English Literature – Poetry ☆ Eternal Quest ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem Eternal Quest We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

? ~ Eternal Quest~ ?

Amidst fate’s mysterious designs,       destiny unfolded our cryptic hand,

Our  paths  got  vilified  savagely,

like a hapless tempest-torn land…

 *

Though treaded with caution, yet

succumbed to life’s turbulent might,

Endured heartaches that shattered our      

essence, hurling us into dark night…

 *

World whispers that  we’ve changed

that may be a reckoning certainty,

Our hearts bore the indelible scars,

forging us in the fire of adversity…

 *

The fateful journey’s fierce clasp

kept quagmiring our dear soul,

That left us in quest of spirit to

mend our hearts new and whole..!

~Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #38 – गीत – टूट गए अनुबंध सभी हैं… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतटूट गए अनुबंध सभी हैं

? रचना संसार # 38 – गीत – टूट गए अनुबंध सभी हैं…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

तन खंडित मन खंडित अब तो,

चले आँधियाँ दीप बुझाएँ,

पीड़ा अंतस् की है भारी,

कैसे अब मन को समझाएँ।।

छलक रहे नैनों से सागर,

नही मिला अपनों का संबल।

गहन तिमिर,उजियार नही है,

घोर उदासी के हैं बादल।।

अपने सभी पराए लगते,

व्यथा कथा हम किसे सुनाएँ।

 *

टूट गए अनुबंध सभी हैं,

नियति चक्र से जीवन हारे।

अभिशापित है मदिर-प्रीति भी,

भटक रहे बन के बंजारे।।

तूफानों में फँसी नाव है,

अनुगामी बस हैं विपदाएँ।

संत्रासों में जीवन बीते,

नही हाथ में सुख की रेखा।

चलते हम हैं अंगारों पर,

कैसा विधि का है प्रभु लेखा।।

मरुथल-सा जीवन है सारा,

धूमिल होती सब आशाएँ।

 *

घोर निराशा है जीवन में,

प्यासा पनघट सूखी डाली।

जाल बिछा है आघातों का,

पड़ी ग्रहण की छाया काली।।

बोझिल होते स्वर सरगम के,

मिली धूल में अभिलाषाएँ।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “…तो मुश्किल होगी।)

?अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम आम लोगों की मुश्किलें कुछ अलग किस्म की होती हैं, मसलन कभी जेठ की भरी दोपहर में लाइट चली जाए अथवा कड़ाके की ठंड में गीज़र खराब हो जाए। लेकिन शायर कुछ अलग किस्म की मिट्टी के बने होते हैं और उनकी मुश्किलों की तो बस पूछिए ही मत।

कौन किससे प्यार करे, यह उसका जाती मामला होता है, दुनिया इसे चाहत का खेल कहती है। हमारे साहिर साहब तो वैसे भी बड़े दिल वाले हैं, उनको क्या फ़र्क पड़ता है क्योंकि उनका तो पहला प्यार ही शायरी है।।

वे कितनी आसानी और दरियादिली से कह जाते हैं ;

तुम अगर मुझको ना चाहो

तो कोई बात नहीं ..

यह कोई छोटी बात नहीं। यह बतलाता है कि वे भी सामने वाले की पसंद नापसंद की कद्र करते हैं, ठीक है ;

तुम मगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं

मेरी बात और है

मैंने तो मोहब्बत की है ..

लेकिन नहीं, यहां हमारे साहिर साहब एकदम पलटी मार देते हैं। वे एकदम कह उठते हैं ;

तुम किसी और को चाहोगी

तो मुश्किल होगी …

अब क्या मुश्किल होगी, कौन सी आफत आ पड़ेगी अथवा कौन सा पहाड़ टूट जाएगा।अरे भाई साफ साफ क्यों नहीं कहते, दिल टूट जाएगा, मैं बर्बाद हो जाऊंगा। लेकिन नहीं, यहां भी शराफत ओढ़, कह दिया, तो मुश्किल होगी।।

बात यहां खत्म नहीं होती, यहां से तो शुरू होती है। आप फरमाते हैं ;

अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं

बात तोड़ी भी नहीं तुमने बनाई भी नहीं

ये सहारा भी बहुत है मेरे जीने के लिये

तुम अगर मेरी नहीं हो तो पराई भी नहीं

मेरे दिल को न सराहो तो कोई बात नहीं

गैर के दिल को सराहोगी, तो मुश्किल होगी ..

