हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #159 – मन दर्पण में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “मन दर्पण में…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #159 ☆

☆ मन दर्पण में…

फूल, शूल, तरु-लता, पर्ण

इस मन के उपवन में

प्रिय-अप्रिय पल पाल रखे

कितने अंतर्मन में।

 

बन्द करी आँखें तो,

रंगबिरंगे स्वप्न दिखे

तब अन्तस्‌ अवचेतन ने

कुछ मधुरिम छंद लिखे,

उलझे रहे स्वकल्पित

गन्धों के अपनेपन में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

हुआ उजाला दिन भर

हम सूरज के साथ चले

किया हिसाब सांझ को

तो, घाटे में हाथ मले,

देख चांदनी बहके फिर

बिलमाये नर्तन में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

कभी विषैली हवा हमें

कुंठित कर जाती है

कभी जिंदगी सुरभित

फूलों सी मुस्काती है,

पल-पल बदले चित्र-विचित्र

दिखे मन दर्पण में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

वही वही, फिर-फिर

जीवन भर करना पड़ता है

वह मेरा अबूझ जो है,

सब कैसे सहता है, 

आतुर भी आनंदित भी

अभिनव परिवर्तन में।

प्रिय अप्रिय पल पाल रखे

कितने अंतर्मन में।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 49 ☆ बुन्देली गीत – नाचो मोर… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बुन्देली गीत “नाचो मोर…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 49 ✒️

? बुन्देली गीत – नाचो मोर…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

अंधियारौ छाओ चहुँओर ।

बन में खुस हो नाचो मोर॥॥

 

रंग-बिरंगे, पंखा जिनमें,

टकीं तरैयाँ भीतर उनमें,

‘लरकन बच्चन को चितचोर।

बन में………… ॥

 

करिया-करिया बदरा आये,

मोरन नें पंखा फैलाये,

मींऊँ-मींऊँ कौ हो रऔ सोर।

बन में………… ॥

 

मोर-मोरनी बन में नाचत,

जबईं ढोल बदरा के बाजत,

हौन लगी सतरंगी भोर।

बन में………… ॥

 

मुकुट-कान्ह के पंख विराजै,

भौत हमाये मन कौं साजै,

कलगी माथे धरी सिरमोर।

बन में………… ॥

 

साँची-साँची आज तैं बोल,

का लै है पंखन कौ मोल,

जंगल बनौ कय “सलमा” ठौर।

बन में………… ॥

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लम्बी कहानी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – लम्बी कहानी ??

यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.’ जानकारी दी जा रही थी।

उसके मन में विचार उठा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।…फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “अदरक के पंजे”)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

सड़क के किनारे बनी उस छोटी -सी गन्ने के रस की दुकान पर मैं प्रायः चला जाता हूँ। परिचित दुकानदार होने के नाते कुछ देर रुकता हूँ। ग्राहकों की ओर देखता हूँ। ग्राहक रस पीने की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरते हैं। रसवाला जब ताजा गन्ना मशीन में डालता है तो ग्राहक का ध्यान मशीन के पास लगा होता है। पहली बार में मशीन से रस का एक फव्वारा -सा फूटता है। ( कुदरत ने कहाँ-कहाँ मीठे झरने छुपा रखे हैं। ) ढेर सारा गाढ़ा रस जब मशीन से बर्तन में गिरता है तो बिना पीए ही एक मिठास -सी महसूस होती है। पर यह मिठास गन्ने को दुबारा मशीन में डालने तक ही रहती है। जब गन्ने को तिबारा मशीन में डाला जाता है, तो मशीन से निकलने वाले रस में हल्की -सी कड़वाहट लगती है। रस पीने का मूड कुछ कम हो जाता है। और जब उसी गन्ने को चौथी बार मरोड़ते हुए मशीन से निकाला जाता है, तो ग्राहक हल्का -सा अपमानित-सा महसूस करता है। जैसे बड़े बाबू को किसी ने चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी समझकर सलाम कर दिया हो। कुछ लोग तो चौथी बार देखने के बजाय इधर-उधर मुंँह फेर लेते हैं। गन्ने में अब क्या रस निकलेगा! हाँ, छिलके का रस जरुर निकलता है। पीने का रस विरस होने लगता है।

एक बार मैंने रसवाले को सारी प्रक्रिया बताते हुए कहा -”  चौथी बार गन्ने को मशीन से मत निकाला करो। ग्राहक का ध्यान मशीन पर होता है, वह अपमानित -सा महसूस करता है। इससे उसे पुनः रस पीने की इच्छा नहीं होती। “

रसवाले ने कहा -” तुम ठीक कहते हो, पर चौथी बार से ही तो हमारा पेट भरता है। ”  उसने समझाते हुए बताया -” पहली बार में तो गन्ने की लागत निकलती है, दूसरे में दुकान का मेण्टेनस, तीसरे में पावर, बर्फ, पुलिस, कमेटीवाले निपटते हैं। हमें जो कुछ बचता है, वह चौथी बार में ही बचता है।”

