English Literature – Poetry ☆ – ‘Nature’s Splendour…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ ‘Nature’s Splendour…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Nature’s Splendour~? ☆

(Here’s my tribute to the Mother Nature… whose spellbinding charm has cast spell on me… it’s my love letter to her…)

In Mother Nature’s lap, where tranquility reigns,

I saunter free, as  the  blissful  momentum  gains

Meandering rivers, with a sprightly  serene  flow,

Reflecting the beauty, my soul only would  know

*

Soft moonlight  filters through  the trees  so  tall,

A  silvery  glow rustles  to respond  breeze’s call

Starry nights, a tapestry of diamonds, so bright

A twinkling canopy above, with celestial delight

*

Rosy-pinkish soft petals, so enchantingly divine

Flowers  swaying  in  the  wind, dancing so  fine

The symphony of birds, a chorus  so  enlivening

Echoes through the heart, vivaciously sparkling

*

In Nature’s  embrace, I  find  my  peaceful  nest,

A sense of oneness, where  love and  joy find rest

The fairies’ melodies, a harmony grandly divine,

Awaken the forest, to  make our  hearts entwine

*

So let me wander around, lost in Nature’s delight,

Where Mother Nature’s beauty is the guiding light

For in  her lap, I find  my  happy,  peaceful  solace,

Where love, peace and joy entwine, in cozy space

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

23 January 2025

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #37 – गीत – जीवन एक चुनौती… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – जीवन एक चुनौती

? रचना संसार # 37 – गीत – जीवन एक चुनौती…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

संघर्षों के जीवन में,

बस मैंने तो प्यार किया।

जीवन एक चुनौती है,

हँस कर के स्वीकार किया।।

 **

शूल चुभे थे हिय में तो,

अंगारों की शैय्या थी।

तूफानों सा जीवन था,

और भँवर में नैय्या थी।।

धीरज खोया नहीं कभी ।

सपनों को साकार किया।।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

**

पाषाणों के  नगरों में,

क्षुब्ध हुई शहनाई है।

प्राणों का भी मोल नहीं,

लक्ष्य हीन तरुणाई है।।

दुख का सागर जीवन भी

हिम्मत से नित पार किया।

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

 **

दावानल सी आँधी ये,

अंगारे सँग में लाती।

ज्वार तिमिर जब जब उठता ,

उषा दूर फिर हो जाती।।

कंपित है परछाईं पर,

नहीं कभी प्रतिकार किया।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैंने तो प्यार किया।

 **

रिश्ते नाते झूठे सब,

पैसों का अब रेला है।

स्वार्थ भरा सारा जग है,

मानव हुआ  अकेला है।।

मानव ने तो पग-पग पर

रिश्तों का व्यापार किया ।

 *

संघर्षों के जीवन में,

बस मैं ने तो प्यार किया।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #264 ☆ भावना के दोहे – कुम्भ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – कुम्भ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 264 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – कुम्भ ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

गंगा जी की धार में, बहते पुण्य अपार।

संगम तट पर कुंभ है, आए भक्त हजार।।

*

साधु संत नागा सभी, करते  जय जयकार।

महाकुंभ उत्सव सजे, लगे भक्त दरबार।।

*

 पावन डुबकी गंग में,तन – मन का आधार।

 पाप  धुले सारे यहां ,यहां मोक्ष अगार ।।

*

 मेले की है भव्यता, पावनता  संचार।

केंद्र सजा आध्यात्म का, होता बहुत प्रचार।।

*

संगम तट की रेत पर, ज्ञान भक्ति वैराग्य।

भजन भाव सब कर रहे, पूज रहे आराध्य।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #246 ☆ संतोष के दोहे … महाकुंभ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे … महाकुंभ आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 246 ☆

☆ संतोष के दोहे … महाकुंभ  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सरस्वती भागीरथी, कालिंदी के घाट।

