हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ?

उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।

घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।

उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।

– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।

– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।

उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।

-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!

– है कोई उपाय इसका तो बोलो?

– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।

– अच्छा! मुझे भी बताओ?

– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?

बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।

-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।

– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।

दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।

ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।

सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।

सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।

माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?

बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।

बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।

दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।

अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।

परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 337 ☆ कविता – “छतनारा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 337 ☆

?  कविता – छतनारा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

साथ यहां हैं कलम तूलिका

कोमल कोंपल जड़ें विशाल

छांव बड़ी रचनाकारों की, है छतनारा

 

शब्द चित्र में हैं स्पंदन

धरती है कैनवास हमारा

आसमान पर इंद्रधनुष, है छतनारा

 

कलाकार के हृदय बड़े हैं

है समेटना दुनियां भर को

बांहों के हम सब के घेरे, हैं छतनारा

 

शुष्क हृदय वाली दुनियां में

बम बारूद धुंध का उत्तर

शीतल मंद मधुर झोंका है, ये छतनारा

 

उमस भरे मौसम में  दिखते,

घुप रातों के आसमान में बिखरे तारे

घुसती आये चांदनी जिससे, वो खिड़की छतनारा

 

एक सूत्र से कला उपासक

मिल बैठें एक वृक्ष के नीचे

जुड़ते हम जिस एक भाव से, वह छतनारा

 

हर मन में थोड़ा रावण है

ज्यादा राम भरा होता है

जो आलोकित करे राम को वो छतनारा

 

अभिव्यक्ति की हैं कई विधाएं

कई माध्यम हैं कहने के, कहकर

सुनकर मिलने वाला सच्चा सुख ही छतनारा

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 – पुष्पांजलि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री  विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆

🌻लघु कथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷

मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी  होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।

विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है,  पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।

बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।

पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।

साधना का पूरा  शरीर  सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।

सभी कहने लगी हद कर दी इसने  पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।

पं बने साधु कहने लगे—

जाकी रही भावना जैसी।

प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 120 – देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 120 ☆ देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

महाकुंभ का अंतिम सप्ताह हो चला है, हम दो मित्रों ने भी निश्चय किया कि सपत्नीक प्रयागराज जाते हैं। हमारे जो परिचित यात्रा कर वापिस आ गए थे, उनसे पूरी जानकारी प्राप्त कर, ट्रैवल एजेंट्स से संपर्क भी करा है। सभी लुभावने सपने दिखा रहे हैं।

 एक ट्रैवल एजेंट से जब हमने पूछा के स्लीपर कोच की क्षमता से अधिक यात्री तो नहीं बैठाते हो ? उसने कहा आप के शयन में कोई खलल नहीं होगी। हमारे एक परिचित ने बताया था, कि ये एजेंट बस की सीटों के मध्य गली में भी रात को यात्रियों को लिटा देता है, और शयन करते हुए यात्रियों को बहुत कठिनाई होती हैं।

 हमने भी उस एजेंट से जब ये बात बताई, तो बोला कुछ लोग हाइवे पर प्रयागराज के लिए बसों का इंतजार करते है, उनको पुण्य से वंचित ना रहना पड़े, तभी बैठाते हैं।

विषय को लेकर वाद विवाद हुआ, तब वो बोला यदि आपको सस्ते में जाना है, तो बस की छत पर लेट कर चले, आधे पैसे लूंगा। हमने कहा यदि छत से गिर गए तो क्या होगा ? उसने बताया आप को रस्सी से बांध देंगे, जब भी मार्ग में चाय आदि के लिए बस रुकेगी, तो आपकी रस्सी खोलकर ऊपर ही चाय की व्यवस्था कर देंगे।

हमने कहा गलत काम क्यों करते हो, वो लपक कर बोला साहब अभी तक सैकड़ों लोगों को अमेरिका भिजवा चुके हैं, वो तो आजकल थोड़ी सख्ती है। हम ये चिंदी के काम नहीं करते, आपकी जैसी मर्जी। हम समझ गए, ये अवश्य पहले “डंकी रूट” में कार्य करता होगा।

हम ने भी अब ट्रेन से जाने का मानस बना लिया है। बिना टिकट कहीं भी प्रवेश ले लेंगे यदि कहीं पकड़े गए तो पेनल्टी भर देंगें। जाने से पहले कुछ पाप (बिना टिकट) तो कर लेवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #273 ☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 273 ?

☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीवनात या असतातच ना सोशिक काही वर्षे

आयुष्याला गिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

भट्टीमधला माठ भाजुनी होतो जेव्हा पक्का

माठासाठी जळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

सावध असलो जरी कितीही नसते हाती काही

सापळ्यातही फसतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

विश्व विजेता असतानाही खात्री नसते काही

हार पाहुनी रडतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

संकटकाळी पाय गाळुनी संयम कोठे बसतो

जोर लावुनी भिडतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

आजाराची टोळी येते अंगावरती जेव्हा

जिद्द हारते हरतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

प्रेम लावुनी वाढवलेली लेक सासरी जाता

काळजासही पिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुरुचरण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गुरुचरण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

गुरु चरण / मन शरण/

नित्य स्मरण/देवधर्म//

*

गुरु मंदिर/भाव भक्तीत/

भव मुक्तीत/ज्ञानदान //

*

क्षमा सकळ/पुण्य नि पाप/

जन्म उःशाप/आत्मबंदी //

*

दिक्षा दर्शन / नाश वेदना /

मंत्र साधना//जीवलोकी //

*

गुरु महात्म / ध्यान लोचनी/

कर्म संचनी /प्रारब्धात//

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आत्मा ‘रमण’… ☆ प्रा. भरत खैरकर☆

प्रा. भरत खैरकर

🌸 विविधा 🌸

☆ आत्मा ‘रमण’… ☆ प्रा. भरत खैरकर 

‘मौन म्हणजे काय?’ विचारल्यावर रमण महर्षींनी चूप राहणे म्हणजे मौन नाही तर तेच अनंत असं प्रकटीकरण आहे, असे सांगितले. वाणी आणि कुठलाही संकल्प नसलेली अवस्था म्हणजे मौन आहे! ते साधण्यासाठी कुठलीतरी धारणा मनात घेऊन त्याचं मूळ शोधलं पाहिजे. अशा एकाग्रतेनेच मौन प्राप्त होईल हे अभ्यासाने शक्य आहे. कोणतीही मानसिक क्रिया न करता केलेली साधना म्हणजे मौन आहे. मनाला वश करणे हेच खरं मौन आहे.

