(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि“।)
☆ दस्तावेज़ # 13 – मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
महान रचनाकार केवल उत्कृष्ट साहित्य ही नहीं रचते बल्कि नव-अंकुरित रचनाकारों को भी प्रोत्साहित करते हैं।
लगभग नब्बे के दशक की बात है। तब मैं जबलपुर में कार्यरत था। बैंक का काम हो जाने के बाद, मैं, प्रति मंगलवार, शाम को श्रद्धेय हरिशंकर परसाई के नेपियर टाऊन स्थित आवास में नियमपूर्वक जाया करता था। वे एक तख़त पर, पीछे पीठ टिकाए, अधलेटे, कुछ पढ़ते हुए मिलते। अत्यंत सौम्य, शांत और गंभीर।
मैंने तब व्यंग्य लिखना शुरू ही किया था। वो मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनते और मार्गदर्शन करते। उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा गद्य लिखना है तो रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़ो। जब मैंने उनसे अपने पहले व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के फ्लैप के लिए कुछ लिखने को कहा, तो उन्होंने बहुत सहजता से कहा, “लिखकर रखूंगा। अगली बार जब आओ तो ले लेना।”
श्रद्धेय शंकर पुणतांबेकर को मैं अपनी रचनाएं डाक से भेजता था। वो, उन्हें पढ़ने के बाद, अपना मार्गदर्शन देते थे। उन्होंने भी कृपापूर्वक मेरी पहली पुस्तक के लिए फ्लैप पर उदारतापूर्वक लिखा।
परसाई जी और पुणतांबेकर जी ने जो कुछ लिखा, उनकी हस्तलिपि में मेरे पास आज भी सुरक्षित है। ये मेरे लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। इन्हें मैं, इस संस्मरण के साथ, आपसे साझा कर रहा हूं।
परसाई जी ने लिखा:
जगत सिंह बिष्ट विनोद और व्यंग्य लिखते हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य और विनोद के लेख काफी वर्षों से लिख रहे हैं। उनमें विनोद क्षमता है। वे जीवन की विसंगति विडंबना की पकड़ भी रखते हैं। वे “विट” में क्षमतावान हैं। उनके लेख वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। वे सामान्यतः दिखावटीपन और झूठी आधुनिकता को व्यंग्य का विषय बनाते हैं। उनका यह पहिला संग्रह प्रकाशित हो रहा है। मुझे आशा है यह पाठकों को संतुष्ट करेगा। वे आगे और अनुभव तथा मनन करके बेहतर रचना करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
-हरिशंकर परसाई
4-1-1992
☆☆☆☆
पुणतांबेकर जी ने लिखा:
व्यंग्यकारों की नई पीढ़ी में जगत सिंह बिष्ट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह इस में कि विसंगतियों को पकड़ने का उनका अपना अंदाज़ है और वे सहज ढंग से तीखी बात कह देते हैं। बिष्ट के पास तीखी दृष्टि ही नहीं, प्रसंगानुरूप तीखी भाषा भी है जो किसी भी व्यंग्य को सही व्यंग्य बनाती है। व्यंग्य का प्रमुख बिंदु प्रायः राजनीति और राजनेता होता है, किन्तु बिष्ट के व्यंग्य का विषय बहुआयामी है। वे जीवन के सभी क्षेत्रों की विसंगतियों को उतनी ही प्रखरता से प्रस्तुत करते हैं। लेखक व्यर्थ के विस्तार में नहीं जाता, अतः व्यंग्य में जिस चुस्ती और प्रभावात्मकता की आवश्यकता होती है वह उसकी रचनाओं में पूरी संजीदगी के साथ विद्यमान है। आज जब व्यंग्य कॉलमी लेखन के कारण बुरी तरह ढलान पर है, उस दशा में बिष्ट की ये रचनाएं हमें इस बात से आश्वस्त करती हैं कि सही व्यंग्य लेखन की दृष्टि नयी पीढ़ी के व्यंग्यकारों में भी विद्यमान है, पूरी प्रखरता के साथ विद्यमान है।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस
(कल महानायक सुभाषचंद्र बोस की जयंती थी। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख पुनर्पाठ के अंतर्गत साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में भी सम्मिलित है। )🙏
स्वाधीनता मानवजाति की मूलभूत आवश्यकता है। सोने के पिंजरे में रहकर भरपेट भोजन करते रहने से अच्छा मुक्त गगन में भूखे पेट विहार करनाहै । जाति को वरदानस्वरूप मिला स्वाधीनता का यह डी.एन.ए. ही है जिसने विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को समय-समय पर अपनी सार्वभौमता के लिए संघर्ष करने को उद्यत किया। इस संग्राम ने अनेक नायकों को जन्म दिया। विश्व इतिहास के इन नायकों में सुभाषचंद्र बोस अग्रणी हैं।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महानायक कहा जाता है। सुभाषचंद्र का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था।