महाकुंभ संक्रांति का, संगम पर्व विराट

*

इक डुबकी से मिट रहे, सौ जन्मों के पाप

सच्चे मन से आइए, एक बार बस आप

*

अमृतमयी अवगाह का, संगम में आगाज

तीर्थ राज के घाट पर, आगत संत समाज

*

संगम में होता नहीं, ऊंच नीच का भेद

मान सभी का हो यहाँ, रहे न कोई खेद

*

होता संगम में खतम, जन्म-मृत्यु का फेर

सागर मंथन से गिरा, जहाँ अमृत का ढेर

*

साहित्यिक उत्कर्ष की, है पुनीत पहचान

गंगा- जमुना संस्कृति, तीरथराज महान

*

श्रद्धा से तीरथ करें, कहते तीरथराज

काशी मोक्ष प्रदायिनी, सफल करे सब काज

*

चारि पदारथ हैं जहाँ, ऐसे तीरथराज

करें अनुसरण धर्म का, हो कृतकृत्य समाज

*

स्वयं राम रघुवीर ने, किया जहाँ अस्नान

पूजन अर्चन वंदना, संगम बड़ा महान

*

सुख – दुःख का संगम यहाँ, पूजन अर्चन ध्यान

तर्पण पितरों का करें, पिंडदान अस्नान

*

महाकुंभ में आ रहे, नागा साधू संत

जिनका गौरव है अमिट, महिमा जिनकी अनंत

*

नागा साधू संत जन, जिनके दरश महान

करें त्रिवेणी घाट में, जो पहले अस्नान

*

महिमा संगम की बड़ी, कह न सके संतोष

तीर्थराज दुख विघ्न हर, दूर करो सब दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 586 ⇒ पुण्य का कारोबार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पुण्य का कारोबार।)

?अभी अभी # 586 ⇒ पुण्य का कारोबार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

राम नाम के साथ अगर पुण्य की भी लूट लगी हो तो क्या यह सोने में सुहागा नहीं। क्या आप दान और पुण्य को अलग कर सकते हैं। दान से ही तो पुण्य कमाया जाता है। कलयुग नाम अधारा तो यक़ीनन है ही लेकिन इसके साथ साथ दान पुण्य का कारोबार भी चलता रहना चाहिए।

१४४ वर्ष बाद एक ऐसा महा अवसर आया है, जहां कम से कम ४० करोड़ श्रद्धालु महाकुंभ में स्नान कर महा पुण्य के भागी बनेंगे। बिना दान के पुण्य नहीं कमाया जाता। आप यूं भी कह सकते हैं, बिना दान के पुण्य का कारोबार नहीं चलता। अगर आप यजमान हो तो भी दान करेंगे और अगर आप सरकार हो, तब भी सभी संत और श्रद्धालुजन को सभी तरह की सुविधा प्रदान करेंगे। पुण्य में लाभ ही होता है, कभी नुकसान नहीं होता, इसीलिए दान दिया जाता है, और बदले में पुण्य स्वत: ही अर्जित हो जाता है।।

जब कोई धार्मिक महोत्सव होता है तो उसका प्रचार प्रसार भी होता है और बाजार की निगाहें भी उधर उठ ही जाती है। जहां मंदिर है, वहां आसपास दुकानें भी होंगी और बाजार भी। आखिर हर व्यक्ति कुछ कमा ही रहा है। धर्म की कमाई ही पुण्य की कमाई कहलाती है।

इस महाकुंभ में तो बस कमाई ही कमाई है। जो मूरख इस महाकुंभ में धर्मलाभ ले, अमृत स्नान का पुण्य नहीं लूटता, वह तो अभागा ही हुआ।

महाकुंभ इस कलयुग की एक महा इवेंट है। क्या साधु संत, गृहस्थ और कारोबारी, सभी इसका पुण्य लाभ लेना चाहते हैं, अपने तन, मन और धन के योगदान से इसका हिस्सा बनना चाहते हैं।

फूल खिलेगा तो महकेगा और जहां सेवा और दान पुण्य होगा, वहां उसका नाम भी होगा। फिर ऐसे अवसर पर अडानी हों अथवा इस्कॉन, क्या देसी और क्या विदेशी सभी अपनी मार्केटिंग प्रतिभा के साथ पुण्य के इस अखाड़े में कूद पड़े हैं।।

ऐसे में मीडिया और सोशल मीडिया भी क्यों न बहती गंगा में पुण्य की डुबकी मार ही ले। इतने भव्य और दिव्य आयोजन की मनोरम छवि छन छनकर उन करोड़ों श्रद्धालुओं को भी लाभान्वित कर रही है, जो किसी कारण इस महाकुंभ का हिस्सा नहीं बन सके।

जहां बाबा होंगे, वहां योग साधना भी होगी और चमत्कार भी होंगे। एक आयआयटीअन अभय सिंग साधु क्या बन गए, मीडिया में बुरी तरह वायरल हो गए। अगर पढ़े लिखे प्रभावित हो गए तो स्थापित बाबा उनसे नाराज हो गए। हमारे अखाड़े में तुम्हारा क्या काम है।।

डर है कहीं आयआयटी और आयआयएम भी भविष्य में इंजीनियर और प्रबंधन की जगह बाबा बनने की ट्रेनिंग नहीं देने लग जाए। जो भी हो, जितना बन सके, इस अवसर पर जितना पुण्य लूट सकें, लूटें। आखिर सरकार भी तो इस महाकुंभ से कम से कम दो लाख करोड़ कूटने जा रही है। इसे कहते हैं, सफल धार्मिक प्रबंधन के साथ साथ पुण्य लाभ भी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ डॉ. शैलजा करोडे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? डॉ. शैलजा करोडे – अभिनंदन ?

