(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सर्वे भवन्तु सुखिनः…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
लोगों के मेलजोल का पर्व महाकुम्भ है, अथक परिश्रम, लंबा जाम, कई किलोमीटर की पैदल यात्रा के वावजूद लोग सपरिवार आस्था की डुबकी लगाने प्रयागराज आ रहे हैं। धैर्य के साथ जब कोई कार्य किया जाएगा तो उसके परिणाम सुखद होंगे। भारत के कोने- कोने से आते हुए लोग एकदूसरे को समझने का भाव रखते हैं। वास्तव में भारत की यही सच्ची तस्वीर है। यही कल्पना हमारे ऋषिमुनियों ने की थी जिसे योगी सरकार ने साकार कर दिया है।
माना कि कुछ असुविधा हो रही है किंतु जब नियत अच्छी हो तो ये सब स्वीकार्य है।
हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है। यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा ही सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे। रिश्तों में जब लाभ -हानि की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है। अपने आप को सहज बना कर रखें जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें।
कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है।
सब कुछ मिल जायेगा पर कुछ नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।
शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप के दृढ़संकल्प से जीत सके। तो बस जो सही है वही करें उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।
☆ Meditate Like The Buddha # 19: THE NOBLE EIGHTFOLD PATH ☆
“Now this, bhikkhus, is the noble truth of the way leading to the cessation of suffering: it is the Noble Eightfold Path; that is right view, right intention, right speech, right action, right livelihood, right effort, right mindfulness, and right concentration.” — Buddha
The Path to Liberation
The Buddha discovered both the Four Noble Truths and the Noble Eightfold Path. While the Four Noble Truths diagnose suffering and its cause, the Noble Eightfold Path provides the discipline to be practiced in order to overcome suffering and attain Nibbana.
The Middle Way, as taught by the Buddha, avoids the extremes of sensual indulgence and self-mortification. It gives rise to vision, knowledge, peace, direct insight, enlightenment, and liberation.
The Eightfold Path Explained
The Noble Eightfold Path consists of eight interconnected factors, grouped into three main categories:
Wisdom (Paññā)
Right View
Right Intention
Moral Discipline (Sīla)
Right Speech
Right Action
Right Livelihood
Concentration (Samādhi)
Right Effort
Right Mindfulness
Right Concentration
Right View
Understanding suffering, its origin, cessation, and the path leading to its cessation.
Holding wrong views leads to wrong actions and suffering, while right view steers one towards right action and freedom from suffering.
A person of right view acts in ways that lead to happiness and liberation.
Right Intention
Intention of renunciation (letting go of craving).
Intention of non-ill will (cultivating goodwill and loving-kindness).
Intention of harmlessness (developing compassion and non-violence).
Whenever thoughts of desire, ill will, or harmfulness arise, they should be replaced with renunciation, goodwill, and harmlessness.
Right Speech
Abstaining from false speech, malicious speech, harsh speech, and idle chatter.
Speaking in ways that bring peace, harmony, and safety.
Truthful, kind, and meaningful speech fosters spiritual development.
Right Action
Abstaining from killing, stealing, and sexual misconduct.
Cultivating kindness, honesty, and responsibility.
One’s actions should not cause harm to oneself or others.
Right Livelihood
Earning a living through righteous means.
Avoiding trades that cause harm, such as dealing in weapons, intoxicants, or human exploitation.
A livelihood that upholds ethical values supports spiritual growth.
Right Effort
Preventing unwholesome mental states from arising.
Overcoming unwholesome states that have already arisen.
Developing and maintaining wholesome states such as serenity and insight.
Right effort ensures progress in meditation and ethical conduct.
Right Mindfulness
Contemplation of the body, feelings, mind, and mental objects.
Developing a continuous presence of mind.
Practicing the Four Foundations of Mindfulness.
Mindfulness fosters clarity, awareness, and insight.
Right Concentration
Cultivating deep meditative absorption (jhana).
Developing one-pointed focus of the mind.
Achieving inner tranquility and profound insight.
Concentration leads to deep wisdom and liberation.
Conclusion
By developing and practicing the Noble Eightfold Path, one progresses toward liberation from suffering and attains true peace and enlightenment.
