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☆ Travelogue – Huka Falls and Lake Taupo: A Journey of Contrasts in New Zealand – 1 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆
Have you ever stood before nature’s raw power, witnessing torrents of crystalline blue water surging with incredible force, accompanied by a deafening roar that seems to echo through your soul? And then, just a few miles away, found yourself by a tranquil lake so serene that its stillness feels like meditation? Last weekend, I had the privilege of experiencing both these phenomena, and they left me profoundly moved.
This was not my first tryst with the natural wonders of New Zealand. Having spent over a month in this spectacularly beautiful country—my second visit here—I had already fallen for its iconic landscapes. During my first trip, Queenstown’s charm and Milford Sound’s ethereal beauty had set an almost unattainable benchmark for natural splendor. I doubted if any other place could rival those world-renowned destinations. But New Zealand, as always, surprised me.
From Auckland, it’s roughly a three-hour drive to the charming town of Taupo. The journey itself was scenic, with rolling green pastures and glimpses of distant mountains. However, the true marvel awaited us just outside Taupo: Huka Falls. Nothing could have prepared me for the sight that greeted us.
Huka Falls isn’t a conventional waterfall. Instead, it’s an immense torrent of water, funneled through a narrow gorge at astonishing speed, crashing into a frothy white pool below. The sheer force of the water is humbling, its roar almost primal, commanding awe and respect. The vibrant turquoise hue of the river against the lush green surroundings made it look almost surreal. It was nature’s unrestrained power on full display—a reminder of life’s dynamism and unpredictability.
After soaking in the majesty of the falls, we continued to our hotel beside Lake Taupo, the largest lake in New Zealand. That evening, as the sun dipped low, the lake transformed into a mirror, reflecting hues of gold and pink. The contrast with Huka Falls couldn’t have been more striking. The next morning, a leisurely walk along the lake’s edge deepened my appreciation for its tranquility. The still waters, dotted with ducks and seagulls, seemed to emanate a quiet wisdom. We paused at Two Mile Bay Sailing Club, savoring rich, authentic coffee as we watched the world wake up. It was a moment of pure peace—a slice of heaven on earth.
Breakfast at a nearby vegan café rounded off the morning, but the pull of Huka Falls was irresistible. We returned before heading back, mesmerized once more by its unbridled energy. Watching the water surge and swirl, I reflected on how it symbolized joy in motion—life at its most vibrant and free.
As we drove back, a thought lingered in my mind. Life, I realized, is a dance between contrasts. It’s about finding harmony between the strong, rushing currents of Huka Falls and the calm, reflective depths of Lake Taupo. Both are beautiful, both essential, and together, they create a profound balance.