💐 संपादकीय निवेदन 💐

आपल्या समूहातील ज्येष्ठ साहित्यिका डॉ. शैलजा करोडे यांना दि. १७ जानेवारी २०२५ रोजी HAPPAY या बहुराष्ट्रीय संस्थेद्वारा ‘ Lead-her-Ship ‘ या कार्यक्रमाअंतर्गत 

LIFETIME ACHIEVEMENT AWARD …. जीवन गौरव पुरस्कार देऊन सन्मानित करण्यात आले.

या प्रतिष्ठेच्या पुरस्काराच्या मानकरी ठरलेल्या डॉ. शैलजाताईंचे आपल्या सर्वांतर्फे अगदी मनःपूर्वक अभिनंदन आणि असंख्य शुभेच्छा. 💐

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 240 ☆ सौभाग्य कंकण..! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 240 – विजय साहित्य ?

☆ सौभाग्य कंकण..! ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

सौभाग्य कंकण,

संस्कारी बंधन.

हळव्या मनाचे,

सुरेल स्पंदन…! १

*

सौभाग्य भूषण,

पहिले‌ कंगण.

माहेरी सोडले,

वधुने अंगण…!२

*

सौभाग्य वायन ,

हातीचे कंकण.

मनाचे मनात,

संस्कारी रींगण..!३

*

सप्तरंगी चुडा,

हिरव्या मनात .

हिरवी बांगडी,

हिरव्या तनात…!४

*

प्रेमाचे प्रतीक,

लाल नी नारंगी .

जपावा संसार   ,

नानाविध अंगी..!५

*

निळाई ज्ञानाची,

पिवळा आनंदी.

सांगतो हिरवा,

रहावे स्वच्छंदी…!६

*

यशाचा केशरी ,

पांढरा पावन .

जांभळ्या रंगात,

आषाढ श्रावण..!७

*

वज्रचुडा हाती ,

स्वप्नांचे कोंदण.

माया ममतेचे,

जाहले गोंदण…!८

*

आयुष्य पतीचे ,

वाढवी कंगण.

जपते बांगडी,

नात्यांचे बंधन…!    ९

*

चांदीचे ऐश्वर्य,

सोन्याची समृद्धी.

मोत्यांची बांगडी ,

करी सौख्य वृद्धी..!१०

*

भरल्या करात,

वाजू दे कंकण ,

काचेची बांगडी,

संसारी पैंजण…!११

*

चुडा हा वधूचा,

हाती आलंकृत .

सासर माहेर ,

झाली सालंकृत..!१२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सेतू… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सेतू… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

झाडांनाही माहित असतं

सगळीच पानं पिवळी होऊन चालत नाही

उद्या उमलणा-या कळ्यांसाठी

काही पानांना हिरवं रहावच लागतं

 

माहित असतं त्यांना,

करावाच लागतो संघर्ष

स्वतःच अस्तित्व टिकवण्यासाठी

 

फांद्यांना आकाशाचे वेध लागले तरी

मुळांना माती सोडून जाता येत नाही

 

पिकली पानं गळून जातील आपोआप

पालवीही फुटेल,आपोआपच,

तरीही

फुलणं आणि सुकणं

यांना जोडणारा सेतू होऊन

झाड झुंजत राहतं वादळवा-यात,

पिवळ्या पानांना निरोप दे॓ऊन

हिरवी पानं अंगावर मिरवत

प्रत्येक ऋतूचं स्वागत करत !

प्रत्येक ऋतूचं स्वागत करत !

