हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – बेबस कहानी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक कहानी के पीछे की अप्रतिम विस्मयपूर्ण कहानी  “– बेबस कहानी –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — बेबस कहानी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कथाकार ग्राहम को सम्मानित करने के लिए राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था की ओर से योजना बनने पर संबद्ध अधिकारी उसके आवास पर उससे मिलने पहुँचे। ग्राहम ने खुशी से उनका स्वागत किया। इस बीच ग्राहम की नानी शालीन ने यथा संभव उन लोगों का अच्छा आतिथ्य किया। वे नानी को इस बात के लिए शाबाशी दे रहे थे उनका नाती अपने लेखन से एक खास पहचान रखता है। औपचारिक बातें पूरी हो जाने के बाद वे लौट गये।

शालीन ने अपने नाती ग्राहम से कहा, “मुझे बहुत खुशी हो रही है मेरा नाती इतना बड़ा लेखक है। अब मेरी ढिठाई तो देखो मैं उसे डाँटती रहती हूँ। यह तो मेरी बहुत बड़ी भूल है। सच कहती हूँ नाती, अब से कभी नहीं डाँटूँगी।”

नानी यह तो अपने को छोटा बना कर नाती से बातें कर रही थी। उसका नाती बाहर के लोगों के लिए जैसा भी होता हो, अपनी नानी के लिए तो छोटा बालक था। छोटा सा बालक अपनी बड़ी नानी के कदमों पर अपना जीवन न्योछावर कर दे।

नानी ने कहा उसे डाँटती रहती है, लेकिन ग्राहम को याद नहीं था नानी ने उसे कभी किसी बात पर डाँटा हो। उसने बड़े प्यार और श्रद्धा से कहा, “ मेरी नानी, लोगों की बातों से मुझे तौल कर अपने से दूर तो न करो। बाहर की बातें बाहर के लिए ही ठीक हो सकती हैं। यह तो हम दोनों के अपने प्रेम और रिश्ते का घर है। मेरी नानी खूब बड़ी रहे और मैं छोटा रहूँ। मुझे अपनी नानी से बस यही चाहिए।”

शालीन ने देखा नाती तो रुआँसा हो गया। उसने नाती का दिल दुखाया हो तभी तो ऐसी हालत पैदा हो रही थी। जीवन की अनुभवी नानी ने समझ लिया जो न बोला जाना चाहिए वही बोले जा रही है। नानी के साथ तो रोज़ नाती का संवाद चलता था। न नाती बोलने में अटकता था और न ही नानी को लगता था बोलने में किसी प्रकार की अति कर रही है। आज हुआ कि विद्वानों के अपने घर आने से मानो नानी को ताव आ गया था। उसके ताव का मतलब था भी क्या, बस अपने नाती का कद बड़ा रहे। बल्कि उसका कद तो बड़ा ही है। नानी बस अपने नाती के बड़े कद को देख कर अपने आपको सौभाग्यशाली समझने का गौरव अनुभव करती रहे। 

नाती को सम्मानित किया जाने वाला था तो नानी उसी बात को आगे बढ़ाने के लिए बोली, “मेरे नाती, बड़े काम के लिए जाने वाले हो, नया कपड़ा जरूर सिलवा लेना।”

बातें कुछ हल्केपन पर उतर आने से ग्राहम को अच्छा लगा। नानी उसके कपड़े और खाने की बात करती रहती थी। वह ठीक से खा रहा हो, लेकिन नानी की शिकायत होती थी पूरा पेट तो खाया ही नहीं। वह नया कपड़ा पहने तो नानी के लिए तत्काल मानो वह कपड़ा पुराना हो जाता था। ग्राहम के लिए यही सच्चा सुख था। नाती को अभी बहुत कुछ करना है। उसकी नानी उसके हर काम की गवाह हो। नानी जब कहती थी तुमने अपना नाम यशस्वी बना लिया तो उसे लगता था इससे बड़ा अपने जीवन का और कोई पुण्य हो नहीं सकता। 

पढ़ी लिखी नानी ने अपने नाती को पाल पोस कर बड़ा करने के साथ अपने पास बिठा कर घंटों पढ़ाया था। ग्राहम के माँ – बाप न होने से तब तो ऐसा हुआ उसकी नानी ने अपने नाती को अपनी सामर्थ्य के अनुसार मानो अपना ज्ञान उस पर वार दिया था। उसी नानी के घर में उसका नाती ग्राहम लेखक के रूप में उभरता गया और नानी उसके उत्कर्ष से फूला न समाती थी।

नानी इस बात की प्रत्यक्ष गवाह हुई नाती की कहानियाँ छपती थीं और उसके पाठक उसे पत्र लिखते रहते थे। नाती घर पर न हो तो डाकिये के हाथों से नानी स्वयं पत्र लेती थी। उसने नाती का पत्र कभी पढ़ा नहीं, लेकिन पूछती अवश्य थी लोग क्या लिखते हैं? लड़कियों के पत्र होने से नानी हँसी से कहती थी अब शादी के लिए सोचा करो।

दोनों सम्मान वाली बातें करते रहे। सम्मान की राशि दस लाख थी। नानी बल दे रही था बहुत सारा पैसा ग्राहम की शादी के लिए सुरक्षित रख लेना होगा। सहसा दोनों के बीच बातें उस मोड़ पर आने लगीं संसार के हजारों लोग ग्राहम की कहानियाँ पढ़ते हैं, लेकिन उसकी नानी ही पढ़ने से वंचित रह जाती है।

ग्राहम ने कहा, “अपने हिसाब से पढ़ा करो। तुम पढ़ो तो मेरे लिए बहुत ठीक होगा। तुम मार ठोंक कर कह सकती हो अरे पगले तुमने यह क्या लिखा है।”

नानी ने उसे याद दिलाया शुरु में तो खूब पढ़ती थी। परंतु उसे लगता था नाती ने विद्वानों के लिए लिखा है और वह है कि पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा करती है। वह इस प्रसंग में विराम लगाने के उद्देश्य से बोली, “अब छोड़ो इन बातों को नाती।”