तुम हसीं हो, तुम्हें सब प्यार ही करते होंगे

मैं तो मरता हूँ तो क्या और भी मरते होंगे

सब की आँखों में इसी शौक़ का तूफ़ां होगा

सब के सीने में यही दर्द उभरते होंगे

मेरे ग़म में न कराहो तो कोई बात नहीं

और के ग़म में कराहोगी तो मुश्किल होगी ..

इतना ही नहीं, जरा आगे देखिए ;

फूल की तरह हँसो, सब की निगाहों में रहो

अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो

मुझको वो दिन न दिखाना तुम्हें अपनी ही क़सम

मैं तरसता रहूँ तुम गैर की बाहों में रहो

तुम अगर मुझसे न निभाओ तो कोई बात नहीं

किसी दुश्मन से निभाओगी तो मुश्किल होगी ..

हर इंसान में एक पजेसिव इंस्टिंक्ट होती है। जो मेरा नहीं हो सका, वह किसी का भी ना हो। आम आदमी पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ सकता है, वह देवदास भी बन सकता है। लेकिन जो लोग संजीदा होते हैं, वे ही कवि अथवा शायर बन पाते हैं।

साहिर भले ही एक कामयाब शायर हों, लेकिन अमृता की तरह खुलकर उन्होंने कभी अपने प्यार अथवा दर्द का इज़हार नहीं किया। आप कह सकते हैं, यही तो फर्क है, एक पुरुष और नारी में। कहीं भावुकता और समर्पण है तो कहीं ग़मों से समझौता करने का गुर अथवा दिल पर पत्थर रख लेने की मजबूरी। शायद यही फर्क है साहिर – अमृता और सुरैया – देवानंद में।

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #265 ☆ वतन के गीत ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना वतन के गीत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 265 – साहित्य निकुंज ☆

☆ वतन के गीत ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(मुक्तक गीत)

जो तिरंगे की छांव को पाता गया

देश सेवा के रंग में रंगता गया।

वह लहू बनके बहता रहा प्यार में

मातृभूमि की मिट्टी में रमता  गया।

*

जिसकी सांसों में वीरता बसती रही  

हौसले की मशालें  जलाता गया

उसकी गाथा के गीत समय सुन रहा

वो वतन के लिए  मुस्कुराता गया।

*

जो तिरंगे के चरणों में लिपटा रहा

उसका जीवन सुधरता चला ही गया

मातृभूमि की मिटटी से रिश्ता अमर

देश सेवा का दीपक जलाता गया .

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #247 ☆ संतोष के दोहे… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 247 ☆

☆ संतोष के दोहे… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

चली किसी की ना यहां, जैसे रावण कंस

कर सकते ना दुष्ट कुछ, सदा यहाँ विध्वंस

*

यौवन का मत कीजिए, खुद से कभी गुमान

दो दिन का यह है अतिथि, समझो यह नादान

*

राह न सच की छोड़िए, गांठ बांध लो यार

झूठ लुभाता है सदा, पर देता अपकार

*

राष्ट्र धर्म सर्वोच्च है, सदा रखें हम याद

स्वारथ में जो भूलते, वो होते अपवाद

*

चलती खूब सिफारिशें, पाने को सम्मान

लेन – देन भी चल पड़ा, करते ऊंची शान

*

परिभाषा सुख की यहाँ, अलग अलग है मीत

सबकी अपनी चाहतें, सबके अपने गीत

*

मरती नित संवेदना, कौन यहाँ हमदर्द

भाव शून्य अब आदमी, ऐसे हैं अब मर्द

*

बाहर छलके प्रेम पर, अंतस में कुछ और

बहुरुपिया है आदमी, है यह ऐसा दौर

*

जब तक रहती पेट में, हर लेती है ज्ञान

मुखड़ा फीका सा करे, भूख बड़ी शैतान

*

पर धन की चाहत बुरी, रहिए इससे दूर

अच्छा है संतोष धन, पर धन है नासूर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 240 ☆ आद्य पत्रकार..! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 240 – विजय साहित्य ?

