हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अपनी दौलत, शोहरत पे गुरूर न करना… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – अपनी दौलत, शोहरत पे गुरूर न करना।)

✍ अपनी दौलत, शोहरत पे गुरूर न करना… ☆ श्री हेमंत तारे  

राहों की तीरगी को मिटाते रहना

चराग़ रखा है साथ जलाते रहना

*

कोई रूठे अपना तो ग़ज़ब क्या है

उसे मनाना, मनाना, मनाते रहना

*

फ़िर बरपा है कहर तपिश का यारों

तुम परिंदों को  पानी पिलाते रहना

*

तनकीद के पहले गिरेबां में झांक लेना

आसां नही इतना सही राह बताते रहना

*

अपनी दौलत, शोहरत पे गुरूर न करना

रब से डरना,  फकीरों को खिलाते रहना

*

मिल जाए गर कोई नाख़ुश, नाउम्मीद तुम्हें

हमदर्द हो जाना और होंसला दिलाते रहना

*

सीखने को बहुत कुछ है ‘हेमंत’ जमाने में

बदकिस्मत हैं वो जो सीखे हैं रुलाते रहना

(तीरगी = अंधकार, तनकीद = उपदेश देना)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 103 ☆ दौलते और शुहरतें सब हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण ग़ज़ल “दौलते और शुहरतें सब हैं“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 103 ☆

✍ दौलते और शुहरतें सब हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बादलों जैसे कभी आवारगी अच्छी नहीं

नौजवानों की हवा से दोसती अच्छी नहीं

 *

ख़ुश नहीं होता  शिवाले वो सजाने से कभी

मार के हक़ गैर का ये रोशनी अच्छी नहीं

 *

ढाई ग़ज़ हो चाहिए आख़िर ज़मीं इंसान को

चाहतें दुनिया की दौलत की कभी अच्छी नहीं

 *

ये बढाती रक्त का है चाप ये सच मानिए

हर समय मुझसे तेरी नाराज़गी अच्छी नहीं

 *

हर कली पर रीझना औ तोड़ने की सोचना

यार ऐसी हुस्न की दीवानगी अच्छी नहीं

 *

दौलते और शुहरतें सब हैं न अपनापन मगर

गांव से इस शहर की ये ज़िन्दगी अच्छी नहीं

 *

 ये गुज़ारिश औरतों से सख़्त  अपना दिल करें

दिल के दुखते आँख में होना  नमी अच्छी नहीं

 *

दौरे हाजिर के मसाइल ज़ीस्त की लिख कशमकश

सागरो मीना हरम पर शायरी अच्छी नहीं

 *

हारकर तक़दीर से दुनिया से नाता तोड़ना

कुछ न हासिल हो अरुण ये बेख़ुदी अच्छी नहीं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 656 ⇒ सैटेलाइट ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सैटेलाइट।)

?अभी अभी # 656 ⇒ सैटेलाइट ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सैटेलाइट कृत्रिम उपग्रह को भी कहते हैं। हमारा मन भी तो एक तरह का सैटेलाइट ही है, जिसके जरिए हमने अपने चैनल सेट किये हुए हैं। किसी का मन २४ घंटे न्यूज में लगा है तो किसी का राजनीति में। कहीं सनसनी, सीआईडी और क्राइम पैट्रोल चल रहा है तो कहीं खाना खजाना।

स्पोर्ट्स चैनल में किसी को धोनी नजर आ रहा है तो किसी को नेटफ्लिक्स पर कोई बेहतरीन फिल्म। कुछ बड़े बूढ़े स्त्री पुरुष आस्था, संस्कार और सत्संग पर आँखें गड़ाए बैठे हैं तो कुछ युवा “पॉप पॉर्न” चबा रहे हैं।

वर्णाश्रम के अनुसार कभी जीवन के चार आश्रम होते थे। कलयुग में भी चार आश्रम ही होते हैं, जिनमें से तीन आश्रम तो आम व्यक्ति के लिए होते हैं, अनाथाश्रम, गृहस्थाश्रमऔर वृद्धाश्रम। चौथा आश्रम तो सिर्फ साधु महात्मा, महा मंडलेश्वर, जगद्गुरु और संन्यासियों का होता है।।

एक कुंआरा, शादीशुदा गृहस्थ होते होते, कब रिटायर हो जाता है, पता ही नहीं चलता। ५० वर्ष से ७५ वर्ष के बीच की एक अवस्था होती है, जिसे वानप्रस्थ कहा जाता है। अगर शास्त्र की मानें तो संन्यास अवस्था तो वानप्रस्थ के भी बाद की अवस्था है, क्योंकि तब मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानी जाती थी।

पचास वर्ष के बाद की आयु, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को समर्पित होती थी। तब कहां आज की तरह भौतिकवाद, वैज्ञानिक सोच, डिजिटल जीवन और हिन्दू मुसलमान होता था।

बस भगवान का नाम लेते रहो, क्या पता कब प्राण पखेरू उड़ जाएं। अंतिम सांस तक अगर नारायण का स्मरण है तो मुक्ति यानी मोक्ष अर्थात् जन्म मरण के बंधन से गारंटीड छुटकारा।।

मेरे पास भी मन रूपी सैटेलाइट है, जिस पर अक्सर मेरा म्यूजिक चैनल ही चला करता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। नहाते वक्त मैं रफी साहब का यह गीत गुनगुना रहा था ;

तुम एक बार मुहब्बत का इम्तहान तो लो

मेरे जुनूँ मेरी वहशत का इम्तहान तो लो …

(फिल्म बाबर १९६०)

