सुश्री नीलांबरी शिर्के
© सुश्री नीलांबरी शिर्के
सुश्री नीलांबरी शिर्के
© सुश्री नीलांबरी शिर्के
श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “रवि कथा” – लेखिका : सुश्री ममता कालिया ☆ समीक्षक – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक -रवि कथा
रचनाकार – ममता कालिया
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
मूल्य : 299 रुपये
पृष्ठ : 196
☆ “रवींद्र कालिया : जाने और लौटकर आने के बीच की कथा : रवि कथा” – कमलेश भारतीय ☆
रवींद्र कालिया हमारे जालंधर के थे, जो हमारा जिला था, नवांशहर का । हालांकि उनसे कोई मुलाकात नहीं लेकिन अपनी मिट्टी से जुड़े होने से अपने से लगते रहे, लगते हैं अब तक । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के नाते कथा समय पत्रिका का संपादन किया, उन दिनों रवींद्र कालिया से फोन पर कहानी प्रकाशित करने की अनुमति मांगी जो सहर्ष मिल गयी और फिर ममता कालिया की कहानी भी प्रकाशित की, यह मिट्टी का कर्ज़ और फर्ज़ चुकाने जैसा भाव था । मेरे दोस्त फूलचंद मानव ने कहा कि अब तो तेरे लिए नया ज्ञानोदय के रास्ते खुले हैं ! मैंने जवाब दिया कि ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि रवींद्र कालिया के संपादक होते मैं कहानी भेजूंगा ही नहीं और न ही भेजी क्योंकि स़पादन आदान प्रदान नहीं होता । रवींद्र कालिया ने जालंधर के उन दिनों लोकप्रिय दैनिक हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में शुरूआत की और फिर भाषा, धर्मयुग, ज्ञानोदय, गंगा जमुना और नया ज्ञानोदय के बीच वर्तमान साहित्य के कहानी को केंद्र में रखते हुए दो महा विशेषांकों का संपादन किया लेकिन कृष्णा सोबती की ऐ लड़की पर पहले ही लिखवाये तीन पत्रों से निर्मल वर्मा इतने नाराज़ हुए कि रवींद्र कालिया को खत लिखा कि मुझे तुम्हें कहानी भेजनी ही नहीं चाहिए थी । मेरी बहुत बड़ी भूल थी यह ! हालांकि जिस कृष्णा सोबती के मुरीद थे रवींद्र कालिया, उसी कृष्णा सोबती ने तद्भव में प्रकाशित अपने ऊपर लिखे रवींद्र कालिया के संस्मरण पर नाराजगी जताते हुए उन्हें छह फुटिया एडीटर कहकर अपमान किया और रवींद्र कालिया को बहुत दुख हुआ पर ऐसे हादसों के कालिया जीवन भर आदी रहे । ममता कालिया लिखती हैं कि इतने उदास रवि अपने माता पिता के निधन पर नहीं देखे थे, जितने कृष्णा सोबती के ऐसे व्यवहार पर ! बाद में दोस्ती करने के लिए पत्र भी लिखा, जिसके साथ रवि कथा समाप्त होती है।
ये बातें रवींद्र कालिया पर उनकी पत्नी से ज्यादा प्रेमिका व हिंदी की सशक्त और वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया ने रवि कथा मे लिखी हैं और यह भी कहा कि वे दोनों प्रेमी प्रेमिका ज्यादा थे, पति पत्नी कम यानी साहित्यिक लैला मजनूं से किसी भी तरह कम नहीं थी यह जोड़ी और अद्भुत जोड़ी-अलग संस्कृति, अलग भाषा, अलग स्वभाव लेकिन निभी तो खूब निभी दोनों ने ! जैसे अनिता राकेश ने मोहन राकेश के बाद चंद सतरें और लिखी और चर्चित रही, वैसे ही ममता कालिया ने रवि कथा लिखी, जो बहुचर्चित हो रही है, इतनी कि अट्ठाइस दिन में ही इसके दो संस्करण बिक गये । कारण यह कि इसमें रवींद्र कालिया के बहाने सिर्फ प्रेमकथा नहीं लिखी गयी बल्कि यह कहानी की कम से कम तीन पीढ़ियों की कथा है, यह लेखकों के छोटे बड़े किस्सों, चालाकियों, संपादकों की छोटी छोटी लड़ाइयों के किस्से हैं और हम जैसी पीढ़ी के लिए बहुत सारे खज़ाने हैं इसमें ! कितने सारे सबक भी लिये जा सकते हैं रवींद्र कालिया के अनुभवों से और वे पूरी तरह लापरवाही से ज़िंदगी गुजार गये ! बच्चों से प्यार इतना कि बंदरों से बचाने के लिए खुद बेटे के ऊपर लेट गये, छत से कूद कर आये और सोये बेटे को नहीं जगाया, चोट खा गये ! ममता कालिया को इतना प्यार दिया कि जब जब मुम्बई या इलाहाबाद में नौकरी छूटी, हमेशा कहा कि अच्छे हुआ ! मां का सम्मान और भाई बहनों से अथाह प्यार पर अंग्रेजियत से बुरी तरह चिढ़ ! ममता कालिया के पिता जितना बेटियों को कुछ बड़ा देखना चाहते थे, बेटियों ने प्रेम विवाह किये और ममता कालिया के मन में था कि जीजू से लम्बा पति चाहिए और मिला रवींद्र कालिया के रूप में !
यह रवि कथा जीवन, साहित्य, संपादन और दोस्तियों का इलाहाबादी महासंगम कहा जा सकता है । मैं फिर कह रहा हूं कि बीस सितम्बर की छोटी सी मुलाकात में ममता कालिया ने मुझे तीन किताबें देकर बहुत बड़ा अमूल्य उपहार दिया और मैं भी हिसार आते ही पढ़ने में डूब गया । अब सिर्फ गालिब छुटी शराब ही बच रही है, जिसे ब्रेक के बाद जल्द शुरू करूंगा पर मन में एक मलाल भी लगातार यह कि हाय ! जीवन में रवींद्र कालिया से मुलाकात क्यों न हुई ! हां, अंतिम पन्नों पर बहुत खूबसूरत फोटोज देखकर लगा कि रवींद्र कालिया मेरे भी सामने हैं !
© श्री कमलेश भारतीय
पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सौ. उज्ज्वला केलकर
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ “कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय “। यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।)
डॉ. हंसा दीप
☆ दस्तावेज़ # 14 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆
पर्व एक
हंसा मेरी सहेली । बिल्कुल खास । सगी । अब बोलते-बोलते वह सहेली से ‘दीदी’ और ‘दीदी’ से ‘दी’ पर कब पहुंच गयी,पता ही नहीं चला। हां, हम इतनी आत्मीय जरूर हैं पर अबतक एक-दूसरे से मिली कभी नहीं। मिलें भी कैसे ? वह है, दूरस्थ कैनडा के टोरंटो में और मैं हूं भारत, महाराष्ट्र के छोटे से सांगली शहर में। हम फोटो से एक दूसरे को पहचानती हैं और मोबाइल के वाट्स-अप पर इत्मीनान से गप्पेभी लड़ाती हैं।
हंसा का और मेरा आपस में परिचय संयोग से ही हुआ। हिंदी त्रैमासिक ‘कथाबिंब’ के माध्यम से। हुआ यूं कि ‘कथाबिंब’ को मैंने अपनी ‘हासिना’शीर्षक कहानी का अनुवाद भेजा था। यह पत्रिका कहानी -प्रधान है। मेरी कहानी उसमें प्रकाशित हो गयी। वे कहानी के लिए मानदेय नहीं देते। वे ऐसा करते हैं कि कथाबिंबके साल में चार अंक निकलते हैं। वे उनमें प्रकाशित समस्त कहानियों की सूची नए साल के जनवरी अंक में प्रकाशित करते हैं और पाठकों से ही उनका मूल्यांकन करने को कहते हैं। पाठकों द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर उसके औसत के आधार पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। क्रमानुसार प्रथम चार को और चार प्रोत्साहन