हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 590 ⇒ दांत, खाने और दिखाने के ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दांत, खाने और दिखाने के।)

?अभी अभी # 590 ⇒ दांत, खाने और दिखाने के… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, हम जिन दांतों से खाते हैं, वही दांत दिखाते भी हैं। वैसे भी बत्तीस दांत कम नहीं होते एक आदमी के लिए। लेकिन हाथी के दांत खाने के अलग होते हैं और दिखाने के अलग, यानी जनाब गजराज के पास दांतों के दो सेट्स होते हैं, आप चाहें तो उन्हें outer teeth और inner teeth भी कह सकते हैं। बाहर के दो दांत हाथी दांत के होते हैं और अंदर के दांत सिर्फ हाथी के होते हैं। कहते हैं, शेर के दांत गिनना आसान नहीं, लेकिन हाथी के अंदर के दांत, फिर भी कोई नहीं गिनता।

खुदा मेहरबान तो हाथी पहलवान ! मनुष्य की तुलना में ईश्वर ने हाथी को अधिक विशाल और ताकतवर तो बनाया ही है, खाने और दिखाने के दांतों से नवाजा भी है। चलो, हमारी हाथी की तुलना में एक ही बत्तीसी सही, हाथ तो भगवान ने दो दो दिए हैं, और उधर नाम के हाथी और हाथ एक भी नहीं। एक सूंड लेकर घूमते फिरो जंगल जंगल।।

इतना बड़ा हाथी, फिर भी देखो उसकी किस्मत, उस पर सवार महावत और अंकुश ही जिसका रिमोट कंट्रोल। कहावत है, मरा हाथी भी सवा लाख का होता है, लेकिन बेचारा जिंदा हाथी, जब बाजार में निकलता है, तो एक एक पैसा अपनी सूंड से उठाकर अपने मालिक को देता है। और मालिक हाथी मेरे साथी रामू को ज्ञान देता है दुनिया में रहना है तो काम करो प्यारे। हाथ जोड़ सबको सलाम करो प्यारे। बच्चों, बजाओ ताली।

हमारे खाने के दांत जितने कीमती हैं उतने ही कीमती हाथी के दिखाने के दांत हैं। हाथी की कीमत उसके दांत हैं, और हमारी कीमत हमारे दांत। हम तो अपने दांतों को सुरक्षित रख भी सकते हैं, उन्हें सड़ने और कीड़ों से बचा भी सकते हैं, लेकिन लोग हैं कि बेचारे हाथी के दिखाने वाले दांत भी नहीं छोड़ते। अगर कोई आपके दोनों हाथ तोड़ दे, तो कैसा लगे।।

ईश्वर का न्याय भी अजीब है। जिसे बल देता है, उसे बुद्धि नहीं, और जिसे बुद्धि देता है उसे बल नहीं। फिर भी अर्थ का अनर्थ हो ही जाता है, जब किसी को बल बुद्धि की जगह बाल बुद्धि दे देता है। मूक प्राणियों से पशुवत व्यवहार क्या बाल बुद्धि की श्रेणी में आता है। अपने मनोरंजन के लिए उनका शिकार करना, अपने स्वार्थ और लालच के चलते हाथियों के दांतों की तस्करी करना क्या मानवता और इंसानियत का अपमान नहीं।

कहावत में प्रतीक भले ही हाथी हो, लेकिन वास्तविकता तो यही है, इंसान के खाने के दांत और हैं और दिखाने के और। एक ओर ऊपर से शरीफ इंसान और अंदर से शैतान नहीं हैवान और दूसरी ओर कहां बलशाली लेकिन बेचारा नाम का गजराज जिसके दिखाने के दांत ही उसके लिए मुसीबत बन जाते हैं।।

इंसान को छोड़कर हर प्राणी जैसा अंदर से है, वैसा ही बाहर से है। काश, हम भी वैसे ही होते, जैसा हमें भगवान ने बनाया है। पहले भगवान ने इंसान को बनाया, आज इंसान भगवान के ही मंदिर बना रहा है।

हमारे दांत खराब हुए तो हम तो पैसा खर्च कर नई बत्तीसी बनवा लेते हैं जो खाने के काम भी आती है और दिखाने के भी। काश, हाथियों के लिए भी कोई दांत का दवाखाना होता। जब उनके भी दांतों में दर्द होता तो कोई गजेंद्र मोक्ष उनकी भी पीड़ा हर लेता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हम तो गुलाम हैं…।)

☆ लघुकथा # 57 – हम तो गुलाम हैं… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज क्या बात है सोहन तुमने जल्दी दुकान को साफ कर दिया? सारी चीज अच्छे से जमा दिया और सफेद, ऑरेंज, हरे रंग के गुब्बारे से पूरी दुकान को सजा दिया। शाबाश बहुत बढ़िया किया।

भैया मैंने बहुत अच्छा काम किया इसके बदले में आज मैं शाम को 4:00 बजे जल्दी छुट्टी करके घर जाना चाहता हूं।

दुकान के मालिक किशोर ने कहा – वह तो मैं समझ गया था कि इतने काम करने के पीछे कुछ न कुछ मतलब होगा ।

सुनो, छुट्टी तो तुम्हें 7:00 बजे ही मिलेगी। अभी मैं दुकान का सामान लेकर पास में जो परेड ग्राउंड है वहां पर जा रहा हूं। बड़े-बड़े लोगों ने बुलाया है और जल्दी-जल्दी गिफ्ट पैक करो वहां पर सबको खेलकूद के लिए उपहार दिए जाएंगे।

भैया जब आप आओगे तब मैं चला जाऊंगा?