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A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “खैर खबर.. ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 336 ☆
कविता – खैर खबर… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
गुड मार्निंग का व्हाट्स अप आ गया उनका
समझ लिया कि सब खैरियत ही है
गए वो दिन, जब बेवजह होती थीं गुफ्तगू
बात करने में अब बोरियत ही है
बर्थ डे, एनिवर्सरी पर जो फोन होते हैं
और सुनाओ पे आकर जल्दी
हाले मौसम में अल्फ़ाज़ सिमट जाते हैं
अपनो में भी अब ग़ैरियत ही है
हाथों में हाथ डाले घूमना, मटरगश्ती करना
बीते दिनों की बात हुई
इस अलगाव की वजह शायद, मेरी या उनकी हैसियत ही है
बैठको में सिर्फ सोफे और दीवान बचे हैं ठहाको वाली महफिलें गुमशुदा हैं
क्लब या होटल में मिलना, फ़ज़ूल ही मशगूल होने की कैफियत ही है
मिलें न मिलें रूबरू दिनों महीनो, बरसों बरस की संगत है
पता सब का, सब को सब होता है, ये दोस्तों
अपनी शख्सियत ही है
अच्छे भले में मिल लो यारों, बातें कर लो,
पी लो साथ साथ जाम
कल का किसको पता है, दूरियां हैं, उम्र भी है, चले न चले तबियत ही है
मरने के लिए ही जैसे, जी रहे हैं कई उम्र दराज शख्स
जीने के लिए जियो कुछ नया करो, हर लम्हा जिंदगी की मिल्कियत ही है ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “परीक्षा की घड़ी…“।)
अभी अभी # 609 ⇒ परीक्षा की घड़ी श्री प्रदीप शर्मा
आपने कलाई घड़ी देखी होगी, दीवार घड़ी देखी होगी, टेबल क्लॉक भी देखी होगी, जिसे अलार्म क्लॉक भी कहते थे। जिन्होंने कोई घड़ी नहीं देखी, उन्होंने नूरजहां और सुरैया – सुरेन्द्र की अनमोल घड़ी तो अवश्य ही देखी होगी। आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है।
समय गतिमान है, चलायमान है। घड़ी कहीं जाती नहीं, फिर भी चलती रहती है। टिक, टिक, टिक चलती जाए घड़ी। घड़ी समय बताती है। घड़ी के कांटे सेकंड, मिनिट व घंटा दर्शाते हैं जब कि एक कैलेंडर दिन, महीने और साल दर्शाता है। जब सब कुछ नहीं था, तब भी समय था। जब सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी समय मौजूद रहेगा।।
हमें परीक्षा के समय, घड़ी की बहुत याद आती थी। परीक्षा की तैयारी के लिए प्रिपरेशन लीव लग जाती। समय के पांव लग जाते। जैसे जैसे परीक्षा की घड़ी नजदीक आती, हम लोग टाइम टेबल बनाने बैठ जाते। टेबल पर एक टाइम पीस की भी ज़रूरत पड़ती, रात को जल्दी सोने और सवेरे जल्दी उठकर पढ़ने के लिए। जागने के अलार्म से हमारे अलावा सब जाग जाते थे। जितनी नींद परीक्षा के दिनों में आती थी, उतनी बाद में जीवन में कभी नहीं आई।
और आखिर वह दिन आ ही जाता, जिसका साल भर से इंतज़ार था। परीक्षा की घड़ी। समय इतना कीमती कभी नहीं हुआ। एक घड़ी कलाई पर भी सुशोभित हो जाती थी। समय से पहले परीक्षा हॉल में पहुंचना, असली जियरा धक धक तो वहीं होता था, लेकिन तब आंखों के सामने धक धक गर्ल नहीं, परीक्षा पत्र घूम रहा होता था।।
समय २.३० घंटे। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। सरसरी निगाह से प्रश्न पत्र को पढ़ा जाता फिर श्री गणेशाय नमः लिखकर प्रश्न पत्र हल किया जाता। बार बार घड़ी पर निगाह जाती। लगता, घड़ी बहुत तेज चल रही है। समय कम पड़ रहा है। इतने में एक सज्जन उठते, विजयी मुद्रा में सबको देखते हुए उत्तर पुस्तिका निरीक्षक महोदय को सौंप बाहर निकल जाते। सभी जानते थे, उन्हें सफाई के पूरे नंबर अवश्य मिलेंगे और अगले वर्ष भी वे इसी कक्षा में मिलेंगे।
प्रश्न हल हों, न हों, परीक्षा की घड़ी को तो समाप्त होना ही है। आखिर आगे जीवन का इम्तहान भी तो देना है। कभी सुख के पल, तो कभी दुख की घड़ी। सुख के पलों के तो पंख लगे होते हैं, लेकिन दुख के दिन, बीतत नाहिं।।
नेपथ्य में सचिन देव बर्मन की आवाज गूंज रही है ;
यहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां !
दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पाएगा कहां।
परीक्षा की घड़ी में केवल धैर्य ही काम आता है। समय कब किसी के लिए रुका है। किसी ने सही कहा है ;
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद– “बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆
☆ बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।
तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।
“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं,” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा,” कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।
ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”
मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।
कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”
देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनय करना तो दूर की बात थी।
तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”
“हां, कर तो सकते हो,” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनय करें तो बात बन सकती है। फिर देवांश ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”
यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर पूछा, “क्यों सही है ना?”
“हां सरजी, मैं करके रहूंगा,” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।
राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।
वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।
उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।
देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”
“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।
तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”
यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”
इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है,” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।
“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए,” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता,सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”
तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।
अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”
“अरे! दोस्ती में कैसी माफी,” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”
तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”
प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।
पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।
(पूर्वसूत्र- हॉस्पिटल येताच मी पटकन् उतरून निघालो. सोबत घोरपडेसाहेबही होतेच. आम्ही आत गेलो तेव्हा आरती, माझी आई आणि भाऊ केबिनच्या बाहेर बसलेले दिसले. मी आरती जवळ गेलो. मला पहाताच तिचे डोळे भरून आले.
“समीर सिरीयस आहे. डॉक्टर तुझीच वाट बघतायत. जा लगेच. बोल त्यांच्याशी. ” आईचाही आवाज बोलताना भरून येत होताच.
आज माझ्यापुढे काय वाढून ठेवलं असेल या आशंकेनेच मी कसंबसं स्वतःला सावरत डॉक्टरांच्या केबिनकडे धाव घेतली… !!)
पाठोपाठ घोरपडे साहेब होतेच.
भूतकाळातला चटका लावून गेलेला इथवरचा प्रसंग आरतीला सांगण्याची आवश्यकता नव्हती आणि पुढचं सगळं सांगायचं मला धाडस होत नव्हतं.
” मी शांतपणे ऐकून घेईन.. त्रास करुन घेणार नाही.. पण सांगा लवकर.. काय सांगणार होतात?… “
” त्यादिवशी डॉक्टरांच्या केबिनमधून आम्ही बाहेर आलो तेव्हाच डॉक्टर काय म्हणाले ते तुला जाणून घ्यायचं होतं. पण मोघम कांहीतरी तुला दिलासा देणारं सांगून मी वेळ मारून नेली होती. खरी परिस्थिती वेगळीच होती….. “
“वेगळीच म्हणजे.. ?”
” ऍलोपॅथिक औषधांच्या सततच्या टाळता न येणाऱ्या उपचारांमुळेच त्यादिवशी त्याला मॅनेन्जायटीसचा अॅटॅक आला होता. म्हणूनच त्याची घुसमट होऊन त्या दिवशी संध्याकाळी त्याच्या तोंडाला फेस आला होता आणि तो काळा निळा पडत चालला होता. मला हे सगळं सांगून शांतपणे डॉक्टरांनी मला समजावलं होतं आणि मी कधी कल्पनाही केली नव्हती असा एक प्रस्ताव माझ्यापुढे ठेवला होता… “
” कसला प्रस्ताव.. ?”
मी धीर गोळा करून तिच्या नजरेला नजर देत अंदाज घेत असतानाच माझ्याही नकळत माझ्याच तोंडून स्वतःशीच बोलावं तसे शब्द निसटलेच…..
“समीरला या यातनांतून सोडवण्याचा… “
ती अविश्वासाने माझ्याकडे पहात राहिली. आता सगळं सांगण्याशिवाय माझ्याकडे पर्यायच नव्हता.