” मगर इससे ग्राहक संतुष्ट नहीं होता। ”  मेरे इस कथन पर उसने मुझसे कहा -‘ शुरू में नहीं होता मगर बाद में होता है। तुमने चौथी प्रक्रिया ध्यान से नहीं देखी,  चौथी बार गन्ने को मरोड़कर जब हम मशीन में से निकालते  हैं, तब हम गन्ने के साथ एक अदरक का टुकड़ा भी डालते हैं। इससे ग्राहक के ईगो को एक संतुष्टि मिलती है। अदरक अपने चरपरे स्वाद से छिलके के रस को गन्ने के रस में इस तरह मिलाती है कि छिलके का रस गन्ने का रस बन जाता है और गन्ने का रस और जायकेदार बन जाता है। गन्ने का रस तो आप लोग पी लेते हो, हमें तो छिलकों पर ही गुजारा करना होता है। ”  एक पल रुककर वह कुछ उदास स्वर में फिर बोला –

” आजकल धन्धे में काम्पिटेशन बहुत हो गई है। जिसे काम नहीं मिलता, वह रसवंती की दुकान खोल लेता है। सीजन में तो इतनी दुकानें लगती है कि देश में जितने गन्ने नहीं होते उससे ज्यादा दुकानें गन्ने के रस की होती है। ऐसे में इस भीड़ में, छिलकों के सहारे ही टिके होते हैं। हमें इसी अदरक का सहारा होता है। गमों को जिस प्रकार हलके-फुलके चरपरे लमहें कम कर देते हैं,  ये चरपरी अदरक ,  जीने की हिम्मत देती है। हमारे लिए यही लक्ष्मी है, देवता है, जो इस बेकारी और महँगाई में भी पूरे परिवार को थामती है, सँभाले रखती है। “

” शायद इसीलिए कुदरत ने अदरक को पंजे दिए हैं……। “

और उसकी आँखों से खारा-सा, चरपरा-सा दो बूंद रस टपक पड़ा।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ।)   

☆ आलेख  # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.

Creativity is important rather than copy and paste.

शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.

पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस  वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.

सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे.  कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है,  स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.

सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ राधा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ राधा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

एकटी तुझ्याविण, राहू कृष्णा, कशी मी वृंदावनी !

राधा करिते, मनी खंत ती, विरहाच्या त्या क्षणी!

 

गोकुळ सोडून, कान्हा जाई ,

दूर राहिली राधा!

जाळीत राही, राधेला त्या,

कृष्ण विरहाची बाधा !

 

कृष्ण बासरी, ऐकू येई

राधेला अंतरी !

बासरीत त्या, सूक्ष्म होऊनी,

राधा गाई उरी !

 

मोरपीस राधेने दिधले,

 कृष्ण वागवे शिरी !

तुझीच साथ, सोबत कायम, ठेवील हो श्रीहरी!

 

अखंड दिसतो, कृष्ण तिला,

मन वृंदावन होते !

राधाकृष्ण एकरूप होता

मन तृप्त तिचे होते !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 159 ☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 159 ?

☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

“अकारणच जवळीक दाखवली!”

असे वाटून जाते,

आजकाल!

 

निष्कारणच Attitude दाखवत,

निघून गेलेली ती…..

रिक्षात बसल्यावर ,

कसा करेल इतक्या प्रेमाने आपल्याला हात??

हे लक्षात यायला हवं होतं !

पण प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा….

उंचावला जातो हात…

पण तिचं पुढचं वाक्य ऐकून जाणवतं,

अरे, ती इतर कुणाशी बोलतेय,

 आपल्या पाठीमागे असलेल्या !

 

किती फसवी असतात ना,

ही नाती??

काल परवाच सांगितले,

गूज मनीचे,

पाश असतात कुठले, कुठले !

शेअर केल्या काही गोष्टी,

की , शांत होते मन!

आणि गळामिठी घातलीच जाते,

त्या “हमराज” मैत्रीणीला !

 

 पण नाती रहात नाहीत

आता इतकी निखळ,

पूर्वीही व्हायच्याच कुरबुरी…भांडणं

रूसवेफुगवे!

…..पण आजकाल दर्प येतात,

अहंकाराचे!

याच प्रांगणात खेळ सुरू झाले होते…

पण “जो जिता वही सिकंदर”

म्हणत पहात रहायची लढाई,

बेगुमान!

या युद्धात सहभागी व्हायचेच

नसतेच खरेतर!

पण युद्ध अटळ मैत्रीतही !

जो तो समजत असतो,

 स्वतःला रथी महारथी ! ….नसतानाही !

आपण सांगून टाकतो

आपले अर्धवट ज्ञान…

म्हणूनच आपला होतोच,

अभिमन्यू!

