(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “व्यवहार की भाषा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 221 ☆ व्यवहार की भाषा… ☆
हमारा व्यवहार लोगों के साथ, खासकर जो हम पर आश्रित होते हैं उनके साथ कैसा है ?इससे निर्धारित होता है आपका व्यक्तित्व। विनम्रता के बिना सब कुछ व्यर्थ है। मीठी वाणी, आत्मविश्वास, धैर्य, साहस ये सब आपको निखारते हैं। समय- समय पर अपना मूल्यांकन स्वयं करते रहना चाहिए।
यदि कोई कुछ कहता है तो अवश्य ये सोचे कि अप्रिय वचन कहने कि आवश्यकता उसे क्यों पड़ी, जहाँ तक संभव हो उस गलती को सुधारने का प्रयास करें जो जाने अनजाने हो जाती है। जैसे- जैसे स्वयं को सुधारते जायेंगे वैसे- वैसे आपके करीबी लोगों की संख्या बढ़ेगी साथ ही वैचारिक समर्थक भी तैयार होने लगेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति…“।)
अभी अभी # 531 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति श्री प्रदीप शर्मा
(Voluntary acceptance)
ऐसा लग रहा है, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की बात हो रही है। जी बिल्कुल सही, बिना सेवानिवृत्ति के वैसे भी कौन स्वीकारोक्ति की सोच भी पाता है। स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक हो सकती है, लेकिन सेवानिवृत्ति इतनी आसान नहीं।
एक सेवानिवृत्ति तो स्वाभाविक होती है, ६०-६५ वर्ष तक खून पसीना एक करने के बाद जो हासिल होती है। चलो, गंगा नहा लिए ! होती है, सेवानिवृत्ति स्वैच्छिक भी होती है, हाय रे इंसान की मजबूरियां ! एक सेवानिवृत्ति अनिवार्य भी होती है, जिसे बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) कहते हैं।
वे पहले सस्पेंड हुए, फिर टर्मिनेट। पहले सत्यानाश, फिर सवा सत्यानाश।।
जीवन के बही खाते का, नफे नुकसान का, लाभ हानि और पाप पुण्य का मूल्यांकन सेवानिवृत्ति के पश्चात् ही संभव होता है।
सफलताओं और उपलब्धियों को गिनाया और भुनाया जाता है। असफलताओं और कमजोरियों को छुपाया जाता है। जीवन का सुख भी सत्ता के सुख से कम नहीं होता।
क्या कभी किसी के मन में सेवानिवृत्ति के पश्चात् यह भाव आया है कि, इसके पहले कि चित्रगुप्त हमारे कर्म के बही खाते की जांच हमारे वहां ऊपर जाने पर करे, एक बार हम भी तो हमारे कर्मों का लेखा जोखा जांच परख लें। अगर कुछ डिक्लेयर करना है तो क्यों न यहीं इस दुनिया में ही कर दें। सोचो, छुपाकर क्या साथ ले जाया जाएगा, सच झूठ, सब यहीं धरा रह जाएगा।।
स्वैच्छिक का मतलब होता है जो अपनी इच्छा या पसंद पर निर्भर हो. वहीं, स्वीकारोक्ति का मतलब होता है वह कथन या बयान जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया जाय। बड़ा दुख है स्वीकारोक्ति में ! लोग क्या कहेंगे। इस आदमी को तो हम ईमानदार समझते थे, यह तो इतना भ्रष्ट निकला, राम राम। बड़ा धर्मप्रेमी और सिद्धांतवादी बना फिरता था।
डालो सब पर मिट्टी, कुछ दिनों बाद ही जीवन के अस्सी वसंत पूरे हो जाएंगे, नेकी ही साथ जाएगी, क्यों मुफ्त में बदनामी का ठीकरा फोड़, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली जाए।
जरा यहां आपकी अदालत तो देखिए, सबूत के अभाव में गुनहगार छूट जाता है, और झूठी गवाही के आधार पर बेचारा ईमानदार फंस जाता है। जिसे यहां न्याय नहीं मिलता, उसे ईश्वर की अदालत का इंतजार रहता है।।
जो समझदार होते हैं, उनका तो अक्सर यही कहना होता है, यह हमारा और ईश्वर का मामला है। उससे कुछ भी छुपा नहीं है। समाज को तो जो हमने दिया है, वही उसने लौटाया है। ईश्वर तो बड़ा दयालु है, सूरदास तो कह भी गए हैं ;
प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो।
समदरसि है नाम तिहारो
