हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 103 ☆ लड़की की माँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा लड़की की माँ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 103 ☆

☆ लघुकथा –लड़की की माँ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे! जल्दी चलो सब, बारात दरवाजे पर आ गई है। भारी भरकम साड़ी पहने और कंधे पर बड़ा सा पर्स टांगे वह तेज कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी। बैंड-बाजों की तेज आवाजें उसकी धड़कन बढ़ा रही थीं। द्वार तक पहुंचते पहुंचते वह कई बार मन में दोहरा चुकी थी – लड़के के माता – पिता, बहन – बहनोई सबके पाँव पखारने हैं, पहले जल से, फिर दूध से और कपड़े से पैरों को पोंछना है। उसके बाद सभी महिलाओं को हल्दी – कुंकुम लगाना है। ना जाने कितनी परीक्षाएं उसने पास की थीं पर आज का यह पाठ पता नहीं क्यों बड़ा कठिन लग रहा है। बेटी के ससुरालवालों ने कहलाया था कि हमारे यहाँ द्वार-  पूजा में लड़की की माँ ही सबके पाँव पखारती है। बेटी का खुशी से दमकता चेहरा देख वह यंत्रवत काम करती जा  रही थी।

वह हांफ रही थी तेज चलने से नहीं, भीतरी द्वंद्व से। सब कुछ करते हुए कहीं कुछ खटक रहा है। दिमाग के किसी एक कोने में उथल –पुथल मची हुई थी जिसने उसे बेचैन कर रखा है। उसके विचार और वास्तविकता के बीच  भयंकर द्वंद्व  चल रहा है। परंपरा और अपनी आधुनिक सोच के मकड़जाल में वह घुट रही थी। दिल कहा रहा था – जैसा बताया है, करती जा चुपचाप, अपनी बेटी की खुशी देख, बस –।  ये सब परंपराएं हैं, सदियों से यही हो रहा है लेकिन दिमाग वह तो मानों घन बजा रहा था – सारी रस्में लड़की की माँ के लिए ही बनी हैं? क्यों भाई? दान – दहेज, लेना – देना सब लड़कीवालों के हिस्से में? वह बेटी की माँ है तो? क्यों बनाईं ऐसी रस्में?‘ कन्यादान’  शब्द सुनते ही ऐसा लग रहा है मानों किसी ने छाती पर घूंसा मार दिया हो, रुलाई फूट पड़ रही है बार- बार, कुछ उबाल सा आ रहा है दिल में। ऐसा अंतर्द्वंद्व जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती। जिससे कहती वही ताना मारता – अरे ! यही तो होता आया है। लड़कीवालों को झुककर ही रहना होता है लड़केवालों के सामने। हमारे यहाँ तो — इसके आगे सामनेवाला जो रस्मों की पिटारी खोलता, वह सन्न रह जाती। उसके पिता का कितना रोब- दाब था समाज में लेकिन फेरे के समय वर पक्ष के सामने सिर झुकाए समर्पण की मुद्रा में बैठे थे।

उसने अपने को संभाला – नहीं- नहीं, यह ठीक नहीं है। इस समय अपनी शिक्षा,अपने पद को दरकिनार कर वह एक लड़की की माँ है, एक सामान्य स्त्री और कुछ नहीं ! पर दिमाग कहाँ शांत बैठ रहा था उसकी बड़ी – बड़ी डिग्रियां उसे कुरेद रही थीं, उफ! काश डिलीट का एक बटन यहाँ भी होता, उसने विचार झटक दिए। वह तेजी से मुख्य द्वार पर पहुँची। द्वार पर वर, बेटी के सास – ससुर, नंद – ननदोई, उनके पीछे रिश्तेदार और पूरी बारात खड़ी थी। सजे – संवरे,  उल्लसित  चेहरे। पाँव पखारने की रस्म के लिए वे सब अपनी चप्पल उतारकर खड़े थे। मुस्कुराते हुए चेहरे से उसने मेहमानों का स्वागत किया और झुक-  झुककर, वर, उसके माता – पिता , बहन – बहनोई के  पाँव धोए, पहले पानी से फिर दूध से और साफ कपड़े से पोंछती  जा रही थी। उसे लग रहा तथा कि पढ़े – लिखे जवान बच्चों में से कोई तो कहेगा – नहीं, आप हमारे पैर मत छुइए। पर कोई नहीं बोला। समाज द्वारा लड़की की माँ के लिए बनाई गई रस्मों पर उसकी आँखों में  आँसू छलक उठे। 

उसकी छलकती आँखें खुद को अपने बेटे की शादी में वधू के माता – पिता के पैर पखारते, आरती करते देख मुस्कुरा रही थीं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 123 ☆ आकार को साकार करें ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आकार को साकार करें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 123 ☆

