यांच्या मामाकडेच शिकायला होते. म्हणजे जन्मल्यापासून फक्त पाच वर्ष बापूंनी ह्यांना सांभाळलं. ती पाच वर्षही अतिशय गरीबीची होती असं मला ऐकून माहित आहे. आज हे बेचाळीस वर्षाचे आहेत. या बेचाळीस वर्षात कधी बापूंनी ह्यांना नवीन कपडे केलेत?कधी ह्यांची मुलगा म्हणून हौसमौज पुर्ण केली?कधी ह्यांच्या शिक्षणावर खर्च केला?सांगा ना कोणतं बापाचं कर्तव्य त्यांनी पार पाडलं?उलट बापाने ह्यांना पोसायच्या ऐवजी ह्यांनीच आईबापांना पोसलं हे तर जगजाहीर आहे “

ती पोटतिडकीने बोलतेय आणि तिच्या बोलण्यात काही चुक नव्हती हे मला समजत होतं. पण काहितरी बोलावं म्हणून मी म्हणालो

” हो हे मान्य आहे मला वहिनी पण बापूकाकांची आर्थिक परीस्थितीच तशी होती. शेती अशी बिनभरवशाची. कधी दुष्काळ तरी कधी अतिवृष्टी तर कधी पिक जोमाने आलं तर शेतमालाला भाव नाही. चार एकर शेतीत कसं करावं माणसाने?ते स्वतःच कसंबसं पोट भरत होते. मुलांची हौसमौज त्यांनी करावी तरी कशी?ते नेहमीच आर्थिक विवंचनेत असत. माझ्या वडिलांनीही त्यांना बऱ्याचदा आर्थिक मदत केलीये”

” हो भाऊजी ते कळतंय मला. पण माझ्या नवऱ्याने काय नाही केलं त्यांच्यासाठी?जीवापाड कष्ट करुन शेतीला वेळोवेळी पैसा पुरवला. प्लाॅट घेऊन घर बांधायला मदत केली. योगेश भाऊजींचं शिक्षण केलं. दहा वर्षांपूर्वी आई वारल्या तेव्हा त्यांच्या अंत्यसंस्काराचा आणि धार्मिक विधींचाही खर्च ह्यांनीच केला. बापूंनी आणि योगेश भाऊजींनी एक रुपयाची मदत केली नाही. दोन वर्षांपूर्वी बापूंची एंजिओप्लास्टी झाली तेव्हाही तसंच. सगळा खर्च ह्यांनीच केला. तेव्हाही योगेश भाऊजींनी एक रुपयाची मदत केली नाही. या गोष्टींची तरी त्यांनी जाणीव ठेवायला हवी होती की नाही?योगेश भाऊजी कामाला लागले, शेतीत चांगलं उत्पन्न मिळू लागलं तेव्हा तर बापू काही करु शकले असते?मुलाला एखादं शर्टाचं पीस आणि सुनेला एखादी साधी साडी घेण्याचीही त्यांची ऐपत नव्हती?”

“म्हणजे आजपर्यंत त्यांनी कधीही तुम्हांला कपडे वगैरे घेतले नाहीत?तुम्हांला नसतील तर तुमच्या मुलांना तर केले असतील?”

ती आता रडायला लागली. रडतारडता म्हणाली

” भाऊजी एक छोटंसं खेळणं, एखादं चाँकलेटसुध्दा बापूंनी माझ्या मुलांना कधी घेऊन दिलं नाही. कधी विषय काढला तर म्हणतात, तुम्हांला काय कमी आहे. धो धो पैसा वाहतोय. पण मग आम्ही सतत देतच रहावं का?त्यांच्याकडून कधी अपेक्षाच करु नये का?दिवाळीला गांवी गेलं की आम्ही सगळ्यांना कपडे करतो. योगेश भाऊजींच्या मुलांसाठी खुप सारा खाऊ घेऊन जातो. फटाके घेऊन जातो. आणि ते आम्हांला काय देतात?दोन किलो मुगाची आणि तुरीची डाळ?योगेश भाऊजींना आणि त्यांच्या बायकोला कळत नसेल तर बापूंनी तर त्यांना सांगायला पाहिजे?”

