English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Kiwi Touch of India: Unraveling the Mystery Behind Indian-Inspired Place Names:  # 8 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Kiwi Touch of India: Unraveling the Mystery Behind Indian-Inspired Place Names: # 8 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

We had planned a day-long round trip to the Coromandel Peninsula. We were pleasantly surprised to discover Bombay on the outskirts of Auckland.

Could you hazard a guess to tell us where these places and streets are located – Madras Street, Kerala Way, Cashmere Avenue, Simla Crescent, Amritsar Street, Delhi Crescent, Agra Crescent, Nagpur Terrace, Calcutta Street, Mysore Street, Lucknow Terrace, Baroda Street, Benares Street, Punjab Street and Bengal Street?

Where possibly would you find Gavaskar Place and Kapil Grove?

And: Khandallah, Berhampore, Dehra Doon Road, Darjeeling Lane, Ganges Road, Kanpur Road, Jaunpur Crescent, Birla Terrace, Rajkot Terrace, Surat Bay, Delhi Place, Rama Crescent, Karori Borough, Miramar Borough, Indira Place, Shastri Place, Sita Way, Lakshmi Place… You name it!

These intriguing place names offer a glimpse into a fascinating chapter of New Zealand’s history. Scattered across the country, particularly in cities like Wellington, Christchurch, and Auckland, you’ll encounter a surprising number of streets and places with names of Indian origin.

A Wellington Wander:

 * The Indian Quarter: This historic area once thrived with Indian traders and shopkeepers. You’ll find remnants of this vibrant past in street names like Madras Street, Calcutta Street, and Benares Street.

 * A Touch of the Raj: Echoes of British India resonate in names like Delhi Crescent, Agra Crescent, and Simla Crescent.

 * Modern Echoes: Gavaskar Place and Kapil Grove likely honor legendary cricketers, suggesting a more recent wave of Indian influence.

Christchurch Chronicles:

 * The Spice Route: Streets like Mysore Street and Lucknow Terrace hint at the rich cultural exchange that once flourished.

 * A Touch of Royalty: Baroda Street and Punjab Street further add to the tapestry of Indian-inspired names.

 * Cashmere Avenue: It may allude to the famous Cashmere (Kashmir) shawls, reflecting trade connections.

Auckland Adventures:

 * Bombay Hills: This name directly links to Mumbai (formerly Bombay), highlighting historical connections.

 * Coromandel Peninsula: The Coromandel Coast in India shares a similar name, perhaps due to early European explorers making the connection.

Unveiling the Indo-Kiwi Connection:

Why are there so many Indian names adorning the streets and places of New Zealand? What intriguing stories lie behind these names? This is where the real adventure begins! Delve deeper, explore local archives, and uncover the fascinating history that connects India and New Zealand.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-७ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-७ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बस में बैठे, किष्किंधा कांड याद आ रहा है। यह वही क्षेत्र है, जहाँ तुलसीदास ने तारा को विकल देख

तारा बिकल देखि रघुराया।

दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

श्रीराम से कहलाया है,

छिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम सरीरा

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है। शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया।

अब हम हम्पी के खंडहरों के नज़दीक पहुँचने लगे हैं। थोड़ा इतिहास समझ लें। उत्तर भारत से दक्षिण भारत का भूगोल अलग तरह का रहा है। जब उत्तर में सोलह महाजनपद के माध्यम से राज्य आकार लेने लगे थे। उस समय दक्षिण में चेर, चोल, पांड्यन, त्रावणकोर, कोचीन, ज़ामोरिन, कोलाथुनाडु, चालुक्य, पल्लव, सातवाहन, राष्ट्रकूट अस्तित्व में थे।

दक्षिण भारत में इस्लाम प्रवेश उपरांत ख़िलजी वंश का अंत हो गया। तब गयासुद्दीन ने तुग़लक़ वंश की नींव रखी। गयासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में ही जूना खां जो बाद में मुहम्मद तुगलक (1325-1351) के नाम से सुल्तान बना, उसने दक्षिण भारतीय राज्य वारंगल पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। इस प्रकार वारंगल की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और वह दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।

मुहम्मद बिन तुगलक की विस्तारवादी नीति से  दक्षिण भारत का इतना भाग सल्तनत के आधिपत्य में आ गया कि उसमें और अधिक विस्तार करने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जाग उठी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण भारत के द्वासमुद्र, मावर तथा अनैगोडी राज्यों के विरुद्ध अभियान किए और इस प्रकार दक्षिण का पूरा पश्चिमी तट उसके अधिकार में आ गया। परन्तु वह जीत अस्थायी सिद्ध हुई। जल्द ही इस क्षेत्र में में भयंकर विद्रोह हुए और अंत में दक्षिण के सम्पूर्ण क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गये।

सरहिंदी के अनुसार मुहम्मद तुगलक के शासनकाल का प्रथम विद्रोह सुल्तान के चचेरे भाई बहाउद्दीन ने किया जो दक्षिण में उसका हाकिम था। इब्नबतूता के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद बहाउद्दीन ने मुहम्मद तुगलक के प्रति स्वामि-भक्ति की शपथ लेने से इंकार कर दिया। किन्तु इसामी का कहना है कि मुहम्मद तुगलक ने उसे गुर्शप की उपाधि दी और उसे फिर दक्षिण भेजा। जहां उसने बड़ा यश प्राप्त किया।

इसके अतिरिक्त राजधानी से दूर एक सम्पन्न व धन-धान्य से परिपूर्ण सूबे का शासक होना एक महत्त्वाकांक्षी सैनिक के लिए स्वतंत्र होने का समुचित प्रलोभन है। गुर्शप ने युद्ध की पूरी तैयारी की, बहुत सा धन जमा किया और दक्षिण के शक्तिशाली सामंतों को अपनी ओर मिलाया पराजय की संभावना से उसने अपने परिवार की रक्षा के लिए कंपिली के हिन्दू राजा से मित्रता कर ली। उसने ख़ुदमुख़्त्यारी घोषित करके उसने निकटवर्ती सामंतों से भूमि कर वसूलना आरंभ कर दिया।

मुहम्मद तुग़लक़ ने सूचना पाते ही गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहाँ अहमद अय्याज को प्रस्थान के लिए आदेश दिया। गुर्शप ने तुरंत गोदावरी पार की और देवगिरि से पश्चिम की ओर बढ़ा। अय्याज ने देवगिरि पर कब्जा कर लिया। अंत में गुर्शप ने पराजित होकर कंपिली के हिन्दू शासक के यहां शरण ली। कंपिली एक छोटा सा राज्य था जिसमें आधुनिक रायचूर, धारवाड़ बेल्लारी (हम्पी) तथा इसके आसपास के क्षेत्र सम्मिलित थे। प्रारम्भ में कंपिली के राजा देवगिरि के यादवों के अधीन उनके मित्र थे।