New Zealand’s landscapes have a way of leaving you with more than just memories—they offer lessons. For me, this journey was a reminder to embrace both the storms and stillness that life offers, for each holds its own unique beauty.
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(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा
सुबह का नाश्ता और रात्रिभोज होटल के पैकेज में शामिल है। सभी एक साथ नाश्ता और रात्रिभोज करते हैं। वहीं अगली कार्ययोजना तय हो जाती है। राजेश जी का संदेश रात को ही प्राप्त हो गया था कि सुबह आठ बजे होटल के डाइनिंग एरिया में नाश्ता लेकर साढ़े आठ बजे बस में सवार होना है। नाश्ते में स्पंजी डोसा, इडली, बड़ा, पूड़ी, सब्ज़ी के अलावा ब्रेड बटर ऑमलेट भी थे। मीठे में सूजी का हलवा स्वादिष्ट लगा। नाश्ते के समय यह ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि यदि सभी आइटम चखते जाएँ तो अति भोजन होना ही है। मुफ्त से लगने वाले यानी पैकेज में शामिल नाश्ता करते समय पर्यटक एक गलती अक्सर करते हैं। तुरंत पैसे तो देने नहीं हैं या पैसे तो दे ही चुके हैं। इसलिए खींच कर खा लेते हैं। जिसका परिणाम एक तो हाज़मा ख़राब और दूसरा जब बस में बैठकर नज़ारे देखना है तब सीट पर खर्राटे भरते हैं। हम तो खाने और सोने आए हैं। भूगोल-इतिहास किताबी बातें हैं। पर्यटन के दौरान इस प्रवृत्ति से बचेंगे तो घूमने का आनंद उठा पाएंगे।
समूह में परस्पर स्नेहिल संबंध कायम हो गए हैं। समूह के सभी सदस्य सकारात्मक सोचधारी हैं। क्षुद्र स्वार्थ का द्वेषपूर्ण भाव या शिकायती लहजा किसी में भी नहीं दिखता। इस कारण पूरी यात्रा में अनबन जैसी बातें जो कि समूह प्रबंधन में अक्सर दिखती हैं, अब तक की यात्रा के दौरान नदारत हैं। सब हनुमान भक्ति में डूबे हैं। बस में सुबह की यात्रा अभिष के सस्वर हनुमान चालीसा गायन से शुरू होती है। बाक़ी सभी यात्री उनसे स्वर मिलाकर भक्तिपूर्वक गायन में हिस्सा लेते हैं। उसके बाद बीच-बीच में मज़ाक़ ठिठोलियों की फुहारें छूटती रहती हैं। कोई व्यक्तिगत निजी टिप्पणी नहीं होती है।
ड्राइवर के बराबर सीट पर बैठ ख़ुद डॉ.राजेश श्रीवास्तव समूह को नेतृत्व प्रदान करते हैं। उन्होंने गाइड चंदू को भी साथ बिठा लिया है। जिससे उन्हें पर्यटन स्थलों पर पहुँचने, रुकने और आगे बढ़ने में सुभीता है। उनके पीछे सिंगल सीट पर कंडक्टर की भूमिका में सुरेश पटवा सीटी बजाकर समूह को नियंत्रित करते हैं। उनके समानांतर कवियत्री रूपाली अपनी शिक्षिका मम्मी श्रीमती मंजु श्रीवास्तव के साथ हैं। उनके पीछे डॉ. जवाहर कर्णावत और अनुभूति शर्मा विराजमान हैं। उसके बाद घनश्याम मैथिल और अभिष श्रीवास्तव बैठे हैं। सिंगल सीट पर अरुण गुप्ता और उनके पीछे डॉक्टर दिनेश श्रीवास्तव जमे हैं। पिछली सीट पर श्री विजय शंकर चतुर्वेदी, श्री सनोज तिवारी, डॉ जयशंकर यादव और गोपेश बाजपेयी बैठे हैं।
आज हम्पी भ्रमण है। भूगोल इतिहास किसी भी पर्यटन की जान होते हैं। यदि इनका ज्ञान और भान न हो तो पर्यटन “ये खाया-वो खाया” और ‘ये खरीदा-वो खरीदा’ का मुरब्बा बनकर रह जाता है। हमने दक्षिण भारत का राजनीतिक भूगोल याद किया। दक्षिण भारत में पाँच राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के साथ तीन केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार, पुडुचेरी और लक्षद्वीप शामिल हैं। जहाँ की आबादी की भाषाएँ द्रविड़ परिवार की हैं। हिंदी सभी जगह समझी जाती है। हालाँकि राजनीति ने बहुत नीबू निचोया पर हिन्दुस्तानी कढ़ाई में हिंदी का खालिस दूध मद्धिम आँच में मलाईदार होता जा रहा है। राज्य की सीमाएँ आम तौर पर भाषाई आधार पर हैं।