ती म्हणत होती तो एकूण एक शब्द खरा होता. बापूकाकांचा स्वभाव तसाच होता. माझ्या वडिलांनीही त्यांना अनेकदा मदत केली होती पण कधीही त्यांनी माझ्या वडिलांना काही घेतलं नव्हतं. एवढंच काय आम्ही त्यांचे पुतणे असूनही कधी आमच्यासाठी खाऊ आणल्याचं ही मला आठवत नव्हतं. यावरुन घरात माझ्या आईवडिलांचेही बऱ्याचदा वाद झालेले मी बघितले होते. मला काय बोलावं ते सुचेना. क्षणभराने मी तिला विचारलं

” मग रमेश काय म्हणतो अशा वेळी?”

” ते काय म्हणणार?तुम्हांला तर माहितच आहे की ते हरीश्चंद्राचे अवतार आहेत. मी काही म्हंटलं की म्हणतात ‘जाऊ दे आपण मोठे आहोत, आपण आपलं कर्तव्य करत रहायचं. देवाच्या कृपेने आपल्याला कसलीच कमतरता नाही. ते गरीब आहेत. त्यांच्याकडून आपण कशाला अपेक्षा करायची?’ भाऊजी मला सांगा झोपडपट्टीत रहाणारेसुध्दा आपल्या कर्तव्याला चुकत नाहीत. आमच्या घरी काम करणारी बाई तिचा श्रीमंत भाऊ तिच्याकडे आला तर त्याला आणि त्याच्या बायकोला कपडे केल्याशिवाय सोडत नाही. मग बापू आणि योगेश भाऊजी एवढे भिकारी तर नाहीत ना?”

सुरेखा वहिनीचा दुखरा कोपरा माझ्या आता लक्षात आला होता. बापूकाका, योगेश आणि त्याची बायको रमेशच्या कुटुंबाला किंमत देत नव्हते आणि हीच गोष्ट सुरेखा वहिनीच्या जिव्हारी लागली होती. अर्थात कायद्याच्या भाषेत आणि संपत्तीचे वाटेहिस्से करतांना या वैयक्तिक भावनांना काही स्थान नव्हतं.

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – २७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – २७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

अण्णा

कितीतरी वर्षं “आण्णा गद्रे” आमचे भाडेकरू होते. गल्लीतले सगळेजण त्यांना अण्णाच म्हणायचे. त्यांचे प्रथम नाव काय होतं कोण जाणे! त्यांची मुलंही त्यांना आण्णा म्हणायचे म्हणून सगळ्यांचेच ते आण्णा होते. त्यांचा संसार याच घरात फुलला असे म्हणायला काही हरकत नाही. तीन मुली आणि एक मुलगा. एका पाठोपाठ एक मुलीच झाल्या म्हणून आण्णा आणि वहिनी फारच निराश असत. पण तीन मुलींवर नवस सायास करून त्यांंना एक मुलगा झाला आणि आण्णांचा वंश तरला. वहिनी म्हणजे अण्णांची पत्नी. अण्णांचे एक भाऊ आमच्याच गल्लीत राहायचे. ते “वहिनी” म्हणून हाक मारायचे म्हणून त्याही समस्त गल्लीच्या वहिनीच.

कोकणातून आलेलं हे दाम्पत्य. ब्राह्मण वर्णीय. जातीय श्रेष्ठत्वाची भावना पक्की मुरलेली. दोघांच्याही स्वभावात चढ-उतार होते. चांगलेही वाईटही पण धोबी गल्लीवासीयांनी सगळ्यांना सामावून घेतलेलं. नाती बनायची नाती बिघडायची पण नाती कधी तुटली नाहीत. आमच्या कुटुंबाचा आण्णा- वहिनींशी सलोखा नसला तरी वैर नक्कीच नव्हतं. म्हणजे मालक भाडेकरू मधल्या सर्वसाधारण कुरबुरी चालायच्याच पण प्रश्न आपापसात सामंजस्याने सोडवले ही जायचे. शिवाय त्यांच्या विजू, लता, रेखा या मुली तर आमच्या सवंगडी समूहात होत्याच.