” डाॅक्टर म्हणाले होते,
‘मॅनेन्जायटीसच्या अटॅकमुळे तो यापुढचं त्याचं संपूर्ण आयुष्य अंथरुणाला खिळून रहात मतिमंद म्हणूनच जगणार आहे. ते आयुष्य त्याच्यासाठी फक्त यातनामय असं असह्य दु:खच असेल. या अवस्थेतून त्याच्या अशा दयनीय अवस्थेमुळे तो कधीच बाहेर पडू शकणार नाही. जितकी वर्षं तो जगेल तोपर्यंत अंथरुणावर पडल्या अवस्थेत पूर्णत: परावलंबी आयुष्य ओढत राहील. किती दिवस, किती वर्षं हे सांगता येणार नाही. आणि तोवर त्याची देखभाल आणि सर्व प्रकारची सेवा त्याच्या आयुष्यभर तुम्हाला करावी लागेल. त्याला या सगळ्या यातनांमधून मुक्त करायची हीच वेळ आहे. पण त्यासाठी जन्मदाते पालक म्हणून तुमची संमती गरजेची असणार आहे. “
असं म्हणून त्यांनी माझ्यापुढे सहीसाठी एक फाॅर्म ठेवला. त्याकडे नजर जाण्यापूर्वीच हे सगळं ऐकून मी गोठून गेलो होतो. शून्यात पहात क्षणभरच तसाच उभा असेन तेवढ्यात घोरपडे साहेबांनी मला थोपटलं.. आणि मी भानावर आलो…
“आजपर्यंत खूप सोसलंय बाळानं आणि तुम्ही सगळ्यांनीही. जे जे करायचंय ते ते सगळं केलंयत. आता जे करायचं ते त्या बाळाच्या हितासाठी, डाॅक्टर म्हणाले तसं करणं गरजेचं आणि योग्यही आहे. ऐक माझं… ” असं म्हणून घोरपडे साहेबांनी स्वतःच्या खिशातलं पेन माझ्या हातात दिलं. त्यांचे सगळे शब्द माझ्या कानाला स्पर्शून विरून गेले. कारण मी काय करायला हवं ते मी डॉक्टरांचं बोलणं ऐकलं तेव्हाच मनोमन ठरवलंच होतं जसंकांही. मी ते पेन घेतलं. शांतपणे डॉक्टरांकडे पाहिलं. त्यांनी जे सुचवलं होतं त्यात त्यांचा कणभरही स्वार्थ नाहीय हे मला समजत होतं, पण तरीही.. ?
“डॉक्टर, तुम्ही म्हणताय त्यातलं तथ्य मी नाकारत नाही. पण निर्णय घेण्यापूर्वी एकच प्रश्न विचारायचाय. “
“कोणता प्रश्न?”
“विज्ञानाने लावलेल्या शोधांमुळे हे आपण सहज सुलभ पद्धतीने करू शकतो हे खरं आहे, पण समजा आत्ता मी बाळाला या पद्धतीने यातनामुक्त करायला परवानगी दिली, तर आमच्या संसारात पुढे येणारं आमचं अपत्य त्याच्या आयुष्यभर पूर्णतः निरोगी राहील याची खात्री हेच विज्ञान देऊ शकणाराय कां?”
डॉक्टर माझ्याकडे थक्क होऊन पहात राहीले.
“हे कसं शक्य आहे?अशी खात्री कुणीच देऊ शकणार नाही. ” ते म्हणाले.
“असं असेल तर बाळाचे जे कांही भोग असतील ते तो पूर्णपणे भोगूनच संपवू दे. मी अखेरच्या क्षणापर्यंत त्याची सोबत करेन. जन्म आणि मृत्यू हे देवाचे अधिकार आपण आपल्या हातात नको घ्यायला. तो जिवंत असेल तितके दिवस त्याची सगळी सेवा मनापासून करणं हेच माझं सुख समजेन मी. आपण शक्य असेल ते सगळे उपचार सुरू ठेवूया डॉक्टर… “
माझं बोलणं संपलं तरी आरती त्यातच हरवल्यासारखी क्षणभर गप्प बसलीय असं वाटलं पण ते तसं नव्हतं. आतून येणारे दु:खाचे कढ ती महत्प्रयासाने थोपवू पहातेय हे मला जाणवलं तोवर तिनं स्वतःला कसंबसं सावरलं. आपले भरून येणारे डोळे पुसून कोरडे केले पण ते आतून ओलावतच राहिले.
“आणि.. हे.. हे सगळं आज सांगताय तुम्ही? इतके दिवस स्वतः एकटेच सहन करत राहिलात? मला विश्वासात घेऊन कां नाही सांगितलंत सगळं.. ?”
दोघांनीही दडपणात राहून काय केलं असतं आम्ही? कुणातरी एकाच्या मनातला आशेचा किरण तरी विझून चालणार नव्हता ना? आणि ती हे सगळं सहन नाही करु शकणार असंही वाटत होतं हेही खरं.