बालक सुभाष अत्यंत मेधावी छात्र थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की। फलस्वरूप 1920 में उन्हें सरकारी प्रशासनिक सेवा में नौकरी मिली। पर जिसके भीतर राष्ट्र की स्वाधीनता की अग्नि धधक रही हो, वह भला विदेशी शासकों की गुलामी कैसे करता! केवल एक वर्ष बाद उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राजपत्रित अधिकारी का पद छोड़ना परिवार और परिचितों के लिए धक्का था।
20 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र मुम्बई के मणि भवन में महात्मा गांधी से मिले। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए और कोलकाता में असहयोग आंदोलन की बागडोर संभालनेवाले देशबंधु चित्तरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी। सुभाषबाबू स्वयं भी देशबंधु के साथ जुड़ना चाहते थे। देशबंधु ने सुभाष की अनन्य प्रतिभा को पहचाना। 1922 में दासबाबू ने काँग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने कोलकाता महानगरपालिका का चुनाव जीता। दासबाबू कोलकाता के मेयर बने और सुभाषचंद्र बोस को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) बनाया। सीईओ बनते ही सुभाषबाबू ने कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मारे जानेवाले लोगों के परिजनों को मनपा में नौकरी देना भी आरंभ किया।
सुभाषबाबू का कद तेजी से बढ़ने लगा। 1928 में साइमन कमिशन को प्रत्युत्तर देने और भारत का भावी संविधान बनाने के लिए काँग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग गठित किया। बोस को इस आयोग में शामिल किया गया। इसी वर्ष कोलकाता में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाष के भीतर के सैनिक ने मूर्तरूप लिया। उन्होंने खाकी गणवेश धारण कर पं. मोतीलाल नेहरू को सैनिक तरीके से सलामी दी।
1930 में जेल में रहते हुए उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। 26 जनवरी 1931 को सम्पूर्ण स्वराज्य की माँग करते हुए उन्होंने विशाल मोर्चा निकाला। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी ग्यारह बार जेल गए। अंग्रेज उनसे इतना खौफ खाते थे कि छोटे-छोटे कारणों से गिरफ्तार कर उन्हें सुदूर म्यानमार के मंडाले कारागृह में भेज दिया जाता था। 1932 में तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उनके सामने युरोप चले जाने की शर्त रखी। ऐसी शर्तें पहले ठुकरा चुके सुभाषबाबू इस रिहाई को अवसर के रूप में लेते हुए युरोप चले गये। युरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैंड के नेता डी. वेलेरा से मिले। 1934 में अपने पिता की बीमारी के चलते वे भारत लौटे। कोलकाता पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर वापस युरोप भेज दिया गया। युरोप प्रवास में ही 26 दिसम्बर 1937 को उन्होंने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकेल से विवाह किया।
1938 में काँग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। सुभाषबाबू को इसमें काँग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन की सर्वाधिक प्रभावशाली अध्यक्षीय वक्तव्यों में गणना होती है। अध्यक्ष के रूप में अपने सेवाकाल में बोस ने पहली बार भारतीय योजना आयोग का गठन किया। पहली बार काँग्रेस ने स्वदेशी वैज्ञानिक परिषद का आयोजन भी किया।
सुभाषबाबू की आक्रमक कार्यपद्धति गांधीजी को मान्य नहीं थी। फलतः 1939 के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। सुभाषबाबू ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 203 मतों से परास्त कर यह चुनाव जीत लिया। काँग्रेस के इतिहास में पहली बार किसीने गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित किया था। पार्टी में खलबली मच गई। गांधीजी के विरोध और कार्यकारिणी के सदस्यों के असहयोग के चलते 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने अध्यक्षपद से त्यागपत्र दे दिया।