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “काटे नसलेला गुलाब…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “काटे नसलेला गुलाब…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

…आम्ही भाजी मंडईतून घरी निघालो होतो… अर्थात आम्ही म्हणजे आम्ही दोघं नवरा बायको… गद्दे पंचवीशीचा माझा बहर लग्नाच्या दशकपूर्ती दरम्यान केव्हाच उतरलेला… आणि हिचा गरगरीत बहरलेला… तिच्या हाताला पैश्याने भरलेल्या पाकिटाचाच भार तेव्हढाच सहन व्हायचा आणि माझा  पैश्याचं पाकिट सोडून बाकी सगळ्याचा भारच उचलून उचलून हर्क्युलस झालेला…त्या भाजीने भरलेल्या दोन जड पिशव्यांचे बंदानीं  माझ्या हाताला घातलेले आढेवेढे …तर  माणसानं सुटसुटीत कसं जगावं याचाच आर्दश जगापुढे ठेवायला हिचं पाऊल नेहमीच पुढे पुढे…. आणि हो भाजीवरुन आठवलं अहो त्या भाजी बाजारात मला ये पडवळ्या नि हिला ढब्बू मिरची या नावानेच  ओळखतात.. अहो त्यांना मी सतत डोळे मिचकावून ‘ असं निदान आमच्या समोर तरी म्हणून नका ‘ असं ज्याला त्याला डोळ्यांच्या सांकेतिक भाषेत सांगू पाहत राही.. पण  ते टोमणे ऐकून ज्याला त्याला  हि मात्र रागाने डोळे वटारून बघत असते.. आणि चुकून माकून त्याचवेळी मी करत असलेल्या नेत्रपल्लवीकडे  तिचे लक्ष गेलेच तर डोळे फाडून फाडून बघते हा काय पांचटपणा चालवलाय तुम्ही असे कायिक आर्विभाव करते… आता एकदा हिच्या बरोबर लग्न करून पस्तावा पावल्यावर लग्न या गोष्टीवरचा माझा विश्वासच उडाला असताना आणि इथून तिथून बायकांची जात शेवटी एकच असते तेव्हा खाली मान घालून चालणं ठरवल्यावर पुन्हा मान वर करून दुसऱ्या स्त्री कडे बघण्याचा सोस तरी उरेल का तुम्हीच सांगा! तरी पुरूष जातीचा स्वयंभू चंचलपणा कधीतरी डोकं वर काढतोच… आणि तशी एखादी हिरवळ नजरेला पडलीच तर माझा मीच अचंबित होतो…  अहो तुम्हाला म्हणून सांगतो आमच्या त्या घराच्या वाटेवर एक सुंदरशी बाग आहे… रोज संध्याकाळी तिथं प्रेमी युगुलांचा नि कुटुंब वत्सलांचा जथ्था जागोजागी प्रेमाचे आलाप आळवताना दिसतात ना डोळ्यांना.. अगदी सहजपणे… कितीतरी मान वळवून दुसऱ्या दिशेला पाहायचा प्रयत्न केला तरी… मनचक्ष्चू तेच तेच चित्र दाखवत राहतात… मग वाटायचं आपलं मनं शुद्ध भावनेचं आहे यावर आपला विश्वास असताना कशाला उगाच दिसणाऱ्या सृष्टीला दृष्टिआड जबरदस्तीने करा… प्रत्येकाची आपापली तर्हा असते आपलं प्रेम व्यक्त करण्याची… करू देत कि बिचारे… आपल्याला हे सुख मिळालं नाही याची खंत  करण्यापेक्षा ते प्रेमी युगुल किती नशीबवान आहे.. कि त्यांच्या वाट्याला काटे नसलेला गुलाब आला… आणि आपल्याला गुलाब तर कधीच कोमेजून, सुकून गळून गेला आणि हाती फक्त काटेच काटे असणारा देठ मिळाला… असा मी काहीसा मनातल्या मनात विचार करत तिथून चाललो असताना मधेच हिने माझ्याकडे तिरप्या नजरेने पाहिले आणि ती सुद्धा मनात विचार करू लागली… काय पाहतायेत कोण जाणे आणि कसल्या विचारात पडलेत काही कळत नाही.. इथं कशी जोडप्यानं बसलेले प्रेम करतात ते बघून घ्या म्हणावं.. अगदी तसच नसलं तरी बायकोवर कसं प्रेम करावं ते बघून तरी माणसानं शिकायला करायला काय हरकत आहे म्हणते मी… आणि मी एव्हढी घरात असताना जाता येता दुसऱ्यांच्या बायकांकडे बघणं शोभतं का या वयाला…