☆  आकार को साकार करें ☆ 

आभाषी सम्बन्धों की गर्मी समय के साथ बदलती जाती है। वैसे भी जब तक एक विचार धारा के लोग न हों उनमें दोस्ती संभव नहीं। जिस तरह कार्यों के संपादन हेतु टीम बनाई जाती है उसी तरह कैसे लोगों का सानिध्य चाहिए ये भी निर्धारित होता है। कार्य निकल जाने के बाद नए लोग ढूंढे जाते हैं। जीवन अनमोल है इसे व्यर्थ करने से अच्छा है कि समय- समय पर अपनी उपलब्धियों का आँकलन करते हुए पहले से बेहतर बनें और जोड़ने- तोड़ने से न घबराएँ। इन सब बातों से बेखबर सुस्त लाल जी एक ही ढर्रे पर जिए चले जा रहे थे। मजे की बात सबको तो डाँट- फटकार पड़ती पर उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर पाता था क्योंकि जो कुछ करेगा गलती तो उससे होगी।

भाषा विकास के नाम पर कुछ भी करो बस करते रहो, सम्मान समारोह तो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब सबको सम्मानित करें। कोई अपना नाम सम्मान से जोड़कर अखबार की शोभा बढ़ा रहा है तो कोई सोशल मीडिया पर रील वीडियो बनाकर प्रचार- प्रसार में लगा है। सबके उद्देश्य यदि सार्थक होंगे तो परिणाम अवश्य ही आशानुरूप मिलेंगे। सोचिए जब एक चित्र कितना कुछ बयान करता है तो जब दस चित्रों को जोड़कर रील बनेंगी तो मानस पटल कितना प्रभाव छोड़ेगी। इस के साथ वेद मंत्रों के उच्चारण का संदेश, बस सुनकर रोम- रोम पुलकित हो उठता है। हैशटैग करते हुए पोस्ट करना अच्छी बात है किंतु अनावश्यक रूप से अपने परिचितों की फेसबुक वाल पर घुसपैठ करना सही नहीं होता। हम अच्छा लिखें और अच्छा पढ़ें इन सब बातों के साथ- साथ जब कुछ नया सीखते चलेंगे तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने अवश्य साकार होंगे। शब्द जीवंत होकर जब भावनाओं को आकार देते हैं तो एक सिरे से दूसरे सिरे अपने आप जुड़ते चले जाते हैं। सात समुंदर पार रहने वाले कैसे शब्दों के बल पर खिंचे चले आते हैं ये तो उनके चेहरों की मुस्कुराहट बता सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विधान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – विधान ??

चाँदनी के आँचल से

चाँद को निरखते हैं,

इतने विधानों के साथ

कैसे लिखते हैं..?

सीधी-सादी कहन है मेरी

बिम्ब, प्रतीक,

उपमेय, उपमान

तुमको दिखते हैं..!

© संजय भारद्वाज

21.10.20, रात्रि 10:09

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 178 ☆ व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 178 ☆  

? व्यंग्य –  पड़ोसी के कुत्ते ?

मेरे पड़ोसी को कुत्ते पालने का बड़ा शौक है. उसने अपने फार्म हाउस में तरह तरह के कुत्ते पाल रखे हैं. कुछ पामेरियन हैं, कुछ उंचे पूरे हांटर हैं कुछ दुमकटे डाबरमैन है, तो कुछ जंगली शिकारी खुंखार कुत्ते हैं.पामेरियन   केवल भौंकने का काम करते हैं, वे पड़ोसी के पूरे घर में सरे आम घूमते रहते हैं. पड़ोसी उन्हें पुचकारता, दुलारता रहता है. ये पामेरियन अपने आस पास के लोगो पर जोर शोर से भौकने का काम करते रहते हैं,  और अपने मास्टर माइंड से साथी खुंखार कुत्तो को आस पास के घरो में भेज कर कुत्तापन फैलाने के प्लान बनाते हैं.