तुग़लक़ ने कंपिली पर विरुद्ध तीन बार आक्रमण किए। प्रथम आक्रमण में मुस्लिम सेना को पराजित होकर भागना पड़ा और कंपिली की सेना को अत्यधिक लूट का माल प्राप्त हुआ। सुल्तान की सैनिक पराजय से उसके गौरव को क्षति पहुंची और पहली बार हिन्दू जनता का यह भय समाप्त हो गया कि मुस्लिम सेना अजेय है। यह विदित हो गया कि दक्षिण के हिन्दू काफी शक्तिशाली है जिनको दबाना इतना सरल नहीं है। कंपिली के राजा ने भी राज्य की रक्षा की पूर्ण तैयारियाँ की और हुसदुर्ग तथा कूमर के किलों को पूरी तरह युद्ध सामग्री से भर दिया। दूसरी  बार भी मुस्लिम् सेना कुतुबुल्मुल्क के साथ जान बचाकर भाग गयी।

इसके बाद सुल्तान ने अपने विश्वसनीय मित्र मलिकजादा, ख्वाजा-ए-जहान की अध्यक्षता में विशाल सेना कंपिली राज्य के विरूद्ध भेजी। कंपिली के राजा ने एक महीने तक शत्रु का डटकर सामना किया। परन्तु जब बचने की कोई स्थिति न रही तो गुर्शप को द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल तृतीय की रक्षा में परिवार सहित भिजवा दिया और शत्रु से अंतिम युद्ध करने का संकल्प किया गया। उसने जौहर सम्पन्न किया और अपनी समस्त सम्पत्ति, स्त्रियां और पुत्रियां अग्नि में भस्म कर दीं। स्वयं शस्त्र धारण करके शत्रु पर टूट पड़ा। कंपिली नरेश ने भयंकर युद्ध के बाद रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की। मुहम्मद तुग़लक़ सेना का किले पर अधिकार हो गया।

दूसरी तरफ़ बल्लाल ने मलिक के आक्रमण के बाद थोड़े समय में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ की प्रभुसत्ता से विद्रोह कर वार्षिक कर भेजना बंद कर दिया और इसी अवधि में कंपिली के राज्य को भी जीतने का विचार किया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि होयसल राज्य का भाग जो सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के अधिकार में है, वापस ले लिया जाए। इसी उद्देश्य से 1316 ई. में पांड्य राजाओं से युद्ध आरम्भ किया। जब वह इस प्रकार आसपास के राजाओं के साथ युद्ध में व्यस्त था। इसी बीच मोहम्मद तुगलक की सेना ने द्वारसमुद्र की सेना पर आक्रमण कर दिया। मुहम्मद तुग़लक़ ने दक्षिण में देवगिरि को दौलताबाद का नाम देकर राजधानी बना लिया। इसे दक्षिण में एक प्रभावशाली प्रशासन केन्द्र स्थापित करने का प्रयास कहा जा सकता है। प्रो. हबीब के अनुसार “मुहम्मद तुगलक अपने किसी भी समकालीन से अधिक दक्षिण को जानता था।” उसका दक्षिणी प्रयोग एक विशेष सफलता थी। यद्यपि उत्तर को दक्षिण से विभाजित करने वाले अवरोध टूट गए थे तथापि दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक शक्ति दक्षिण में प्रसार में सफल सिद्ध नहीं हुई।

हम्पी विश्व विरासत क्यों है। इसे समझने हेतु हमें दक्षिण भारत की संक्षिप्त इतिहास को देखना आवश्यक है कि किस तरह धार्मिक उन्माद ने एक फलती फूलती सभ्यता को नेस्तनाबूद करने का पाप किया लेकिन फिर भी उसके अवशेष आज उन आततायियों के जुल्मों की कहानी कहते खड़े हैं। हम्पी के पचास किलोमीटर वर्गकिलोमीटर ने बिखरे क़िला, महल, मकान, दुकान, बाज़ार, बावड़ी, मंदिर और मूर्तियों के खंडित अवशेष गौरवशाली हिंदू सभ्यता की कहानी कहते खड़े हैं।

मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण प्रदेशों की पांच प्रांतों में विभक्त कर दिया। (1) देवगिरि, (2) तेलंगाना, (3) माबर, (4) द्वारसमुद्र और (5) कंपिली। दिल्ली साम्राज्य के इन दक्षिण प्रदेशों में विंध्य पर्वत के दक्षिण से लगभग मदुरा तक की समस्त भूमि सम्मिलित थी। तेलंगाना को अनेक भागों में विभक्त करके उनके लिए अलग-अलग सूबेदार नियुक्त कर दिए गए। धीरे-धीरे इन हाकिमों ने स्थानीय हिन्दू राजाओं से संपर्क स्थापित करके अपना प्रभाव बढ़ाने की चेष्टा की। दक्षिण की दूरी दिल्ली से इतनी अधिक थी कि सुल्तान इच्छा रखते हुए भी दक्षिणी प्रांतों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकता था इसलिए दक्षिण के प्रांतपति अधिक स्वतंत्र रहे। दक्षिण के हाकिमों एवं स्थानीय हिन्दू शासकों के हृदय में सुल्तान के प्रति स्वाभाविक आज्ञाकारिता की भावना बहुत कम थी। अतः तुर्की सरदार स्वतंत्र शासक होने का स्वप्न देखा करते थे। केवल सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखकर ही वे अपनी राजभक्ति की मात्रा स्थिर करते थे। राजधानी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था। दुर्भाग्यवश सुल्तान अपनी नई राजधानी में उत्तरी भारत के विद्रोहों और अकालों के कारण अधिक समय तक नहीं टिक सका। दक्षिण के हिन्दू राजा अपने वंश तथा धर्म के अभिमान को भूले नहीं थे तथा अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सदा अवसर की तलाश में रहा करते थे। यही कारण है कि दक्षिण समस्या का समाधान उचित ढंग से नहीं हो पाया और कालांतर में  कम्पिली स्वतंत्र हो गया।