पर। मुझे उस समय प्रोत्साहन पुरस्कार मिला था। उसके बाद एक दिन मुझे संपादक का पत्र मिला। -आपके पुरस्कार की राशि आपको भेज दी जाएगी। तथापि एक अनुरोध है। आप एक साल के लिए कथाबिंबके सदस्य बनिए । आपकी सम्मति मिलने पर वार्षिक-शुल्क काटकर शेष राशि आपको चेक द्वारा भेज दी जाएगी। मेरी कहानी जिसमें प्रकाशित हुई थी वह अंक मुझे स्तरीय लगा था। इस कारण मैंने अपनी सम्मति दे दी। उस माह से मुझे कथाबिंबके अंक आने लगे। (साल समाप्त होने के बावजूद भी उनका आना जारी है।) उन अंकों से मुझे अनुवाद के लिए उत्कृष्ट कहानियां प्राप्त हुईं ।
श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
मैंने कथाबिंबकी सदस्यता ले ली। उसके बाद प्रथम अंक में ही प्रकाशित एक कहानी ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। कहानी का नाम ‘रुतबा।’ रुतबा यानी रुबाब। लेखिका थी, हंसा दीप। यह कहानी है ईशा, मनू अर्थात मनन और मनूका पड़ोसी मित्र जैनू, इन की । ईशा छह साल की। मनू उसका छोटा भाई और जैनू उससे साल भर छोटा । कहानी इन बच्चों के भावविश्व से संबंधित है। उनकी आपस की छीन-झपट, आशा -आकांक्षा, एक -दूसरे को मात देने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, बड़ों की बातचीत, व्यवहार का उनके द्वारा किया जा रहा निरीक्षण और उसे अपने ढंग से अपनाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति,किसी चीज की चाहत होनेपर उसके लिए की जानेवाली बारगेनिंग। ये सारी बातें कहानी में इस प्रकार चित्रित की गयी हैं कि लगता है हम कुछ पढ़ नहीं रहे अपितु सबकुछ साक्षात देख रहे हैं। कहानी का अंत होता है, कहानी का चरमोत्कर्ष । वह बहुत आकर्षक है। ईशा मनू पर रुबाब गालिब करती है। मनू, जैनूपर। जैनू सबमें छोटा । वह किस पर रुबाब गालिब करें ? और अनायास उसका ध्यान झूले में सो रही अपनी दो माह की बहन की ओर जाता है।
इस कहानी का मराठी में अनुवाद करने का मन हुआ। तब मैंने लेखिका से अर्थात हंसा दीप से औपचारिक अनुमति मांगी। इंटरनेट की सुविधा और मूल लेखिका की तत्परता एवं विनयशीलता के कारण वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गयी। मैंने कहानी का रुबाब शीर्षक से अनुवाद किया। वह ‘पर्ण’ 2019 के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो गयी।
उसके बाद हंसा की और दो-तीन कहानियां पढ़ने को मिलीं। अनुमति लेकर उनका भी मैंने अनुवाद किया। अनुमति के लिए बात करते समय फोनपर अन्य लेखकों का पसंद आया साहित्य, लेखन संबंधी मेरी अपनी धारणाएं, साहित्येतर विषय-इन पर चर्चा होती रही। शनै-शनै औपचारिकता मित्रता में बदलती गयी। वह अधिक स्नेहसिक्त, मजबूत होने लगी। औपचारिक ‘आप’ से तुम और ‘तुम’ से तू पर कब आ गए, पता ही नहीं चला। यह मित्रता अंतरंग सहेली के रूप में और अधिक प्रगाढ़ होती गयी।
और एक दिन उसने मुझे अपना ‘प्रवास में आसपास’ कहानी-संग्रह भेजा। वह अभी पढ़कर पूरा किया ही था कि ‘शत-प्रतिशत’ यह दूसरा कहानी-संग्रह मिला। साथमें अनुमति-पत्र-
माननीय उज्ज्वला केलकर जी,
सादर अभिवादन।
विषय: मेरी कहानियों के मराठी भाषा में अनुवाद की अनुमति।
