☆ “पैशाचे मानसशास्त्र” – लेखक – बॉब प्रॉक्टर – अनुवाद : श्री प्रसाद ढापरे ☆ परिचय – श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆
पुस्तक : पैशाचे मानसशास्त्र
लेखक : बॉब प्रॉक्टर
अनुवाद : प्रसाद ढापरे
प्रकाशक : माय मिरर पब्लिशिंग हाऊस
पृष्ठ: २२७
मूल्य : २६०₹
जे लोक नफा आणि तोटा याच्या पलीकडे जाऊन स्वतःमधील प्रेरणा आणि कल ओळखून त्याप्रमाणे जीवन जगतात, ते स्वतः यशस्वी होतातच आणि इतरांनाही प्रेरणा देतात यावर या पुस्तकामध्ये प्रकाश टाकला आहे.
या पुस्तकात,
* जगभरातील अतिश्रीमंत आणि यशस्वी लोकांना समजलेली रहस्ये
* जीवनामध्ये समृद्धी आणण्याच्या, टिकवण्याच्या सोप्या आणि प्रभावी संकल्पना
* पैशाबद्दल चुकीच्या धारणा
* पैसा आकर्षित करण्याचे प्राचीन ज्ञान
* तुमच्या मानसिकतेचा समृद्धीवर होणारा परिणाम
* सकारात्मक विचारसरणीच्या साहाय्याने समृद्धीच्या मार्गावर वाटचाल कशी करावी
‘
परिचय : श्री हर्षल सुरेश भानुशाली
पालघर
मो.9619800030
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मनन, अनुसरण और अनुभव…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 265 ☆
☆ मनन, अनुसरण और अनुभव… ☆
ज्ञान तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है– प्रथम मनन, जो सबसे श्रेष्ठ है, द्वितीय अनुसरण सबसे आसान है और तृतीय अनुभव जो कटु व कठिन है– सफलता प्राप्ति के मापदंड हैं। इंसान संसार में जो कुछ देखता-सुनता है, अक्सर उस पर चिंतन-मनन करता है। उसकी उपयोगिता- अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य, ठीक-ग़लत लाभ-हानि आदि विभिन्न पहलुओं के बारे में सोच-विचार करके ही निर्णय लेता है– ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। यह सर्वश्रेष्ठ माध्यम है तथा किसी ग़लती की संभावना नहीं रहती। दूसरा माध्यम है अनुसरण–यह अत्यंत सुविधाजनक है। इंसान महान् विद्वत्तजनों का अनुसरण कर सकता है। इसमें किसी प्रकार की ग़लती की संभावना नहीं रहती तथा इसे अभ्यास की संज्ञा भी दी जाती है। तृतीय अनुभव जो एक कटु मार्ग है, जिसका प्रयोग वे लोग करते हैं, जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते तथा अपने अनुभव से ही सीख लेते हैं। वे उससे होने वाले परिणामों से अवगत नहीं होते। वे यह जानते हैं कि इससे उनका लाभ होने वाला नहीं, परंतु वे उसका अनुभव करके ही साँस लेते हैं। ऐसे लोगों को हानि उठानी पड़ती है तथा आपदाओं का सामना करना पड़ता है।
विद्या रूपी धन बाँटने से बढ़ता है। परंतु इसके लिए ग्रहणशीलता का मादा होना चाहिए तथा उसमें इच्छा भाव होना अपेक्षित है। मानव की इच्छा-शक्ति यदि प्रबल होती है, तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो वह सीखना चाहता है, उसमें और अधिक जानने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति महान् आविष्कारक होते हैं। वे निरंतर प्रयासरत रहते हैं तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखते। ऐसे लोगों का अनुसरण करने वाले ही ठीक राह पर चलते हैं; कभी पथ-विचलित नहीं होते। सो! अनुसरण सुगम मार्ग है। तीसरी श्रेणी के लोग कहलाते मूर्ख कहलाते हैं, जो दूसरों की सुनते नहीं और उनमें सोचने-विचारने की शक्ति होती नहीं होती। वे अहंवादी केवल स्वयं पर विश्वास करते हैं तथा सब कुछ जानते हुए भी वे अनुभव करते हैं। जैसे आग में कूदने पर जलना अवश्यम्भावी है, परंतु फिर भी वे ऐसा कर गुज़रते हैं।
मानव में इन चार गुणों का होना आवश्यक है– मुस्कुराना, प्रशंसा करना, सहयोग करना व क्षमा करना। यह एक तरह के धागे होते हैं, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं। दूसरी तरफ रिश्ते हैं जो ज़रा सा उलझते ही टूट जाते हैं। जो व्यक्ति जीवन में सदा प्रसन्न रहता है तथा दूसरों की प्रशंसा कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करता है, सबके हृदय के क़रीब होता है। इतना ही नहीं, जो दूसरों का सहयोग करके प्रसन्न होता है, क्षमाशील कहलाता है। उसकी हर जगह सराहना होती है. वास्तव में यह उन धागों के समान है, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं और रिश्ते ज़रा से उलझते ही टूट जाते हैं। वैसे रिश्तों की अहमियत आजकल कहीं भी रही नहीं। वे तो दरक़ कर टूट जाते हैं काँच की मानिंद।
अविश्वास आजकल सब रिश्तों पर हावी है, जिसके कारण उसमें स्थायित्व होता ही नहीं। मानव आजकल अपने दु:ख से दु:खी नहीं रहता, दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी व परेशान रहता है, क्योंकि उसमें ईर्ष्या भाव होता है। वह निरंतर यह सोचता रहता है कि जो दूसरों के पास है, उसे क्यों नहीं मिला। सो! वह अकारण हरपल दुविधा में रहता है तथा अपने भाग्य को कोसता रहता है, जबकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि इंसान को समय से पहले व भाग्य से अधिक कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए उसे सदैव समीक्षा करनी चाहिए तथा निरंतर कर्मशील रहना कारग़र है, क्योंकि जो उसके भाग्य में है, अवश्य मिलकर रहेगा। सो!