☆ आद्य पत्रकार..! ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

बाळशास्त्री जांभेकर,

आद्य पत्रकार थोर .

वृत्तपत्र दर्पणाने ,

जगी धरलासे जोर…! १

*

सहा जानेवारी रोजी ,

वृत्तपत्र प्रकाशीत .

शोभे पत्रकार दिन ,

ख्याती राहे अबाधीत…!२

*

शास्त्र आणि गणितात ,

प्राप्त केले उच्च ज्ञान .

भाषा अकरा शिकोनी ,

केले बहू ज्ञानदान….!३

*

छंद शास्त्र , नीतीशास्त्र ,

व्याकरण, इतिहास .

पाठ्य पुस्तके लिहोनी ,

ज्ञानमयी दिला ध्यास…!४

*

पुरोगामी विचारांनी ,

केले देश संघटन .

विज्ञानाचे अलंकार ,

अंधश्रद्धा उच्चाटन…!५

*

स्थापियले ग्रंथालय ,

ज्ञानेश्वरी मुद्रांकीत  .

शोध निबंध जनक ,

नितीकथा शब्दांकित ..!६

*

दिले ज्ञान वैज्ञानिक ,

केले कार्य सामाजिक .

पुनर्विवाहाचे ध्येय,

ज्ञानदान अलौकिक..! ७

*

भाषा आणि विज्ञानाचा ,

केला प्रचार प्रसार .

दिली समाजाला दिशा ,

तत्वनिष्ठ अंगीकार….!८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “खिचड़ी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “खिचडी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

आयुष्याची खिचडी काळाचा अग्नी

शरीराचे पातेले मनाचे पाणी

तांदूळ प्रयत्नांचे हळद संस्कारांची

मीठ भावनांचे अन डाळ नशिबाची …

*

डाळ शिजायला लागतो सर्वात जास्त वेळ

म्हणून खिचडी करायची कोण सोडत नाही

तांदूळ शिजतात लगेच म्हणून

मीठा शिवाय नुसते कुणी खात नाही…

*

कधी झालेच मीठ जास्त

तर होते मनाचे पाणी पाणी

अजून पाणी ओतल्या शिवाय

खिचडीचे खरे नाही …

*

चवीला थोडीफार उन्निसबीस

कशीतरी जाते खपून

पण हळदी शिवायच्या खिचडीला

कोणी खात नाही चापून ….

*

थोड्या थोड्या वेळाने कायम

ढवळावी लागते खिचडी

राहिली स्थिर तर करपेल कारण

कालाग्नी कुणाचा गुलाम नाही …

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “संघर्ष…” ☆ श्री जगदीश काबरे ☆

श्री जगदीश काबरे

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “संघर्ष – –” ☆ श्री जगदीश काबरे

हा फोटो एका टोमॅटोच्या झाडाचा आहे. कदाचित एखाद्या प्रवासी यात्रेकरूने टोमॅटोचे बी धावत्या रेल्वेतून फेकली असेल. हे झाड मातीशिवाय, काळ्या पाषाणात रुजले आणि वाढले. लहान असताना शताब्दी किंवा राजधानी एक्सप्रेससारख्या जलद गाड्या याच्या अगदी जवळून जात असतील, कर्कश आवाज याला हादरवत असतील. अस्तित्व संपण्याची भिती होती, पण झाडाने संघर्ष करत स्वतःला जिवंत ठेवले.

ना पाणी, ना खत, ना माती, ना संगोपन… असल्या प्रतिकूल परिस्थितीतही या झाडाने फळ धरले. त्याचा उद्देश एकच होता, वंश सातत्य टिकवणे. या संघर्षात झाडाने तो उद्देश पूर्ण केला.

समाजात बऱ्याच जणांना वाटते की, आपण अपयशी ठरलो, आपले जीवन निरर्थक झाले. परंतु त्यांनी या टोमॅटोच्या झाडापासून शिकायला हवे. परिस्थिती कितीही कठीण असो, संघर्ष करत राहणे आणि ध्येय गाठणे हेच जीवनाचे खरे यश आहे.

