हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे हमारे पडोसी थे। महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती, वैसी हम लोगों के बीच थी। कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर, सिर झुका रस्म निभा लेते।

एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा। मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया। उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया। मजेदार बात कि हमारे इतने बडे कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी। और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था। इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे। वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे – हमें आप पर पूरा विश्वास है। आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा। नाम और योग्यताएं नोट कर लीं।

दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए। मैंने उन्हें प्रगति बता दी। संबंधित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा। बेटी से कहिए कि तैयारी करे।

– तैयारी? किस बात की तैयारी?

– इंटरव्यू की और किसकी?

– देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं। किसी भी कीमत पर। हमारी तैयारी पूरी है। आप मालूम कर लीजिएगा।

मैं हैरान था कि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास…?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘ऐ ठहरो!’ गढ़वाल राइफल्स का फौजी गौण सिंह थपलियाल की आवाज़ कड़क हो गई, ‘देख नहीं रहे हो बोट भर चुकी है ?’

‘मगर मेरे सारे घरवाले तो उसमें बैठ गये। मेरे अब्बा, अम्मीं, मेरे बच्चे और मेरी बीवी -।’ वह आदमी हाथ में एक भारी सा बैग थामे गिड़गिड़ा रहा था।

‘तो क्या? बाद में आना। अगली पारी में।’ गौण सिंह मानो किसी बेजान दीवार से बात कर रहा है। उसकी आवाज़ को कोई संवेदना छू तक नहीं जाती।

नाव में बैठी उसकी बीवी उठ खड़ी हो गई, ‘सा‘ब जी, उसे हमारे साथ आने दो। वरना मुझे भी यहाँ उतार दो।’

‘ऐ औरत, चुप मारके बैठो। वरना सभी को उतार देंगे। फिर डूब मरना बाढ़ के इन सैलाबों में।’ आवाज़ में मिलिट्री रोब की तल्खी उतर आयी।

उस आदमी की बूढ़ी माँ अपनी आँखें पोंछती जा रही थी। डोगरी में उसने भी कुछ कहने की कोशिश की। मगर होठों के शब्द मुँह के अंदर ही गुम हो गये। उसके बच्चे और अब्बा असहाय सा इधर उधर देख रहे थे।

किया क्या जाए? यह काम ही ऐसा है कि सख्त होना पड़ता है। वरना बाढ़ के पानी में अगर मिलिट्री रेसक्यू बोट ही डूब जाए तो ऊपरवालों को जवाब देना नहीं पड़ेगा ? और अखबार में जो छी छी होगी – वो ?

करे तो क्या करे गौण सिंह ? उसका मिजाज तो ऐसे ही खट्टा है। चार दिनों से घर पर बात भी जो न हो सकी। क्या सोच रहे हैं बाबूजी, अम्मां, ? और रामबाला ? बस, यह बात करने के लिए ही तो थपलियाल ने आते समय बीवी को मोबाइल खरीद कर दिया था, ‘रोज एकबार मुझसे बात कर लिया करना। बार्डर की पोस्टिंग पर तो इससे बात नहीं हो पायेगी। तब तो छावनी के टेलिफोन से ही मैं बात कर लूँगा। बस, जब यूनिट स्टेशन पर रहेगा तो इससे जब चाहे बात कर लेना।’

मगर चार दिन हो गये मोबाइल एकदम गूँगा बना बैठा है। धत तेरी की। जम्मू कश्मीर में बाढ़ क्या आयी चिनाब झेलम के सैलाब में गांव, कसबे तो क्या शहर की इमारतें भी डूबने लगीं। साथ साथ ले डूबी सेना के जवानों की इस खिड़की से आती जाड़े की धूप सी मुठ्ठी भर खुशी को भी। ज़ाहिर है थपलियाल का मिजाज चिड़चिड़ा हो गया है।

फिर राजस्थान से जब उसका ब्रिगेड कश्मीर के लिए रवाना हुआ तो फोन पर यह बात सुनकर अम्मां तो क्या बाबूजी भी रो पड़े थे, ‘सारे देश में पोस्टिंग के लिए और कोई जगह नहीं मिली? वहाँ तो आये दिन बम और धमाके और फायरिंग -’

मोबाइल पर मेसेज में एक ‘जोक’ आया था। कश्मीर और खूबसूरत बीवी में क्या समानता है? दोनों पर पड़ोसी नजर गड़ाये रहते हैं। कैंटीन में जवान उसे पढ़कर खूब हँस रहे थे। लेकिन नौकरी नौकरी है। और आर्डर आर्डर। इससे छुटकारा कहाँ ? तो चलो …….

फिर, सूबेदार शिवपाल यादव गाली देते हुए कह नहीं रहा था ? ‘ये कश्मीरी साले सब बेईमान हैं। खायेंगे हिन्दुस्तान का और वफ़ादारी निभायेंगे पाकिस्तान से। सब के सब आईएसआई के एजेंट।’

उधर जब मिलिट्री का कारवाँ ट्रकों पर गुजरता है तो गौण सिंह ने सड़कों पर खड़े लोगों में – खासकर नौजवानों की निगाहों में देखा है – एक धिक्कार! एक घृणा!

बार बार गढ़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं – मिलिट्री के काले करतूतों का पर्दाफाश होता है और मुँह पर कपड़े बांधे किशोर वय के लड़के सड़क पर आकर जवानों पर ढेला पत्थर फेंकते हैं। उन्हें खदेड़ने के लिए जम्मू कश्मीर पुलिस लाठी भाँजने लगती है। अंत में फिर फौज को बुलायी जाती है। और अगर कहीं गोली चल जाए, और कोई हादसा हो जाए तो फिर से वही चक्र चलने लगता है।

अपने लापता बेटों की तस्वीर लेकर मायें निकल आती हैं – सड़कों पर। मिलिट्री बूटों तले रौंदी गई इज्जत के चिथड़ों को लेकर माँ, बाप और बहनें वादिओं की सरज़मीं को ग़मज़दा बना देती हैं।

मगर हस्तिनापुर की जनता कितनी भी रोये, मना करे, द्रौपदी का चीरहरण होता रहता है। इंद्रप्रस्थ के कानों जूँ तक नहीं रेंगती। कुरुक्षेत्र के मैदाने जंग में किसान और मामूली जनता की औलादों की लाशों का अंबार अठ्ठारह रोज तक लगते रहे। तो आज भी दिल्ली अपनी कुंभकर्णी नींद से जागती नहीं …..

