मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ नातवंड…  कवी : अज्ञात  ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ नातवंड…  कवी : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित

नातवंड म्हणजे काय चीज असते

आजी-आजोबांमध्ये दडलेलं सॅण्डविच असते

 *

नातवंड म्हणजे काय चीज असते

आई रागावली की आजीकडील धाव असते

 *

नातवंड म्हणजे लोण्याचा गोळा

पाळण्यातून अलगद काढून घ्यावा

 *

नातवंड म्हणजे गुलाबाची पाकळी

पुस्तकात जपलेली पानावरची जाळी

 *

नातवंड म्हणजे विड्यातला गुलकंद

सगळ्या चवींना बांधतो एकसंध

 *

नातवंड म्हणजे खव्याचा पेढा

अखंड आनंद घ्या हवा तेवढा

 *

नातवंड म्हणजे त्रिवेणी संगम

तिसऱ्या पिढीचा असतो उगम

नातवंड म्हणजे आनंद तरंग

आनंदाच्या डोहात डुंबते अंतरंग

कवी : अज्ञात

प्रस्तुती : सौ. स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ बापू, तुम्ही ग्रेटच – लेखिका : सुश्री नीलम माणगावे — परिचय : सुश्री आशा धनाले ☆ प्र्स्तुती – सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ बापू, तुम्ही ग्रेटच – लेखिका : सुश्री नीलम माणगावे — परिचय : सुश्री आशा धनाले ☆ प्र्स्तुती – सुश्री त्रिशला शहा ☆ 

पुस्तक : “ बापू, तुम्ही ग्रेटच ! “ 

लेखिका–नीलम माणगावे

प्रकाशक : शब्दशिवार प्रकाशन

पृष्ठे ११८

किंमत–रु. १५० / – 

बापू, तुम्ही ग्रेटच ‘ ….  लेखिका नीलम माणगावे यांचं हे ७५ वं पुस्तक. याचा प्रकाशन सोहळा नुकताच पार पडला.

ही एक दीर्घ कविता आहे. याचे लेखन एका वेगळ्याच पद्धतीने करण्यात आलं आहे. राग, लोभ, मद, मत्सर हे मानवी स्वभावाचे कंगोरे लेखिकेने बापूंच्या चरखा, चष्मा व लाठी या जवळच्या वस्तूंना बहाल करुन त्यांचा बापूंशी संवाद घडवून आणला आहे. बापूंचे जीवनकार्य व मूल्ये या तीन वस्तूंच्या तोंडून समजतातच. 

शिवाय त्यांच्या नंतरच्या काळात जे घडले आहे, घडत आहे त्या प्रसंगी बापू कसे वागले असते हेही दृग्गोचर होते. त्यावेळी त्यांना कारस्थानाने मारले. पण खरेतर ते अजूनही मरत नाहीत, अशा बापूंची वेगळी ताकद आजही विरोधकांच्या नाकावर टिच्चून त्यांच्या मानगुटीवर बसली आहे हे लेखिकेचे म्हणणे पटते.

बापूंच्या स्मारकाला भेट देण्याच्या प्रसंगी राजकारण्यांद्वारे चरखा उलटा फिरवला गेला यावरून देश उलट्या दिशेने म्हणजे सतराव्या शतकात मनुवादात नेऊन ठेवायचा आहे की काय? अशा संभाव्य स्थितीची इथे वाच्यता करण्यात आली आहे. थोडक्यात, गांधी जयंती दिवशीसुद्धा सत्य, अहिंसा, संयम, त्याग या  गांधीमूल्यांना अडथळे निर्माण करणारे विषाणू समजून मारुन टाकले जाते. 

…. असे असले तरी बापूंचे आचारविचार संपणार नाहीत हे प्रतिपादन करताना चरखा, चष्मा, लाठी या प्रतिकात्मक पात्रांनी बापूंच्यावरचा अन्यायही इथे जोरदारपणे व्यक्त केला आहे. यावेळी त्यांच्या क्षोभाला बापूंनी आपल्या नेहमीच्या  संयमित उत्तरांनी शांत करताना ‘ वाणीतून विवेक हरवला तर ती हिंसाच ठरते ‘ हे सांगितले आहे.

अशी ही आगळीवेगळी दीर्घ कविता म्हणजे सध्याच्या सरकारी प्रणालीला दाखविलेला एक आरसाच आहे. गांधी-प्रेमींना ‘ बापू तुम्ही ग्रेटच ‘ हे पुस्तक वाचून एक वेगळी अनुभूती मिळणार हे नक्की.

परिचय : सुश्री आशा धनाले,

मो ९८६०४५३५९९

प्रस्तुती : सुश्री त्रिशला शहा

मिरज

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ धन्य तू गं बहिणाई… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य ?️?

☆ धन्य तू गं बहिणाई ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

निरक्षर तुज कसे म्हणावे

शब्द खजिना तुजपाशी

सरस्वतीचा हात शिरावर

चराचराशी संवाद साधशी ….. 