ज्यावेळी स्त्रिया डोक्यावर घागर घेऊन इतर बायकांशी बोलत असतात.. चालत असतात. तेव्हा त्यांचं लक्ष डोक्यावरच्या घागरीतल्या पाण्यावरच असतं त्या केवळ बोलत असतात. अशाच प्रकारे जेव्हा एखादा ज्ञानी पुरुष समाजात वावरत असतो. तेव्हा त्याच्या साधनेत कुठलाही प्रकारची बाधा तो येऊ देत नाही. कारण त्याचं मन हे त्या घागरी सारखं ब्रह्मात स्थिर असतं.

माणसाचा स्थायीभाव हा शांती आहे. पण मन मात्र त्यामध्ये बाधा आणत असल्याने तो अशांत बनतो. त्यामुळेच मौन साधल्याने आपोआपच शांतीकडे प्रवास सुरू होतो.

मनाचा शोध घ्यायला सुरुवात केल्यावर आपणास लक्षात येईल की ते लपून बसते ते दिसतच नाही. आत्ता इथे तर थोड्यावेळात दुसरीकडे!असं ते लपाछपी खेळतय. मात्र मन दुसरं तिसरं काही नसून विचारांची सरमिसळ आहे. आपल्या विचारात संकल्पाची निर्मिती झाल्यामुळे आपण त्याच्या निवारणासाठी, पूर्तीसाठी पुन्हा विचार करू लागतो. ह्या स्थितीला.. प्रक्रियेला आपण मन ह्या संज्ञेने संबोधतो.

विचार आणि विवेक जोडणारी गोष्ट म्हणजे बुद्धी होय. अहंभाव, मन, बुद्धी ह्या सगळ्या एकाच नाण्याच्या बाजू आहेत. आपण ज्याला वस्तुतः आत्मा मानतो ते वास्तविक पाहता अहंभाव, मन किंवा बुद्धी ह्यापैकीच कुणाची तरी कल्पना असते. कोणत्याही संकल्पनेचा उदय हा ‘मी’ पणातूनच होतो. त्या मीपर्यंत पोहोचणे कठीण काम आहे कारण तो सतत असणारच आहे तो नष्ट होणे शक्य नाही. ‘दृष्टीम ज्ञानमयी कृत्वाम. ‘ आपल्या दृष्टीला ज्ञानमय करणे म्हणजे सगळीकडे समत्व आणि ब्रह्मत्व दिसेल. मात्र आपला दृष्टिकोन बाह्य झाल्याने बाहेरच्या वस्तूंवर टिकून असल्याने आपल्याला हे सगळं लक्षात येत नाही. पण दृष्टीला अंतर्मुख केल्याने.. आत अजून डोकावून बघितल्याने आपण केवळ आणि केवळ आत्मा आहो हे लक्षात येईल.

चोर जसा स्वतःलाच शोधून देणार नाही. तसं मनही शोधायला गेल्यावर ते स्वतःला शोधून घेणार नाही. नजरेसही पडणार नाही. कारण ते खोटं आहे. खोट्याचा शोध घेतला तर तो लागणारच नाही कारण ते आहेच नाही. तो एक भास असतो आपली तशी मान्यता असते. ह्यामुळे खरं असलेलं आत्मतत्त्व आपण हरवून बसलो आहे. म्हणून आत्म्याचा शोध घ्या.. मनावर राज्य करण्याचा तोच एक उपाय आहे. आणि तेच सत्य आहे.

आपण कागदावर लिहिलेले अक्षर वाचतो.. मात्र हे करत असताना केवळ अक्षरांवर आपले लक्ष असते त्याला आधार देणाऱ्या कागदावर नाही.. अगदी तसंच आपलं झालेला आहे.. आत्म्यावर असलेल्या मन आणि अहंभाव ह्यालाच आपण महत्त्व देत आहोत त्याला आधार देणाऱ्या आत्म्यावर कुणाचेही लक्ष नाही. ह्या दोष कुणाचा आहे ?आपलाच! जसं की एखाद्या कॅनव्हास वर चित्रकार अलग अलग चित्रे रेखाटतो देखावे काढतो. अगदी तसंच आपणही आपल्या मनपटलावर अनेक अनेक स्वप्निल चित्रे रंगवत असतो. ती नाहीशी होणारी असतात मात्र त्या मनपटलाला आधार देणारा.. पृष्ठभूमी देणारा कॅनव्हास.. आत्मा आपण विसरून जातो. आपण आत्म विचारात सलग्न असलं पाहिजे. तेव्हाच लोक विचार आपोआप निघून जाईल. अनात्म निघून जाईल. हाच खरा आत्मविचार आहे. आत्मा ह्या शब्दातच देह, मन, मनुष्य, व्यक्ती, परमात्मा, इत्यादी चा समावेश असल्याचे लक्षात येईल.