श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण और सीता जी के साथ नासिक के पास पंचवटी में आरण्यक समय बिताया था। वहीं से रावण ने सीता जी का अपहरण किया था। जिनकी खोज में वे भटकते हुए श्रीराम-लक्ष्मण किष्किन्धा खंड के पम्पा क्षेत्र पहुँचे थे, जहाँ उनकी भेंट हनुमान जी से हुई थी। हम उसी स्थान पर हैं। श्री राम सेना सहित यहाँ से मदुरा होते हुए रामेश्वरम पहुँचे थे। रामायण काल में यह क्षेत्र बियाबान जंगल था। वानर मति और गति से ही इस क्षेत्र में पार पाया जा सकता था। गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों पूर्व से पश्चिम बहती हैं।
श्रीमती मंजू श्रीवास्तव और उनकी पुत्री रूपाली सबसे आगे की दोहरी सीट पर हैं। उनके बाजू वाली सिंगल सीट पर हम जमे हैं। मंजू जी हमको पटवा भाई साहब बुलाने लगी हैं तो इस हिसाब से रूपाली ने हमसे मामाजी का रिश्ता बना लिया है। रूपाली ने पूछा – मामा जी, दक्षिण भारत का भूगोल-इतिहास बताइए न। छेड़ने भर की देर थी। अपना रिकॉर्ड चालू हो गया।
सुनो रूपाली, दक्षिण भारत में छह पारंपरिक भौगोलिक क्षेत्र हैं।
पीछे से आवाज आई, यह नहीं चलेगा। थोड़ा जोर से बोलिए, हम भी सुनेंगे। हमने तिरछा होकर वॉल्यूम तेज कर बोलना शुरू किया।
महाराष्ट्र से नीचे दक्षिण में उतरते ही कर्नाटक में- दक्कन के पठार का मैदानी क्षेत्र बयालुसीमे, केनरा या करावली तट, समुद्री तट और पठार के बीच सह्याद्रि पहाड़ियाँ मालेनाडु, गोदावरी नदी के उत्तर में स्थित क्षेत्र, मैसूर के आसपास दक्षिण कर्नाटक मुलकानाडु। धारवाड के आसपास उत्तरी कर्नाटक, जिस क्षेत्र में हम्पी स्थित है। कोंकण तटीय क्षेत्र, जिसमें तटीय महाराष्ट्र, गोवा और तटीय कर्नाटक का हिस्सा शामिल है। रायचूर दोआब, जिसमें ज्यादातर उत्तरी कर्नाटक, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र तुलु नाडु, उडुपी और दक्षिण केनरा के तटीय जिले आते हैं।
जब हमने थोड़ी सांस ली तो अनुभूति बोलीं – आपको इतना याद कैसे रहता है। हमने कहा- हम भूलते नहीं है इसलिए याद रहता है। सब ठहाकर हँस दिए।
हमारे प्रवचन फिर शुरू हुए, आंध्र प्रदेश में- कम्मनडु – कृष्णा नदी के दक्षिण में नेल्लोर तक का क्षेत्र, कोनसीमा – गोदावरी जिले में गोदावरी नदी की सहायक नदियों के बीच का तटीय क्षेत्र, कोस्टा – आंध्र प्रदेश के तटीय जिले, रायलसीमा – जिसमें कुरनूल, कडप्पा, अनंतपुरम और चित्तूर जिले शामिल हैं। उत्तरांध्र – आंध्र प्रदेश का उत्तरी भाग, जिसमें तीन जिले श्रीकाकुलम, विजयनगरम और विशाखापत्तनम शामिल हैं। वेलानाडु – अर्थात् गुंटूर से श्रीशैलम तक कृष्णा नदी के तट पर स्थित स्थान।
चलिए अब तमिलनाडु चलते हैं वहाँ- चेरा नाडु – पश्चिमी तमिलनाडु और अधिकांश आधुनिक केरल, कोंगु नाडु – कोयंबटूर के आसपास पश्चिमी तमिलनाडु, चेट्टिनाडु – शिवगंगा के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, चोल नाडु – तंजावुर के आसपास मध्य तमिलनाडु, पलनाडु – उत्तरी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के दक्षिणी जिले, पंड्या नाडु – मदुरै के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, उत्तरी सरकार – ब्रिटिश भारत में मद्रास राज्य में मुस्लिम प्रशासनिक इकाइयाँ, अर्थात् चिकाकोले, राजमुंदरी, एलोर, कोंडापल्ली और गुंटूर, टोंडाई नाडु – कांचीपुरम के आसपास उत्तरी तमिलनाडु, तिरुविथमकूर या त्रावणकोर- दक्षिणी केरल और तमिलनाडु का कन्याकुमारी जिला, दक्षिण मालाबार – केरल का उत्तर-मध्य क्षेत्र, जो कोरापुझा और भरतप्पुझा नदियों के बीच स्थित है।
इतने कठिन क्षेत्रों का नाम सुनते-सुनते कुछ साथी बाहर झांकने लगे थे। तब तक हमारा वर्णन केरल तटीय नाडू पर पहुँच चुके थे।
केरल- कोचीन – केरल का क्षेत्र जो भरतप्पुझा और पेरियार नदियों के बीच स्थित है, कभी-कभी पम्बा तक फैला हुआ है। उत्तरी मालाबार – जो मैंगलोर और कोझिकोड के बीच स्थित है, यह एझिमाला साम्राज्य, मुशिका राजवंश और कोलाथुनाडु की पूर्व त्रावणकोर रियासत थी।
अब सुनिए उस क्षेत्र को जिसे अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने सबसे पहले दबोचा था। अर्थात कोरोमंडल तट – दक्षिण तटीय आंध्र प्रदेश, उत्तरी तटीय तमिलनाडु और पुडुचेरी केंद्र शासित प्रदेश दक्कन पठार – आंतरिक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक को कवर करने वाला पठारी क्षेत्र। इसमें मराठवाड़ा, विदर्भ, तेलंगाना, रायलसीमा, उत्तरी कर्नाटक और मैसूर क्षेत्र शामिल हैं।
अब चलते हैं द्वीप समूह- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत के पूर्वी तट से बहुत दूर, बर्मा के तेनासेरिम तट के पास स्थित है। भारत की मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी छोर हिंद महासागर पर कन्याकुमारी (केप कोमोरिन) है। लक्षद्वीप के निचले मूंगा द्वीप भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट से दूर हैं। श्रीलंका दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है, जो पाक जलडमरूमध्य और श्रीराम के पुल के नाम से जाने जाने वाले निचले रेतीले मैदानों और द्वीपों की श्रृंखला द्वारा भारत से अलग किया गया है।
आज की योजना कुछ इस तरह है कि पहले तुंगभद्रा नदी किनारे गुफा दर्शन फिर हम्पी भ्रमण। अतः सबसे पहले कमलापुर पहुँचे, जहाँ तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गुफा है। किंवदंती है कि लंका अभियान के बाद इसी गुफा में विजयी सेना की सभा में श्रीराम ने सुग्रीव का किष्किन्धा की गद्दी पर राज्यारोहण किया था। बाली का पुत्र अंगद भी दल बदल करके सुग्रीव की पार्टी से रक्षामंत्री बना था। गुफा में अंदर जाकर देखा कि शायद सुग्रीव वंश का कोई सांसद या विधायक अनुयायियों को जातिगत और वंशगत राजनीतिक समीकरण समझा रहा हो। परंतु वहाँ बोर्ड लगा था। सावधान, भारत की राजनीतिक गुत्थियों से भरी इस गुफा में आगे जाना मना है। कारोबार में लेनदेन बराबर होना चाहिए। धर्म के शोकेस मे धन का घुन लग चुका है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हथियार…“।)
अभी अभी # 543 ⇒ हथियार श्री प्रदीप शर्मा
यहाँ किसी अस्त्र-शस्त्र, ब्रह्मास्त्र अथवा तोप-तमंचे-तलवार का ज़िक्र नहीं हो रहा है, यहाँ तक कि एक मामूली से पत्थर को भी हथियार नहीं बनाया जा रहा है। हम उस प्रकृति-प्रदत्त हथियार की यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं जो प्रकृति ने हर प्राणी को केवल अपनी सुरक्षा के लिए प्रदान किए हैं।
‘लाठी में गुन बहुत है,
सदा राखिये संग।
गहर नदी, नाला जहां
तहाँ बचावे अंग। ‘
गिरधर कवि कितने भोले थे!
उन्हें लाठी में भी सब गुण ही नज़र आए, केवल अपनी सुरक्षा के लिए झपटते हुए कुत्ते पर ही उसका प्रयोग करते थे। लाठी से किसी का सर भी फोड़ा जा सकता था, उन्हें यह गुमान न था।
हथियार का आम उपयोग सुरक्षा और प्रहार के लिए किया जाता है। हर जीव को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है। कोई भी साँप अथवा बिच्छू आदतन अथवा इरादतन आपको डसने कभी नहीं आएगा। अपनी सुरक्षा के लिए ज़हरीला डंक उसका मुख्य हथियार है, तीखे दाँत, चोंच और नाखून की भी पशु-पक्षियों के लिए यही उपयोगिता है।
मानव सभ्यता में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए, उसे परास्त करने के लिए हथियारों का उपयोग किया जाता है। जो जीता वही सिकंदर! जीत का नशा और हार का गम। सभ्य-असभ्य कहें या देव असुर, कोई फर्क नहीं।
जानवर, जानवर रह गया, मनुष्य सभ्यता में बहुत आगे निकल गया। देवासुर संग्राम, महाभारत, कलिंग युद्ध, एक नहीं दो-दो विश्व-युद्ध, निस-दिन खून-खराबे, नए-नए हथियार लेकिन क्या कभी पेट भरा ?