मैत्रीच्या नात्यातही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संस्कारात् द्विज उच्यते… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ संस्कारात् द्विज उच्यते… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

सर्वसाधारणपणे मानवेतर प्राणी नैसर्गिक प्रेरणेनुसारच प्रत्येक कृती करीत असतात. मानवाला बुद्धीची देणगी असल्याने त्याने मात्र बुद्धीचा योग्य उपयोग करून कोणतीही कृती करणे अपेक्षित असते. त्याची प्रत्येक कृती सर्वांगीण विचार करुन,तिची योग्यायोग्यता विचारात घेऊन कशी आणि कां करायची याचे महत्त्व संस्कारच नकळत मनात रुजवत असतात. ही रुजवण संस्कारक्षम वयातच खोलवर होऊ शकते.म्हणूनच लहानपणापासूनच कौटुंबिक पातळीवर पालकांनी आणि शालेयस्तरावर शिक्षकांनी मुलांच्या मनोभूमीवर संस्कार बीजांची पेरणी करणं आवश्यक ठरतं. या संस्कारांची गुणात्मकता संस्कारांइतकीच ते कसे केले जातात यावरही अवलंबून असते. लहान वयात मुलांनी एखाद्या  गोष्टीचा हट्ट केला तर त्याला पटकन् होकार किंवा नकार न देणे ही संस्कारांच्या रुजवणीतील पहिली पायरी.कारण या दोन्हीही गोष्टींचा दीर्घकाळ टिकणारा नकारात्मक परिणाम हानिकारक ठरणारा असतो. त्याच्या मागणीप्रमाणे एखादी वस्तू देताना ती कशी वापरायची, कशी सांभाळायची, तिची कशी काळजी घ्यायची हे समजावून सांगणं जसं महत्त्वाचं तसंच ती वस्तू देणं त्याच्या हिताचं नसेल तर ते कां हे त्याला समजेल अशा पध्दतीने त्याला सांगणंही!तसेच ती वस्तू आवश्यक असूनही देता येणे शक्य नसेल तर त्याला त्याची कारणे त्याच्या कलाने समजावून सांगणेही अगत्याचेच.

मुलांना चांगल्या गोष्टींची सवय लावण्यासाठी त्यांना सतत उपदेशाचे डोस पाजत राहिलं तर ते त्याना कडवट औषधासारखेच वाटणार. ‘हे कर’, ‘ते करू नको’ याचा त्यांना आधी नावड मग कंटाळा या क्रमाने अखेर तिरस्कारच वाटू लागेल. ‘हे करायलाच हवं’ असं अट्टाहासाने सांगत राहिल्यास ते तोंडदेखलं तेवढ्यापुरतं करून एरवी ते करणं सातत्याने टाळण्याकडेच बालसुलभ कल रहाणं अपरिहार्यच असतं. म्हणूनच जे मुलांनी करावं अशी आपली अपेक्षा असते ते आपल्या कृतीने त्याला जाणवेल असे सहजपणे आपणही करीत रहाणे महत्त्वाचे ठरते. त्यांना गोडीगुलाबीने एकदा समजून सांगितले तरी आपल्या अनुकरणानेच तसे वागण्यास मुलेही आपसूकच उद्युक्त होतात. म्हणूनच मुलांना खरं बोलावं असं सांगतानाच मोठ्या माणसांनीही खोटं न बोलण्याचं पथ्य आवर्जून पाळायला हवं. लवकर उठणे, दोन्ही जेवणानंतर दात घासणे, जेवताना आनंदी वातावरण ठेवणे, झोपून न वाचणे, मोबाईल व टीव्हीचा अतिरेकी वापर न करणे,पाण्याचा अपव्यय टाळणे, कोणाचाही वावर नसणाऱ्या खोल्यातील लाईटस् वेळोवेळी बंद करणे यासारख्या गोष्टी उपदेशाने नव्हे तर मोठ्या माणसांनी स्वतःच अंगिकारलेल्या पाहूनच मुले सहज सुलभपणे त्या अंगी बाणवण्यास नकळत प्रवृत्त होतात.

संस्कार हे अट्टाहासाने करायचे नसतातच.ते सहजपणेच व्हायला हवेत. एखाद्या चांगल्या गोष्टीचे महत्त्व ती एकदा अंगवळणी पडली की समजतेच. नैसर्गिक उपलब्धीचा काटकसरीने वापर करण्याची सवय,कष्टाने पैसे मिळवता येईपर्यंत ते वाचवण्याची सवय, या गोष्टी स्वतः पैसे मिळवू लागल्यानंतरही बचतीला पूरकच ठरतात. नम्रतेने वागायची सवय कितीही राग आला तरी कुणापुढेही आवाजावर नियंत्रण ठेवण्यास सक्षम बनवते, माणुसकीचा संस्कार ‘नाही रे’ वर्गातल्या गरीब मित्राबद्दल तिरस्कार किंवा घृणा निर्माण न करता त्याच्याशी आपुलकीने वागण्यास प्रवृत्त करते.. हे असे संस्कार म्हणजेच कालातीत अशा मूल्यांचे रोपणच.हे मूल्यसंस्कारच घरातील वातावरण निकोप, निरोगी,मनमोकळं ठेवतील.अशा वातावरणातले संस्कार मुलांवर लादले जाणार नाहीत तर ते त्यांच्या मनात आपसूक  झिरपत जातील.आणि तेच मुलांच्या शारीरिक आणि मानसिक सक्षमतेला पूरकही ठरतील. परस्परांमधील संवादातून, सहवासातून, स्वानुभवातून योग्य विचार करायला ती मुले स्वतःच प्रवृत्त होतील.