*

  चुलीवरचा तवा सांगतो

  तुजला जीवन तत्वज्ञान

  सुगरणीचा खोपा बोलतो

  तुला ग सामाजिक ते भान …… 

*

  कपाळ पडले उघडे पण

  सृजनतेने  शेतात  कष्टता

  सोने पिकवीत तू राबता

  सहजतेने सुचल्या कविता …… 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #259 ☆ दर्द और समस्या… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख दर्द और समस्या। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 259 ☆

☆ दर्द और समस्या… ☆

“दर्द एक ऐसा संकेत है कि तुम ज़िंदा हो; समस्या एक संकेत है कि तुम मज़बूत हो;- परिवार, मित्र और संगठन एक संकेत हैं कि तुम अकेले नहीं हो’ में जीवन जीने की कला का संदेश निहित है। दु:ख हमारे जीवन का अभिन्न अंग है जो हमें अपने-परायों से अवगत कराता है। यह जीवन की कसौटी है जो मित्र-शत्रु, उचित-अनुचित, भाव-सद्भाव व मानव में निहित दैवीय गुणों प्रेम, स्नेह, करुणा, सहानुभूति व संवेदनशीलता का परिचायक है।

दर्द हमारी सहनशीलता की परीक्षा लेता है और मूल्यांकन करता है कि हम कितने संवेदनशील है तथा हमारी सोच कैसी है? छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान से अवगत कराती है। यदि सुनना सीख लिया तो सहना सीख जाओगे और सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। सो! दर्द हमारे जीवित होने का प्रमाण है और समस्या हमारी दृढ़ता की परिचायक है। समस्याएं हमारी परीक्षा लेती हैं। यह हमें अपनी आंतरिक शक्तियों से अवगत कराती हैं तथा उनसे हमारा साक्षात्कार कराती हैं कि हममें कितना धैर्य, साहस व दृढ़ता कायम है? हम विषम परिस्थितियों का सामना करने में कितने सक्षम है? समस्याएं हमारी प्रेरक हैं, जीवन का आधार व पथप्रदर्शक हैं। यदि राहों में अवरोध ना हो तो जीने का आनंद ही नहीं आता। हम अपनी जीवनी शक्ति अर्थात् ऊर्जा को पहचान नहीं पाते। सो! यदि जीवन समतल धरातल पर चलता रहता है तो हम अंतर्मन में निहित शक्तियों से अवगत नहीं हो पाते तथा जीने का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं कर सकते।

समय व प्रकृति परिवर्तनशील हैं और समय अविराम चलता रहता है। जीवन में सुख-दु:ख, हानि-लाभ, खुशी-ग़म, हँसी-रूदन समयानुसार  आते-जाते रहते हैं। संसार मिथ्या है तथा सृष्टि-नियंता के अतिरिक्त सब नश्वर है। सो! कभी मानव चाँदनी में अवगाहन कर प्रसन्न होता है तो कभी अमावस के घने अंधकार में जुगनूँ का प्रकाश पाकर कृतज्ञता ज्ञापित करता है। कभी भोर होते सूर्य की रश्मियाँ धरा पर कुँकुम बिखेर देती हैं और मलय वायु के झोंके मानव को मदमस्त बना देते हैं। मानव उन पलों में सुधबुध खो बैठता है। कभी सागर में उठती लहरें साहिल से टकराकर लौट जाती है, मानो कोई भक्त अपने प्रभु के चरण स्पर्श कर लौट जाता है और सागर अनमोल मोती, रत्न आदि साहिल पर दुआओं के रूप में छोड़ देता है। परंतु कभी-कभी सागर सुनामी के रूप में हृदय के क्रोध को भी प्रदर्शित करता है और सागर की आकाश को छूती लहरें अपनी राह में आने वाले समस्त पदार्थों को तहस-नहस कर बहा ले जाती हैं। चहुँओर उजाड़-सा भासता है, मानो मातम पसरा हो।

कभी-कभी भगवान भी हमें दु:खों के भँवर में फंसा कर हमारे धैर्य की परीक्षा लेते हैं। इससे ज्ञात होता है कि हम कितने अडिग, अचल, दृढ़  व मज़बूत हैं। यदि हम उस स्थिति में विचलित हो जाते हैं तो हम सामान्य मानव हैं और हममें साहस की कमी है; सहनशीलता हमसे कोसों दूर है। उस स्थिति में हमारी नौका सागर में डूबती-उतराती है और उसमें विलीन हो जाती है। दूसरे शब्दों में हम लहरों के थपेड़ों को सहन नहीं कर पाते और अंतत: डूब के सागर बन जाते हैं।

परिवार, मित्र व संगठन एक संकेत हैं कि तुम अकेले नहीं हो। वे सुख-दुःख व सम-विषम परिस्थितियों में आपके साथ खड़े रहते हैं। परिवार का हर सदस्य व सच्चे मित्र आपके हितैषी होते हैं। वे आपको मँझधार में छोड़कर कहीं नहीं जाते। वैसे भी मानव अपनी स्वार्थ वृत्ति व संकुचित दृष्टिकोण के कारण दु:ख बाँटने पर सुक़ून पाता है और सुख को एकांत में भोगना चाहता है। परंतु ‘हमारे मित्र हमें हर पल एहसास दिलाते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। आगे बढ़ो, बीता हुआ कल तुम्हारे मन में है और आने वाला कल तुम्हारे हाथ में है।’ अतीत लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित् है। परंतु आप वर्तमान में अथक परिश्रम द्वारा आगामी कल को सुंदर बना सकते हैं।

सत्य की नौका डगमगाती अवश्य है, परंतु डूबती नहीं। सत्य कटु होता है, परंतु शाश्वत् होता है। यह शिवम् व सुंदरम् भी होता। इसे सामने आने में समय तो लग सकता है, परंतु यह असंभव नहीं है। भले ही सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है, परंतु यह हकीक़त को सामने ला देता है। यह कल्याणकारी होता है तथा किसी का अहित नहीं करता। सबका मंगल भव की भावना  इसमें निहित रहती है। परिणामत: जीवन में कोई समस्या नहीं रहती।