इधर मैं गीत गुनगुना रहा था और उधर रेडियो पर यह गीत बज रहा था ;

मैने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है।

अजनबी सी हो,

मगर गैर नहीं लगती हो वहम से भी जो हो नाज़ुक वो यकीं लगती हो …

(बरसात की रात १९६०)

मुझे आश्चर्य हुआ, जो गीत मैं गुनगुना रहा हूं, उसी मूड का, उसी गायक का गीत उस समय रेडियो पर बज रहा था। यानी मेरे मन के सैटेलाइट और रेडियो की तरंगों में आपस में कुछ तो संबंध होगा ही।

ऐसी आकस्मिक घटनाओं को हम टेलीपैथी कहकर टाल देते हैं। लेकिन मेरी और रेडियो के बीच कैसी टेलीपेथी! ये दोनों गीत विलक्षण हैं, जिनकी धुन भी मिलती जुलती ही है और दोनों फिल्में सन् १९६० की ही हैं। इन दोनों गीतों के गीतकार साहिर लुधियानवी हैं, और संयोगवश इन दोनों फिल्मों के संगीतकार भी रोशन ही हैं। इसी मूड के और भी कई गीत होंगेे रफी साहब की आवाज में। मेरा मन का सैटेलाइट कभी ना कभी खोज ही निकालेगा, संगीत के सागर में गोता मारकर। आखिर हाथ तो मुझे मोती ही लगना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – आत्मनिर्भरता।)

☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

पंद्रह दिन हो गये दुबे  जी का निधन हुए. सारे रिश्तेदार अपने घर लौट गए. बेटा बहू परसों ही बैंगलोर जाने वाले हैं।

वे माँ से बोले – आप भी चलो। आप अकेले यहां रहकर क्या करोगी?पड़ोस के वर्मा अंकल और भी कई लोग मकान हमारा खरीदना चाहते हैं, अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। यह मकान बेच देंगे।

– मकान बेचने के विचार से पहले कम से कम एक बार मुझसे चर्चा तो करना था । इस मकान की मालकिन तुम्हारे पापा ने मुझे बनाया है। उन्होंने यह मेरे नाम से ही खरीदा था। हम दोनों ने इसे बड़े प्यार से सजाया है।

कमल जी गुमसुम छत पर बैठकर आगे के जीवन की उधेडबुन मे लगी थी।

कैसै कटेगा यह शेष जीवन? दुबे जी मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया। हर काम में हमेशा मेरा साथ दिया। अब अकेले क्यों छोड़ कर चले गए?

पडोसन सखी रागिनी आई और बोली- क्या हुआ बहन जी आप यहां छत पर अकेले क्यों बैठी हो? कुछ खाना खाया या नहीं। चलो साथ में थोड़ा पार्क में घूमते हैं।

कुछ सोचते हुए कमल ने पडोसन से कहा – रागिनी तुम कह रही थी कि पास में इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चे घर मकान ढूंढ रहे हैं। वह पेइंग गेस्ट की तरह रहना चाहते हैं।  क्या उन्हें तुम मेरे घर बुला लाओगी। मैं उन्हें अपने घर में रखूंगी। ध्यान देना लड़कियां होनी चाहिए। देखो रागिनी  तुम मेरी मदद करना।

चलो मैं अभी उनसे मिला देती हूं वह तीन लड़कियां पास में बंटी की मम्मी के यहां रहती हैं वह उन्हें बड़ा परेशान करती है।

– बेटी निशा तुम लोग घर ढूंढ रही हो ना यह आंटी का घर पार्क के पास है देखा है ना। क्या  वहां पर तुम लोग रहोगे? जितना पैसा यहां देते हो उतना ही वहां पर देना पड़ेगा और तुम्हें आराम रहेगा।

– ठीक है आंटी हम थोड़ी देर बाद अपना सामान लेकर आप बोलो तो घर आ जाते हैं क्योंकि यह आंटी तो हमसे घर खाली करा रही हैं।

– चलो बेटा साथ में घर देख लो।

घर देख कर वे बोलीं – आपका घर तो बहुत अच्छा है हम तीनों लड़कियां 5000 आपको देगी।

तभी बेटे अविनाश ने कहा – माँ, यह क्या नाटक लगा के रखा है?

– देखो अविनाश मैं तुम्हारे घर जाकर नहीं रहूंगी। तुम लोगों का जितना दिन मन करता है इस घर में रहो बाकी मैं अपना खर्चा चला लूंगी। तुम लोगों से एक पैसा नहीं मांगूंगी। तुम्हारे दरवाजे पर नहीं जाऊंगी और अपना घर भी नहीं बेचूंगी ।

जिंदगी भर कभी काम नहीं किया पर मैं अब आत्मनिर्भर बनूंगी।

 © श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 268 ☆ माफ़ी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 268 ?

☆ माफ़ी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(अल्पाक्षरी)

आपण केलेल्या प्रत्येक चुकीची,

माफी कुणाकडे मागणार?

 Confession Box जवळ जाऊन बोलायची गोष्ट—–

  म्हणजे पापांगिकार !

  अनेक गोष्टीत

दिसत असतात चुका,

स्वतःच्या आणि इतरांच्या ही,

आपण मुळीच नसतो,

हरिश्चंद्राचे अवतार किंवा,

साधू संत ही ! तरीही—-

आपल्याला जगायचेच असते,

स्वच्छ,  पापभिरू बनून!

 पण कसले ,कसले मोह,

भाग पाडतात पाप करायला!

