हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 97 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 3 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 97 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 3 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

महापुराण कहानी दादी, 

हैं ममतालु सुहानी दादी, 

इनकी सेवा मंगलकारी, 

शुभ चिन्तक वरदानी दादी।

0

सबल भुजा का बल भाई है, 

धड़कन की हलचल भाई है, 

देता है खुशियों की फसलें 

धरा, गगन, बादल भाई है।

0

हरा-भरा परिवार जहाँ है, 

ममता प्यार दुलार जहाँ है, 

सुख का सिन्धु वहीं लहराता 

बच्चों का संसार जहाँ है।

0

बेटी है वरदान सरीखी, 

संस्कृति की पहचान सरीखी, 

माता-बहनें पूज्य रही हैं 

भारत में भगवान् सरीखी।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ Company of ‘God and Godly’… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Company of ‘God and Godly’ ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.) 

? ~ Company of ‘God and Godly’??

In the  company  of God  and Godly, we find our way,

To ignite  the  spark, that  burns throughout the day

The fire  of truth, that  keeps flickering  deep inside,

Guides us on our journey, with a gentle, loving stride

 *

In the God’s sacred space, where saintly people reside,

We find our inner  light, and  a loving,  peaceful Guide

The  divine enlightenment,  shines  like  morning  dew,

Illuminating our path, showing what is eternally true

 *

In the company  of  Godly, hearts take cosmic flights,

And the flame of pure love, that burns within, ignites

May we seek Godly company, to bask in its loving light,

And may our souls, be filled with peace & pure delight

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
23 March 2025

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पुजारी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पुजारी ? ?

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 171 – महावीर जयंती विशेष – जैन धर्म में है बसा…  ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है महावीर जयंती  पर आपकी एक  कविता “जैन धर्म में है बसा…” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 171 – महावीर जयंती विशेष – जैन धर्म में है बसा… ☆

जैन धर्म में है बसा, जीवों का कल्यान।

भारत ने सबको दिया, जीने का वरदान।।

 *

राम कृष्ण गौतम हुए, महावीर की भूमि।

योग धर्म अध्यात्म से, कौन रहा अनजान।।

 *

धर्मों की  गंगोत्री, का है  भारत केन्द्र।

जैन बौद्ध ईसाई सँग, मुस्लिम सिक्ख सुजान।

 *

ज्ञान और विज्ञान का, भरा यहाँ भंडार।

सबको संरक्षण मिला, हिन्दुस्तान महान।। 

 *

चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को, जन्मे कुंडल ग्राम।

वैशाली के निकट ही, मिला हमें वरदान।।

 *

राज पाट को छोड़कर, वानप्रस्थ की ओर।

सत्य धर्म की खोज कर,किया जगत कल्यान।।

 *

सन्यासी का वेषधर, निकल चले अविराम।

छोड़ पिता सिद्धार्थ को, कष्टों का विषपान।। 

 *

प्राणी-हिंसा देख कर, हुआ बड़ा संताप।

मांसाहारी छोड़ने, शुरू किया अभियान।।

 *

अहिंसा परमोधर्म का, गुँजा दिया जयघोष।

जीव चराचर अचर का, लिया नेक संज्ञान।।

 *

मूलमंत्र सबको दिया , पंचशील सिद्धांत।

दया धर्म का मूल है, यही धर्म की जान।

 *

हिंसा का परित्याग कर, अहिंसा अंगीकार।

प्रेम दया सद्भाव को, मिले सदा सम्मान।।

 *

चौबीसवें  तीर्थंकर, माँ त्रिशला के पुत्र।

महावीर स्वामी बने, पूजनीय भगवान।।

 *

वर्धमान महावीर जी, बारम्बार प्रणाम ।

त्याग तपस्या से दिया, सबको जीवन दान।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 176 ☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री प्रगति गुप्ता  जी द्वारा लिखित कथा संग्रह “कुछ यूं हुआ उस रातपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 176 ☆

☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा

कहानी संग्रह … “कुछ यूं हुआ उस रात”

लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता

प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली

पृष्ठ १३८

मूल्य २५० रु

आई एस बी एन ९७८९३५५२१८७२८

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी, भोपाल

कुछ यूं हुआ उस रात” प्रतिष्ठित तथा अनेक स्तरों पर सम्मानित कथाकार प्रगति गुप्ता की १३ कहानियों का संग्रह है। आधुनिक समाज में मानवीय संबंधों की जटिलताओं को उजागर करती प्रतिनिधि कहानी “कुछ यूं हुआ उस रात” को पुस्तक का शीर्षक दिया गया है। “यह शीर्षक स्वयं में एक रहस्य और अनिश्चितता का संकेत देता है। यह कहानी तिलोत्तमा नामक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जो रात को फोन पर एक लड़की से बात करती है। यह बातचीत उसके लिए एक तरह का आधार बन जाती है, जो उसके अकेलेपन को कम करने में मदद करती है। हालांकि, एक दिन वह पाती है कि उस लड़की का फोन बंद है, और वह सोचने लगती है कि क्या वह लड़की वास्तविक थी या केवल उसकी कल्पना का हिस्सा थी। यह घटना तिलोत्तमा को भावनात्मक रूप से विचलित करती है। कहानीकार ने नायिका के मनोभावों को गहराई से चित्रित करने में सफलता अरजित की है। जिससे पाठक मन कहानी की विषयवस्तु सेजुड़ जाता है। अकेलेपन और संबंधों की तलाश से जूझता आज का महानगरीय मनुष्य तकनीक का उपयोग करके अपने अकेलेपन को कम करने की कोशिश करता दिखता है। हाल ही भुगतान के आधार पर मन पसंद वर्चुअल पार्टनर मोबाईल पर उपलब्ध करने के साफटवेयर विकसित किये गये हैं। यह थीम आज के डिजिटल युग में बहुत प्रासंगिक है। आधुनिकता की चकाचौंध में लोग इतने एकाकी हो गये हैं कि मनोरोगी बन रहे हैं। आत्मीयता की तलाश तथा सच्चे संबंधों तक तकनीक से तलाश रहे हैं। कहानी में फोन को एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाया गया है जो संबंध बनाने में मदद करता है, लेकिन उसे टिकाऊ बनाने में असमर्थ होता है। इसी थीम पर मैने एक कहानी रांग नम्बर पढ़ी थी।

तिलोत्तमा के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने भावनात्मक संवेदनशीलता को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है। उसका द्वंद्व और असमंजस पाठकों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ता है, और कहानी को विचारोत्तेजक रचना बनाता है।

प्रगति गुप्ता की लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है। उनकी भाषा में सहजता है जो पाठकों को कहानियों के कथानक से जोड़ने में मदद करती है। अभिव्यक्ति संवादात्मक और प्रवाहमय शैली में है। वे कहानियों में सकारात्मक प्रासंगिक थीम्स उठाती है और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी संग्रह पिछली पीढ़ी के प्रेमचंद जैसे पारम्परिक ग्रामीण परिवेश के लेखकों की कहानियों से तुलना में अधिक आधुनिक और तकनीक-केंद्रित प्रतीत होता है। संग्रह में “कुछ यूं हुआ उस रात” केअतिरिक्त, अधूरी समाप्ति, कोई तो वजह होगी, खामोश हमसफर, चूक तो हुई थी, टूटते मोह, पटाक्षेप, फिर अपने लिये, भूलने में सुख मिले तो भूल जाना, वह तोड़ती रही पत्थर, सपोले, समर अभी शेष है, और कल का क्या पता शीर्षक से कहानियां संग्रहित हैं जो एक अंतराल पर रची गई हैं। कहानियों के शीर्षक ही कथावस्तु का एक आभास देते हैं। प्रगति गुप्ता मरीजों की काउंसलिंग का कार्य करती रही हैं, अतः उनका अनुभव परिवेश विशाल है। उनके पास सजग संवेदनशील मन है, अभिव्यक्ति की क्षमता है, भाषा है, समझ है अतः वे उच्च स्तरीय लिख लेती हैं। उन्हें वर्तमान कहानी फलक पर यत्र तत्र पढ़ने मिल जाता है। चूंकि वे अपनी कहानियों में पाठक को मानसिक रूप से स्पर्श करने में सफल होती हैं अतः उनका नाम पाठक को याद रहा आता है। उनके नये कहानी संग्रहों की हिन्दी कथा जगत को प्रतीक्षा रहेगी।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 – स्नेह का साहित्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा स्नेह का साहित्य”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆

🌻लघु कथा🌻  ? स्नेह का साहित्य  ?

आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।

पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।

हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।

साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।

आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”

आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”

सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।

समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”

“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।

अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप  दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”

चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।

आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।

कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 655 ⇒ जानवर और इंसान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जानवर और इंसान।)

?अभी अभी # 655 ⇒ जानवर और इंसान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जानवर और इंसान की तुलना नहीं की जा सकती। जब इंसान से इंसान की तुलना में राजा भोज और गंगू तेली आमने सामने आ खड़े होते हैं तो बेचारे एक जानवर की क्या बिसात ! देवताओं को दुर्लभ यह मानव देह। बड़े भाग मानुस तन पायो। लख चौरासी बाद यह मौका हाथ आता है मनुष्य जन्म का। और बेचारा जानवर, नगरी नगरी द्वारे द्वारे की तरह, योनि योनि भटकता, कीट पतंग, खग, कभी जलचर तो कभी नभचर। या फिर जानवर बन जंगल में घास चर – विचर।

यह सब मानव बुद्धि का ही तो खेल है। कभी विश्व विजय तो कभी सम्राट। तीनों लोकों तक जिसकी कीर्ति का गुणगान होता है, स्वयं ईश्वर जब मानव देह धारण कर अवतरित होता है। दुनिया का इतिहास भरा पड़ा है, मनुष्य के पुरुषार्थ और उपलब्धियों से। उसकी कैसी तुलना किसी जानवर से।।

उसके बुद्धि कौशल और बाजुओं की ताकत का क्या कोई मुकाबला करेगा। सबसे पहले उसने अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान तलाशा। उसने बस्ती और परिवार की नीव डाली। जब कि जानवर अपने तन ढांकने के लिए दो सूत कपड़े की व्यवस्था तक नहीं कर पाया। इंसान ने भोजन पकाकर खाना सीखा जब कि जानवर, जानवर ही रहा। बंदर तो अदरक का स्वाद नहीं जानता बाकी सृष्टि के प्राणी तो बेचारे फल, फूल, वनस्पति, कीट पतंग खा खाकर ही अपना भरण पोषण करते रहे।

जीव: जीवस्य भोजनं।

उधर शेर जंगल का राजा बन शिकार करने लगा। उसके जंगल राज में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती और उसकी व्यवस्था को पर्यावरण के लिए श्रेष्ठ ही नहीं माना गया, उसे मनुष्य ने प्रोजेक्ट टाइगर का नाम दे दिया।

और इधर अपनी सुविधा के लिए उसने जंगल काट डाले, पर्वतों पर टूरिस्ट सेंटर खोल डाले। नदियों पर बांध बना बिजली तक बना डाली। जितना जरूरी पर्यावरण, उतना ही जरूरी मानव विकास।।

जानवर ने हमेशा जानवर को ही खाया। जब भूख लगी तब ही खाया। रोज अपने दाने पानी की व्यवस्था की। अपने भोजन को किसी कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखा। भले ही शेर जंगल का राजा रहा हो। उसने अपने रहने के लिए किसी आलीशान सुविधासंपन्न पंच सितारा गुफा की व्यवस्था नहीं की। आखिर जानवर है, जानवर ही रहेगा।

और इधर मनुष्य को देखिए उसके खेल देखिए !

गुलाम, बेगम, बादशाह।

कभी शेर का शिकार करते थे तो कभी तीतर बटेर का ! और यह इंसान इतना शक्तिशाली हो गया कि जानवर को ही खाने लग गया। जानवर बेचारे के पास तो सिर्फ नुकीले दांत और नुकीले पंजे, लेकिन इंसान के पास तीर कमान और बंदूक। बेचारा जानवर क्या मुकाबला कर पाता इंसान से।।