अण्णा शिस्तप्रिय होते म्हणण्यापेक्षा तापट आणि हेकेखोर होते. कुटुंब प्रमुखाचा वर्चस्वपणा त्यांच्या अंगा अंगात भिनलेला होता त्यामुळे विजू लता रेखा या सदैव धाकात असत.

अगदी उनाड नव्हतो आम्ही… पण मनात येईल तेव्हा, केव्हाही, कुठल्याही खेळासाठी आम्ही एकत्र जमायचो. खेळणं भारी प्रिय. खेळतानाचा आरडाओरडा, गोंधळ, हल्लाबोल मुक्तपणे चालायचा, गल्लीत घुमायचा. अण्णा घरात आहेत म्हणून विजू लता रेखा उंबरठ्यातूनच आमची खेळ मस्ती बघायच्या. त्यांचे खट्टू झालेले चेहरे मला आजही आठवतात. बाहेर आमचा खेळ चालायचा आणि या उंबरठ्यावर बसून गृहपाठ पूर्ण करायच्या नव्हे गृहपाठ पूर्ण करण्याचा प्रयत्न करायच्या. का तर? अण्णा ओरडतील म्हणून. त्यांच्या घरात मुलांना सरळ करण्यासाठी वेताची छडी होती म्हणे! 

एक दिवस आण्णा आमच्या पप्पांना म्हणाले होते, ” का हो ढगेसाहेब? मी ब्राह्मण ना मग ही सरस्वती तुम्हाला का म्हणून प्रसन्न?”

तेव्हा पप्पा उत्तरले होते, ” अण्णा ती वेताची छडी बंबात टाका मग बघा काय फरक पडतो ते. ”

अण्णांचं कुटुंब विस्तारलं. मुलं मोठी झाली आता त्यांना हे भाड्याचं घर पुरेनासं झालं. आण्णांचे जोडधंदे ही चांगले तेजीत होते. त्यांची वखार होती. आणि त्या माध्यमातून त्यांनी भरपूर पैसा जोडला होता. वृत्ती कंजूष आणि संग्रही त्यामुळे गंगाजळी भरपूर. आण्णांनी धोबी गल्ली पासून काही अंतरावर असलेल्या चरई या भागात प्लॉट घेऊन चांगलं दुमजली घर बांधलं. घराची वास्तुशांती केली आणि एक दिवस गद्रे कुटुंबाने धोबी गल्लीचा निरोप घेतला. मात्र त्यांनी आमच्या घराचा ताबा मात्र सोडला नाही.

काही दिवस जाऊ दिले. त्या दरम्यान आण्णा रोज त्यांच्या या जुन्या घरी येत. झाडलोट करत, पाणी भरून ठेवत. बऱ्याच वेळा दुपारच्या वामकुक्षीच्या निमित्ताने ते येतही असत. वखारीच्या हिशोबाच्या वह्या वगैरे तपासत बसत आणि फारसं कुणाशी न बोलता गुपचूपच पुन्हा कडी कुलूप लावून निघून जात. भाडं मात्र नियमित देत.

जीजी (माझी आजी) मात्र फार हैराण झाली होती. ती बऱ्याच वेळा आण्णांना गाठून शक्य तितक्या उंच आवाजात सांगायची, ” आमच्या घराचा ताबा सोडा. आणि व्यवहार मिटवून टाका. बांधलंत ना आता मोठं घर? जरूर काय तुम्हाला हे घर ताब्यात ठेवायचे आणि माझ्या जनाच्याही मुली आता मोठ्या झाल्यात. आम्हालाही आता घर पुरत नाही. अण्णा नुसतंच हसायचे. निर्णयाचं काहीच बोलायचं नाही.

“सोडतो ना आजी. एवढी काय घाई आहे तुम्हाला ?”