4 दिन बाद याने 3 मई 1939 को उन्होंने काँग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सुभाषबाबू के कद को बरदाश्त न कर सकनेवाली लॉबी ने उन्हें काँग्रेस से निष्कासित करवा दिया। फॉरवर्ड ब्लॉक अब स्वतंत्र पार्टी के रूप में काम करने लगी।
इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। भारतीयों से राय लिए बिना भारतीय सैनिकों को इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में सुभाषबाबू ने आवाज उठाई। उन्होंने कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को तोड़ने की घोषणा भी की। सुभाषबाबू को धारा 129 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में अपील करने का अधिकार नहीं था। सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध को भारत की आजादी के लिए कारगर अस्त्र के रूप में देखते थे। फलतः रिहाई के लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरु कर दिया। बढ़ते दबाव से अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से तो मुक्त कर दिया पर घर में नजरबंद कर लिया गया।
16 जनवरी 1941 को सुभाषबाबू जियाउद्दीन नामक एक पठान का रूप धरकर नजरकैद से निकल भागे। वे रेल से पेशावर पहुंचे। भाषा की समस्या के चलते पेशावर से काबुल तक की यात्रा उन्होंने एक अन्य क्रांतिकारी के साथ गूंगा-बहरा बनकर पहाड़ों के रास्ते पैदल पूरी की।
काबुल में रहते हुए उन्होंने ब्रिटेन के कट्टर शत्रु देशों इटली और जर्मनी के दूतावासों से सम्पर्क किया। इन दूतावासों से वांछित सहयोग मिलने पर वे ओरलांदो मात्सुता के छद्म नाम से इटली का नागरिक बनकर मास्को पहुंचे। मास्को में जर्मन राजदूत ने उन्हें विशेष विमान उपलब्ध कराया। इस विमान से 28 मार्च 1941 को सुभाषबाबू बर्लिन पहुंचे।
यहाँ से विश्वपटल पर सुभाषचंद्र बोस के रूप में एक ऐसा महानायक उभरा जिसकी मिसाल नामुमकिन सी है। बर्लिन पहुँचकर नेताजी ने हिटलर के साथ एक बैठक की। हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मीन कॉम्फ’ में भारतीयों की निंदा की थी। नेताजी ने पहली मुलाकात में ही इसका प्रखर विरोध किया। नेताजी के व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव हिटलर पर पड़ा कि ‘मीन कॉम्फ’ की अगली आवृत्ति से इस टिप्पणी को हटा दिया गया।
9 अप्रैल 1941 को नेताजी ने जर्मन सरकार के समक्ष अपना अधिकृत वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस वक्तव्य में नेताजी का योजना सामर्थ्य और विशाल दृष्टिकोण सामने आया। देश में रहते हुए तत्कालीन नेतृत्व जो कुछ नहीं कर पा रहा था, यह वक्तव्य, वह सब करने का ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया। इस दस्तावेज में निर्वासन में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा, स्वतंत्र भारत के रेडिओ का प्रसारण, धुरि राष्ट्रों और भारत के बीच सीधे सहयोग, भारत की इस अंतरिम सरकार को ॠण के रूप में जर्मनी द्वारा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराया जाना और भारत में ब्रिटिश सेना को परास्त करने के लिए जर्मन सेना की प्रत्यक्ष सहभागिता का उल्लेख था। हिटलर जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली शासक के साथ समान भागीदारी के आधार पर रखा गया यह वक्तव्य विश्व इतिहास में अनन्य है। नेताजी को जर्मनी की सरकार ने बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की। जर्मनी के आर्थिक सहयोग से बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर (आजाद भारत केंद्र) और आजाद हिंद रेडिओ का गठन किया गया।
2 नवम्बर 1941 को फ्री इंडिया सेंटर की पहली बैठक नेताजी की अध्यक्षता में हुई। इसमें चार ऐतिहासिक निर्णय लिए गये-
1) स्वतंत्र भारत में अभिवादन के लिए ‘जयहिंद’ का प्रयोग होगा। इस बैठक से ही इस पर अमल शुरु हो गया।