तुमने भी क्या छोटे बच्चों की तरह रट लगाकर रखी है। मैंने कहा जल्दी नहीं जाना है। ज्यादा बकवास करोगे तो रात में 10:00 ही जाने दूंगा।

ठीक है भैया सामान पैक करके उसने गाड़ी में रख दिया।

अपनी पत्नी और बच्चों को फोन किया कि तुम लोग जाओ घूम कर आओ मैं नहीं आ सकता। दुकान के मालिक भी परेड ग्राउंड गए हैं। शाम को 7:00 बजे छुट्टी देने के लिए भैया ने बोला है। फिर हम लोग एक साथ बाहर खाना खाने चलेंगे। आज तुम बच्चों के साथ घूम के आ जाओ। कुछ सामान बच्चों को दिला देना।  मैंने कुछ पैसे बच्चों के अकाउंट में डाल दिये हैं। बिटिया सुमन ऑनलाइन पेमेंट कर देंगी। कम से कम तुम लोग तो मजा करो मेरी मजबूरी को समझो।

तभी बिटिया सुमन ने फोन लेकर कहा कि ठीक है पापा हम लोग शाम को इकट्ठे खाना खाने चलेंगे। आप हमारी चिंता मत करो।

ठीक है बेटा ध्यान से जाना। सोहन दुकान में बैठे-बैठे सोचने लगता है। देश आजाद हो गया संविधान लागू हो गया। लेकिन हम गरीबों को कभी आजादी नहीं मिलेगी। जब तक जीवन है काम करना पड़ेगा। घूमना फिरना तो बड़े रईसों का काम है। हमारे लिए कैसा जश्न?  हम तो गुलाम  हैं

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

💐 अ भि नं द न 💐

आपल्या समुहातील ज्येष्ठ साहित्यिका सौ. ज्योत्स्ना तानवडे यांना, साकव्य पुणे विभागीय मेळाव्यात काव्यलेखन स्पर्धेत, त्यांच्या ‘आनंदाचे शिंपण’ या कवितेला उत्तेजनार्थ पारितोषिक मिळाले आहे.

ई अभिव्यक्ती समुहातर्फे त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि शुभेच्छा 💐

आज त्यांची पुरस्कार प्राप्त कविता प्रकाशित करीत आहोत.

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 258 ☆ एक उनाड दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 258 ?

☆ एक उनाड दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

वयाच्या या टप्प्यावर…

वाटते फिरता येईल तोवर,

मुक्त फिरून घ्यावे,

सुख घ्यावे आणिक द्यावे !

 *

सोबती असाव्या—

आमच्याच पोरी बाळी,

आधारासाठी लागलाच जर,

हात द्यावा त्यांनी ऐनवेळी!

 *

प्रत्येक पिढीचे असते,

जगणे निश्चितच वेगळे

साधावा संवाद तरूणाईशी,

सांगावे शल्य मनीचे सगळे !

 *

 आजचा दिवस असाच,

उनाड होता—-

मस्त रेस्टॉरंट मधे भेटलो,

रुचकर जेवणासह, बोललो !

 *

अख्खा दिवस बरोबर असता,

 आलेली मरगळ गेली निघून

सऱ्याजणींच्या मनी आता

पुनर्भेटीची मंजुळ धून !

 *

या उनाड दिवसाने

सांगितले बरेच काही,

आला क्षण मस्त मानावा

उद्याचे काय? माहित नाही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आनंदाचे शिंपण… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आनंदाचे शिंपण ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

(उत्तेजनार्थ पारितोषिक प्राप्त कविता)

 ☆

माझे जीवनगाणे गमते

तृप्त मनाचे गायन मजला

मागे वळुनी पाहता दिसे

मळा समाधानाचा फुलला ||

 *

संसार करावा निगुतीने

नाती जपावी आत्मियतेने

कर्म चांगले सत्शील वृत्ती

समाजसेवा ध्यास मनाने ||

 *

वृथा कुणाला ना हिणवावे

उगा कुणाला ना दुखवावे

प्रेमभराने जीव लावुनी

स्नेहबंधही घट्ट करावे ||

 *

अहंकार कर्मास नासवी

अभिमान स्नेहास संपवी

तरतम भावा जाणुनिया

विवेकपूर्णा कृती असावी ||

 *

आला क्षण आपुल्याच हाती

मनमुक्त जगावे आनंदाने

आनंद वाटावा सकलांना

हसतमुखाने शुद्ध मनाने ||

 *

मायबाप हृदयी पूजिता

त्यांची शिकवण आचरते

असेच माझे जीवनगाणे

आनंदाचे शिंपण करते ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ नयन जादूगार… ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

☆ नयन जादूगार…  ☆ सौ शालिनी जोशी

डोळे हे कवी मनाचा आवडता विषय. अनेक अजरामर काव्यातून डोळ्यांविषयी गोड संवेदना व्यक्त झाल्या. कोणी म्हणतात ‘डोळे हे जुलमीगडे‘, तर कोण म्हणते ‘डोळ्यात वाच माझ्या ‘, क्षणभर उघड नयन’, हे नयन बोलले काहीतरी, नयन तुझे जादूगार, जे स्वप्न भाव वेडे नयनी मूर्त होते, रूप पाहता लोचनी, डोळे मोडीत राधा चाले, ही आणि यासारखी अनेक गाणी भावभावना व्यक्त करण्यासाठी डोळ्यांचा उपयोग करतात. म्हणजे नुसते बघणे एवढाच डोळ्यांचा उपयोग नसून मनातील भाव व्यक्त करण्याचे ते साधन. मनाचा आरसाच ! कधी प्रेम कधी ममता, माया, भक्ती, निरागसता, डोळ्यातून व्यक्त होते. असे शब्दविण संवाद साधणारे हे डोळे राग, लोभ, द्वेष, मोह, मत्सरही व्यक्त करतात. कुतूहलाने टकमक बघतात. रागाने वटारतात. क्रोधाने लाल होतात. आश्चर्याने मोठे होतात. नुसत्या नजरेने हात न उचलता एखाद्याकडे संकेत करता येतो. हेच डोळे कधी मादक, कधी लाजरे, कधी प्रेमळ, कधी निष्टुर, कधी लबाड तर कधी पाणीदार, सतेज, निष्पाप असतात.