जखम के सिक्के के भी दो पहलू हैं। एक तरफ अगर पुलिस मिलिट्री के प्रति कश्मीरी अवाम का आक्रोश है, तो दूसरी ओर चस्पाँ है धर्म के नाम पर अपने घर से खदेड़े गये कश्मीरी पंडितों का दर्द। राजनीति के सिक्के के भी दो पहलुएँ हैं। एक तरफ अगर है – हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बीच की जन्मावधि खटास, तो दूसरी तरफ है यह सवाल – क्या पाकिस्तान बन जाने से वहाँ के अवाम बहुत खुश हैं? तर्जे जफा और दर्दे जिगर तो दोनों तरफ बराबर है। तो?

करीब तीन महीने से ज्यादा हो गया है जब अबकी बार गौण सिंह थपलियाल घर से वापस आया था। मोबाइल पर रामबाला से तो हर रोज बात होती रही। कभी कभी दिन में दो दफे। रात के सोते समय भी गौण एकबार हरे बटन को दबा लिया करता था, ‘क्या कर रही है …..?’

‘चुप रहिए जी। बाऊजी का खाना लगा रही हूँ।’

‘अभी तुम लोगों ने खाना नहीं खाया? यहाँ तो रात भी बूढ़ा गई है।’

‘हम मिलिट्री ड्यूटी पर थोड़े न हैं।’

मोबाइल पर आती गिलास और लोटे की खनक, माँ की खांसी की आवाज सुनते सुनते थपलिआल की नाकों में माँ के आँचल की महक आने लगती। इतने में बाबूजी की आवाज आती, ‘बहू, एक रोटी और दे जाना। आज चने की दाल किसने बनायी? तू ने या तेरी सास ने….?’

उधर से माँ की आवाज आती, ‘ मैं कबसे ऐसी दाल बनाने लगी ?’

‘हाँ, जभी मैं सोचूँ – इतनी जायकेदार कैसे बन गयी?’

शायद मोबाइल को आँचल में छुपा कर रामबाला यहाँ से वहाँ दौड़ती रही। और बीच बीच में फुसफुसाकर बात कर लेती, ‘थोड़ी देर बाद फोन नहीं कर सकते?’

‘तुझसे बात किये बगैर जो नींद नहीं आती।’

तब तक बाबूजी शायद फिर से कहते, ‘पता नहीं अपना बेटा वहाँ क्या खा रहा है। हाँ, सुना तो है मिलिट्री में फल, मेवे, मटन सब रोज़ रोज़ मिलै।’

इधर से गौण कहता, ‘मगर माँ या बीवी के हाथ का खाना नहीं मिलता रे। और तू भी नहीं मिलती ….।’

‘धत्!’कितनी बार मारे गुस्सा और शर्म के रामबाला ने मोबाइल के लाल बटन को झट से दबा दिया। और थपलियाल को फिर से हरी झंडी लहरानी पड़ी, ‘हैलो, तू ने लाइन काट क्यों दिया?’

घर से लौटने के शायद डेढ़ महीने बाद रामबाला ने उसे वो बात बतायी थी। एक रात जब दोनों बात कर रहे थे …..

‘सुनिए जी, आप से एक बात करनी थी।’

‘क्या ?’

मगर उधर से सिर्फ खामोशी। गढ़वाल की हवा हिमालय में दौड़ रही थी। उसी की साँय साँय ……

‘अरे बोल न। क्या बात है?’

फिर भी रामबाला चुप रही।

‘इस तरह से तो तुझे मुझे और उलझन में डाल देगी। घर में सब ठीक है न? बाऊजी ….अम्मां ?’

‘सब ठीक है। वो बात नहीं है-।’

‘तो फिर क्या हुआ ? तेरे पीहर में ?’

‘वहाँ सब ठीक है जी।’

अब थपलियाल को गुस्सा आ गया, ‘अरे तो बोलती क्यों नहीं – बात क्या है? मुझे कन्फ्यूज कर रही है।’

‘आप न – आप न – बाप बननेवाले हैं -’

बस गढ़वाल ने लाल बटन दबा दिया।

तब से रोज़ रात को जबतक उसकी हालचाल ठीक से न ले ले, थपलियाल को चैन नहीं आता। इसी लिए आज चार दिनों से उसका मिजाज ट्रिगर पर उँगली धरे बैठा है। कितना कुछ पूछने बताने की चाह है, मगर सारी बातें अधूरी रह गई।

पता नहीं दोस्तों के कहने पर या कहाँ से उसे पता चला था तो बड़ी समझदारी दिखाते हुए उसने पूछ लिया था, ‘वो कुछ हिलता डुलता है ?’

उधर से खिलखिलाने का फव्वारा फूट पड़ा, ‘अरे डाक्टरनी ने कहा है – वो तो चार महीने बाद ही होता है, जी।’

‘ओ -!’गौण सिंह थपलियाल बहुत निराश हो गया था।

वज़ह तो सभी ज़गह करीब करीब एक ही होती है। इंसानी काली करतूत। भले बेचारी प्रकृति के मत्थे सारा दोष मढ़ दिया जाता है – कि यह कुदरत का कहर है ! उत्तराखंड में अगर होटल, आश्रम और बाँध बनाने के चक्कर में पहाड़ की छाती को खोखला कर देने से जल प्लावन आता है, तो यहाँ भी अमुक एस्टेट और लैंड प्रापर्टी बनाने के चक्कर में झीलों का गला घोंट दिया जाता है। नतीज़तन जब पहाड़ की बर्फ पिघल कर बहने लगी तो चेनाब और झेलम में उसे फैलने की ज़गह ही न मिली, क्योंकि झीलें तो गायब थीं। तो सैलाब घुस गया गली मुहल्ले में। हर आशियाना उजड़ कर रह गया।

कुदरत ने कहर बरपाया तो क्या हुआ, भारतीय मिलिट्री को मौका मिल गया – इन्सानियत का हाथ बढ़ाने। उनके खिलाफ यहाँ की मिट्टी में जो जहर घुल गया है, उसी में अमृत घोलने का प्रयास होने लगा। अपनी जान हथेली पर रखकर फौजी जवान बचाव कार्य में जुट गये। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए पहुँच गये हर गली मुहल्ले में।