मानव को प्रभु पर विश्वास करना चाहिए। ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ‘कलयुग केवल नाम आधारा’ अर्थात् कलयुग में केवल नाम स्मरण ही प्रभु-प्राप्ति का एकमात्र सुगम उपाय है। अंतकाल यही उसके साथ जाता है तथा शेष यहीं धरा रह जाता है।
मौन वाणी की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है और सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसमें नौ गुण निहित रहते हैं। इसलिए मानव को यह शिक्षा दी जाती है कि उसे तभी मुँह खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अन्यथा उसे मौन को सर्वश्रेष्ठ आभूषण समझ धारण करना चाहिए। सत्य व प्रिय वचन वचन बोलना ही वाणी का सर्वोत्तम गुण हैं और धर्मगत अथवा कटु व व्यंग्य वचनों का प्रयोग भी हानि पहुंचा सकता है। इसलिए हमें विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि ‘अजीब चलन है ज़माने का/ दीवारों में आएं दरारें तो/ दीवारें गिर जाती हैं। पर रिश्तों आए दरार तो/ दीवारें खड़ी हो जाती हैं।’ इसलिए हमें दरारों को दीवारों का रूप धारण करने से रोकना चाहिए। संवाद के माधुर्य के लिए संबोधन की मधुरता अनिवार्य है। शब्दों का महत्व संबंधों को जीवित रखने की संजीवनी है। सो! संबंध तभी बने रहेंगे, यदि संबोधन में माधुर्य होगा, क्योंकि प्रेम वह चाबी है, जिससे हर ताला खुल सकता है।
‘बहुत से रिश्ते तो इसलिए खत्म हो जाते हैं, क्योंकि एक सही बोल नहीं पाता और दूसरा सही समझ नहीं पाता।’ इसके लिए जहाँ वाणी माधुर्य की आवश्यकता होती है, वहीं उसे सही समझने का गुण भी आवश्यक है। यदि हमारी सोच नकारात्मक है तो हमें ठीक बात भी ग़लत लगना स्वाभाविक है। इसलिए रिश्तों में गर्माहट का होना आवश्यक है और हमें उसे दर्शाना भी चाहिए। जो भी हमें मिला है, उसे खुशी से स्वीकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रहे हैं भगवान कृष्ण के यह शब्द ‘मैं विधाता होकर भी विधि के विधान को नहीं टाल सका। मेरी चाह राधा थी और चाहती मुझे मीरा थी, परंतु मैं रुक्मणी का होकर रह गया। यह विधि का विधान है।’ सो! होइहि वही जो राम रचि राखा।
रिश्ते ऐसे बनाओ, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो। जो इंसान आपकी भावनाओं को बिना बोले ही समझ जाए, वही सर्वश्रेष्ठ होता है। सो! कठिन समय में जब मन से धीरे से आवाज़ आती है कि सब अच्छा ही होगा। वह आवाज़ परमात्मा की होती है। इसलिए मानव को मनन करना चाहिए तथा संतजनों के श्रेष्ठ वचनों का अनुसरण करना चाहिए। सत्य में विश्वास कर आगे बढ़ना चाहिए तथा उनके अनुभव से सीखना अर्थात् अनुसरण करना सर्वोत्तम है। व्यर्थ व अकारण अनुभव करने से सदैव मानव को हानि होती है।
जन्म : 1952, रानापुर, जिला: झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी, हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर. टोरंटो (कनाडा) : 2002 से कैनेडियन नागरिक.