असे हे विविध ढंगी डोळे तसे त्याचे रंग आणि आकार ही विविध. कोणाचे घारे तर कुणाचे काळे, निळसर किंवा तपकिरी. डोळ्याच्या रंगानुसार माणसाचा स्वभाव बदलतो. म्हणून घाऱ्या डोळ्याची माणसे लबाड असतात. प्रदेशानुसारही डोळ्यांचा आकार व ठेवण बदलते. तिबेटी लोकांचे डोळे बारीक असतात तर काही लोकांचे डोळे गोल, काहींचे बटबटीत, तर काहींचे लांबट असतात. डोळ्याला निरनिराळे प्रतिशब्द ही आहेत चक्षु, नयन, अक्ष, लोचन.

तसेच डोळा हा नुसता शरीराचा अवयव नाही. तर सौंदर्याचा मापदंड. म्हणून कमलाक्षी, कमलनयना, मृगनयना, मृगाक्षी असे याचे वर्णन करतात. नृत्यांमध्येही शरीराच्या हालचाली इतकेच डोळ्यांच्या हालचालीला महत्त्व आहे. डोळ्यांच्या नजरेच्या स्थितीवरून ध्यानाचेही प्रकार होतात खेचरी, भूचरि, साचरी, आणि अगोचरी. नाक, कान आपल्याला बंद करता येत नाही पण डोळे स्वच्छेने पापण्यांच्या संपुटात बंद होतात आणि मग माणूस बाह्य जगापासून अलिप्त होतो त्यामुळे एकांतात मनाशी व परमेश्वराची ऐक्य साधता येते.

डोळ्यावरून तयार झालेले कितीतरी म्हणी व वाक्प्रचार आपण वापरतो. उदाहरणार्थ – आंधळा मागतो एक डोळा देव देतो दोन, डोळ्यात अंजन घालणे, डोळ्यात तेल घालून बघणे, डोळ्यात प्राण आणणे, डोळे झाक करणे, डोळे भरून पाहणे, डोळे पांढरे होणे इत्यादी.

असे हे डोळे ज्याच्यामुळे आपण साऱ्या जगाच्या सौंदर्याचा, आनंदाचा, दुःखाचा, ज्ञानाचा अनुभव घेतो पण ज्याला डोळेच नसतात किंवा कार्य करण्यास सक्षम नसतात ते या सर्वाला मुकतात. बाह्य जगाशी संपर्क डोळ्याकडून तुटला तरी त्यांचे मनोधैर्य त्यांना मार्ग दाखवते. त्यांचे अंतःचक्षु इतके प्रखर असतात की डोळसालाही लाजवेल असे ज्ञान त्यांना प्राप्त होते. उदाहरणार्थ प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज. आता नेत्रदानामुळे अंधानाही दृष्टी येणे शक्य झाले आहे. ब्रेल लिपीमुळे शिक्षणाचे द्वार त्यांच्यासाठी खुले झाले आहे. एकंदरीत दृष्टी तेथे सृष्टी मग ती बाह्य असो अंतर असो.

सर्व भावना आपल्या पोतडीत लपवणारे व प्रसंगानुरू व्यक्त करणारे जादूगारच हे डोळे म्हणूनच म्हणतात, ‘डोळ्यात वाच माझ्या तू गीत भावनांचे’.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ त्याग… – भाग १ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री सुजाता पाटील ☆

सुश्री सुजाता पाटील

? जीवनरंग ?

☆ त्याग… – भाग १ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री सुजाता पाटील 

डॉ हंसा दीप

माझ्या पप्पांना जेव्हा -जेव्हा मी जाणून घेण्याचा प्रयत्न केला, तेव्हा -तेव्हा त्यांच्यापासून मी खूप लांब गेल्याच जाणवल. इतक्या दूर, जिथपर्यंत माझी पोच कधी पोचू शकत नाही. जेवढ मी माझ्या आईच्या जवळ होतो, तेवढच वडिलांपासून लांब. एक अभेद्य अशी लक्ष्मणरेषा होती, जी कधीच आम्ही दोघांनी पार करण्याचा विचार केला नाही. आई आईस ब्रेकींग चा प्रयत्न करायची. परंतु… ना कधी माझ्याकडून, व ना पप्पांच्या कडून असा उत्साह पहायला मिळाला की आमच नात सहजासहजी साकार होऊन नात्याआड येणाऱ्या भिंती तोडल्या जावू शकत.