स्वतः खाताना दुसऱ्याला न देता खाणे ही प्रकृती, दुसऱ्याचे हिसकावून घेऊन खाणे ही विकृती, आणि आपल्या घासातला घास काढून तो दुसऱ्याला देणे ही संस्कृती. मुलांवर संस्कारक्षम वयात केलेले संस्कार त्याना विकृतीपासून दूर ठेवत सुसंस्कृत बनवतील ते या अर्थाने!

माणूस जन्मतः द्विपाद प्राणी म्हणूनच जन्माला येतो आणि उचित संस्कारातूनच त्याचा  दुसरा जन्म होतो तो ‘सांस्कृतिक जन्म’ या अर्थाने! द्विज म्हणजे ब्राम्हणच नव्हे तर असा दोनदा जन्म घेऊन सुसंस्कारित झालेला कुणीही. प्रत्येक धर्माचेच असे विविध संस्कार असतातच. ते महत्त्वाचे मानले तरीही त्यांना जेव्हा अवास्तव महत्त्व दिले जाते तेव्हा माणूस संस्कारीत न होता संस्कारबध्द होतो आणि त्यामुळे त्याच्या व्यक्तिमत्त्वाचा संकोचच होतो.

‘जन्मना जायते शूद्र:

संस्कारात् द्विज उच्यतेl’

या श्लोकाचा व्यापक अर्थ घेतला तर  संस्कारांचे नेमके महत्त्व त्यातच लपलेले आहे हे लक्षात येईल. सखोल ज्ञान प्राप्त करणारा माणूस ज्ञानी,विद्वान म्हणता येईलही पण तो सुसंस्कारित नसेल तर मात्र फक्त शिक्षितच राहील. खऱ्या अर्थाने सुसंस्कारित असणारा माणूस मात्र ज्ञानी, विद्वान माणसाइतका शिक्षित नसला तरीही सत्प्रवृत्त आणि

सूज्ञ असेल आणि म्हणून तोच खऱ्या अर्थाने दोनदा जन्म घेणारा म्हणून ‘द्विज’ बनून संस्कारात् द्विज उच्यते’  या श्लोकाचा अर्थही पूर्णतः सार्थ करेल!!

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नशिबाने थट्टा मांडली…भाग – 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ नशिबाने थट्टा मांडली…भाग – 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

(पूर्वार्ध : मागील भागात आपण पाहिले –  दलालाने म्हटल्याप्रमाणे पहिलवानाच्या पुतळ्याचे भरघोस पैसे मिळाले. आता इथून पुढे )

झाले एवढे खून बस्स झाले….  खून? हो. खूनच नाहीतर काय? तर एवढे पैसे भरपूर झाले. हे घेऊन इथून निघायचं. दलालाच्या नकळत. दलाल सोन्याचं अंडं देणारी कोंबडी हातची जाऊ देणार नाही. आपल्या गावी परतायचं. पैसेवाला म्हटल्यावर काय? काहीच कमी नाही पडायचं. मोठं घर बांधायचं. एखादी विधवा बघून लग्न करायचं. तिला आधीच थोडीफार कल्पना द्यायची. शारीरिक सुख सोडलं, तर घर,पैसे, प्रतिष्ठा ,सुरक्षितता …तक्रार करायची गरजच पडणार नाही तिला. पण तिला तसं वाटेल का? की ती दुस-या कोणाशी संबंध….

तरीही गावी परतायचंच,हे त्याने नक्की केलं आणि दलाल एका बाईला घेऊन आला. बाई कसली, तरुणीच होती ती.

दलाल गेल्यावर तो म्हणाला,”अंगावर एकही कपडा नको.”

“काsय?”

“घाबरू नका. मी कलावंत आहे. माझ्यासाठी तुम्ही निव्वळ एक नमुनाकृती आहात. एक पुरुष म्हणून माझ्यापासून तुम्हाला कोणताही धोका होणार नाही, याचं मी आश्वासन देतो.” 

तिने कपडे उतरवले. 

” तुम्हाला नृत्यमुद्रेत निश्चल उभं राहावं लागेल. पाय मुरली वाजवणा-या कृष्णासारखे. एक पाय सरळ. दुसरा त्याच्यावर वळवून त्याची फक्त बोटं जमिनीला टेकलेली. वरचं शरीर नृत्यमुद्रेत . मान उजवीकडे वळलेली.”

मग ती त्या मुद्रेत उभी राहिली. खूप आकर्षक मुद्रा होती ती.

“ठीक आहे. याच स्थितीत तुम्हाला रोज आठ-दहा तास उभं राहावं लागेल. अजिबात हलता येणार नाही.”

“बाप रे! आठ-दहा तास?”