तो आपात सेवा में फौजिओं को तैनात कर दिया गया। गढ़वाल रेजिमेंट्स के लोग कूपवाड़ा में दो बोट, भोजन के पैकेट्स और दवाई लेकर हाजिर हो गये।

बड़ी बड़ी इमारतों में जहाँ पहली मंजिल तक पानी पहुँच गया था और सारे लोग दूसरी मंजिल पर जाकर बैठे रहे, वहाँ तो भोजन सामग्री बाँट कर वे आगे बढ़ गये, मगर जिन झीलों की बगलवाले मुहल्लों में जहाँ निरन्तर पानी का दबाव था, या जहाँ गरीब जनता का एक मंजिला आशियाना पूरी तरह डूब चुका था, उन लोगों को बोट पर बैठाकर करीब तीन किमी दूर तक पंचायत भवन में ठहराया जा रहा था। उम्रदराज मरीजों को मिलिट्री अस्पताल में पहुँचाना तो था ही। इधर गैस्ट्रोएंटराइटिस का भी प्रकोप होने लगा। सरकारी व्यवस्था के लिए यह समस्या भी – एक तो करैला ऊपर से नीम चढ़ा – की स्थिति हो गई।

विद्या नौटियाल बोट को चला रहा था और गौण सिंह पतवार को सॅँभालते हुए दूसरे छोर पर बैठा था। सामान कुछ बॅँट गये थे। अभी काफी बोट में पड़े हुए थे। लालबाग चैराहे के पास आकर विद्या आसपास के मकानों की छत पर खड़े लोगों से पूछ रहा था, ‘ इधर सब खैरिअत है न? किसी को कोई जरूरत हो तो बताना। कहीं कोई परिवार मुसीबत में हो तो हमें बताओ। हम भर सब मदद करेंगे।’

औरतों ने उन्हें देखते ही नकाब नीचे कर लिया था। उनकी आँखों की पुतलियां घूम फिर कर इन पर ठहर जातीं।

इतने में एक मोटा थुलथुल आदमी गली की सीढ़िओं पर खड़े उन्हें आवाज देने लगा, ‘यहाँ नूरानी मस्जिद में हमारे आदमी हैं। दो दिनों से उन्होने उन्होने कुछ खाया नहीं है। आप इधर बोट लगाइये।’

‘आपकी तारीफ?’ नौटियाल ने बोट की मशीन बंद करते हुए पूछा।

‘अरे मुझे नहीं पहचाना? मैं हूँ – बिलाल भट्ट गिलानी। रूलिंग पार्टी का सेक्रेटरी।’

बस, यह राजनैतिक पैंतरा तो वेदव्यास ने ही लिख दिया था। कुरूक्षेत्र के युद्ध में गुरु द्रोण के शौर्य के आगे जब पांडव परेशान थे, तो वे सोचने लगे कि क्या किया जाए कि द्रोण अस्त्र त्याग करने में मजबूर हों। उसी समय अश्वत्थामा नाम का एक हाथी रणभूमि में मारा गया। द्रोण के बेटे का नाम भी अश्वत्थामा ही था। तो सबने मशविरा करके युधिष्ठिर को भेजा। द्रोणाचार्य के पास जाकर उसने कहा, ‘ अश्वत्थामा मारा गया।’ फिर धीरे से बोला, ‘जो गज है।’ यानी समूचा सच भी नहीं, झूठ भी नहीं। बेटे की मौत की गलत खबर से दुखी होकर द्रोण ने हथियार त्याग दिया और पांचालीका भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया।

बिलाल भट्ट ने कह दिया कि वह रुलिंग पार्टी का सेक्रेटरी है। वर्तमान या भूतपूर्व – किसे मालूम? प्रादेशिक सेक्रेटरी, या शहर का, या मुहल्ले का? खैर, नूरानी मस्जिद में देने के लिए ढेर सारे फुड पैकेट्स लेकर बोट से उतरते ही नौटियाल और थपलियाल ने देखा कई आदमी और औरतें उनके बोट के पास खड़े होकर चिल्ला रहे थे, ‘सा‘ब, आपलोगों ने हमें कुछ नहीं दिया। और उन लोगों के देने जा रहे हैं ?’

‘क्यों क्या बात है? तुम लोग मसजिद में जाकर भट्ट साहब से अपने पैकेट्स क्यों नहीं ले लेते?’गौण सिंह ने कहा।

‘वो हमें कुछ नहीं देंगे साहब। चाहे हम भूखों मर जाएँ।’एक आदमी ने दोनों हाथ उठाकर कहा।

‘मगर क्यों ?’

‘क्योंकि हम शिया हैं। वो सिर्फ सुन्निओं की पनाहगाह है।’

इतने में वो आदमी हाँफते हुए फिर से सीढ़ी पर हाजिर हो गया, ‘क्या बात है जनाब? उनलोगों से क्या बात कर रहे हैं? आइये, यहाँ सामान देते जाइये।’

नौटियाल ने ऊपर जाकर मस्जिद में झाँक कर देखा। वहाँ खास कोई न था। उसने कड़क कर पूछा, ‘बात क्या है? यहाँ तो कोई है ही नहीं। तो फिर किसके लिए आप फुड पैकेट्स यहाँ रखवाना चाहते हैं? उधर तो वे लोग खुद पैकेट्स लेने आये हैं।’

‘मैं ने कहा न – मैं सब बाँट दूँगा। आप यहाँ सामान रखिए और जाइये न।’उसका बात करने का अंदाज ही बहुत अक्खड़ था।

‘वो तो मदद के सामान बाजार में बेच देता है।’एक औरत, जिसकी गोद में एक बच्चा चीख रहा था, ने बताया।

‘ऐ बीवी।’डोगरी में गाली देते हुए बिलाल भट्ट गिलानी चिल्ला रहा था, ‘अपने बेटे का मुँह बंद रख। तब से भौंकता जा रहा है।’