अंत में मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर फिर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो काबिल मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है वे दोनों विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर पुनः हिन्दू धर्म को अपना लिया। इस तरह हरिहर तथा बुक्का मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कर दी। उसी विजयनगर की समृद्ध राजधानी के खंडहर हम्पी में हैं। विजयनगर की विरासत पर ही अठारहवीं सदी में शिवाजी ने हिन्द स्वराज की स्थापना की थी। हम्पी के विनाश तक पहुँचने हेतु बहमनी साम्राज्य की उत्पत्ति और विनाश से उपजे पाँच मुस्लिम राज्यों गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर की कहानी भी समझनी होगी।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 567 ⇒ बात अभी अधूरी है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात अभी अधूरी है।)

?अभी अभी # 567 ⇒ बात अभी अधूरी है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बीमारियां कई तरह की होती हैं, कुछ का इलाज किया जा सकता है, कुछ लाइलाज होती हैं। हम यहां वात रोग की नहीं, बात रोग की ही बात कर रहे हैं, जो बिना बात के शुरू होता है, और सारी बातें हो जाने के बाद भी, बात अधूरी ही रह जाती है।

बाल मनोविज्ञान यह कहता है कि बोलने की कला बच्चा, सुन सुनकर ही सीखता है। बच्चों से बात करने में बड़ा मजा आता है, खास कर, जब वे चार छः महीने के हों। उनकी आंखें एक जगह टिकनी शुरू हो जाती हैं, और वे हर आवाज को बड़े गौर से सुनते हैं।

एक झुनझुने की आवाज से वे रोना भूल जाते हैं, लोरी सुनाओ तो सो जाते हैं, और मचलते बालक को गाय अथवा तू तू किंवा माऊ, यानी बिल्ली दिखाओ तो बहल जाते हैं।।

उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। एक एक शब्द को वे ध्यान से सुनते ही नहीं, हमारे हाव भाव को भी नोटिस करते हैं। हमारी अनावश्यक लाड़ भरी बातें सुनकर भी वे आनंदित होते हैं, किलकारी मारते हैं। लेकिन हम नहीं जानते, वे हमारे बिना बताए ही कितना सीख जाते हैं।

फिर शुरू होता है उनके बोलने का अध्याय। लड़कों को अपेक्षा लड़कियां अधिक जल्दी बोलना और चलना सीख लेती हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में शायद अधिक बोलना चालना पड़ता है। अपनी सीमित वाक् क्षमता में छोटे छोटे वाक्य बनाना उनकी खूबी होता है। वे वही बोलते हैं जो वे सीखते हैं, बस उनका बोलने का अंदाज अपना अलग ही होता है।।

बस यहीं से बोलने की जो शुरुआत होती है तो फिर बोलना कभी नहीं थमता। जो बालक अंतर्मुखी होते हैं, वे सोचते अधिक हैं, बोलते कम हैं। और कालांतर में यही उनका स्वभाव बन जाता है।

हर घर में हां, हूं की यह बीमारी आजकल आम है। महिलाओं का स्वर तो स्पष्ट सुनाई दे जाता है़, पुरुष की आवाज सुनने के लिए कानों पर जोर देना पड़ता है। अजी सुनते हो, शब्द कितने पुरुषों के कानों तक पहुंचता है, कोई नहीं जानता। घर में पत्नी को अगर बोलने की बीमारी है तो पति को भूलने की। कितनी बातें याद दिलानी पड़ती हैं, पर्स, रूमाल, चाबी, चश्मा, हद है।।

सुबह सोते बच्चों को उठाना इतना आसान भी नहीं होता। पच्चीस आवाज लगाओ, सबके चाय नाश्ते, टिफिन की तैयारी करो, बोल बोलकर थक जाते हैं, लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती। काम वाली बाई की अलग किचकिच।

दोपहर में थोड़ा आराम मिला तो अड़ोस पड़ोस में मन बहला लिया, फोन पर एक दो घंटे बात कर ली, तो मन हल्का हो जाता है। जो आराम बातों से मिलता है, उसका जवाब नहीं। बातों की कोई कमी नहीं, बस शिकायत यही है कि आजकल कोई बात करने वाला ही नहीं मिलता। अकेले में क्या दीवारों से सर फोड़े। आदमी का टाइम तो यार दोस्तों में कट जाता है, हमारी किटी पार्टी इनको अखरती है।।

यह घर घर की बात है। जिसके पास कुछ बोलने का है, वही बोलेगा। जिसने मुंह में दही जमा रखा है, वह क्या बोलेगा। हमें घर गृहस्थी की, बाल बच्चों की फिक्र है, चिंता है, इसलिए बोलना ही पड़ता है।

गलत बात हम बोलते नहीं, किसी की गलत बात सुनते नहीं। साफ बोलना सुखी रहना। मन में किसी बात को दबाकर रखना परेशानी का कारण बन जाता है। बोलने से इंसान हल्का हो जाता है। समय इतना कम है, बहुत सा काम बाकी है। बाकी बातें, बाद में। असली बात अभी अधूरी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 141 ☆ मुक्तक – ।नूतन नवीन वर्ष संदेश देता कुछ नया करने का। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 141 ☆

☆ मुक्तक – ।नूतन नवीन वर्ष संदेश देता कुछ नया करने का। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

किसी की हार   किसी की  जीत है।

कुछ दोस्तों की  जगह  नए मीत है।।

नई बात नया अंदाज  नए  साल में।

भरो मन प्रेम से जो रहा बिन प्रीत है।।

=2=

नववर्ष खत्म न हो ये  जीवन गीत है।

प्रेम की धुन ही तो   जीवन संगीत है।।

नव संकल्प आगाज  हो नए साल में।

चलना साथ समय के ही सही रीत है।।

=3=

अतीत नहीं भविष्य दर्पण  नया साल।

नए विचारों नव उत्साह  सा विशाल ।।

जीवन दिया एकऔर मौका नए साल सा।

नव वर्ष में सोचना है कुछ नए ख्याल।।

=4=

उम्र का वर्ष कम  नहीं  अनुभव बढ़ा है।

उत्साह का  पैमाना और  ऊपर चढ़ा है।।

नया साल पैगाम देता कुछ नया करने का।

वो जीता मुश्किलों सामने रहता खड़ा है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 207 ☆ कविता – क्यों है ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – क्यों है । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 207 ☆ कविता – क्यों है ? ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

जब जानते हैं, सब यह है चार दिन का जीवन

तब साथ-संग रहते भी द्वेष भाव क्यों है ?

 *

हिलमिल के साथ रहने में सबको मिलती खुशियाँ

तो रिश्तेदारों से भी मन में दुराव क्यों है ?

