हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 227 – बुन्देली कविता – कौनऊँ सें का कैनें… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – कौनऊँ सें का कैनें।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 227 – कौनऊँ सें का कैनें… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से)

कौनऊँ सें का कैनें

जौन भाँत सें राखें राम

तौन भाँत सें रैनें ।

अपनी पीरा कयें कौन सें

कैबे सें का होने ।

पीर कौ मारौ जगे रातभर

बाकी सबखों सोनें ।

 

अपने मों में कयें कायरवों

ऊसर में का बौनें

भैया खता आँग को अपने

खुदइ परत है धोनें ।

 

कैबे खों तो सबरे अपने

कोउ काउ को नइँयाँ

बखत परे पे बता देते हैं

सब के सब कुतकैयाँ ।

 

ऐई में हमने सोच लई अब

हम खाँ चुप्पइ रैनें ।

कोनऊँ सें का कैनें ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 227 – “राघवेंद्र के दोहे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है “राघवेंद्र के दोहे...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 227 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “राघवेंद्र के दोहे” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

नाक सुड़कता फिर रहा, सर्दी में परिवार ।

मँगवाने ही पड़ेगे,   कुछ स्वेटर इसबार ॥

*

लोग रजाई में दुबक, सोच रहे यह बात ।

झबरा होता पास में, तो कट जाती रात ॥

*

मुझे दिखाई दीअभी, वही ठंड की बात ।

प्रेमचंद जी लिखो न, कथा , “पूस की रात”॥

*

इसी मोहल्ले में कभी, जलता रहा अलाव ।

जिसे साथ में ले गया, मध्यावधी चुनाव ॥

*

वह चाची का चबूतरा, हुक्के में तल्लीन –

रहा,अलाव कि जा बुझा, तब से सब गमगीन ॥

*

जोड्योढ़ी से गुजरता, उसको रहता याद ।

बाहर बैठे वृद्ध से, करना है सम्वाद ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25 – 01 – 2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खेल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – खेल ? ?

शब्द पहेली,

सुडोकू,

अल्फाबेटिक क्विज़,

बिल्ट योअर वोकेबुलरी,

अक्षर से खेलना;

शब्द से खेलना;

ब्रह्म से खेलना..,

कौन कहता है;

केवल ब्रह्म ही

मनुष्य से खेलता है?

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ – “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ ☆

☆ साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी जबलपुर में एक समय ऐसा था जब दो संस्थाएं अपने उत्कर्ष पर थीं। जिसमें एक ओर जहाँ विशुद्ध साहित्यिक संस्था मित्र संघ तो दूसरी और सांस्कृतिक एवं संगीत  की अलख जागने के लिए मिलन अपने चरम सीमा पर थी। सदा अपने कार्यक्रमों के माध्यम से नए-नए आयाम देने के लिए कटिबद्ध रहती थीं। दोनों के संयोजक पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हुए थे। एक ओर आदरणीय राजकुमार सुमित्र नवीनदुनिया से तो दूसरी ओर आदरणीय मोहन शशि नवभारत से जुड़े थे। दोनों की प्रतिस्पर्धा से संस्कारधानी जबलपुर को बड़ा लाभ मिला। मंच पर कवि, साहित्यकार एवं कलाकार ही नहीं वरन् आर्केस्टा गली चौराहों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अनेक शब्द शिल्पी,कलाकार जो बाद में राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गये। यहाँ तक कि बाद में पाथेय प्रकाशन ने अनेक रचनाकारों को नयी ऊँचाईयाँ प्रदान कीं। साहित्य जगत में अनेक पुस्तकों का सृजन किया।

मैंने सदा आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी को एक कवि की वेशभूषा में ही देखा, गौरवर्ण, गंभीर चेहरे में थिरकती मुस्कान, मुख में पान की गिलोरी, आकर्षक दमकती आभा, कुर्ता पायजामा के साथ ही लम्बे केश। तमरहाई स्कूल के सम्माननीय शिक्षाविद, या सड़क पर आते-जाते या फिर नवीनदुनिया के साहित्य सम्पादक के रूप में हो। जब भी उनसे सामना होता तो उनकी स्नेहिलता का आशीर्वाद मुझे मिलता ही रहा है।