बराच वेळ मी माझ्या तंद्रीत होतो हे पाहून हिने माझी भावसमाधी कोपराची ढूशी देऊन भंग केली आणि वरच्या पट्टीत आवाज चढवून म्हणाली…  “बघा बघा तो नवरा आपल्या बायकोवर  मनापासून  कसं प्रेम करतोय आणि ती देखील छान प्रतिसाद देतेय… तुम्हाला कधी माझ्याबाबतीत असं जमलयं काय?… नेहमीचं एरंडाचं झाड असल्यासारखं तुमचं वागणं… “

माझ्यातल्या पुरूषार्थाला तिने चुनौतीच दिली…मग मीही ती संधी  साधली तिला म्हटले ” तुला जे दिसते ते कुठल्याही बाजूनें  खरं नाहीच मुळी… एकतरं  ते खरे नवरा बायको नसावेत, आणि  दुसरे  त्यांचे दोघांचे आपापले जोडीदार कुणी वेगळेही असू शकतात…प्रियकर प्रेयसीचं युगुल प्रेम करत आहेत तेच उद्या त्यांचं लग्न झाल्यावर आपल्या जागेवर ते नक्कीच दिसतील… भ्रभाचा भोपळा फुटायाचाच काय तो अवकाश… आणि शेवटचं लांबून कोणीतरी त्यांच्या या लवसिनचं शुटींग करत असणार.. कि या सिनसाठी त्यांनी पैसे घेतले असणार… हे विकतचं दिखाऊ बेगडी प्रेम पडद्यावर दाखवतात त्यावर तू भाळून जाऊ नकोस.. आणि तुला जर मी अगदी असच   तुझ्यावर प्रेम करावसं वाटत असेल तर मला थोडी तुझ्यापासून सुटका कर बाहेर प्रेमाचे धडे गिरवायला मला नवी प्रेयसीचा शोध घेतो  ते धडे शिकल्यावर मग तुझ्यावर प्रेमच प्रेम करत राहिन… “

माझं म्हणणं तिच्या पचनी पडणारं नव्हतचं मुळी.. तिने इतक्या झटक्याने मला म्हणाली “काही नको बाहेर वगैरे जायला तुम्ही जितकं प्रेम सध्या दाखवताय ना तितकसचं पुरेसे आहे मला… घरी तरी चला मग बघते तुमच्या कडे…म्हणे मला नव्याने प्रेयसी शोधायला हवी.. “

आमचा सुखसंवाद चालत असताना माझ्या मनाला सारखी ‘काटे नसलेला गुलाब मात्र दुसऱ्यांना मिळतो आणि मला मात्र गुलाब हरवलेला टोकदार काट्याचा देठच हाती यावा..’ हि सल सतत बोचत राहिली…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – ८. – राहतो त्या परिसराची निंदा करू नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – ९. राहतो त्या परिसराची निंदा करू नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

काही व्यक्ती अशा दिसतात की, आपण राहतो ते घर व सोसायटी, परिसर याची निंदा करताना दिसतात. पण ज्या परिसराने आपल्याला समाज,शेजार दिला त्या जीवनाधार असलेल्या परिसराची व घराची कधीही निंदा करू नये.

आपली नोकरी,व्यवसाय जिथे असेल त्या ठिकाणी आपल्याला रहावेच लागते. त्या स्थाना बद्दल मनात नेहेमी कृतज्ञता असावी. त्याला नावे ठेवू नयेत. आपण कितीही संकटात असलो तरी आपल्या घरा जवळच्या परिसरात आपल्याला सुरक्षित वाटते. मानसिक आधार मिळतो. बऱ्याच जणांचे बालपण त्या परिसरात गेलेले असते. त्या वेळी याच ठिकाणी आपण किती आनंदी होतो, किती काळ येथे व्यतीत केला आहे अशा चांगल्या आठवणी आठवाव्यात.

जरी काही गोष्टींची कमतरता असेल तरीही त्या दूर करण्याचा प्रयत्न करावा. गैरसोयी कायम स्वरुपी नसतात. जेथे राहतो त्या परिसरा विषयी आनंदी असावे. परिपूर्ण तर कोणीच नसते. आपल्यातही दोष असतातच. त्या परिसरात काय आहे या कडे लक्ष द्यावे. सदैव दोष, न्यूनत्व बघू नये. हे चराचर जग हे ब्रह्म आहे. त्या विषयी ममत्व,आपुलकी बाळगावी. म्हणजे दोष दिसत नाहीत आणि परकेपणा वाटत नाही.

प्रत्येकाने स्वतःशी विचार करून बघावा मी परिसराला नावे तर ठेवत नाही? आणि याचे उत्तर हो आले तर स्वतःची मनस्थिती बदलावी.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक, संगितोपचारक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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