त्यावेळी भाडेकरूंचे कायदे अजबच होते. आपलं स्वतःचं घर असूनही भाडेकरूनकडून ते रिकामं करून घेणे हे अत्यंत तापदायक काम होतं. कायदा हा भाडेकरूधार्जिणा होता. असे म्हणायला हरकत नाही. आतासारखे मालक आणि टेनंट मध्ये ११ महिन्याचा करार, कायदेशीर रजिस्ट्रेशन, इच्छा असेल तर कराराचे नूतनीकरण वगैरे मालकांसाठी असलेले संरक्षक कायदे तेव्हा नव्हते. शिवाय भाडोत्री जर अनेक वर्षं तिथे राहत असेल तर ती जागा त्याच्या मालकीची होऊ शकते अशी एक भीती कायद्याअंतर्गत होती पण पप्पांच्या वकील मित्रांनी त्यांना चांगला सल्ला दिला होता.

“हे बघ! त्या गद्र्यांनी घर बांधले आहे. आता त्यांच्या मालकीची स्वतःची जागा आहे. शिवाय तुझी गरज आणि तुझे घर ही दोन कारणे तुला न्याय मिळवून देण्यासाठी पुरेशी आहेत. तुझी बाजू सत्याची आहे. आपण गद्रेंवर केस करूया, तशी नोटीस त्याला पाठवूया”

“शहाण्याने कोर्टाची पायरी चढू नये. ” असा काळ होता तो! पण आमच्या कुटुंबाचा नाईलाज होता.

तर ही कायद्याची लढाई लढायला हवी. साम दाम दंड भेद या तत्त्वातील ही शेवटची पायरी होती. भेद.

घर रिकामं करायची नोटीस आण्णांना गेली. गरम कढईत उडणाऱ्या चण्यासारखे अण्णा टणटण उडले त्यांनी नोटीसीला गरमागरम उत्तर दिले.

“नोटीस देता काय ?एवढ्या वर्षांचे आपले संबंध? थांबाच आता.. बघतोच घर कसे काय खाली करतो ते!” पप्पा कधीच कचखाऊ नव्हते. डगमगणारे तर मुळीच नव्हते.

केस कोर्टात उभी राहिली. आता नातं बदललं. आरोपी आणि फिर्यादीचे नाते निर्माण झाले. आमचं कुटुंब तसं लहानच. माणूसबळ कमी. स्वतःच्या व्यवसायाचा ताप सांभाळून कोर्टाच्या तारखा पाळताना पप्पांची एकट्यांची खूप दमछाक व्हायची.

केस खूप दिवस, खूप महिने चालली. तारखावर तारखा पडायच्या. निकाल लागतच नव्हता. हळूहळू अण्णांना आणि पप्पांनाही कोर्टाच्या वातावरणाची सवय झाली असेल. शिवाय पप्पा म्हणजे माणसं जोडणारे. नावाचा पुकारा होईपर्यंत कोर्टात नियमितपणे येणारी माणसं पप्पांची दोस्त मंडळीत झाली जणू काही. विविध लोकांच्या विविध समस्या पण पप्पा गमती, विनोद सांगायचे. त्यांच्या उपस्थितीत वातावरण हलकं व्हायचं आणि आश्चर्य म्हणजे या समूहात आण्णाही आनंदाने सामील असायचे. न्यायपीठापुढे आरोपी आणि फिर्यादी आणि बाहेर फक्त वक्ता आणि श्रोता. कधीकधी तर कोर्टाच्या बाहेर अण्णा आणि पप्पांच्या गप्पाच चालायच्या. खूप वेळा आण्णा माथ्यावरची शेंडी गुंडाळत, टकलावरून हात फिरवत. डोळ्यात पाणी आणून त्यांच्या कौटुंबिक समस्या सांगत आणि पप्पा त्यांच्या पद्धतीने त्यांचे सांत्वनही करत.