प्रकाशन : “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।
स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।
नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित।
श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में “अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका अप्रतिम व्यंग्य फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते।
☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆
लोग घोड़ा देखते हैं तो उस पर बैठने की आशा संजो लेते हैं। यदि कुँआरे घोड़े पर बैठ जाएँ तो मंडप तक पहुँचे बिना उतरते नहीं। वैसे ही जब कोई लेखक किताबों के प्रकाशक को देखता है तो दुल्हे जैसे सपने देखने लगता है। ऐसे मीठे सपने कि प्रकाशक उसकी किताब छापेगा। कहानियों की किताब छपी तो उन कहानियों पर फिल्में बनेंगी और वे ऑस्कर जीतेंगी। कविताओं की किताब छपी तो किशोर कुमार घराने के लोग उसके गीत गाएँगे और उसके एल्बम इतने टॉप पर होंगे कि ग्रैमी अवार्ड वाले उसका घर ढूंढते-ढूंढते आ जाएँगे। रेल्वे प्लेटफॉर्मों और हवाईअड्डों के बुक स्टोर वाले उसकी किताब ‘डिस्प्ले’ पर रखेंगे। साहित्य के आलोचक उसकी किताब को चाहे महत्व नहीं दें पर राज्य अकादमियों के लोग प्रशंसा की गोटियाँ डालने लगेंगे। साहित्य के छोटे-बड़े फेस्टिवल में वह अपनी किताब के अंश सुना सकेगा। पांडुलिपि तैयार है, बस कोई ढंग का प्रकाशक नहीं मिल रहा। लेखक को प्रकाशक तो कई मिल रहे हैं, पर उसे ऐसा प्रकाशक चाहिए जो उसके जूतों में पैर रख कर उसके जैसे सपने देख सके। हर नया प्रकाशक नई उम्मीद का लॉलीपॉप देता है। प्रकाशक पांडुलिपि देखने की बजाय उस लेखक का वजन देखता है, लेखक के कपड़े देखता है। फिर लेखक के कपड़े उतरवाना शुरू करता है, कुछ मालमत्ता दिखा तो छिलाई शुरू करता है। धीरे-धीरे नव-प्रकाशक और लेखक का संबंध खानदानी बनने लगता है। कुछ महीनों बाद वह लेखक समझ पाता है कि उसने जो उम्मीदें बाँधी थीं वे एकदम झाँसा थीं। नया प्रकाशक भी उसे उल्लू बना गया। लेखक व्यंग्यकार है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उल्लू ही है। व्यंग्य लिख-लिख कर जब अजीर्ण हो जाता है तब बेचारा लेखक ऐसे झाँसा-प्रकाशक को दिन-रात कोसता रहता है तब कहीं उसकी रोटी हजम होती है।
अब लेखक चिरोंजीलालजी को ले लें। वह सूखे मेवे जैसे लेखक हैं, चमकदार बर्नियों में सजाए जाते हैं। महंगे बिकते हैं पर कम मात्रा में उठाए जाते हैं। सड़ा मेवा फ्री में मिले तो भी लोग नहीं चखते। उनकी किताबों का यही हाल है। वे जब पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपते हैं तो प्रकाशक उनसे धन रूपी मेवा रखवा लेता है। गूगल के सौजन्य से प्राप्त मुफ्तिया सामग्री से किताब का आकर्षक कवर बनते देर नहीं लगती। चिरोंजीलालजी, प्रकाशक को और मेवा देते हैं। कुछ और पेज छपवाने में लेखक का मेवा खतम हो जाता है। अंततः, लेखक के हाथ में शगुन की पाँच प्रतियाँ आ जाती हैं। उन्हीं से विमोचन हो जाता है, उन्हीं से तीन-चार लोकार्पण, और दस-बीस जगह समीक्षाएँ हो जाती हैं। वे पाँच प्रतियाँ सदा सुहागन की तरह लेखक के कब्जे में रहती हैं। प्रकाशक, किताब के कवर पेज को हर पोर्टल पर चिपका कर रखता है ताकि किसी दिन बिल्ली के भाग्य से अमेजॉन पर कोई ऑर्डर आ जाए और वह ऑन डिमांड प्रिंट निकाल कर किताब की पहली प्रति बेच सके। चिरोंजीलाल जी अपनी लेखकीय प्रति हरदम अपने साथ रखते हैं। हर मंच पर उसकी मार्केटिंग करते हैं, किताब का टाइटल बताते हैं, उसे खोल कर प्रकट करते हैं और श्रोताओं को उनसे मिलने के लिए उकसाते हैं। मजाल, कोई भी सभ्य-असभ्य श्रोता उनके टोने-टोटके से प्रभावित हो जाए और समीप आ कर उनकी किताब के कवर पेज पर उनका नाम पढ़ ले।