विद्या नौटियाल और गौण सिंह की आँखें मिल गईं। आँखों ही आँखों में दोनों नें ने तय कर लिया। बोट के पास खड़े लोगों में फुड पैकेट्स बँटने लगे। उधर मस्जिद के सामने हो हल्ला मच गया। बिलाल भट्ट ने आवाज देकर अपने आदमिओं को बुला लिया, ‘ये इंडियन मिलिट्री हमारी मदद के लिए नहीं आते हैं। सब दिल्ली के एजेंट हैं। यहाँ हमारे जख्मों पर भी पाॅलिटिक्स कर रहे हैं।’

‘यह क्या बक रहे हैं?’गौण सिंह को गुस्सा आ गया, ‘हम तो जरूरतमंदों में ही जिन्स बाँट रहे हैं।’

बात बढ़ गई। और सात आठ लोग उधर खड़े हो गये। बिलाल चिल्ला रहा था, ‘गो बैक इंडिया। हमें आजादी चाहिए।’

स्थिति बिगड़ न जाए, इसलिए दोनों वहाँ से जल्दी जल्दी रवाना हो गये।

रास्ते में कई लोगों को बैठाकर वे सबको को टिकानेवाले उसी पंचायत भवन में ले जा रहे थे, तो रास्ते में वो परिवार उन्हें मिल गया। वह आदमी अब तक गिड़गिड़ा रहा था, ‘सा‘ब, दो दिनों से हमारे बच्चों को हम कुछ खिला न सके। खुदा के लिए, इन्हें लेते जाइये।’

नौटियाल ने कहा था, ‘देख लो भाई, अब जगह कितनी बची है। कितने लोग और बैठ ही सकते हैं ?’

एक एक करके उसका अब्बू, उसकी अम्मीं, एक बहन और बीवी और दो बच्चे – सभी बैठ गये। बोट में अब जगह कहाँ थी ?

तभी गौण सिंह थपलियाल को कहना पड़ा था, ‘नहीं जी, हम तुम्हें ले नहीं जा सकते।’

उसकी औरत चीख उठी, ‘उसे भी बैठा लो, साहिब।’

‘और बोट डूब जाए तो ? तुम जिम्मेदार होगी?’ घर पर बात न होने के कारण, और अभी इस झमेले से उसका दिमाग खट्टा हो गया था।

वो आदमी जाने क्या बुदबुदा रहा था। उसकी बीवी बोट पर खड़ी हो गई।

‘ऐ बैठ जाओ। सबको पानी में डुबोना है क्या?’विद्या नौटियाल की घुड़की से उसकी आँखों से आँसू की धार फूट पड़ी।

बाकी लोग गूँगी निगाहों से सबकुछ देख रहे थे। मन ही मन सब अपनी किस्मत से शायद शिकायत कर रहे होंगे।

चार दिनों से मेरी कोई खबर न पाकर रामबाला भी ऐसे ही रो रही होगी! सबकी नजर बचाकर रसोई में, या पानी भरते समय। खास कर कल जब राहत कार्य में लगे एक फौजी का सैलाब मे बह जाने की खबर टीवी में आ चुकी है। थपलियाल के मन में भादो कुहार के मौसम की तरह भावनाओं के बादल उमड़ पड़े। उसने दोस्त की ओर देखा, ‘क्यों विद्या, यह नहीं हो सकता कि तू इसे लेकर चला जा, मैं यहीं रुक जाता हूँ।’

‘पागल हो गया है क्या? तेरी ड्यूटी बोट पर है। वहाँ जवाब कौन देगा? सूबेदार तो हर समय डंडा लिये खड़ा रहता है।’

‘अगर लोगों को बचाने में मैं भी उसी तरह बह जाता तो? सुन, इन्हें उतार कर दूसरी खेप लेकर इधर ही चले आना। चल कर्नल साहब को समझा लेंगे।’

‘तू भी न यार, बड़ा जिद्दी है साले।’विद्या ने मुँह फेर लिया, ‘पतवार कौन सँभालेगा?’

वह औरत बोली, ‘मेरा खाविंद कर लेगा, सा‘ब।’

जगह की अदला बदली हो गई। गौण सिंह थपलियाल बोट से उतर कर वहीं खड़ा है, वह आदमी बोट पर पतवार सँभाले बैठा है। बोट चल पड़ा ……

उस औरत की आँखों में एक अलग सैलाब उमड़ पड़ा है …….वह क्या बुदबुदा रही है ?

उसकी ओेर देखते हुए गौण के मन में यही होता है – हम तो यहाँ इनके आँसू पोंछने के लिए आये थे, मगर यह आँसू ……? इसको कौन सा नाम देंगे? उसे लगा यह आँसू कोई नोनाजल नहीं बल्कि एहसान की भावना की अमृत धार है।

उसे लगा भले ही टावर न मिलने से मोबाइल का कनेक्षण नहीं हो पा रहा है, मगर रामबाला से उसकी अधूरी बात पूरी हो गई …

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

पताः फ्लैट नं. 301, चैथी मंजिल, टावर नं 1, मंगलम आनन्दा, फेज 3 ए,  रामपुरा रोड, सांगानेर, जयपुर, 302029 मो. 9455168359, 9140214489.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रश्न ? ?

मैं हूँ

मेरा चित्र है;

थोड़ी प्रशंसाएँ हैं

परोक्ष, प्रत्यक्ष

भरपूर आलोचनाएँ हैं,

 

मैं नहीं हूँ

मेरा चित्र है;

सीमित आशंकाएँ

समुचित संभावनाएँ हैं,

 

मन के भावों में

अंतर कौन पैदा करता है-

मनुष्य का होना या

मनुष्य का चित्र हो जाना…?

 

प्रश्न विचारणीय

तो है मित्रो!

?

© संजय भारद्वाज  

शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Memoir ☆ दस्तावेज़ # 25 – The Alchemy of becoming ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji The Alchemy of becoming.“)

☆ दस्तावेज़ # 25 – The Alchemy of becoming ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

As I sit quietly today, looking back at the journey I have lived, I see life not as a straight line but as a river—sometimes placid, sometimes tumultuous—always flowing. At a distance, it may appear a seamless continuum, but if you wade into its waters with care, you notice the whirlpools and tributaries, the rocks and banks, the many confluences that shaped the course. My own life has followed such a river’s path—like the Ganga, shaped by many turns, contributions, and inner transformations.

Like the holy Bhagirathi emerging from the Gangotri glacier, I too had a modest beginning. I was born in Ranjhi, a quiet suburb of the then sleepy town of Jabalpur. My early years flowed gently, in a world bounded by simplicity and schoolbooks, unaware of the larger world waiting beyond the next bend.