म्हणून साथींनो, परिस्थिती प्रतिकूल असली तरी निराश होऊ नका, संघर्ष करा. कारण यश तुमचे उद्दिष्ट पूर्ण करण्यासाठी तुमची वाट पाहत आहे. जिद्द, चिकाटी आणि विश्वास, हाच असतो माणसाचा यशाकडे जाण्याचा प्रवास. 

© श्री जगदीश काबरे

मो ९९२०१९७६८०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – ९. पशू पक्षी यांचा आदर करावा ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – ९. पशू पक्षी यांचा आदर करावा ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

आपण ज्या पृथ्वीवर रहातो तेथे मानव एकटाच नसतो. पृथ्वीवर जी जीवसृष्टी आहे त्यातील माणूस हा एक प्राणी आहे. माणूस बुध्दीने सर्वश्रेष्ठ असल्याने सर्वांच्या वरचढ ठरला आहे. तसे पाहिले तर इतर प्राण्यांच्या कडे जे आहे त्यातील काहीच माणसाकडे नाही. पण आपल्या बुद्धीच्या बळावर तो सर्वांना ताब्यात ठेवू शकतो. प्राण्यांच्या ठायी असलेल्या शक्ती मशिन द्वारे प्राप्त करतो. खरे तर सर्व पशू पक्षी निसर्गात महत्वाचे असतात. ते निसर्गाचा समतोल राखतात. त्यांच्या मुळे निसर्गाचे संवर्धन होते. या मुळे आपले जीवन समृध्द होते. निसर्गाचे चक्र अव्याहत चालू रहायचे असेल तर हे पशू, पक्षी, कीटक, वृक्ष, नद्या, डोंगर आवश्यक आहेत. परंतू हे लक्षात न घेता माणसाने आपल्या बुद्धीचा स्वार्थी व बेबंद वापर केला तर माणसाचीच सर्वात जास्त हानी होणार आहे. ज्या जीवसृष्टीच्या आधारे माणूस सुखात जगत असतो, ज्यांच्या आधाराने जगत असतो त्यांचे आपण ऋणी असले पाहिजे. ही साधी माणुसकी आहे.

या विषयी भारतीय संस्कृतीने उच्च आदर्श जपला आहे. श्राद्ध या कृतज्ञता विधीमध्ये धर्मपिंड दिले जाते. ते सर्व पशू, पक्षी, वृक्ष, नद्या, पर्वत ज्या सर्वांनी आपल्याला पोसले त्या सर्वांना हे धर्मपिंड असते.

कोणीही कितीही श्रेष्ठ असेल, बुद्धिवादी असेल तरी कोणालाही क्षुद्र म्हणून हिणवू नये, निंदा करू नये, लाथाडू नये. या निसर्गा पुढे नम्र व्हावे. आणि सर्वांच्या कल्याणासाठी प्रार्थना करावी.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक, संगितोपचारक.

९/११/२०२४

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “स्मरणाचं गच्च जावळ…” – भाग – १ ☆ श्री संजय जगन्नाथ पाटील ☆

श्री संजय जगन्नाथ पाटील 

“स्मरणाचं गच्च जावळ… – भाग – १ ☆ श्री संजय जगन्नाथ पाटील 

“धनगरी मेंढराच्या कातडीनं दर्पाळून मुलुखभर पसरलेली धुंदावली कुत्री, एकटाक गोळा व्हावीत अन् मेंढराच्या मागं मेंढरं बनून जावीत अशी अंगचटी आसक्ती बेताल..”

 माझ्याच एका कवितेतल्या या ओळी माझ्या नजरेसमोर थबकलेल्या..

धुरळा झटकत, जुन्या वह्या तपासत बसलेलो.. कधीकाळी काहीतरी कसंबस कुठंतरी खरडलेलं…

पिवळी पडलेली पानं.. बरीच शिवण सोडत असलेली.. कुबट वासाची.. जर्जर..

त्यावर आडवंतिडवं लिहिलेलं..