परंतु नाती नहीं छोड़ता। आज पहली बार नानी के साथ उसकी कहानियों के बारे में इतनी गहनता से बातें हो रही थीं। उसे लग रहा था उसके कहानी – लेखन की एक बहुत बड़ी खाई को पाटा जा रहा है। हालाँकि वह खाई की निश्चित परिभाषा न जान पाता, लेकिन न जानने में भी उसे एक अजीब से आनन्द की अनुभूति तो हो ही रही थी। उसे जैसे दैवी प्रेरणा हुई और उसने नानी से कहा, “मैं केवल तुम्हारे लिए एक कहानी लिखूँगा नानी।”

नानी को भी शायद दैवी प्रेरणा ही हुई और उसने कह दिया, “लिखो कहानी मेरे लिए नाती। परंतु कहानी मेरे स्तर की हो। शब्द ऐसे हों जो मैं बोलती हूँ। अच्छा होगा मेरे अपने वातावरण पर लिखी हुई कहानी हो। मेरा गाँव हो, मेरे आस पास के लोगों का जीवन हो। मेरे नाती, ऐसी ही कहानी लिख कर मुझे थमाओ।”

यह एक बहुत बड़े रहस्य के उद्घाटन की पूर्व पीठिका थी। विचित्रता यह होती कि जो ग्राहम भाषा, विचार और प्रस्तुति में विद्वता का शिखर होता था वह ठेठ भाषा, गँवई चित्रण और मासूमियत से ओत प्रोत कहानी के लिए नानी के सामने स्वीकृति में सिर हिला रहा था। नानी ने जैसे यहाँ भी दैवी प्रेरणा से संचालित हो कर उसे आशीर्वाद दिया और मानो कहा मेरा अपना जो एक युग अतीत हो गया उसे वर्तमान बना कर मुझे धन्य कर दो मेरे नाती !

अपने आंगन के देवदार की छाया में बैठे हुए ग्राहम को लग रहा था वह गलत जगह पर बैठा है। उसने गरमी से निजात पाने के लिए इस पेड़ को चुना था। परंतु अब जब यहाँ आ बैठा तो उसे शिकायत सी बन आयी इस पेड़ की छाया तो शायद उसे और तप्त कर रही है। परंतु वह समझ भी रहा था ऐसी शीतल छाया के प्रति उसकी शिकायत का कोई मतलब नहीं। वास्तव में परेशानी तो उसकी अपनी अंतरात्मा से थी। तब तो वह जहाँ – जहाँ भी जाता अपनी ही परेशानी का शिकार बना रहेगा।

ज्ञान का एक पाठ यह तो होता ही है आदमी अपनी परेशानी से भाग कर भी भागा नहीं होता, क्योंकि जो शरीर में है वह तो साथ ही सफ़र कर रहा होता है। भागने में अपने कष्टों से मुक्ति होती तो आदमी को अपना केंसर छोड़ कर भागते देखा जाता। वह खुशी के मारे कह रहा होता मैंने तो अपने केंसर को बहुत पीछे छोड़ दिया और स्वस्थ शरीर से कहीं अपना नया ठिकाना ढूँढने भागा चला जा रहा हूँ। अपने आप से भागना सहज ही होता तो आदमी अपनी गरीबी से भाग कर कहीं दूर धनवानी का आनन्द पा रहा होता। आदमी के जीवन में फाँसी की नौबत ही न आती। गले में रस्सी पड़ रही हो कि आदमी उस रस्सी को सरका कर प्यार से गा रहा होता मैंने फाँसी से दरका कर अपना जीवन सुन्दर बना लिया।

ग्राहम अब तक की अपनी लिखी हुई कहानियों के बूते अच्छा कहानीकार माना जाता था। कहानी- जगत में कहा जाता था वह अब से कोई कहानी न लिखे तो भी उसका नाम कहानी – लेखक के रूप में सदा के लिए रह जायेगा। किंतु कहानी – लेखन के मामले में ग्राहम अपनी पीड़ा जानता था। वह गणित बनाता था अभी मौत न आने से अपने जीवन के दिन शेष हैं तो उसे तो अभी बहुत सारी दमदार कहानियाँ लिखनी हैं। वह अगली कहानियों की इसी प्रबल उत्कंठा में अपनी पिछली कहानियों के साये को पार कर के बहुत आगे निकल जाना चाहता था।

परंतु कहानी – लेखन का इतना बुलंद हौसला रखने पर भी क्या बात थी उसे अपनी नानी के लिए कहानी का कथ्य सूझ नहीं पा रहा था। मान लें, शेष जीवन के गणित से बीस कहानियों का मानचित्र मन में गढ़ लिया, लेकिन कल्पना की गाड़ी तो एकदम यहीं अटक पड़ी है। यही ग्राहम की परेशानी थी और उसने समझ लिया इस का निदान देवदार की छाया नहीं है। बल्कि छाया को तो अब वह भूल जाये और खुली चड़चड़ाती धूप में आ कर देख तो ले कहानी का सूत्र यहाँ पकड़ में आ जाने वाला हो।

पिछले दिनों की तरह आज भी तमाम गरीब उसे दिखाई दे रहे थे। एक आदमी दोनों पैरों से पंगु था। वह भीख मांग रहा था, लेकिन उसे किसी से भीख मिल नहीं रही थी। जहाँ तक ग्राहम को याद था उसने ऐसे बेबस आदमी पर अब तक कहानी लिखी नहीं थी। उसमें उमंग पैदा तो हुई कहानी का कथ्य मिला, लेकिन वह नये सिरे से उदास हो गया। न जाने क्यों इस कथ्य ने जैसे उसका साथ छोड़ दिया और अब बल लगा कर वह लिखना भी चाहता तो कहानी में वह आत्मा न आ पाती जो उसे कहानी – लेखक में अद्भुत बनाता था।