घरी आल्यानंतर आम्ही सारे पप्पांभोवती कडे करायचो. “केस चे काय झाले? निकाल लागला का? कुणाच्या बाजूने लागला ?वगैरे आमचे प्रश्नांवर प्रश्न असायचे आणि पप्पा म्हणायचे, ” हे बघा अण्णांनी डबा भरून खरवस आणला होता. मी खाल्लाय तुम्ही खा. मस्त झालाय खरवस.. ”

याला काय म्हणायचे ?

आज हे लिहिताना माझ्या मनात सहजच आलं. अण्णांनी दिलेला खरवस पप्पांनी कशाला खावा? अण्णांनी त्यांच्यावर विषप्रयोग वगैरे केला असता तर? टीव्हीवरच्या माणूसकी शून्य मालिका बघून झालेली ही मानसिकता असेल पण त्या वेळचा काळ इतका वाईट नक्कीच नव्हता. माणूस काणूस नव्हता झाला.

यथावकाश केसचा निकाल लागला. पपा केस जिंकले, अण्णा हरले. कोर्टाच्या आदेशानुसार अण्णांना तात्काळ घर रिकामे करून द्यावे लागणार होते.

दुसर्‍याच दिवशी आण्णा घराची चावी द्यायला आले. थोडा वेळ आमच्यात बसले. गप्पा -गोष्टी, चहा -पाणी झाले. पपानीही नवे कुलूप आणले होते. दोघेही खाली गेले. आम्ही खिडकीतूनच पाहत होतो. गल्लीतले सर्व आपापल्या गॅलरीतून पाहत होते. बाबा मुल्हेरकर मात्र खाली आले होते. दोघांच्याही सोबत ते उभे होते. आण्णांनी त्यांचे कुलूप काढले आणि पप्पांनी आपले लावले. विषय संपला. कोणीच कोणाचे वैरी नव्हते. “केस” संपली होती. मैत्र उरले होते.

आण्णा दोन पावले चालून गेले आणि माघारी फिरले. आम्हाला वाटले, ” आता काय?”

अण्णांनी घराच्या दोन पायऱ्या चढून दाराला पप्पांनी लावलेले कुलूप ओढून पाहिले. नीट लावले होते आणि त्यांच्या डोळ्यातून पाण्याच्या धारा वाहू लागल्या. त्याच्या खांद्यावर पपांनी हात ठेवला. तेव्हा ते म्हणाले, ” ढगे साहेब! या वास्तूचं खूप देणं लागतो मी. इथेच माझा संसार बहरला. आयुष्य फुललं. तुमच्यासारखी जीवाला जीव देणारी माणसं भेटली. माझा कुलदीपक इथेच जन्मला. या वास्तूचा निरोप घेताना माझं मन खूप जड झाले आहे हो ! पाऊल उचलत नाहीय. ”

हिरव्यागार डोळ्यांचा, डोक्यावर टक्कल असलेला, बोलण्यात अस्सल कोकणी तुसडेपणा असलेल्या या तापट, हेकट माणसाच्या अंतःप्रवाहात हा भावनेचा झरा कुठून उत्पन्न झाला असेल?

“याला उत्तर आहे का?”

“नाही” 

याला फक्त जीवन ऐसे नाव… 

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ हळद कुंकू लावून ओटी भरणारं उस्तादांचं घर…  लेखक : श्री दीपक प्रभावळकर ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ हळद कुंकू लावून ओटी भरणारं उस्तादांचं घर…  लेखक : श्री दीपक प्रभावळकर ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर

आता कलेला धर्मचौकटीत बांधणार काय?

उस्ताद झाकीर हुसेन गेले. त्यांना अनेकदा प्रत्यक्ष ऐकले, पण प्रत्यक्षात कधी भेटू शकलो नाही. अगदी कौटुंबिक जिव्हाळा आणि नाते असूनही !