वैसे भी हर प्रश्न का उत्तर व समस्या का समाधान होता है। आवश्यकता होती है– हमारी लग्न की, प्रयास की, परीक्षा की, अथक परिश्रम, धैर्य व साहस की। ‘संसार में असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है।’ तुम सब कर सकते हो, जीवन का मूलमंत्र होना अपेक्षित है। मानव में असीम शक्तियां व्याप्त हैं, जिनके बल पर वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकता है। इसलिए आत्मविश्वास की, सत्य का मूल्यांकन करने की, अपनी सुप्त अथवा विस्मृत शक्तियों को पहचानने की ज़रूरत है।

मानव का दर्द से अटूट रिश्ता है। हमें खुशियों को तलाशना है; खुद से मुलाक़ात करनी है। जब हम ख़ुद में ख़ुद को तलाशते हैं तो हमारे अंतर्मन में दिव्य शक्तियां संचरित हो जाती हैं। हम ‘शक्तिशाली  विजयी भव’ को स्वीकार जीवन- पथ पर अग्रसर होते हैं, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ तथा ‘आप जो चाहोगे वही अवश्य पाओगे।’

काँच की तरह होता है मन/ इसे जितना साफ रखोगे/ दुनिया उतनी आपको साफ दिखाई देगी’ के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सब कर्मन को/ देखे और दिखाए।’ सो। सत्कर्म कीजिए, सदैव अच्छा सोचिए, अच्छा कीजिए। दुनिया रूपी रंगमंच पर मानव को अपना क़िरदार अवश्य निभाना पड़ता है, जो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों पर आधारित होते हैं।

अपनापन, परवाह, आदर व व्यवहार वक्त की वह दौलत है, जिससे बड़ा किसी को देने के लिए कोई उपहार नहीं हो सकता है। सो! यह वे दैवीय गुण हैं, जिन्हें आप दूसरों को दे सकते हैं। यह अनमोल हैं और वक्त से बड़ी तो कोई दौलत हो ही नहीं सकती है। यदि आप किसी को चंद लम्हें देते हैं तो वे उसके हृदय की ऊहापोह को समाप्त करने में सक्षम होते हैं। उस स्थिति में आप अपनी अनमोल पूंजी अर्थात् उपहार उसे दे रहे हैं। किसी के हृदय की पीड़ा, दुख-दर्द को दूर करना सर्वोत्तम उपाय है। दुनिया में सुख बाँटिए व दु:खों का हरण कीजिए। आपदाओं व विषम परिस्थितियों में आप पर्वत की भांति अचल, अडिग व डटकर खड़े रहिए।

परिवार, मित्र व संगठन को महत्व दीजिए। सदैव मिलजुल कर अहं का त्याग कर जीवन-यापन कीजिए। अहं दिलों में दरारें उत्पन्न करता है। ‘फ़ासले दिलों के मिटा दीजिए। बेवजह न किसी से ग़िला कीजिए/ यह समाँ तो गुज़र जाएगा किसी ढब/ सबसे मिलजुल कर रहा कीजिए।’ दर्द, आपदाएं व समस्याएं स्वत: मिट जाएंगी और चहुँओर उल्लास व प्रसन्नता का साम्राज्य होगा।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #32 – गीत – प्रेम अमिय का प्याला है।।… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – भावों की बहती सुरसरिता

? रचना संसार # 32 – गीत – प्रेम अमिय का प्याला है…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अन्तर्मन की प्यास बुझाए

प्रेम अमिय का प्याला है।

वीणा की झंकार यही तो

सात सुरों की हाला है।।

कानों में मिश्री सी घोले,

पिया प्रेम की बाँसुरिया।

धुन सुनकर मैं इत उत डोलूँ,

जैसे कोई बावरिया।।

*

मधुरिम गीत प्रणय के गाती,

हिय में जलती ज्वाला है ।

अन्तर्मन की प्यास बुझाए,

प्रेम अमिय का प्याला है।।

त्याग प्रेम की मंजुल मूरत,

सुरभि दसों दिशि में फैली।

जीवन में नित करे उजाला,

सपन अलौकिक अठखेली।।

*

शुचि सुवास से साँसें महके,

नाचे मन मतवाला है।

अन्तर्मन की प्यास बुझाए,

प्रेम अमिय का प्याला है।।

 *

कहे भावना भाव घनेरे,

प्रीत निराली सी लागे।

पिया श्याम घन वर्षा करते,

उर हरियाली सी लागे।।

*

वसुधा अम्बर नेह निबंधन,

तुहिन कणों की माला है।

अन्तर्मन की प्यास बुझाए,

प्रेम अमिय का प्याला है।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – स्मृतियों की गलियों से  — लेखिका – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 23 ?

?स्मृतियों की गलियों से  — लेखिका – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- स्मृतियों की गलियों से

विधा- संस्मरण

लेखिका- ऋता सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? स्मृतियों की गलियों से  श्री संजय भारद्वाज ?

सम्यक स्मरण अर्थात संस्मरण। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि संस्मरण रोचक शैली में स्मृति को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। ‘स्मृतियों की गलियों से’, लेखिका के अनुभव-विश्व से उपजे ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

चित्रोपमता संस्मरण लेखन की शक्ति होती है। लेखक द्वारा जो लिखा गया है, उसका चित्र पाठक की आँख में बनना चाहिए। श्वान के एक पिल्लेे के संदर्भ में ‘भूले बिसरे दिन’ की प्रस्तुत पंक्तियाँ देखिए-‘अपनी पूँछ  को पकड़ने की कोशिश में दिन में न जाने कितनी बार वह गोल-गोल घूमा करता था पर पूँछ कभी भी उसकी पकड़ में न आती। उसकी यह कोशिश किसी तपस्वी की तरह एक नियम से बनी हुई चलती रहती थी।’…‘ जाने कहाँ गए वे दिन’ में उकेरा गया यह चित्र देखिए-‘मैंने फूलझाड़ू के दो छोटे टुकड़ों को क्रॉस के रूप में रखा, काठी के एक छोर पर कपास का एक गोला बनाकर लगाया, फिर उस कपास के गोले को पिताजी की पुरानी स़फेद धोती के टुकड़े से ढका और पतली सुतली से उस झाड़ू के साथ बाँध दिया। इस तरह उसे  सिर का आकार दिया गया। काजल से आँख, नाक, मुँह बनाया। इस तरह की कई गुड़ियाँ मैंने ईजाद कर डालीं।’