कुठंतरी वाचलं होतं,

“नैतिक अनैतिक म्हणजे काय?

जे मनाला आनंद देतं….

ते नैतिक आणि जे मनाला दुःख देतं ते अनैतिक!”

तू ही म्हणालास,

 ख्रिस्ती धर्मात ज्या Ten commandments सांगितल्या आहेत,

 त्यात अकरावी अशी आहे,

(ही आज्ञा मानवनिर्मित )- —

“ह्यातलं जर काही तुम्ही केलंत,

तर ते कुणाला सांगू नका !”

पण न सांगितल्यानं पाप लपत नाही रे ,

डाचत राहतं मनात!

म्हणूनच मागायलाच हवी माफी,

आपल्या आत्म्याला खटकणाऱ्या–‐

प्रत्येक गोष्टीची,

ईश्वराकडे!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आई… ☆ श्री विष्णू सोळंके ☆

श्री विष्णू सोळंके

अल्प परिचय

जन्म – १५/४/१९५९

साहित्य आणि सम्मान – 

  • जवळपास १९८१ पासून मराठी गीत गझल, व ललित लेखन.
  • चार कविता संग्रह, दोन ललित लेख संग्रह, दोन व्यक्ती चरित्र पुस्तक अशी आठ पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत.
  • संत गाडगेबाबा अमरावती विद्यापीठाचे बी. एस. सी. भाग १ मधे कविता अभ्यासक्रमात समाविष्ट.
  • कामगार कल्याण मंडळ गुणवंत कामगार कल्याण पुरस्कार २००५ मधे आर आर पाटील यांच्या हस्ते प्राप्त.
  • कवयित्री शांता शेळके यांचे हस्ते गीत लेखन पुरस्कार पुणे येथे.
  • अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, विदर्भ साहित्य संमेलन यामध्ये अनेक वर्षे पासून निमंत्रित कवी म्हणून सहभागी.
  • मुंबई दुरदर्शन नागपूर आकाशवाणी केंद्रावर प्रसारण.
  • महाराष्ट्रातील अनेक दिवाळी अंकात कविता प्रसिद्ध.
  • अमरावती विद्यापीठाच्या पी. एच. डी. करीता समग्र साहित्यावर माण्यता..

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आई… ☆ श्री विष्णू सोळंके ☆

सोडून हात माझा आई कुठे निघाली

आता व्यथाच सारी माझ्या घरात आली… १

*

आई तुझा दिलासा देतो मला सहारा

माझा तुझ्याविनागे नाही कुणीच वाली…. २

*

आहे तुझी प्रतिमा हृदयामधेच आई

जातील हे जरीही अश्रू सुकून गाली…. ३

*

माहित हे मला की येशील ना कधी तू

तू नेहमीच माझ्या असतेस भोवताली… ४

*

पदरात फाटक्या या माझी असे शिदोरी

मातीत या कुणाची झोळी नसेल खाली…. ५

© श्री विष्णू सोळंके

काव्य संध्या मुदलियारनगर अमरावती ४४४६०६ – मो ७०२०३००८२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुंतता हृदय… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गुंतता हृदय… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

गुंतता हृदय.

हृदय गुंतून ठेवणे

दुरुनच प्रीत जपणे

जगणे ते खरे झुरणे

स्मृती अंतरी खुपणे.

*

आयुष्य सावल्यांचे रंग

केवळ स्वप्नांचे तरंग

विरह भेटी लागे भृंग

प्रेमात धुंद कृष्ण संग.

*

वळणे अनंत क्षणाला

प्रश्न एकची या मनाला

होकार मिळती कुणाला

नकार उतरे प्रणाला.

*

भेटणे आतासे विलंब

सांजही जोमात अचंब

लांब-लांब झुलते बिंब

डोळे सांडती अश्र कुंभ.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ स्थलांतर… भाग २ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?  विविधा ?

☆ स्थलांतर… भाग २ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

सगळ्यात दूरवरचं स्थलांतर

अनेक पक्षी, प्राणी विशिष्ट दिशेकडे तोंड करून स्थलांतर करतात. या सर्वांमध्ये आर्क्टिक टर्न नावाचे पक्षी सगळ्यात दूरवरचा पल्ला गाठतात. याबाबतीत त्यांना स्थलांतर बहाद्दर किंवा उड्डाण बहाद्दरच म्हंटलं पाहिजे. आर्क्टिक टर्न नावाचे पक्षी स्थलांतर करतात, कारण उन्हाळी ऊबदार वातावरण वर्षभर त्यांच्याभोवती असावं असं त्यांना वाटतं. त्यांना दिवसभर प्रकाश असावा, असं वाटतं. दरवर्षी स्लेंडर, काळे-पांढरे पक्षी ३५२००कि. मी. चा वर्तुळाकार प्रवासकरतात. ही म्हणजे, जगाभोवती केलेली प्रदक्षिणाच असते.

उन्हाळ्याच्या दिवसात अगदी उत्तरेच्या प्रदेशात ते घरटी करतात. यावेळी उत्तर धृव सूर्याकडे कललेला असतो. सूर्य जवळ जवळ पूर्ण वेळ डोक्यावर असतो.

या प्रदीर्घ सूर्यप्रकाशाच्या काळात त्यांना व त्यांच्या छोट्या पिलांना समुद्रातील भरपूर मासे दिसतात आणि पकडता व खाता येतात.