मी हे देखील ओळखून होतो, समजून होतो, की पप्पा माझी खूप काळजी घेतात. त्यांनी आईला ताकीद देऊन ठेवली होती की माझा प्रत्येक हट्ट अथवा गरज पूर्ण कर. ह्यात पैशांची कमतरता कधीच आड आली नाही पाहिजे. माझे छंद, माझ्या प्रत्येक गरजेच्या वस्तू माझ्या जवळ असाव्यात. रोज रात्री जेव्हा मी झोपायला जाई तेव्हा कोणी तरी आल्याचा हलकासा भास होई. दरवाजाच्या बाहेरून म्हणजे उंबरठ्यावरूनच कोणीतरी आत वाकून बघून तिथूनच परत जात असे. त्या अज्ञात सावलीला मी ओळखत असे. पण ते मौन मला बोचत असे. पण बरोबर त्यानंतर आई आत येऊन माझी गादी व्यवस्थित करी, गुड नाईट बोलायची… आणि मग रात्रीच्या गडद अंधारात पुर्ण घर झोपून जायच. माझ्या सगळ्या गरजा, खाण्या-पिण्यापासून ते भावनात्मक सपोर्ट ही मला माझ्या आईकडूनच मिळत असे. म्हणूनच कदाचित ह्या गोष्टीची जाणीव झाल्यानंतर ही मी कधी महत्व दिल ‌नाही. तस पण आता मी युनिव्हर्सिटी मध्ये जात होतो. कुटंबाची जबाबदारी सांभाळण्यासाठी आई तर होतीच.

पण, आता जेव्हा आई निघून गेली तेव्हा मी त्या व्यक्तीच्या बाबतीत सखोल विचार करण्यास मजबूर झालो जे माझे वडील होते. त्यांच्या व्यतिरिक्त ह्या घरात दुसर अस कोणी नव्हतं ज्याच्या सोबत मी बोलू शकत होतो. त्यांनी मला एकट वाऱ्यावर सोडून दिल होत. मी आईला आठवताना आसव गळायची आणि मी जाणूनबुजून दुर्लक्ष करायचो. अस वाटायच, जणू आई आता येईल, माझी गादी ठीक करेल आणि मी झोपून जाईन. पप्पांच घरात असण म्हणजे माझ्यासाठी घरात नसण्यासमान होत. सिमेंट आणि वाळूने बनलेल घर एक अस घर बनल होत, जिथे हसण -ओरडण तर दूर, साधे दोन-चार शब्दांच आदान प्रदान ही होण कठिण होत. मृत्यूच्या छायेत बुडालेल घर एवढ शांत होत की बाहेरून साय साय करत वाहणारी हवा भिंतींच्या सीमारेषांना, विनाकारण दरवाजे व खिडक्यांच्या हालचालींना ही रोखठोक करत होती.

मी पप्पांना वाद विवाद घालताना जरूर पाहिल पण भांडताना बघितल नव्हत. आई मला कधी -कधी जरूर सांगायची…. ” तुझ्या पप्पांना प्रेम दाखवता येत नाही. ” मी समजू शकत नव्हतो, की माझ बोट पकडून मला चालवणारा, मला खांद्यावर बसवून फिरवणारा मनुष्य, हळूहळू माझ्याशी बोलायला कचरायला का लागला? काहीतरी बोलताना नेहमी उपदेश देण्याची पप्पांची सवय मला त्यांची उपेक्षा करण्यास मजबूर करत होती. आमच्या दोघांमधील नात हळूहळू जुन्या कापडासारख फाटत दूर होत गेल.

त्या दिवशी जेव्हा आईने शेवटचे श्वास घेतले, मी धायमोकलून ‌रडलो होतो. जवळपासच्या लोकांनी तेव्हा मला खूप धीर देण्याचा प्रयत्न केला परंतु पप्पा तेव्हा देखील माझ्या जवळ आले नाहीत. एक दीर्घ श्वास घेऊन ते निघून गेले होते. त्यांच्या डोळ्यातून एक अश्रू देखील ओघळला नव्हता. आणि इकडे आईच्या जाण्याने माझ्या दुःखाला पारावार उरला नव्हता. खर सांगू, मी आतल्या आत खदखदत होतो. क्रोधाच्या अग्नित जळत होतो. ते क्षण आज देखील मला टोचणी देत राहतात. सगळ क्रिया -कर्म एकदम शांततेत झाल. मी त्यांना उदास झालेल पाहू इच्छित होतो. अस वाटत होत की ‌हा मनुष्य खोटनाट का होईना एकदा तरी खोटखोट रडू दे. दोन -चार आसव तरी आईच्या प्रेतावर झाकलेल्या त्या कोरड्या कापडावर पडू देत. ती दुसरी -तिसरी कोण नव्हे तर ती त्यांची पत्नी होती, रात्रं- दिवस ती त्यांची सतत सेवा करायची. आईसाठी नको रडू देत, कमीतकमी एकट्याने ‌आता आयुष्य घालवाव लागणार ह्या दुःखापोटी तरी रडू देत. त्यांच हे अस गप्प राहण्याचा मी कितीतरी वेगळे अर्थ लावले होते. वाईट विचांरानी तर डोक्यात गर्दी केली होती.

आमच्या दोघांमध्ये पसरलेली जीवघेणी शांतता आणखीन गडद होत निघाली होती. जेवण -खाण सगळ अशा रितीने होत होत जशी दोन मशीन विनाआवाजाची घरात चालत आहेत. काळानुसार मी जुळवून घेतल. आईच्या इच्छेनुसार ‌मी माझ सगळ लक्ष शिक्षणात घालू लागलो.

एक महिना यंत्रवत संपून गेला. आजच्याच दिवशी आई आम्हाला सोडून गेली होती. आईच्या आठवणीत दुःखी व आळसावलेली पहाट उजाडली. पहाटे – पहाटेच एक गंभीर आवाज ऐकू आला… ” आईच्या स्मारकावर ‌फुल वाहण्यासाठी तू माझ्या ‌सोबत येणार का?”

“हो”

“नाही” अस म्हणू शकलो नाही. जायच काय ते तर मी एकटा ही जाऊ शकलो असतो. परंतु आईला दाखविण्यासाठी पप्पां सोबत जायच होत. बाप व मुलगा सोबत तिच्या जवळ आलीत की तिला खूप आनंद होईल. आणि आज जेव्हा आईच्या स्मारकावर फूल वाहत होते तर ते हसत होते. ते पाहून माझ मन अगदी व्याकूळ झाल. इतक्या दिवसांपासून आत साचलेला राग एकदम उफाळून बाहेर आला…. “पप्पा तुम्ही आईच्या जाण्यान आनंदी आहात!” 