सुश्री ऋता सिंह

सत्यात्मकता या प्रामाणिकता संस्मरण का प्राण है। संस्मरण में कल्पना विन्यास वांछनीय नहीं होता। कल्पना की ओर बढ़ना अर्थात संस्मरण से दूर जाना।  प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने संस्मरण के प्राण-तत्व को चैतन्य रखा है। ‘जब पराये ही हो जाएँ अपने’ में वर्णित घटनाक्रम का एक अंश इसकी पुष्टि करता है-‘जाते समय उस बुज़ुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडेड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।’

संस्मरण के पात्र सत्यात्मकता का लिटमस टेस्ट होते हैं। प्रस्तुत संग्रह के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से आए हैं। इसके चलते पात्र परिचित लगते हैं और पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। ‘गटरू’ जैसे चरित्र इसकी बानगी हैं। 

अतीत के प्रति मनुष्य के मन में विशेष आकर्षण सदा रहता है। बकौल निदा फाज़ली, ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ इस खोए हुए सोना अर्थात अतीत की स्मृति के आधार पर होने वाले लेखन में आत्मीय संबंध और वैयक्तिकता की भूमिकाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ‘गुलमोहर का पेड़’ नामक संस्मरण से यह उदाहरण देखिए-‘अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते-देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध-सा स्थापित हो गया था। विभिन्न छटाओं का उसका रूप मुझे बहुत भाता रहा।’ इसका उत्कर्ष भी द्रष्टव्य है-‘गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा, मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी, मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था।… अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा-सा था। ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे, सूखे रिश्तों की तरह।’

लेखिका, शिक्षिका हैं। स्थान का वर्णन करते हुए तत्संबंधी ऐतिहासिक व अन्य जानकारियाँ पाठक तक पहुँचाना उनका मूल स्वभाव है। इस मूल का एक उदाहरण देखिए- ‘लोथल, दो हजार सात सौ साल पुराना एक बंदरगाह था। यहाँ छोटे जहाजों के द्वारा आकर व्यापार किया जाता था। यह ऐतिहासिक स्थल है जो पुरातत्व विभाग के उत्खनन द्वारा खोजा गया है।’

कथात्मकथा बनी रहे तो ही संस्मरण रोचक हो पाता है। पढ़ते समय पाठक के मन में ‘वॉट नेक्स्ट’ याने ‘आगे क्या हुआ’ का भाव प्रबलता से बना रहना चाहिए। प्रस्तुत संग्रह के अनेक संस्मरणों में कथात्मकता प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है।

भारतीय संस्कृति कहती है, ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।’ किसी घटना के अनेक साक्षी हो सकते हैं। घटना के अवलोकन, अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रत्येक का तरीका अलग होता है। इन संस्मरणों की एक विशेषता यह है कि लेखिका इनके माध्यम से घटना को ज्यों का त्यों सामने रख देती हैं। स्वयं अभिव्यक्त तो होती हैं पर सामान्यत: किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर थोपती नहीं। ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं। पाठक अपनी दृष्टि से घटना को ग्रहण करने और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र है।

इन संस्मरणों के माध्यम से विविध विषय एवं आयाम प्रकट हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि पाठक इन संस्मरणों को अपने जीवन के निकट अनुभव करेगा। यह अनुभव ही लेखिका की सफलता की कसौटी भी होगा।

भविष्य की यशस्वी यात्रा के लिए लेखिका को अशेष मंगलकामनाएँ।

लेखक को अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 4 – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर (Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़  “1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर।)

☆  दस्तावेज़ – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

“यह सबसे अच्छे समय का दौर था, यह सबसे बुरे समय का दौर था, यह बुद्धिमानी का युग था, यह मूर्खता का युग था…”

चार्ल्स डिकेंस, ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़

इन शब्दों की गूंज, तब के उन्नींदे शहर जबलपुर के उपनगर रांझी की गलियों में, महसूस होती थी। यह 1971 का समय था—सादगी और गहरे बदलाव का युग। बाहरी दुनिया में उथल-पुथल थी, परंतु सेंट गेब्रियल स्कूल परिसर के अंदर शिक्षा का अभयारण्य फल-फूल रहा था। वर्ष 1971 की कक्षा के छात्र एक ऐसे युग में जी रहे थे, जिसमें मासूमियत का आकर्षण और असीम संभावनाओं का अनंत आकाश था। हर पाठ ज्ञान से भरा था, हर खेल टीम भावना से खेला जाता था और हर पल यादों की छाप छोड़ जाता था।

एक विरासत की शुरुआत

वर्ष 1959 में, मॉन्टफोर्ट ब्रदर्स ऑफ सेंट गेब्रियल द्वारा स्थापित सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी के पूर्वी छोर पर स्थित था। इसके एक ओर आयुध निर्माणी खमरिया का विस्तृत परिक्षेत्र था और दूसरी ओर मानेगांव की प्राकृतिक सुंदरता। इसकी विनम्र शुरुआत एक छोटे से परिसर में हुई। वर्षों बाद अब यह आधुनिक, समग्र शिक्षा का प्रकाशस्तंभ बन गया है।