पड़ोसी के कुछ कुत्ते बहुत खूंखार किस्म के हैं, उन्हें अपने कुत्ते धर्म पर बड़ा गर्व है, वे समझते हैं कि इस दुनिया में सबको बस कुत्ता ही होना चाहिये. वे बाकी सबको काट खाना जाना चाहते हैं.और इसे कुत्तेपन का धार्मिक काम मानते हैं.  ये कुत्ते योजना बनाकर जगह जगह बेवजह हमले करते हैं.इस हद तक कि  कभी कभी स्वयं अपनी जान भी गंवा बैठते हैं. वे बच्चो तक को काटने से भी नही हिचकते. औरतो पर भी ये बेधड़क जानलेवा हमले करते हैं. वे पड़ोसी के  फार्म हाउस से निकलकर आस पास के घरो में चोरी छिपे घुस जाते हैं और निर्दोष पड़ोसियो को केवल इसलिये काट खाते हैं क्योकि वे उनकी प्रजाति के नहीं हैं. मेरा पड़ोसी इन कुत्तो की परवरिश पर बहुत सारा खर्च करता है, वह इन्हें पालने के लिये उधार लेने तक से नही हिचकिचाता. घरवालो के रहन सहन  में कटौती करके भी वह इन खुंखार कुत्तो के दांत और नाखून पैने  करता रहता है. पर पड़ोसी ने इन कुत्तो के लिये कभी जंजीर नही खरीदी. ये कुत्ते खुले आम भौकने काटने निर्दोष लोगो को दौड़ाने के लिये उसने स्वतंत्र छोड़ रखे हैं. पड़ोसी के चौकीदार उसके इन खुंखार कुत्तो की विभिन्न टोलियो के लिये तमाम इंतजाम में लगे रहते हैं, उनके रहने खाने सुरक्षा के इंतजाम और इन कुत्तो को दूसरो से बचाने के इंतजाम भी ये चौकीदार ही करते हैं. इन कुत्तो के असाधारण खर्च जुटाने के लिये पड़ोसी हर नैतिक अनैतिक तरीके से धन कमाने से बाज नही आता.इसके लिये पड़ोसी अफीम  ड्रग्स की खेती तक  करने लगा है. जब भी ये कुत्ते लोगों  पर चोरी छिपे खतरनाक हमले करते हैं तो पड़ोसी चिल्ला चिल्लाकर सारे शहर में उनका बचाव करता घूमता है. पर सभ्यता का अपना बनावटी चोला बनाये रखने के लिए  वह सभाओ में  यहां  तक कह डालता है  कि ये कुत्ते तो उसके हैं ही नहीं. पड़ोसी कहता है कि वह खूंखार कुत्ते पालता ही नहीं है. लेकिन सारा शहर जानता है कि ये कुत्ते रहते पड़ोसी के ही फार्म हाउस में ही हैं. ये कुत्ते दूसरे देशो के देशी कुत्तो को अपने गुटो में शामिल करने के लिये उन्हें कुत्तेपन का हवाला देकर बरगलाते रहते हैं.

जब कभी शहर में कही भले लोगो का कोई जमावड़ा होता है, पार्टी होती है तो पड़ोसी के तरह तरह के कुत्तो की चर्चा होती है. लोग इन कुत्तो पर प्रतिबंध लगाने की बातें करते हैं. लोगो के समूह, अलग अलग क्लब मेरे पड़ोसी को समझाने के हरसंभव यत्न कर चुके हैं, पर पड़ोसी है कि मानता ही नहीं. इन कुत्तो से अपने और सबके बचाव के लिये शहर के हर घर को ढ़ेर सी व्यवस्था और  ढ़ेर सा खर्च व्यर्थ ही करना पड़ रहा है. घरो की सीमाओ पर कंटीले तार लगवाने पड़ रहे हैं, कुत्तो की सांकेतिक भाषा समझने के लिये इंटरसेप्टर लगवाने पड़े हैं. अपने खुफिया तंत्र को बढ़ाना पड़ा है, जिससे कुत्तो के हमलो के प्लान पहले ही पता किये जा सकें. और यदि ये कुत्ते हमला कर ही दें तो बचाव के उपायो की माक ड्रिल तक हर घर में लोग करने पर विवश हैं. इस सब पर इतने खर्च हो रहे हैं कि लोगो के बजट बिगड़ रहे हैं. हर कोई सहमा हुआ है जाने कब किस जगह किस स्कूल, किस कालेज, किस मंदिर,  किस गिरजाघर,  किस बाजार , किस हवाईअड्डे, किस रेल्वेस्टेशन, किस मॉल  में ये कुत्ते जाने  किस तरह से हमला कर दें ! कोई नही जानता. क्योकि सारी सभ्यता, जीवन बीमा की सारी योजनायें  एक मात्र सिद्धांत पर टिकी हुई हैं कि हर कोई जीना चाहता है.   कोई मरना नही चाहता इस  मूल मानवीय मंत्र को ही इन कुत्तों ने  किनारे कर दिया है. इनका इतना ब्रेन वाश किया गया है कि अपने कुत्तेपन के लिये ये खुद मरने को तैयार रहते हैं. इस पराकाष्ठा से निजात कैसे पाई जावे यह सोचने में सारे बुद्धिजीवी  लगे हुये हैं. कुत्ते की दुम टेढ़ी ही रहती है, उसे सीधा करने के सारे यत्न फिर फिर असफल ही होते आए हैं.खुद पड़ोसी कुत्तो के सामने मजबूर है, वह उन्हें जंजीर नही पहना पा रहा. अब शहर के लोगो को ही सामूहिक तरीके से कुत्ते पकड़ने वाली वैन लगाकर मानवता के इन दुश्मन कुत्तो को पिंजड़े में बंद करना होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 133 ☆ एक दीया जलाना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 133 ☆