उस समय मुझे भी लिखने और छपवाने का भूत सवार था। अक्सर मुझे प्रेसों में आदरणीय भगवतीधर बाजपेयी, आदरणीय कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, आदरणीय मायाराम सुरजन, श्री हीरालाल गुप्ता, श्री अनंतराम दुबे, श्री ललित सुरजन जैसे स्वनामधन्य पत्रकारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। उस समय में अपने पिता श्री रामनाथ शुक्ल “श्रीनाथ” के पद चिन्हों पर चल रहा था। अर्थात कहानियाँ लेख गद्य विधा में लिख रहा था।

कोतवाली स्थित चुन्नीलाल जी का बाड़ा प्रसिद्ध था जहाँ श्री भवानी शंकर जैसे वरिष्ठ साहित्यकार निवास करते थे। वहीं सुमित्र जी का निवास था। उनके घर पर कवियों का जमावड़ा लगा रहता था। उनके सभा कक्ष में जमीन पर पैरा की बिछाई पर पड़ी सफेद चादर टिकने के लिए गाव-तकिए पर टिककर बैठना और सुनना अपने आप में अहोभाग्य होता था। मैं भी मुक्त छंद काव्य विधा की ओर बढ़ रहा था और जा पहुँचा उस महफिल में। सुमित्र जी की प्रशंसा पाकर मैं धन्य हो उठा। मेरे बड़े चाचा श्री दीनानाथ शुक्ल महोबावारे, श्री कामतासागर जी का भी आना-जाना होता था। बैंक की नौकरी लगने के बाद कुछ वर्षों के लिए ब्रेक लग गया। पर मेरा लिखना निरंतर चलता रहा।

साहित्यिक कार्यक्रमों में उनको सुनना, मन को आह्लादित करता था। एक कुशल वक्ता के रूप प्रतिष्ठित थे। विषय वस्तु को बड़े ही खूबसूरती और सुंदरता से उठाना और विश्व के उत्कृष्ट रचनाकारों की टिप्पणी सहित प्रस्तुत करना उनके अध्ययन की ओर इंगित करता था । उनके मुख्य आतिथ्य में कार्यक्रम की शोभा अपने आप बढ़ जाती थी। उनका असमय यूँ जाना हमारे संस्कार धानी के साहित्य जगत की अपूर्णीय क्षति है।

©  श्री मनोजकुमार शुक्ल मनोज

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

संकलन –  श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

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आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४६ – “मधुर गीतकार-  स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Articles ☆ Positive Education # 03: Happiness and Well-being ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Authored six books on happiness: Cultivating Happiness, Nirvana – The Highest Happiness, Meditate Like the Buddha, Mission Happiness, A Flourishing Life, and The Little Book of HappinessHe served in a bank for thirty-five years and has been propagating happiness and well-being among people for the past twenty years. He is on a mission – Mission Happiness!

Positive Education # 03: Happiness and Well-being ☆

Positive Emotion, engagement, relationships, meaning and accomplishment

“Happiness is the meaning and purpose of life, the whole aim and end of human existence.”

Aristotle

Happiness means different things to different persons. For some, it is a feeling of cheerfulness and merriment. For others, it may be calm and inner peace. Some gain happiness by buying a new mobile phone or car, others derive happiness in giving and compassion. One feels happy racing a bike at high speed and another by sitting still in a tranquil forest.

What actually is happiness and what it is not?

Happiness is the experience of joy. One may jump and shout to express joy, but it could also be a quiet feeling of contentment and inner peace.

Thich Nhat Hanh is absolutely right when he says, “Sometimes your joy is the source of your smile, but sometimes your smile can be the source of your joy.”

You feel happy when you are deeply involved in your hobby, when you have been kind to someone, or when you have achieved something worthwhile.

Making someone happy, makes you happy too. Dalai Lama says, “If you want others to be happy, practice compassion. If you want to be happy, practice compassion.’

No one else can make us happy or unhappy. We are responsible for the happiness or unhappiness we experience. We can all make ourselves happier.