“कठीण आहे. मला माहीत आहे, खूप कठीण आहे ते. पण ते सोयीचं व्हावं, म्हणून मी एक द्रव तयार केला आहे. तो अंगावर शिंपडला, की त्या अवस्थेत राहणं ,फारसं अवघड जात नाही.”

  त्याने तिच्या पायावर अरिष्ट शिंपडायला सुरुवात केली.

  “काय आहे यात? वनस्पतींपासून सिद्ध केलंय, असं वाटतं.”

  “मी सांगू शकत नाही. गुरूंची अनुमती नाही,”त्याने उगीचच सांगितलं.

  “हेच. माझे वडील वनौषधितज्ज्ञ होते. वेगवेगळ्या वनस्पतींपासून वेगवेगळी रसायनं, लेप, काढे, आसवं, अरिष्टं बनवायचे आणि लोकांना खडखडीत बरं करायचे. पण त्या औषधी कशा सिद्ध करायच्या, ते कोणाला  सांगणं तर सोडाच, त्याची कुठे नोंदही केली नाही त्यांनी. कारण हेच. गुरूंची अनुमती नाही. शेवटी रानात वनस्पती गोळा करायला गेले असताना त्यांना विषारी नाग चावला. त्यांनी स्वतः कितीतरी लोकांचं विष उतरवलं होतं. पण नक्की काय करायचं, ते दुस-या कोणालाच माहीत नव्हतं. ते स्वतः बोलूही शकत नव्हते. त्यातच ते गेले.”

  “अरेरे!” तिच्या पोटावर अरिष्ट शिंपडत असताना तो क्षणभर थांबला आणि पुन्हा त्याने आपलं काम सुरू केलं.

  “मी त्यांना मदत करायला तेव्हा नुकतीच सुरुवात केली होती. शिष्या म्हणून मला…” थोडं थांबून तिने घाबरत घाबरत विचारलं,” तुमची हरकत नसेल तर एक विचारू?”

  तो काहीच बोलला नाही. फक्त अरिष्ट शिंपडत राहिला.

मग तिनेच धीर करून विचारलं,” तुमच्यात काही कमी आहे का?”

निर्विकारपणे तिच्या छातीवर अरिष्ट शिंपडता शिंपडता तो थांबला. क्षणभरासाठी त्याने रोखून तिच्याकडे पाहिले, पण बोलला काहीच नाही. त्याने पुन्हा अरिष्ट शिंपडायला सुरुवात केली.

“मी वडिलांबरोबर जायचे ना, त्यामुळे काही वनस्पतींची नीट माहिती झाली. काही औषधे कशी सिद्ध करायची, तेही शिकले. त्या औषधांच्या मात्रा वगैरे सगळं माहीत झालं. नपुंसक पुरुषाचं  पुरुषत्व कसं जागृत करायचं, ते कळलं. तेवढ्या एकाच व्याधीवर उपचार करू शकते मी. वडील गेल्यानंतर मी दोघांना पुरुषत्व मिळवून दिलं. दोघेही सुखाने संसार करताहेत. एकाची बायको गरोदर आहे.  वडिलांनी केलेली चूक मी करणार नाही. मी सगळं तपशीलवार लिहून ठेवणार आहे.”

तो काहीही न बोलता अरिष्ट शिंपडत होता.

“मघाशी मी विव…. म्हणजे कपडे नसतानाही तुम्ही ज्या निर्विकारपणे माझ्याकडे बघत होता, त्यावरून मला वाटलं. हे ..जर.. खरं.. असेल.. तर ..मी .. ब..रं.. क..री..न….तु….म्हा…….” बोलताबोलता मूर्च्छा आल्यासारखी ती निःशब्द झाली. म्हणजे डोळे उघडे होते; पण तिचा पुतळा झाला होता.

नियती आपल्याशी भयंकर खेळ खेळलीय, हे मेंदूपर्यंत पोचल्यावर तो सुन्न झाला. कितीतरी वेळ तो तसाच बसून होता.

अचानक साक्षात्कार झाल्यासारखा तो उठला. कदाचित संशोधकाने त्या अरिष्टाचा प्रभाव उतरवणारा उतारा शोधूनही काढला असेल.

मनात धुगधुगती आशा घेऊन तो संशोधकाकडे निघाला. कितीतरी काळ गेला होता, त्याला संशोधकाला भेटून. तो जंगलात राहत असेल अजून, की पूर्वायुष्यात परतला असेल?

संशोधक त्याच्या पूर्वीच्या जगात सुखी होईल कदाचित. पण आपलं काय?

आपण पूर्वायुष्यात परतायचं म्हणतोय, पण दलाल आपल्याला सोडेल काय? त्याचे हात लांबवर पोचले आहेत. त्याची हाव आपल्याला शोधून काढल्याशिवाय राहणार नाही.

झोपडी तशीच होती. बाहेरचा कुत्राही तसाच होता. पण अंगणात पालापाचोळा पसरला होता. वातावरणात दुर्गंध भरून राहिला होता. संशोधक सगळं स्वच्छ ठेवायचा. कदाचित निघून गेला असेल तो.