आपल्या मनात निर्माण होणाऱ्या भविष्याच्या चिंतेबद्दल.. संशयाबद्दल विचार करणाऱ्याला पकडल्यावर लक्षात येईल की आत्म्यामध्ये स्थिर नसल्याने आपण क्षुब्ध होत आहोत.. भुकेजलेलो आहोत. जगातल्या चिंता आणि समस्यांनी आपण ग्रासलेलो आहोत. हे केवळ आत्म्यापासून दूर गेल्याने होते. म्हणून जर तुम्ही आत्म्याशी दृढतेने टिकून राहिला.. जुळून राहिला तर सर्व समस्या नाहीशा होऊन जातील लुप्त होतील. अशाने मन हळूहळू त्याच्या सर्व मागण्या सोडून देईल आणि तुम्ही आत्म्यामध्ये शांतीने जगू शकाल राहू शकाल.

© प्रा. भरत खैरकर

संपर्क – बी १/७, काकडे पार्क, तानाजी नगर, चिंचवड, पुणे ३३. मो.  ९८८१६१५३२९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सातारकरची शाळा – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ सातारकरची शाळा – भाग-३  ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(या भागातील सुद्धा अनेक तरुण लांबच्या गावात जाऊन तिचे तमाशे पाहत होते. माधवी पाटील हिचा तमाशा गावात होणार म्हणून गावात मोठ्या उत्साहाचे वातावरण होते.) – इथून पुढे —

शेवटी जत्रा जवळ आली. देऊळ माणसांनी भरले होते. लांब लांब चे नातेवाईक या गावात आले होते. छोटी छोटी अनेक दुकाने देवळा भोवती लागली होती. देवीच्या देवळात मोठी गडबड होती. देवीचे मानकरी नवीन कपडे घालून मिरवत होते. तरुण आणि वृद्ध लोक सर्वच माधवी पाटीलच्या तमाशासाठी आसुसले होते.

जत्रा सुरू झाली, देवीची पालखी घरोघरी गेली. बाया बाप्याने देवीची ओटी भरली. रात्री देवळासमोरच्या पटांगणात माधवी पाटील तमाशा सुरू झाला.

“कोन्या गावाचं आलं पाखरू, बसलंय डोलात,

खुदु खुदु हसतंय गालात ‘.

गावकरी बेभान झाले होते, फेटे उडवीत होते. टोप्या फेकत होते. तमाशा कार्यक्रम हाउसफुल्ल होता.

जत्रा संपली, तरी माधवी पाटीलच्या तमाशाची चर्चा घरोघरी सुरू होती. यावर्षी जत्रा कमिटीला पाच लाखापेक्षा जास्त नफा झाल्याचे बोलले जात होते.

सातारकर ना पण समजले, यावर्षी जत्रा कमिटीला पाच लाखापेक्षा जास्त रक्कम मिळाली, ही रक्कम आपल्या शाळेसाठी मिळाली तर, वरच्या वर्गातील मुलांच्या हातात टॅब देण्याचे आपले जे स्वप्न आहे ते पुरे होऊ शकेल. पण हे पैसे मिळवायचे कसे?

सातारकरांचे सौदागर काकांशी आणि यशोदेच्या आईशी याबाबत बोलणे झाले.

सौदागर काका – जत्रा कमिटी तसे ते पैसे देणार नाही. कारण या पैशातून त्यांना अख्या गावाला मटन आणि दारूचे जेवण द्यायचे असते. शिवाय पुढच्या वर्षीच्या तमाशाची पण तजवीज करायची असते. त्यांना मुलांची एवढी काळजी कुठे?

सातारकर – यासाठी आपण एक वेगळी आयडिया करूया. वहिनी, तुम्ही ग्रामपंचायतीतर्फे हळदी कुंकू कार्यक्रम घ्या. गावातील सर्व महिलांना या हळदीकुंकू कार्यक्रमासाठी बोलवा. या कार्यक्रमासाठी प्रमुख पाहुणे म्हणून सौदागर काकांना बोलवा. सौदागर काका आपल्या भाषणात आपल्या गावातील शाळेतील वरच्या वर्गातील मुलांसाठी कॉम्प्युटर शिक्षण अत्यंत आवश्यक आहे हे पटवून सांगतील. आणि त्यासाठी यावेळी पासून मुलांना टॅब देण्याची गरज असल्याचे बायकांना पटवतील. यासाठी सुमारे चार लाख रुपये ची गरज असल्याचे सांगतील. आणि महिलांना सांगतील हे चार लाख रुपये जत्रा कमिटीकडे जमा असलेल्या पैशातून जर मिळाले तर हे शक्य होईल. प्रत्येक बाईने जर आपल्या घरात आपल्या नवऱ्याच्या मागे हट्ट धरला, तर हे पैसे आपल्याला मिळू शकतात. सौदागर काकांना ही कल्पना आवडली. यशोदेच्या आईने ग्रामपंचायतीतर्फे हळदीकुंकू आयोजित केले. गावातील प्रत्येक घरात जाऊन आमंत्रण दिले. गावातील सर्व स्त्रिया नटून थटून हळदीकुंकवासाठी आल्या. हळदीकुंकू दिल्यानंतर प्रमुख पाहुणे सौदागर काका बोलू लागले ” या गावातील माझ्या बहिणींनो, गेली चार-पाच वर्षे सातारकर नावाचे शिक्षक आपल्या शाळेत आल्यापासून आपल्या शाळेची प्रगती तुम्ही पाहत आहात. त्यावेळी शाळेत दहा मुले होती ती आता 600 च्या वर मुले गेली. स्कॉलरशिप परीक्षेत आपली मुले उत्तीर्ण झाली. ड्रॉइंग परीक्षेत आपली मुले चांगले यश मिळवीत आहेत. आपल्या शाळेसाठी नवीन इमारत उभी राहत आहे. आजूबाजूच्या गावातील सुद्धा अनेक मुले आपल्या गावातील शाळेत येत आहेत. सध्या सातवीपर्यंत वर्ग आहेत, पुढील वर्ष आठवीचा पण वर्ग सुरू होणार आहे. नवीन नवीन शिक्षक या शाळेत येणार आहेत. आता काळानुसार मुलांना कॉम्प्युटर शिक्षण आवश्यक झाले आहे. तुम्ही शहरात गेल्यावर पाहिला असाल बँकेत पोस्टात सर्व ठिकाणी आता कॉम्प्युटर शिवाय काम होत नाही. म्हणून आपल्या मुलांनी एवढ्या पासूनच कॉम्प्युटर शिकणे आवश्यक आहे. पुढच्या काळात कॉम्प्युटरमुळेच नोकऱ्या मिळणार आहेत. आपल्या मुलांनी शहरातल्या मुलांपेक्षा मागे पडता नये असे तुम्हाला वाटत असेल, तर आपल्या मुलांच्या हातात टॅब असणे आवश्यक आहे. ‘

काकांनी आपल्या घरातला टॅब हळदी कुंकवासाठी आलेल्या बायकांना दाखवला.