सेंट गेब्रियल में शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं थी। यह जिज्ञासा जगाने, करुणा प्रज्ज्वलित करने, और समय की कसौटी पर खरे उतरने वाले जीवन मूल्यों को सिखाने का प्रयास था। ज्ञान को एक बोझ की तरह नहीं बल्कि एक उपहार के रूप में प्रदान किया गया। छात्रों को स्वप्न देखना, दृढ़ता, और जीवन को साहस और गरिमा के साथ स्वीकार करना सिखाया गया।

मूल्यों का अनूठा संगम

1971 की कक्षा जब इस शिक्षा के मार्ग पर चली, तो उन्हें विनम्रता और विवेक, साहस और निष्पक्षता के गुणों से पोषित किया गया। उनके ‘अल्मा माटर’ ने उन्हें तर्क और भावना दोनों का मूल्य समझाया। यह एक ऐसी शिक्षा थी जो छात्रों को जीवन में उद्देश्य, दृढ़ता और कृतज्ञता का भाव प्रदान करती थी।

विद्यालय ने कला और सौंदर्य के प्रति गहरी समझ भी विकसित की। ब्रदर फ्रेडरिक ने रसायन विज्ञान को सिद्धांत और अभ्यास की एक सुखद जुगलबंदी में बदल दिया। शर्मा सर और श्रीवास्तव सर ने छात्रों को हिंदी साहित्य की मनोहारी छटा से रूबरू किया, जबकि पंडित सर और लाजरस सर ने संस्कृत के श्लोक सिखाए। मैडम प्रेम खेड़ा और खरे सर ने धैर्य और कुशलता के साथ गणित की चुनौतियों को हल करना सिखाया।

खेल केवल खेल नहीं थे, यहां चरित्र का निर्माण होता था। इस्लाम सर, दिनकर सर और चौधरी सर जैसे प्रशिक्षकों ने छात्रों को प्रेरित किया कि वे पसीना बहाएं और विजय प्राप्त करें। प्रयास में ही जीत निहित होती है।

भविष्य को आकार देने वाले शिक्षक

सेंट गेब्रियल में शिक्षक गण असाधारण थे। ब्रदर जॉन बॉस्को और इंग्लैंड से आए। जॉन पीक ने अंग्रेजी व्याकरण और साहित्य में छात्रों की उत्कृष्टता को परिभाषित किया। फ्रांसिस डेविड सर ने अपनी नाटकीय प्रतिभा और मधुर आवाज से छात्रों की रचनात्मकता को प्रेरित किया।

सामाजिक अध्ययन के गंभीर पाठ शुक्ला सर और ब्रदर जोसेफ ने पढ़ाए, जबकि सामान्य विज्ञान मैडम ओ. डी’सूजा और सेबेस्टियन सर ने पढ़ाया। ये शिक्षक केवल अध्यापक नहीं थे; ये चरित्र के मूर्तिकार थे, जिन्होंने युवा मनों को जिम्मेदार और सहानुभूति से परिपूर्ण नागरिक बनने के लिए प्रेरित किया।

1971 की कक्षा का जज़्बा

1971 की कक्षा प्रतिभा, दृढ़ता और मित्रता का एक अद्भुत सम्मिश्रण थी। प्रत्येक नाम के साथ एक कहानी जुड़ी थी, प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी छाप छोड़ी। शांता ने अपनी मधुर आवाज से, और शोभा ने अपने आकर्षक नृत्यों से सांस्कृतिक आयोजनों को जीवंत किया। जूड ने अपनी वाक्पटुता से श्रोताओं को मोहित किया, जबकि चंदन ने टेबल टेनिस के क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की।

फुटबॉल के मैदान पर, कैश्मीर, प्रबीर, महेंद्र और अल्बर्ट ने टीम भावना और प्रतिभा का प्रदर्शन किया। क्रिकेट के उत्साही जगत, राजन और सौमेन ने खेल को जीवंत बना दिया। शिवाजी, रविशंकर और विजय ने स्वस्थ शैक्षणिक प्रतिद्वंद्विता में भाग लिया और अपने साथियों को ऊंचे लक्ष्यों के लिए प्रेरित किया।

कक्षा के बाहर, दोस्ती और भाईचारे का माहौल था। बिजॉय, महेंद्र, सुबीर और श्याम ने हंसी-मजाक से सभी के चेहरों पर मुस्कान बिखेरी। ऐन्सली, हर्दित, और शैलेंद्र जैसे अन्य लोगों ने शिष्टाचार और विनम्रता का उदाहरण प्रस्तुत किया।

आजीवन आभार

पीछे मुड़कर देखें तो 1971 की कक्षा सेंट गेब्रियल स्कूल के प्रति अथाह आभार व्यक्त करती है। यह केवल एक संस्थान नहीं था; यह वह प्रयोगशाला थी जहां मूल्यों को तराशा गया और अनुशासन के साथ सपनों को आकार दिया गया। इसने छात्रों को न केवल सफलता की ओर अग्रसर किया, बल्कि सार्थक जीवन जीने की कला भी सिखलाई।

सकारात्मक मनोविज्ञान के अनुसार, सुखद यादों का पोषण करने से आनंद, कृतज्ञता और दृढ़ता विकसित होती है। सेंट गेब्रियल में साझा की गई हंसी, सीखे गए पाठ और बनाई गई दोस्ती उनके दिलों में हमेशा के लिए अंकित हैं।

सम्मान सूची

1971 की कक्षा:

ऐन्सली निबलेट, अल्बर्ट फिलिप्स, अविनाश गायकवाड़, बरकत सिंह, बिजॉय मुखर्जी, कैश्मीर फर्नांडिस, चंद्र बाबू, चंदन नियोगी, हर्दित सिंह, जगत सिंह बिष्ट, जूड पेस, कमल किशोर, के.एस. राजन, कुमुद चक्रपाणि, महेंद्र परमार, मुकुंदन मेनन, रामचंद्र सिंह, रविशंकर कृष्णन, रेबेका मलिक, प्रबीर मित्रा, राल्फ टेट, रीता बसाक, रीता भम्बानी, सैमुअल वॉकर, शैलेंद्र कुमार, शांता मूर्ति, शिवाजी घोष, शोभा पवार, श्याम मंडल, सौमेन दासगुप्ता, सुबीर भट्टाचार्य, तपस रॉय, थॉमस एलेक्ज़ेंडर, विजय नायर और तुषार कांति बनर्जी।

एक स्थायी विरासत

नेल्सन मंडेला के शब्दों में, “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।” सेंट गेब्रियल स्कूल ने अपनी शाश्वत मूल्यों को पोषित करने वाली भावना के साथ 1971 की कक्षा को यादों का एक खजाना और ऐसा आधार प्रदान किया, जिसने उन्हें दुनिया को बदलने में, अपना योगदान देने के लिए सक्षम बनाया।

इसलिए, वर्ष 1971 के छात्र-छात्राओं की गाथा, इसका जीवंत प्रमाण है कि समग्र शिक्षा न केवल मस्तिष्क को विकसित करती है बल्कि हृदय और आत्मा का भी भरपूर पोषण करती है। ये छात्र आजीवन गर्व से स्वयं को “गैब्रिएलाइट बैच 1971” कहेंगे।

Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, जबलपुर

“It was the best of times, it was the worst of times, it was the age of wisdom, it was the age of foolishness…”

– Charles Dickens, A Tale of Two Cities

In the small, sleepy town of Jabalpur, nestled within the quiet suburb of Ranjhi, these immortal words seemed to echo through the corridors of life. It was 1971, a time of both simplicity and profound change, when the world outside felt tumultuous, yet within the walls of St. Gabriel’s School, a sanctuary of learning flourished. The students of the Class of 1971 lived in an era that bore the charm of innocence and the promise of limitless possibilities—a time when every lesson carried the weight of wisdom, every game played was a masterclass in teamwork, and every moment was tinged with nostalgia even as it unfolded.

The Origins of a Legacy

Established in 1959 by the Montfort Brothers of Saint Gabriel, St. Gabriel’s School stood at the eastern end of Ranjhi, bordered by the expansive Ordnance Factory Khamaria Estate on one side and the rustic beauty of Manegaon on the other. Humble beginnings shaped its character; the modest campus whispered tales of grit and dreams. Yet, over the years, it evolved into a beacon of modern education, carrying forward the mission of holistic learning.

Education at St. Gabriel’s was never confined to textbooks. It sought to awaken curiosity, ignite compassion, and instill values that stood the test of time. Knowledge was imparted not as a burden but as a gift; it was laced with the art of living. Students were taught to dream, to persevere, and to embrace the duality of life with courage and grace.

A Unique Blend of Values

As the Class of 1971 stepped onto this path of learning, they were nurtured with the virtues of humility and prudence, bravery and fairness. Their Alma Mater taught them to value both logic and emotion, to harmonize the scientific with the spiritual. It was an education that breathed life into Positive Psychology’s principles long before the term existed—imbuing students with a sense of purpose, resilience, and gratitude.

The school also fostered a deep appreciation for art and beauty. Brother Frederick made Chemistry a delightful symphony of theory and practice. Sharma Sir and Shrivastava Sir transported students into the enchanting world of Hindi literature, while Pandit Sir and Lazarus Sir unveiled the mysteries of Sanskrit. Ms. Prem Kheda and Khare Sir unknotted the challenges of Mathematics with patience and precision.

Sports, too, were more than just games; they were arenas where character was forged. Coaches like Islam Sir, Dinkar Sir, and Chaudhary Sir inspired their students to sweat, strive, and triumph, teaching them that victory lay as much in the effort as in the outcome.

The Teachers Who Shaped Futures

St. Gabriel’s boasted a pantheon of extraordinary educators. Brother John Bosco and the Englishman, John Peek, epitomized excellence in language, molding students’ command of English grammar and literature. Francis David Sir inspired an entire generation with his theatrical flair and melodious voice, unlocking creative potential in his pupils.

From the earnest teachings of Social Studies by Shukla Sir and Brother Joseph to the life lessons woven into General Science by Ms. O. D’Souza and Sebastian Sir, every lesson carried a deeper meaning. These teachers were not merely instructors; they were sculptors of character, shaping young minds into responsible and empathetic citizens.

The Spirit of the Class of 1971

The Class of 1971 was a constellation of talent, resilience, and camaraderie. Each name carried a story, each individual left a mark. Shanta, with her divine voice, and Shobha, with her dazzling Bollywood dances, brought joy to cultural gatherings. Jude mesmerized audiences with his eloquence, while Chandan dominated the table tennis arena with finesse.

On the football field, players like Kashmir, Prabir, Mahendra, and Albert exhibited teamwork and flair, while cricket enthusiasts such as Jagat, Rajan, and Soumen brought the game alive. Shivaji, Ravi Shankar, and Vijay engaged in healthy academic rivalries, inspiring peers to aim higher.