इंसान जाग उठा और जानवर सोता ही रह गया। जानवर अगर जाग भी जाए तो कभी इंसान नहीं बन सकता और शायद बनना भी नहीं चाहता लेकिन इंसान को जानवर बनने में अधिक समय नहीं लगता। क्या भरोसा कब उसके अंदर का जानवर जाग जाए ! यह अंदर का जानवर बाहर के किसी भी जानवर से अधिक खतरनाक है। काम, क्रोध, लोभ और मोह जानवर में कहां ? लेकिन बदनाम तो जानवर को ही होना है, क्योंकि इंसान तो दूध से धुला हुआ है और जानवर क्या पता नहाता, धोता अथवा ब्रश भी करता है या नहीं। शराब पीकर आदमी अपनी पत्नी को मारे तो वह जानवर हो जाता है। वाह रे चतुर मानव और तेरी बुद्धि। युद्ध तुम लड़ो और बलि हम जानवर की। पूजा तुम करो तो भी गर्दन हमारी। कभी हम वफादार कुत्ते, तो कभी कुत्ते कमीने। वाह क्या स्तर है इंसानियत का।

बकरे की अम्मा आज भी कब तक खैर मनाएगी, घर की मुर्गी तो दाल बराबर ही कहलाएगी। वाह रे इंसान, और तेरी इंसानियत ! आसमान के पंछी तू मारकर खा जाए, समंदर की मछली भी तेरे लिए फिश करी और बातें अहिंसा और विश्व शांति की। जीव दया और गऊ सेवा की। धन्य हो हे मानव श्रेष्ठ तुम धन्य हो।

बड़ी दया होगी अगर हमारे लिए अपनी स्मार्ट सिटी में चरने के लिए थोड़ी घास छोड़ दो, अपने स्विमिंग पूल में हम पक्षियों को भी प्यास बुझाने दो। हमें अभय दो। हमें भी जीने दो। आपके ही अनुसार हममें भी ईश्वर का ही वास है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 127 – देश-परदेश – पुरानी यादें: हमारा बजाज ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 127 ☆ देश-परदेश – पुरानी यादें: हमारा बजाज ☆ श्री राकेश कुमार ☆

साठ के दशक में इटली का लैंब्रेटा, देश की सड़कों का बेताज बादशाह हुआ करता था। देश के औद्योगिक घराने “बजाज ग्रुप” ने लैंब्रेटा को ऐसी टक्कर दी, वो देश से नौ दो ग्यारह हो गया।

बजाज स्कूटर एक समय में मिनी कार का काम किया करता था। सत्तर के दशक में जब परिवार नियोजन का नारा “हम दो हमारे दो” का प्रचार आरंभ हुआ, तो बजाज ने नए परिवार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, “हमारा बजाज” स्कूटर लंबे समय तक देश की सड़कों का सरताज बना रहा। कई खिलाड़ी उसके मुकाबले में आए जैसे कि विजय सुपर, फाल्कन आदि, लेकिन बजाज का सामना करने में असफल रहे। वो तो बाद में मोटर साइकिल ने स्कूटर को तो प्राय-प्राय सड़कों से शून्य तक पहुंचा दिया।

हमने भी बजाज के “चेतक” नामक ब्रांड को सिल्वर जुबली मना कर विदा किया था। उसके साथ के कुछ स्कूटर आज भी जुगाड के रूप में “मालवाहक” के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।

हमारे एक मित्र तो बजाज का “प्रिया” ब्रांड का स्कूटर चार दशक से अधिक पुराने मॉडल को प्रतिदिन घर से बाहर निकाल कर इसलिए रख देते हैं, ताकि उनके घर के बाहर कोई दूसरा अपनी कार पार्क ना कर सके। वैसे उनका स्कूटर स्टार्ट हुए भी दो दशक हो चुके हैं। हद तो तब हो गई, जब उन्होंने अपने बच्चों के वैवाहिक बायो डाटा में एसेट्स के नाम पर अपने स्कूटर तक का जिक्र भी कर दिया था।

उपरोक्त फोटो एक कॉलेज के पुराने मित्र ने मियामी (अमेरिका) से प्रेषित की है, जो वहां के एक स्थानीय अमरीकी भोजनालय की है। वहां पर बजाज स्कूटर एक शो पीस का काम कर रहा है। उसने तो मज़ाक मज़ाक में ये भी कह दिया कि यदि हमारा चार दशक पुराना चेतक स्कूटर उपलब्ध हो तो उसे भी अमेरिका के किसी भोजनालय में उचित सम्मान और दाम मिल जायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ श्रापित गर्भ… ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी

अल्प परिचय 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ श्रापित गर्भ… ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

अक्सर घरों में किसी के निधन के बाद उसकीं पुण्यतिथि मनाई जाती हैं और सार्मथ्य अनुसार दान-पुण्य किया जाता हैं ताकि आत्मा को शांति मिले।

मगर हर तबके में एक मृत्यु के बाद ना तो पुण्यतिथि मनाई जाती हैं न ही आँसू बहाये जाते हैं और ना ही दान पुण्य होता है क्योंकि मृतका माँ के कोख में ही दम तोड़ देती है।

बात कड़वी हैं लेकिन 100% सही है।

जी हाँ मैं बात कर रहीं हूँ माँ के उस गर्भ की जो पुत्र मोह के लिए पुत्री के हत्या से रंग जाते हैं।

कहते है कंस अपनी बहन के बच्चों की हत्या जन्म के बाद कारागार में करता रहा क्योंकि उसे डर था अपने प्राणों का।

मगर माँ के गर्भ गृह में मारने वाला कंस कौन है?

वह भी अपने अबोध अंश का, उसे किसी का डर नहीं।

बस पुत्र रत्न प्राप्ति की अभिलाषा और यही से शुरू होने लगता है, पाप-पुण्य का वह खेल जो मानव रुपी पिता से वह अपराध करवाने लगता है जो ना चाह कर भी माता पिता कर बैठते हैं।  

खैर मेरा काम था लिखना।

क्योंकि गीता -कुरान बाकी धार्मिक किताबों में केवल लिखा गया है बाकी तो सभी समझदार हैं ही।

 

अपने आंगन के नन्ही दूब को फैलने दें।

कोई फर्क नहीं पड़ता समाज को कि आपके घर बेटा है या बेटी!

उन्हें अपने हाथों से कुचलने की चेष्टा ना करें🙏

सृष्टि हैं तभी शिव हैं वरना पत्थरों पे फूल खिलते नहीं।

 

अजन्मा- भ्रूण हत्या

व्यक्तिगत सोच है, मजबूरी नहीं

फिर खुद के हाथों

अपनी उस कली को कैसे कुचल सकते हैं?

जिसके अंदर हमारा रक्त यहाँ तक कि धडकन भी साथ-साथ धड़क रही हो और वह नन्ही सी जान हाथों में आने के लिए पल- पल प्रतीक्षा कर रही हो।

माँ तो मिट्टी से बनी हुई दुर्गा की वह प्रतिमा होती है जिसका स्वभाव ही मातृत्व फिर अपने कोख की रक्षा करने में असर्मथ कैसे हो सकती है? क्योंकि पुरुष के साथ साथ वंश की चाहत प्रंचड हावी स्त्री मन में भी होती है।

और अंधकार में छोटी सी पवित्र लौ अपनी अस्तित्व खो देती है।

अगर स्त्री स्वयं के भ्रूण हत्या को होने से नहीं बचा सकती तो उसे फिर माँ कहलाने का हक कैसा?

माँ तो जननी होती है। उसके लिए पुत्र और पुत्री का क्या भेद?

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #280 ☆ साठलीत जळमटे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 280 ?

☆ साठलीत जळमटे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

लपून चार बाजुला थांबलीत जळमटे

घराघरात जाउनी शोधलीत जळमटे

*

करून रामबाण हा पाहिला इलाज मी

इलाज पाहुनीच हा फाटलीत जळमटे

*

सुरुंग आज लावला ठोकशाहिला जुन्या

नवीन कल्पने पुढे वाकलीत जळमटे

*

भयाण वाटली तरी जाळु सर्व संकटे

मनात आग पाहुनी पेटलीत जळमटे

*

हळूहळूच हे किटक आत पोचले पहा

चिवट बरीच जात ही थाटलीत जळमटे

*

कुणी न काल रोखले हे कुणा न वाटले

दिसेल घाण त्या तिथे लटकलीत जळमटे

*

लगेच साफ व्हायची आस ही नका धरू

प्रमाणबद्धतेमुळे साठलीत जळमटे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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