2) भारत की राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी होगी।
3) ‘सुख चैन की बरखा बरसे, भारत भाग है जागा’ (रचनाकार हुसैन) भारत का राष्ट्रगीत होगा।
4) इसके बाद से सुभाषचंद्र बोस को ‘नेताजी’ कहकर सम्बोधित किया जाएगा।
कोलकाता से निकल भागने के बाद आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से नेताजी पहली बार जनता के सामने आए। विश्व ने नेताजी के सामर्थ्य पर दाँतों तले अंगुली दबा ली। आम भारतीय के मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। बच्चा-बच्चा जिक्र करने लगा कि देश को स्वाधीन कराने के लिए नेताजी सेना के साथ भारत पहुँचेंगे।
देश की आजादी के अपने स्वप्न को अमली जामा पहनाने की दृष्टि से नेताजी ने ब्रिटेन की ओर से लड़ते हुए धुरि राष्ट्रों द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को लेकर भारतीय मुक्तिवाहिनी गठित करने का विचार सामने रखा। हिटलर से बातचीत कर इन सैनिकों को मुक्त कराया गया। जर्मनी में पढ़ रहे भारतीय युवकों को भी मुक्तिवाहिनी में शामिल किया गया। जर्मन सरकार के साथ इन सैनिकों को जर्मन इन्फेंट्री में प्रशिक्षण देने का अनुबंध किया गया। नेतृत्व का समर्पण ऐसा कि सैनिक पृष्ठभूमि न होने के कारण स्वयं नेताजी ने भी इन सैनिकों के साथ कठोर प्रशिक्षण लिया। इस प्रकार भारत की पहली सशस्त्र सेना के रूप में जर्मनी की 950वीं रेजिमेंट को ‘इंडियन इन्फेंट्री रेजिमेंट’ घोषित किया गया। नेताजी ने इस रेजिमेंट को निर्वासन में भारत की स्वतंत्र सरकार का पहला ध्वज प्रदान किया। यह ध्वज काँग्रेस का तिरंगा था, पर इसमें चरखे के स्थान पर टीपू सुल्तान के ध्वज के छलांग लगाते शेर को रखा गया। ‘इत्तेफाक, इत्माद और कुर्बानी’ (एकता, विश्वास और बलिदान) को सेना का बोधवाक्य घोषित किया गया। रामसिंह ठाकुर के गीत ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा’ को आजाद हिंद फौज का कूचगीत बनाया गया।
फरवरी 1942 में जापान ने सिंगापुर को युद्ध में परास्त कर दिया। स्थिति को भांपकर नेताजी ने 15 फरवरी 1942 को आजाद हिंद रेडिओ के माध्यम से ब्रिटेन के विरुद्ध सीधे युद्ध की घोषणा कर दी। द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरिराष्ट्र, मित्र राष्ट्रों पर भारी पड़ रहे थे। पर 22 जून 1941 को जर्मनी ने अकस्मात् अपने ही साथी सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। यहीं से द्वितीय विश्वयुद्ध का सारा समीकरण बिगड़ गया। एक नीति के तहत सोवियत संघ युद्ध को शीतॠतु में होनेवाले नियमित हिमपात तक खींच ले गया। स्थानीय स्तर पर सोवियत सैनिक हिमपात में भी लड़ सकने में माहिर थे, पर जर्मनों के लिए यह अनपेक्षित स्थिति थी। फलतः नाजी सेना पीछे हटने को विवश हो गई।
बदली हुई परिस्थितियों में जर्मनी द्वारा विशेष सहायता मिलते न देख नेताजी ने जर्मनी छोड़ने का निर्णय किया। वे बेहतर समझते थे कि भारत को मुक्त कराने का यह ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का समय है।
नेताजी ने अब जापान से सम्पर्क किया। उनकी जर्मनी से जापान की यात्रा किसी चमत्कार से कम नहीं थी। संकल्प और साहस की यह अदम्य गाथा है। नेताजी 9 फरवरी 1943 को जर्मनी के किएल से जर्मन पनडुब्बी यू-180 से गुप्त रूप से रवाना हुए। यू-180 ने शत्रु राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन के समुद्र में अंदर ही अंदर चक्कर लगाकर अटलांटिक महासागर में प्रवेश किया। उधर जापानी पनडुब्बी आई-29 मलेशिया के निकट पेनांग द्वीप से 20 अप्रैल 1943 को रवाना की गई। 26 अप्रैल 1943 को मेडागास्कर में समुद्र के गहरे भीतर दोनों पनडुब्बियां पहुँची। संकेतों के आदान-प्रदान और सुरक्षा सुनिश्चित कर लेने के बाद 28 अप्रैल 1943 को रबर की एक नौका पर सवार होकर नेताजी तेजी से जापानी पनडुब्बी में पहुँचे। जर्मनी से जापान की यह यात्रा पूरी होने में 90 दिन लगे। साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध में एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में किसी यात्री के स्थानातंरण की यह विश्व की एकमात्र घटना है।