नानी की उम्र की एक वृद्धा उसके सामने से गुजरी तो उसने सोचा इससे अपनी नानी का साम्य बैठने से यही मेरी कहानी की पात्र है। आगे इसका नाती इन्तज़ार कर रहा होगा। इनकी अपनी मोटर है। नाती प्यार से दरवाज़ा खोल कर कहेगा बैठो नानी। नाती ने मिठाई खरीदी हो। जाने से पहले कहेगा खा लो नानी। परंतु नानी को अपने खाने की चिंता कहाँ। वह तो बस नाती को खाने के लिए कहती रह जायेगी। ग्राहम की अपनी स्नेहिल नानी भी तो यही होती है। किंतु ग्राहम ने जैसा सोचा वैसा नहीं था। दो आदमी वृद्धा से बातें करने लगे। वृद्धा खिलखिला कर बाज़ारू हँसी हँस रही थी। पैसे की बात हो जाने पर वृद्धा ने हामी भरी और दोनों के साथ एक संकरी गली में चली गयी। ग्राहम को इस दृश्य से घीन आ रही थी। क्या सोच कर कहानी का ताना –  बाना बुन रहा था और वृद्धा ऐसी हुई मानो कह रही हो मेरे वेश्या जीवन पर लिख सको तो लिख लो। ग्राहम ने तो वृद्धा को स्नेहिल नारी बना कर अपनी कहानी में उकेरने का खयाल किया था। अब जैसे उसे पत्थर से वास्ता पड़ रहा था। उसने वृद्धा को मन से हटाया और इस तरह एक स्नेहिल कहानी आकार लेते – लेते न जाने गलीज वासना के किस गलियारे में वह खो गयी। 

ग्राहम सारा दिन कहानी के लिए भटकता रहा, लेकिन निराशा ने उसे निराशा पर ही पहुँचा कर जैसे उससे कहा नानी के सामने तुम्हें इसी तरह खाली हाथ जाना है। घर लौटने पर उसने नानी से बातें करने से अपने को बचाया। नानी ने खाने के लिए कहा तो मन मारे किसी तरह खाया और अपने कमरे में जा कर पलंग पर उठंग गया। एक टिस ने जैसे उसे रौंद डाला। कथ्य मिल गया होता तो इस वक्त वह नानी के लिए कहानी लिख रहा होता। वह सोचता रहा कहीं अपने लेखन का अंतिम पड़ाव तो न आ गया? यदि अंतिम पड़ाव का यह दंश सत्य हो तो क्या, वह अपनी नानी को उसकी कहानी देने के योग्य हो ही न पायेगा? तब तो उसे लग रहा था न वह जीवन से रहा और न ही मृत्यु से। तो फिर कहाँ से रहा? द्वंद्व जैसी स्थिति में वह स्वयं से संवाद कर रहा था।

“मुझे अपनी नानी के लिए कहानी लिखनी ही है।”

“लिखने का मेरा हौसला इस तरह खत्म नहीं हो सकता।”

“अपना हौसला बनाये रखने के लिए मुझे कुछ करना तो होगा।”

“कहीं से भी तो लाऊँ अपनी नानी की कहानी का जगमग करता आलोक।”

“मेरी बेचैनी अब तो बहुत ही बढ़ती चली जा रही है।”

“सारा दिन भटकते निकल गया।”

“दूर – दूर हो आया हूँ, लेकिन लगता है शिथिल हुए चुपचाप एक जगह पड़ा हुआ हूँ।”

“मेरी नानी ने मुझसे कह दिया उसके लिए कहानी लिखूँ, लेकिन वह मुझ पर बल डालने वाली न होगी। मतलब मैं लिखूँ तो अपने मन से और न लिखूँ तो भी अपने मन से।”

“किंतु कहानी के लिए मेरा मन तो बहुत विकल है। ऐसे में न लिखने का सवाल नहीं होता।”

वह पलंग पर गया तो इसी आत्म संवाद के बीच उसे नींद आ गयी। उसे एक स्वप्न आया। स्वप्न का संबंध कहानी के कथ्य से ही था। वह स्वप्न में अपनी नानी की कहानी के लिए साँप बिच्छू तक से अपना संमार्ग पूछता फिर रहा था। रात का अंधेरा अपना सीना चीर कर उसे अपनी नानी को थमाने के लिए एक कहानी देने की कृपा तो करे।

स्वप्न उसे एक गुफ़ा में ले गया जहाँ एक साधु तपस्या कर रहा था। उसके शरीर में घास उग आयी थी। यह इस बात का संकेत था साधु बहुत दिनों से तपस्या में लीन था। ग्राहम स्वप्न में भी प्रज्ञा से परिपूर्ण था। उसे लगा साधु ने अपना अनमोल जीवन नष्ट कर दिया। वह ऐसे ही बैठा रह जायेगा और एक दिन उसके शरीर में उगी हुई घास बढ़ कर उसे पूर्णत: ढक देगी। किसी को पता नहीं चलेगा इतनी विशाल गुफ़ा में एक साधु घास के नीचे दब कर मरा पड़ा हुआ था।

वह तपस्या से संसार को चमत्कृत करने आया था, लेकिन एक जुगनू भी न बन पाया और वक्त ने उसे सोख लिया। उसकी भावना होगी तपस्या के पुण्य से लोगों का हित करेगा, लेकिन अब लोग कहाँ जान पायेंगे उनके लिए जो मसीहा जन्म ले रहा था उसका जन्म ही उसके लिए मृत्यु का पर्याय हुआ। साधु भगवान का खोजी हो तो भगवान भी उससे पूछने न आया तुमने मेरी अनुभूति की थी कि नहीं?