और उधर आम आदमी ग़रीबी और लाचारी की लड़ाई में ही संघर्षरत है। आज लड़ाई में हथियारों की इतनी कमी है, कि हथियारों पर ही लड़ाई हो रही है। किसे मालूम था कि बोफोर्स और रॉफेल जैसे अत्याधुनिक हथियार बिना चले ही राजनैतिक लड़ाई के हथियार बन बैठेंगे?
इंसान दिमाग की खाता है! उसे जब लड़ना होता है, वह किसी भी चीज को हथियार बना लेता है। आज के समय में धर्म, राजनीति, साहित्य, समाज-सेवा सब उसके लिए हथियार का काम कर रहे हैं। जहाँ मीठी ज़ुबान तक कटारी का काम कर रही है, नैनों से ही तीर चल रहे हों, आशिक घायल हो रहे हों वहाँ हथियारों की कमी नहीं।
एक आग रोशनी के लिए जलाई जाती है, ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए अलख जगाई जाती है। जिस पत्थर को आपस में रगड़कर अग्नि जलाई जाती है, जिससे महल, मकान, धर्मशालाएं बनाई जाती है, जब वह पत्थर ही हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगे तो बस यही कहा जा सकता है –
‘ये शमा तो जली, रौशनी के लिए,
इस शमा से कहीं आग लग जाए
तो शमा क्या करे। ‘
व्यंग्य भी काँटे से काँटा निकालने वाली एक विधा ही है। विसंगतियों के समाज में एक कड़वी दवा है। यह एक ऐसा हथियार है, जो केवल उपचार के काम आता है। परसाई, शरद, श्रीलाल की पीढ़ी ने इसे व्यंग्य की चाशनी में सराबोर ज़रूर किया लेकिन उनके प्रहार ने सृजन को नई ऊंचाइयां दीं।
यह हथियार घातक नहीं लेकिन इसका निशाना अचूक है। कहीं यह कड़वा नीम है, तो कहीं करेला! आखिर भरवां करैला किसे पसंद नहीं?
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “गजल – जियो और जीने दो…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 205 ☆ गजल – जियो और जीने दो… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
मराठी साहित्य मंडळ आयोजित आठवे साहित्य संमेलन कोरेगाव (सातारा) येथे रविवार दिनांक. २४\११\२०२४ रोजी संपन्न झाले. यात प्रतिष्ठेचा राज्य स्तरीय सावित्रीबाई फुले साहित्य भूषण पुरस्कार सातारा येथील सौ.सुरेखा सुरेश कुलकर्णी यांच्या ‘गुंफण शब्दांची नात्याची’ या पहिल्या काव्य संग्रहाला देण्यात आला.
💐 सौ. सुरेखा कुलकर्णी यांचे ई अभिव्यक्ती परिवारातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी हार्दिक शुभेच्छा. 💐
– संपादक मंडळ
ई – अभिव्यक्ती, मराठी विभाग
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ सागरी किनारा… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता पंडित ☆
हो माहित आहे मला खूप वर्षांपूर्वी आले होते तुला भेटायला मी. पण आजचं येणं काही वेगळंच. पंचवीस वर्ष पुर्वी तुला भेटायला आले होते, तेव्हाची मी या लाटांच्या सारखीच होते, खळाळत, वाहत जाऊन कोठेही आपटणारी.
पण आज नव्याने पाहते मी तुला. किती रे विशाल तुझं हृदय! सर्वांना अखंडपणे सातत्याने सामावून घेत असतो. कुठलाच भेदभाव नाही तुझ्याजवळ.
हो पण तुझी एक गोष्ट वाखाण्यासारखी. तुला जे हवं तेवढंच घेत असतो आणि नको असलेले सगळं किनाऱ्यावर आणून ठेवतोस.
भरती आणि ओहोटी म्हणजे तुझे दोन सुंदर अलंकार. किती खुश असतोस भरतीच्या वेळी. खळाळत फेसाळत येऊन सर्वांना भेटतोस पण नाराज नाही होत ओहोटीच्या वेळेस. त्यावेळेस तेव्हाही तेवढ्याच वेगाने पाठीमागे प्रवाहित होतोस कारण तुला माहितीये पुन्हा तितक्या च वेगाने तुला भरती येणार आहे, आनंदाचे उधाण येणार आहे. हेच शिकले मी आज तुझ्याकडून.