चाहे तो पार करो।।
किसी ने कहा भी है, एक अदालत ऊपर भी है, जब उसको ही फैसला करना है तो कहां बार बार जगह जगह फाइल दिखाते फिरें। फिर अगर एक बार भगवान से सेटिंग कर ली तो इस नश्वर संसार से क्या डरना। कितनी अटूट आस्था होती होगी ऐसे लोगों की ईश्वर में।
और एक हम हैं, सच झूठ, पाप पुण्य, और अच्छे बुरे का ठीकरा सर पर लिए, अपराध बोध में जिए चले जा रहे हैं। तेरा क्या होगा कालिया! जिसका खुद पर ही भरोसा नहीं, वह क्या भगवान पर भरोसा करेगा। गोस्वामी जी ने कहा भी है ;
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 29 – सिस्टम की सवारी, जनता की बेज़ारी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
किसी ने सही कहा है, “नेताओं का सबसे बड़ा काम यह है कि वे जनता की आँखें जनता के द्वारा फुड़वाते हैं।” और यह काम हमारे सच्चे नायक, श्रीमान रामानंद जी ने बखूबी किया। वह एक राजनेता नहीं, बल्कि एक ‘मसीहा’ थे। उनके पास हर समस्या का समाधान था—बस उसे किसी न किसी तरीके से ‘घुमा-फिरा’ कर पेश करना होता था।
रामानंद जी का कार्यक्षेत्र बड़ा था, हालांकि यह कार्यक्षेत्र केवल उन्हीं के घर तक सीमित था। उनका बड़ा आदर्श वाक्य था, “हम जो कहें, वही सच है। और सच को समझने के लिए हमें हमेशा थोड़ी देर रुककर उसका पुनः मूल्यांकन करना चाहिए।” इस वाक्य को सुनकर तो लोग चकरा जाते थे, लेकिन इसका मतलब बहुत गहरा था, यह वही बानी थी, जिससे लोग उन्हीं को समझते थे, बिना समझे।
एक दिन रामानंद जी अपने कार्यलय में व्यस्त थे। उनके पास कुछ बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे थे—मसलन, सड़क के गड्ढे भरवाने का निर्णय और नल के पानी को इतना साफ करने का ऐतिहासिक निर्णय, जिससे लोग उसका रंग देख सकें। इन मुद्दों के साथ वे एक बेहद अहम बैठक करने वाले थे। पर एक अजीब घटना हुई, जो ना तो रामानंद जी की योजना का हिस्सा थी, और ना ही किसी के लिए सहज रूप से समझी जा सकती थी।
दरअसल, रामानंद जी के पास एक फाइल आई थी, जो एक नई सड़क के निर्माण से संबंधित थी। सड़क की डिजाइन इतनी अद्भुत थी कि किसी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह सड़क किसे जोड़ी जाए—क्या यह स्कूल के बच्चों के लिए थी, या फिर वो रास्ता था, जिस पर राजनेताओं के काफिले को तेजी से गुजरना था। जैसे ही फाइल पर एक नजर डाली, रामानंद जी ने कहा, “ये सड़क तो हमें खुद बनाने की जरूरत नहीं है, ये तो खुद बनाई जाएगी।”
और फिर, जैसे ही बैठक खत्म हुई, एक नया फॉर्मूला सामने आया: “जनता के मुद्दे पर इतना विचार करने की कोई जरूरत नहीं, अगर उनके पास सड़क नहीं है, तो चलने का क्या फायदा।” इस महान विचार को सुनकर उनके सभी कर्मचारी भौंचक्के रह गए, लेकिन वे जानते थे कि यह एक गहरी राजनीति का हिस्सा था।
इसी बीच, रामानंद जी की टीम ने एक नया विकास कार्यक्रम प्रस्तुत किया—”भारत स्मार्ट बनेगा, अगर हम इसे थोड़ा और स्मार्ट बना लें।” यह विचार उन्होंने खुद ही खड़ा किया था, और अब इसे लागू करने का वक्त था। इसका पहला कदम था ‘स्मार्ट वॉटर सप्लाई’। स्मार्ट वॉटर सप्लाई का मतलब था कि पानी में कुछ न कुछ ऐसी सामग्री मिलाई जाएगी, जिसे पीकर लोग खुद को स्मार्ट महसूस करेंगे, और उनकी अज्ञानता भी घट जाएगी। पानी में कुछ जड़ी-बूटियों का मिश्रण करने के लिए एक वैज्ञानिक को नियुक्त किया गया, जो इस उपक्रम में सफलता पाने के लिए न जाने कितनी रातें जागता रहा। अंततः, जब पानी का टेस्ट हुआ, तो लोग इसको पीने के बाद, स्मार्ट तो क्या, अपनी नाक से ही परेशान हो गए।