जापान में नेताजी, वहाँ के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो से मिले। तोजो उनके व्यक्तित्व, दृष्टि और प्रखर राष्ट्रवाद से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नेताजी का विशेष भाषाण जापान की संसद ‘डायट’ के सामने रखवाया।
जापान में ही वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी बोस भारतीय स्वाधीनता परिषद चलाते थे। रासबिहारी ने सुभाषबाबू से मिलकर उनसे परिषद का नेतृत्व करने का आग्रह किया। 27 जून 1943 को दोनों तोक्यो से सिंगापुर पहुँचे। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के फरेर पार्क में हुई विशाल जनसभा में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वाधीनता परिषद (आई.आई.एल.) का नेतृत्व नेताजी को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री तोजो भी यहाँ आई.आई.एल.की परेड देखने पहुँचे थे। यहीं आजाद हिन्द फौज की कमान भी विधिवत नेताजी को सौंपने की घोषणा हुई। कहा जाता है कि इस जनसभा में जो फूलमालाएं नेताजी को पहनाई गईं, वे करीब एक ट्रक भर हो गई थीं। इन फूल मालाओं की नीलामी से लगभग पचीस करोड़ की राशि अर्जित हुई। विश्व के इतिहास में किसी नेता को पहनाई गई मालाओं की नीलामी से मिली यह सर्वोच्च राशि है।
इस सभा में अपने प्रेरक भाषण में नेताजी ने कहा- ‘भारत की आजादी की सेना के सैनिकों !…आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आजादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर-जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।…
एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रूप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं की कब्र बन गए। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।…
मैं नहीं जानता कि आजादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हम लोग जीतेंगे और हमारा काम तब तक खत्म नहीं होता, जब तक कि हममें से जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह-पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।…
जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आजादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त में आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आजादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आजाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आजाद हो और हम उसे आजाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाए।… इंकलाब जिन्दाबाद!…आजाद हिन्द जिन्दाबाद!’
अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए 27 जुलाई 1943 को नेताजी सत्रह दिनों की यात्रा पर निकले। 10 अगस्त 1943 को वे रंगून में बर्मा के स्वतंत्रता समारोह में सम्मिलित हुए। फिर बैंकॉक पहुँचे। थाईलैंड से भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए समर्थन मांगा। तत्पश्चात वियतनाम और मलेशिया गये। भारत की आजादी के लिए सर्वस्व अर्पित करने के आह्वान के साथ सुभाषबाबू जहाँ भी जाते, हजारों भारतीयों की भीड़, उनको देखने-सुनने के लिए प्रतीक्षा कर रही होती।
21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के कैथी सिनेमा हॉल के परिसर में आयोजित विशाल जनसभा में नेताजी ने हुकूमत-ए-आजाद हिंद (स्वतंत्र भारत की सरकार) की घोषणा कर दी। नेताजी को इस सरकार का प्रधानमंत्री, युद्ध और विदेशी मामलों का मंत्री एवं सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया। सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने कहा-