नको असलेल्या सगळ्या नकारात्मक भावना, ती विचारांची जळमट, त्या कटू आठवणी सगळं विसरायचे मला जीवनात. त्या सर्वांचे ऋणी व्हायचे मला ज्यांनी मला जगण्यासाठी भरभरून आठवणी दिल्या. माझे जीवन सुंदर आणि कृतार्थ केले त्या सर्वांचीच मी मनापासून आभारी आहे आणि ऋणी देखील आहे ज्यांनी त्यांच्या असण्याने माझे जीवन सुंदर बनवले.
ओहोटी आयुष्यात जास्त काळ नसतेच कारण मला माहिती आहे पुन्हा भरती येणार आहे. माझ्या आयुष्यात एका नव्या पर्वाची. पण मनात रुंजी घालत राहतील नेहमीच त्या सर्व आठवणी.
आता मी ठरवलंय मला देखील तुझ्यासारखाच व्हायचंय अखंडपणे प्रवाहित होऊन सर्वांनाच आपलयात सामावून घ्यायचंय. सरीतेला सागरात सामावून जायचं असतं, शेवटी ही जगमान्यता आहे. पण मलाच आता सागर व्हायचंय. अथांग, खोल ज्याची उंची कधीच कोणालाच मोजता येणार नाही अशी.
लेखक – अज्ञात
संग्राहिका – सौ. स्मिता पंडित
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ व्यवहारापलीकडचं नातं… भाग – १ – लेखिका – सुश्री मिताली वर्दे ☆ प्रस्तुती – सौ राधिका भांडारकर ☆
भर पावसाळ्यात जून महिन्यात सारिकाची बदली मुलुंड येथे ब्रँचमॅनेजर म्हणून झाली. पावसाची रिपरिप, ट्रेनमधील गर्दी याने सारिका त्रासून गेली. कशीबशी वेळेत बँकेत पोचली. ब्रँचला गेल्यावर ग्राहकांची ओळख, कर्मचाऱ्यांची ओळख, कामाचे हॅण्डओव्हर यात जेवणाची वेळ कधी झाली हे तिला समजलेच नाही. तिने डब्बा आणलाच होता. आधीचे ब्रँचमॅनेजर, श्री गोरे ह्यांच्याबरोबर ती डब्बा खायला बसली. ग्राहकांची गर्दी ओसरली. आता दरवाजात फक्त ‘ती’ एकटी उभी होती. लक्ष जावं किंवा लक्षात राहावी अशी ती नव्हतीच. लांबूनच ती सारिकाला न्याहाळत होती. शेवटी शटर बंद करायची वेळ अली तेव्हा ती निघून गेली. ती कोण? हे सुद्धा सारिकाने विचारलं नाही, इतकी ती नगण्य होती. चार दिवसांनी गोरे सर गोरेगाव ब्रँचला, जिथे त्यांची बदली झाली होती, तेथे निघून गेले. ‘काही अडलं तर नक्की फोन करा’ असं सांगून गेले. जाताना एवढेच म्हणाले ‘त्यादिवशी ती दरवाजात उभी राहून तुमच्याकडे बघत होती, त्या बाईला उभी करू नका. तिच्या डोक्यावर परिणाम झाला आहे. कुठचे तरी जुने पैसे मागत असते व त्रास देते’. मी सुटलो. सारिकाने फक्त ‘हो’ म्हंटल.
दुसऱ्या दिवशी पासून सारिकालाच ब्रॅन्चचे व्यवहार बघायचे होते. पावसामुळे जून, जुलै महिना कंटाळवाणा गेला. ग्राहक आणि बँकेचा धंदा दोन्ही कमीच होत. मात्र झोनची मिटिंग होऊन ब्रॅन्चच टार्गेट दिल गेलं. सारिकाने मार्केटिंग साठी वेगळी टीम बनवली आणि कामाला सज्ज झाली. आठ दिवस लख्ख ऊन पडलं. सारिका एका कर्मचाऱ्याला घेऊन काही मोठ्या ग्राहकांना भेटून आली. अशारितीने कामाला सुरवात झाली. ह्या ब्रॅन्चमध्ये स्त्री कर्मचारी जास्त होत्या. त्यामुळे साड्या, दागिने, ड्रेस, मुलबाळ हे विषय सतत चालू असायचे.