रामानंद जी के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ चुका था। अब उन्होंने एक नया कदम उठाया—’जनता की शिकायतें दूर करना’। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने एक विशाल कंट्रोल रूम स्थापित किया, जहां सभी शिकायतें दर्ज की जाती थीं। यह कंट्रोल रूम इतना बड़ा था कि किसी भी शिकायत को पंजीकरण से पहले, उन पर सिर्फ एक लकीर खींची जाती थी। रामानंद जी ने इसका नाम दिया “लकीरी व्यवस्था”। इसके बाद, किसी भी शिकायत के समाधान से पहले, वे शिकायतकर्ताओं को बुलाकर एक प्रेरक भाषण देते थे, ताकि वे समझ सकें कि आखिर क्यों उनकी समस्या इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। यह तरीका बड़ा कारगर साबित हुआ, क्योंकि अब शिकायतें आई ही नहीं।
एक दिन रामानंद जी के सामने एक और समस्या आई—विकास कार्यों के लिए धन की कमी। पर वे निराश नहीं हुए। “धन की कमी से कोई फर्क नहीं पड़ता,” उन्होंने कहा, “हमारे पास हर समस्या का समाधान है, बशर्ते उसे सही तरीके से घुमाया जाए।” और फिर, उन्होंने ‘विकास की गति’ को धीमा कर दिया। यह तरीका इतना सटीक था कि अब सब कुछ स्थिर था—न कोई सड़क बन रही थी, न कोई पानी साफ हो रहा था, लेकिन सब लोग बहुत खुश थे।
आखिरकार, रामानंद जी ने एक और बेमिसाल घोषणा की: “हम विकास के नाम पर किसी भी उन्नति की जरूरत नहीं समझते। हम जो हैं, उसी में खुश हैं।” यह घोषणा सुनकर जनता भी खुश हो गई। अब वे विकास के बारे में चिंता नहीं करते थे, क्योंकि रामानंद जी का भरोसा था—”जिसे जो चाहिए, वो यही कर सकता है।”
और इस तरह, रामानंद जी ने अपने कार्यकाल को सफलतापूर्वक पूरा किया, बिना किसी परिणाम के। यह कहानी एक सच्चे नेता की है, जो सच में जानता था कि कैसे झूठ को इतने सफाई से पेश किया जाए कि वह सच जैसा लगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “घृणा से निपटना ही होगा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆
व्यंग्य – हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी से बचना ! श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा। हुनरमंद होना भी कभी मुश्किल में डाल देता है। मेरा दोस्त बचपन से ही बड़ा हुनरमंद है। स्कूल के दिनों से ही वह पढ़ाई के साथ साथ छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी फीस और जेब खर्च सहज निकाल लेता था। जब कभी कालेज में फन फेयर लगता तो वह गोलगप्पे और चाय की स्टाल लगा लेता था। सुंदर लड़कियों की सबसे ज्यादा भीड़ उसी की स्टाल पर होती और बाद में जब नफे नुकसान का हिसाब बनता तो वह सबसे ज्यादा कमाई करने वालों में नंबर एक पर होता था।
कालेज से डिग्री करते करते वह व्यापार के और कई हुनर सीख गया। दिल्ली घूमने जाता तो वहां से इलेक्ट्रानिक्स के सामान ले आता, उसकी दिल्ली ट्रिप तो फ्री हो ही जाती परिचितों को बाजार भाव से कुछ कम पर नया से नया सामान बेचकर वह कमाई भी कर लेता। बाद में उसने सीजनल बिजनेस का नया माडल ही खड़ा कर डाला। राखी के समय राखियां, दीपावली पर झिलमिल करती बिजली की लड़ियां, ठंड में लुधियाना से गरम कपड़े, चुनावों के मौसम में हर पार्टी के झंडे, टोपियां, गर्मियों में लखनऊ से मलमल और चिकनकारी के वस्त्र वह अपने घर से ही उपलब्ध करवाने वाला टेक्टफुल बंदा बन गया। दुबई घूमने गया तो सस्ते आई फोन ले आया मतलब यह कि वह हुनरमंद, टेक्टफुल और होशियार है।
इस सबके बीच ही वह नौकरी के लिये कांपटेटिव परीक्षायें भी देता रहा। जैसा होता है, स्क्रीनिग, मुख्य परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम पर स्टे वगैरह की वर्षौं चली प्रक्रिया के बाद एक दिन एक प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया और हमारा मित्र द्वितीय श्रेणि सरकारी कर्मचारी बन गया। अब अपने हुनर से वह दिन भर का सरकारी काम घंटो में निपटा कर फुर्सत में बना रहता। बैठा क्या न करता उसने अपना साइड बिजनेस, पत्नी के नाम पर कुछ और बड़े स्तर पर डाल दिया। उसके पद के प्रभाव का लाभ भी मिलता चला गया और वह दिन दूना रात चौगुना सफल व्यापार करने लगा। कमाई हुई तो गहने, प्लाट, मकान, खेत की फसल भी काटने लगा। जब तब पार्टियां होने लगीं।