Anthony Seldon has some good advice for us, “The still and the harmonious mind is happy and joyful; the unhappy, disturbed, or violent mind is never still. Mindfulness, contemplation, meditation, and prayer are pathways to greater stillness.”

Kindness and goodness make us happier: selfishness and unkindness make us unhappy now or in the longer term.

Happiness is the experience of joy, contentment, or positive well-being, combined with a sense that one’s life is good, meaningful, and worthwhile.

According to Matthieu Ricard, “Happiness is a deep sense of flourishing, not a mere pleasurable feeling or fleeting emotion but an optimal state of being.”

What happiness is not

One must also understand what happiness is not.

According to Mihaly Csikszentmihalyi, “Happiness is not something that happens. It is not the result of good fortune or random chance.

“It is not something that money can buy or power command. It does not depend on outside events, but rather on how we interpret them.

“Happiness, in fact, is a condition that must be prepared for, cultivated, and defended privately by each person.

“People who learn to control inner experience will be able to determine the quality of their lives, which is as close as any one of us can come to being happy.”

“Happiness does not come automatically. It is not a gift that good fortune bestows upon us and a reversal of fortunes takes back. It depends on us alone.

“One does not become happy overnight, but with patient labour, day after day. Happiness is constructed, and that requires effort and time. In order to become happy, we have to learn how to change ourselves.”

Luca & Francesco Cavalli-Sforza

Well-Being

Martin Seligman, known as the father of positive psychology, developed the ‘PERMA’ model, which identifies the five things necessary for wellbeing – positive emotion (P), engagement (E), relationships (R), meaning (M) and achievement (A).

Well-being is a construct, and happiness is a thing. Just as weather is a construct of temperature, humidity, wind speed, barometric pressure, and some other factors; well-being is a construct of five factors, as under.

The five elements of well-being are:

  • positive emotion,
  • engagement,
  • relationships,
  • meaning,
  • and accomplishment.

Positive Emotion includes the feelings of joy, excitement, contentment, hope, and warmth. There may be positive emotions relating to the past, present or future.

Engagement denotes deep involvement in a task or activity. One does not experience the passing of time. One experiences flow in sports, music, and singing but one may also experience it in work, reading a book, or in a good conversation.

We feel happy when we are among family and friends. The quality and depth of relationships in one’s life make it rich.

Meaning is connecting to something larger than life. 

One strives for achievements in life. They are a source of happiness for us.

Each of these elements contributes to well-being. The good news is that each one of the above may be cultivated and developed to enhance the level of well-being.

“If you observe a really happy man, you will find him building a boat, writing a symphony, educating his son, growing double dahlias in his garden, or looking for dinosaur eggs in the Gobi Desert.”

Walter Beran Wolfe

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© Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker

FounderLifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth # 38 – The Grand Gala of Honors and the Spectacle of Jugaad ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his satire The Trials of Truth: A Modern-Day Journalism.  

☆ Witful Warmth# 37 ☆

☆ Satire ☆ The Grand Gala of Honors and the Spectacle of Jugaad… ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

The scene was nothing short of a grand theatrical performance from an old, overplayed movie. A lavish stage adorned with garlands, a microphone crackling with exaggerated enthusiasm, and the host—oh, the host! —spitting words with the practiced precision of a broken-down radio announcer.

“And now, ladies and gentlemen, I call upon the legendary author, Mr. So-and-So, who has devoted a lifetime to the service of literature!” The phrase was repeated so often that one felt as though an old gramophone needle had gotten stuck in the grooves.

On either side of the stage, glittering trophies wrapped in satin sheets awaited their recipients like dormant artifacts in a museum. The organizers, standing smugly behind them, looked like landlords watching their peasants toiling in the fields for free, basking in the pleasure of borrowed grandeur.

Now, let us cast our eyes upon the esteemed guests. These were authors whose books were so rare that if you walked into a bookstore and asked for them, the shopkeeper would likely ask, “Sir, did you print this yourself?” Yet, their faces frequently graced newspapers—usually in snapshots from literature festivals where tea and samosas flowed more freely than literary discussions.