“तुला मुद्दाम सांगावं अशी ती वेळ नव्हती. आणि ते तुला सांगायलाच हवं अशी हीच वेळ आहे म्हणून आत्ता सांगितलं. आता मी बोलतो ते नीट समजून घे. माझ्या मनात अनेक प्रश्न गर्दी करतायत. लिलाताईच्या पत्रानं मला सावरलंय, दिलासा दिलाय, म्हणूनच या परिस्थितीतही मी सर्व बाजूंनी या घटनेचा शांतपणे विचार करु शकतोय. समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधांनी बरा होण्याच्या पलीकडे गेलाय ही आपल्यापैकी डॉक्टर, मी आणि घोरपडे साहेब याखेरीज बाकी कुणालाच माहित नसलेली गोष्ट लिलाताईपर्यंत पोचणं शक्य तरी आहे कां?आणि तरीही… ? तरीही ते तसं ती तिच्या पत्रात अगदी सहजपणे लिहितेय. हो ना? शिवाय समीर बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि पूर्ण बरा होऊन तो परत येणार आहे हेही आपल्याला सांगतेय. यावर आपला विश्वास बसावा, आपण सावरावं म्हणूनच जणू मला आज तिच्या आईना भेटायला जायची बुद्धी होते, तिथे जाण्यापूर्वीचं तुझ्या अस्वस्थतेमुळं मनात निर्माण झालेलं त्यांच्याबद्दलचं अनाठायी किल्मिष त्यांना अंतर्ज्ञानाने समजले असावे इतक्या सहजपणे त्या आपुलकीच्या शब्दांनी अलगद दूर करतात काय आणि आपल्याला निश्चिंत केल्यासाठीच बोलल्यासारखं लिलाताईच्या वाचासिध्दिबद्दल उत्स्फूर्तपणे सांगतात काय… सगळंच अतर्क्य आहे असं नाही तुला वाटत?”
सगळं ऐकलं आणि खऱ्याखोट्याच्या सीमारेषेवर घुटमळत असावी तशी ती विचारात पडली. पण क्षणार्धात तिने स्वत:ला सावरलं आणि ठामपणे म्हणाली, ” तुम्ही समजता आहात तसं सगळं घडलं तरी तेवढ्याने माझं समाधान होणार नाहीs….. “
“म्हणजे.. ?”
“म्हणजे आपल्याला पुन्हा मुलगाच झाला तर आपला समीरच परत आलाय असं तुम्ही म्हणालही, पण मी…. ? तुम्हाला कसं सांगू… ? रात्री अंथरुणाला पाठ टेकली, अलगद डोळे मिटले की केविलवाण्या नजरेने माझ्याकडे पहात दोन्ही हात पुढे पसरत झेपावत असतो हो तो मी जवळ घ्यावं म्हणून, आहे माहित?आणि मग मनात रुतून बसलेल्या त्याच्या सगळ्या आठवणी खूप त्रास देत रहातात मलाs… तो गेल्यापासून रात्रभर डोळ्याला डोळा लागलेला नाहीय हो माझ्याs. त्याचे टपोरे डोळे,.. गोरा रंग,.. लांबसडक बोटं,.. दाट जावळ.. सगळं सगळं मनात अलगद जपून ठेवलंय मी. मुलगा झालाच तर तो आपला ‘समीर’च आहे की नाही हे फक्त मीच सांगू शकेन… बाकी कुणीही नाहीss.. ” भावनावेगाने स्वतःलाच बजावावं तसं ती बोलली न् उठून आत निघून गेली… !
तिच्या बोलण्यात नाकारण्यासारखं काही नव्हतंच. माझ्यासाठी हा प्रश्न तिच्या भावना आणि माझी श्रद्धा अशा दोन टोकांमधे तरंगत राहिला… ! यातून बाहेर पडायला ‘लिलाताई’ हे एकच उत्तर होतं आणि या महिन्यातली पौर्णिमाही लगेचच तर होती. जावं कां तिच्याकडे?भेटावं तिला?बोलावं तिच्याशी? हो. जायला हवंच. या विचाराच्या स्पर्शाने दडपण निघूनच गेलं सगळं. मन शांत झालं.. !
मी पौर्णिमेची आतुरतेने वाट पहात राहिलो खरा पण? गूढ.. उकलणार.. नव्हतंच. ते अधिकच गहिरं होत जाणार होतं.. !!
☆ दंगल… — भाग – १ – लेखक – श्री रवी दलाल ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रणिता खंडकर ☆
(एक अखेरचा डाव)
(महाराष्ट्रातील प्रसिद्ध लेखक, कथाकार श्री रवी दलाल यांची नुकतीच दिल्लीतील रॉक्स पुरस्काराकरीता निवड झाली. मराठी साहित्यकाराने दिल्लीतील दंगल जिंकून बहुमोलाचा राष्ट्रीय पुरस्कार पटकावला. राॅक्स हा विविध आठ भाषेतून आंतरराष्ट्रीय दर्जाचा विशेषांक निघतो… या पुरस्कारासाठी त्यांच्या “आंगधुणी” या कथासंग्रहातील “दंगल“ या पुढील कथेची निवड झाली आहे.)