उन्हाळा संपत येता येता दिवस लहान होऊ लागतो. थंडी वाढत जाते आणि ऑर्टिक टर्न आपला प्रवास सुरू करतातआणि अंटार्टिकाला जातात. अलास्कन टर्न उत्तर-दक्षिण अमेरिकेच्या पॅसिफिक सागराच्या किनारपट्टीवरून जातात. इतर अनेक टर्न उत्तरेकडच्या इतर घरटी बांधण्याच्या क्षेत्राकडे उडतात आणि ब्रिटीश बेटांमध्ये भेटतात. तिथून ते दक्षिणेकडे आफ्रिकन किनारपट्टीकडे झडप घेतात.

प्रवासाला सुरुवात करायची वेळ झाली, हे आर्टिक टर्नना कसंकळतं? तापमानातील बदल, सूर्यप्रकाशातील बदल यामुळे बहुदा त्यांना ते कळतं. पण हे प्रवासी पक्षी इतकी भली मोठी आश्चर्यकारक राउंड ट्रीप दरवर्षी काघेतात, ते कुणालाच कळले नाही. जलचरांचं स्थलांतर –

१. उत्तरेकडील फर सील

उत्तरेकडील फर सील प्रत्येक वर्षी स्थलांतराच्या वेळी खूप लांबवरचा प्रवास करतात. सीलची मादी जवळ जवळ ९६००कि. मी. एवढा प्रवास करते. मे ते नोहेंबर सीलची नवी पिल्लं प्रिबिलॉफ आयलंडवर जन्माला घालतात. हे बेट दक्षिण-पश्चिम अलास्का येथे आहे. नर आणि मादी दोघेही त्याबेटा पासून दूर पोहत जातात. नर अलास्का गल्फमध्ये थांबतात. पण माद्या खूप लांबचा प्रवास करतात. जवळ जवळ ४८०० कि. मी. एवढा प्रवास करून दक्षिण कॅलिफोर्निया इथे येतात.

२. व्हेलचं स्थलांतर

मार्च-एप्रीलच्या दरम्यान दक्षिण कॅलिफोर्निया येथे सॅन डिआगो बे जवळ करड्या रंगाच्या (ग्रे) व्हेलचं स्थलांतर बघायला मिळतं. हे भले मोठे सस्तन प्राणी खरं तर मासे, १९, २००कि. मी. एवढी राउंड ट्रीप घेतात. ते आपला उन्हाळा, उत्तर पॅसिफिक महासागरात घालवतात. तिथे क्रीलसारखे छोटे जलचर आणि समुद्री प्राणी खातात. नंतर पानगळीच्या दिवसात ते पुन्हा आपल्या स्थलांतराला सुरुवात करतात. दक्षिण दिशेला, दक्षिण कॅलिफोर्नियाकडील खार्‍यापाण्याच्या सरोवरांकडे ते जातात. गर्भवती माद्या आपला प्रवास आधी पूर्ण करतात. डिसेंबरमध्ये त्या आपल्या पिलांना जन्म देतात. ही पिले ४ मीटर लांबीची असतात. एखाद्या महिन्यानंतर अन्य माद्या तिथे येतात आणि त्यांचे नराशी मीलन होते. मार्चमध्ये सर्व व्हेल उत्तरेकडे आपल्या उन्हाळी अन्नदात्या क्षेत्रात आपला परतीचा प्रवास सुरू करतात. सनडिअ‍ॅगोच्या किनार्‍यापासून ते सुमारे दीड किलो मीटर अंतर ठेवून ते प्रवास करतात. लोक इतक्या मोठ्या प्रमाणात अगणित व्हेल पोहत जाताना पाहण्यासाठी किनार्‍यावर गर्दी करतात.

३. माशांचेस्थलांतर – ईल आणि सालमन गोड्या पाण्यातील ईल मासे आणि पॅसिफिक महासागरातील सायमन या माशांचे स्थलांतर एकमेकांच्या अगदी विरुद्ध असते. पानगळीच्या दिवसात उत्तर अमेरिकन आणि युरोपियन ईल त्यांच्या गोड्या पाण्यातून अटलांटिक महासागरातील बर्म्युडा बेटाजवळील सरगॅसो समुद्राकडे स्थलांतर करतात. तेथील निरुपयोगी झाडात ते आपली अंडी घालतात आणि नंतर मरतात. अंडी फुटून जेव्हा छोटे जीव बाहेर येतात, तेव्हा ते बोटाच्या नखांएवढे असतात. त्यांना लार्व्हा असं म्हणतात.

या छोट्या लार्व्हा प्रवाहाबरोबर आपल्या मूळ प्रदेशा कडे वाहू लागतात. या माठ्या होत जाणार्‍या ईलपैकी उत्तर अमेरिकेकडून आलेल्या ईलची पिल्ले युनायटेड स्टेटस आणि कॅनडाकडे पोहत जातात. हे स्थलांतर पूर्ण व्हायला जवळ जवळ एक वर्ष लागतं. तरुण युरोपियन ईल सरगॅसोच्या वेगळ्या भागातून प्रवाहाबरोबर पोहू लागतात आणि ते युरोपकडे येतात. त्यांचा प्रवास लांबचा असतो आणि मूळ ठिकाणी पोचायला त्यांना२/३वर्षे लागतात. जेव्हा ते वेगवेगळ्या काठाने पोहत आपल्या मूळ ठिकाणी परत येत असतात, तेव्हा छोट्या लार्व्हांमध्ये बदल होत जातो. ते बारीक, निमुळते आणि पारदर्शक होत जातात. त्यांना ग्लास ईल असे म्हणतात. नंतर ते मोठे होतात आणि त्यांचा रंग काळा होतो. ते काठाशी पोचतात, तेव्हा त्यांना एलव्हर्स असे म्हणतात. नर एलव्हर्स खार्‍या पाण्याच्या बंदरालगतच्या दलदलीच्या प्रदेशात राहतात आणि माद्या पोहत वरच्या बाजूला गोड्या पाण्याकडे येतात. खूप वर्षानंतर त्यांच्या जन्मदात्यांप्रमाणे ते पुन्हा गोड्या पाण्यातून खार्‍या सॅरॅगॉन समुद्राकडे आपलं रहस्यमय स्थलांतर सुरू करतात.