“हो, बाळा मी खूप आनंदी आहे. “

मी तिरस्काराने त्यांना पाहू लागलो. नाकपुड्या आपोआप फुलून आल्या. त्यांच्या ह्या वक्तव्यावर माझ्या शरीरातला प्रत्यांग क्रोधाग्निने पेटून उठला. त्यांना ते समजल आणि म्हणाले,…. ” मी ह्यासाठी आनंदी आहे कारण मी तुझ्या आईवर जीवापाड प्रेम करायचो आणि मी हे कदापि सहन करु शकलो नसतो…. की आज तिच्या जाण्यान जे दुःख मी सहन करतोय ते दुःख, ती तळमळ माझ्या जाण्याने तिला सहन करावी लागली असती.

– क्रमशः भाग पहिला.

मूळ हिंदी कथा : उत्सर्जन

मूळ हिंदी लेखिका : डॉ  हंसा दीप, कॅनडा

मराठी अनुवाद : सुश्री सुजाता पाटील

अणुशक्ती नगर मुंबई

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “गाणं आपलं आपल्यासाठी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

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☆ “गाणं आपलं आपल्यासाठी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

(एक वेगळचं गाणं आणि त्यामागचा वेगळाच दृष्टीकोन अगदी त्याच्या पार्श्वभूमीसह, काही प्रतिमांसह…)

न मन बेहूदा गिरदे…

शब्द माणसाला बनवतात का माणूस शब्दांना बनवतो? या प्रश्नाचे ठाम उत्तर मी तरी देऊ शकणार नाही पण इतक मात्र नक्की की शब्द तुमच्या भावनांना आकार देतात, त्यांना तुमच्या आवाक्यात आणतात… आणि जश्या जश्या या भावना अधिक तरल, अस्तित्वाच्या जवळ जाणाऱ्या आणि कुठेतरी जीवनाचा अर्थ शोधण्याच्या जवळ जातात तेव्हा त्या भावना कवितेत आणि त्यापुढे गीतात मांडणे हे अत्यंत कठीण होऊन जाते …आणि येथेच आपल्याला भेटतात जगात झालेले अनेक महान कवी, गायक आणि गीतकार … आणि जेव्हा तुमच्यात या भावना उत्पन्न होतात आणि त्यांना आकार देणारे एखादे गाणे कानावर पडते तेव्हा ते गाणे तुमच्या जणू डीएनए चा एक भाग बनून जाते…आणि जेव्हा जेव्हा त्या भावना ट्रिगर होतील तेव्हा तेव्हा ते गाणे तुमच्या मनात तितक्याच ताकदीने वाजल्याशिवाय राहणार नाही…

अशीच एक गोष्ट माझ्या मनात कोरल्या गेलेल्या एका गाण्याची…जे खरेतर माझ्या मातृभाषेत नसून फारसी भाषेतील आहे व गाण्याचे शब्द हे ८०० वर्षांपूर्वी लिहिले गेले आहेत..

ऑगस्टचा महिना होता… एका फोटोग्राफी एक्सपीडिशन साठी माझ्या भावाच्या ग्रुप बरोबर लेह लडाख ला गेलो होतो. तसा मी एखाद्या ग्रुप बरोबर जाण्याचा प्रसंग खूप वर्षांनी आला म्हणजे कॉलेज नंतरच… आता चाळीशी जवळपास आली होती. अनुभवांचे गाठोडे काठोकाठ भरत आले होते… त्यातून लेह लडाख ची अगदी प्रिहिस्टोरिक वाटावी अशी टेरेन… उंचच उंच पण खडकाळ असे सुळके तर कुठे वाळवंट… थंड आणि रखरखीत कोरडे… पण मधूनच वाहत जाणारी एक महान नदी… जिच्यावरून आपल्या अख्या देशाच्या अस्तित्वाची ओळख पडली ती म्हणजे सिंधू नदी… हा सगळा नजरा कुठेतरी आयुष्याशी मेळ खात होता… उंचच उंच ध्येय आणि त्या कडे जाणाऱ्या रखरखीत खडकाळ वाटा. आणि या साऱ्यात आपल्या सोबत राहते ती म्हणजे युगानुयुगे वाहणारी अनेकांच्या लेखणीतून वाहिलेली मानवतेच्या महान तत्त्वांची एक विचारधारा… आपल्यातले माणूसपण जिवंत ठेवणारी… जणू ती सिंधू नदीच…

अश्या सगळ्या विचारांचा कल्लोळ मनात लाटेसारखा उचंबळत होता आणि होता होता शेवटचा दिवस आला. शेवटचा दिवस हा लेह चा जुना पुराणा बाजार बघायचा होता पण हे ग्रुपने जायचे नसून एकट्याने जायचे होते. मी ठरवले की कॅमेरा आज बाजूला ठेवायचा आणि फक्त जनसागरात डुबून जायचे. आणि बाजारात पाय ठेवताच सगळ्या भावना जणू एका बिंदूत एकत्र झाल्या आणि कानात आपोआप घुमू लागले, रुमी नि लिहिलेले आणि जगप्रसिद्ध कव्वाली गायक नुसरत फतेह अली खान यांनी गायलेले…

“न मन बेहूदा गिरदे कुचाओ बाजार मी गर्दम…”

… याचा अर्थ “ मी या बाजाराच्या गल्ली बोळात निरर्थक फिरत नाहिये…”