संताजी पाटील हा मौद्याचा अस्कारलेला पहेलवान. त्याने अनेक तगडे पहेलवान मैदानी मारून नाव कमावले होते आणि आपल्या तिन्ही मुलांना देखील कुस्तीत तरबेज केले होते.
आणी मारोती गुजर हा निमखेड्याचा डावशील पहेलवान, त्याला डावपेचात जोड नव्हता. मोठमोठे पहेलवान मारुती समोर नांगी टाकून बसले होते. आणि कित्येकाला त्याने आसमान दाखविले होते.
संताजी आणी मारोती हे दोघेही फागुजी वस्तादाचे चेले, दोघेही कुस्तीतील महाबली, एक अफाट ताकतीचा तर दुसरा डावपेच महारथी पण यांचे मैदानी कधी पटलं नाही. संताजीला ताकतीचा घमंड होता तर मारुती साधा – सोज्वळ, दोघेही मर्द मराठा जातीचे आणि वयोमानाने जवळपास सारखेच.. संताजी पाटीलाच्या घरात तर बाप – जाद्यापासून कुस्ती वीरांची परंपरा होती तर मारुती वर पिढीजात कुस्तीचे संस्कार नव्हते. पण त्याने कुस्तीला कलात्मक बनवलं होतं. नव्हे डावपेच जन्माला घालून लाल माती व्यापून टाकली होती. म्हणून संताजी मारोतीच्या डावपेचाला दचकून होता. भर जवानीत यांची तीन वेळा कुस्ती झाली. दोन वेळा कुस्त्या बरोबरीत सुटल्या, तिसरी आणि शेवटची कुस्ती देवबाहुली गावात झाली.
तब्बल वीस वर्षानंतर कुस्ती होणार होती. या महा कुस्तीची चर्चा गावागावात – खेडोपाडी रंगली आणी देवबाहुलीत जनसागर उसळला. रामटेकचे श्रीमंत मालगुजर भैय्याजी देशमुख पेंडॉल मध्ये आले आणि माईक मधून जाहीर करण्यात आलं, *शेवटची कुस्ती मारोती गुजर, संताजी पाटील यांच्यात होणार असून या कुस्तीला रामटेकचे मालगुजर श्रीमंत भैय्याजी देशमुख यांच्याकडून चार एकर शेती बक्षीस मिळणार आहे म्हणून जाहीर करण्यात आलं. वस्ताद फागुजी मानकर कुस्तीचे पंच म्हणून काम पाहणार होते. लाल लंगोट कचून मारोती मैदानात शिरला. पिकलेल्या झुप्पेदार मिश्या, बलदंड शरीर, गठेल बांधा, मजबूत देह, सावळ्या वर्णाच्या मारोतीने कसरत करून मैदानी ताकद भरवली. दंड – बैठका ठोकून चक्कर मारला, लाल माती छातीवर घासून कोल्हांड उडी मारली, वयाच्या पन्नाशीत अशी अद्भुत कलाबाजी पाहून भैय्याजी देशमुख अचंबित झाले आणि मंग बँडबाजाच्या गजरात पहेलवान संताजी मैदानात उतरला, टक्कल पडलेलं, पिढीदार मिशी, वयाच्या पन्नाशीत संताजीचे कसदार शरीर कायम होते. बलाढ्य शरीरातील नस -नस फुगली होती. एका बैलाची ताकद अंगात फणफणत होती. भरीव गोलाकार दंड, रग्गड मांड्या आणि पोलादी छाती, ताकदीचे दंड ठोकून मिशीला पीळ दिला आणि मैदानी आवाज केला. फागोजीच्या दोन चेल्यात वर्चस्वाची लढाई पाहायला मिळणार होती. मारोतीला मात देणे सोपे नाही हे संताजी ला माहित होतं. ” मारोती ताकतीने कमी असला तरी डावपेचात गुरु द्रोणाचार्य होता. “
आता दोघात शेवटची लढत होणार होती. वयामानाने कुस्ती पण सोडणार होते म्हणून शेवटची भडास काढायची होती. ही कुस्ती चितपट करेपर्यंत रंगणार होती. देवबावडीचं मैदान गच्च भरलं होतं. पहेलवानात दंगल उसळू नये म्हणून हाफ – पॅन्ट वाल्या पोलिसांचा चोख बंदोबस्त होता.