“हा असा टॅबो मुलांच्या हातात असला, म्हणजे मुले दिल्लीतील मुंबईतील सुद्धा क्लास करू शकतात. या गावातून देशा प्रदेशातील तज्ञांची बोलू शकतात. शेती विषयी सुद्धा माहिती मिळू शकतात. याकरता यावेळी पासून या मुलांना टॅब मिळणे आवश्यक आहे. याकरता सुमारे चार लाखाची गरज आहे. आपल्या गावातील जत्रा कमिटीला यंदाच्या तमाशातून सुमारे पाच लाख रुपये मिळाले आहेत. त्यातील जर चार लाख शाळा कमिटीला मिळाले तर मुलांसाठी टॅब घेणे सोपे जाईल. याकरता माझ्या बहिणींनो, तुम्ही प्रत्येकाने आपल्या नवऱ्याच्या मागे हट्ट करायचा की जत्रेमध्ये मिळालेले पैसे शाळा समितीकडे द्या. मला खात्री आहे तुम्ही हट्ट केला म्हणजे तुमचे नवरे तुमच्या हट्ट पेक्षा लांब जाऊ शकत नाही. आणि आपले टॅब घेण्याचे काम होईल. ‘

सर्व बायका आपापल्या घरी गेल्या. गावातील सुनंदाताई आपल्या नवऱ्याशी वाद घालू लागल्या “एवढं पैस जमा झालया, द्या की ते पोरांसाठी, का अजून बाई नाचोंवायची हाय ‘.

सुमनताई नवऱ्यासमोर कडाडल्या ” बाईला नाचवून पैस जमा केल्या न्हवं, न्हाई शाळ साठी दिल तर माझ्याशी गाठ हाय ‘.

यमुनाताई टोमणेच मारत होत्या ” सातारकर गुरुजी शालसाठी एवढं रबत्यात, त्याच हाय काय जीवाला, पैस जमीवलं ते दारू मटण खण्यासाठी, पोरांसाठी करा की खर्च’. सगळा पुरुष वर्ग वैतागला,

सर्वांच्या घरात तीच परिस्थिती, जो तो बायकोला तोंड देता देता कंटाळला. शेवटी गावातले सगळे पुरुष एकत्र आले आणि शाळा कमिटीकडे चार लाख रुपये देण्याचे ठरवले. सौदागर काकांकडे चार लाख रुपये आले. शहरातील एका कंपनीकडे पंचवीस टॅब ची ऑर्डर दिली गेली, आणि मुलांच्या हातात टॅब आले. मुलांना कॉम्प्युटर शिकवायला शेख बाई होत्याच.

सातारकरांच्या मनात आले, आपण या गावात आलो तेव्हा शाळेचे वर्ग म्हशीच्या गोठ्यात भरत होते. 10 11 मुले जेमतेम होती. आता शाळेसाठी स्वतंत्र बिल्डिंग तयार होते आहे. आठ वर्ग बांधून होत आहेत, गरज पडली तर अजूनही बांधण्याची तयारी आहे, आपण आलो तेव्हा एक एकच शिक्षक होतो, आता सहा शिक्षक आले आहेत, सर्व शिक्षक आपल्या हाताखाली तयार झाले आहे. सौदागर काकांचे त्यांना मार्गदर्शन आहे. स्वतः सौदागर काका आणि काकू शाळेत काही तास घेत आहेत. मुलांची प्रगती आहे. आता या शाळेची अशीच प्रगती होत राहणार. यापुढे या शाळेतील मुले एसएससी परीक्षेत चांगले यश मिळणार. आपले आता इथले काम संपले. आपण आता दुसऱ्या गावात जावे. जिथे आपली गरज असेल तेथे जावे.

सातारकर शिक्षणाधिकाऱ्यांना भेटले. सातारकरांवर शिक्षणाधिकारी खुश होतेच. मुलांच्या हातात टॅब देणारी पहिली शाळा होती सातारकरांची. शिक्षणाधिकारी सातारकराना म्हणाले ” आठवीच्या मुलांच्या हातात टॅब देणारी ही पहिली सरकारी शाळा आहे, जिचा नावलौकिक देशात नव्हे परदेशात सुद्धा वाजू लागला आहे. लवकरच या शाळेला परदेशी शिक्षण तज्ञ सुद्धा भेट देणार आहेत. या शाळेला परदेशातून सुद्धा मोठ्या मोठ्या देणग्या मिळतील.

“हो सर, मला कल्पना आहे या शाळेचे भवितव्य उज्वल आहे. पण माझी आता या शाळेला गरज नाही. जेथे माझी गरज आहे तेथे माझी बदली करावी. असे गाव शोधावे येथील मुले अजूनही शाळेत जात नाहीत, पालकांना मुलाच्या अभ्यासाबद्दल काही वाटत नाही, तेथे मला नवीन आव्हान घ्यावयास आवडेल.

शिक्षणाधिकाऱ्यांनी सातारकरांच्या विनंतीचा मान ठेवला, 50 किलोमीटर वरील दुसऱ्या तालुक्यातील टोकाच्या गावात त्यांची बदली केली.