‘ईश्वर के नाम पर मैं यह पवित्र शपथ लेता हूँ कि मैं भारत को और अपने अड़तीस करोड़ देशवासियों को आजाद कराऊँगा। मैं सुभाषचन्द्र बोस, अपने जीवन की आखिरी साँस तक आजादी की इस पवित्र लड़ाई को जारी रखूँगा। मैं सदा भारत का सेवक बना रहूँगा और अपने अड़तीस करोड़ भारतीय भाई-बहनों की भलाई को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझूँगा। आजादी प्राप्त करने के बाद भी, इस आजादी को बनाए रखने के लिए मैं अपने खून की आखिरी बूँद तक बहाने के लिए सदा तैयार रहूँगा।’
इस मंत्रिमंडल के परामर्शदाता के रूप में रासबिहारी बोस की नियुक्ति हुई। डॉ. लक्ष्मी विश्वनाथन, एस.ए.अय्यर, एस.जी.चटर्जी, अजीज अहमद, एन.एस.भगत, जे.के. भोसले, गुलजारासिंह, एम.जे. कियानी, ए.डी.लोकनाथन, शहनवाज खान, सी.एस.ढिल्लों, करीम गांधी, देबनाथ दास, डी.एम.खान, ए. थेलप्पा, जेधिवी, ईश्वरसिंह को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया। भारत की इस अंतरिम सरकार को जापान, जर्मनी और इटली सहित विश्व के नौ देशों ने मान्यता भी प्रदान कर दी। दिसम्बर 1943 के अंत में जापानी नौसेना ने समारोहपूर्वक अंडमान और निकोबार आजाद हिंद फौज को सौंप दिये। नेताजी ने तुरंत प्रभाव से दोनों द्वीपों का नाम बदलकर क्रमशः शहीद और स्वराज रखा।ए.डी.लोकनाथन को आजाद हिन्द सरकार का ले.गर्वनर नियुक्त किया गया।
इस बीच नेताजी ने आजाद हिन्द फौज में तीन ब्रिगेडों का गठन किया। हर ब्रिगेड में दस हजार सैनिक थे। इन्हें गांधी, आजाद और नेहरु ब्रिगेड का नाम दिया। बाद में उन्होंने महिलाओं की एक रेजिमेंट ‘झांसी की रानी रेजिमेंट’ नाम से गठित की। 6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडिओ के माध्यम से उन्होंने गांधीजी से संवाद स्थापित किया। अपने इस संबोधन में सुभाषबाबू ने विस्तार से आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य, अंतरिम सरकार की स्थापना, और जापान से सहयोग जैसे मुद्दों पर चर्चा की। यही वह भाषण था जिसमें नेताजी ने गांधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया था। गांधीजी का ‘राष्ट्रपिता’ नामकरण इस भाषण के बाद ही पड़ा। नेताजी ने कहा था, ‘एक बार देश आजाद हो जाए, फिर इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के हाथों सौंप दूँगा।’ आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए जून 1944 में नेताजी ने वह अमर नारा दिया, जिसकी अनुगूँज भारत की रग-रग में सदा सुनाई देती रहेगी। यह नारा था-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ नेताजी के ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
‘अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे; जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूँ। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए, जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यों के लिए प्रेरित करे।
सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुँच में दिखाई देती है, आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहाँ मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए-मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत मरने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।
साथियो, स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो ! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूँ; सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूँ। यह खून ही उस का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’
नेताजी के कदम तेजी से भारत की ओर बढ़ने लगे थे। जापानी सेना के साथ मिलकर आजाद हिन्द फौज इंफाल और कोहिमा तक आ पहुँची। तभी जापान ने पर्ल-हार्बर पर आक्रमण कर दिया। भारी संख्या में अमेरिकी युद्धपोत और सैनिक हताहत हुए। अमेरिका ने युद्ध में सीधे उतरने की घोषणा कर दी। अगस्त में जापान के क्रमशः हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने अणुबम डाल दिया। पलक झपकते ही लाखों लोग मारे गए। असंख्य विकलांग हो गए । मानवीय इतिहास की इस सर्वाधिक भयानक विभीषिका के बाद जापान ने घुटने टेक दिए।