☆ एक दीया जलाना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

एक दीया जलाना है

          प्यारमयी प्रकाश का

एक दीया जलाना है

         अंधकार के विनाश का

 

एक दीया जलाना है

         उपकार का विश्वास का

एक दीया जलाना है

          सत्कार रास  हास का

 

एक दीया जलाना है

          अपने वीर जवानों का

एक दीया जलाना है

          सच्चे प्रिय इंसानों का

 

एक दीया जलाना है

          नफरत और भेद मिटाने का

एक दीया जलाना है

         हिंदी राष्ट्र भाषा बनाने का

 

एक दीया जलाना है

           मित्रों में प्रेम बढ़ाने का

एक दीया जलाना है

           मन के शत्रु हटाने का

 

एक दीया जलाना है

            मन को गीत सुनाने का

एक दीया जलाना है

           उपवन बाग लगाने का

 

एक दीया जलाना है

          धरती को स्वर्ग बनाने का

एक दीया जलाना है

           सपनों में खो जाने का

 

एक दीया जलाना है

         आलस को राह दिखाने का

एक दीया जलाना है

          अच्छी सोच बनाने का

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #124 – “कमरे का रिश्ता” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “कमरे का रिश्ता”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 124 ☆

☆ लघुकथा – कमरे का रिश्ता ☆ 

“क्या बात है सुमन जी, पहली बार हाथ से सब्जी-रोटी बना रहे हो” घनश्याम ने आते ही पूछा तो सुमन ने कहा, “ताकि मेरा पुत्र मुझे अपने साथ न ले जा सके।”

“मैं समझा नहीं,” घनश्याम ने कहा,” खाने का पुत्र के साथ ले जाने से क्या संबंध है?”

“यही कि अच्छा खाना देखकर वह समझे कि मैं यहां मजे से खा-पीकर रह रहा हूं। रोज खाना बनाता और खाता हूं।”

“मगर तुम तो कभी पौहे खाकर, कभी होटल में खाना खाकर, कभी चावल बना कर खा लेते हो। ताकि बचे हुए समय का उपयोग लेखन में कर सकों। मगर यह काम तो अपने पुत्र के साथ शहर में जाकर भी कर सकते हो।”

“कर तो सकता हूं,” सुमन ने कहा, “मगर शहर में मेरे पुत्र के पास एक ही कमरा है। मैं नहीं चाहता हूं कि मेरी वजह से मेरे पुत्र, उसकी पत्नी के जीवन नीरस हो जाए,” यह कहते हुए जल्दी-जल्दी स्वादिष्ट खाना बनाने लगे।

इधर घनश्याम इसी उलझन में उलझा हुआ था कि कमरे का पति-पत्नी के सरस व नीरस रिश्ते से क्या संबंध हो सकता है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-10-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शिक्षण… अर्नोल्ड बेनेट ☆ (भावानुवाद) श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?  विविधा  ?

☆ शिक्षण… अर्नोल्ड बेनेट ☆ (भावानुवाद) श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

शिक्षणाला असते

सुरुवात,

पण कधीच नसतो

शेवट.

जितकं अधिकाधिक तुम्हाला,

होत जातं माहीत

तितकी अधिकाधिक

होते जाणीव तुम्हाला

तुमच्या माहीत नसण्याची.

शहाण्यांनाच फक्त

असतं माहीत,

किती मूर्ख, अडाणी

आहोत आपण

पण आपल्या अज्ञानाची

जाणीव

हेच तर खरोखर

असतं

खूप मोठं शहाणपण,

कारण ते ठेवतं तुम्हाला

अगदी योग्य जागी.

अहंकाराच्या स्पर्शापासून

दूर…. अगदी दूर…

आणि देतं ऊर्मी… बळ…

अज्ञाताचे प्रदेश  शोधायला.

उजेडात आणायला .

अर्नोल्ड बेनेटच्या कवितेचा स्वैर अनुवाद

भावानुवाद –  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170, email-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #133 ☆ फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 133 ☆ फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

(दिवाळी निमित्त एक खास कविता….!)