घड्याळात अकराचा ठोका पडला आणि वस्ताद फागोजीने इशारा केला. मारोती – संताजी दात – ओठ खावून फणफणत पुढे आले. संताजीच्या नजरेत बदला घेण्याची आग ढगढगत होती तर मारोतीच्या नजरेत खेळ भावना होती भैय्याजी देशमुखाने हातात हात देऊन जोड भरला. कुस्ती सुरू झाली. संतांजीने जाध ठोकून मारोतीवर आक्रमण केले, पंजाला पंजा घातला. मारोतीने सावध पवित्र घेऊन पायाची कमान केली आणि दोघांचे डोके जवळ आले. सुरुवातीला ताकदीचा अंदाज घेणे सुरू झाले. ” पहिला घिस्सा डाव संताजीने मारला. मारोतीने दंडाची पकड ढिली करून आतली डाग लावली आणि संताजीचा घिस्सा डाव फेल गेला. पुन्हा दूरवर होऊन मैदानात गोल झाले. संताजीने माती अंगावर उधळली. पुन्हा मारोतीवर चाल केली. प्रचंड ताकदीच्या संताजीने ” ढाक डाव ” मारला पण मारोती डावपेचातला ” महागुरु ” त्याने सहज मानगुटीवर ” छालावं ” घेत संताजीला तोंडघशी पाडले. छातीत नवा दम भरून डाव – प्रतीडाव सुरू झाले. दोघेही घामाने भिजले होते. संताजीने ” कालगज डाव ” टाकून मारोतीला पाडले आणि पाठीवर बसला. मारोतीने पायाच्या ऐडित संताचा पाय दाबून कडीवार केले आणी बाहेरची टांग लावली. आता मारोती – संताजी पाठीवर स्वार झाला होता. डावपेच रंगले, दोघंही उन्नीस-बीस होते. कुस्ती सुरू होऊन बराच वेळ झाला होता. दोघांच्या ताकदीने, डावपेचाने परिसर तपला. बघणाऱ्यांचे डोळे टकणे झाले आणि बघता बघता मारोतीने ” नक्कल बावडी डाव ” मारून संताजीला अलगत उचलून आपटले. संताजी सफाईने पाठ न टेकवता हातात भार तोलून निसटला. आता दोघंही जेरीस पेटले होते. ” गिस्सा डाव, ढोबी डाव, आतली टांग, बाहेरची टांग, नकाल बाळूडी डाव ” मारून झाले. पण हार – जीत ठरत नव्हती. आता शेवटची कुस्ती पण बरोबरीत सुटणारं असा अनेकांचा अंदाज असतांना चतुर मारोतीने अखेरचा ” हुकमी डाव ” खेळला. ” खेमीडाव ” पोझिशन कायम ठेवून संताजीची मान बगलेत दाबली. आणि मोठ्या चतुराईने ” पैठीडाव ” मारला. संताजीला ” पैठी डावाची ” तोड माहीत नव्हती आणी संताजी मातीत आडवा झाला आणि दोन्ही गुडघ्यात मान दाबून ” पैठी डावाने ” संताजीला चीत केले. हा मारोतीचा ” हुकमी डाव ” तोडणे संताजीला जमले नाही आणि संताजी पराभूत झाला. संताजीचे तीनही पोरं मैदानात घुसली, मारोतीवर हमला केला. दंगल उसळली, मैदानात दोन गट भिडले आणि मारामारी सुरू झाली. पोलिसांनी लाठीचार्ज केला. घमंडी संताजीला पराभव पचवता आला नाही. पोलिसांची बंदूक हिसकावून मारोतीच्या छाताडावर लावली आणी गोळी झाडली. चपळ मारोतीने उंच उडी घेऊन गोळी चुकविली. सुटलेली गोळी संताजीच्याच पोराचा कंठ भेदून गेली आणि संताजीचा मोठा पोरगा पृथ्वीराज रक्ताच्या थारोळ्यात पडला. बापाच्या हातून पोराचा खून झाला. पोराच्या खुनात संताजीला सात वर्षाची शिक्षा झाली. सजा भोगून संताजी पाटील बाहेर आला. पण त्याची खुमखुमी कमी झाली नव्हती.
ही घटना होऊन पंधरा वर्षे लोटली. काळ बदलला होता. संताजी – मारोती वयोमानाने थकले. नव्या पिढीची हुजूरात सुरू झाली.
संताजीचे प्रताप आणि लखन बापासारखेच पहेलवान झाले. तर पोरगी आशा नागपूरला शिक्षण घेत होती. मारोती गुजरचा पोरगा बळवंता मिलमध्ये नोकरीला होता. निमखेड्यातील ग्रामपंचायतने मारोती गुजरला आखाड्याकरिता जागा दिली. खाली वेळेत मारोती तरुणांना कुस्त्याचे डावपेच शिकवत होता पण बळवंताने कुस्तीत रुची दाखविली नाही. बळवंता दिसायला आकर्षक, कसलेल्या शरीरयष्टीचा गबरू जवान ! त्यानंही कसरत करून शरीर कमावलं होतं. पण आखाड्यात कधी उतरला नाही. कुस्तीचा सराव केला पण मैदानी उतरला नाही.