इधर स्थितियाँ मित्र राष्ट्रों के पक्ष में झुकने लगी। मणिपुर-नागालैंड आ पहुँची जापानी सेना पीछे हटने लगी। अंग्रेजों ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों का भीषण संहार किया। पर नेताजी हार माननेवालों में नहीं थे। वे किसी भी मूल्य पर भारत को स्वाधीन देखना चाहते थे। रूस को साथ लेने की दृष्टि से उन्होंने मंचुरिया जाने का फैसला किया। 18 अगस्त 1945 को वे एक युद्धयान से मंचुरिया के लिए रवाना भी हुए।
23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई न्यूज एजेंसी ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का विमान ताइवान में दुर्घटना ग्रस्त हो गया था और दुर्घटना में बुरी तरह जले नेताजी का अस्पताल में निधन हो गया है। एजेंसी के अनुसार नेताजी की अस्थियाँ जापान के रेनकोजी बौद्ध मंदिर में रखी गई हैं।
तब से, अब तक नेताजी की मृत्यु को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। 1956 और 1977 में गठित जाँच आयोगों ने निष्कर्ष निकाला कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में ही हुई थी। जबकि 1999 में बने मुखर्जी आयोग ने नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु का कोई सबूत नहीं पाया। यह पहला आयोग था जिसने ताइवान सरकार से 18 अगस्त 1945 की दुर्घटना की अधिकृत रपट मांगी थी। ताइवान सरकार ने आयोग को बताया कि उस दिन ताइवान में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी। बाद में भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रपट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 से 80 के दशक तक देश के विभिन्न भागों से नेताजी को देखे जाने की खबरें आती रहीं। गुमनामी बाबा और स्वामी शारदानंद के नेताजी होने के दावे भी किये गए पर अन्यान्य कारणों से प्रशासनिक स्तर पर इन दावों की कोई जाँच नहीं की गई।
1897 में जन्मे सुभाषबाबू अब नहीं हैं, यह तो निश्चित है। अपनी दैहिक मृत्यु के बाद भी अद्भुत व्यक्तित्व और अनन्य राष्ट्रप्रेम का यह उफनता ज्वालामुखी जनमानस की आँखों में निराकार से साकार हो उठता है। नेताजी को अमर और चेतन मानने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि उन्हें मरणोपरांत भारतरत्न देने की बात पर देश भर में विरोध की लहर उठी। भारतीय जनता इस योद्धा को मृत मानने को तैयार नहीं। फलतः सरकार को अपनी बात वापस लेनी पड़ी।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जीवन इस बात का अनन्य उदाहरण है कि अकेला व्यक्ति चाहे तो अदम्य साहस, धैर्य और प्रखर राष्ट्रवाद से महासत्ता को भी चुनौती दे सकता है। भारत की अधिकांश जनता मानती है कि यदि नेताजी होते तो विभाजन नहीं होता।
सुभाषबाबू ने अपने देश के स्वाधीनता संग्राम के यज्ञ की जैसी वेदी बनाई, जिस तरह समिधा तैयार की, विशाल जनसमर्थन जुटाया और फिर अपनी आहुति दे दी, यह भारत ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का असाधारण उदाहरण है। उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का केवल नारा भर नहीं दिया बल्कि आजादी हासिल करने के लिए अपना रक्त अर्पित भी कर दिया। आजादी की लड़ाई के इस शीर्षस्थ महानायक को उसीके तय किये हुए अभिवादन में ‘जयहिंद !’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ ‘Nature’s Splendour…‘ ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
☆ ~ ‘Nature’s Splendour…’ ~ ☆
(Here’s my tribute to the Mother Nature… whose spellbinding charm has cast spell on me… it’s my love letter to her…)
☆
In Mother Nature’s lap, where tranquility reigns,
I saunter free, as the blissful momentum gains
Meandering rivers, with a sprightly serene flow,
Reflecting the beauty, my soul only would know
*
Soft moonlight filters through the trees so tall,
A silvery glow rustles to respond breeze’s call
Starry nights, a tapestry of diamonds, so bright
A twinkling canopy above, with celestial delight
*
Rosy-pinkish soft petals, so enchantingly divine