पॅसिफिक सालमनचं स्थलांतर याच्या अगदी विरुद्ध असतं. आपलं सगळं आयुष्य खार्‍या पाण्याच्या समुद्रात घालवल्यानंतर, हे मासे जवळ जवळ ३२०० कि. मी. चा प्रवास करून गोड्या पाण्याच्या प्रवाहात अंडी घालण्यासाठी येतात. त्यांना यावेळी, धबधबे, नदीच्या उताराच्या बाजूला वाहणारे वेगवान प्रवाह इ. अडथळ्यांना तोंड देत पोहावं लागतं. शरद ऋतूत, अनेक अडथळे पार करून अंडी देण्याच्या जागी आलेले सालमन अंडी देतात आणि मरून जातात. अंडी फुटतात आणि छोटे सालमन समुद्राच्या दिशेने जाऊ लागतात. काही काळानंतर ते पुन्हा, जिथे त्यांचा जन्म झाला, त्याच गोड्या पाण्याच्या प्रवाहाकडे परत येतात. त्यांना परतीचा मार्ग कसा सापडतो? नक्की माहीत नाही, पण शास्त्रज्ञांना वाटतं, त्यासाठी त्यांना त्यांच्या घ्राणेंद्रियांचा उपयोग होत असावा.

४. डाल्फिन-

स्क्वीड माशांचा थवा हे डाल्फिनचं अन्न. जेव्हा हे मासे वसंत ऋतूत उत्तरेकडे जातात, तेव्हा डिल्फिन त्यांच्या मागोमाग जातात. हिवाळ्यात ते पुन्हा दक्षिणेकडे येतात, तेव्हा डाल्फिनही त्यांच्या मागोमाग दक्षिणेकडे येतात.

५.  अलास्कन कॅरिब्यू –

सागरकाठच्या किनारपट्टीच्या जमिनीवरून अलास्कन कॅरिब्यूंचा कळप फिरतो. जमिनीवरील गवत आणि पाण्यालगतंचं शेवाळं ते खातात. वसंत ऋतूत ते उत्तरेकडच्या किनारपट्टीलगत फिरतात. तिथे पानगळीला सुरुवात होताच ते पुन्हा दक्षिणेकडच्या सदाहरित जंगलाकडे येतात. ते १६००कि. मी. पर्यंतचा प्रवास करतात.

नवे जीव जन्माला घालण्यासाठी स्थलांतर बेडूक उन्हाळ्यात बागेत जमिनीवर राहतात. पण उन्हाळ्याच्या मागोमाग तेजवळच्या तळ्याकाठी, पाण्याचा साथ असेल, तिथे जातात आणि त्यांची अंडी पाण्यात घालतात. अंडी फुटली, की त्यातून बाहे येणार्‍या जिवांना ताडपोल म्हणतात. त्यांना कल्ले असतात. नंतर त्यांचे पाय आणि फुफ्फुसे तयार होतात.

पूर्ण वाढ झालेले बेडूक तळ्यातून बाहेर येतात आणि जमिनीवर राहतात.

मगर आणि सुसर मगरी आणि सुसरी त्यांचं बहुतेक आयुष्य पाण्यात घालवतात. पण त्यांची अंडी घालण्याची वेळ झाली, की मादी नदीच्या पाण्यातून बाहेर येते. दलदलीच्या पाणथळ किनार्‍यावर येते. गवत रानटी झुडुपाच्या वगैरेचा उपोग करून घरटे तयार करते. तिथे अंडी घालते. अंडी फुटून पिलं बाहेर येईर्यंत त्यांचे रक्षण करते.

६. समुद्री कासव

हिरव्या रंगाची समुद्री कासवं त्यांची अंडी जमिनीवर घालतात. त्यासाठी ती समुद्रातून बाहेर येऊन विशिष्ट ठिकाणापर्यंत सरपटत जातात. ब्राझीलमधील किनारपट्टीच्या पाण्यातील हिरवी कासवं दर दोन-तीन वर्षांनी आपलं नित्याचं वसतीस्थान सोडून दक्षिणेकडे अटलांटिक समुद्रातील आसेंशन आयलंड बेटाकडे जातात. हे बेट ८८चौ. कि. मीटर क्षेत्रफळाचे आहे, पण त्यासाठी कासवं १६०० कि. मी. चा प्रवास करून तिथे पोचतात. मीलन काळात माद्या प्रवाहातून पोहतात. त्या काळात त्या अनेकदा अंडी घालतात. त्याच किनार्‍यावर त्या पुन्हा पुन्हा अंडी घालतात. अंडी फुटली, की लहान कासवं स्वत:चं स्थलांतर सुरू करतात. ती पाण्यात पोहू शकत नाहीत. त्यांच्यात तेवढी शक्ती नसते. पण त्यांचं तोंड नेहमी पाण्याकडे असतं. अर्थात अनेकजण अन्य भुकेल्यांचं भक्ष बनतात. पण काही कासवं समुद्रात पोचतात. त्यांच्या जन्मदात्यांच्या मूळ मुक्कामी परत येतात. त्यापूर्वी त्यांनी ते ठिकाण कधीही पाहिलेले नसते. ते पुरेसे वयस्क झाले, म्हणजे पुन्हा असेन्शन बेटाकडे येतातआणि आपली अंडी समुद्राकाठी वाळूवर घालतात. या एकाकी बेटावरती का येतात? त्यांना ते बेट कसं सापडतं, याचं उत्तर शास्त्रज्ञांना अजूनपर्यंत सापडलेले नाही.