सातारकरांची बदली झाली हे गावात कळले, गावातील पालक त्यांना विनंती करू लागले, हे गाव आणि ही शाळा सोडून जाऊ नका म्हणून. पण सातारकर ठाम राहिले, पालकांनी सौदागर काकांना त्यांची समजूत व घालायला सांगितले. पण सौदागर काका म्हणाले ” सातारकरांचे बरोबर आहे, जेथे गरज आहे तेथे त्यांना जाऊ दे, त्यांचा सारखा शिक्षक ज्या गावात जाईल, तेथे विद्यार्थी जमतील, शाळेची आणि शिक्षणाची भरभराट होईल ‘. आपल्या गावचे नशीब सातारकर आपल्या गावात पाच सहा वर्षे राहिले याचे. ‘

सर्वांचा निरोप घेऊन सातारकर निघाले, त्यांना निरोप देण्यासाठी अख्खे गाव एसटी स्टँडवर हजर होते. शाळेतील सहाशे मुले आठ शिक्षक आणि गावातील लहान-मोठे सर्वजण. बायका डोळ्याला पदर लावत होत्या, पुरुष मंडळी डोळे हळूच पुसत होते. स्वतः सरपंच आणि ग्रामपंचायत सदस्य पण हजर होते.

सर्वांना एकदा नमस्कार करून आणि सौदागर काकांच्या पायांना नमस्कार करून पाच वर्षांपूर्वी आणलेल्या दोन पिशव्या घेऊन सातारकर एसटी चढले.

— समाप्त — 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ “आठवणींचा पट…” – भाग – २ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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-☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ “आठवणींचा पट…” – भाग – २ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

(तेवढ्यात पाठीमागून शाळेतल्या शिक्षिका यायच्या, आणि पट्टीचे फटके मारून स्टेजवरून खाली उतरवायच्या.) – इथून पुढे —– 

मागील दहा वर्षात किमान पाच हजार व्याख्यानासाठी उभा राहिलो असेन….

मात्र अजूनही माईक पुढे गेलो, तरी भीती वाटते…. मागून कोणी तरी येईल आणि पट्टीचा फटका मारेल…. !त्यावेळी केलेल्या चुकांची अजूनही भीती वाटते…

मी केलेल्या चुका या “गुन्हा” नव्हत्या… पण त्या चुकाच होत्या… ! हे आज कळतंय.

आमचे एक गुरुजी होते… ते म्हणायचे, ‘आपल्याला आपली चूक समजली म्हणजे समजा निम्मी सुधारणा झाली… !’ 

‘आपल्याला आनंदी आणि सुखी राहायचं असेल तर कायम माघार घ्यायची, कुणाशी वाद घालायचा नाही… ‘ हे खुद्द ज्ञानेश्वर माऊलींनी ज्ञानेश्वरी मध्ये सांगितलं आहे.

– – पण माझ्यासारख्या रेड्याला हे काय कळणार ? पण ज्ञानेश्वर माऊली होऊन माझ्या शिक्षकांनी मला हे सांगितलं.

‘बाळा कुणाच्या कर्जात राहू नकोस पण आयुष्यभर एखाद्याच्या ऋणात रहा… ‘ हे सांगणारी माणसं, आता देवा घरी निघून गेली….

देवाचीच माणसं ही… तिथेच जाणार… !

मी अजूनही शोधतोय यांना…

तुमच्या आयुष्यात जर अशी माणसं असतील, तर हृदयाच्या तळ कप्प्यात आत्ताच यांना सांभाळून ठेवा, पुन्हा ते भेटत नाहीत माऊली !

वो फिर नही आते… वो… फिर नही आ…. ते… !!!

गतकाळात केलेल्या या चुका पुसायची मला जरी संधी मिळाली तरी मी त्या पुसणार नाही.

कारण या चुकांनीच मला बरंच काही शिकवलं…

“मान” म्हणजे काय हे समजून घ्यायचं असेल तर आधी एकदा अपमानाची चव घ्यावीच लागते…

पोट भरल्यानंतर जी “तृप्तता” येते ती अनुभवण्यासाठी, कधीतरी उपाशी राहण्याची कळ सोसावीच लागते…

आपण “बरोबर” आहोत हे समजण्यासाठी आधी खूप चुका कराव्या लागतात…

जिथं अंधाराचं अस्तित्व असतं, तिथंच प्रकाशाला किंमत मिळते…

पौर्णिमेच्या चंद्राचं कौतुक सर्वांनाच असतं… पण हा चंद्र पाहायला सुद्धा रात्र काळीकुट्टच असावी लागते… ! त्याच्या प्रकाशाला काळ्या मध्यरात्रीचीच किनार लाभलेली असते… नाहीतर दिवसा दिसणाऱ्या चंद्राकडे कोण पाहतं ? आपल्या आयुष्यात आलेल्या काळ्या रात्री आपणही अशाच जपून ठेवायच्या…

आता थोड्याच वेळात उजाडणार आहे; हे स्वतःलाच सांगत राहायचं…

अमावस्या काय कायमची नसते…

बस्स पंधराच दिवसात माझ्याही आयुष्यात पौर्णिमा येणार आहे, हे स्वतःला बजावत राहायचं… ! 

– – आणि पुढे पुढे चालत राहायचं… !!!

नवीन वर्षाच्या सर्वांना शुभेच्छा देऊन, या महिन्यात केलेले काम थोडक्यात सांगतो.

  1. ज्यांना कोणाचाही आधार नाही अशा पाच ताई आपल्या मुलाबाळांसह भीक मागायच्या. या पाचही जणींना कामाला तयार केलं आहे. त्यांना नवीन हातगाड्या घेऊन दिल्या आहेत. 26 जानेवारी या पवित्र दिवसापासून त्यांनी काम सुरू करून भिकेपासून स्वातंत्र्य मिळवले आहे.