 *

सद्‌भाव ही हवा में खिलते हैं फूल मन के

तब दूरियाँ बढाते  मन‌ मुटाव क्यों है?

 *

खुद अपना मन जलाते औरों को भी दुखाते

अनुचित तथा अकारण टकराव भाव क्यों है?

 *

दुनियाँ समझ न आती बाहर दिखाव होते भी

नाखुरा बने रहने का कुछ का स्वभाव क्यों है

 *

जब अपने अपने  घर में, खुशहाल हैं सभी तब

 मन में खिंचाव क्यों है अनुचित तनाव क्यों है?

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूचनाएं/Information ☆ सौ.राधिका भांडारकर– अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

‘सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ राधिका भांडारकर

☆ संपादकीय निवेदन ☆

 💐🥇अभिनंदन 🥇💐

 आपल्या समुहातील ज्येष्ठ साहित्यिका राधिका भांडारकर यांना तितिक्षा इंटरनॅशनल साहित्य समुहाचे  विविध पुरस्कार प्राप्त झाले आहेत.

तितिक्षा इंटरनॅशनल साहित्य समुहातर्फे आयोजित गणेशोत्सव २०२४ या दैनंदिन काव्यस्पर्धेत १६/०९/२०२४ दिवशीच्या त्यांच्या गिरीजात्मज या भक्तीगीतास सर्वोत्तम पुरस्कार मिळाला आहे. तसेच तितिक्षा ईंटरनॅशनल पुणे आयोजितदैनंदिन दशदिवसीय, आदिमाया आदिशक्ती या काव्यस्यर्धेत घटस्थापना या काव्यास विशेष पुरस्कार मिळाला आहे. शिवाय  तितिक्षा ईंटरनॅशनल पुणे, बाबा काव्यस्पर्धेत (२०२४) त्यांच्या माझे बाबा या कवितेस लक्षवेधी कविता म्हणून पुरस्कार मिळाला आहे.

राधिका भांडारकर यांच्या या उज्ज्वल यशाबद्दल  त्यांचे ई अभिव्यक्ती समुहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन  आणि  हार्दिक शुभेच्छा 💐💐

संपादक मंडळ

ई  अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पार सावलीचा…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पार सावलीचा” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

(पुरस्कार  प्राप्त  कविता -> विषय: माझे बाबा – काव्यप्रकार: दिंडी वृत्त)

तीर्थ ते उरले गेली ती गंगा

बाबा पाळती ही विचारगंगा॥

 *

भाव  त्यात  असे  हो स्थिर चित्ताचा

त्याग लोभाचा आणि संचयाचा ॥

 *

अभ्यास गाढा व्यासंग दांडगा

समाधान हाच सुखाचा तोडगा ॥

मते कुणावरी कधी ना लादली

संस्कार कामी स्वये ती पाळली ॥

 *

वेचले कण ते आम्ही ज्ञानाचे

सहज जगताना कसे अमृताचे ॥

 *

 मुक्त शांत सदा निसर्गात रमले

अज्ञात एका शक्तीस मानले॥

 *

 स्वयं बुद्धीने सत्यास जाणले

शाश्वत सर्व ते आम्हा बिंबविले ॥

 *

 ती दृष्टी दिली सुंदर जगण्याची

 ओंजळीत दिली शिकवण प्रेमाची॥

 *

 पहाडासमान कणखर ते होते

संकटात किती ताठ उभे होते॥

 *

 साहित्यिक कला संगीतात रुची

आस बाळगली ध्यान धारणेची ॥

 *

ध्यास विद्येचा विद्यार्थी घडले

जगण्या जाणते  संस्कारी केले ॥

 *

चतुरस्त्र होते व्यक्तिमत्व त्यांचे

अभिमान वाटे असे कार्य त्यांचे॥

 *

पंचकन्यांचे परमपूज्य बाबा सुखदुःखातल्या पथी जणू थांबा॥

 *

कसा खात्रीचा  खांदा मायेचा

वटवृक्ष होता पार सावलीचा ॥

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सावित्रीबाईंच्या मनातलं… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी `

🌸  विविधा  🌸

☆ सावित्रीबाईंच्या मनातलं☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

मी सावित्री बोलतेय गं माझ्या लेकींनो तुमच्याशी. मलाही थोडं मन मोकळं करावसं वाटतयं नं तुमच्या जवळ!

आज तुम्ही सगळ्या माझ्या कामाची दखल घेऊन कृतज्ञता व्यक्त करता आहात नं!खूप बरं वाटतयं मला!खरचं तेव्हा मला खूप कष्ट पडले गं मुलींनो प्रवाहा विरुद्ध पोहोतांना! सगळ्या समाजाचा विरोध होता मुलींना शिकवण्यासाठी. पण माझ्या पतीचा ज्योतीबांचा भरभक्कम हात होता माझ्या पाठीवर म्हणून मी तरून जाऊ शकले. अर्थात मलाही तेव्हढं धैर्य गोळा करावच लागलं बरं का?

का शिकवायचं नाही मुलींना याचं मुख्य कारण काय सांगायचे तेव्हाचे बुजरूक माहिती आहे का?ते म्हणायचे, मुलींना शिकवलं तर त्या आपल्या याराला पत्र लिहितील आणि त्याच्या सोबत पळून जातील. पण नंतरच्या काळात साने गुरूजींनी ठाम पणे सांगितले की खूप काळाने दाव्याला बांधलेली गाय सोडली की ती हुंदडते व आपल्या वासरासाठी घरी परतते. त्याचप्रमाणे स्त्री सुद्धा खूप काळ बंधनात होती म्हणून थोडा काळ भरकटल्यासारखी दिसेल पण आपल्या पिल्लांसाठी घरट्यात परतेलच!बरोबर आहे न गं मुलींनो! आतापर्यंत तरी तुम्ही त्यांचे बोल खरे करून दाखवले. शिकून, नौकरी करून, स्वातंत्र्य घेऊनही घरटं नीट सांभाळलं. आपल्या भारतीय संस्कृतीचे पाळंमुळं घट्ट धरून ठेवलीत.