सप्टेंबर महिन्यात येणाऱ्या गणपतीसाठी बऱ्याच कर्मचाऱ्यांनी रजेचे अर्ज दिले. ते समोर ठेऊन काम कोणाला वाटून द्यायची ह्याचा सारिका विचार करत असताना कोणीतरी धाडकन दार उघडून आत आलं आणि धप्पकन समोरच्या खुर्चीवर बसलं. सारिकाने मानवर करून बघितलं तर ती ‘तीच’ होती. पाहिल्या दिवशी दाराकडे उभं राहून सारिकाला न्याहाळणारी. सारिकाने तिला नीट निरखून बघितलं. ती शरीराने कृश, काळीसावळी, गालावर देवीचे खडबडीत व्रण, चेहेर्यावर उदासीनतेची छटा असा तिचा चेहेरामोहरा होता. तिने पांढऱ्या केसांची बारीकशी वेणी घातली होती. वेणीला काळी रिबीन बांधली होती. अंगावर कॉटनची विटकी पण स्वच्छ क्रीम रंगाची साडी, काळ्या रंगाचा ढगळ ब्लाउज व पायात रबरी चप्पल असा एकंदरीत तिचा अवतार होता. तिला अशी अचानक केबिन मध्ये घुसलेली पाहून सारिका म्हणजे मी दचकलेच. बाहेरून सगळे कर्मचारी माझ्याकडे पाहत होते आणि आपापसात कुजबुजत होते. मी अनिच्छेनेच तिला विचारले काय काम आहे? ती म्हणाली ‘माझे हरवलेले पैसे पाहिजेत’. मला काहीच समजेना. पैसे कधी हरवले? किती पैसे हरवले? पैसे कोणी हरवले? असे प्रश्न मी तिला पटापट विचारले. ती म्हणाली दहा वर्षांपूर्वी मी भरलेले पैसे बँकेने हरवले. मी तिला सांगितले पुरावा घेऊन ये आणि माझ्या कामाला लागले. ती तशीच बसून राहिली. मी तिला परत विचारले, आता काय राहील? पुरावा मिळाला की बँकेत ये. तिच्याकडे काहीही पुरावा नव्हता. बँकेचे पासबुक देखील नव्हते. मी तिला सांगितले बँकेचे पासबुक घेऊन ये मगच आपण बोलू आणि आता तू निघू शकतेस, मला खूप काम आहे. ती निराश होऊन निघून गेली. मी तिचे नाव माझ्या डायरीत लिहून घेतले. पासबुकच नसेल तर मी देखील काय करणार होते.
घरोघरी गणपती उत्सव दणक्यात पार पडले. सर्व कर्मचारी सुट्या संपवून कामावर रुजू झाले. कामाने जोर धरला. पंधरा दिवसात मागच्याच प्रसंगाची पुनरावृत्ती झाली ती बाई धाडकन दार उघडून आत आली आणि धप्पकन माझ्या समोरच्या खुर्चीवर बसली. हातातली विटक्या कापडाची पिशवी तिने माझ्या समोर उपडी केली. त्यात बऱ्याचशा पैसे भरलेल्या पावत्या होत्या व एक फाटके आणि भिजून पुसट झालेले पासबुक होते. माझ्या महत्वाच्या कामाच्या मध्येच या बाईने हा पसारा घातला होता. ती बाई मला म्हणाली घरात होत ते सगळं मी शोधून आणलं आहे. आता माझे पैसे द्या. मी चिडलेच, मी तिला म्हणाले, तू हे सगळं इकडेच ठेऊन जा. मला वेळ मिळाला की मी बघीन, ती बाई हुशार होती मला म्हणाली, ‘मला याची पोचपावती द्या’. मी तिला सांगितलं, ‘ह्या चिठ्या उचल, एका कागदावर सगळं व्यवस्थित लिही. त्याची एक प्रत काढून मला दे, मग मी त्या प्रतीवर तुला बँकेच्या शिक्यासह पोचपावती देते. शेवटी ती तो पसारा तसाच टाकून निघून गेली. ह्या वेळी आठवणीने मी तिचा मोबाईल नंबर घेतला. तिच्याकडे असलेला जुना मोबाईल मी पिशवीतले जिन्नस माझ्या टेबलावर ओतताना टेबलावर पडलेला बघितला होता.