भिक्षेकरी म्हणून नाही तर गावकरी म्हणून जगायला सुरुवात केली आहे… भारताचे नागरिक आणि प्रजा म्हणून त्यांना आता ओळख मिळेल… माझ्यासाठी खऱ्या अर्थाने यावेळचा 26 जानेवारी प्रजासत्ताक झाला.! 

  1. रस्त्यावर पडलेली एक ताई, हॉस्पिटलमध्ये उपचार करून हिला बरं केलं. काम सुरू कर भीक मागणं सोड अशी गळ घातली. तिने मान्य केलं. तिची एकूण प्रकृती आणि अशक्तपणा पाहता हातगाडी ढकलणे तिला शक्य नव्हते.

हॉस्पिटलमध्ये तिच्याशी बोलत असताना, बाबागाडीमध्ये बाळाला बसवून एक ताई चाललेल्या मला दिसल्या.

हिच आयडिया मी उचलून धरली, विक्री करायचे साहित्य बाबा गाडीत ठेवून विक्री करायची, बाबागाडी ढकलायला सुद्धा सोपी…

समाजात आवाहन केले, आपणास गरज नसेल तर, तुम्ही वापरत नसाल तर मला बाबागाडी द्या…

बाबागाडीचा हट्ट लहानपणी कधी केला नाही, आज मोठेपणी मात्र मी बाबागाडी मागितली…

“लहान बाळाचा हट्ट” समजून, समाजाने माझा हा हट्ट सुध्दा पुरा केला.

हि ताई कॅम्प परिसरात बाबा गाडीत साहित्य ठेवून बऱ्याच वस्तूंची विक्री करते.

बाबागाडीचा उपयोग बाळाला फक्त “फिरवण्यासाठीच” होतो असं नाही… “फिरलेलं” आयुष्य पुन्हा “सरळ” करण्यासाठी सुद्धा होतो… ! 

  1. मागे एकदा एक परिचित भेटले. मला म्हणाले, ‘घरात काही जुन्या चपला आहेत, तुला देऊ का ?’ 

मी द्या म्हणालो 

त्यांच्या सोबतीने त्यांच्या इतर मित्रांनी सुद्धा घरातल्या नको असलेल्या चपला आणून दिल्या.

आठ दहा पोत्यांमध्ये भरलेल्या या चपलांच्या आता जोड्या कशा जुळवायच्या ? 

चौथी की पाचवीच्या परीक्षेत जोड्या जुळवा असा एक प्रश्न असायचा, माझ्या तो आवडीचा.

आज डॉक्टर झाल्यानंतर सुद्धा जोड्या जुळवा हाच प्रश्न समोर पुन्हा एकदा आला.

मग आमच्या काही भिक्षेकरी मंडळींना हाताशी घेतलं, साधारण निर्जन स्थळी जाऊन सगळी पोती खाली केली… आणि आम्ही सगळेजण लागलो जोड्या जुळवायला… ! 

काही चपला आमच्या लोकांना वापरायला दिल्या, उर्वरित चपला जुन्या बाजारात आमच्या लोकांना विकायला दिल्या.

“चपलीची पण किंमत नाही” असा आपल्याकडे एक शब्द प्रयोग आहे. पण याच चपला विकून, आमच्यातले अनेक लोक भीक मागणे सोडून प्रतिष्ठा मिळवत आहेत.

चप्पलला किंमत असेल – नसेल; पण आमच्या लोकांची किंमत वाढवली ती या पायताणांनीच…! 

माझ्या दृष्टीने या चपलांची किंमत अनमोल आहे…! 

  1. दोन लोकांना ओळखीच्या माध्यमातून स्वच्छता सेवक आणि सिक्युरिटी गार्ड म्हणून नोकरीस लावून दिले आहे.
  2. रस्त्यावर ते जिथे बसतात रस्त्यावर दवाखाना थाटून वैद्यकीय सेवा नेहमीप्रमाणे सुरू आहे, हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट करणे सुरू आहे, डोळ्यांचे ऑपरेशन करणे, चष्मे देणे, रक्ताच्या विविध तपासण्या करणे, कानाची तपासणी करून ऐकायचे मशीन देणे इत्यादी इत्यादी वैद्यकीय बाबी सुरू आहेत.
  3. हॉस्पिटलमध्ये उपचार घेत असणाऱ्या गरीब रुग्णांना रोजच्या रोज जेवण देत आहोत. पूर्वी भीक मागणाऱ्या लोकांची एक टीम तयार करून त्यांच्याकडून सार्वजनिक भाग स्वच्छ करून घेत आहोत त्या बदल्यात त्यांना कोरडा शिधा देत आहोत, साबण टूथपेस्ट, टूथ ब्रश या सुद्धा गोष्टी पुरवत आहोत.

(सध्या भीक मागणाऱ्या अनेक लोकांना भीक मागणे सोडायचे आहे परंतु अंगात कोणतेही कौशल्य नाही. अशांसाठी एखादे प्रशिक्षण केंद्र तयार करून, त्यांना प्रशिक्षण देऊन, त्यांच्याकडून काही वस्तू तयार करून घेऊन त्यांना रोजगाराची संधी उपलब्ध करून द्यायची; असे स्वप्न गेल्या सहा वर्षांपासून पाहत आहे, अनेक कारणांमुळे ते सत्यात येऊ शकले नाही. परंतु येत्या महिन्याभरात असे प्रशिक्षण केंद्र उभे करण्याची पूर्वतयारी सुरू आहे. याबाबत सविस्तर माहिती काही दिवसात देणार आहे)

असो..

आपण ज्या समाजात राहतो तिथे वय वाढलेल्या लोकांना ज्येष्ठ म्हटलं जातं…

मी ज्या समाजासाठी काम करतो, तिथे वय वाढलेल्या लोकांना म्हातारडा – म्हातारडी थेरडा – थेरडी म्हटलं जातं…

आपण ज्या समाजात राहतो तिथे कुणी गेलं तर, ते देवा घरी गेले, कैलासवासी झाले असे शब्दप्रयोग केले जातात.