मैं सहर्ष अनुमति देती हूं कि आप मेरी किसी भी कहानी का अनुवाद कर सकती हैं। साथ ही, अनुवाद की गई कहानी को प्रकाशित करने के लिए आप किसी भी पत्रिका में भेज सकती हैं।
आपका सहयोग एवं स्नेह बना रहे।
असीम शुभकामनाएं ।
हंसा दीप,
टोरंटो, कैनेडा
इससे लाभ यह हुआ कि मुझे पसंद आई कहानियों का अनुवाद करने तथा उन्हें प्रकाशित करवाने के लिए मुझे समय खर्च नहीं करना पड़ा, ना ही हर बार कहानी के अनुवाद की अनुमति के लिए प्रतीक्षारत रहना पड़ा। मुझे दोनों संग्रहों की कहानियां पसंद आयीं। उनकी कथन शैली भा गयी। अपने अनुभूत प्रसंग, घटनाएं, उनसे संबंधित व्यक्ति, वे इतनी सहजता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं कि लगता है, हम खुद भी वे प्रसंग, वे घटनाएं अनुभव कर रहे हो। उन व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिल रहे हो। उनकी बातचीत प्रत्यक्ष सुन रहे हो। हंसा की पसंद आयी कहानियों का अनुवाद करते -करते इतनी संख्या हुई कि दो संग्रह हो जाते। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘मन गाभार्यातील शिल्पे’ शीर्षक से वे प्रकाशित भी हो गये।
हंसा का जन्म मध्य प्रदेश में, झाबुआ जिले के मेघनगर का। यह क्षेत्र आदिवासी बहुल था। एक ओर शोषण, भूख और गरीबी से त्रस्त भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते हुए जीने वाले मध्यवर्गीय परिवार थे। हंसा कहती है, ‘मेरे निवास-स्थान बदलते रहे। एक शहर से दूसरे शहर में, एक देश से दूसरे देश में, मैं अपने घर बसाती रही। बदलते हुए देश का बदलता परिवेश कहानियों में विविधता लाता रहा और रचनाओं को आकार देता रहा। पर मालवा की माटी और जन्मस्थली मेघनगर का पानी संवेदनशील कलम को सींचता रहा।
‘कथाबिंब’ में एक कॉलम होता है, ‘आमने-सामने।’ यह है, लेखक और पाठक के बीच का संवाद। अपने सामने श्रोता उपस्थित हैं, यह मानकर संवाद सम्पन्न करना। वे कौनसे प्रश्न पूछेंगें, क्या जानना चाहेंगे-यह सोचकर अपनी जानकारी, रचना-प्रक्रिया, अपनी साहित्यिक उपलब्धियां बयान करना। हंसा की ‘रुतबा’ प्रकाशित हुई उसी अंक में ‘आमने- सामने’ कॉलम के माध्यम से उसने पाठकों के साथ संवाद स्थापित किया था। आमने -सामने में प्रस्तुत हंसा के विचार, एक व्यक्ति के रूप में उसे जानने में बड़े सहायक सिद्ध हुए।
हंसा कहती है, ‘इस एक ही जन्म में मैंने तीन युग अनुभव किए।’ अर्थात समय और परिस्थिति के कारण । उसका जन्म, बालपन, शिक्षा हुई मेघनगर जैसे पिछड़े कसबे में । गांव में बिजली नहीं थी। ढिबरी और कंदील की रोशनी में पढ़ाई हुई। पिता की किराणा दुकान थी। पिताजी के निधन के बाद भाई ने दुकान संभाली । दुकान में आनेवाले भीलों को अनाज तौलकर देते और वहां अनाज खाने के लिए प्रस्तुत बकरियों से अनाज की रखवाली करते-करते उसकी पढ़ाई होती। पर उससे पढ़ाई में बाधा पहुंचती है, ऐसा उसे कभी नहीं लगा।