रात्री उशाला वही पेन ठेवायचो.. इतरांना लाईटचा डोळ्यावर त्रास नको झोपताना म्हणून अंधारातच अदमासानं चाचपडत लिहायचं..

त्याला आकार नव्हता..

काहींचे संदर्भ अजूनही लागत होते..

काही फक्त शब्द उभे त्रयस्थासारखे.. न देणं.. न घेणं अशा थाटात..

तशात या ओळी समोर आल्या…

आणि कैक वर्षात विस्मृतीत गेलेला शाल्या ‘ समोर आला.. तरी शाल्याला मातीआड करून चाळीस वर्षं झाली..

इथंच घरापाठीमागच्या नारळाच्या झाडाखाली पुरलेला..

वरनं सुप्पानं पाऊस..

खड्डा मारताना, चिखलाच्या पाट्या उपसताना चित्त उडालेलं..

खाली पोतं अंथरलं.. ओलं कीच्च..

नुसती हाडं राहिलेली.. रया गेलेली..

अलगद झोपवला.. मनाचं भाबडं समाधान.. कुठं त्रास होऊ नये अंतिम प्रवासाला..

चिखल ओढला..

कितीतरी वेळ मातीच्या ढिगावर ठिबकत राहिलेलो…

 

शाल्याचं नाव शाळीग्राम.. अण्णांनी ठेवलेलं..

एवढंएवढंसं गोजीरवाणं कुत्र्याचं पिल्लू.. भलतंच केसाळ.. सगळ्या अंगभर पांढऱ्या भू-या केसांची लव.. ती ही फणीनं विंचरल्यागत.. एखादी गोंडस झिपरी पोरगीच वाटायची..

डोळे एकदम घारे.. रात्रीच्या अंधारात डोळ्याच्या कडा हिरव्या गार दिसायच्या. त्यातला कनवाळूपणा काळजाला भिडायचा..

कुत्र्याच्या जन्माला येऊन इतकं निष्पाप दिसावं ? गाईच्या समजूतदार डोळ्यागत.. खोल खोल..

 

एसटीतनं उतरलो..

रात्री साडेआठ नऊची वेळ असावी,..

रस्त्यापुरतं अंधाराला भेदत एसटी टेकाड उतरत अस्पष्ट झाली..

हातात जेवणाचा डबा.. अण्णांचा…

माळ तुडवंत बांधकामाकडं निघालेलो.. एकटाच.. आभाळ भरून आलेलं.. गार वारा झोंबायला लागलेला.. गावाच्या बाजूकडं असलेल्या खिलाऱ्याच्या रानातल्या उसाचा गारवा माळभर लहरतेला.. दीड दोन किलोमीटरचं अंतर होतं, जागेवर पोहोचायला.. खरबुड्या माळावरनं आडवंतिडवं पावलं उचलत होतो.. दूरवर मुल्लाच्या माडीवरच्या पेंगुळल्या चाळीसच्या पिवळ्या बल्बचा दुम धरून निघालेलो..

मध्ये निर्मनुष्य वाट.. सरत नव्हती..

चुकून अंधाराच्या गचपणात पाय पडला तो एका कुत्र्याच्या पिल्लावर.. जमिनीत खोबणी धरून बसलेलं पिल्लू व्हिवळलं तसा पटकन पाय काढला..

वाटलं कुठूनही अंधारात पिल्लाची आई माझ्या मांडीचा अवचित लचका तोडणार…

अंदाज घेत भरारा पावलं उचलू लागलो… भ्यालेलो..

लांबून येणारा पिल्लाचा आवाज बंद झाला तसं हायसं वाटलं.. मटकन जमिनीवर बसलो.. धपापत..

जेवणाचा डबा तिथंच खाली टेकवलेला…

अंधारात पायाजवळ काहीतरी हुळहुळलं. सापाकिरडाच्या भयानं पटकन उठून उभारलो.. पुन्हा पिल्लाचा आवाज.. कणव यावा असा..

पाहतो तर, कुत्र्याचं पांढरंधोप कापसावानी मऊशार पुंजका असावा असं पिल्लू.. डबा हुंगतय..

सारा प्रकार लक्षात आला..

डब्यातली चतकोर भाकरी तोडून समोर टाकली..