The moment they received their trophies, their faces lit up as if they had just won an Olympic gold medal. And yet, if you strolled through their neighborhood and inquired, “Do you know Mr. So-and-So, the famous writer?” the local grocer would likely scratch his head and reply, “Oh, you mean the fellow who still owes me money for last month’s lentils?”

But the real charm of these grand literary gatherings was not literature—it was a sophisticated excuse to meet long-lost acquaintances from Delhi or Mumbai. “I am attending a literary conference,” they would announce at home, while secretly rejoicing at the prospect of an all-expenses-paid trip, a fancy hotel stay, and, most importantly, a new invitation to another event where even more free food awaited. The system was simple: buy your own bus ticket, and the rest would be taken care of by the generous organizers. A perfect example of “You scratch my back, and I’ll scratch yours.”

The elderly writers in attendance adhered to a sacred ritual: reciting the same weary proclamation at every event. “Literature is in grave danger. The younger generation does not read anymore. We must act!” This speech had become the unofficial national anthem of literary symposiums. But the moment they spotted a tray of hot samosas and sweet jalebis, their grave concerns for literature were promptly replaced by concerns about securing a second helping before the plates ran empty.

It was a beautiful contradiction—on one hand, solemn discussions on the decline of literary taste, and on the other, a desperate scramble for the last piece of gulab jamun.

The whole spectacle often reminded one of a vegetable market. The writers stood in neat rows, much like potatoes, cabbages, and pumpkins, waiting to be picked, packed, and honored. Some authors found themselves peeled like bananas on stage, while others floated like water chestnuts, drifting from one event to another. A select few played the role of ever-present tomatoes, appearing in every literary salad, garnishing every discussion.

Trophies were awarded, photographs clicked, social media flooded with posts, and before the last echoes of applause faded, plans for the next grand event were already in motion.

And yet, curiously enough, amidst all this grandeur, literature itself remained nowhere to be found. Those who truly wrote masterpieces rarely attended these farcical gatherings. And those who did attend—well, for them, literature was merely the bait, while the real game was the great, never-ending trade of honors.

It was an enterprise where the product held no value, but the packaging was so dazzling that the customers never stopped applauding.

****

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 617 ⇒ जी व न ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “जी व न।)

?अभी अभी # 617 ⇒  जी व न ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये जीवन है

जन जीवन है

वन में भी जीवन है ।

जब तक जान है,

यह जीवन है ।।

प्राणी में जीव है

वनस्पति में जीव है

तो फिर क्या निर्जीव है ?

जड़ में भी जीव

चेतन में भी जीव ।

जहां पांच तत्व

पृथ्वी, जल,अग्नि,

वायु आकाश

कभी अंधकार,

कभी प्रकाश ।।

पंच तत्व ही प्राण तत्व !

तन में प्राण,मन में प्राण

वन,उपवन,जगत में प्राण ।

प्राण ही वायु, प्राण ही तत्व

प्राण से सृष्टि,प्राण से ममत्व ।

किसने प्राण फूंके

इस धरती में,इस अंबर में

इस देह रूपी आडंबर में !

द्वैत,अद्वैत, आस्तिक,नास्तिक,

किंकर्तव्यविमूढ़,

गुरु तत्व,प्राण तत्व

अथवा ईश्वर तत्व ।।

जब तक प्राण था ,तब तक हम थे

यह सृष्टि थी,यह दृष्टि थी

यह जीवन था ।

जब प्राण पखेरु बन

उड़ गया,

तो यह तन गया ।

देखो,साला कैसा तन गया !

तो क्या सारा जीवन गया ?

कहां गए वो प्राण

जो कल तक देह में थे

मुक्त कर गए ,

जीव को निर्जीव बना गए

अब चाहो फूंको,जलाओ,

गाड़ो, अपनी बला से ।।

लो जी,प्राण पुनः

पंच तत्व में विलीन हो गए

तो फिर आप कहां गए !

क्या धरती खा गई

या खा गया यह आसमान ?

स्वर्ग नरक का टिकिट कटा

या पहुंचे वैकुंठ धाम

जिनसे चुन चुनकर बदला लेना था,उनका क्या हुआ !