गुमनाम शिकायतें, डिपार्टमेंटल इनक्वायरी वगैरह शुरु होनी ही थीं, किसी की सफलता उसके परिवेश के लोगों को ही सहजता से नहीं पचती। फिर एकदिन भुनसारे हमारे मित्र के बंगले पर लोकायुक्त का छापा पड़ा। दूसरे दिन वह अखबार की सुर्खियों में सचित्र छा गया। अब वह कोर्ट, कचहरी, वकीलों, लोकायुक्त कार्यालय के चक्कर लगाता मिला करता है। हम उसके बचपन के मित्र हैं। हमने उसके हुनर को बहुत निकट से देखा समझा है, तो हम यही कह सकते हैं कि हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “अथकथा में, हे कथाकार!”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 195 ☆
☆ लघुकथा — सेवा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा, हम ने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसूता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.
” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”
इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.”
” फिर ?”
” मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”
” क्या ?” डॉक्टर साहिबा का यकीन नहीं हुआ, ” उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?”
सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”
” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”
यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चक्करा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.
” इस की समाज सेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
☆ साहित्य को समर्पित पत्रिका “व्यंग्य लोक” का लोकार्पण ☆
13 नवम्बर 2024, नई दिल्ली स्थित प्रेस क्लब के कॉन्फ्रेंस हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में साहित्य को समर्पित एक नई पत्रिका “व्यंग्य लोक” का लोकार्पण हुआ।
वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ प्रेम जनमेजय की अध्यक्षता और मुख्य अतिथि डॉ लक्ष्मी शंकर बाजपेयी तथा डॉ बजरंग बिहारी तिवारी एवं डॉ रमेश तिवारी के विशिष्ट आतिथ्य में इस पत्रिका का लोकार्पण हुआ। पत्रिका के संपादक श्री राम स्वरूप दीक्षित ने पत्रिका के प्रकाशन की पृष्ठभूमि बताई और साहित्य को समृद्ध करने की आवश्यकता पर बल दिया।
मंचस्थ अतिथियों के अतिरिक्त श्री राजेंद्र सहगल, श्री वेदप्रकाश भारद्वाज तथा श्री रामकिशोर उपाध्याय ने भी अपनी बात रखी।
प्रायः सभी वक्ताओं ने “व्यंग्य लोक’ के प्रकाशन पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए साहित्य के विकास में पत्रिकाओं की सार्थक भूमिका पर अपने-अपने सारगर्भित विचार व्यक्त किए। साथ ही व्यंग्य लोक के उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं दी।
कार्यक्रम के अध्यक्ष और व्यंग्य यात्रा के संपादक डॉ प्रेम जनमेजय ने कहा कि पत्रिका का नियमित प्रकाशन एक चुनौती है और धन की कमी आड़े आती है पर यदि आप अपने काम में ईमानदारी से लगे हैं तो तन, मन और धन से साथ देने वालों की कमी नहीं है। लोग आपको रचनात्मक सहयोग तो करते ही हैं, धन से भी सहयोग करते हैं। उन्होंने कहा कि व्यंग्य लोक से यही अपेक्षा रहेगी कि यह पत्रिका व्यंग्य को और अधिक धार देने का काम करेगी। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य के विकास में पत्रिकाओं की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। व्यंग्य लोक की सार्थकता इसी बात में होगी कि वह अपने पाठकों के अंदर विरोध का भाव भरे ताकि विसंगत समय में व्यक्ति नपुंसक होने से बचे। डॉ जनमेजय ने इस पत्रिका के प्रकाशन के लिए शुभकामनाएं दी और साथ ही सहयोग के रूप में अंशदान का लिफाफा भी भेंट किया।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद वरिष्ठ साहित्यकार और कवि डॉक्टर लक्ष्मी शंकर बाजपेई ने कहा कि आज का समय विसंगतियों से भरा है। भारत के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि अपराधी का धर्म देखकर अपराधी के पक्ष में लोग खड़े हो जाएं। यह बहुत बड़ी विसंगति है। और ऐसे समय में ही व्यंग्यकार को, साहित्यकार को आगे आकर विसंगतियों को उजागर करने की जरूरत है। लोग बलात्कारियों के समर्थन में आगे आ रहे हैं, यह बहुत बड़ी चिंता की बात है। उन्होंने आशा व्यक्त की कि व्यंग्य लोक भी इस कार्य में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेगा और अपनी रचनाओं से, अपनी रचनाओं की धार से लोगों को यथास्थितिवादी होने से बचाएगा।
कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद वरिष्ठ साहित्यकार और जाने माने दलित चिंतक डॉ बजरंग बिहारी तिवारी ने एक कविता की पंक्तियां उद्धृत करते हुए अपने वक्तव्य की शुरुआत की और कहा कि न्यायालय में अभियोग चल रहा है और मुख्य समस्या न्याय की है। बिना नीति से जुड़े न्याय का क्या मतलब ? यह पत्रिका लगातार निकले, सभी चुनौतियों के बावजूद निकले यही उन्होंने अपेक्षा व्यक्त की। उन्होंने पत्रिकाओं की भूमिका को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह व्यंग्य लोक पत्रिका एक दृष्टि के साथ निकल रही है, इसलिए इसकी उपयोगिता और सार्थकता स्वाभाविक है।
विशिष्ट अतिथि डॉ रमेश तिवारी ने कहा की जितनी भी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं, शत-प्रतिशत न सही, परंतु 70-80 प्रतिशत महत्वपूर्ण रचनाएं पत्रिकाओं के माध्यम से ही वजूद में आती हैं और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचती हैं। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाएं उन पगडंडियों की तरह हैं जो हमें हमारे देहरी तक ले जाती हैं। राजमार्गों के दौर में भी आपको घर तक जाने के लिए, अपनी संवेदनाओं को बचाए रखने के लिए यदि पगडंडी पर उतरना पड़े तो समझिए की साहित्यिक यात्रा में जो काम पगडंडियां करती हैं, वही काम लघु पत्रिकाएं करती रही हैं। उन्होंने कई पत्रिकाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि जो भी लिखा-पढ़ा जा रहा है या जो भी लिखने-पढ़ने वाला समाज है, उनके लिए पत्रिकाएं संवाद का एक सार्थक मंच तैयार करती हैं, समाज में मानवीय मूल्यों को बचाए रखती हैं। उन्होंने आशा जताई की निस्संदेह व्यंग्य लोक भी मानवीय मूल्यों को बचाए रखने का काम करेगा।
वरिष्ठ साहित्यकार रामकिशोर उपाध्याय ने कहा कि दुनिया में जितनी भी बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुई हैं, उनमें अखबारों-पत्रिकाओं का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने कहा की पत्रिकाएं व्यक्ति को, लेखक को अपना सम्मानजनक स्थान दिलाती हैं। निरंतर प्रकाशन एवं गुणवत्ता को बनाए रखते हुए यह पत्रिका लंबे समय तक चले, यही उन्होंने कामना व्यक्त की।
वरिष्ठ व्यंग्यकार वेद प्रकाश भारद्वाज ने कहा कि पत्रिकाएं निकालना मतलब अपना घर फूंकना है और रामस्वरूप जी ने यह चुनौती ली है तो उनकी जितनी प्रशंशा की जाय कम है। उन्होंने कहा कि पहले निकलने वाली लघु पत्रिकाओं ने साहित्य को जिंदा रखा और साहित्य के विकास में ऐसी पत्रिकाओं का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने उम्मीद जताई कि व्यंग्य लोक पत्रिका भी इस परंपरा को बनाए रखेगी और कंटेंट अच्छा हो एवं गुणवत्ता के साथ समझौता न हो तो पत्रिका का भविष्य उज्जवल है।