आई म्हंटली दिवाळीला

फराळ करू छान

फराळात चकलीला

देऊ पहिला मान..!

 

गोल गोल फिरताना

तिला येते चक्कर

पहिलं कोण खाणार

म्हणून घरात होते टक्कर..!

 

करंजीला मिळतो

फराळात दुसरा मान

चंद्रासारखी दिसते म्हणून

वाढे तिची शान..!

 

एकामागून एक करत

करंजी होते फस्त

फराळाच्या डब्यावर

आईची वाढे गस्त..!

 

साध्या भोळ्या शंकरपाळीला

मिळे तिसरा मान

मिळून सा-या एकत्र

गप्पा मारती छान…!

 

छोट्या छोट्या शंकरपाळ्या

लागतात मस्त गोड

दिसत असल्या छोट्या तरी

सर्वांची मोडतात खोड..!

 

बेसनाच्या लाडूला

मिळे चौथा मान

राग येतो त्याला

फुगवून बसतो गाल..!

 

खाता खाता लाडूचा

राग जातो पळून

बेसनाच्या लाडू साठी

मामा येतो दूरून..!

 

चटपटीत चिवड्याला

मिळे पाचवा मान

जरा तिखट कर

दादा काढे फरमान..!

 

खोडकर चिवडा कसा

मुद्दाम तिखटात लोळतो

खाता खाता दादाचे

नाक लाल करतो…!

 

रव्याच्या लाडूला

मिळे सहावा मान

पांढरा शुभ्र शर्ट त्याचा

शोभून दिसतो छान…!

 

आईचा लाडका म्हणून

हळूच गालात हसतो

दादा आणि मी मिळून

त्यालाच फस्त करतो…!

 

लसणाच्या शेवेला

मिळतो सातवा मान

जास्त नको खाऊ म्हणून

आई पिळते माझा कान..!

 

शेवेचा गुंता असा

सुटता सुटत नाही

एकमेकां शिवाय ह्यांचं

जरा सुद्धा पटत नाही…!

 

दिवाळीच्या फराळाला

सारेच एकत्र येऊ

थोडा थोडा फराळ आपण

मिळून सारे खाऊ..!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सण दिवाळीचा ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ सण दिवाळीचा ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

दिवाळी हा सगळीकडे साजरा होणारा महत्त्वाचा सण. सणसमारंभ असतातच मुळी उत्साहवर्धक वातावरण निर्मितीसाठी. नुकतचं  नवरात्र होऊन गेलेलं असतं त्यामुळे नवरात्रा पासूनच बाजारपेठा सजायला सुरवात झाली असते. खरचं हे सणसमारंभ असतातच मुळी आपल्यातील मरगळ झटकण्यासाठी. हे सणसमारंभच आपल्या संस्कृतीला घट्ट जखडून ठेवतात त्यामुळेच नात्यानात्यातील एकोपा वाढीस लागतो.

अर्थात पूर्वी आणि आता सण साजरे करण्याच्या पद्धतीत अमुलाग्र फरक पडलायं. पूर्वी एकतर संयुक्त मोठे कुटुंब, वेळेची भरपूर उपलब्धी,हौस आणि त्यामानाने महागाई चा भस्मासुर जरा कमी होता.

आताच्या दिवाळीत आणि आम्ही लहान असायच्या दिवाळीत बराच फरक पडलायं. काही गोष्टी ह्या कमावल्या आणि काही गोष्टी ह्या गमावल्यात. सगळ्यातं पहिली गोष्ट म्हणजे खूप प्रतीक्षेनंतर, थोड्याश्या हट्टानंतर मिळणाऱ्या छोट्याशा गोष्टी पूर्वी खूप मोठ्ठा आनंद देऊन जायच्या,तेच आता सहज  साध्य झालेल्या मोठ्ठ्या खरेद्या पण अल्प आनंद देऊन जातात. पूर्वी घरगुती फराळ करायचे, तो फराळ बनवितांनाचे आईचे कष्ट, तिने घेतलेली अपार मेहनत आतून खूप जाणवून आणि समजावून जायची हेच आता रेडीमेड पदार्थ आणतांना ती कष्टांच्या भावनेची जाणीवच लुप्त झालीय. पण एक म्हणजे आताच्या सणांमध्ये सुबत्ता आलीय आणि पुर्वीच्या सणांना एक काटकसरीची झालर ही होतीच.