पण आजकाल थोडं थोडं चित्र बदलू लागलयं का गं?मुली वरवरचं रूपडं बघून प्रेमात पडतात आणि स्वतःचंच जीवन उद्ध्वस्त करताहेत!अगं मला माझ्या ज्योतिबांनी पूर्ण स्वातंत्र्य दिलं म्हणून माझ्या हातून येव्हढं मोठं कार्य घडलं. पण मी आपल्या भारतीय संस्कृतीशी नाळ जोडलेलीच राहू दिली. कारण पाळंमुळं खोलवर रूजली होती मनात. शिकून मुलींनी उंच झेप घ्यावी. स्वतःची उन्नती करून घ्यावी. हेच चित्र होतं माझ्या डोळ्यापुढे तेव्हा. बरोबर होत ना गं ते!तुम्ही पण ते चित्र छान रंग भरून सर्वांसमोर आणलं बरं का!मला खूप अभिमान वाटतोय त्याचा.

पण एक सांगू का तुम्हाला?तुम्ही शिक्षणाचा उपयोग आपल्या उन्नती बरोबर आपल्या देशाची, संस्कृतीची शान राखावी या करताच करा हं मुलींनो. आज आपले मुलं मुली कुठल्या दिशेने धावताहेत याकडे वेळीच लक्ष द्या बरं का?दुसर्‍या संस्कृतीमधील चांगल्याबरोबर वाईटही गोष्टी आधुनिकतेच्या नावाखाली उचलू नका. अन्यथा पश्चात्तापाची वेळ येईल. अजूनही लगाम तुमच्याच हातात आहेत. ते आवरा, उधळू देऊ नका. “सावित्री बाईंनी स्त्री शिक्षणाचे दरवाजे खुले केले” या शब्दांना अलगद सांभाळणं, या शब्दां बरोबरचं माझाही मान राखणं आता तुमच्याच हाती आहे बरं का!कारण मी हाती घेतलेला वसा मी तुमच्या हाती खूप विश्वासाने सोपवला आहे. माझा विश्वास सार्थ करणे तुमच्याच हाती आहे.

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘दोन पिढ्यांमधील समन्वय…’ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

?विविधा ?

☆ ‘दोन पिढ्यांमधील समन्वय…’ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

नवीन आणि जुन्या पिढीत वैचारिक मतभेद असणे हे अत्यंत स्वाभाविक आहे, कारण परिवर्तन हा निसर्गाचा नियमआहे.  काळानुसार जीवनशैली बदलत असते. शिक्षण, विज्ञान, जागतिकीकरण यातून नवीन विचार प्रवाह अस्तित्वात येत असतात. नवीन पिढी हे नवे विचार लवकर आत्मसात करते. तर जुन्या पिढीला हे स्वीकारायला वेळ लागतो. यातून संघर्ष निर्माण होतो आणि अनेकदा तो विकोपाला जाऊन एकमेकांबद्दल कटुता निर्माण होते, दुरावा निर्माण होतो.  याचा परिणाम कौटुंबिक आणि सामाजिक स्वास्थ्यावर होतो. आज कुटुंबात हा वाद आई-वडील आणि मुलं यांच्यामध्ये मोठ्या प्रमाणावर दिसून येतो.  त्यामानाने काही अपवाद वगळता, आजी-आजोबा आणि नातवंडं यांच्या संघर्षाची तीव्रता कमी आहे.

पूर्वी एखाद्या समस्येचं निराकरण करण्यासाठी कुटुंबातील सदस्य अथवा समाजातील ज्येष्ठ व्यक्तींशी प्रत्यक्ष चर्चा केली जात असे. त्यामुळे वैचारिक देवाणघेवाण करताना एकमेकांशी आपुलकीचे संबंध निर्माण होत.  पण आता गुगलवर उपलब्ध असलेल्या माहितीच्या भांडारामुळे हा संवाद हरवत चालला आहे. पाठीवरच्या हातातून मिळणारं पाठबळ व स्पर्शातून व्यक्त होणारं प्रेम, हे दृक्श्राव्य माध्यमातून होणाऱ्या शाब्दिक चर्चेतून कसं मिळणार?कोविडच्या काळात तर अगदी शिशु वर्गातील मुलांना मोबाईल हातात घेऊन शिक्षण घेणं क्रमप्राप्त झालं. आई-वडील लॅपटॉपवर ऑफिसच्या कामात गर्क आणि मुलं अभ्यास आणि नंतर मोबाईलवर गेममध्ये दंग!

पूर्वी एखादा नवीन पदार्थ करायचा असेल तर नवविवाहिता, शेजारच्या एखाद्या काकू, मावशीचा सल्ला घेत असे, माहिती घेत असे.  कालांतराने पाककृतींची पुस्तकं उपलब्ध झाली. आणि आता तर मोबाईलमुळे *कर लो दुनिया मुठ्ठी में *, त्यामुळे देशी-विदेशी कोणत्याही पाककृती काही सेकंदात तुमच्या समोर असतात आणि त्याही दृक्श्राव्य स्वरूपात! केवळ पाककृतीच नव्हे तर कोणत्याही विषयासंबंधी माहिती, मोबाईलवर क्षणात सापडते. या आभासी जगात रमताना कौटुंबिक आणि सामाजिक संवाद हरवत चालला आहे.

जागतिकीकरणामुळे कामाच्या वेळेचा आपल्या स्थानिक वेळेशी मेळ नाही. त्याचाही विपरीत परिणाम शारीरिक, कौटुंबिक आणि सामाजिक स्वास्थ्यावर होत आहे.

आपल्या मुलांनी दिवसभरात चार शब्द आपल्याशी बोलावे, ही घरातील वडील मंडळींची साधीशी अपेक्षा.  पण कामाच्या या विचित्र वेळेमुळे कुटुंबातील ज्येष्ठांची साधी विचारपूस करायलाही तरूण पिढीला वेळ नाही.  मग इतर अपेक्षांची काय कथा!त्यामुळे त्यांच्या परस्पर संबंधात काहीसा दुरावा निर्माण होतो आहे.  लग्न, मुंजीसारखे समारंभ किंवा इतर सामाजिक कार्यक्रमात भाग घेणं देखील, त्यांना त्यांच्या कामाच्या वेळेनुसार, अनेकदा शक्य होत नाही. मग नातेवाईक आणि समाजातील अन्य व्यक्तींशी संबंध जुळणार तरी कसे? आपण सुखदुःखाच्या प्रसंगात कोणाकडे गेलो नाही, तर आपल्याकडे तरी कोण येणार? याचा परिणाम नवीन पिढीला एकाकीपणा बहाल करत आहे. वैफल्यग्रस्त बनवत आहे.  त्यांच्या स्वभावातील चिडचिडेपणा वाढवत आहे.

यामुळेही कौटुंबिक कलह निर्माण होऊन, भावनिक दुरावा निर्माण होत आहे.