स्कूल में वह हमेशा ही अव्वल दर्जे में पास होती। उसके अलावा विविध अंतर-शालेय, तहसील, जिला स्तरीय व्यक्तृत्व, निबंध, नाट्य आदि स्पर्धाओं में वह स्कूल का प्रतिनिधित्व किया करती। गांव में पुस्तकालय नहीं था पर शिक्षक उसे अपने पास की पुस्तकें पढ़ने के लिए दिया करते । शहर में कोई कार्यक्रम हो तो वे उसे साथ लेकर जाते। उसकी बुद्धिमत्ता,प्रतिभा,कौशल को अनुभव का साथ मिलता रहा। गांव तो एकदम देहात था। उस कारण लड़कियों पर अनेक बंधन लादे जाते। इसके बावजूद हंसा कहती है, ‘मुझपर मेरे भाई ने तथा मां ने कोई बंधन नहीं लादे। मैं कहीं भी जाने के लिए, कुछ भी करने के लिए बिल्कुल आजाद थी। भाई ने तो अपनी पुत्री की तरह प्यार किया मुझे। मेरी हर उपलब्धि पर वह प्रसन्न होता। वह समय कष्टप्रद जरूर था पर बड़ा मधुर था। मौज मस्ती का समय था वह । न कोई शिकायत न किसी प्रकार की चिंता।
क्रमशः…
डॉ हंसा दीप
संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada
दूरभाष – 001 + 647 213 1817 ईमेल – [email protected]
मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३ सेक्टर – ५, सी. बी. डी. – नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र
मो. 836 925 2454, email-id – [email protected]
भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘
संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607
मो. 9422856767, 8971063051
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – पूरक
मेरे पथ राधा है,
तुम्हारे पथ श्याम,
तुम्हारे साथ सीता,
मेरे साथ राम,
मैं सूरज लिए चल रहा,
तुम्हारे मग चाँद चमक रहा,
मैं दिन का फेरा,
तुम रात का डेरा,
मैं कुएँ की जगत,
तुम प्यास की संगत,
तुम गंगोत्री की धारा,
मैं तृष्णा का मारा,
स्मरण रहे, बिना साथ
हम अपूर्ण हैं, सम्पूर्ण नहीं,
हम पूरक हैं, विलोम नहीं।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
Shri Jagat Singh Bisht
☆ – Recipe for Authentic Happiness and Well-Being – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆
Can we experience continuous happiness? Is there a way to reclaim the child-like joy in our body, mind, and spirit? Can we shield ourselves from the stress of daily life and cultivate a tranquil mind?
More importantly, is it possible to develop a simple routine that keeps us energized throughout the day?
These are questions I have pondered for over two decades. I have not only reflected on them but also researched, experimented, and learned. Today, I feel fortunate and fulfilled to share the fruits of that journey—a recipe for authentic happiness that is practical, enriching, and transformative.
The Journey Begins:
My journey began as a behavioral science trainer, helping people discover their authentic selves. Spending long hours with them was deeply satisfying, but I struggled to share these meaningful experiences with my wife. That disconnect felt like a loss.
In response, we decided to embark on an activity we could share. That decision turned out to be life-changing. We discovered laughter yoga, an activity that brought joy and connection into our lives. Over time, we started conducting sessions to spread smiles and uplift others. What began as a shared interest became a profound purpose, drawing participants from across the world.