ग्राहम के लिए यहाँ कहानी तो और भी न हो सकती थी। साधु के रूप में नाश का जो दृश्य उसके सामने झिल मिल कर रहा था ऐसे कथ्य से अपनी कहानी का संसार रचना उसके लिए तो जैसे नींद में भी संभव हो नहीं पाता। बात तो उसकी नानी की कहानी को ले कर थी। तब तो यहाँ का परिदृश्य एक जंजाल ही हुआ।

कहानी के लिए तड़प में पड़े हुए ग्राहम ने स्वयं में प्रतिज्ञा कर ली और थोड़ी माथा पच्ची करने पर नानी को देने योग्य कहानी न मिलेगी तो वह आत्म हत्या कर लेगा। वास्तव में अपनी नानी उसे बहुत प्रिय है, अपनी जान से भी ज्यादा। उसने देख लिया था नानी अपनी कहानी के लिए किस हद तक उत्सुक थी। फिर भी नानी कहेगी नहीं। नानी की चुप्पी में ही मानो यह आवाहन हो उसे अपनी कहानी तो मिले।

ग्राहम की ओर से जान देने की प्रतिज्ञा की देर थी कि उसके सामने ज़हर का दरिया उग आया। चुटकी भर ज़हर हो तो बच जाने का संदेह होता। विशाल दरिया होने से मौत का जैसे लिखित ताकतवर प्रमाण हुआ इससे बचा नहीं जा सकता। ग्राहम को खुशी हुई मौत के दरबार में उसकी इतनी प्यारी सुनवाई हो रही थी। उसने दस तक गिनने का एक हठ अपने ओठों पर रख लिया। दस पर आ जाता और कहानी अब भी न मिली होती तो मौत का दरिया सुनता वह छपाक से उसमें कूद ही तो पड़ा। परंतु ग्राहम के लिए अभी मौत आने वाली नहीं थी। बल्कि उसकी नानी अपनी कहानी के लिए उसे बचा लेती। दस की गिनती पूरी होने से पहले मौत का दरिया अंधेरे में न जाने कहाँ विलीन हो गया। ग्राहम को कहानी मिल गयी और अब उसका दायित्व होता कहानी लिखने में अबाध गति से सक्रिय हो जाये।

स्वप्न ज्यों ही पूरा हुआ उसकी नींद टूट गयी। रात अभी तो आधी भी न बीती थी। ग्राहम के लिए अच्छा ही हुआ, क्योंकि रात तो उसके लिखने के लिए ही होती थी। कहानी लिखने का ताब उसे कुछ सोचने पर मज़बूर कर रहा था। वह ऐसा तो न मानता भगवान से लड़ कर कहा होगा मुझे लेखक बना कर धरती पर भेजो। उसने तो इसी धरती पर लेखन के प्राण तत्व की अपनी उसाँसों में अनुभूति की थी। उसकी पहली कहानी सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध थी। उसने गरीबों के हक में पहली कहानी लिख कर धनवानों से एक तरह से दुश्मनी मोल ली थी जिसकी चिनगारी आज भी तप्त चली आ रही थी। उसे जान से मारने की धमकी दी जाती थी, लेकिन वह लेखन के अपने आत्म सिद्धांत से तिल भर भी विमुख होता नहीं था।

निश्चित रूप से आज की उसकी कहानी अब तक की कहानियों से बहुत ही हट कर होती। नानी से उसका यही तो प्रण था। तब तो उसे लग रहा था यही कहानी उससे छूटी हुई थी और आज स्वप्न की ओर से जैसे एक वरदान हुआ जिसमें कहा गया, “ग्राहम यह कहानी लिख दो, तुम्हारी आत्मा में जाने – अनजाने कोई टिस चली आ रही हो तो उसका निदान हो जायेगा।”

परंतु इस कहानी के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ था। नानी को कहानी देने के लिए जब वह स्वयं में प्रतिज्ञा गढ़ रहा था तभी जैसे निश्चित हो गया था वह एक बहुत बड़े रहस्य के उद्घाटन की पूर्व पीठिका थी। यह जो कहानी उसे मिली यह उसके अपने ही जीवन का एक बहुत ही पीड़ादायी अध्याय था। किंतु इस कहानी को न जानने से वह इसे कल्पना से लिखता। 

स्वप्न से अर्जित कहानी का संबंध पर्वत के उस पार रात के गहन अंधेरे से था। यहाँ भी तो रात ही थी। बस कमरे का प्रकाश कुछ दूर तक उजास बिखेर रहा था। ग्राहम कमरे के उस प्रकाश वृत्त से हट कर बाहर अंधेरे में आ खड़ा हो जाये तो इसी अंधेरे में दूर वह पर्वत होगा जिसके उस पार उसे अपनी ही कहानी मिली थी। अपनी कहानी में उसकी माँ थी, उसकी नानी थी और वह स्वयं था। नानी ने भाषा सहज रखने के लिए कहा था। तब तो भाषा नानी की ही होती। बस लेखन का दायित्व ग्राहम का अपना होता।

ग्राहम ने ज्योंही कहानी लिखना शुरु किया उसकी आँखों से आँसू बह पड़े। ऐसा नहीं कि लिखते वक्त उसे रोना न आता हो। रोना तो बहुत आता था, लेकिन इस तरह आँसू बह कर कागज़ पर टप – टप करते चूते नहीं थे। उसने अपने को संभालने का प्रयास किया तो यह संभव न हो पाया। तब तो उसे बहुत सोचना पड़ा यह क्या हो रहा है, हर शब्द लिखने की प्रक्रिया में मन बहुत रो लेना चाहता है। हर वाक्य – संरचना के बीच अपनी पूरी काया और अपनी संपूर्ण अंतश्चेतना बिलख कर कहने में लगी हुई हो ग्राहम ठहर कर आँसू बहा लो इसके बाद लिखने में तल्लीन होना। ग्राहम अपनी इस कहानी के बारे में अभी कोई निर्णय तो न ले सकता यह कैसी कहानी होगी। परंतु वह अपने को सफलता और असफलता जैसी दो धारों में न ले जा कर अपने लिए इतना ही पर्याप्त मान रहा था उसके हाथों वह कहानी जन्म लेने वाली थी जो उसकी नानी के लिए उसकी अपनी आत्मा से उद्भूत हुई थी। 