तो झोपडीत शिरला. आतलं भयंकर दृश्य बघून त्याच्या अंगावर काटा आला. संशोधकाच्या  पोटापासून खालचा भाग आणि मनगटापासूनचे हात निश्चल झाले होते. बहुधा अपघाताने त्यावर अरिष्ट सांडलं असावं. पंचा चिंब भिजल्यामुळे ते आतपर्यंत पोचलं असावं. बरेच दिवस झाले असावेत या घटनेला. कारण संशोधकाचा वरचा भाग कुजून गेला होता. झोपडी त्याच दर्पाने भरून गेली होती.

त्याचं डोकं गरगरू लागलं. संशोधक, लोभी दलाल, त्याने पुतळे करून मारून टाकलेली सगळी माणसं, विशेषतः ती परोपकारी, निरागस तरुणी….. सगळे आपल्याभोवती गरगर फिरताहेत, असं त्याला वाटू लागलं. एकंदर प्रकाराने तो एवढा खचून गेला की……

त्याने स्वतःचे कपडे काढून टाकले. अरिष्टाचा रांजण भरलेला होता. ओट्यावर एक भांडं होतं. ते रांजणात बुडवून आतलं अरिष्ट तो स्वतःच्या अंगावर ओतत राहिला. आयुष्यात स्वकर्तृत्वावर उभं राहण्यासाठी त्याला ठाम टेकू दिल्याचा आभास निर्माण करणा-या पायांवर, मग त्या नाकर्त्या अवयवावर, दाही दिशा फिरायला लावणा-या पोटावर, निधडी-भरदार या सर्व विशेषणांच्या विरुद्ध असलेल्या छातीवर, मध्यंतरीच्या काळात ताठ होऊ पाहणा-या मानेवर, जगापासून लपवाव्याशा वाटणा-या चेह-यावर आणि शेवटी निरपराध माणसांच्या आयुष्याशी खेळ करण्याचं दुष्कृत्य करणा-या त्या हातांवर.

– संपूर्ण –

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ टिकलीच्या_निमित्ताने…लेखिका : डॉ शरयू देशपांडे ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता पंडित ☆

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☆ टिकलीच्या_निमित्ताने…लेखिका : डॉ शरयू देशपांडे ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता पंडित ☆

तशी ती मी माझ्या मर्जीनेच लावते किंवा लावत नाही. पण मनात कैक वर्षं तिचं असणं /नसणं घोंगावत होतं.. सध्याच्या चर्चेत त्यालाच  वाट करून देण्याचा हा प्रयत्न ….

आई जुन्या मताची. त्यामुळे ‘टिकली न लावणं’ ही पद्धत तिच्या गावीही नव्हती. कुंकू /गंध/ टिकली न लावणं म्हणजे ‘आपल्या संस्कृतीला नाकारणं  आणि अमुक एका संस्कृतीला मूक पाठींबा दर्शविणं ‘ असं तिचं साधं सरळ गणित होतं. अर्थात मी लहानपणापासून बंडखोर, त्यामुळे इतर पुढारलेल्या विचारांच्या कुटुंबातील मुलींचं पाहून मीही गंध/ टिकली याला विरोध केला. आई म्हणायची, ” निदान बाहेर जाताना तरी लाव “.. ते थोडंसं पाळलं.

शाळेतल्या शारीरिक शिक्षण विषयाच्या शिक्षिका, मुलींना ज्युदो कराटे शिकवण्यासाठी प्रोत्साहन देत आणि  शाळा भरताना कपाळावर गंध /टिकली नसेल तर २५ उठाबशा काढायला लावत. या परस्परविरोधी क्रियांमागची कारणमीमांसा समजून घेण्याची  मानसिक कुवत तेव्हा नव्हती. पण टिकलीविषयीचं गूढ निर्माण झालं ते तेव्हापासून. 

कॉलेजमधे आल्यावर वयानुसार येणारी परिपक्वता म्हणा किंवा आजूबाजूच्या विश्वाची थोडी अधिक जाण म्हणा, आईची बाजू थोडीथोडी पटायला लागली होती किंवा मुद्दाम विरोध करून तिला दुखवावंसं वाटेना. त्यामुळे जिन्स /western outfits घातले की टिकली नाही,आणि पंजाबी ड्रेसवर मॅचिंग टिकली असा आपला मधला मार्ग निवडला. तरीही टिकली /गंध याभोवतीचं गूढ आकर्षितच करत राहिलं…… ‘ लाव ‘ कुणी म्हंटलं की राग यायचा, पण ती लावल्यावर चेहरा जरा उठावदार, फ्रेश दिसतो  हे उघड उघड मान्य करायलाही कठीण जात असे.