Outside the classroom, camaraderie thrived. Bijoy, Mahendra, Subir, and Shyam were the jesters who kept spirits high, reminding everyone of the power of shared laughter. Others, like Ainsley, Hardit, and Shailendra, exuded a quiet dignity, embodying politeness and humility.

A Lifetime of Gratitude

Looking back, the Class of 1971 owes an immeasurable debt of gratitude to St. Gabriel’s School. It was not merely an institution; it was a crucible where values were forged, and dreams were tempered with discipline. It gave its students not only the tools to succeed but the wisdom to live meaningful lives.

As Positive Psychology emphasizes, cherishing fond memories cultivates joy, gratitude, and resilience. The laughter shared, the lessons learned, and the friendships formed at St. Gabriel’s remain etched in the hearts of its alumni, illuminating their paths long after the school bell ceased to ring.

Roll Call of Honour

Class of 1971:

Ainsley Niblett, Albert Phillips, Avinash Gaikwad, Barkat Singh, Bijoy Mukherjee, Cashmir Fernandes, Chandra Babu, Chandan Neogi, Hardit Singh, Jagat Singh Bisht, Jude Paise, Kamal Kishore, K.S. Rajan, Kumud Chakrapani, Mahendra Parmar, Mukundan Menon, Ramchandra Singh, Ravi Shankar Krishnan, Rebecca Mullick, Prabir Mitra, Ralph Tate, Rita Basak, Rita Bhambani, Samuel Walker, Shailendra Kumar, Shanta Murthy, Shivaji Ghosh, Shobha Pawar, Shyam Mandal, Soumen Dasgupta, Subir Bhattacharya, Tapas Roy, Thomas Alexander, Tushar Kanti Banerji and Vijay Nair.

An Enduring Legacy

In the words of Nelson Mandela, “Education is the most powerful weapon which you can use to change the world.” St. Gabriel’s School, with its timeless values and nurturing ethos, gifted the Class of 1971 a treasure trove of memories and a foundation that would empower them to change the world in ways big and small.

And so, the story of the Class of 1971 remains an enduring testament to the power of education to shape not just minds but hearts and souls. For they were, and always will be, the proud sons and daughters of St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur.

(Photo courtesy – Social media)

🙏💐 सेंट गेब्रियल स्कूल – आजीवन आभार 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अभी अभी # 549 ⇒ चैनसिंह का बगीचा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  – “चैनसिंह का बगीचा ।)

?अभी अभी # 549 ⇒ चैनसिंह का बगीचा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नदी हमें नहीं बांटती
हम नदी को बांटते हैं
पानी में लकीर खींचते हैं
सरहद बनाते हैं ;
हमने धरती बांटी
अम्बर बांटा
समंदर बांटा
कभी मंदर तो कभी
हरमंदर बांटा ।
बस प्यार नहीं बांटा
नफरत और गुस्सा बांटा
थप्पड़ का जवाब चांटा
पत्थर का जवाब भाटा ;
भूल गए इंसानियत
फैलाई सिर्फ दहशत
नहीं सहमत,तो सह मत
जहां नहीं चैन,वहां रह मत ।।
हम इस पार और उस पार
को नहीं मानते
बस,आरपार को मानते हैं,
कभी खुद को खुदा और
गधे को रहनुमा मानते हैं;
वैसे तो हम बहुत जानते हैं
लेकिन सयानों की कभी,
बात नहीं मानते,
स्वार्थ,खुदगर्जी,अवसरवाद और मस्ती को ही
अपना आदर्श मानते हैं।
फिर भी हम इतने अच्छे
और लोग इतने बुरे क्यों हैं
यह भ्रम पालते हैं,
गाय तो पाल सकते नहीं
लेकिन इतने बड़े भक्त हैं कि,
स्वामिभक्ति के लिए कुत्ता पालते हैं ;
शासन ही अनुशासन
जिसकी लाठी,उसकी भैंस
पैसा फेंक,तमाशा देख,
दु:शासन गिन रहा अंतिम सांसें,सुशासन में चैन
फिर भी मूढ़मति
तेरा क्यूं मन बैचेन ।।
♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिंदी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य  पुलिस अपने बाप की भी नहीं…)

☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं सुबह अपने कम्पाउंड में पेड़ों को पानी दे रहा था । “भाई साहब कुछ पढ़ा आपने”, कहते हुए वर्माजी ने मेरे घर में प्रवेश किया ।

मैंने कहा – भाई जी आप तो हमेशा “कुछ सुना आपने” कहते हुए आया करते थे । आज “कुछ पढ़ा आपने” कहते हुए आ रहे हैं ? उन्होंने कोशिश करके हँसते हुए कहा- भाई साहब आपने तो बात ही पकड़ ली ।

मैंने कहा- प्यारे भाई इस समय तो मैं पानी का पाइप पकड़े हूँ और आप कह रहे हैं कि बात पकड़ ली !

उन्होंने कुछ रूठने के अंदाज में कहा- “भाई साहब आप भी”, मैंने कहा बस बस…इसके आगे “बड़े वो हैं” मत कहना ।

वर्मा जी ने खुलकर ठहाका लगाया । इसी समय मेरी श्रीमती जी चाय लेकर आ गईं । वर्मा जी ने सुर्र.. की लंबी आवाज के साथ चाय की पहली चुस्की मारी फिर कहा- भाई जी कुछ पढ़ा आपने ।

मैंने कहा- हाँ भाई, अभी अभी फेसबुक पर आदरणीय कुंदनसिंह परिहार जी का एक शानदार व्यंग्य पढ़ा है । एक बलात्कार पर चल रही राजनीति की ख़बरें भी पढ़ी हैं।

वे बोले- लेकिन आपने वो नहीं पढ़ा जिस पर मैं आपसे चर्चा करने आया हूँ ।

मैंने कहा- आप ही बता दें श्रीमान । वे बोले- एक अख़बार में छपे समाचार के अनुसार एक नेता जी ने कहा है कि “पुलिस की सुस्ती के कारण देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं । उन्होंने पत्रकारों से कहा कि “पुलिस वालों की नैतिकता ही ख़त्म हो गई है ।” पुलिस वाले खुद ही कहते हैं कि-“पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते ।” भाई साहब बताएं कि- पुलिस वालों की नैतिकता ख़त्म क्यों हो जाती है ? वे अपने बाप के भी क्यों नहीं होते ?