ग्राहम ने अपनी नानी से जाना था उसकी माँ का नाम ‘शेली’ था। यह नाम ग्राहम के लिए अपार अतीव बड़ा प्यारा नाम था। उसने अब तक अपनी किसी कहानी में इस नाम का उपयोग नहीं किया। भद्र महिलाओं को अपनी रचनाओं में पात्र बनाते वक्त उसे बहुत बार लगा इनमें से किसी एक को शेली नाम तो दे ही दे। जैसी उच्च नारी, वैसा महान नाम। पर उसने शेली नाम को बचाये रख लिया। एक तो उसके खयाल में होता था शेली नाम तो बस उसकी माँ का नाम हो सकता है। दूसरी जो बात थी वह ग्राहम को पीड़ा दे जाने वाली बात थी। शेली नाम चाहे मरियम जैसी देवी को समर्पित कर रहा होता, रचना – प्रक्रिया के बीच माँ की याद बनी रहती और मन में रोता सा प्रश्न बना होता आज अपनी माँ क्यों नहीं है? उसने इस बार किसी प्रकार की सोच में पड़ कर आकलन करना ज़रूरी नहीं माना कि एक  बार देख तो ले जो कहानी लिखने जा रहा है क्या इसमें शेली नाम का उपयोग कर सकता है? बल्कि नानी के लिए कहानी होने से शेली तो जैसे उसकी बेटी हो जाती। उसने शेली नाम लिया तो आँसू के लिए लिया। यह कहानी जितना चाहे उसे रुला दे, इसके लिए वह तैयार था। माँ को शायद बहुत दिनों से याद नहीं किया। यही वक्त है, माँ को खूब याद कर ले, पूज ले अपनी माँ को !

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ग्राहम की माँ शेली, नानी, उसके नाना लेबोने और पिता जेरोम की कहानी बड़ी विस्मयकारी थी। लेबोने नाम के आदमी से शादी होने पर नानी ससुराल आयी। उनके घर बेटी का जन्म हुआ जिसका नाम शेली रखा गया। बेटी के जन्म के कुछ ही दिनों बाद लेबोने को सेना में भर्ती होना पड़ा। नियम ही ऐसा था देश के हर पुरुष को दो साल के लिए आर्मी में जाना पड़ता था। परंतु वह छावनी से युद्ध के लिए जाने पर वापस लौटा नहीं था। उसे मृत मान लिया गया। कभी दो साल बीत जाते और वह घर आता। परंतु मारा गया हो तो दो साल यहाँ बीत गये और वह वाकई नहीं आया।

शेली की माँ को पेंशन मिलना चाहिए था, लेकिन कागज़ में गड़बड़ी हो जाने से उसका परिवार पेंशन से वंचित रह गया था। इस तरह परिवार में विपतियाँ आने से शेली की माँ बहुत ही टूट गयी थी। किंतु उसने हौसला नहीं छोड़ा। उसकी बेटी शेली स्कूल में पढ़ती थी। माँ की बहुत चाह थी अपनी बेटी पढ़ कर कहीं अच्छी नौकरी पर पहुँचे।

शेली ने बड़ी होने पर अपनी माँ की इच्छा पूरी की। वह नर्स बनी। अस्पताल में काम करने के दिनों ज़ेरोम से उसकी शादी हो गयी। ज़ेरोम की अपनी एक दुकान थी जो खूब चलती थी। परंतु उसके दो सौतेले भाई थे जो उससे लड़ते रहते थे। ज़ेरोम तरक्की कर रहा था जो दोनों भाइयों से देखा न जाता था। अपने परिवार से इस तरह वैमनस्य चलने से ज़ेरोम शेली की माँ के यहाँ आ कर बस गया।

दूकान ज्यादा दूर न होने से वह यहीं से अपनी दुकान आता – जाता था। एक दिन वह दुकान पहुँचा तो देखा दुकान जल रही थी और लोग आग बुझा रहे थे। वह आग बुझाने के लिए आगे बढ़ा कि लपटें उस पर छा गईं और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। लोगों ने देखा था ज़ेरोम का छोटा सौतेला भाई इधर साइकिल पर आया था। उसने दुकान के एक किनारे में जा कर छत पर हथगोला फेंका था और भाग गया था। लोगों को पुलिस से यह कहना पड़ा तो वे कहने से पीछे नहीं हटे। वह गिरफ़्तार हो गया और उसे लंबी सज़ा हो गई। उसके दो बेटे थे। उन्होंने यह न देखा उनके पिता ने कैसी करतूत की थी। उनकी सोच एकपक्षीय होने से वे अकसर शेली के घर आ कर गाली – गलौज कर जाते थे। उनसे परेशान माँ – बेटी ने वह जगह छोड़ दी और दूर विशाल आबादी वाले एक गाँव के पर्वत की तराई में घर ले कर रहने चली गईं। शेली गर्भवती थी। उसने नये घर में पुत्र को जन्म दिया। नानी अपने नाती की देखभाल करती थी और शेली अस्पताल की अपनी नौकरी से जुड़ी रही।

एक दिन शेली की माँ अपनी एक बीमार चचेरी बहन को देखने गयी कि पर्वतीय इलाके में बहुत बरसात होने के कारण वह दो चार दिन बाद ही लौट पाती। यहाँ शेली को अस्पताल की अपनी नौकरी पर नियमित जाना तो पड़ता। जब तक माँ न लौटती वह थोड़ी दूर पर्वत की उसी तराई में रहने वाली एक महिला के यहाँ अपने बेटे को छोड़ कर नौकरी पर जाती थी। महिला बहुत ठीक से उसके बेटे की देखभाल करती थी। शेली की माँ की चचेरी बहन का कोई न होने से वह सोचती थी अपनी माँ से कहेगी उसे यहाँ ले आये। वह नर्स होने से उसके रोग का बहुत हद कर अपने हाथों उपचार कर सकती थी। किंतु शेली का सोचा पूरा न हो पाया। उसे सूचना पहुँची उसकी मौसी की मृत्यु हो गयी। उसकी माँ वहीं थी। शेली ने वहाँ जाने के लिए नौकरी में एक दिन के लिए छुट्टी मांगी जो उसे मिल गयी। अरथी सुबह दस बजे उठने वाली थी इसलिए शेली को यथा शीघ्र घर से निकलना था।