तसं ते चघळू लागलेलं.. बोळक्या तोंडानंं…

दातलून झालं आणि ते पायाशी लगट करायला लागलं.. मी अलगद त्याच्या जावळातून हात फिरवला..

मऊशार कोवळं अंग..

बोटांना हवाहवसं वाटणारा स्पर्श..

लुसलुशीत…

मोह आवरला.. हळूहळू पावलं टाकत पुन्हा माळाच्या उताराला लागलो..

लिंबाबुडी अण्णा बसलेले.. पाहताच उठले.. डबा घेऊन खडीच्या ढिगावर सप्पय जागा बघून बसले..

मी बांधकामाच्या भवती फेरी मारू लागलो..

” अरे कुण्या पावण्याला घेऊन आलायस.. “

अण्णांची हाक ऐकू आली.. बघतो तर कुत्र्याचं पिल्लू… तेच….

माझ्या मागं कधी आलं ते कळलंच नव्हतं..

आता दिव्याच्या प्रकाशात ते अधिकच उजळून आलेलं..

” माझ्याच मागनं आलेलं दिसतंय.. “

ते अधिकच घसटीला आलं.. कमालीचं निरागस भाबडं..

अण्णा म्हणाले.. “मया लागली.. असूदे.. माळावरंच असंल.. यील आई वासानं हुडकत.. “

आई काही आली नाही….

 

कुत्र्याचं ते इवलसं पिल्लू तिथंच आमच्याभवती रमलं…

“अय.. शाळीग्रामा.. “

अधेमधे अण्णा हाक मारू लागले..

शाळीग्रामाचा दगड म्हणजे देवळातल्या मूर्तीचा काळाकरंद दगड.. आणि हा तर गोरापान.. परदेशच्या पोरापोरीं सारखा..

कलंदर.. नेहमी फकीर मस्तीत…

पुढं शाळीग्रामाचा झाला तो.. शाल्या ‘..

 

शाल्यानं घर ताब्यात घेतलं.. उन्हाळ्यात पसरायचा न्हाणीत.. हिवाळ्यात कुणाच्याही अंथरुणात उब धरून… हक्कानं..

सकाळी माणूस अंथरून सोडताना हा फक्त मान उचलून बघायचा.. पुन्हा तारवटून पाय पसरून निजायचा… रातपाळी करून आल्यागत…

शाल्यावरची नजर हटायची नाही.. इतका देखणा.. कुणी म्हणायचं…

” कुत्री आहे का ?”

“नाही.. गंडय.. “

” कसलं चिकनाट.. “

रोज दृष्ट काढली जायची.. माणसासारखी..

शाल्या इतका माणसाळला की लहान मुलासारख्या त्याला सगळ्या सवयी लागलेल्या… लाड करून घ्यायचा.. जसा मोठा होत गेला तसं त्याचं रूप आणिकच साजरं झालं..

कधीच त्याच्या गळ्याला दोरी बांधली नाही..

पाळीव आहे हे कळावं म्हणून पट्टा फक्त…..

 

माळावर नेहमी पाण्याच्या टाकीजवळ आडोसा धरून धनगराची पालं पडायची… भटकंतीतली….

बरोबर शे पाचशे मेंढरांचा जत्था….

कुत्री घोडी.. मोठा बारदाना.. दिवसभर इकडं तिकडं करून रात्री विश्रांतीला माळावर यायची.. संध्याकाळी शेळ्या मेंढरांच्या कलकलाटानं माळ गजबजायचा… दोन-चार दिवसाचा मुक्काम आवरून मेंढपाळ खालतीकडं सरकायचे..

असाच एकदा शाल्या गायब झाला..

 दुसऱ्या दिवशी आजूबाजूला चौकशी केली तर कळलं तो मेंढ्यांच्या कळपातल्या कुत्र्यांबरोबर खेळत होता…. घरी सगळे हवालदिल झालेले..

घरात तर सुतक पडल्यागत.. कुणाच्याच तोंडात घास गिळवला नाही..

मेंढपाळानी माळ सोडलेला…

पुढचा मुक्काम कुठं असंल कुणास दखल… ।

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री संजय जगन्नाथ पाटील
9422374848

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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