दिवाळीचा उत्साह हा महिलावर्ग आणि बच्चेकंपनी ह्यामध्ये काकणभरं जास्तच असतो जसं पक्वान्नामध्ये पदार्थांचा राजा म्हंटले की पुरणपोळीच,बाकी सगळे पक्वान्न ह्यानंतरच त्याप्रमाणे सणांचा राजा म्हंटले की दिवाळीच बाकी सगळे सणवार ह्याच्याखालीच. ह्याचे प्रमुख कारण म्हणजे दिवाळी हा सण अगदी उत्साहवर्धक काळात येतो.नुकताच पावसाळा संपून आँक्टोबर हीट कमी होऊन हव्याहव्याशा वाटणा-या गुलाबी थंडीला नुकतीच सुरवात झालेली असते.ह्या दिवसात वेगवेगळ्या पदार्थांचा आस्वाद मनमुराद घेऊ शकतो कारण हा काळ पचनास सर्वोत्तम काळ असतो.भारत हा कृषीप्रधान देश असल्याने ह्या दिवसात शेतकऱ्यांच्या हातात पहिले पीक येऊन जरा ब-यापैकी पैसा हातात खुळखुळतं असतो. ह्या दिवसात ह्यामुळे व्यापारातील मंदी कमी होऊन व्यापारउदीमासाठीसुद्धा हा काळ उत्साहवर्धक व तेजीचा ठरतो.

दिवाळीचं प्रमुख आकर्षण म्हणजे महिलांना खरेदी आणि धावती का होईना ह्या निमीत्त्याने माहेरी धावती का होईना टाकायला मिळणारी एक चक्कर हे असतं.आपल्या वाटेकडे आईबाबा अगदी डोळेलावून बसलेले असतात. आपण यायच्या वेळेस बरोबर बाबांचे व-ह्यांड्यात खुर्ची टाकून पेपर चाळतं बसणे म्हणजे नजर पेपरमध्ये पण कान मात्र आपल्या आगमनाची चाहूल घेणारे. आईची सारखी आतबाहेर चकरा करीत वाट बघणे सुरुच असते.खरचं हे अविस्मरणीय क्षणं टिपण्यासाठी आणि आठवणींच्या कुपीत कायमचे जपण्यासाठी तरी माहेरी जायला यनं ओढ हे घेतच.

बहिणीबहीणींनी कितीही ठरविले तरी एकमेकींकडे जाणं होतचं असं नाही. पण ह्या माहेरच्या दुव्याने आम्ही बहिणीपण मनमोकळ्या राहू शकतो.आम्ही भावंड एकत्र आलोत की गप्पा संपत नाही, हास्याचे फवारे थांबत नाही आणि जुन्या जुन्या आठवणींना उजाळा देऊन देऊन मनं ही भरत नाही. त्यात आता भरीसभर आमची मुलं ही आमच्या टीम मध्ये सामील.हे प्रेमाचे एकत्रीकरण बघून आईबाबांच्या डोळ्यात जे समाधान दिसतं नं त्यापुढे सगळी सुखं फिकीच.

एक मजा वाटते एरवी आपल्याला कोणी लहानशी गोष्ट जरी देऊ केली तरी आपल्याला संकोचाच्या ओझ्याखाली दबायला होतं पण आईबाबांनी दिलेल्या मोठ्याही गोष्टीवर आपला हक्क आहे असा मोकळेपणा माहेरी वाटतो.आईबाबांनी खूप कष्ट करून, प्रसंगी स्वतःचे मन मारून जमविलेली पुंजी हे किती ह्या सणासुदीच्या निमीत्त्याने आपल्याला घसघशीत सहजतेने निर्मोहीपणे देऊन टाकतात हे फक्त आणि फक्त आईवडीलच करू शकतात.

.दिवाळी करून घरी परततांना एका बँगेच्या दोन तीन मोठ्या बँग्ज् झालेल्या असतातच.त्या बँग फक्त सामानानेच नव्हे तर आनंदाने आणि सुखाने सुद्धा गच्च भरलेल्या असतात. त्या सामानात आईच्या हातचा गरम मसाला, वर्षाचे साठवणूक करता येणारे पदार्थ हमखास असतातच ज्यापूढे जगाच्या बाजारात कितीही पैसे ओतून घेतलेल्या ह्या वस्तू आईच्या हातच्या मायेच्या उबेपुढे फिक्क्याच असतात.

अशा त-हेने दिवाळीहुन परततांना जी मायेची,प्रेमाची शिदोरी मिळते त्या आठवणींवर आपण उन्ह्याळ्यापर्यंत सहज मन.रमवितो.मग परत आहेच आमरसाला माहेरी चक्कर.

प्रत्येक श्वासागणिक मनात आठवण असणारे आईबाबा,जीव ओतून प्रेम करणारी बहीण आणि माहेरपणची ओढ टिकवून ठेवणारा भाऊ असल्याने मी खूप नशीबवान आणि श्रीमंत व्यक्ती असल्याचा माझाच मल साक्षात्कार होतो.