सुबह कुछ – कुछ अंधेरा था। शेली अपने बेटे को उस महिला के पास छोड़ने जा रही थी कि देखा एक आदमी भागा चला जा रहा था। उसने कुछ रुक कर शेली को अपने भागने का कारण बताया और उसे सलाह भी जितनी जल्दी हो सके अपने घर चली जाये।  चिड़ियाघर का एकाकी शेर भाग गया था लेकिन वहाँ के कर्मचारियों ने यह सूचना आस पास के इलाकों में प्रसारित करने में देर कर दी थी। इधर शेर होता नहीं था। उस शेर को कहीं से ला कर यहाँ चिड़ियाझर में रखा गया था। जंगल उस शेर का राज होने से फरार होने पर उसने अब जंगल पाने के साथ आस – पास के गाँवों को भी जैसे अपने कब्जे में कर लिया था।

शेली अपने बेटे को गोद में ले कर झपटते चली जा रही थी कि उसे लगा कुछ अनहोनी सी घटित हो जाने वाली है। दूर से शेर की दहाड़ कानों में पड़ने से उसने समझ लिया था यही अनहोनी का संकेत है।

चिड़ियाघर का वह एकाकी शेर शेली का देखा हुआ था। शेर से खाली अपने गाँव का भूगोल जानने से उसके मन में एक ही झटके से आ गया था वही शेर इधर काल बन कर घूम रहा है। एक आदमी ने उससे कहा भी तो यही था। इस बीच शेली का बेटा रोने लगा था। उसे चुप कराने का शेली के पास एक ही नुस्खा था, उसने अपना स्तन अपने बेटे के मुँह से लगा दिया था। दूध मुँह में आने से बेटा शांत हो गया था। जानलेवा कष्ट का अनुभव करने वाली शेली सोच में पड़ी क्या माँ – बेटे के लिए विपदा ने इस तरह बाहें फैला लीं कि वह अपने बेटे को ले कर न आगे बढ़ सकती है और न पीछे लौटने के लिए कोई विकल्प शेष रह पाया है?

कुछ – कुछ अंधेरा था तो अब छँट ही जाता। तकदीर कुछ देर साथ दे तो सूरज का प्रकाश फैलने ही वाला है। पर्वत के चप्पे – चप्पे में प्रकाश तिर रहा होगा और उसी अनुपात से अपने भीतर साहस भी बढ़ता जायेगा। यह पर्वतीय रास्ता चनलसार होने से लोग आने – जाने लगेंगे और माँ – बेटे का संकट अपने आप तिरोधान हो जाएगा।

शेली रास्ते से हट कर झाड़ी में छिप गयी थी। उसके थरथराते ओठों पर भगवान के लिए प्रार्थना थी और उसके दोनों हाथ अपने बेटे की सुरक्षा के लिए जैसे स्वयं में एक चट्टान हो जाना चाहते थे। परंतु उतनी सारी सोच, इतना कंपन, अंधेरे का छँटना, सूरज की प्रतीक्षा, लोगों के लिए राह तकना, बचाव के लिए इतनी प्रार्थना सब पर तो जैसे तुषार के झोंके टूट रहे थे और इसी अनुपात से शेली का मबोबल भी खंडित होता चला जा रहा था। परंतु वह अपने मनोबल से किसी भी कोण से पस्त न पड़ना चाहती। इस मनोबल में जर्जरता के सिवा कुछ भी न होने के बावजूद यह एक माँ की शक्ति का अमोघ मंत्र था।

माँ को कुछ हो जाये तो हो जाये, उसके बेटे पर किसी प्रकार का संकट न टूटे। शेर की आवाज़ करीब आ रही थी और शेली को लगता था अब शेर और उसके बीच का फासला खत्म होने ही वाला है। अपने बेटे की सुरक्षा चाहने वाली माँ को अब अपनी ओर से कुछ तो करना ही पड़ता। शेर माँ – बेटे के पास आता तो दोनों पर एक साथ झपटता। शेली ने किसी तरह दिमाग से काम लिया। उसने बेटे को बचाने के उद्देश्य से उसे वहीं झाड़ी में छोड़ा और स्वयं रास्ते के किनारे आ कर खड़ी हो गयी। शेर उसके पास पहुँच ही गया। उसने पहचान लिया इसी शेर को चिड़ियाघर में देखा था। शेली खड़ी थी तो खड़ी ही रही। उसकी एक आँख शेर पर थी और एक आँख सुरक्षा का कवच बन कर अपने बेटे पर टिकी हुई थी। शेर नाक उठाये जिस तरह सूँघ रहा था शेली को लगा उसके बेटे की गंध उसे मिल गयी है। शेली शेर से लड़ पड़ी। शेर उसे अपने जबड़ों में उलझाये पीछे लौट गया।

ग्राहम ने सुबह अपनी लिखी हुई कहानी नानी के हाथों में रखी जो सहज भाषा में होने से उसके लिए पढ़ना वाकई बहुत आसान हुआ। वह शुरु की कुछ पँक्तियाँ पढ़ने के बीच तत्काल पन्ने पलट कर कहानी के अंत में पहुँच गयी। कहानी तो उसके अपने ही सत्य पर आधारित थी। तब तो यह कितना बड़ा संयोग हुआ रात के वक्त ग्राहम को यही कहानी मिली थी और उसने सारी रात जाग यह कहानी लिखी थी।  

ग्राहम की स्वयं से प्रतिज्ञा थी कहानी न मिले तो वह आत्म हत्या कर लेगा। आत्म हत्या की उसकी उसी प्रतिज्ञा को खंडित करने के लिए यह कहानी उसकी आत्मा में उतर गयी थी।

सूर्योदय होने पर लोग रास्ते पर जा रहे थे कि देखा था एक बालक ज़मीन पर पड़े रो रहा था। एक स्त्री ने पहचान लिया था यह तो शेली का बेटा था। वहाँ खून के चकते होने से लोग समझ गये थे शेर माँ को ले गया और उसका बेटा बच गया था! परंतु यह तो ग्राहम के बचपन की कहानी थी। उसकी नानी ने इस सोच से उसे सुनाया नहीं था वैसी विदारक घटना को जानने से उसे बहुत आघात पहुँचता। एक साल की उम्र से अपनी नानी की छत्रछाया में पलने वाले ग्राहम ने अपनी कल्पना से यह कहानी लिखी थी। 

— समाप्त 

© श्री रामदेव धुरंधर

28 – 09 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि ? ?