तो भटको अतृप्त आत्मा बनकर,या फिर एक और

पुनर्जन्म !

कोई मनी बैक गारंटी नहीं

इस जीवन की ।

उस जीवन दाता का एक

Data था, जो खत्म हो गया । नो रिचार्ज,

नो रि -फिल, नो रिन्यूअल ।।

अपने सभी हिसाब किताब

इस जीवन में ही निपटा कर जाएं,

दुरुस्त करके जाएं । 

हो सकता है एक पारी और खेलने को मिल जाए,

अथवा यह तन – प्राण

जीवन् मुक्त हो जाए ।।

आमीन !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 208 ☆ # “सुख और दुख…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सुख और दुख…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 209 ☆

☆ # “सुख और दुख…” # ☆

सुख और दुख की अलग ही माया है

इसे कोई समझ नहीं पाया है

कभी कुछ पल हंसाया

तो कभी कुछ पल रुलाया है

 

सुख कहां स्थाई रहता है

जल की धारा की तरह बहता है

फुहारों से सबको भिगोता  है

इसी भ्रम में व्यक्ति

जीवनभर सबकुछ सहता है

 

दुख का अलग ही मजा है

लगता है कि वह एक सजा है

पर वह जीने की कला सिखाता है

और हम परेशान बेवजां है

 

जीने के लिए दोनों जरूरी है

इनके बिना जिंदगी अधूरी है

दोनों साथ-साथ चलते हैं

इनमें बस क्षण भर की दूरी है

 

खुशी हो या गम जब बरसता है

हर चेहरे पर वह झलकता है

कभी मायूस होता है चेहरा

तो कभी फूलों सा महकाता है

 

मानव की कभी जीत तो कभी हार है

जीवन का बस यही सार है

सुख तो कुछ पल का साथी है

दुखों से भरा तो यह संसार है

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – पकड़े गए कृष्ण भगवान… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता पकड़े गए कृष्ण भगवान।)

☆ कविता – पकड़े गए कृष्ण भगवान… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

बनी यशोदा जिलाधीश,

 राधा पुलिस कप्तान,

पकड़े गए कृष्ण भगवान,

*

एक ग्वालिन के घर जाकर,

माखन खाने लगे चुराकर,

जाग उठी वो चतुर सयानी,

पकड़ लिए हैं कान,

पकड़े गए कृष्ण भगवान.

*

बीच कचहरी में ले जाकर,

मुलजिम पेश किया ले जाकर,

हाथ बंधे थे,आरोपी के,

अधरों पर मुस्कान,

पकड़े गए कृष्ण भगवान.

*

जो जग के बंधन को खोले,

आज बंधा है,कुछ न बोले,

नजर झुका कर मां को देखे,

ममता का है ज्ञान

पकड़े गए कृष्ण भगवान.

*

मैय्या मैं नहीं माखन खायो,

ग्वाल बाल बरबस लिपटायो,

मैं बालक हूं सीधा सादा,

ये सब हैं शैतान,

पकड़े गए कृष्ण भगवान.

*

माता का भी दिल भर आया,

बंधन खोले,गले लगाया,

झर झर आंसू,बहे मात के,

लाल है मेरी जान,

पकड़े गए कृष्ण भगवान.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सवाल… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सवाल ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

सामान्य माणसाचा साधा सवाल आहे

हा राजकारणी का जळता हिलाल आहे?

 *

सत्तांध होत कोणी सेवा कशी विसरतो

इतके कसे कळेना तुमची कमाल आहे

 *

जनता तुम्हास भजते आदर्श भावनेने

पण का तुम्हीच येथे झाला दलाल आहे

 *

विसरू नका कुणी ही साधी सुधी विधाने

हा काळ माणसांचा वैरी कराल आहे

 *

कर्तव्य लाभकारी तुमच्या कडून व्हावे

तुमचीच आज येथे ख्याती विशाल आहे

 *

जपण्यास या प्रजेला व्हा सावधान आता

उधळायचा सुखाचा आता गुलाल आहे

नेते बनून तुम्ही सुखरूप वाट शोधा

तुमच्या समर्थ हाती आता मशाल आहे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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