मी त्या पावत्या एका लोनच्या रिकाम्या डॉकेट मध्ये भरल्या आणि त्यावर त्या बाईचे नाव लिहून ते डॉकेट मी माझ्या खणात ठेऊन दिले. आठ दिवस मी त्या डॉकेट कडे ढुंकून देखील बघितले नाही. पण का कोण जाणे मला त्या बाईची रोज एकदा तरी आठवण येत असे. एका शनिवारी ग्राहकांची वर्दळ बंद झाल्यावर मी ते डॉकेट खणातून वर काढून टेबलावर ठेवले. कर्मचाऱ्यांना घरी जायला अजून एक तास होता. एका कर्मचाऱ्याला माझ्या केबिन मध्ये बोलावले. मी प्रथम त्या सगळ्या पावत्या डॉकेट मधून टेबलावर ओतल्या. मी आणि त्या कर्मचाऱ्याने त्या तारखे प्रमाणे लावून घेतल्या. ह्या पावत्या दहा वर्षा पूर्वीच्या होत्या. आमच्या ब्रान्चला एवढा जुना डेटा नव्हता. कर्मचाऱ्याने सरळ हात वर केले. ‘मॅडम एवढा जुना डेटा अकौंट्स डिपार्टमेंटला ट्रान्स्फर झाला आहे. आता हे काही मिळणार नाही. त्या दिवशी इथेच ते काम थांबलं.
सोमवारी बँकेत आल्यावर मी अकौंट्स डिपार्टमेंटला फोन लावला. त्यांना सगळी केस सांगितली. मी तारखे प्रमाणे पावती वरील रक्कम एका कर्मचाऱ्याकडून टाईप करून घेतली. दुसऱ्या दिवशी तो कागद मी अकौंट्स डिपार्टमेंटला पाठवून दिला व काहीही झालं तरी ह्या पैशाच्या एन्ट्री शोधायला सांगितल्या. त्या बाईला फोन करून तुझं काम चालू आहे असा निरोप दिला. आता मी निवांत झाले. माझी जबाबदारी मी पार पाडली होती.
माझ्या लक्षात आलं पूर्वीच्या ब्रँच मॅनेजरने एवढे सुद्धा कष्ट घेतले नव्हते आणि त्या बाईला सगळ्यांनी वेडी ठरवलं होत. आठ दिवसाने मला अकाउंट्स डिपार्टमेंटहून एक मेल आलं. त्यात म्हंटल होत. या बाईचा खात नंबर ५००१ आहे आणि या बाईने सगळे पैसे ५०१० या खात्यात भरले आहेत. सगळ्या पावत्यांवर खाते नंबर ५०१० असा घातला असून नाव सीमा कुलकर्णी असं घातलं आहे. ते खाते तर शहा नावाच्या माणसाचं आहे. या शहाने हे पैसे दहा वर्षांपूर्वीच काढून घेतले आहेत आणि खात बंद केलं आहे. मी शहांचा पत्ता पाठवत आहे तुम्ही ब्रान्चला हे प्रकरण सोडवा. अशारितीने अकौंट्स डिपार्टमेंटने हात झटकले.
मला एकदम वैताग आला. या प्रकरणात हात घातला व डोक्याला भलताच ताप झाला. एक मन म्हणाल, ‘तिचीच चूक आहे. खाते क्रमांक चुकीचा का घातला?’ दुसरं मन म्हणाल ‘कर्मचाऱ्याने आणि चेकिंग करणाऱ्या ऑफिसरने देखील का बघितलं नाही?’, त्रास मात्र माझ्या डोक्याला झाला होता.
मी प्रथम कुलकर्णी बाईला बोलावून घेतलं. आज सुद्धा ती त्याच साडीत, तशीच गबाळी आली होती. आज प्रथमच मी तिच्या डोळ्यात माझ्या बद्दलचा विश्वास बघितला. मी तिला अकौंट्स डिपार्टमेंटच लेटर प्रिंट काढून वाचायला दिल.. मी तिला विचारले, ‘तू पासबुक का भरून घेतलं नाहीस?, वेळेत पासबुक भरलं असत तर तेव्हाच समजलं असत. ते वाचून ती रडायला लागली. पैसे भरलेली रक्कम थोडीथोडकी नाही तर सव्वा लाख रुपये एवढी होती.
– क्रमशः भाग पहिला
लेखिका : सुश्री मिताली वर्दे
प्रस्तुती :सौ. राधिका भांडारकर
पुणे
मो.९४२१५२३६६९
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