यात्रा में संचित

होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल..,

विकल्प लागू होते हैं,

सिक्के के दो पहलू होते हैं-

सारे शून्य मिलकर

ब्लैकहोल हो जाएँ,

और गड़प जाएँ अस्तित्व,

या मथे जा सकें

सभी निर्वात एकसाथ,

पाएँ गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे-

शून्य मथने से ही

उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था

ब्रह्मा का अस्तित्व,

आदि या इति,

स्रष्टा या सृष्टि,

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Travelogue ☆ Holy Dip of Faith: Mahakumbh 2025 : # 11 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

 

☆ Travelogue Holy Dip of Faith: Mahakumbh 2025 : # 11 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Standing at the confluence of the sacred rivers—the Ganga, Yamuna, and the mystical Saraswati—we felt an overwhelming sense of gratitude. The Mahakumbh Mela 2025 had beckoned us to Teerthraj Prayagraj, offering a once-in-a-lifetime opportunity to immerse ourselves in the celestial waters during the most auspicious planetary alignment, one that will reoccur only after 144 years.

(Beautiful sunrise as we move towards the Sangam during Mahakumbh 2025.)

As the first light of dawn painted the horizon, we embarked on our journey to the Sangam. An e-rickshaw carried us part of the way before we rode pillion on a bike, weaving through the throng of pilgrims making their way to the holy waters. The air was thick with devotion, the silent hum of prayers blending seamlessly with the awakening city.

(An early morning boat ride to the confluence of the holy rivers Ganga, Yamuna and Saraswati in Prayagraj during the Mahakumbh 2025.)

The boat ride to the Sangam was nothing short of enchanting. The river mirrored the sky, rippling with hues of crimson as the sun emerged from behind the clouds. Our boatman, a man of simple wisdom, had spent his life ferrying seekers to the confluence. His words carried the weight of timeless knowledge, as if the river itself spoke through him. Time seemed to dissolve as we floated over the vast, flowing expanse—deep, relentless, and eternal. The moment we reached the Sangam and took the sacred dip, an indescribable stillness embraced us. In that instant, all doubts and anxieties melted away. The water was cold, yet it carried a warmth that seeped into the soul, cleansing not just the body but the spirit. It was bliss—pure, untainted, divine.

(Siberian birds on the river Yamuna during Mahakumbh 2025.)

Emerging from the waters, we were awestruck by the endless procession of humanity moving patiently towards the holy confluence. Men, women, and children—many barefoot, many elderly—walked with unwavering faith, their hearts pulsating with devotion. Some had travelled for days with nothing but their trust in the divine to sustain them. What unseen force propels these millions to undertake such an arduous journey? What unshakable belief gives them the strength to surrender their worldly worries at the feet of the Almighty?

The administration had done its best to accommodate the vast influx of devotees. Temporary ‘raen baseras’ provided free lodging, while community-run ‘bhandaras’ ensured that no pilgrim went hungry. Rows of temporary toilets lined the pathways, a much-needed relief for the weary travellers. Yet, despite the meticulous planning, the sheer magnitude of over 550 million seekers compressed into a small town for a few weeks was beyond any human effort to fully contain. And yet, miraculously, the chaos found its own rhythm. Faith was the only guiding force—an invisible hand that organised the unorganisable.

We walked with the masses under the afternoon sun, attempting to understand the hearts of those around us. But the deeper we looked, the more elusive the answers became. The Maha Kumbh Mela is not merely an event—it is a phenomenon, a movement of the spirit that defies explanation. And in this realisation, our faith in the unseen deepened.

Later, seeking a different perspective, we visited the digital museum that beautifully encapsulated the grandeur of the Kumbh Mela through short films and immersive exhibits. As evening descended, the Boat Club at Kali Ghat came alive with a mesmerising laser and drone show, a fusion of technology and tradition that narrated the timeless story of the Kumbh.

Despite the overwhelming crowds at the Sangam and the tent cities, we were fortunate to find solace in the relatively peaceful Civil Lines locality. With its delightful eateries, shopping avenues, and even a PVR cinema, it provided a refreshing contrast to the spiritual intensity of the Mela. Our dinner at El Chico, an iconic restaurant, was a comforting end to an extraordinary day. Before departing, we planned to pay our respects at the Amar Shaheed Chandra Shekhar Azad Park, honouring the brave son of India who had once walked these very streets.

As we prepared to leave, a quiet prayer lingered in our hearts:

May the divine essence of the Maha Kumbh Mela cleanse not just our bodies, but our souls. May it remind us of the eternal truth—that we are but droplets in the great river of existence, flowing towards the infinite. May peace and harmony reign within us, now and always.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 164 – सबकी अपनी राम कहानी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सबकी अपनी राम कहानी…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 164 – सबकी अपनी राम कहानी… ☆

सबकी अपनी राम कहानी।

आलौकिक गंगा का पानी।।

 *

सबके अलग-अलग दुखड़े हैं,

पक्की-छत तो, उजड़ी-छानी।।

 *

भटका तन जंगल-जंगल है,

सत्ता गुमी मिली पटरानी।

 *

जीवन जिसने खरा जिया है,

उसका नहीं मिला है सानी।

 *

शांति स्वरूपा सीता खोई,

ढूंढ़ेंगे हनुमत सम-ज्ञानी।

 *

रावण का वैभव विशाल था,

पर माथे पर थी पैशानी।

 *

एक-एक कर बिछुड़े अपने,

फिर भी रण हारा अभिमानी।

 *

संघर्षों में छिपी पड़ी है,

पौरुषता की अमर जुबानी।

 *

राम राज्य का सपना सुंदर,

देख रहा हर हिंदुस्तानी।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ?

उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।

घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।

उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।

– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।

– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।

उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।

-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!

– है कोई उपाय इसका तो बोलो?

– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।

– अच्छा! मुझे भी बताओ?

– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?

बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।

-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।

– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।

दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।

ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।

सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।

सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।

माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?

बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।

बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।

दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।

अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।

परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 337 ☆ कविता – “छतनारा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 337 ☆

?  कविता – छतनारा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

साथ यहां हैं कलम तूलिका

कोमल कोंपल जड़ें विशाल

छांव बड़ी रचनाकारों की, है छतनारा

 

शब्द चित्र में हैं स्पंदन

धरती है कैनवास हमारा

आसमान पर इंद्रधनुष, है छतनारा

 

कलाकार के हृदय बड़े हैं

है समेटना दुनियां भर को

बांहों के हम सब के घेरे, हैं छतनारा

 

शुष्क हृदय वाली दुनियां में

बम बारूद धुंध का उत्तर

शीतल मंद मधुर झोंका है, ये छतनारा

 

उमस भरे मौसम में  दिखते,

घुप रातों के आसमान में बिखरे तारे

घुसती आये चांदनी जिससे, वो खिड़की छतनारा

 

एक सूत्र से कला उपासक

मिल बैठें एक वृक्ष के नीचे

जुड़ते हम जिस एक भाव से, वह छतनारा

 

हर मन में थोड़ा रावण है

ज्यादा राम भरा होता है

जो आलोकित करे राम को वो छतनारा

 

अभिव्यक्ति की हैं कई विधाएं

कई माध्यम हैं कहने के, कहकर

सुनकर मिलने वाला सच्चा सुख ही छतनारा

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 – पुष्पांजलि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री  विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆

🌻लघु कथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷

मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी  होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।

विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है,  पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।

बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।

पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।

साधना का पूरा  शरीर  सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।

सभी कहने लगी हद कर दी इसने  पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।

पं बने साधु कहने लगे—

जाकी रही भावना जैसी।

प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 120 – देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 120 ☆ देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

महाकुंभ का अंतिम सप्ताह हो चला है, हम दो मित्रों ने भी निश्चय किया कि सपत्नीक प्रयागराज जाते हैं। हमारे जो परिचित यात्रा कर वापिस आ गए थे, उनसे पूरी जानकारी प्राप्त कर, ट्रैवल एजेंट्स से संपर्क भी करा है। सभी लुभावने सपने दिखा रहे हैं।

 एक ट्रैवल एजेंट से जब हमने पूछा के स्लीपर कोच की क्षमता से अधिक यात्री तो नहीं बैठाते हो ? उसने कहा आप के शयन में कोई खलल नहीं होगी। हमारे एक परिचित ने बताया था, कि ये एजेंट बस की सीटों के मध्य गली में भी रात को यात्रियों को लिटा देता है, और शयन करते हुए यात्रियों को बहुत कठिनाई होती हैं।

 हमने भी उस एजेंट से जब ये बात बताई, तो बोला कुछ लोग हाइवे पर प्रयागराज के लिए बसों का इंतजार करते है, उनको पुण्य से वंचित ना रहना पड़े, तभी बैठाते हैं।

विषय को लेकर वाद विवाद हुआ, तब वो बोला यदि आपको सस्ते में जाना है, तो बस की छत पर लेट कर चले, आधे पैसे लूंगा। हमने कहा यदि छत से गिर गए तो क्या होगा ? उसने बताया आप को रस्सी से बांध देंगे, जब भी मार्ग में चाय आदि के लिए बस रुकेगी, तो आपकी रस्सी खोलकर ऊपर ही चाय की व्यवस्था कर देंगे।

हमने कहा गलत काम क्यों करते हो, वो लपक कर बोला साहब अभी तक सैकड़ों लोगों को अमेरिका भिजवा चुके हैं, वो तो आजकल थोड़ी सख्ती है। हम ये चिंदी के काम नहीं करते, आपकी जैसी मर्जी। हम समझ गए, ये अवश्य पहले “डंकी रूट” में कार्य करता होगा।

हम ने भी अब ट्रेन से जाने का मानस बना लिया है। बिना टिकट कहीं भी प्रवेश ले लेंगे यदि कहीं पकड़े गए तो पेनल्टी भर देंगें। जाने से पहले कुछ पाप (बिना टिकट) तो कर लेवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #273 ☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 273 ?

☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीवनात या असतातच ना सोशिक काही वर्षे

आयुष्याला गिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

भट्टीमधला माठ भाजुनी होतो जेव्हा पक्का

माठासाठी जळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

सावध असलो जरी कितीही नसते हाती काही

सापळ्यातही फसतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

विश्व विजेता असतानाही खात्री नसते काही

हार पाहुनी रडतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

संकटकाळी पाय गाळुनी संयम कोठे बसतो

जोर लावुनी भिडतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

आजाराची टोळी येते अंगावरती जेव्हा

जिद्द हारते हरतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

प्रेम लावुनी वाढवलेली लेक सासरी जाता

काळजासही पिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुरुचरण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गुरुचरण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

गुरु चरण / मन शरण/

नित्य स्मरण/देवधर्म//

*

गुरु मंदिर/भाव भक्तीत/

भव मुक्तीत/ज्ञानदान //

*

क्षमा सकळ/पुण्य नि पाप/

जन्म उःशाप/आत्मबंदी //

*

दिक्षा दर्शन / नाश वेदना /

मंत्र साधना//जीवलोकी //

*

गुरु महात्म / ध्यान लोचनी/

कर्म संचनी /प्रारब्धात//

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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