सुट्ट्यांमध्ये गावी जात असू. तिथेही घरात आम्हाला मुली म्हणून कुठलीही बंधनं नव्हती. खानपान पेहराव याबाबत बऱ्यापैकी मोकळीक होती. आम्हीदेखील मुद्दाम जेष्ठांच्या समोर त्यांना आवडणार नाही असं काही करत नसू. गावात, इतरत्र बाहेर जाताना मात्र स्लिव्हलेस, बॉयकट असणं आणि टिकली नसणं हा चर्चेचा विषय ठरत असे. Obligatory झाल्या गोष्टी की मग उगाचच त्याविषयी तिटकारा निर्माण होतो. पण वय वाढत गेलं तसतसं मात्र ही जाणीव बोथट होत गेली. गावी गेल्यावर थोड्याशा मर्यादा पाळल्या की बाकी चैन असते हे लक्षात येत गेलं आणि बंडखोरी कमी होत गेली.

कॉलेजला असताना एक मुस्लिम मैत्रीण आमच्या पर्समधल्या टिकल्यांची पाकीटं घेऊन लेडीज रूममध्ये लावून आरशात बघत असे. कदाचित पहाण्याची सवय नसल्यामुळे असेल, पण तरीही साधारणच दिसणारी ती, टिकलीमुळे विशेष दिसत असे. पाच दहा मिनिटं ठेवत असे. त्या ५-१० मिनिटांत इवलीशी टिकली तिचा चेहेराच नव्हे तर मनही उजळून टाकत असे. साधं नेहमीचं टिकलीचं पाकीट कुणासाठी आनंदाचा स्त्रोत असू शकतो हे प्रथमच जाणवलं..

 Western Wardrobe असेल तर टिकली नाही लावायची हा पायंडा कायम ठेवला. भारतीय पोषाख परिधान केला की छोटीशी का होईना, पण  टिकली आपोआपच लावली जायची…  

पुढे पेशा निवडला तोही टिकलीचं महत्त्व वेगळ्या पद्धतीने दाखवून गेला. MA झाल्यावर लगेच हंगामी प्राध्यापिका म्हणून एका कॉलेजमधे जॉब मिळाला. माझे विद्यार्थी माझ्यापेक्षा मोठे दिसत. पंजाबी ड्रेसमधल्या, बारीक टिकलीच्या, लहानखुरी असलेल्या मला कुणी प्राध्यापिका समजेना. विशेषतः वर्गातील मागच्या बेंचवरची मुलं टिंगल टवाळी करतायत असं जाणवलं. या व्यवसायात थोडा पोक्तपणा दिसण्यातही हवा हे लक्षात आलं. मग साडी नेसून आणि ठळकपणे दिसून येणारी टिकली लावायला सुरुवात केली तशी आपसूकच विद्यार्थी आदरानं, अदबीनं बोलायला लागले. टवाळखोर पोरांपासून दूर ठेवायला टिकली अशी धावून आली. प्राध्यापक, निवेदिका या सगळ्याच भूमिकांमध्ये टिकलीचं असणं मान देत गेलं. किंबहुना ती लावली नाही तर विनाकारण गैरसमज आणि चर्चा होत रहातील या विचाराने  ती लावण्याचीच सवय लागली. संस्कृतीचा संदर्भ बाजूला ठेवला तरी ही टिकली कुठेतरी अनेक विचित्र नजरांपासून वाचवणारी ‘सहेली’ बनत गेली. …

लग्न झाल्यावर अमेरिकेत गेल्यावर, एरवी नाही तरी, महाराष्ट्र मंडळात जाताना आवर्जून टिकली लावून जाणं असे…परदेशात भारतीय संस्कृतीशी जवळीक साधण्याचा प्रयत्न असा छोट्या टिकलीतूनही केला जाई.. 

सासुबाई सुरूवातीला एक दोन वेळा टिकलीची आठवण करून देत. पण कदाचित सवयीने त्याही काही बोलेनाशा झाल्या. आजेसासुबाई मात्र एकदा स्पष्ट म्हणाल्या, ” तुला एरवी काय करायचं ते कर हो.. पण माझ्यासमोर अशी बिना कुंकू गंधाची येत जाऊ नकोस ..” हे ऐकताना किंचित राग येतोय की काय असं होतानाच त्या म्हणाल्या, “आमच्या कपाळावर आहे टिकली, पण खरं अर्थ आहे का त्याला?!” ह्या प्रश्नानं मात्र गलबलून आलं. पुन्हा कधीही त्यांच्यासमोर बिना टिकलीची गेले नाही. इतकुशा गोल तुकड्यानं आज्जेसासुबाईंचं मन जिंकलं तेव्हा मात्र अट्टाहास बाजूला सारला.. 

एरवी सगळे लाड पुरवणारा, सगळ्या बाबतीत मुभा देणारा मोठा भाऊ, आजही, अजूनही, माहेरी गेल्यावर, बाहेर जाताना  कपाळावर टिकली नाही अशी आठवण करून देतो, तेव्हा याचा संबंध स्त्रीमुक्तीशी न जोडण्याइतकी परिपक्वता आता आलीये. यात मला फक्त जाणवते ती त्याची धाकटी बहीण म्हणून काळजी आणि चुकूनही आपल्या संस्कृतीशी फारकत न होण्यासाठीची तळमळ. 