मैंने कहा- भाई जी लगता है आप मेरे हितैषी नहीं हैं इसलिए मुझसे ऐसे टेढ़े सवाल का जवाब चाहते हैं । लेकिन आपने पूछा है तो बताना ही पड़ेगा । मेरी बात सुनने वर्मा जी ने अपनी कुर्सी मेरे पास सरका ली । मैंने कहा- भाई जी आज सत्य-अहिंसा, धर्म-अधर्म, नैतिकता- अनैतिकता की सर्वमान्य परिभाषाएं नहीं रह गईं, लोगों ने इन्हें अपने अपने हिसाब से तैयार कर लिया है । इसलिए हो सकता है कि नेता जी और पुलिस की नैतिकता की परिभाषा में अंतर हो । नेता जी अपनी सोच के अनुसार सही हों और पुलिस अपनी सोच के अनुसार । वो आपने सुना नहीं- “फूलहिं फलहिं न बेत” का अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं । कुछ लोग कहते हैं बेत अर्थात बांस फूलता तो है, किन्तु फलता नहीं जबकि कुछ लोग कहते हैं कि बांस न फूलता है न फलता है । “फूलहिं फलहिं न”, अब आप किसे सच कहेंगे किसे झूठ ! दूसरी बात यह है वर्मा जी कि साधू और शैतान की संगत के अलग-अलग प्रभाव होते हैं । पुलिस की संगत में तो ज्यादातर अपराधी और नेता ही रहते हैं । अब आप ही सोचें कि पुलिस कैसी होगी ।

वर्मा जी बोले- भाई साहब आपने पुलिस के नैतिकता संबंधी सवाल को तो बढ़ी सफाई से निपटा दिया, किन्तु यह तो बताएं की ऐसा क्यों कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते?”

मैंने कहा- भाईजी आज कितने प्रतिशत बच्चे अपने बाप के होते हैं ? गलत न समझें, मेरा मतलब है अपने बाप के लिए समर्पित होते हैं । हम कितनी ख़बरें पढ़ते रहते हैं कि शराब के लिए, मकान-जमीन के लिए अथवा बुढ़ापे में देखरेख से बचने के लिए बेटे ने बाप को छोड़ दिया, उसे वृद्धाश्रम के हवाले कर दिया या उसकी हत्या कर दी । पुलिस वाले भी तो हमारे ही समाज के अंग हैं । बाप हो या भाई, उन पर तो निष्पक्ष रहने की शपथ भी चढ़ी रहती है । अब शपथ का कितना पालन होता है यह मत पूछना । “सत्यमेव जयते” के ठिकानों पर क्या क्या होता है सब जानते हैं । आप बताएं कि लोग “मजबूरी में गधे को बाप बनाते हैं कि नहीं?”

वर्मा जी बोले- भाई साहब, कहावत तो है ।

मैंने कहा- भाई जी कहावतों के पीछे वर्षों का अध्ययन और सच्चाई होती है । आखिर पुलिस वाले भी सरकारी कर्मचारी हैं और यदि उन्हें बिना परेशानी नौकरी करना है, प्रशंसा और प्रमोशन पाना है, मलाईदार थाने में बने रहना है, लाइन अटैच नहीं होना है तो अधिकारी रूपी या नेता रूपी गधों को बाप बनाना ही पड़ता है । इसीलिये ज्यादातर कलयुगी लोग पैदा करने वाले बाप से ज्यादा मान सम्मान उस बाप को देते हैं जिससे उन्हें तात्कालिक लाभ मिलता है । लाभ मिलना बंद हुआ तो ये बाप बदलने में देर नहीं लगाते । कल तक जो कल के नेता को सेल्यूट करके उनकी ड्यूटी बजाते थे आज किसी और के इशारे पर काम कर रहे हैं । सिर्फ पुलिस वाले नहीं वरन बहुत से अन्य विभागीय अधिकारी-कर्मचारी भी ऐसा ही करते हैं । यही सब कारण हैं जिनके आधार पर कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते।”

वर्मा जी ने आश्चर्य के भाव लिए मुझसे विदा मांगी जिसे मैंने तत्काल स्वीकृत कर लिया ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #259 ☆ भावना के दोहे – – दुष्यन्त उवाच☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे दुष्यन्त उवाच )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 259 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – दुष्यन्त उवाच ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

आओ बैठो पास तुम, सुन लो मेरी बात।

कहना तुमको है बहुत, बड़ी सुहानी रात।।

शकुन्तले! तुम रूपसी, तुमको रहा निहार।

तुम हो मेरी प्रेमिका, दिल में प्यार अपार।।

प्रेम कुंज ऐसे सजा, अनुपम लगे विहार।

करता हूँ तुमसे शुभे, भाव भरी मनुहार।।

जड़ित अँगूठी देखकर, होता हर्ष अपार।

सुध तुम इतनी भूलती, डूबी जल की धार।।

परिणय मेरे के साथ में, देखो निज शृंगार।

नैन तुम्हारे कह रहे, झलक रहा है प्यार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

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