आज एक प्रकाशक मुझे ‘भवन’ के अहाते में प्रसन्न मुद्रा में मिल गए। वे भरे पेट लग रहे थे। प्रकाशक दो ही स्थितियों में इतना प्रसन्न हो सकता है। या तो पिछले साल की बकाया राशि का संस्थान ने उसे चेक दे दिया हो या बचे हुए बजट को निपटाने के चक्कर में थोक ऑर्डर दे दिया हो। मैंने प्रसन्नचित्त प्रकाशक से पूछा- आपने आज किसकी किताब कांजी हाउस में चरा दी। वे हाथ जोड़ कर प्रणाम मुद्रा में बोले -आप भी अपनी पांडुलिपि दे दीजिए, हमें यहाँ गठ्ठर सप्लाय करना है। आपकी घास भी चरने डाल देंगे। और खुश खबर ये कि हम एग्रीमेंट करेंगे, बिक्री का हिसाब देंगे और सुप्रबंधन कर इसे अमेजॉन की टॉप टेन लिस्ट में चढ़वा देंगे। मैंने उन्हें हाथ जोड़ते हुए कहा “आपने किसी लेखक से कभी एग्रीमेंट किया हो तो बताएँ। किसी को रॉयल्टी में कुछ दिया हो तो बताएँ। दूध होगा तो दूध दिख जाएगा।” वे हं, हं, हं, करने लगे। झाँकी जमाने आए थे, यहाँ-वहाँ झाँक कर वे विजयी हो गए। सुना है विभाग ने राज्य भर में नई अलमारियों की आपूर्ति के लिए टेंडर निकाला है और फर्नीचर वाले गुप्त जी पुस्तक चयन समिति के खासमखास बनाए गए हैं।
मेरे दूसरे मित्र सुप्रसिद्ध लेखक हैं, कचौड़ीलाल। वह जब प्रकाशित होते हैं तो फूले-फूले, तेल चढ़े होते हैं। प्रकाशक एक झारे में जितनी कचौड़ियाँ समा सकता है, वह उतनी किताबें छाप कर रख देता है। किताबी कचौड़ियों का जब तक कहीं गणित नहीं जमता, वे प्रकाशक के खोमचे में पड़ी-पड़ी महकती रहती हैं। फिर प्रकाशक इन कचौड़ियों पर चटनी डालता है, दही डालता है, और महंगी मिठाई खरीदने वालों को मुफ्त में कचौड़ियाँ टेस्ट करवाता है। दो-चार कचौड़ियाँ बच जाए तो वह कचौड़ियों का नया संस्करण ले आ आता है। पुरानी कचौड़ियाँ उनमें मिक्स कर दी जाती हैं। ऐसे प्रकाशक मुझे अच्छे लगते हैं। पुराना माल नया होता रहे और बाजार में बना रहे तो लेखक के जिंदा बचे रहने की आस बंधी रहती है। इस बहाने लेखक अपने दोस्तों और परिचितों को दस परसेंट डिस्काउंट में अपनी किताब बिकवा तो सकता है। अन्यथा, उसके जीते-जी ही उसकी किताब काल-कलवित हो गई तो वह बेचारा विधुर लेखकों की पंगत में बैठा दिया जाएगा।
खेद, सारे प्रकाशक ऐसे निष्ठुर, हृदयहीन और टटपूँजिया किस्म के नहीं होते। आपको पता होगा, घेवरमलजी के प्रकाशक भोजनालय किस्म के हैं। किताब छापने का पैकेज साफ-साफ बता देते हैं, ताकि किसी लेखक को परोपकार का भ्रम नहीं रहे। उनका पैकेज वस्तुनिष्ठ होता है, तेरा तुझको अर्पण शैली वाला। वे निश्छल बता देते हैं, पैकेज में चार रोटी, दाल-सब्जी, नींबू-कांदा, पापड़ आदि से सजी आधी थाली मिलेगी, किफायती और स्टैंडर्ड। नगर पालिका के नल का देसी पानी मिलेगा। लिमिटेड थाली में सब थोड़ा-थोड़ा मिलेगा, लिमिट में। किताब छपवाने की भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी पर अमर होने की लालसा बनी रहेगी। वे कहते हैं, अपने लेखन पर गुमान हो और उसका इसी जन्म में लुत्फ उठाना हो तो रॉयल पैकेज ले लो। उस पैकेज में वे किताब छापेंगे, उसकी मार्केटिंग करेंगे, साथ ही किसी पुराने चावल से भूमिका लिखवा लाएँगे, समारोह पूर्वक विमोचन करवाएँगे, प्रशस्तिपूर्ण समीक्षाएँ छपवाएँगे, मेले में नाच-नचनिया के साथ लेखक को नचवाएँगे, लायब्रेरियों के गोडाउनों में भरवाएँगे, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगवाएँगे और फिर छोटी-बड़ी सफेद रेशमी शाल में लेखक और किताब दोनों को लिपटवा कर दम लेंगे। वे आपसे कहेंगे, हे लेखक तुम रचना का बीज बो दो, धन की खाद डालते जाओगे तो वे बीज से वृक्ष तान देंगे। वृक्ष का समय-समय पर रख-रखाव होता रहेगा तो उसे वटवृक्ष बनने में देर नहीं लगेगी। समझदार लेखक को इससे बड़ा इशारा कोई प्रकाशक नहीं कर पाएगा।
मेरे कुछ लेखक मित्रों को निहायत शरीफ प्रकाशक भी मिले हैं। उनसे कोई लेखक एक रोटी माँगे तो वे एक रोटी का ही चार्ज लेते हैं। खाली पेट में कोई निवाला भी डाल दे तो वह जनम-जनम का पूज्य बन जाता है। ये शरीफ प्रकाशक ई-बुक की लौ सुलगा कर लेखक (माफ करें, लेखक की मशाल) को जलाए रखते हैं। किंडल जैसे प्रकाशक भी हैं, मुफ्त में छाप देते हैं, मुफ्त में बेच देते हैं। वे कहते हैं यहाँ उपलब्ध लाखों किताबों के ढेर में लेखक तुम्हारी भी एक किताब सही। जिस दिन कयामत आएगी, कब्रों से निकल कर मुर्दे जिंदा हो जाएँगे, तब तुम्हारी किताब जरूर पढ़ी जाएगी। वर्तमान दुनिया के बाजार के लिए कृपया क्षमा करें। इस काल में पाठकों से ज्यादा लेखक हो गए हैं। आप जानते ही हैं, लेखक का काम केवल लिखना है, उन्हें खुद का लिखा पढ़ने की फुरसत नहीं है तो दूसरों का लिखा कब और कैसे पढ़ेंगे?