At sixteen, a turning point came—like the Bhagirathi meeting the Alaknanda at Devprayag and becoming the Ganga. It was my encounter with Brother Frederick, my Chemistry teacher and mentor, who first recognised the spark within me. He urged me to appear for the National Science Talent Search Examination, saying with conviction, “You have it in you.” His words became a catalyst, and when I secured a national ranking, my life took a decisive turn.

That achievement opened doors I hadn’t imagined—summer schools in Jaipur, Chennai, and Mumbai, rubbing shoulders with brilliant minds like Arunava Gupta, Pradip Mitra, and Rajiv Joshi. I began to see the world through the lens of science, logic, and curiosity. It was a time of identity formation—a scholar in the making.

But the river does not always follow the course we expect. Life, with its own currents, steered me into banking—a practical harbour for livelihood. Yet even there, destiny had something rich in store. I was selected to be a Behavioural Science Trainer. This was no ordinary role; it was a calling. The faculty at State Bank Staff College—Ravi Mohanty, Srinivasan Raghunath, and Santanu Banerjee—were not merely teachers; they were alchemists.

If my early years were a gentle river, this was the blast furnace stage of life. I was the raw iron ore—unshaped, full of potential—and they smelted me, transformed me, refined me. Alongside my dear colleagues Raghu Shetty and Prakash Divekar, I emerged stronger, sharper—like forged steel. It wasn’t just a change of skill but a transformation of being.

I conducted sessions on self-awareness, relationships, emotional intelligence—helping bank staff serve not just with efficiency but with empathy. But in teaching others, I learned the most about myself. My inner self, once a quiet stream, now bubbled with awareness, reflection, and the heat of change.

That transformation created a bridge to the next big chapter—my deep dive into the science of happiness and well-being. Positive Psychology gave me a new language to understand joy, fulfilment, and human potential. It reoriented my compass from achievement to meaning.

As retirement approached, one might think the river would slow. But rivers are strange—they gather force before meeting the sea. My wife and I became Laughter Yoga Master Trainers, mentored by the joyful duo Dr Madan and Madhuri Kataria. We found in laughter not just therapy but a sacred connection with others. It was like the Sangam at Prayagraj—where Ganga, Yamuna, and the invisible Saraswati meet. We were becoming whole.

Adding yoga and meditation to our lives, we were no longer just flowing—we were now merging with the ocean, carrying with us the essence of every experience, every person who shaped us, every soul we touched.

Looking back, it is clear—no achievement stands alone. Each is a ripple that causes another, building towards a life well-lived. From a curious boy in Ranjhi to a torchbearer of emotional intelligence and laughter, the river of my life has flowed through many lands. It has nurtured me, challenged me, and above all, made me more human.

Like Ganga, I hope I’ve left a trail of nourishment behind—and like the blast furnace, I hope I’ve emerged not just stronger, but purer.

Life is good. Life is meaningful. And if lived with awareness, even its small achievements can shape something truly vast.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ४ – बाप-बेटा – भूख और मौत ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ४ ☆

☆ कथा कहानी ☆ ~ बाप-बेटा – भूख और मौत ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

खेत में काम करते-करते करीब तीन बज गए थे। सूरज भी यह देखकर हैरान था कि यह आदमी है या दानव। बिना कुछ खाए पिये, सुबह से लगा तो शाम तक लगा ही रह गया। रोटी तो दूर, एक गिलास पानी भी उसे अभी तक नसीब नही हुआ था। ऐसा बिल्कुल नही था कि दीनानाथ को भूख प्यास नही लगी थी। दीनानाथ को जोर की भूख के साथ साथ प्यास भी लगी थी। लेकिन उनका बेटा किशन, यदि अपनी जिद्द पर अड़ा तो अड़ा ही रह गया। अपने बाबूजी को खेत में खाना – पानी लेकर नही गया तो नही गया। किशन की माँ गिडगिड़ाते गिडगिड़ाते थक गयी, लेकिन किशन को क्या, उसको तो अपने मित्रों के साथ कहीं और जाना था, तो जाना था, उसके लिये यह बात बिल्कुल सामान्य बात थी।

 थक हार कर सुरसतिया खाना लेकर खेत में पहुंची, तो उसे दीनानाथ कहीं भी दिखाई नही दिए। लू के थपेड़ो ने दीनानाथ पर जो कहर बरपाना था, बरपा दिया था।

टूटे पेड़ की जड़ के नीचे ऐठे हुए दीनानाथ को अब धूप नही लग रही थी। क्योंकि उनके साँसों ने भी साथ छोड़ दिया था। सुरसतिया की चीख पुकार सुनकर गांव के लोग भाग कर खेत में आये और दीनानाथ को उठाकर घर ले आये।

घर पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। सुरसतिया का रो रो कर बुरा हाल था। लोगों के बीच से किसी की आवाज आयी कि यदि दीनानाथ को भूख से मरा घोषित करा दिया जाय तो पाँच लाख की सहायता राशि मिल जायेगी।

यह बात किशन के कानों तक पहुंची तो उसकी बेचैनी बढ़ गयी। गांव के लेखपाल पवन मौर्या कही दूर के नही रहने वाले थे। वे भी बगल के गांव नौताल के रहने वाले थे। दीनानाथ की मृत्यु की खबर सुनकर वे भी द्वार करने आये थे।

किशन के कान में भूख से मरने वाली बात गूँज रही थी। अब वह पवन लेखपाल के पीछे ही पड़ गया। साहब, कुछ ले देकर बस यही रिपोर्ट लगा दीजिए। मेरा बड़ा काम हो जाएगा।