कहाणीची सुरुवात होते, माझा मावसभाऊ संजूदादापासून. संजूदादाला लहानपणापासूनच तबल्याची नितांत आवड, सांगलीचा संजूदादा मिरजेच्या भानुदास बुवा गुरव यांच्याकडे तबला शिकत होता. तो साधारण 16 वर्षाचा असताना बुवांना देवाज्ञा झाली. आता संजूच्या तबल्याचे काय होणार, याची काळजी लागली. त्याचवेळी कोल्हापुरात झाकीरभाईंचा कार्यक्रम होता. आमची आत्या सुनंदा म्हणजे आमची ताईआत्या आणि संजूची थोरली बहीण सुहासिनी उर्फ आमच्या गोट्याताई हे संजूला घेऊन झाकीरभाईंना ऐकावायला गेले. सारं सभागृहत मंत्रमुग्ध झालं असलं तरी झाकीरभाइं&च्या बोटावर संजूदादाच्या काळजाचे ठोके नाचत होते. भाईंना ऐकून झालं. सारेच सांगलीला परतले.

इथं सुरु झाला प्रवास

तीनच दिवसात झाकीरभाई सांगलीत येणार होते. भाईंना ऐकून झालं होतं. आता त्यांच्याशी बोलायचं हे साऱ्या कुटुंबाने ठरवले आणि तुफान गर्दीत ते घडलेही. संजूदादाची ओळख करून दिली. जवाहिऱ्याला हिऱ्याची परख असते. चार मिनिटाच्या ओळखीत झाकीरभाइंनी तू मुंबईला ये आणि आब्बाजींकडे म्हणजे पंडित उस्ताद अल्लारखाँ यांच्याकडे शिक.

कला पूजा पूर्णत्वास आली…. दिवाळीत घरापुढे किल्ला करणाऱ्या पोराला अचानक हिमालयाच्या गिर्यारोहणाचे निमंत्रण मिळाल्यासारखंच होते.

अब्बाजी तुसी धन्य हो

संजूदादा आत्या आणि गोट्याताई मुंबईत घर शोधत शोधत भाईंच्या घरी पोहोचले. आता प्रश्न होता, संजूच्या मुंबईत राहण्याचा, ते आर्थिकदृष्ट्या अवघड होते. आब्बांनी एका वाक्यात तो सोडवला. अल्लारख्खांनी आपल्या आपर्टमेंटच्या पार्किंगच्या जागेत एक खोली बांधून संजूदादाच्या राहण्याची व्यवस्था केली. आणखीही तीन विद्यार्थी नव्हे नव्हे शिष्य तिथेच राहत होते.

झालं, संजूदादाचा तबला पुन्हा सुरू झाला. तुमचं काम, लगान गुरूकडे तुम्हाला घेऊन जाते, ते झालं. गुरूमंडळात आब्बाजींसाठी आणि झाकीरभाईंसाठी संजू आवडता झाला. झाकीरभाई अनेकादा दौऱ्यावर असत. झाकीरभाईंना आणखी दोन भाऊ आहेतच फजल आणि तोफीक तरी घरच्या अनेक जबाबदाऱ्या संजूवर आल्या होत्या. संजूदादा हा पंडीत उस्ताद अल्लारख्खाँ उर्फ आब्बाजींचा चौथा मुलगा होता. आब्बाजींचे पथ्य पाणी पाहणे, आम्माजी यांना हाताला धरून फिरवून आणणे हे संजूने स्वत:च सुरू केले. हे त्याला कुणी सांगितले नव्हते. घरच्या जबाबदाऱ्या कोणी दिल्या नव्हत्या, त्यान स्वत: घेतल्या होत्या.

संजूचे तबलाज्ञान हे सुद्धा इतकं वाढलं होतं की, मैफिलीला आब्बाजी त्याला सोबत घेऊन जात. आब्बाजींसोबत संगत करण्याचं अहोभाग्य संजूदादाला लहान वयातच लाभलं. अनेक मैफिलींना आब्बाजी संजूला एकटे पाठवत.

संजूचा तबला बघून झाकीरभाईंनी त्यांच्याच घरी शास्त्रोक्त पद्धतीने संजूचं ‘गंडाबंधन’ केले.