Laughter yoga is one of the most uplifting activities imaginable. It generates positivity, promotes health, and sparks instant joy. Unconditional laughter often leads to a meditative state, melting away stress and worry. There’s something profoundly spiritual about making others laugh, especially those who feel weighed down by life’s burdens.
Despite its immense benefits, we realized that laughter yoga had its limitations. It felt like a delightful dessert, but what people needed was a wholesome meal.
A Deeper Exploration:
This realization led us to explore yoga nidra, a systematic method for achieving deep physical, mental, and emotional relaxation. As we delved deeper, we unearthed hidden treasures. This path eventually led us to ancient meditation practices, including Buddha’s mindfulness and insight meditations.
Simultaneously, I immersed myself in the field of positive psychology. According to its founder, Martin Seligman, the five elements of well-being are positive emotions, engagement, relationships, meaning, and accomplishment. Similarly, Sonja Lyubomirsky’s research highlights the most effective happiness practices, such as embracing spirituality, engaging in physical activity, meditating, and simply acting happy.
Psychologist Mihaly Csikszentmihalyi draws parallels between yoga and the state of flow – a joyous, self-forgetful involvement achieved through focused concentration. He describes yoga as a “thoroughly planned flow activity,” made possible through disciplined practice.
Influential figures like Stephen Covey, Daniel Goleman, Matthieu Ricard, and Richard Gere also attest to the transformative power of meditation. Their lives exemplify how regular practice contributes to enduring happiness.
Experiments in Happiness:
Building on these insights, we designed and implemented programs to promote happiness and well-being:
The Wheel of Happiness and Well-Being:
Designed for workplaces and educational institutions, this program integrates positive psychology, meditation, yoga, laughter yoga, and spirituality. Participants found it highly valuable, appreciating its comprehensive approach.
Meditate Like the Buddha:
A weekly, early-morning meditation session focused purely on mindfulness and inner stillness. Participants loved its simplicity and requested daily sessions.
Happiness Boot Camp:
Held on weekends in parks, this family-friendly program combined yoga, meditation, laughter yoga, and fun activities. The response was overwhelmingly positive.
East Meets West Retreat:
A week-long retreat blending modern science with ancient wisdom. Participants learned to create a meaningful and joyful life while training to become versatile Happiness and Well-Being Facilitators. The retreat featured practices such as yoga nidra, surya namaskara, the five Tibetans, anapana meditation, sufi meditation, and happiness activities.
The Recipe for Happiness:
After years of practice, experimentation, and interaction with thousands of participants, we believe we have discovered a genuine recipe for happiness and well-being. It is a blend of modern insights and ancient wisdom, woven together with the threads of mindfulness, physical vitality, and emotional connection.
Ultimately, the greatest fulfillment comes from touching lives -helping others discover their own paths to happiness and well-being.
© Jagat Singh Bisht
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
Founder: LifeSkills
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈
श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा
राम राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गई। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में विध्वंश का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिर शाह की दिल्ली लूट और कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, लूट, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि जिसके निशान आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं।
बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने हम्पी में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। ग्रंथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस और उसकी लूट। साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था। क्योंकि बेरहम विध्वंस के बाद वे जनता को बदहाल करके यहाँ से चलते बने।
सल्तनत की संयुक्त सेना ने हम्पी को खूब लूटा और इसे खंडहर में बदल दिया। अपनी पुस्तक ‘द फॉरगॉटेन एम्पायरट‘ में रॉबर्ट सेवेल ने लिखा है, “आग और तलवार के साथ वे विनाश को अंजाम दे रहे थे। शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहर कभी नहीं ढाया गया। इस तरह एक समृद्ध शहर लूटने के बाद नष्ट कर दिया गया और वहाँ के लोगों का बर्बर तरीके से नरसंहार कर दिया गया।”
सामान्यतः विजयी सेना विजित राज्य के ख़ज़ाने को लूटती है। मुस्लिम सेना ने हम्पी पहुँच खजाने को नहीं पाया तो उन्होंने आम कत्लेआम का फरमान जारी कर जिहाद का “सिर कलम या इस्लाम” आदेश दिया। दक्कन की सल्तनतों की संयुक्त सेना ने विजयनगर की राजधानी हम्पी में प्रवेश करके जनता को बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया।
मुस्लिम आक्रांताओं ने पूरी राजधानी का एक भी नागरिक ज़िंदा नहीं छोड़ा और एक भी घर या दुकान नष्ट करने से नहीं छोड़ी। पंक्तिबद्ध खड़े पत्थर के खंभे बिना छत की क़तारबद्ध दुकानों के अवशेष मुस्लिम अत्याचार की कहानी कहते हैं। महल, रनिवास, स्नानागार, बैठक, चौगान, गलियारे सभी नेस्तनाबूद कर दिये। बारूद से मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने और भ्रष्ट करने के कार्य चार महीनों तक अनवरत जारी रहे। हम्पी में गिद्दों और जगली कुत्तों के सिवाय कुछ भी शेष नहीं छोड़ा।
हम्पी को खंडहर में तब्दील करने के बाद बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, और मराठों के प्रतिनिधि घोरपड़े ने संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य के इलाक़ों को आपस में बाँट लिया। एकमात्र हिंदू विजयनगर साम्राज्य मिट्टी में मिला दिया गया। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् विजयनगर राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों ने विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दक्कन की इन सल्तनतों ने विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए। बाद में शिवाजी के अभ्युदय से इनका बहुत बड़ा इलाक़ा मराठा साम्राज्य में विलीन हो गया।
विजयनगर की हार के कई कारण थे। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कम संख्या थी। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में विजयनगर के सेना में जो भी हथियार इस्तेमाल किये जा रहे थे वे आधुनिक व परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने बेहतर थे। उनकी व्यूह रचना कारगर सिद्ध हुई। विजयनगर की हार का सबसे बड़ा कारण उनकी सेना के गिलानी भाइयों का विश्वासघात था।
गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की हार के बाद, सल्तनत की सेना ने हम्पी के खूबसूरत शहर को लूट खंडहर में बदल दिया। यह एक उजड़ा हुआ बंजर इलाका है, जहां खंडहर बिखरे हुए हैं, जो एक हिंसक अतीत की कहानी बयान करते हैं। हम्पी धूल धूसरित होकर ज़मीन के भीतर खो गया था। जिसके ऊपर पेड़ झाड़ी ऊग आए और यह पहाड़ियों में तब्दील हो गया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ौजी अधिकारी से पुरातत्ववेत्ता बने कॉलिन मैकेंज़ी ने 1800-1810 में हम्पी के खंडहरों की खोज की थी। 1799 में, मैकेंज़ी सेरिंगपट्टम की लड़ाई में ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, जिसमें मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की हार हुई थी। टीपू की हार के बाद, उन्होंने 1799 और 1810 के बीच मैसूर सर्वेक्षण का नेतृत्व किया और इसका एक उद्देश्य राज्य की सीमाओं के साथ-साथ निज़ाम के क्षेत्रों को निर्धारित करना था। सर्वेक्षण में दुभाषियों, ड्राफ्ट्समैन और चित्रकारों की एक टीम शामिल थी जिन्होंने क्षेत्र के प्राकृतिक इतिहास, भूगोल, वास्तुकला, इतिहास, रीति-रिवाजों और लोक कथाओं पर सामग्री एकत्र की।
सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) पहुंच गया था। पेनुकोंडा को उसने अपनी नई राजधानी बनाया, लेकिन वहां भी नवाबों ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शायद किसी ने उनका पीछा नहीं किया। विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। गद्दारों के कारण विजयनगर साम्राज्य 1646 में पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनका शासन 1642-1650 था। यह चर्चा करते-करते हम सभी तीन बजे तक हम्पी पहुँच गए। बीच में एक दक्षिण भारतीय होटल में रुककर शुद्ध दक्षिण भारतीय भोजन किया। सूर्य पूरी तन्मयता से तपा रहा था। हमारे साथी लोग सिकंजी, नारियल पानी, आइसक्रीम इत्यादि पर टूट पड़े। निस्तार इत्यादि से फुरसत होने के पश्चात सबको इकट्ठा कर विरूपाक्ष मंदिर चल दिए।
क्रमशः…
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश…“।)
अभी अभी # 587 ⇒ गुमशुदा की तलाश
श्री प्रदीप शर्मा
एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय मोहन, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।
लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।
तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।
तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।
गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।
हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।
कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।
होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।
सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं।
चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।
और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
श्री एस के कपूर “श्री हंस”
☆ “श्री हंस” साहित्य # 144 ☆
☆ मुक्तक – ।।घर में प्रेम,रौनक का रंग ,भरती हैं बेटियाँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
☆
=1=
बेटियाँ और आगे भी बढ़ेंगी बेटियाँ।
बराबर हक के लिए भी लड़ेंगी बेटियाँ।।
बेटों से कमतर नहीं हैं बेटियाँ भी हमारी।
हर ऊँची सीढ़ी पर भी चढ़ेंगी बेटियाँ।।
=2=
विश्व पटल पर आज बेटियों का ऊंचा नाम है।
आज कर रही दुनिया में वह हर काम है।।
बेटी को जो देते बेटों जैसा प्यारऔर सम्मान।
अब वही माता पिता कहलाते महान हैं।।
=3=
हर दुःख सुख साथ में संजोतीं हैं बेटियाँ।
हर घर प्रेम और रौनक के फूल बोती हैं बेटियाँ।।
बड़ी होकर करती सृष्टि की रचना बनके नारी।
प्रभु कृपा बरसती वहीं जहाँ होती हैं बेटियाँ।।
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© एस के कपूर “श्री हंस”
बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब – 9897071046, 8218685464
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – बापू का सपना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 210 ☆ कविता – बापू का सपना… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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बापू का सपना था—भारत में होगा जब अपना राज ।
गाँव-गाँव में हर गरीब के दुख का होगा सही इलाज ॥
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कोई न होगा नंगा – भूखा, कोई न तब होगा मोहताज ।
राम राज्य की सुख-सुविधाएँ देगा सबको सफल स्वराज ॥
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पर यह क्या बापू गये उनके साथ गये उनके अरमान।
रहा न अब नेताओं को भी उनके उपदेशों का ध्यान ॥
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गाँधी कोई भगवान नहीं थे, वे भी थे हमसे इन्सान ।
किन्तु विचारों औ’ कर्मों से वे इतने बन गये महान् ॥
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बहुत जरूरी यदि हम सबको देना है उनको सन्मान ।
हम उनका जीवन समझें, करे काम कुछ उन्हीं समान ॥
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
श्री सुनील देशपांडे
कवितेचा उत्सव
☆ “प्रेषित…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆
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प्रेषित निघून जातात कालातीत विचारांचे ठसे ठेवत.
आम्ही मात्र काळाच्या पडद्यावर रक्तलांच्छित ठसे ठेवतो.
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ते सुळावर चढतात आमच्या कल्याणा साठी.
त्यांच्या विचारांना आम्ही सुळी देतो स्वार्थासाठी.
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ते आपलाच क्रूस वागवतात खांद्यावर स्वतःच्याच.
आम्ही जबाबदारीचे ओझेही पेलत नाही स्वतःच्याच.
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मृत्यूनंतरही ते पुन्हा प्रकटतात आमच्या भल्यासाठी.
मारेकरी मात्र सतत जन्म घेतात क्रौर्यासाठी.
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एकदा क्रूरपणे त्यांना प्रत्यक्ष मारण्यासाठी,
मग अधिक क्रूरपणे विचारांना मारण्यासाठी.
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© श्री सुनील देशपांडे
email : [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