या गाण्याची थोडक्यात पार्श्वभूमी अशी आहे- “रुमीचा सद्गुरू शम्स हा रुमीला ज्ञान दिल्यानंतर अचानक एक दिवस गायब झाला काहिजण म्हणतात त्याचा खून झाला पण नक्की इतिहासाला माहीत नाही.. शम्सच्या विरहात रुमी अत्यंत दुःखी होता आणि असाच एक दिवस वेड्यासारखा तो त्याला शोधायला बाजारात गेला असता तिथे त्याच्या कानावर सोनाराच्या दुकानातून सोन्यावर ठोकल्याचे लयबद्ध आवाज आले आणि तिथे त्याला ही कविता स्फुरली व तो बेभान होवून नाचू लागला. “

आपणही असंच काहीतरी शोधतोय का आयुष्यात.. अगदी हाच विचार त्या वेळी माझ्या मनात दाटला आणि मनात हे गाणे वाजू लागले… किती फिरलोय आपण आयुष्यात, कुठे कुठे गेलोय किती माणस आयुष्यात आली आणि निघूनही गेली… काही काही मागे सोडून गेली…या सगळ्यांचा दुआ जोडू पाहतोय का… या सगळ्या अनुभवातून कोणी आपल्याला शिकवले… त्याला मी शोधतोय का?त्या प्रियकराला त्या प्रेयसीला मी शोधतोय का?… जी मला कधीच सोडून गेली नाही… वेगवेगळ्या जागी वेगवेगळ्या लोकात भेटतच राहिली… शिकवतच राहिली… जाणवतच राहिली तिची उपस्थितीही आणि अनुपस्थितीही…” मजाके आशिकी दारम पये दिदार मी गर्दम…” (एखाद्या आशिक सारखा मी त्याला शोधतोय)

…. आणि मीही बेभान होऊन त्या लेहच्या बाजारात त्या अनोळखी डोळ्यात ओळख शोधत फिरू लागलो…

शेवटी पाय थकले आणि डोळ्यात दोन अश्रुंचे थेंब जमा झाले,

… … एक रुमीसाठी आणि एक माझ्यासाठी…

आणि मनात गुंजली ती आर्त ओळ..

“बया जाना जानेजाना, बया जाना जानेजाना…”

 ये ना जानेजाना कुठे आहेस…. ये ना ….

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य  ☆ — वाऱ्याचे शहर — शिकागो… ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

? इंद्रधनुष्य ?

☆ — वाऱ्याचे शहर — शिकागो… ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

सहा वेळा अमेरिकेत जाऊन मी बरीच शहरे पाहिली. तशी या वर्षांत देखील पाहिली. संपूर्ण कॅलिफोर्निया पाहिला. पण मनात भरले ते फक्त शिकागो शहर !! विंडी सिटी म्हणजे वाऱ्याचे शहर म्हणून प्रसिद्ध असलेले हे शहर मिशिगन राज्यात मिशिगन लेक या समुद्रासारख्या मोठ्या सरोवराकाठी वसले आहे. खूप वर्षांपासून मला ते सुंदर शहर पहायचे होते. यावर्षी तो योग आला.

हे शहर पाहण्याचे मुख्य कारण केवळ स्वामी विवेकानंद हे होय. शिकागोमध्ये झालेली सर्व धर्म परिषद, फक्त गाजली ती स्वामीजींनी केलेल्या भाषणामुळेच !!!! प्रत्येक भारतीयाला या गोष्टीचा प्रचंड अभिमानच आहे.

The Art Institute of Chicago या नावाने प्रसिद्ध असलेल्या बिल्डिंगमध्ये स्वामीजींनी सर्व धर्म परिषदेत जे व्याख्यान दिले, ते जगप्रसिद्ध आहे. जगभरात खूप सर्वधर्म परिषद झालेल्या आहेत. पण ही सर्वधर्म परिषद आजतागायत सर्वांच्या स्मरणात आहे– ते फक्त स्वामी विवेकानंद यांच्यामुळेच!!!!

या परिषदेस हिंदू धर्माच्या एकाही प्रतिनिधीला निमंत्रण नव्हते. या आधीच्या कुठल्याही सर्वधर्म परिषदेत हिंदू धर्माचा एकही प्रतिनिधी नसे. पण स्वामीजी या परिषदेसाठी भारतातून कसेबसे शिकागोला पोहोचले. खूप प्रयत्न करून, असंख्य लोकांना भेटून शेवटी त्यांनी या सर्व धर्म परिषदेत प्रवेश मिळविला. आर्थिक मदत मिळविली आणि बोटीत बसून दोन महिन्यांनी ते शिकागोत पोहोचले. अर्धपोटी व प्रसंगी उपाशी राहून त्यांनी दिवस काढले.

सर्वात शेवटी पाच मिनिटे भाषण करण्याची त्यांना परवानगी कशीबशी मिळाली. त्यांनी आपला धर्मग्रंथ म्हणून श्रीमद् भगवद्गीता नेलेली होती. तीही आयोजकांनी सर्व धर्मग्रंथांच्या खाली ठेवली. सर्वांची व्याख्याने झाल्यावर स्वामीजी बोलायला उभे राहिले. इतर सर्वजण सुटा बुटात होते. एकटे स्वामीजी भगव्या वस्त्रात होते.

त्यांनी सुरुवातीलाच शब्द उच्चारले “माय ब्रदर्स अँड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका” !!!!!