अशी ही प्राणी, पक्षी, जलचर, उभयचर यांच्या स्थलांतराची रंजक माहिती.

– समाप्त –  

© सौ उज्ज्वला केळकर 

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 836 925 2454, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डॉ बाबासाहेब जयंती चिंतन… ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? विविधा ?

☆ डॉ बाबासाहेब जयंती चिंतन… ☆ श्री सुनील देशपांडे 

असाध्य ते साध्य , करिता सायास ।

कारण अभ्यास ! तुका म्हणे।।

 या विश्वगुरू संत तुकाराम महाराजांच्या उक्तीचे मूर्तिमंत उदाहरण म्हणजे स्वर्गीय डॉ बाबासाहेब आंबेडकर!

विद्यार्थीदशे पासूनच शिक्षणासाठी  किती अभ्यास केला आणि त्या अभ्यासासाठी किती सायास केले हे त्यांच्या चरित्रावरून साऱ्यांनाच माहिती आहे. आपल्याजवळ कोणतीही साधने असोत किंवा नसोत. कोणाचेही पाठबळ असो किंवा नसो. प्रत्यक्ष शिकवणारा असो किंवा नसो. ग्रंथ हेच गुरु मानून आणि अभ्यासाचा प्रचंड सायास करून त्यांनी जे करून दाखवले ते खरोखरच असाध्य होते परंतु ते साध्य करून दाखवले.

विशेषतः त्यांच्या घटना समितीच्या शब्दांकन विभागाच्या प्रमुख पदाच्या कामगिरीबद्दल हे मोठेपण विशेष करून जाणवते.

वकील झाल्यानंतर त्यांनी विशेष आवड म्हणून अनेक देशांच्या घटनांचा अभ्यास करणे हा छंद म्हणून जोपासला होता. त्यामुळे घटना समितीमध्ये त्यांना सामावून घेताना त्यांच्या या अभ्यासाचा मान राखून त्यांना या शब्दांकन उपसमितीचे प्रमुख बनवले.

तरीसुद्धा त्यांचे खरे मोठेपण पुढेच आहे.

या शब्दांकन उपसमिती मध्ये त्यांचे शिवाय आणखी काही सदस्य होते. परंतु वेगवेगळ्या कारणाने ते सदस्य ही उपसमिती सोडून गेले. शेवटी शब्दांकन समितीचे ते एकमेव सदस्य त्या समितीत शिल्लक राहिले. तरीसुद्धा त्यांनी या समितीमध्ये माझ्या मदतीसाठी आणखी कोणी सदस्य मला द्या. सोडून गेलेल्या सदस्यांबद्दल कोणी पर्यायी सदस्य माझ्या मदतीला हवेत. अशी कोणतीही मागणी न करता. नेटाने एकट्याने रात्रंदिवस खपून आणि अभ्यास करून घटना समितीच्या शब्दांकन उपसमितीची जबाबदारी सर्वोत्कृष्ट पद्धतीने आणि वेळेवर पूर्ण केली. हे त्यांचे कार्य हे एकमेवाद्वितीयच आहे.

आज त्यांच्या जयंतीदिनी या सर्व सायासातून घडलेल्या आणि आपल्या देशाची घटना घडवलेल्या या महान तपस्वी अभ्यास विभूतीला माझा साष्टांग प्रणिपात!

परंतु या व्यक्तीच्या या सर्व सायासांचा मान राखणे हे आपले कर्तव्य आहे हे मात्र आज कुणाच्याही खिजगणतीतही नाही.

स्व बाबासाहेबांनी राज्यघटनेनुसार आम्हाला एखाद्या न्याय्य मागणीसाठी किंवा हक्कासाठी आंदोलन करायचा अधिकार दिलेला आहे एवढेच आमच्या लक्षात आहे. परंतु ते आंदोलन करताना त्यातून हिंसात्मक उद्रेक किंवा बेकायदेशीर नुकसानकारक कृत्य किंवा राष्ट्रीय संपत्तीचा नाश करण्याची राष्ट्र विघातक कृती घडू नये यासाठी जे नियम आहेत ते मात्र आम्ही पाळणार नाही. अशा पद्धतीने आम्ही जर वागू लागलो तर त्यात स्व. बाबासाहेबांच्या सायासांचे आम्ही विडंबन करतो आहोत असे नाही का वाटत?

ज्या जातीअंताची लढाई स्व. बाबासाहेबांनी आरंभली आहे त्या जातींअंताकडे आमचा प्रवास चालू आहे की त्या विरुद्ध दिशेने चालू आहे याचा कोणी विचार करतो आहे का? व्यक्तिगत स्वार्थ बाजूला ठेवून सामाजिक समतेकडे वाटचाल करण्यासाठी कटिबद्ध असलेले किती कार्यकर्ते समाजात दिसतात?