मग या दोन पिढ्यांत समन्वय साधणार तरी कसा?कारण प्रत्येक पिढीला स्वतःचंच वागणं बरोबर वाटत असतं. त्यांची जीवनशैली व सामाजिक मूल्ये वेगवेगळी असतात. परस्पर संवाद, चर्चा आणि सामंजस्य याद्वारे हा दुरावा, अंतर नक्कीच कमी करता येईल.

जुन्या पिढीतील लोकांनी नवपिढीला परंपरागत, सामाजिक व धार्मिक विचारांचे महत्त्व पटवून द्यावे, परंतु नवपिढीवर ती बंधन म्हणून लादू नये. सातच्या आत घरात, ही पूर्वीची परंपरा. आज शिक्षण, नोकरी, व्यवसाय इ. च्या निमित्ताने घराबाहेर पडणाऱ्या नवीन पिढीला, हे कसं शक्य होईल?घरी परतायला रात्रीचे ९-१०वाजत असतील तर झोपायला १२ वाजणार, मग पहाटे लवकर उठणं कसं जमणार? आता वटपौर्णिमेला वडाची साग्रसंगीत पूजा आणि उपास केवळ परंपरा म्हणून केला पाहिजे, हे नवीन पिढी ऐकणार नाही. पण वटवृक्षाचं संगोपन, निसर्गाचा समतोल आणि आरोग्य या गोष्टींसाठी ते करावं, हे समजावून सांगितल्यावर आजच्या पिढीतील तरूण आणि तरूणी, दोघंही वृक्षारोपणाचा वसा उचलायला स्वतःहून पुढाकार घेत आहेत.  रोज देवपूजा करणं हा जुन्या पिढीच्या दैनंदिन जीवनातील अविभाज्य भाग. पण नवीन पिढीला कदाचित तो वेळेचा अपव्यय वाटू शकतो किंवा त्यांच्या कामाच्या घाईगडबडीत त्यांना ते जमवता येत नसेल.  नवपिढी जर प्रामाणिकपणे त्यांचं काम करत असेल, त्यांना जमेल तसं सामाजिक उन्नतीसाठी शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक मदत करत असेल तर, जुन्या पिढीने हे समजून घेतलं पाहिजे. त्याचबरोबर मानसिक स्वास्थ्यासाठी ध्यान, योगाभ्यासाची आवश्यकता संयतपणे तरूण पिढीला समजावून सांगितली पाहिजे.

आजच्या शिक्षणपद्धतीत जीवनमूल्यांचा अभाव जाणवतो. जीवघेण्या स्पर्धेच्या या युगात झापड लावल्यासारखी अवस्था आहे नवीन पिढीची! जुन्या पिढीतील लोकांनी नवपिढीला जुन्या जीवनमूल्यांचे महत्त्व आणि आजच्या परिस्थितीत त्यांची उपयुक्तता समजावून सांगणे आवश्यक आहे. कारण काळ कितीही बदलला तरी नेहमी खरे बोलणे, प्रामाणिकपणे वागणे, वडीलधाऱ्यांचा आदर आणि सेवा करणे ही शाश्वत मूल्ये कधीच कालबाह्य होत नसतात.

नव्यापिढीचे स्वैर वागणे, मुला-मुलींचे एकत्र फिरणे, रात्री उशिरा घरी परतणे, त्यांची कपड्यांची फॅशन, जुन्या पिढीला आवडत नाही.  जुनी पिढी, पालक अनेकदा या मुलांच्या आवश्यक गरजा पूर्ण करत नाही.  यातून मग वाद निर्माण होतो.  आपल्या वागण्याचं, गरजांचं योग्य समर्थन नवीन पिढीला करता आलं पाहिजे आणि आपल्या विरोधामागची भूमिका, जुन्या पिढीलाही नीट समजावून सांगता आली पाहिजे. अर्थात हे करताना दोन्ही बाजूंनी संयम राखणं खूप आवश्यक आहे. अन्यथा केस कापायला आई-वडिलांनी परवानगी दिली नाही म्हणून मुलीची आत्महत्या, मित्रांबरोबर पार्टी करायला पैसे दिले नाही, म्हणून वडिलांच्या खूनाचा प्रयत्न, मुलीने आंतरजातीय विवाह केला म्हणून वडील आणि भावांनी तिला जीवे मारले, यांसारख्या घटना समाजात घडताना दिसतात.

नवीन पिढीला तंत्रज्ञानाची माहिती आपल्यापेक्षा जास्त आहे, हे वडीलधाऱ्यांनी समजून घेतले पाहिजे. घरबसल्या मोबाईलच्या मदतीने ते अनेक कामं, अगदी चुटकीसरशी पार पाडतात. मग ते लाईट बील भरणं, औषधं मागवणं, एखाद्या कार्यक्रमाची/प्रवासाची तिकिटे आरक्षित करणं असं काहीही असेल. पण यामुळे वेळ, पैसा आणि मनुष्यबळ यांची छान बचत होते. या पिढीच्या उधळपट्टीवर, अवास्तव खर्चावर टीका करणाऱ्या मंडळींनी हेही लक्षात घेतलं पाहिजे. दुसऱ्या शहरात अथवा परदेशात राहणारी अनेक मुलंही वेबकॅम सारख्या उपकरणांचा उपयोग करून आपल्या पालकांची काळजी घेताना दिसतात. त्यांच्या दैनंदिन गरजा आॅनलाईन व्यवहाराद्वारे पूर्ण करताना दिसतात.

 ‘आमच्या वेळी नव्हतं हो असं ‘, हे म्हणणारी पिढी कधीच मागे पडली आहे.  आत्ताचे पन्नाशीच्या आसपासचे आई-वडील अथवा सासू-सासरे बघितले, तर ते नवीन पिढीशी बरंच जुळवून घेताना दिसतात.  मुलांची कामाची वेळ, घरून काम, त्यांचं स्वातंत्र्य यांचा विचार करून, त्यांचं वेगळं राहाणं ते समजून घेतात. शक्य असेल तिथे पालक मुलांच्या लग्नाआधीच त्यांची वेगळं राहण्यासाठी सोयही करून ठेवतात. हे परिवार वेगळ्या घरात राहात असले तरी एकमेकांच्या सुख-दुःखात सहभागी होतात आणि परस्परांना शक्य तेवढी मदतही करतात. आपल्या आचरणातून होणारे संस्कार पुढील पिढीत आपोआप झिरपत असतात. म्हणूनच परदेशात राहणारी अनेक मुलंही आपल्या परंपरा, मातृभाषा आवर्जून जपताना दिसतात.  कदाचित ते जपण्याची त्यांची पद्धत काळानुरूप थोडी वेगळी असेल.  पण हे चित्र नक्कीच आशादायक आहे.