इस मौके पर वरिष्ठ व्यंग्यकार राजेंद्र सहगल ने कहा कि इसके पूर्व भी व्यंग्य लोक के दो अंक सॉफ्ट कॉपी में हमारे सामने आए हैं और अब यह तीसरा अंक मुद्रित रूप में हमारे सामने आया है। उन्होंने आशा जताई कि व्यंग्य को और आगे बढ़ाने, उसे समृद्ध करने के लिए व्यंग्य लोक बेहतर काम करेगी ऐसी अपेक्षा है। उन्होंने भूत एवं वर्तमान में प्रकाशित हो रही कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का उल्लेख किया और आशा व्यक्त की कि अपनी उत्कृष्ट सामग्री से व्यंग्य लोक भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाएगी।
इससे पूर्व व्यंग्य लोक पत्रिका के संपादक रामस्वरूप दीक्षित ने कहा कि समकालीन व्यंग्य समूह में कई बड़े साहित्यकार सदस्य हैं और सभी सदस्यों के सहयोग एवं मार्गदर्शन से यह समूह चल रहा है, व्यंग्य लोक का यह तीसरा मुद्रित अंक भी इसी सहयोग का परिणाम है। उन्होंने कहा कि हमने इस तरह से काम करना शुरू किया है जैसे हर अंक अंतिम अंक हो। उन्होंने सभा में उपस्थित सभी विशिष्ट अतिथियों तथा श्रोताओं, साहित्य प्रेमियों के प्रति भी अपना आभार प्रकट किया। उन्होंने कहा कि कोशिश यही रहेगी कि व्यंग्य लोक व्यंग्य के साथ-साथ साहित्य की अन्य विधाओं को स्थान दे और पाठकों के समक्ष उत्कृष्ट सामग्री पहुंचे। इसी अपेक्षा के साथ यह पत्रिका शुरू की गई है और आशा है आप सभी का सहयोग इसी तरह मिलता रहेगा।
वरिष्ठ कवयित्री एवं पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ धीरा खंडेलवाल ने अपने सारगर्भित उद्बोधन से विशिष्ट अतिथियों एवं सभागार में उपस्थित सभी प्रबुद्ध श्रोताओं का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि व्यंग्य की मारक क्षमता बहुत ही व्यापक है और व्यंग्य की धार कुंद न हो यही कोशिश की जानी चाहिए।
कार्यक्रम का संचालन युवा साहित्यकार रणविजय राव ने किया। उन्होंने कहा कि पत्रिकाओं की भीड़ में व्यंग्य लोक अपनी अलग पहचान और स्थान बनाएगी।
कार्यक्रम का आरंभ वरिष्ठ कवयित्री स्नेहा साक्षी द्वारा सरस्वती वंदना से हुआ। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि साहित्य को बचाए रखना ही व्यंग्य लोक का उद्देश्य है।
पत्रिका की सहायक संपादक आरती शर्मा ने सभी विशिष्ट अतिथियों को मंच पर आमंत्रित किया और अंगवस्त्र एवं पुष्प गुच्छ से अतिथियों और कवियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि इस व्यंग्य लोक पत्रिका के माध्यम से समकालीन व्यंग्य समूह ने एक कदम बढ़ाया है।
विशिष्ट वक्ताओं के उद्बोधन के उपरांत सभागार में उपस्थित कुछ वरिष्ठ कवियों-कवयित्रियों ने अपनी-अपनी प्रतिनिधि कविताओं का पाठ भी किया। वरिष्ठ कवि श्री नरेश शांडिल्य, सुशांत सुप्रिय, उपासना दीक्षित, प्रेमलता मुरार, मनमोहन सिंह तन्हा और सुधीर अनुपम ने अपनी कविताओं-गज़लों से सभा में उपस्थित श्रोताओं को भावविभोर किया।
इस मौके पर भोपाल, इलाहाबाद, मेरठ के अतिरिक्त दिल्ली और एनसीआर से आए कई साहित्यकार, पत्रकार, साहित्य प्रेमी कार्यक्रम के अंत तक मौजूद रहे। इनमें निर्मल गुप्त, राकेश मिश्र, उपेन्द्रनाथ, प्रभात कुमार, कुमार सुबोध, आशीष मिश्र, अमित कुमार, मनीष सिन्हा, प्रदीप कुमार, रेखा सिंह, सर्वेश कुमारी उल्लेखनीय हैं।
कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा।
रपट : सुश्री आरती शर्मा
साभार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