 गांव के कुछ नौजवान यह सब देख रहे थे। मनोज से जब नही रहा गया तो, उसने किशन पर चिल्लाते हुए कहा। अबे नालायक! पहले अपने बाबूजी के क्रिया – कर्म की तैयारी कर, उनका अंतिम संस्कार कर, फिर भूख से मरने और पैसे की बात करना -कराना। मनोज की बातों का कुछ भी असर किशन पर नही पड़ रहा था। वह तो अपने बाबूजी का पोस्टमार्टम करवाना चाहता था। क्योंकि भूख से मरने की पुष्टि तो पोस्टमार्टम में ही होती। पवन लेखपाल के मन में रह रह कर लालच आ रहा था, लेकिन उसकी चिंता यह थी की एस0 डी0 एम0 साहब तो इस बात पर कभी भी राजी नही होंगे, कि यह रिपोर्ट लगे कि दीनानाथ भूख से मर गया क्योंकि अब देश विकास की गति में आगे निकल चुका है। देश की सरकार हर एक नागरिक को राशन की दुकान से अन्न एवं अन्य सुविधा देने के लिये कृत संकल्पित है। पवन कई बार यह बात एस0 डी0 एम0 साहब के मुँह से सुन चुका था कि कोई ऐसा काम नही होना चाहिए जिससे सरकार की छवि को नुकसान हो। यह तो इस सरकार में भूख से मरने वाली बात है, जो बहुत बड़ी बात हुई। वैसे दीनानाथ का भी राशन कार्ड बना था और वह हर महीने राशन की दुकान से राशन उठाता था।

 सुरसतिया को अच्छी तरह से पता था कि आज उसके पति दीनानाथ की मौत भूख प्यास से तो हुई है, लेकिन राशन की कमी से नहीं हुई है। इसलिए वह ऐसी रिपोर्ट लगवाने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थी।

लेकिन दीनानाथ का एकलौता बेटा किशन अपने बाबूजी को भूख के कारण ही मरना सुनना चाह रहा था।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

आंजनेय पर्वत पर सीढ़ियों खत्म होते ही सामने हनुमान जी का मंदिर है। एक दरवाजे से सीधे मंदिर में प्रवेश करके दूसरे द्वार से बाहर निकलते हैं तो मंदिर के पीछे एक बड़ी पानी की टंकी में नल लगा हुआ है। वही जल आपके पीने योग्य है। जिसमें नीचे से मोटर द्वारा तुंगभद्रा नदी का पानी भरता रहता है। वहीं नज़दीक नारियल की नट्टी निकालने वालों की बैठक है। वे नट्टी, छूँछ और गूदा अलग करके रखते जाते हैं। उनसे पूछने ओर ज्ञात हुआ कि इस कार्य हेतु ठेका दिया गया है। इन चीजों का औद्योगिक उपयोग किया जाता है। ठेके से प्राप्त रकम मंदिर न्यास में जाती है।

पहाड़ी पर मंदिर से थोड़ी दूर महंत विद्यादास जी महाराज का आश्रम नुमा छोटा सा मकान बना है। राजेश जी की व्यवस्था अनुसार महंत जी की गादी के पीछे रामायण केंद्र का बैनर लगा दिया गया। सबसे पहले महंत जी ने हम श्रद्धालुओं को आरती के समय मंदिर में दर्शन कराए। वापस उनके आश्रम में उनके प्रवचन उपरांत राजेश जी और रामायण केंद्र के प्रतिनिधियों ने विचार प्रकट किए।

मंदिर के दाहिनी तरफ़ चार महिलाएं दाल-भात तैयार करने में लगी थीं। तब तक तीन बज चुके थे। वहीं नज़दीक स्टील थालियाँ का ढेर था। एक नल से पानी की व्यवस्था भी थी। महंत जी का आदेश हुआ कि प्रसाद ग्रहण किया जाए। अभी तक भूखे पेट भजन हो रहा था। कहने भर मी देर थी। सभी तीर्थ यात्री तुरंत पालथी मार कर बैठ गए। कोई परस करने वाला नहीं दिखा तो हम दो तीन लोगों ने अपनी थाली सहित सभी को भात-दाल परसना शुरू किया ही था, तभी वहाँ प्रसाद हेतु आतुर श्रद्धालु भीड़ आ पहुँची। महंत जी ने उन्हें रुकने का इशारा किया। हम लोगों ने पेट भर भोजन किया। उसी समय सामने की खुली जगह में चार लोग खिचड़ी के बड़े कढ़ाव लेकर आ पहुँचे। उन्होंने पत्तलों में खिचड़ी प्रसाद बाँटना शुरू किया। भक्तों की भीड़ खिचड़ी पर टूट पड़ी। जब खिचड़ी समाप्त हुई तब बचे खुचे भक्तों ने आश्रम की तरफ़ रूख किया। हम लोगों ने भोजन समाप्त होने तक प्रसाद वितरण कर धर्म लाभ कमाया। भोजन ग्रहण करने वाले तृप्त हुए फिर भी भोजन बचा रहा।

भोजन उपरांत तो भजन होने से रहा। भोजन से तृप्त मन और आलस्य पूर्ण देह ने दरी पर पसरने को मजबूर किया। कुछ लोग पसर गए। कुछ आसपास घूमने लगे। जब मन और देह से तृप्त आलस्य दूर हुआ तो हनुमान जी पर चर्चा चल पड़ी।

एक साथी बोले – कुछ सालों तक महिलाओं को हनुमान जी की पूजा की मनाही थी। महिलाएं  हनुमान मंदिर नहीं जाती थीं। अब तो गर्भग्रह में महिलाओं की भारी भीड़ है।

दूसरे बोले – हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं। इसलिए शायद यह व्यवस्था रही होगी।

चर्चा में भाग लेते हुए, उन्हें बताया – सनातन संस्कृति सतत परिवर्तन शील है। हनुमान जी कलयुग के सबसे उपास्य देव बनकर उभरे हैं। सांस्कृतिक विकास समझने हेतु हमें राजनीतिक इतिहास की तरह धर्म का इतिहास भी समझना चाहिए।

मूर्ति शिल्प के विकास में गुप्त काल (35-550 ईस्वी) का महत्वपूर्ण योगदान है। जब शिल्प कला का विकास आरम्भ हुआ था। भारत में विष्णु और शिव की प्रस्तर मूर्तियाँ उसी काल से गढ़ना आरम्भ हुई थीं। इसके पूर्व अनगढ़ मूर्तियां होती थीं। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि शिव आराधना आर्यों और अनार्यों में कुछ भेद के साथ उपलब्ध थी। कालांतर में दोनों संस्कृति ने शिव को अनादि देव स्वीकार कर लिया। भारतीय संस्कृति का समन्वयात्मक स्वरूप अस्तित्व में आने लगा था। गुप्त कालीन पुराण युग के बाद बारहवीं-तेरहवीं सदी में विष्णु और उनके अवतारों की पूजा शुरू होती है, तब से भक्ति युग आरंभ होता है। उसके बाद सूरदास और मीरा ने कृष्ण भक्ति की अलख जगाई और सोलहवीं सदी में तुलसीदास ने राम भक्ति को जनता में प्रचारित किया। राम दरबार के साथ हनुमान भी पूजित होने लगे।