सासुबाईंनी मला टिकली लावण्याची सक्ती करू नये असं मी त्यांना आडून सुचवत असे. पण सासरे गेल्यावर जेव्हा थोडा वेळ रिकाम्या कपाळाच्या सासुबाई पाहिल्या तेव्हा मात्र धस्स झालं . माझ्या टिकलीमागची त्यांची भूमिका वेगळ्या पद्धतीने समोर आली आणि आता टिकली लावण्याची सक्ती मीच त्यांना करत असते . 

टिकली, मंगळसूत्र,  साड्या यांना कडाडून विरोध करणारी एक जेष्ठ मैत्रिण, नवऱ्याच्या अकाली निधनानंतर मात्र टिकली लावायला लागली. मध्यंतरी भेटली, ” हल्ली  साड्या नेसाव्या वाटतात गं खूप .. किती भारी भारी साड्या आणायचा ‘तो’.. मी मात्र त्याला ‘टिपिकल नवरा’ म्हणून चिडवत होते.. आता त्याची आठवण झाली की नेसते साडी आणि वर मॅचिंग टिकली सुद्धा …तिथून सुद्धा मला डोळा मारत असेल बघ “.. मनात आलं, हिची टिकली अजून वेगळी..

हौसेनं वेगवेगळ्या प्रकारच्या  टिकल्या लावणारी एक मैत्रीण, वेगळ्या समाजात हट्टानं प्रेमविवाह करून गेली तेव्हा टिकली नसलेलं तिचं भकास कपाळ पाहून हळहळ वाटली .” आता या कपाळावर कधीही टिकली येणार नाही ” हे तिचं वाक्यं  का कोण जाणे खूप खोलवर रूतलं. साधी टिकलीच ती, पण तिच्या नसण्यानं मैत्रिणीचं आयुष्य मात्र पूर्णपणे बदललं. 

हैदराबादमध्ये आल्यावर, जॉब करताना जाणवलं की टिकलीचा आणि मॉडर्न असण्याचा काही संबंध नाही. Kafka, Derrida अशा विचारवंतांच्या क्लिष्ट संकल्पना सहज उलगडून दाखवणाऱ्या प्राध्यापिका भलं मोठं कुंकू लावून येत असत. आपण एका विशिष्ट धर्माचे आहोत (किंवा नाही आहोत) हे ठळकपणे दर्शविणं हैदराबादसारख्या ठिकाणी आवश्यक वाटत असावं आणि कदाचित त्याच जाणिवेतून इथल्या लहानथोर सर्व महिला टिकली आवर्जून लावताना दिसतात.

सुषमा स्वराज, स्मृती इराणी, निर्मला सिताराम, सुधा मुर्ती … यांच्या टिकल्या मला तळपत्या तलवारींसारख्या भासतात. बुद्धिमत्ता आणि सौंदर्य यांचा अनवट संगम त्यांच्या कपाळावरच्या टिकलीने अधोरेखित होतो. त्यांचं कर्तृत्वच असं आहे की त्यांच्या कपाळावर धारण होऊन टिकलीचाच मान वाढलाय असं वाटत रहातं… 

टिकली अशी वेगवेगळी रूपं, अनेकविध संदर्भ घेऊन समोर येत राहिली. ती माझ्यातली बंडखोरी कमी करत गेली. अर्थात ती लावणं, न लावणं हा सर्वस्वी माझाच निर्णय. आधीही होता, आजही आहे आणि पुढेही राहील. पण आता प्रत्येक वेळी तिच्याभोवती स्त्रीमुक्तीचं वारूळ चढवायला नको वाटतं . घरात  ‘टिकली सुद्धा न लावणारी लंकेची पार्वती’ असा अवतार आजही कायम असतो. .सक्ती केली जात असेल तर आवडत्या गोष्टी देखील नावडत्या होतात. लावण्याची असू नये तशी न लावण्याची पण असू नये इतकंच.  चाळीशीत आता एक जाणवतंय की उगाच विरोधासाठी विरोध करायची गरज नसते , विनाकारण प्रसिद्धीसाठी टोकाची भूमिका घ्यायची गरज नाही. 

बाकी हा लेख लिहीत  मी लहानपणापासून पहात असलेला , माझ्या काकूंचा कुंकूविरहित चेहरा सतत समोर होता. भर तारुण्यात ते पुसलं गेलं. घरात कुणीही न लावण्यासाठी बळजबरी केली नव्हती. पण त्या काळच्या प्रथेनुसार काकूंनी स्वतःच ते लावण्याचं नाकारलं…साजशृंगाराची आवड असणाऱ्या माझ्या काकूला हा निर्णय घेताना किती जड गेलं असेल ! ……. जी टिकली ” माझ्या कपाळावर माझ्या मर्जीनेच लागेल ” असा हट्ट करते, त्याच इलुशा टिकलीसाठी एक कपाळ गेली चाळीस वर्षे किती आसुसलेलं, अतृप्त राहिलंय याचा विचार करून मात्र अंगावर काटा येतो… 

लेखिका :  डॉ शरयू देशपांडे, हैदराबाद

प्रस्तुती : स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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