आमच्याकडचं कोणी गेलं तर म्हणतात… त्ये मेलं… खपलं 

– – वरील सर्व शब्द; अर्थ जरी एकच सांगत असले, तरीसुद्धा शब्दाशब्दांमध्ये प्रचंड अंतर आहे.

– – हे अंतर आहे… हा फरक आहे फक्त प्रतिष्ठेचा… ! 

हे जे काम आपल्या सर्वांच्या साथीनं सुरू आहे, ते फक्त या शब्दातले अंतर कमी करण्यासाठी…

शब्दातला फरक मिटवण्यासाठी…

“प्रतिष्ठा” नावाचा “गंध” त्यांच्या कपाळी लावण्यासाठी…!!! 

— समाप्त —  

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – – ३० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

वाचन

व्यक्तीच्या जडणघडणीत जसा सभोवतालच्या, आयुष्याच्या टप्प्याटप्प्यावर भेटणार्‍या अनेक माणसांचा प्रभाव असतो तसाच निसर्गाचा, झाडाझुडुपांचा आणि वाचनात आलेल्या पुस्तकांचाही फार मोठा वाटा असतो. नुकताच वाचक दिन साजरा झाला. त्या निमीत्ताने आज मुद्दाम लिहावसं वाटतंय कारण माझ्या आयुष्यात वाचनसंस्कृतीला अपार महत्व आहे. माझ्या मते तर माणसाला दोनच गोष्टी हुशार बनवतात. एक वाचलेली पुस्तके आणि दोन, भेटलेली माणसे.

वाचन हे चांगलं व्यसन आहे. ज्यामुळे माणसाचे मानसिक आरोग्य निरामय होऊ शकतं. ज्या व्यक्तीला वाचनाची आवड असते त्या व्यक्तीचे आयुष्य कधीही कंटाळवाणे होऊ शकत नाही. वेळ कसा घालवावा हा प्रश्न पडत नाही. एकटेपणा जाणवत नाही. कारण पुस्तक हा असा मित्र आहे की जो आपली संगत कधीही सोडत नाही. आपल्या सुखदुःखात तो, त्याच आनंदी, मार्गदर्शक चेहऱ्याने, कळत नकळत सतत आपल्या सोबत असतो.

एका इंग्रजी लेखकाने म्हटले आहे की,

“BOOKS ARE OUR COMPANIONS. THEY ELEVATE OUR SOULS. ENLIGHT OUR IDEAS AND ENABLE US TO THE GATES OF HEAVEN”

कल्पनाशक्ती, ज्ञान आणि शब्दसंग्रह उन्नत करण्याचं एकमेव माध्यम म्हणजे वाचन. कारण पुस्तके ही माहिती आणि ज्ञानाचा समृद्ध स्त्रोत आहेत.

वयानुसार आपल्या वाचनाच्या आवडीनिवडी बदलत जातात. लहानपणी चांदोबा, गोट्या, फास्टर फेणे, जातक कथा, बिरबलच्या कथा वाचण्यात रमलं. कुमार वयात, तारुण्यात, नाथ माधव, खांडेकर, फडके यांच्या स्वप्नाळू साहसी, शृंगारिक, वातावरणात आकंठ बुडालो. शांताबाई, तांबे, बालकवी, इंदिरा संत, विंदा, पाडगावकर यांनी तर कवितेच्या प्रांगणात मनाभोवती विचारांचे, संस्कारांचे एक सुंदर रिंगणच आखलं. धारप, मतकरी यांच्या गूढकथांनी तर जीवनापलिकडच्या अफाट, अकल्पित वातावरणात नेऊन सोडलं. ह. ना आपटे यांच्या “पण लक्षात कोण घेतो.. ” या कादंबरीने तर वैचारिक दृष्टिकोनच रुंदावला. त्यांची यमी आजही डोक्यातून जात नाही. श्रीमान योगी, ययाती, छावा, शिकस्त, पानीपत या कादंबऱ्यांनी इतिहासातला विचार शिकवला. आणि पु. लं. बद्दल तर काय बोलावं? त्या कोट्याधीशाने तर आमच्या मरगळलेल्या जीवनात हास्याची अनंत कारंजी उसळवली. जीवन कसं जगावं हे शिकवलं. विसंगतीतून विनोदाची जाण दिली. व्यक्ती आणि वल्लीच्या माध्यमातून त्यांनी माणसं वाचायला शिकवलं. लक्ष्मीबाई टिळकांची स्मृती चित्रे …कितीही वेळा वाचा प्रत्येक वेळी निराळा संस्कार घडवतात. ही यादी अफाट आहे, न संपणारी आहे. यात अनेक आवडते परदेशी लेखकही आहेत. साॅमरसेट माॅम, अँटन चेकाव, हँन्स अँडरसन, बर्नाड शाॅ, पर्ल बक, डॅफ्ने डी माॉरीअर, जेफ्री आर्चर, रॉबीन कुक.. असे कितीतरी. ही सारी मंडळी मनाच्या गाभाऱ्यात चिरतरुण आहेत कारण त्यांच्या लेखनाने आपली वाचन संस्कृती, अभिरुची, अभिव्यक्ती तर विस्तारलीच पण जगण्याला एक सकारात्मक दिशा मिळाली. त्यांनी आशावादही दिला, एक प्रेरणा दिली.

वाचनाने आमचे जीवन समृद्ध केले, निरोगी केले, आनंदी केले. , कसे? हे बघा असे.