आणि जो टाळ्यांचा कडकडाट झाला, तो अडीच मिनिटे त्या भल्या मोठ्या सभागृहात निनादत होता. पुढे पाच मिनिटांचे भाषण दीड तास लांबले. पूर्ण सभागृह दीड तास मंत्रमुग्ध झाले होते. स्वामीजींनी इतिहास रचला होता. त्यात त्यांनी हिंदू धर्माविषयी अनेक महत्त्वाच्या गोष्टी सांगितल्या. आणि हिंदू धर्माविषयी इतरांच्या मनातील गैरसमज दूर केले. जगात हिंदू धर्माला मानाचे स्थान स्वामीजींनी मिळवून दिले. शेवटी त्यांनी सांगितले की, “हा माझा धर्मग्रंथ– सर्व धर्मग्रंथांच्या खाली ठेवला आहे. याचे कारणच असे आहे की, जगातील सर्व धर्मांचे व धर्मग्रंथांचे तत्वज्ञान याचे मूळच या भगवद्गीते मध्ये आहे. “

याच कारणाने ही सर्व धर्म परिषद गाजली. ती जिथे झाली ती इमारत आम्ही पाहिली. तिथे एका रूम मध्ये स्वामीजींविषयी, त्या परिषदेविषयी सर्व पुस्तके आहेत. स्वामीजींची छोटी मूर्ती तिथे ठेवलेली आहे. बाहेर हमरस्ता जो आहे, त्यावर “स्वामी विवेकानंद पथ” अशी इंग्रजीतली ठळक निशाणी आहे. ती पाहून अभिमानाने ऊर भरून आला.

शिकागो जवळच्याच नेपरविले या गावाकडे जाताना वाटेवरच स्वामी विवेकानंदांच्या स्मृती जपणारा “विवेकानंद वेदांत सोसायटी” नावाचा आश्रम आहे. आजूबाजूस संपूर्ण जंगल भोवती असून, मध्ये हा आश्रम होता. आश्रमात पोहोचेपर्यंत रस्ता चांगला असूनही, कुठेही माणूसच काय, पण गाडीही दिसत नव्हती.

आम्ही बाहेर गाडी पार्क केली आणि बंद दार उघडून आत गेलो. तिथे मात्र दोघे तिघेजण होते. त्यांनी आम्हाला तेथील मोठी लायब्ररी, स्वयंपाक घर डायनिंग हॉल सगळं दाखवलं.

लिफ्टने वरच्या मजल्यावर गेलो. तिथे एक ध्यानमंदिर आहे. ते एक मोठे सभागृह आहे. 100 जण बसतील एवढ्या खुर्च्या तिथे आहेत. एखाद्या देवघरात बसल्यानंतर शांत वाटावे तसे इथे वाटते. देवघरासारख्या या ध्यानमंदिरात आम्ही काही वेळ शांत बसलो. तिथे — विवेकानंद सर्व धर्मामधील काहीतरी चांगली तत्त्वज्ञाने आहेत– असे मानत होते. त्यामुळे अनेक धर्मांची प्रतीके तिथे लावलेली आहेत.

बाहेरच्या हॉलमध्ये स्वामी विवेकानंदांचे पूर्ण चरित्र, काही चित्रे, फोटो आणि माहिती या स्वरूपात भिंतीवर लावलेले आहे. त्यामध्ये स्वामीजी अमेरिकेत कसे आले, त्या सर्वधर्म परिषदेत भाषण देण्यासाठी ते कुणाकुणाला भेटले, कोणी त्यांना मदत केली तर कोणी झिडकारून लावले. शेवटी कशीबशी परवानगी स्वामींना मिळाली. ही सर्व माहिती व फोटो आम्ही वाचले, आम्ही पाहिले. तिथेच आम्हाला स्वामीजींच्या विषयी खूप माहिती मिळाली आणि अभिमान वाटला.

अजून एक The Hindu Temple of Greater Chicago या नावाने प्रसिद्ध असलेले मंदिर आहे. इथे अनेक देवतांचे छोटे छोटे गाभारे आहेत. अमेरिकेत जी जी हिंदू मंदिरे पाहिली तिथे असेच स्वरूप दिसते. या ग्रेटर शिकागो मंदिरात मुख्य गाभाऱ्यात श्रीराम, लक्ष्मण, सीता यांच्या मूर्ती आहेत. हिंदू धर्म प्रसाराचे हे एक मोठे केंद्र आहे. खूपच मोठा विस्तार आहे या मंदिराचा!!! 

मंदिर जरा चढावर आहे. येण्याच्या वाटेवर खूप सुंदर परिसर आहे. एके ठिकाणी उजव्या हाताला एक मोठी व रेखीव सुंदर मेघडंबरी आहे. त्यात स्वामी विवेकानंदांचा पूर्णाकृती पुतळा आहे. तो पाहून खूप आनंद आणि समाधान झाले.

परक्या देशातही आपल्या सनातन धर्माची ध्वजा स्वामीजींनी आजही फडकवत ठेवली आहे. आणि त्या देशाने या स्मृती खूप चांगल्या रीतीने जपल्या आहेत. याचा आम्हास नितांत गर्व आहे.

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ संवाद : स्वतःचा स्वतःच्या मनाशी… – लेखक: अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

📖 वाचताना वेचलेले 📖

संवाद : स्वतःचा स्वतःच्या मनाशी… – लेखक: अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर

बायका इतरांशी बोलत नाहीत पण कितीतरी लाख पटीने त्या स्वतःच स्वतःच्या मनाशी बोलत असतात. काय बरं बोलत असतील त्या ? बघू तरी….

सकाळी झोपेतून उठताना..

आत्ता पावणेसहा वाजले आहेत. सहा वाजता उठेन. पंधरा मिनिटे जरा पडून राहते नाहीतर दिवसभर तेलाच्या घाण्याला बैल जुंपली जातात तसेच दिवसभर मी कामाला जुंपलेलीच असते. तेवढीच पंधरा मिनिटे मला गादीचा सहवास मिळेल. दिवसभर दोघींनाही एकमेकांचा विरह सहन करावाच लागतोच. हा घड्याळाचा काटा कसा दमत नाही कोण जाणे… वाजले सहा.. आता मात्र मला उठावेच लागेल.