तुलसीदास ने हनुमान चालीसा लिखा। वे जहाँ भी प्रवचन को जाते, वहाँ हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति स्थापित करते थे। उन्होंने पहला हनुमान मंदिर राजापुर में स्थापित किया था। इसके बाद उत्तर भारत में हनुमान मंदिर स्थापित होना शुरू हुए। दक्षिण भारत में हनुमान मंदिर नहीं के बराबर हैं। पूरी हम्पी में आंजनेय पर्वत को छोड़कर कहीं हनुमान जी का मंदिर नहीं दिखता। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को अखाड़ों से जोड़कर पहलवानी से संबद्ध कर दिया। विधर्मियाँ से निपटने हेतु शक्ति का आव्हान और कसरत अनिवार्यता थी। अखाड़ों में नगधडंग पहलवानों के समझ देवी स्थापना तो की नहीं जा सकती थी। वैसे भी देवी पूजन का वैष्णवों में कोई विधान नहीं था। शाक्त देवी पूजते थे। शाक्त बंगाल तक सीमित थे। इस तरह उत्तर भारत में हनुमान शक्ति के देवता स्थापित हो गए। महिलाएं ब्रह्मचर्य के प्रतीक हनुमान जी के सामने जाने में संकोच करती थीं।

इसका एक और कारण समाज का अर्थ प्रधान होता जाना है। आज़ादी के बाद हर वर्ग धनोपार्जन को लालायित हुआ। शिक्षा का उद्देश्य भी धनोपार्जन होने लगा। हनुमान बल, बुद्धि और विवेक के प्रतीक हुए। वे युवकों से लेकर बुजुर्गों तक सभी के उपास्य देव बन गए। वे शनिदेव की साढ़े साती और अढ़ैया दशा का निवारण करने में भी सक्षम सहायक हैं।

समाज शास्त्रियों द्वारा मानवीय जीवन के सम्पूर्ण  जीवन वृत्त का अध्ययन करने पर एक नया सिद्धांत पाया गया ‘मध्य जीवन संकट’। मध्य जीवन संकट (मिड ऐज क्राइसिस) की परिभाषा जीवन में परिवर्तन की अवधि है जहां कोई व्यक्ति अपनी पहचान और आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करता है। यह 40 वर्ष से लेकर 60 वर्ष की आयु के बीच कहीं भी होता है। पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करता है। मध्य आयु संकट कोई विकार नहीं है बल्कि मुख्यतः मनोवैज्ञानिक पहलू है।

मनुष्य की चालीस से साठ वर्ष की उम्र में एक तरफ़ माँ-बाप बीमारी बुढ़ापा ग्रसित हो मृत्यु का ग्रास बनने की कगार पर होते हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चों की ज़िम्मेदारियों का बोझ सर्वाधिक महसूस होने लगता है। मनुष्य को खुद स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें दरपेश होने लगती हैं। उसे भी स्वयं की मृत्यु का बोध सताने लगता है। इसमें यदि आय पर कुछ संकट होता दिखे तो मनुष्य टूटने लगता है। उसे किसी संबल की ज़रूरत होती है।

मध्य आयु संकट के लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं। आम तौर पर, उनमें चिंता, बेचैनी, जीवन से असंतोष और महत्वपूर्ण जीवन परिवर्तनों की तीव्र इच्छा की भावनाएँ शामिल हो सकती हैं।

मध्य जीवन संकट और अवसाद के कुछ सामान्य लक्षण हैं, जिनमें ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन और लापरवाह व्यवहार शामिल हैं। यदि लक्षण लगातार बने रहते हैं और हर दिन दिखाई देते हैं, तो यह अवसाद होने की अधिक संभावना है। यदि स्थिति साढ़े साती शनि बनकर सामने आती है। शनि के प्रभाव को कम करने हेतु हनुमान जी से उत्तम औषधि कुछ नहीं है। जीवन संग्राम में हनुमान सर्वाधिक पूज्य देव बनकर उभरे हैं। इसमें महिला-पुरुष का भेद खत्म हुआ है, क्योंकि महिलाएं भी तेजी से कमाई करके परिवार का आर्थिक केंद्र बनती जा रही हैं। उन्हें भी हनुमान रक्षा कवच की आवश्यकता महसूस हुई है। यही सब चर्चा करते पहाड़ी से नीचे के लुभावने दृश्य देखते रहे।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नेकी कर, यूट्यूब पर डाल।)

?अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होते हैं इस संसार में चंद ऐसे नेकचंद, जो नेकी तो करते हैं, लेकिन नेकी की कद्र ना करते हुए उसे दरिया में बहा देते हैं। दरिया के भाग तो देखें, नेकी की गंगा तो दरिया में बह रही है और राम, तेरी गंगा मैली हो रही है, पापियों के पाप धोते धोते। फिर भी देखिए, एक संत का चित्त कितना शुद्ध है, चलो मन, गंगा जमना तीर। हम कब नेकी की कद्र करना जानेंगे।

जिस तरह जल ही जीवन है, उसी तरह अच्छाई, जिसे हम नेकी कहते हैं, वह भी एक लुप्तप्राय सद्गुण हो चला है, इसे सुरक्षित और संरक्षित रखना ही समय की मांग है, इसे यूं ही दरिया में बहाना समझदारी नहीं।।

अच्छाई का जितना प्रचार प्रसार हो, उतना बेहतर। किताबों के ज्ञान की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है। कहां हैं आजकल ऐसे लोग ;

भला करने वाले,

भलाई किए जा।

बुराई के बदले,

दुआएं दिए जा।।

हमारा आज का सिद्धांत, जैसे को तैसा हो गया है। कोई अगर आपके एक गाल पर चांटा मारे, तो बदले में उसका मुंह तोड़ दो। नेकी गई भाड़ में। देख तेरे नेकी के दरिये की, क्या हालत हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।