कुछ परंपरागत प्रकाशक हैं, उनकी अपनी धुन है और अपना राग। उनके पास पहले से ही गोडाउन भरे पड़े हैं। उनके पास जो पुराना है वह दुर्लभ किस्म का है और वे नया छापते हैं उसे भी दुर्लभ बनाने के हिसाब से छापते हैं। इनके द्वारा जो टिफिन भरे जाते हैं उनके खाने वाले बंधे हुए हैं। वे अपना माल उन्हीं को खिलाते हैं और उन्हीं से कमाते हैं। वे उन संस्थानों को माल बेचते हैं जो वांछित भाव देते हैं। इन खरीददारों की हालत यह है कि उधार मिल रहा है तो बासी माल खाने में कैसा परहेज! कहीं से दान या अनुदान मिलेगा तो बकाया सुलट जाएगा। मैंने आपको हिंदी के लेखकों के लिए उपलब्ध प्रकाशकों के कुछ ‘सेम्पल बताए’। बड़े शहरों विशेषकर राजधानियों में चार-पाँच स्टार वाले रेस्टोरेंटनुमा प्रकाशक होते हैं। इनके पास आधार सामग्री तो वही रहती है ठेले वाली, पर कटलरी उम्दा होती है, साज-सज्जा मनमोहक होती है। इनके लोग आगंतुकों को झुक-झुक कर किताबें परोसते हैं, पहले मेनू बताते हैं, खिलाते-पिलाते हैं, फिर बिल थमा देते हैं। ये इतनी शालीनता से जेब खाली करवाते हैं कि ग्राहक को लगता है वे इन किताबों को पढ़कर भारत के गुरूर, थरूर बन सकते हैं।
मैं यह व्यंग्य पोस्ट करने वाला ही था कि राजधानी के प्रतिष्ठित स्व-नाम धन्य लेखक मेरी टोह लेते आ गए और इसे पढ़ कर बोले – ‘किस जमाने में रहते हैं आप। मेरे प्रकाशकों को देखिए, रोज बारी-बारी से शाम को मेरे घर पर अपना कमोड छोड़ जाते हैं और दो-तीन दिन में ले जाते हैं। इतने समय में जितना उत्पादन होता है, सब छप जाता है और पूरे देश की लाइब्रेरियों में खप जाता है। जुगाड़ बैठ जाए तो विदेशी लाइब्रेरियों में भी अपना माल धकेला जा सकता है। मैंने ऐसा काँटा बिठाया हुआ है कि आठ-दस बड़ी भारतीय भाषाओं में मेरी किताब के अनुवाद शाया हो जाते हैं। लेखक को लिखने के अलावा दुनियादारी की कुछ समझ हो तो अपार काम है। लिखने वाला थक जाए पर प्रकाशक कभी न थके। गूगल पर सर्च के देख लो, मैंने कितने प्रकाशकों को धन्य किया है।’ अच्छा हुआ सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म हो गई और लेखक के घर पर कमोड जड़ा कर साहित्य छापने का काम संस्थागत हो गया। मैं जानता हूँ वे मेरे लेखक मित्र पद से पूजे जाते हैं, पद न हो तो उनका पैंदा ही नहीं रहे। वे संस्थागत चल निकले हैं। यदि लेखक, लेखन के ही भरोसे रहे तो सम्मान महोत्सवों में भी जूते खाए। जो सच था वह आपको बता दिया, फिर न कहियेगा कि कोई प्रकाशक नहीं मिलता! बस जो मिल जाए उसे ढंग का बनाना आपका काम है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ “प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु“।)
☆ दस्तावेज़ # 16 – प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
(ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से महाकुंभ दुर्घटना में दिवंगतों को अश्रुपूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि )
(विगत कुछ दिनों पूर्व मैंने मॉरीशस के हिंदी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर से इस विषय पर इस शोधपरक विषय पर खूब चर्चा की, उनके साथ हुई चर्चा पर आधारित ही है यह आलेख – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’)
मुद मंगलमय संत समाजू l जो जग जंगम तीर्थराजू l
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ll
आज मेरी साहित्यिक,आध्यात्मिक और बौद्धिक चर्चा के केंद्र बिंदु में प्रयागराज है ,जिसे कुछ वर्षो पूर्व हम इलाहाबाद कहते थे, उस पर चर्चा करेंगे l
प्रयागराज अपने पौराणिक अस्तित्व को प्राप्त करने के लिए शायद संघर्ष कर रहा था l इसकी प्रथम कड़ी में जब इसको अपना पौराणिक और पुरातन नाम वापस मिला, तो मुझे लगता है कि आम जनमानस ने सहर्ष इसे स्वीकार भी कर लिया l आज स्थिति यह हुई कि सबकी जुबां पर प्रयागराज नाम इस तरह से विचरण कर रहा है कि मानो प्रयाग की एक अलौकिक छवि जनमानस के दिल पर विचरण कर रही हो l
कुंभ क्या है और कुंभ के पीछे की कहानी क्या है? इस विषय में लगभग हर भरत वंशी पूर्ण रूप से भिज्ञ होगा या कमोबेस जानता होगा l आज मैं इस लेख के माध्यम से एक शोध परक विचारणीय एवं तथ्य से भरे हुए आलेख को प्रस्तुत करना चाह रहा हूं l
तो हम लौटते हैं ऋषि युग की तरफ l उस युग की तरफ जब भारतीय भूखंड में आज की अपेक्षा कई गुना कम जनसंख्या हुआ करती होगी l समूचे भूभाग पर बड़ी -बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं एवं वन्य क्षेत्र का एक विशाल स्वरूप होगा l