  प्रत्येकाने आनंदात राहावे असे वाटत असेल, तर दोन्ही पिढ्यांनीआपल्या भूमिकेची अदलाबदल करून पाहावी. म्हणजे एकमेकांना समजून घेणं सोपं होईल. आपल्या बोलण्यातून, वागण्यातून एकमेकांबद्दल प्रेम, आदर, काळजी व्यक्त झाली पाहिजे. मानवी संवेदनशीलता हरवता कामा नये. दोन्ही पिढीतील सदस्यांनी वैचारिक भिन्नतेचा आदर राखला पाहिजे.

 सामाजिक संबंध सलोख्याचे ठेवण्यासाठीही एकमेकांस समजून घेणे आवश्यक आहे.

एकमेकांच्या भावना, विचारसरणी, सामाजिक मूल्ये समजून जीवन जगले पाहिजे. तेव्हाच दोन्ही पिढ्यांमध्ये समन्वय साधला जाईल.  शिक्षण, चौफेर वाचन, सामाजिक माध्यमांचा योग्य वापर यातून कौटुंबिक आणि सामाजिक स्वास्थ्यावर नक्कीच अनुकूल परिणाम दिसून येईल.  आपल्या आजूबाजूला घडणाऱ्या घटनांकडे अधिक संवेदनशीलतेने आणि सजगपणे बघण्याचा दृष्टीकोन जाणीवपूर्वक जोपासण्याचा प्रयत्न दोन्ही पिढ्या करत आहेत, ही समाधानाची बाब आहे.  शालेय शिक्षणात मूल्य शिक्षण आणि पर्यावरण विषयक जागरूकता यांचा समावेश हे त्यातील एक महत्वाचं पाऊल!याशिवाय अनेक सेवाभावी संस्था आणि गट वृक्षारोपण, रक्तदान, प्लास्टिक हटाव, गरजू विद्यार्थ्यांना शैक्षणिक मार्गदर्शन, शैक्षणिक साहित्याचं वाटप, जुनं प्लास्टिक व मोबाईल सारखा ई-कचरा गोळा करून पुनर्वापरासाठी पाठवणे, असे उपक्रम राबवत आहेत.  या उपक्रमांमध्ये लहान-थोर सगळ्यांना सामील करून घेतलं जातं.  त्यामुळे दोन्ही – तिन्ही पिढ्यांमध्ये प्रत्यक्ष संपर्क, संवाद आणि आपुलकीचं नातं निर्माण होण्यास, खूप छान मदत होत आहे.  

 © सुश्री प्रणिता खंडकर

दि. १८/०७/२०२३

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्रकाशक – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ प्रकाशक – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

जयंतरावांचा पाचवा स्मृतीदिन जवळ आला तसा साहित्यिक विश्वात त्यांच्याविषयी लिहून यायला लागलं.  जयंतरावांचे फॅन्स सर्वत्र, मुंबई, पुण्यात जास्त.  पुण्याच्या साहित्य जीवन या गृपने मला प्रमुख म्हणून आमंत्रित केलं.  तसे दरवर्षी मला कुठे ना कुठे बोलावलं जातंच.  पण यंदा पुण्याच्या गृपने एक महिना आधी माझा होकार मिळविला.  मी जयंताचा प्रकाशक..  त्यापेक्षा जवळचा मित्र म्हणून मला जास्त मागणी.

गेले महीनाभर जयंताच्या आठवणी पिंगा घालत अवतीभवती फिरत होत्या.  नेहमी प्रमाणे त्याच्या कवितासंग्रहाच्या आणि कथा पुस्तकांच्या आवृत्या माझ्या प्रकाशन संस्थेमार्फत काढल्या.  या सुमारास त्याची पुस्तके खपतात हा अनुभव.  प्रत्येक आवृत्तीची छपाई झाली की त्यातील एक पुस्तक माझ्याकडे येत होते.

प्रत्येक पुस्तक म्हणजे जयंताच्या आठवणींची एक लाट.  लाट अंगावर येवून मला चिंब भिजवत होती.

पुण्याच्या कार्यक्रमासाठी मी आधल्या दिवशी पुण्यात पोहचलो. सकाळी नऊ वाजता कार्यक्रम सुरू झाला.

व्यासपीठावर जयंताचा मोठा फोटो लावला होता.  टेबल, चार खुर्च्या आणि समोर जयंताच्या साहित्याचे चाहते.  त्यामुळे हॉल त्याच्या चाहत्यांनी भरला होता.  सुरूवातीस स्वागत झाले. माझ्या हस्ते जयंताच्या फोटोस हार घातला गेला आणि माझ्या भाषणाऐवजी जयंताच्या आठवणीसाठी माझी मुलाखत घेण्यासाठी दोन मुली समोर येवून बसल्या.  आणि प्रश्नोत्तरे सुरू झाली….  

प्रश्न- “सर, जयंतराव हे तुमचे मित्र आणि लेखक सुद्धा.  तुम्ही त्यांचे चार कविता संग्रह आणि तीन कथा संग्रह प्रकाशित केलेत, मग तुमचे जास्त जवळचे नाते काय? मित्र की लेखक ? “

मी – मैत्री पहिली. आम्ही दोघे मुंबईच्या एलफिस्टन कॉलेजमध्ये शिकत होतो.  लेखन, वाचन, नाटक, संगीत या आवडीने जवळ आलो.

प्रश्न – मग तुम्ही प्रकाशन व्यवसायात कसे आलात ? 

मी – प्रकाशन हा माझ्या कुटुंबाचा व्यवसाय.  त्या वेळी आमची मुंबईत दोन पुस्तकांची दुकाने होती, आता सहा आहेत.

प्रश्न – जयंतराव केव्हापासून लिहू लागले? कॉलेजमध्ये असताना की नंतर ?

मी – तो कॉलेजमध्ये असताना कविता करायचा.  आम्हाला कॉलेजमध्ये शिकवायला प्रसिद्ध लेखक, कवी होते.  त्यांचे पण संस्कार त्याच्यावर झाले.  कॉलेजनंतर तो म्युनिसिपालटीमधे नोकरीला लागला. लेखन सुरूच होते.

प्रश्न- जयंतरावांना संगीताची पण समज होती असं म्हणतात.