Flowers swaying in the wind, dancing so fine
The symphony of birds, a chorus so enlivening
Echoes through the heart, vivaciously sparkling
*
In Nature’s embrace, I find my peaceful nest,
A sense of oneness, where love and joy find rest
The fairies’ melodies, a harmony grandly divine,
Awaken the forest, to make our hearts entwine
*
So let me wander around, lost in Nature’s delight,
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – जीवन एक चुनौती…।
रचना संसार # 37 – गीत – जीवन एक चुनौती… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – कुम्भ ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे … महाकुंभ। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पुण्य का कारोबार…“।)
अभी अभी # 586 ⇒ पुण्य का कारोबार श्री प्रदीप शर्मा
राम नाम के साथ अगर पुण्य की भी लूट लगी हो तो क्या यह सोने में सुहागा नहीं। क्या आप दान और पुण्य को अलग कर सकते हैं। दान से ही तो पुण्य कमाया जाता है। कलयुग नाम अधारा तो यक़ीनन है ही लेकिन इसके साथ साथ दान पुण्य का कारोबार भी चलता रहना चाहिए।
१४४ वर्ष बाद एक ऐसा महा अवसर आया है, जहां कम से कम ४० करोड़ श्रद्धालु महाकुंभ में स्नान कर महा पुण्य के भागी बनेंगे। बिना दान के पुण्य नहीं कमाया जाता। आप यूं भी कह सकते हैं, बिना दान के पुण्य का कारोबार नहीं चलता। अगर आप यजमान हो तो भी दान करेंगे और अगर आप सरकार हो, तब भी सभी संत और श्रद्धालुजन को सभी तरह की सुविधा प्रदान करेंगे। पुण्य में लाभ ही होता है, कभी नुकसान नहीं होता, इसीलिए दान दिया जाता है, और बदले में पुण्य स्वत: ही अर्जित हो जाता है।।
जब कोई धार्मिक महोत्सव होता है तो उसका प्रचार प्रसार भी होता है और बाजार की निगाहें भी उधर उठ ही जाती है। जहां मंदिर है, वहां आसपास दुकानें भी होंगी और बाजार भी। आखिर हर व्यक्ति कुछ कमा ही रहा है। धर्म की कमाई ही पुण्य की कमाई कहलाती है।
इस महाकुंभ में तो बस कमाई ही कमाई है। जो मूरख इस महाकुंभ में धर्मलाभ ले, अमृत स्नान का पुण्य नहीं लूटता, वह तो अभागा ही हुआ।
महाकुंभ इस कलयुग की एक महा इवेंट है। क्या साधु संत, गृहस्थ और कारोबारी, सभी इसका पुण्य लाभ लेना चाहते हैं, अपने तन, मन और धन के योगदान से इसका हिस्सा बनना चाहते हैं।
फूल खिलेगा तो महकेगा और जहां सेवा और दान पुण्य होगा, वहां उसका नाम भी होगा। फिर ऐसे अवसर पर अडानी हों अथवा इस्कॉन, क्या देसी और क्या विदेशी सभी अपनी मार्केटिंग प्रतिभा के साथ पुण्य के इस अखाड़े में कूद पड़े हैं।।
ऐसे में मीडिया और सोशल मीडिया भी क्यों न बहती गंगा में पुण्य की डुबकी मार ही ले। इतने भव्य और दिव्य आयोजन की मनोरम छवि छन छनकर उन करोड़ों श्रद्धालुओं को भी लाभान्वित कर रही है, जो किसी कारण इस महाकुंभ का हिस्सा नहीं बन सके।
जहां बाबा होंगे, वहां योग साधना भी होगी और चमत्कार भी होंगे। एक आयआयटीअन अभय सिंग साधु क्या बन गए, मीडिया में बुरी तरह वायरल हो गए। अगर पढ़े लिखे प्रभावित हो गए तो स्थापित बाबा उनसे नाराज हो गए। हमारे अखाड़े में तुम्हारा क्या काम है।।
डर है कहीं आयआयटी और आयआयएम भी भविष्य में इंजीनियर और प्रबंधन की जगह बाबा बनने की ट्रेनिंग नहीं देने लग जाए। जो भी हो, जितना बन सके, इस अवसर पर जितना पुण्य लूट सकें, लूटें। आखिर सरकार भी तो इस महाकुंभ से कम से कम दो लाख करोड़ कूटने जा रही है। इसे कहते हैं, सफल धार्मिक प्रबंधन के साथ साथ पुण्य लाभ भी।।
आपल्या समूहातील ज्येष्ठ साहित्यिका डॉ. शैलजा करोडे यांना दि. १७ जानेवारी २०२५ रोजी HAPPAY या बहुराष्ट्रीय संस्थेद्वारा ‘ Lead-her-Ship ‘ या कार्यक्रमाअंतर्गत
LIFETIME ACHIEVEMENT AWARD …. जीवन गौरव पुरस्कार देऊन सन्मानित करण्यात आले.
या प्रतिष्ठेच्या पुरस्काराच्या मानकरी ठरलेल्या डॉ. शैलजाताईंचे आपल्या सर्वांतर्फे अगदी मनःपूर्वक अभिनंदन आणि असंख्य शुभेच्छा. 💐
संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