यदि त्रेता युग कालखंड को मानदंड मानकर उदाहरण स्वरूप ले ले तो भगवान राम ने अपने अधिकांश समय जिस चित्रकूट में बितायें तत् समय वह विशाल वन क्षेत्र रहा होगा , जबकि आज की स्थिति में वह एक नगर क्षेत्र है l 14 वर्ष के वनवास काल के अंतिम कुछ वर्षों में भगवान सुदूर दक्षिण लंका की तरफ बढ़ते हैं तो एक विशाल वन क्षेत्र को पार करते हुए उन्हें जाना होता है l मार्ग में पंचवटी एवं किष्किंधा आदि वन्य क्षेत्र की चर्चा पुराणों में होती है l गोदावरी तट पर भी रुकने के प्रमाण मिलता हैं l यानी जो मैं कहना चाह रहा हूं कि तबकी लगभग पूरी यात्रा वन क्षेत्र से होती हुई पूर्ण होती होंगी l भगवान श्री राम के वन गमन के ऊपर लिखे गए अपने दूसरे खंड पुस्तक को मध्य प्रदेश के विद्वान् हिंदी साहित्यकार गोवर्धन यादव जी “दंडकारण्य की ओर” शीर्षक देते हैं l यानी उसे वन क्षेत्र को दंडक बन कहते थे जब भगवान राम दक्षिण दिशा में गमन कर रहे हैं l तब संसाधन कम हुआ करते थे, या यूं कहे तो पदयात्राएं ही होती थी l यानी घनघोर जंगलों के बीच से गुजरना l इसके बीच में मार्ग की तलाश करना l खूंखार वन्य जीव से स्वयं को बचाते हुए यात्रा करना l रात्रि विश्राम के स्थल होते थे इन्हीं ऋषियों के आश्रम और वहां पर निवास करने वाले ऋषियों के प्रिय वनवासी गण l अब कल्पना करें कितने से दूर भीषण जंगलों के बीच में जो ऋषि निवास करते थे l वे आम तो थे नहीं l वे जन सामान्य से कहीं बहुत ज्यादा विद्वान, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ महर्षि ऋषि औषधिज्ञ यहां तक की युद्ध कौशल के भी बड़े महारथी थे l तभी यह राजा राजकुमार उनके यहां शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा लेने के लिए जाते थे l
लेकिन इतने दुरूह -दुर्गम और एक दूसरे से हजारों मील दूर स्थानों पर रहने वाले ऋषियों का एक दूसरे को भलीभांति जानना एवं मिलना जुलना बदस्तूर जारी था l आखिर इन विशाल वन क्षेत्र में एक-एक ऋषि महर्षि कितनी दूरी पर रहते थे l बड़े बड़े अन्वेषण और शोध करते थे, लेकिन इन विधाओं का आदान-प्रदान इनके बीच कैसे होता होगा? यह प्रश्न मेरे मन में आता है l भगवान अगस्त ऋषि सुदूर दक्षिण में थे l विश्वामित्र,वशिष्ठ, बाल्मीकि,भारद्वाज, श्रृंगी, सदानंद एवं अत्रि आदि आदि मुनि एवं गुरुवृंद हर कोई आस पास तो नहीं रहता था l ये एक दूसरे से 700-800 किलोमीटर दूर रहते थे l तब न तो संपर्क और संवाद के साधन थे, फिर भी एक दूसरे के ज्ञान बुद्धि विवेक और संस्कृति संस्कार से कैसे परिचित थे l यह कैसे संभव होता था l
अब मैं इस वैचारिक विमर्श के केंद्र पर आता हूं l संचार दूरभाष के तमाम संसाधन न होने के बावजूद, राज्य और समाज व्यवस्था कैसे चलेगी, नए अन्वेषणों पर क्या करना है l चिकित्सा,औषधीय ज्ञानवृद्धि की स्थिति क्या करना है तथा खगोलीय स्थिति क्या है l अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ ये ऋषिगण अपनी राय एक दूसरे के समक्ष किसी बड़े कॉन्फ्रेंस में अवश्य ही रखते होंगे, और उसका आदान प्रदान करते होंगे l ठीक उसी तरह से जैसे की भारत में जी 20 के दौरान कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारत आए और उन्होंने यहां पर एक लंबा विमर्श किया, खास निर्णय ऊपर जाने के बाद यह निश्चित हुआ कि अगले अमुक वर्ष में अगला जी -20 अमुक शहर में होगा l यह हुआ आधुनिक काल l
मुझे लगता है कि यह चारों कुंभ के निश्चित समय (तिथि) एवं स्थान इस महा कार्य हेतु पूर्ण रूप से सबकुछ तय कर देते थे कि कब कहां पर सारे लोग जुड़ेंगे l वह भी कम समय के लिए नहीं जुटेंगे बल्कि एक लंबी अवधि के लिए, लंबी चर्चा के लिए जुटेंगे l
प्रयागराज कुंभ की ही बात करें तो…
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
माघ मास में कल्पवाश की बात कहीं इसी रूप में जुड़ती है l सबको ज्योतिषी विज्ञान एवं पंचांग के माध्यम से यह पता रहता था कि अगले छः वर्षो पर अर्धकुंभ एवं बारह वर्षो पर महाकुम्भ का मकर संक्रांति स्नान, मौनी अमावस्या स्नान, महाशिवरात्रि स्नान की तिथियां जो निश्चित होती थी l उसके पूर्व सारे विद्वानों का स्थान विशेष पर पहुंचना प्रारंभ हो जाता होगा l और वह भी बिना किसी सूचना के l इसका अर्थ यह कि महर्षियों, विद्वानों देवताओं के मिलन का सबसे उचित और बड़ा माध्यम ये चारों महा कुंभ हुआ करते होंगे l दूसरे शब्दों में कहीं तो इन विद्वानों के महा अधिवेशन का स्थल यह चारों महाकुंभ क्षेत्र ही थे l उपरोक्त इन्हीं तिथियों को ध्यान में रखकर लगभग भारत के हर कोने के सारे ऋषि महर्षि रिसर्चर अपने-अपने मठ मंदिर, कुटिया और आश्रमों से निकलकर एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ते होंगे l
इस कल्पवास की अवधि में भारत के कोने-कोने का संत समाज, अपनी चर्चा के समय और एजेंडा तय करते होंगे l विद्वानों के वक्तव्य होते होंगे l अब इन विषय विशेषज्ञ को वक्ता मान लेते हैं l लेकिन इन विषयों पर जो निष्कर्ष निकलते होंगे वह आम जनमानस में जाए इसके लिए कौन कौन श्रोता थे, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है l