मी- समज होती नाही..  तो उत्तम गायचा, आमची खरी मैत्री गाण्यामुळे झाली.

प्रश्न – सर, जयंतरावांची पत्नी ही तुमची वर्गमैत्रीण ना? त्यांना अनेक कलांची देणगी होती असे म्हणतात.

मी – ती उत्तम अभिनेत्री, लेखिका, गायिका होती 

प्रश्न – सर, कॉलेज मध्ये असताना तुम्हा तिघांचा गृप होता असे म्हणतात हे खरे आहे काय?

मी – हे खरे आहे, मी, जयंता आणि अनघा नेहमी एकत्र असायचो.  तिघांच्या आवडीनिवडी सारख्या, त्यामुळे आमचं मस्त जमायचं.

प्रश्न – त्या काळात तुम्ही नाटके पण फार बघायचात ? 

मी – होय.  आम्ही विजया मेहतांच्या रंगायन गृपमध्ये होतो.  विजया मेहता अल्काझींच्या विद्यार्थीनी.  त्यांनी मराठी नाटकात नाविन्य आणले.  लहान हॉलमध्ये नाटके व्हायची, आम्ही लहान-लहान भूमिका करायचो, तसं नाटकाचं सारच करायचो, नेपथ्य लावायचो, लाईट जोडायचो, मेकअप करायचो, सतत बाईंच्या बरोबर असायचो.

प्रश्न – आणि तुमचा व्यवसाय?

मी – व्यवसाय सांभाळायचोच, कॉलेजमध्ये असतानाच मी पुस्तक प्रकाशन व्यवसायात आलो.

माझ्यापेक्षा तिप्पट, चौपट वयांच्या लेखकांची पुस्तके मी प्रकाशित करत होतो.  

प्रश्न – तुम्ही जयंतरावांची पण पुस्तके प्रकाशित केलीत?

मी – त्याचे कवितासंग्रह, कथासंग्रह मीच प्रकाशित केले.

प्रश्न – आणि त्यांची नाटके? विशेषत: त्यांचे प्रसिद्ध नाटक अलेक्झांडर? 

मी – त्याची नाटके दुसर्‍या प्रकाशकाने प्रसिध्द केली 

प्रश्न – तुम्ही एवढे जवळचे मित्र असताना ती पुस्तके दुसर्‍यांकडे का गेली ?

मी- ते आता मला तुम्हाला सविस्तर सांगावे लागेल.  कॉलेज काळात मी, जयंता आणि अनघा कायम बरोबर असायचो.  जयंता मध्यमवर्गीय गिरगावातला मुलगा, दहा बाय दहाच्या जागेत आठ जण राहायचे, अनघा ही फायझरच्या ऑफिसरची मुलगी.  त्या काळी वडीलांची गाडी वगैरे असलेली.  मी ग्रॅन्टरोड भागातील उच्च मध्यम वर्गीय.  आमचे कुटुंब पुस्तक व्यवसायात. अनघा मला आवडत होती.  विजयाबाईंच्या रंगायनमध्ये छोट्या मोठ्या भूमिका करायचो, नाटकाच्या तालमीला जाताना अनघा आपली गाडी घेऊन यायची, माझ्या घराजवळ येवून मला गाडीत घ्यायची, पुढे जयंताला ठाकूरव्दारच्या कोपर्‍यावर घ्यायची.  तालमी संपवून येताना आम्ही तिघे गिरगाव चौपाटीवर बसायचो.  जयंता त्याच्या कविता म्हणायचा, अनघा त्याला चाल लावायची आणि गाणं म्हणायची.  अनघा जयंताला म्हणायची – “चांगल्या इंग्लीश नाटकांची भाषांतरे कर, तू कवि मनाचा आहेस, आपण बाईंना सांगू नाटक बसवायला. ” अनघाने ब्रिटीश लायब्ररीमधून सात -आठ इंग्लीश नाटके आणून दिली. जयंताने मनापासून त्यांची रूपांतरे केली. अलेक्झांडर त्यातील एक, बाईंनी अनघाला हे नाटक बसवायला सांगितले.  नव्या जुन्या कलाकारांना घेवून अनघाने हे नाटक बसविले. त्याचा प्रयोग मी पाहीला.  आणि जयंताला म्हटले- ” हे नाटक मी छापणार”. , त्यावर जयंता म्हणाला – ” तूच छाप, तूझ्याशिवाय दुसरं कुणाला देणार ?” त्या नाटकाचा बराच बोलबाला झाला, जयंताचे खूप कौतुक झाले. अनघाने नाटक बसवले म्हणून तीचे कौतुक झाले.  पुस्तक मी प्रकाशित करणार या आनंदात होतो.  सहा महीने झाले तरी जयंताने त्या पुस्तकांची हस्तलिखीते दिली नाहीत, अचानक मला समजले की ही पुस्तके पुण्याचा एक प्रकाशक छापत आहे. मी आश्चर्यचकित झालो.  आणि जयंताच्या घरी गेलो.

“जयंता, तुझी नाटकाची पुस्तके पुण्याचा प्रकाशक छापतो आहे हे खरे काय”?

”होय, हे खरे आहे”

”पण मी तुला तुझी सर्व नाटके छापणार हे सांगितलं होतं. आणि मी हस्तलिखीते मागत होतो ”.

“अनघाने या प्रकाशकाला माझ्याकडे आणले. ”

“अनघाने? मग तिने मला कां नाही सांगितले”?

“अनघाचे म्हणणे तू जे माझे कवितासंग्रह छापलेस, त्याचे मानधन फारच कमी दिलेस, त्याच्या डबल पैसे मिळायला हवे होते. ”

“अरे, पैशांचा व्यवहार माझा मोठा भाऊ पाहतो, मी नाही आणि मला जर हे अनघा बोलली असती तर मी भावाकडे बोललो असतो”.  

“अनघा म्हणते, तू जी पुस्तके छापलीस त्याची क्वॉलीटी चांगली नव्हती.  इतर प्रकाशक पुस्तके छापतात त्या मानाने काहीच नाही. “

“हा आरोप मला मान्य नाही. मी तुझी पुस्तके मुंबईतील सर्वोत्तम प्रेसमधून छापून घेतलीत आणि अनघा म्हणते…..  हे काय आहे..  तुझे काय मत आहे? तुझी पुस्तके खराब केली असे तुला म्हणायचे आहे काय”? 

”होय’ !

त्याच क्षणी मी रागाने जयंताच्या घराबाहेर पडलो  

– क्रमशः भाग पहिला  

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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