हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#53 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #53 –  दोहे ✍

दोहों के दरबार में ,हाजिर दोहा कार ।

सिंधु सभ्यता सीप में ,दोहों में संसार।।

 

दोहा,दूहा,दोहरा, संबोधन के नाम।

वामन काया में छिपा, याद रंग अभिराम।।

 

खुसरो ने दोहे कहे ,कहे कबीर कमाल।

फिर तुलसी ने खोल दी ,दोहों की टकसाल।।

 

गंग, वृंद, दादू ,वली, या रहीम मतिराम ।

दोहो की रसलीन से कितने हुए इमाम।।

 

दोहे हम भी रच रहे, कविवर हुए अनेक।

 किंतु बिहारी की छटा – घटा न पाया एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 52 – बहुत दिनों तक …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “बहुत दिनों तक …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 52 ☆।। अभिनव गीत ।।

☆ बहुत दिनों तक …  ☆

 

बहुत दिनों तक तुम्हें

याद कर रोया सारी रात

बहुत दिनों तक तुम्हें

मनाने कर न पाया बात

 

बहुत दिनों तक छिपी

रह गई अन्तर की पीड़ा

बहुत दिनों तक तुमसे

मिलने हाथ लिया बीड़ा

 

बहुत दिनों तक छिपा

न पाया मनकी मधुर उड़ान

बहुत दिनों तक सुनी

बायलिन पर वह छेड़ी तान

 

बहुत दिनों तक घर के

बाहर रखा दिया हर रोज

बहुत दिनों तक मन ही

मन में खाया छक कर भोज

 

बहुत दिनों तक आसमान

में देखा किया उजास

बहुत दिनों तक मैं पतंग सा

उड़ा किया सायास

 

बहुत दिनों तक टुकडा-

टुकडा जोड़ा है आकार

बहुत दिनों तक उसे सँवारा

चिन्तन कर हर बार

 

बहुत दिनों तक मिल न

पायी रोटी की सुविधा

बहुत दिनों तक रही

अटकती राशन की दुविधा

 

बहुत दिनों तक फटेहाल

दफ्तर को कदम चले

बहुत दिनों तक चेतावनियों

के उपहार मिले

 

बहुत दिनों तक मिली

हिदायत सूरत को बदलूँ

बहुत दिनों तक चर्चा थी

साहब से कहीं मिलूँ

 

बहुत दिनों तक दफ्तर के

अवसादयुक्त ताने

बहुत दिनों तक झेला

दुख को जाने अनजाने

 

बहुत दिनों तक रही

अमावस घर के चारों ओर

बहुत दिनों तक नहीं

दिखाई दी पैसों की कोर

 

बहुत दिनों तक मित्र मंडली

बनी अपरिचित किन्तु

बहुत दिनों तक नहीं किसी

से माँगा कभी परन्तु

 

बहुत दिनों तक बकरी

बन कर खुद पकड़ाये कान

बहुत दिनों तक धीरज का

करता आया आव्हान

 

बहुत दिनों तक एक किरन

आशा की नहीं मिली

बहुत दिनों तक जिसकी

खातिर भटका गली-गली

 

बहुत दिनों तक उस

समाज में जिसमें जनम लिया

बहुत दिनों तक गया

सताया बिगड़ गया हुलिया

 

बहुत दिनों तक आरोपित

हो सहता रहा दबाव

बहुत दिनों तक खूब

लुटाया माल और असबाव

 

बहुत दिनों तक याद

करूँगा काटूँगा दिन रात

बहुत दिनों तकसमझाऊँगा

अपने मनकी बात

 

बहुत दिनों तक यही

समझने खुदसे पूछा हूँ

बहुत दिनों तक करी

नौकरी फिरभी छूँछा हूँ

 

बहुत दिनोंतक असमंजस

में खोजा जगह- जगह

बहुत दिनों तक मिला

न उत्तर खाली रही सुबह

 

बहुत दिनों तक द्वार तुम्हारे

शीश झुकाया है

बहुत दिनों तक कविताओं

में तुमको गाया है

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-08-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णानीति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 101 ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆

यूट्यूब लिंक =>> कृष्णनीति

जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆ जीवन मन्त्र ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता जीवन मंत्र)  

☆ कविता # 99 ☆ जीवन मन्त्र ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अपने से ऊपर

वालों को देखो

तो लगता है,

कुछ भी नही है

हमारे पास……

 

अपने से नीचे

वालों को देखो

तो लगता है,

बहुत कुछ है

हमारे पास……

 

ज़िन्दगी में जो

मिला हैउससे

कभी न हों,

उदास क्योंकि…

 

खुदा ने हमारे

लिए वही चुना

है जो हमारे लिए

है बहुत खास….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्ण-लीला ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्ण-लीला ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे ☆

धर्म,नीति का सार थे, राधा के गोपाल।

उनके कारण धन्य है, द्वापर का वह काल।।

 

बचपन से करते रहे, लीलाएँ घनश्याम।

नहीं हुई तब ही कभी, सत्य,न्याय की शाम।।

 

नटनागर का रूप है, सचमुच में कुछ ख़ास।

बचपन से देते रहे, सबको वे आभास।।

 

माखन खाकर बन गए, गिरिधर तो ख़ुद चोर।

यह लीला रोचक रही, नाचा मन का मोर।।

 

पराभूत कर कालिया, सिद्ध किया देवत्व।

कंस मारकर कर दिया, रक्षित न्यायिक तत्व।।

 