परतीची वेळ थोडी अवघड असते.परत तेच पेपर हातात धरून बसलेले बाबा न बोलता जणू नुसते नजरेनेच सांगतात लौकर परत या गं, आई फाटकापर्यंत येऊन परत परत स्वतःची काळजी घ्यायला बजावत असते.अशा वेळी गाण्याच्या ओळी आठवतात,

 “मला सांगा सुख म्हणजे नक्की काय असतं?

काय पुण्य असतं की जे घरबसल्या मिळतं।”

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “राजी…” ☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला ☆

?जीवनरंग ?

☆ “राजी…” ☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला

बेल वाजली.

सायलीच्या सासूबाईंनी दार ऊघडलं.

कुकर गॅसवर फुरफुरत होता.

पहिली शिट्टी होवून गेलेली.

सायली धुसफुसतच घरात शिरली.

अगदी कुकरसारखीच.

मागनं चिऊ..

चिऊचा चेहराही पडलेला.

चिऊ घरात शिरली अन् धूम पळत आबांच्या कुशीत.

चिऊ विदाऊट हासू ?

अॅन्ड नाऊ विथ आसू..

आबांना सवयच नव्हती.

आबा गलबलले.

कुशीतल्या चिऊला हळूहळू थोपटू लागले.

इतका वेळ धरून ठेवलेलं आसवांचं धरण फुटलेलं.

चिऊच्या गालांवर पाणलोट क्षेत्र.

आबा मात्र प्रचंड अस्वस्थ.

चिऊच्या डोळ्यातला एकही आसू, आबांना सहन व्हायचा नाही.

मायलेकींचं काहीतरी बिनसलेलं असणार.

फाॅर ए मोमेंट…

आबा सायलीवर मनापासून चिडले.

मनातल्या मनात.

नंतर सावरले.

सायलीची रोजची धावपळ.

दिवसभर आॅफीसात राबते.

घरी आल्या आल्या लगेच चिऊला क्लासला सोडायला जाते.

अगदी चहाही न घेता.

तासभर तिथेच.

घरी यायला साडेसात.

तोवर चिऊच्या आजीचा स्वयपाक रेडी.

सायली , आबा , आजी…

अफलातून टीमवर्क.

चिऊला स्कूलबसला सोडणं , आणणं, होमवर्क…

सगळं सगळं आबा सांभाळायचे.

सकाळी स्वयपाक करून सायली आॅफीसला पळायची.

संध्याकाळचा स्वयपाक चिऊची आजी.

चिऊचा बाबा तिकडं दूरदेशी.

ओमानला.

इथे रोजची लढाई.

एक एक दिवस रक्त आटवणारा.

आॅफीस ,  चिऊचा क्लास.. सायली थकून जाते.

शाळा , क्लास… चिऊही थकते.

आणि चिऊचे आबा आजीही.

म्हणून तर आख्खं घर रविवारची वाट बघायचं.

एरवी दोघीही हसमुखराय असायच्या.

एखाद दिवशी बिनसतं.

वरच्या पट्टीतली रागदारी ऐकू येते.

अशा वेळी इतरांनी कानसेन व्हावं.

निमूटपणे तो रागविस्तार ऐकून घ्यावा.

एकदा निचरा झाला की नेहमीचा सूर लागतोच.

थोडा वेळ धीर धरायचा..

आबांनी समजून घेतलं.

शांतम् शांतम्….

वातावरण तंगच होतं..

सायलीनं पटाटा पानं घेतली.

पान घेताना जराशी आदळाआपट.

चिऊ मान खाली घालून जेवत होती.

चॅनल म्यूट.

नो चटरपटर.

सायलीची नजर पेटलेली..

एकदम फूल बने अंगारे.

न बोलता जेवणं आटोपली.

अगदी दहा मिनटांत.

आबांनाच टेन्शन आलेलं.

कोकराची काळजी वाटू लागली.

सगळे हाॅलमधे जमले.

झाला..

ज्वालामुखीचा स्फोट झाला एकदाचा.

” आबा , आजी,… करा.

करा कौतुक अजून नातीचं.

खोट बोललीये चिऊ आज.

दोन दिवस क्लासला सुट्टी आहे म्हणाली.

मीही विश्वास ठेवला.

मी आपलं खालनंच सोडते आणि आणते.

जिना चढून वर जात नाही.

कधीतरीच मॅम भेटतात तिच्या.

आज नेमक्या भेटल्या.

” रिया वाॅज अॅबसेंट फाॅर लास्ट टू डेज “

काय बोलणार ?

आपलेच दात घशात घातले पोरीने.

मीच वेडी.