अशा देखण्या राजबिंड्या बळवंताचं प्रेम संताजीच्याच आशा सोबत जुळलं. भेटीगाठी वाढल्या पण लग्न केलं नाही. कारण दोघांच्या बापाचं हाडवैर जगजाहीर होतं. हे प्रकरण समोर माहीत झालं तर खून पडणार होते. म्हणून दोघांनी विसरायचं ठरवलं. आणि दोघं वेगळे झाले.
आशाच लग्न बिहाडीच्या जमीनदार मुलाशी झालं. पण बळवंताने लग्न केले नाही. आशाच्या विरहात बळवंता स्वतःला संपवत होता. नोकरी करून घरी येणे आणि पडून राहणे हा एकमेव ठरलेला कार्यक्रम होता.
एकुलत्या एका पोराची दशा पाहून बळवंताची माय काळजीत होती. शेवटी बापाने बळवंताला विचारलं….
बल्लू, तू लग्नाचं काय ठरवलं…
सांग…
कधी जायचं…
मुलगी पाहायला….
मी मुलगी पाहून ठेवली आहे…
बळवंताने खाली मान टाकून लग्नास नकार दिला आणी बोलला.
बाबा, या घरात कधीच असून येणार नाही. मी लग्न करणार नाही..
मारोतीने वैतागून विचारले,
अरे, पण कां लग्न करणार नाही
कोंडलेला श्वास मोकळा करून बळवंता म्हणाला,
बाबा, इच्छा नाही…
तुम्हाला घरात सून मिळेल पण तिला माझी बायको होता येणार नाही
इतकं बोलून बळवंता बाहेर पडला.
बळवंता, आता लग्न करणार नाही. बापाला कळून चुकलं होतं. आणि शेवटी मारोतीने लग्नाचा विषय बंद केला.
मौदाला कन्हान नदीच्या काठावर पंचमीला यात्रा भरली. बळवंता मित्रासोबत यात्रेला गेला. झुल्या जवळ त्याला अचानक आशा दिसली पण तिची नजर दुसरीकडे होती. गर्दीतून रस्ता काढत बळवंता जवळ पोहोचला. तर आशा गर्दीत गडप झाली होती. पण क्षणात आशा नजरेतून औझल झाली. बळवंताची नजर भरारली, आशाला पाहण्याची तळमळ वाढली…… पाळण्यावर चढून दूर नजर फेकली. आशा पुन्हा नजरेत आली. बळवंताचा जीव भेटीसाठी कासावीस झाला. गर्दी लोटत बळवंता आशा जवळ पोहोचला आणि दोघांची नजरावर नजर झाली. ” जवळपास एक वर्षाच्या अंतराने एकमेकांना पहात होते, डोळे पाणावले, हुंदका दाटला. आशाने घट्ट कवटाळून घेतले. दोघांचेही हृदय दाटून आलं…. अश्रूचा बांध फुटला, अशाने आव गिळत विचारले….
बल्लू, कसा आहेस ?
बल्लूने फक्त मान हलवली, आशाने बल्लूला हात धरून बाजूला ओढले…
बर्रर्र बरं, मला सांग, कुठली मुलगी केली तू ? आता ती पण आली कां यात्रेत ? न थांबता आशा बोलत होती, तर बळवंता तिला न्याहाळत होता. आशाने बल्लूच्या डोळ्याची लिंक तोडली,
ये माझ्या हिरो, कुठे हरवला…. ?
आरे, बघतच राहशील, कां काही बोलशील ?
चुटकी वाजवून सावध केले… पण बळवंता चूप होता, , ,
कशी आहे, तुझी बायको ती आली कां ?
बळवंताने आशाला थांबवलं….
आशा, मी लग्न नाही केलं गं… ?
आशा एकदम डोळे फाडून बोलली…
काय ?
तू अजून लग्न नाही केल ? आशा गहिवरली….
मी तुला विसरू शकलो आशा, तुझी जागा कोणीही घेऊ शकत नाही…. बोललो होतो ना…. आशा, माझ्या जीवनात तुझ्याशिवाय कुणी येणार नाही म्हणून ? तुला दिलेल्या वचनावर कायम आहो. माझा शब्द पवित्र प्रेमाची कसोटी आहे… मी लग्न करणार नाही… तुझ्या आठवणीत हे जीवन एकटं काढायचं ठरवलं आहे…