तीर्थराज कुंभ में पावन स्नान करने के उद्देश्य से भारत के कोने-कोने से आम जन समाज,हर वर्ग संप्रदाय के लोग भी इस पुण्य को प्राप्त करने के लिए,इन ऋषियों एवं विद्वानों के दर्शन एवं श्रवण करने के लिए, उनकी सभाओं में लिए गए नीतिगत निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर लगाने के लिए इस महा संसद के दर्शक दीर्घा में पधारते होंगे l
प्रत्येक छः या बारह वर्ष पर लगने वाले इस बड़े आध्यात्मिक अधिवेशन में यदि बहुत बड़ा प्रबुद्ध समाज एवं आम जनमानस जुटता होगा तो, राज्य से ऊपर धर्मनीति को मानने वाली समर्पित राज सत्ताएं भी होंगी, जो कि इस व्यवस्था को अपने शक्ति,सामर्थ्य अर्थ, वैभव,से सम्पादित कराती होंगी l
पूरे कल्पवास अवधि के लिए ये चारो स्थान ( प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार एवं नासिक ) विद्वानों के एक बड़े संगम के रूप में अधिवेशन के लिए तैयार होता होगा l इस काल में धर्म संस्कृति ज्ञान,विज्ञान चिकित्सा आदि विषयों पर शैक्षिक बौद्धिक एवं शोध परक सेमिनार चलते होंगे l नवीन अन्वेषण और विचारों का उदय होता होगा l राज सत्ता को अपने शासन की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्या करना है l भारतीय संस्कृति को एकीकृत स्वरूप किस प्रकार देना है, इन विषयों पर राजगुरु और राज ऋषियों की राय निकलकर आती होगी और अंत में उसे अंतिम स्वरूप दिया जाता होगा l चूकि जीवन सारे भौतिक संसाधनों, सुख सुविधाओं का का त्याग कर ये महा मानव एक नवीन मार्ग को धारण कर समाज कल्याण के लिए निकल पड़ते थे, इसलिए इन ऋषियों मुनियों की रक्षा एवं इनको आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए जाने की जिम्मेदारी तत्कालिक राज सत्ता को होती होगी l यानी ऐसे महा संसद में, महाराजा हर्षवर्धन जैसे शासन की भी भागीदारी होती रही है, जैसा कि बाद के इतिहास में भी आता है और वर्तमान में भी इसका स्वरूप दिखाई दे रहा है l
कई माह चलने वाली लंबी चर्चा के उपरांत एक निर्णय पर पहुंचने के बाद आगामी 6 या 12 वर्षों में हमें क्या-क्या करना है,और इसके बाद बाद सभी इस अंतिम निर्णय को स्वीकार करते हुए कि अगला महा अधिवेशन 6 या 12 वर्ष बाद दूसरे स्थान यानी दूसरे कुंभ स्थान में होगा l ऐसा कहते हुए यह सभी ऋषि महर्षि महात्मा व विद्वानगण अपने-अपने वन क्षेत्र स्थित आश्रमों, कुटियों और गुरुकुलों में वापस लौट जाते होंगे l
तीर्थराज प्रयाग के स्थान को पौराणिक दृष्टिकोण से देखें तो मातु गंगा,सरस्वती और यमुना के त्रिवेणी के इस पावन संगम क्षेत्र में स्नान करने का महत्व यह भी है कि यहां हर कोई यदि हम अपने भौतिक शरीर को पवित्र कर माँ सुरसरि के चरणों में वंदन करते हैं तो वही इस त्रिवेणी की भूमि पर आयोजित धार्मिक शिविरो में पहुंचकर वहां पर हो रहे भाषणों, सम्भाषणों, व्याख्यानों को सुनकर शिक्षित दीक्षित होने का भी लाभ प्राप्त करते है l
आज काफी दिनों बाद जैसा कि हम सभी देख रहे हैं कि तीर्थराज प्रयाग अपने अतीत को याद करते हुए एक अलग कलेवर के साथ अपने बौद्धिक एवं पौराणिक महत्व को न सिर्फ प्राप्त कर रहा है बल्कि अध्यात्म के चरम की ओर बढ़ रहा है l
आज भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व प्रयागराज और प्रयागराज की महिमा पर शोध एवं चिंतन कर रहा है l
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तीर्थराज प्रयाग के महत्व को किस रूप में देखते हैं, मां गंगा के महत्व को कैसे बखान करते हैं l गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के अपने दोहे चौपाइयों में बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है –
☆ Meditate Like The Buddha #2: The First step ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆
Lesson 1 – The First Step
A journey of a thousand miles begins with a single step. The first step requires overcoming inertia; once taken, the other steps follow naturally.
Meditation is a lifetime’s endeavour. It is simple, yet not easy. Discipline, patience, and perseverance are essential companions on this journey.
Taming the monkey mind is no small feat. The body, unaccustomed to stillness, resists. The ceaseless inner noise makes silence and composure challenging to achieve. We are habituated to constant motion, glancing here and there. Sitting quietly with closed eyes feels unnatural at first.
And yet, our determination to meditate like the Buddha propels us forward.
Preparing for Meditation
Choose Your Space:
Find a quiet location, neither too bright nor too dim.
Ensure it is well-ventilated, but avoid excessive wind.
Timing:
Early morning is ideal for meditation.
Attire:
Wear comfortable, breathable clothing. Use woollens or a shawl in colder weather.