विंदा म्हणतात,

“वेड्या पिशा ढगाकडून वेडे पिसे आकार घ्यावे

रक्तामधल्या प्रश्नांसाठी पृथ्वीकडून होकार घ्यावे…”

कुसुमाग्रज म्हणतात,

“मोडून पडला संसार तरी मोडला नाही कणा

पाठीवरती हात ठेवून फक्त लढ म्हणा…”

शेक्सपियर म्हणतात,

” प्रेम सर्वांवर करा, विश्वास थोड्यांवर ठेवा, पण द्वेष मात्र कोणाचाच करू नका. “

किंवा, ” सुंदर फुले हळुवारपणे उमलत असतात तर गवत झपाट्याने उगवते. ” 

साने गुरुजींनी सांगितले,

“खरा तो एकची धर्म जगाला प्रेम अर्पावे.. “

हे सारंच विचारांचं धन आहे. अनमोल आहे! अनंत, अफाट आहे आणि हे असं धन आहे की, जगण्याच्या कोणत्याही टप्प्यावर तुम्ही स्वतःसाठी वापरा, दुसऱ्यांना द्या ते कमी होत नाही. वैचारिक धनासाठी डेबिट हे प्रमाणच नाही. ते सदैव तुमच्या क्रेडिट बॅलन्स मध्येच राहतं. आणि फक्त आणि फक्त ते वाचनातूनच उपलब्ध असतं. म्हणूनच म्हणतात “वाचाल तर वाचाल”

वाचनाचे अनेक प्रकार असू शकतात. अध्यात्मिक ग्रंथ वाचन, चरित्रात्मक वाचन, कविता, ललित, कथा, कादंबरी, रहस्यमय, गूढ, भयकारी, साहसी, अद्भुत, शृंगारिक, विनोदी, नाट्य, लोकवाङमय, प्रवास, संगीत, अगदी पाकशास्त्र सुद्धा. अशा अनेक साहित्याच्या शाखा आहेत. आता तर डिजिटल वाङमयही भरपूर आहे. ज्याने त्याने आपल्या बुद्धीच्या कुवतीनुसार, आवडीनुसार स्वभावानुसार, वाचावे. पण वाचावे. नित्य वाचावे.

वाचन हे माणसाला नक्कीच घडवतं. प्रेरणा देतं. कल्पक, सावध, जागरुक बनवतं. केसरी आणि मराठा वाचून अनेक क्रांतीकारी निर्माण झाले. सावरकरांच्या कविता वाचताना आजही राष्ट्रभावना धारदार बनते.

वाचन आणि कुठलीही आवड अथवा छंद याचं एक अदृश्य नातं आहे. जसं आपण एखादं झाड वाढावं म्हणून खत घालतो आणि मग ते झाड बहरतं. तसेच वाचनाच्या खाद्याने आवडही बहरते. ती अधिक फुलते. चारी अंगानी ती समृद्ध होत जाते. आवडीला आणि पर्यायाने व्यक्तीमत्वाला आकार येतो.

मात्र जशा नाण्याला दोन बाजू असतात तशाच वाचनालाही आहेत. संगत माणसाला घडवते नाहीतर बिघडवते. वाचनातून अशी काही धोक्याची वळणं जीवनाला विळखा घालू शकतात. पण हे व्यक्तीसापेक्ष आहे. ज्याचे त्यांनी ठरवावे काय वाचावे. या नीरक्षीरतेची रेषा जर वाचकाला ओलांडता आली तर मात्र तो स्वतःची आणि इतरांची जीवनसमृद्धी घडवू शकतो.

कित्येक वेळा जाहिराती, रस्त्यावरच्या पाट्या, भिंतीवर लिहिलेले सुविचार, पानटपरीवरचे लेखन, ट्रकवर लिहिलेली वाक्येही तुम्हाला काहीबाही शिकवतातच. आणि वाचनाची आवड असणारा हे सारं सहजपणे वाचत असतो. आणि या विखुरलेल्या ज्ञानाची फुलेही परडीत गोळा करतो.

मला वयाची पंचाहत्तरी ओलांडली तरी बालवाङमय वाचायला आवडते. मी आजही परी कथेत रमते. रापुन्झेल, सिंड्रेला, हिमगौरी मला मैत्रीणी वाटतात. हळुच विचार डोकावतो, माझ्यासारख्या त्या मात्र वृद्ध होणार नाहीत. त्यापेक्षा त्या आहेत म्हणून माझेही शैशव अबाधित आहे. आजही मी बोधकथेत गुंतते.

भाकरी का करपली? घोडा का अडला? चाक का गंजले?…. या प्रश्नांना बिरबलाने एकच उत्तर दिले ” न फिरविल्याने “.. हे वैचारिक चातुर्य बालसाहित्य वाचनातून मला आजही मिळतं.

” तुपात पडली माशी चांदोबा राहिला उपाशी ” – – या ओळीतला गोडवा माझ्या कष्टी मनाला आजही हसवतो.

बालवयात वाचलेल्या अनेक कविता नवे आशय घेऊन आता उतरतात. आणि पुन्हा पुन्हा मनाला घडवतात.

॥उठा उठा चिऊताई सारीकडे उजाडले । डोळे तरी मिटलेले अजूनही॥… आज या ओळी मला जीवनाचा नवा अर्थ सांगतात. त्या झोपलेल्या चिऊताईत मला जणू काही मीच दिसते. कुणीतरी मलाच नव्याने जगाकडे, बदलत्या काळाकडे पहाण्याची दृष्टी देते.

वाचनाचा हा प्रवास न संपणारा आहे. शेवटचा श्वास हेच त्याचे अंतिम स्थानक असणार आहे. बाकी सगळं तुम्ही ठेवून जाणार आहात इथेच. कारण ते भौतिक आहे. पण वाचन हे आधिभौतिक आहे. पारलौकिक आहे. हे धन ही समृद्धी, हे विचारांचे माणिक—मोती तुमच्या बरोबर येणार, कारण ते तुमच्या आत्म्याचा भाग आहे…

 क्रमशः…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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