रास रचैया कृष्ण का, होता है यशगान।

घर-घर में जो बन गए, सचमुच मंगलगान।।

 

अर्जुन का बनकर सखा, मार दिया अन्याय।

समरभूमि में कर दिया, सचमुच चोखा न्याय।।

 

हरने सबके मोह को, दिया युद्ध में ज्ञान।

गीता के दिव्यत्व से, दूर भगा अज्ञान।।

 

लीला करके कृष्ण ने, बाँटा था उत्साह।

नंद-यशोदा लाल ने, रच डाला था वाह।।

 

कृष्ण धर्म के सार हैं, ईश्वर के अवतार।

हे भगवन हमको करो, भवसागर से पार।।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे 

शासकीय जेएमसी महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661
(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #43 ☆ बीत गया सावन ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है रक्षाबंधन पर्व पर विशेष कविता “# बीत गया सावन #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 43 ☆

☆ # बीत गया सावन  # ☆ 

 

वो रेशमी फुहारें

वो मनमोहक नजारें

लगते थे कितने पावन

इस वर्ष-

ना झूले लगे हैं

ना मेले सजे हैं

कितना फीका फीका

बीत गया सावन

 

ना मेहंदी रचे हाथ है

ना सखियों  का साथ है

फूल भी मुरझा गये

भंवरे भी उदास है

उम्मीदें भी टूट गई

ना उम्मीदों भरा है दामन

बीत गया सावन

 

अमराई में कोयल भी

अब कूकती नहीं है

सावन की रिमझिम लड़ी भी

अब लगती नहीं है

कशमकश में डूबा है

भीगा भीगा तन-मन

बीत गया सावन

 

शब्द निरर्थक हो गये है

गीत अपना अर्थ खो गये है

“रिश्ते” बाजार में बिक रहे हैं

“सच” कितने लोग लिख रहे है

“अक्श” धुंधला गये है

“श्याम” दरक रहे है दर्पण

बीत गया सावन /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (51-55) ॥ ☆

 

मृगेन्द्र के इतना बोलने पर पुनः वही श्शब्द हुये प्रकृति से

यथा शिखर पर उस प्रतिध्वनि ने विनत निवेदन किया नृपति से ॥51॥

 

तब धेनु की कातर दृष्टि द्वारा देख गया राजा बहुत आकुल

सुनकर वचन श्शम्भु के भृत्य के फिर बोला दया भाव से आर्त व्याकुल ॥52॥

 

रक्षा करे क्षत सह जो व्रती दृढ़ क्षत्रिय वही विश्व में है कहाता

विपरीत इसके उस राज्य से क्या ? जो प्राण – मन को कलुषित बनाता ॥53॥

 

यह है सुरभि धेनु अनुपम न इस तुल्य है दान पा गुरू हों प्रसन्न जिससे

यह जो तुम्हारा प्रहार इस पर यह शम्भु चल से है न कि तुमसे ॥54॥

 

स्वदेह भी दान दे आपको यह गुरू धेनु रक्षा समुचित मुझे है

होम आदि के कार्य रूकें न गुरू अतः सभी भांति उचित यही है ॥55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चंद्र माझा ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चंद्र माझा ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

शांत आहे झोपलेला चंद्र माझा

स्वप्न बघण्या गुंतलेला चंद्र माझा

 

मालकीचा मानते मी फक्त माझ्या

मी करांनी झाकलेला चंद्र माझा

 

पाहताना राग आला कैक वेळा

चांदण्यांनी वेढलेला चंद्र माझा

 

या तुम्हीही कौतुकाने पाहुनी जा

दावते मी जिंकलेला चंद्र माझा

 

श्वास आहे ध्यास आहे प्राण‌आहे

काळजातच कोंडलेला चंद्र माझा

 

सावराया साथ देतो हात देतो

सोबतीने वाढणारा चंद्र माझा

 

भाग्य आहे थोर माझे  मानते मी

छान आहे लाभलेला चंद्र माझा

 

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – नंदलाल ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – नंदलाल ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

(आर्या वृत्त)

 

वसुदेवाचा सुत हरी

नंदाचा तो असे कान्हा

जन्मदात्री देवकी

माता यशोदेस फुटला पान्हा

 

श्रावण वद्य अष्टमी

यमुनेसी हो आला पूर

मध्यरात्री तान्ह्यास

वसुदेवे नेले गोकुळी दूर

 

बाळ वाढे गोकुळी

आनंदित यशोदामाई

नंदलालाची कीर्ति

त्रिखंडात दूरवर ही जाई

 

चोरी नवनीताची

गोकुळवासी होती तंग

केव्हा लोणी खाऊ

गाई राखण्यात मी तर दंग

 

उघड उघड मुख बाळा

दाव मजसी काय ते असे

उघडताना मुखासी

यशोदेसी विराटची रूप दिसे

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 45 ☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – अभंग… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 45 ☆ 

☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – अभंग… ☆

आखीव रेखीव, रूप मनोहर

निर्मळ सुंदर, कृष्ण माझा…!!

 

राजस वेल्हाळ, सुकुमार देवा

मोहक बरवा, कृष्णनाथ…!!

 

द्वापार-युगात, शेवट चरण

धर्माचे रक्षण, शुद्ध हेतू…!!

 

द्रौपदी बहीण, करितो रक्षण

आम्हा हे भूषण, सदोदित…!!

 

कवी राज चिंती, कृष्णप्रेम सदा

न येवो आपदा, आयुष्यात…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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