Setup:
Spread a mat or carpet on the floor and place a small cushion to sit on.
Sit comfortably with legs folded crosswise.
Keep your back and head straight but relaxed.
Close your eyes and let yourself unwind.
Settling into Stillness
Begin by simply sitting. There is no urgency, no tasks to perform.
With your eyes closed, listen to the ambient sounds around you. Passively observe without focusing.
Turn your attention inward. Observe yourself without judgement.
Allow everything to settle naturally. You are not required to ‘do’ anything. Simply be.
If discomfort arises:
Adjust your posture as needed. If you feel like scratching or moving slightly, go ahead.
Small irritations may surface—acknowledge them and let them pass.
After this initial phase of adjustment:
Aim for calmness and stillness.
Strive to remain as motionless as possible.
The first goal is to become accustomed to sitting in this posture. This foundation is essential for deeper practice.
Closing the Session
When ready, gently open your eyes and rise from your seat.
This may feel like a humble beginning, but the foundation for a robust meditative practice lies in mastering the sitting posture. Your spine should be erect, your head aligned, and your eyes closed as you cultivate awareness.
Initially, aim for ten to fifteen minutes of sitting practice. Do not worry about achieving anything else at this stage. Once you feel confident and comfortable, we will proceed to the next step.
In the words of the Buddha:
“Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.”
Remember, this is a step-by-step guide to meditation. Let us advance slowly and steadily, one breath at a time.
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem Eternal QuestWe extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – टूट गए अनुबंध सभी हैं…।
रचना संसार # 38 – गीत – टूट गए अनुबंध सभी हैं… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “…तो मुश्किल होगी“।)
अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी श्री प्रदीप शर्मा
हम आम लोगों की मुश्किलें कुछ अलग किस्म की होती हैं, मसलन कभी जेठ की भरी दोपहर में लाइट चली जाए अथवा कड़ाके की ठंड में गीज़र खराब हो जाए। लेकिन शायर कुछ अलग किस्म की मिट्टी के बने होते हैं और उनकी मुश्किलों की तो बस पूछिए ही मत।
कौन किससे प्यार करे, यह उसका जाती मामला होता है, दुनिया इसे चाहत का खेल कहती है। हमारे साहिर साहब तो वैसे भी बड़े दिल वाले हैं, उनको क्या फ़र्क पड़ता है क्योंकि उनका तो पहला प्यार ही शायरी है।।
वे कितनी आसानी और दरियादिली से कह जाते हैं ;
तुम अगर मुझको ना चाहो
तो कोई बात नहीं ..
यह कोई छोटी बात नहीं। यह बतलाता है कि वे भी सामने वाले की पसंद नापसंद की कद्र करते हैं, ठीक है ;
तुम मगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं
मेरी बात और है
मैंने तो मोहब्बत की है ..
लेकिन नहीं, यहां हमारे साहिर साहब एकदम पलटी मार देते हैं। वे एकदम कह उठते हैं ;
तुम किसी और को चाहोगी
तो मुश्किल होगी …
अब क्या मुश्किल होगी, कौन सी आफत आ पड़ेगी अथवा कौन सा पहाड़ टूट जाएगा।अरे भाई साफ साफ क्यों नहीं कहते, दिल टूट जाएगा, मैं बर्बाद हो जाऊंगा। लेकिन नहीं, यहां भी शराफत ओढ़, कह दिया, तो मुश्किल होगी।।
बात यहां खत्म नहीं होती, यहां से तो शुरू होती है। आप फरमाते हैं ;
अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं
बात तोड़ी भी नहीं तुमने बनाई भी नहीं
ये सहारा भी बहुत है मेरे जीने के लिये
तुम अगर मेरी नहीं हो तो पराई भी नहीं
मेरे दिल को न सराहो तो कोई बात नहीं
गैर के दिल को सराहोगी, तो मुश्किल होगी ..
तुम हसीं हो, तुम्हें सब प्यार ही करते होंगे
मैं तो मरता हूँ तो क्या और भी मरते होंगे
सब की आँखों में इसी शौक़ का तूफ़ां होगा
सब के सीने में यही दर्द उभरते होंगे
मेरे ग़म में न कराहो तो कोई बात नहीं
और के ग़म में कराहोगी तो मुश्किल होगी ..
इतना ही नहीं, जरा आगे देखिए ;
फूल की तरह हँसो, सब की निगाहों में रहो
अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो
मुझको वो दिन न दिखाना तुम्हें अपनी ही क़सम
मैं तरसता रहूँ तुम गैर की बाहों में रहो
तुम अगर मुझसे न निभाओ तो कोई बात नहीं
किसी दुश्मन से निभाओगी तो मुश्किल होगी ..
हर इंसान में एक पजेसिव इंस्टिंक्ट होती है। जो मेरा नहीं हो सका, वह किसी का भी ना हो। आम आदमी पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ सकता है, वह देवदास भी बन सकता है। लेकिन जो लोग संजीदा होते हैं, वे ही कवि अथवा शायर बन पाते हैं।
साहिर भले ही एक कामयाब शायर हों, लेकिन अमृता की तरह खुलकर उन्होंने कभी अपने प्यार अथवा दर्द का इज़हार नहीं किया। आप कह सकते हैं, यही तो फर्क है, एक पुरुष और नारी में। कहीं भावुकता और समर्पण है तो कहीं ग़मों से समझौता करने का गुर अथवा दिल पर पत्थर रख लेने की मजबूरी। शायद यही फर्क है साहिर – अमृता और सुरैया – देवानंद में।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना वतन के गीत।)