कोणत्याही चांगल्या कृतीमध्ये कालांतराने विकृती घुसत जातात हे जगात सगळीकडेच दिसून येते. परंतु लोकशाही सारख्या चांगल्या विचारांमध्ये घुसलेल्या सामाजिक विकृती विरोधात कार्य करण्यासाठी सायास करणारे व स्व. बाबासाहेब यांच्या मूळ विचारधारेशी प्रामाणिक राहून कार्य करणारे कार्यकर्ते जास्तीत जास्त संख्येने निर्माण होतील का? या प्रश्नाचिन्हावर भविष्याकडून काही आशादायक घडावे एवढी प्रार्थना करून आज स्वर्गीय बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या स्मृतीला कोटी कोटी प्रणाम!!!

© श्री सुनील देशपांडे

पुणे, मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एक नंबर शिवणार… भाग-१ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ सौ.प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ एक नंबर शिवणार… भाग-१ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ सौ.प्रभा हर्षे

रविवारची सकाळ. आम्ही सगळे झोपेत होतो. इतक्यात दारावरची बेल वाजली. आधी मी दुर्लक्ष केलं. वाटलं भास असेल. पण दोन मिनिटांनी पुन्हा वाजली. तिसऱ्या वेळेस जेव्हा वाजली, तेव्हा नाईलाजाने उठावं लागलं. उठून घड्याळात बघितलं तर जेमतेम साडेसात वाजत होते. म्हणजे रविवारच्या मानाने पहाटच म्हणायची.

मी आळस देतदेतच दार उघडलं. दारात साधारण चाळीस एक वर्षांचा एक काळासावळा माणूस उभा होता. अंगात पांढरा लेंगा झब्बा, आणि डोक्यावर मळकी गांधीटोपी. दाढीचे खुंट वाढलेले. त्याच्या हातात एक कापडी पिशवीपण होती. मी त्याला ओळखलं नाही.

माझ्या चेहऱ्यावरचे भाव बघून तोच म्हणाला, “साहेब, नमस्कार. मी राजाराम. ” 

“सॉरी, मी तुम्हाला ओळखलं नाही. ” मी म्हणालो.

“अहो कसं ओळखणार? आपण पहिल्यांदाच भेटतो आहोत. मला बाबासाहेब देशमुखांनी तुमचा पत्ता दिला आणि भेटायला सांगितलं. “, त्याने स्पष्टीकरण दिलं.

बाबासाहेब देशमुख म्हणजे प्रसिद्ध इतिहास संशोधक. माझे चांगले आणि गेल्या अनेक वर्षांपासूनचे मित्र. त्यांनी पाठवलंय म्हणजे हा माणूस नक्कीच कामाचा असणार. हे लक्षात आल्यावर, मी राजारामला म्हणालो,

“या ना, आत या. बसा. मी तुमच्यासाठी पाणी घेऊन येतो. “

“साहेब, तुम्ही मला अहो जाहो नका करु. नुसतं राजाराम म्हणा. मी लहान माणूस आहे. ” राजाराम म्हणाला.

“बरं, बस राजाराम. मी आलोच” असं म्हणून मी आत जाऊन त्याच्यासाठी पाणी घेऊन आलो, आणि काय काम आहे ते विचारलं.

“साहेब, मी जुनी फाटकी पुस्तकं शिवतो. देशमुखसाहेब म्हणाले की तुम्ही पण त्यांच्यासारखेच इतिहास संशोधक आहात. त्यामुळे तुमच्याकडे पण शिवण्यासारखी अशी दुर्मिळ आणि फाटकी पुस्तकं असतील तर ती द्या. एक नंबर शिवतो बघा मी ती. अगदी नव्यासारखी करुन देतो. ” राजारामने त्याच्या येण्याचं प्रयोजन सांगितलं.

त्याचं म्हणणं खरं होतं. मी देखील गेली तीसेक वर्ष इतिहासाचा अभ्यासक असल्यामुळे, कुठून कुठून जुनी आणि दुर्मिळ पुस्तकं, ग्रंथ, बखरी आणि इतर बरेच ऐतिहासिक दस्तावेज जमा केले होते. त्यातल्या काहींची अवस्था खूप नाजूक होती. ती व्यवस्थित शिवणं गरजेचं होतं. नाही तर त्यातली पानं सुटून गहाळ होण्याची शक्यता होती. त्यामुळे मी अशाच एखाद्या माणसाच्या शोधत होतो. बरं झालं बाबासाहेबांनी त्याला धाडला ते.

“आहेत अशी पुस्तकं वगैरे. अरे पण ती बेडरुममधे कपाटात आहेत. बेडरूममध्ये माझी बायको आणि मुलगा झोपले आहेत. कपाटातून पुस्तकं बाहेर काढताना कदाचित त्यांची झोपमोड होईल. तू असं कर, तू दुपारनंतर ये. तोपर्यंत मी ती काढून ठेवतो. ” मी म्हणालो.

“दुपारनंतर? ” तो चाचरत पुढे म्हणाला, “साहेब, मी अंबरनाथला राहतो. आता घरी जाऊन परत यायचं म्हणजे खूप उशीर होईल. त्यापेक्षा मी तुमच्या बिल्डिंगच्या खालीच थांबतो, आणि तासाभराने वर येतो. चालेल?