ब्राह्मणाची माऊली संजू घरी आनंदी

सांगलीच्या माझ्या आत्याला पोराची आठवण यायची. त्याकाळी सांगलीहून मुंबईला जायचे, लेकाला भेटायचे, पण रहायचे कुठे? हा प्रश्न असायचा. आत्या एकदा मुंबईला गेलीच, गॅरेजमध्ये लेकाला भेटल्यानंतर आम्माजींनी त्यांना वर बोलावून घरी राहायला सांगितले. आत्या झाकीर हुसेन यांच्या घरी एक दिवस नाहीतर चार दिवस राहून सांगलीला परतली. पुढे हा शिरस्ताच सुरू झाला. आत्या आठ आठ दिवस झाकीरभाईंच्या घरात राहायची.

संजूदादा झाकीरभाईंच्या घरातला अविभाज्य घटक होता. बाह्मणा घरचं पोरं मुसलमानाच्या घरात नांदत होतं. ठसठशीत पुंकू लावणारी आत्या आम्मीजींची अनेकदा सावली बनून राहत. गोट्याताई सुद्धा अनेकदा झाकीरभाईंच्या बहिणीसारखी त्यांच्या घरी राहत.

आम्हा घरी नाही धर्म आम्ही एकाची लेकरे

पुढे गोट्याताईचं लग्न झालं. भाऊजी सुनील आणि गोट्याताई गुजरातला निघाले होते. वाटेत संजूला भेटून जाऊन असं ठरवून ते संजूला भेटायला गेले. नेमके त्यादिवशी झाकीरभाई, आब्बाजी हे सारेच घरी होते. ताई-भाऊजी दोघांचा मुक्काम झाला. दुसऱ्या दिवशी सकाळी निघण्याची गडबड असताना आम्माजींनी ताईला थांबवलं. पाटावर बसवलं आणि हळद कुंकू, अक्षदा (कुंकूमिश्रीत तांदूळ) लावून खणानारळानं तिची ओटी भरली. लेक जावायांनी साऱ्यांच्या पाया पडून ‘अष्टपूत्र सौभाग्यवती भव’ हे आशीर्वाद घेतले.

मी ढगाळ फाडतोय, मला ताकद द्या

ताई, भाऊजी गुजरातला पोहोचले, इकडं संजूदादाचं तबला करिअर बहरत होतं. दुर्देवाने संजूदादाला जाऊन काही वर्षे झालीत.

काल भाई पण गेले.. ,

अस्वस्थपणे हा सारा घटनाक्रम पाहताना रक्ताचे अश्रू वाहत होत. धर्मांधतेचे किटण चढलेले आपण जीणं जगतोय, कुठूनं आलं हे सगळं मळभ.

हिंदुस्थानावर कोसळू पाहत असलेला धर्मांधतेचा ढग माझ्या इवलाश्या हाताने काढण्याचा प्रयत्न करतोय. माझी ताकद कमी पडतेय, का कोणाच्या लक्षात येत नाही की आज आपण रंग, प्राणी सुद्धा धर्मामध्ये वाटले आहेत. कला सुद्धा रंगामध्ये बांधण्याचे प्रयत्न होत आहेत.

मुसलमानाच्या घरात बाह्मणाचा पोरगा जणू श्रीकृष्णाप्रमाणे वाढला. आणि मुस्लीम घरामध्ये हळद कुंकू, अक्षदा आणि नारळही असायचा. या साऱ्या घटनेचा परीसस्पर्श होऊन सुद्धा होऊनही मी सोनं का झालो नाही किंवा या विलक्षण घटनेचं परीस घेऊन समाजात मी सोनं का घडवू शकत नाही.

धर्मांमध्ये विभागणी करणाऱ्या लोकांच्या हातात कला लागू नये, आणि जे क्षेत्रे हाती लागली आहेत, त्यांना बाजूला करण्याचे बळ झाकीरभाईंच्या आत्म्याने द्यावे, हीच तुमच्या आमच्या ईश्वर आणि अल्लाकडे मागणी.

लेखक : श्री दीपक प्रभावळकर 

 – 9325403232 / 9527403232

प्रस्तुती : अमोल केळकर 

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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