दात घासताना..

कोणती भाजी करावी. फ्रिजमध्ये तीन भाज्या असतील. कोबी मला आवडत नाही, वांगं ह्यांना आणि कारलं मुलांना.. जाऊ दे, कोबीचीच भाजी करते. असंही आपल्याला आवडीनिवडी राहिल्याच कुठे?

गॅसजवळ गेल्यावर..

मस्तपैकी चहा टाकते. गॅसजवळ किती बरं वाटत आहे या थंडीच्या दिवसांत. तेल संपत आले आहे. लवकरच त्याची पूर्तता करावी लागणार.. कढईत जरा तेल जास्त झालेल दिसतंय.. थोडं काढून ठेवते नाहीतर “भाजीत तेल खूप झालं” येईल फोन ह्यांचा.. असंही तेल कमीच पाहिजे. माझी दीदी तर फोडणीचे दाणे भिजतील एवढेच तेल वापरते!

आंघोळीला जाताना..

कोणता ड्रेस घालू? कालच पिवळा ड्रेस घातला होता. आज बांधणीचा घालते. कुठे गेली ओढणी? सापडत नाही. नेहमी असेच होते.. कितीही कपडे नीट ठेवले तरी वेळेवर सापडत नाही. पिवळा ड्रेसच अडकवते आता!

डबा भरताना..

तीन पोळ्या घेऊ का एखादी कमी करू? वजन वाढतच चालले आहे. थंडीचे दिवस आहेत, भूक खूप लागते. तीनच पोळ्या घेते. भाजी कशी झाली देव जाणो.. चटणीची वाटी राहू दे बाजूला. वेळ झाली, निघायला हवं लवकर..

कूलुप लावताना..

गॅस, गिझर, लाईट बंद केले ना मी? पुन्हा बघावे तर वेळ जाईल.. सगळे चेक केलेले असते पण कुलूप लावताना नेहमी अशीच द्विधा अवस्था होते माझी..

गाडी चालू करताना…

ये बाई तू नको नखरे करुस.. माहित आहे मला थंडी खूप आहे. तू जर वेळेत चालू झाली नाहीस तर नक्कीच लेट मार्क लागेल. गणपती बाप्पा मोरया!!! चालू हो गं बाई लवकर…

गाडी चालवताना..

श्रीराम जय राम जय जय राम 

श्रीराम जय राम जय जय राम…. खूप लोड आहे कामाचा. आजच्या आज मला करावीच लागणार आहेत..

पंचिंग करताना..

हूश्य!!!.. झालं गं बाई वेळेत पंचिंग… पडला आजचा दिवस पदरात.. लेट मार्क लागला नाही ते बरं झालं.. अजून वीस बावीस दिवस जायचे आहेत.. कधी काय अडचण येईल आणि लेट मार्क लागेल सांगता येत नाही.. वेळेतच आलेलं बरे…

जेवताना..

भाजी मस्त झाली आहे आज.. ह्यांना नक्कीच आवडेल, फोन किंवा मेसेज येईलच ह्यांचा..

चार वाजता चहा घेताना..

कधी यायचा बाई चहा.. आज मात्र चहाची खूपच गरज आहे. चहा टाळायला पाहिजे.. बसून काम आणि त्यात साखरेचे सेवन.. वजन वाढायला तेवढेच पुरेसं. कमी होताना होतं की 100 ग्रॅम 200 ग्रॅमने आणि तेही खूप खूप मेहनतीने.. किती मन मारू.. घेते बाई चहाचा आस्वाद..

संध्याकाळी स्वयंपाक करताना..

कोणती भाजी करू? कंटाळा आलाय.. करते नुसती मुगाच्या डाळीची खिचडी, कढी किंवा टोमॅटोचे सार.. नको नको.. नुसत्या खिचडीवर नाही भागायचे. करतेच सगळा स्वयंपाक..

किचन ओटा आवरताना..

पडली तेवढी भांडी धुवून टाकते.. जेवण झाल्यावर जाम कंटाळा येतो भांडी घासायला..

झोपताना..

बघते जरा थोडावेळ मोबाईल.. (स्टेटस बघत असताना) किती एन्जॉय करतात या बायका.. कसा वेळ मिळतो यांना देव जाणो. मला कुठे बाहेर जायचं म्हणलं की किती गोष्टी मॅनेज कराव्या लागतात.. त्यापेक्षा बाहेर पडायला नको असं वाटतं.. हीच्या भावाचं लग्न झालेलं दिसतंय.. गळ्यात काय सुंदर दागिना घातलाय.. बघते जरा झूम करून. ही गेलेली दिसते बाहेर कुठेतरी फिरायला. मस्त दिसते जिन्समध्ये… हीच्या घरी झालेलं दिसते हळदी कुंकू, मला नाही बोलावले… पुढचे फोटोच नको बघायला… अरे बाबा कशाला लटकतोय ट्रेनमध्ये.. जरा जाऊन बस की आत ! कशाला शायनिंग मारतोय..

झोप आली असताना..

चला झोपा लवकर आता उद्या सकाळी पुन्हा लवकर उठायचंय..

मध्यरात्री जाग आली असताना..

आत्ताशी तीन वाजले आहेत. मला वाटले सहा वाजले. अजून तीन तास झोपायला मिळेल आपल्याला…

आनंदित होऊन रग ओढून गाढ झोपून जाणारी मी आणि माझ्यासारख्या असंख्य स्त्रिया..

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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