हिच्या रँकसाठी मर मरायचं.

आणि तिला काडीची किंमत नाही.

नुसता संताप संताप होतोय.

एक दिवस वेडी होईन मी “

सायली भयानकच बिथरलेली.

चिऊ..

चिऊकडे तर बघवत नव्हतं.

आबांच्या कुशीत आडोसा शोधणारं कोकरू.

चिऊच्या डोळ्यातून संततधार.

आबा आजी सुन्न.

खरंच…

चिऊ नाहीये हो अशी.

अभ्यास मनापासून आवडतो तिला.

रँक असतो तिचा दरवेळी.

खोटं नाही बोलणार ती.

काही तरी वेगळा प्राॅब्लेम असणार.

” तू शांत हो बघू आधी.

आत जाऊन पड जरा.

आम्ही बोलतो चिऊशी.

आपलीच पोर आहे.

जास्त चिडलीस तर कायमची भिती बसेल, पोरीच्या मनात.”

चिऊच्या आजीनं सायलीची, आतल्या खोलीत पाठवणी केली.

इकडे…

काही झालंच नाहीये अशा थाटात ,आबांनी गोष्ट सुरू केली.

रोजची गोष्ट.

बटाटेमहाराजांची.

पहिल्यांदा मुसूमुसू गोष्ट ऐकणारी चिऊ.

हळूच गोष्टीत हरवली.

शेवटी तर खुदकन् हसली.

आबा की मेहनत रंग लाई.

चिऊला एकदम काही तरी आठवलं.

” आबू खरं सांगू , वेनस्डेलाच आईला बरं वाटत नव्हतं.

थर्सडेला शाळेत जाताना तर ती जास्त टायर्ड वाटली.

म्हणूनच मी ठरवलं.

दोन दिवस क्लासला हाॅलीडे डिक्लेअर करायचा.

तेवढीच आईला रेस्ट घेता येईल.

म्हणून मी क्लासला बुट्टी मारली.

चिनूच्या बुकमधलं मी सगळं काॅपी केलंय आबू..

क्लासचा होमवर्कही केलाय.

तरीसुद्धा मी खोटं बोलले.

साॅरी..

ममा मला माफ करेल ना.”

चिऊचा दर्दभरा सवाल.

” का नाही करणार ?

नक्की करेल.

आबू है ना.

तू झोप बरं आता.”

चिऊ आबांची मांडी आसवांनी भिजवून झोपी गेली.

आली रे आली.

आता आबांची बारी.

आबांना चिऊचं कौतुकच वाटलं.

चिऊ झोपल्यावर आबा , आजी अन् सायली..

तीन बोर्ड आॅफ डिरेक्टर्सची मिटींग.

रात्री अकरापर्यंत चालली.

ठरलं.

दुसर्या दिवशी सकाळी.

गुडमाॅर्नींग चिऊल्या.

आईचा मूड परत आलेला.

आबा ,आजीही खूष दिसत होते.

‘काहीही असो खोटं बोलायचं नाही’

सेड बाय चिऊज ममा.

‘ येस ममा, प्राॅमीस.”

चिऊने कहा.

मांडवली.

क्रायसीस संपला.

तेवढ्यात ममाने गुड न्यूज दिली.

” चिऊ आजपासून नो ट्यूशन.

तू स्वतःचा अभ्यास स्वतः करायचा.

काही प्राॅब्लेम आला तर आबा सांगतीलच.

आबा तुला टाईमटेबलही बनवून देणार आहेत.

नको ती धावपळ आणि दमवणूक.

नाही आली रँक तरी चालेल,

रोजचा दिवस आनंदात संपायला हवा.”

‘थँक्यू ममा.

आबा है तो फिकर नाॅट.

मी मनापासून अभ्यास करेन.

डोंड फरगेट, आबा ईज ईन्जीनियर फ्राॅम सीओईपी.

मजा भी आयेगा और रँक भी.’

चिऊ आनंदाच्या ढगात ऊडत शाळेत गेली.

आबा आजी खूष.

मोठ्या मुश्कीलीनं सायली ‘राजी’ झालेली.

दमवणारा प्रश्न निकाली निघालेला.

एकदम आबांना चिऊच्या अभ्यासाचं टेन्शन आलं.

चिऊचा हसरा चेहरा आठवला.

” डोन्ट वरी, हो जायेगा”

आबांचा काॅन्फीडन्स ओव्हरफ्लो झाला.

अन् आबा…

फ्रेश संध्याकाळची वाट पाहू लागले.

बटाटेमहाराज की जय !

* माझी पोस्ट नावासकट शेअर करायला माझी ना नाही *

© कौस्तुभ केळकर नगरवाला

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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