अंबरनाथला राहतो? अरे बापरे! तिथून निघून हा माणूस रविवारी इतक्या लवकर अंधेरीला माझ्या घरी पोहोचला? पहिल्यांदाच आल्यामुळे माझं घर शोधण्यातदेखील त्याचा थोडा वेळ गेला असेलच. कमाल आहे या माणसाची. म्हणजे घरुन निघाला तरी किती वाजता असेल हा? मनातल्या मनात विचार करुन मी त्याला म्हणालो, “बरं, चालेल. मी लवकरात लवकर पुस्तकं बाहेर आणतो. पण तू घरुन काही खाऊन निघालास का? “

“हो साहेब” तो म्हणाला खरा, पण त्याच्या चेहऱ्यावरून स्पष्ट जाणवत होतं की तो खोटं बोलतोय. घरुन निघताना किंवा वाटेत त्याने काहीच खाल्लेलं नसावं. मी खणातून माझं पाकीट काढलं, आणि त्यातली शंभरची नोट काढून त्याच्या पुढ्यात धरुन म्हटलं, “हे घे आणि कोपऱ्यावर जाऊन आधी चहा, नाश्ता करुन ये. ” 

राजारामने थोडे आढेवेढे घेतले, पण मी ती नोट त्याच्या खिशातच कोंबल्यावर त्याचा नाईलाज झाला. तो नाश्ता करायला गेला.

तो चहा, नाश्ता करुन येईपर्यंत, मी पुस्तकं काढून ठेवली होती.

ही पुस्तकं शिवायचं काम तो कुठे बसून करणार, असा माझ्या मनात प्रश्न आला. पण जणू काही तो वाचून, राजारामच म्हणाला, “साहेब, तुम्ही तुमची गॅरेजमधली गाडी थोडा वेळ बाहेर लावलीत तर मी तिथे बसून काम करतो. चालेल का? “

राजाराम हुशारीने आधीच सगळा विचार करुन आला होता तर. मला त्याचं कौतुक वाटलं.

आणि त्याचा प्रस्तावही चांगला होता. मग आम्ही दोघांनी मिळून पुस्तकं आणि एक मोठी चटई खाली नेली. मी माझी गाडी बाहेर लावली, आणि गॅरेजची जागा त्याला मोकळी करुन दिली. त्याने ताबडतोब चटई अंथरुन त्याच्या जवळच्या पिशवीतून दाभण, दोरा, गोंद, चिकटपट्टी वगैरे सामान काढलं आणि तो कामाला लागला.

“एक नंबर शिवणार बघा साहेब. काही काळजीच नको तुम्हाला आता या पुस्तकांची. या तुम्ही तुमचं आवरुन. ” तो म्हणाला.

वॉचमनला त्याच्यावर लक्ष ठेवायला सांगून मी घरी गेलो आणि आंघोळ, चहा, नाश्ता करुन पुन्हा तासा दीडतासाने खाली गेलो. तोपर्यंत त्याने अर्धअधिक काम संपवलं होतं. कामातली त्याची सफाई बघून मी खूश झालो. त्याच्याशी गप्पा मारता मारता मला समजलं की त्याच्या घरी त्याची बायको आणि आई आहे. त्या दोघी लोकांकडे धुणी, भांडी करतात आणि फावल्या वेळेत गोधड्या, पिशव्या वगैरे शिवण्याचंही काम करतात. आणि हा चपलांपासून पुस्तकांपर्यंत सगळं शिवतो. तसे खाऊन पिऊन सुखी होते तिघे, पण त्याच्या लग्नाला पंधरा वर्ष झाली तरी अजून पाळणा हलला नव्हता. हा सल त्याच्या मनात होता, तो त्याने दोन तीन वेळा बोलूनही दाखवला. असतं एकेकाचं नशीब.

आणखी तासाभरात त्याचं काम संपलं. आम्ही पुस्तकं घेऊन वर घरी आलो. अगदी मला हवं होतं तसं काम केलं होतं त्याने. त्याला काही खायला देऊन, मी पैसे विचारले. माझ्या अंदाजापेक्षा त्याने कमीच सांगितले. मी ते दिले. त्याबरोबर त्याने त्यातले शंभर रुपये मला परत दिले. “साहेब, हे सकाळी तुम्ही मला नाश्त्यासाठी दिले होते. ” तो म्हणाला.

मी अवाक् झालो. आजच्या लबाडीच्या जगात इतका प्रामाणिकपणा? नाही तर लोक ठरलेले पैसे दिल्यावरसुद्धा वर लोचटपणे आणखी बक्षिसी मागतात. मी ‘राहू दे’ म्हटलं. पण त्याने ऐकलं नाही. ती नोट त्याने टेबलावर ठेवली आणि नमस्कार करुन तो निघून गेला. जाण्याआधी, ‘परत काही काम असेल तर सांगा साहेब, एक नंबर शिवणार’, हे सांगायला, आणि आपला फोन नंबर एका कागदावर लिहून द्यायला तो विसरला नाही.

पण दुर्दैवाने राजारामने लिहून दिलेला त्याचा नंबर माझ्याकडून हरवला. त्यामुळे नंतर त्याच्याशी कुठलाच संपर्क झाला नाही. बाबासाहेबांकडून त्याचा नंबर घेईन म्हटलं, पण तेही राहूनच गेलं.

ह्या घटनेनंतर साधारण नऊ दहा वर्षांनी एकदा दुपारी ठाण्याला मी एका मित्राच्या लग्नाला गेलो होतो. तिथून जेवून परत घरी येताना, हॉल स्टेशनजवळ होता, म्हणून जेवण जिरवायला चालत स्टेशनकडे निघालो. नेमकं त्याचवेळी माझ्या बुटाच्या सोलने मला दगा दिला. बुटाला सोडून सोल लोंबकळू लागला.

– क्रमशः भाग पहिला

लेखक : श्री राजेंद्र परांजपे 

प्रस्तुती : सुश्री प्रभा हर्षे

 ९८६०००६५९५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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