कहते हैं, आज की इस दुनिया में बुराई और पाप बहुत बढ़ गया है। पाप का घड़ा तो कब का भर जाता। कुछ नेकी और कुछ नेकचंद, यानी कुछ अच्छाई और कुछ अच्छे लोग आज भी हमारे बीच हैं, जिनके पुण्य प्रताप से हम अभी तक रसातल में नहीं समाए। लोग भी थोड़े समझदार और जिम्मेदार हो चले हैं। नेकी की कद्र करने लगे हैं। कुछ लोग नेकी को आजकल दरिया में नहीं व्हाट्सएप पर अथवा फेसबुक पर भी डालने लगे हैं।।

व्हाट्सएप पर तो मानो फिर से नेकी का ही दरिया बह निकला है। व्हाट्सएप भी हैरान, परेशान, बार बार संकेत भी देने लगता है, forwarded many times, लेकिन नेकी है, जो बहती चली आ रही है। किसी ने नेकी को व्हाट्सपप से उठाकर फेसबुक पर डाल दिया। खूब लाइक, कमेंट और शेयर करने वाले मिल रहे हैं नेकी को। नेकी की इतनी पूछ परख पहले कभी नहीं हुई, जितनी आज सोशल मीडिया में हो रही है। हाल ही में एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया, एक बनेंगे, नेक बनेंगे और मुझे बिना मेरी जानकारी के उसमें शामिल भी कर लिया। जब मैंने पूछा, तो यही जवाब मिला, नेकी और पूछ पूछ।

टीवी पर दर्जनों धार्मिक चैनल इस नेक काम में लगे हुए हैं, कितने सामाजिक, धार्मिक और पारमार्थिक संगठन और एन.जी. ओ. नेकी की मशाल से जन जागृति फैला रहे हैं। लोग तो आजकल अपनी प्रकाशित पुस्तकें भी अमेजान पर डालने लगे हैं। हमारे मुकेश भाई अंबानी ने भी जिओ नेटवर्क की ऐसी नेकी की मिसाल पेश की है कि हमारा भी मन करता है, हम भी कुछ नेकी यू ट्यूब पर डाल ही दें। आपसे उम्मीद है आप हमारे चैनल को लाइक, शेयर और सब्सक्राइब अवश्य करेंगे।

आप भी आगे से ध्यान रखें, व्यर्थ दरिया में डालने के बजाए, नेकी करें और यूट्यूब पर बहाएं और दो पैसे भी कमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 156 ☆ मुक्तक – ।। परदा गिरने के बाद भी ताली यूं ही बजती रहे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 156 ☆

☆ मुक्तक – ।। परदा गिरने के बाद भी ताली यूं ही बजती रहे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

स्वीर इक दिन, दीवार पर टंग जाना है।

दुनिया से दूर हमें सितारों, सा रंग जाना है।।

कर जाएं सार्थक जीवन, अपना सत्कर्मों से।

बस यही सब ही उपर, हमारे संग जाना है।।

=2=

यह न जलती है और, यह न ही गलती है।

दुयाओं की यह दौलत, कभी नहीं मरती है।।

मत संकोच करो कभी, दुआ लेने और देने में।

जिंदगी के साथ और, बाद भी यह चलती है।।

=3=

इत्र की महक दामन में, नहीं किरदार में लाओ।

काम आकर सबके आदमी, दिलदार कहलाओ।।

नेकी बदी सब जिंदा रहती , हर एक दिल में।

बन कर जिंदगी के तुम, वफादार ही जाओ।।

=4=

अहम गरुर चाहत सब, इक राख बन जाती है।

मिट्टी की देह इक दिन, बस खाक बन जाती है।।

धन दौलत शौहरत नहीं, जबान मीठी है भाती।

यही चलकर तेरा नाम, सम्मान नाक बन जाती है।।

=5=

कर जाओ ऐसा, कि डोली यादों की सजती रहे।

मिलने को यह दुनिया, राह तेरी तकती रहे।।

हर दिल में जगह बन जाए, जरूर तेरे नाम की।

परदा गिरने के बाद भी, ताली यूं ही बजती रहे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #221 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – अनुपम भारत… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – अनुपम भारत। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 221

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – अनुपम भारत…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

अपने में आप सा है, भारत हमारा प्यारा

जग में चमकता जगमग जैसे गगन का तारा।

*

हैं भूमि भाग अनुपम नदियाँ-पहाड़ न्यारे

उल्लास से तरंगित सागर के सब किनारे ।

*

ऋतुएँ सभी रंगीली, फल-फूल सब रसीले

इतिहास गर्वशाली, आँचल सुखद सजीले।

*

है सभ्यता पुरानी, परहित की भावनाएँ

सत्कर्ममय हो जीवन है मन की कामनाएँ।

*

गाँवों में भाईचारे का सुखद स्नेह व्याप्त था।

हवाएँ नरम थीं, मौसम सुहावना था।

*

लोगों में सरलता है दिन-रात सब सुहाने

त्यौहार प्रीतिमय हैं, अनुराग सिक्त गाने।

*

रामायण और गीता ज्ञान की अद्वितीय पुस्तकें हैं जो

मन को विचलित नहीं होना, बल्कि स्थिर रहना सिखाती हैं।

*

ये देश है सुहाना, धर्मों का यहां पर मेला

असहाय भी न पाता, खुद को जहाँ अकेला।

*

आध्यात्मिक है चिन्तन, धार्मिक विचारधारा

संसार से अलग है, भारत पुनीत प्यारा।

*

है ‘एकता विविधता में’ लक्ष्य अति पुराना

भारत ‘विदग्ध’ जग का आदर्श है सुहाना ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पहाटेस…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पहाटेस…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

पहाटेस अजूनही

उगवते माझी व्याकुळता

जशी गादीवर धुक्याच्या

सरल्या सांजेची मुग्धता

*

फिरतात आताशा हात

रिकाम्या अंतरात

शोधती कान माझे

तुझ्या कंकणांची साद

*

पुढे गेलीस तू

मागे सोडून ती पहाट

आता उरले चालणे

दिवसाची ही वाट

*

त्या क्षणात बद्ध अन या क्षणात स्तब्ध

तुझे ते कोमल सामर्थ्य

त्या क्षणात निःशब्द अन या शब्दात बद्ध

हे माझे आर्त काव्य

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares