हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष ☆ सुश्री रेखा शाह आरबी ☆

सुश्री रेखा शाह आरबी

(सुश्री रेखा शाह आरबी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। साहित्य लेखन-पठन आपकी अभिरुचि है। आपकी प्रकाशित पुस्तक का नाम ‘संघर्ष की रेखाएँ’ है। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपका एक विचारणीय आलेख ‘घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष’।)

? आलेख ⇒  घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों से घुटते पुरुष ? सुश्री रेखा शाह आरबी  ?

हमारे देश में महिला सुरक्षा एक ज्वलंत और महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। आधुनिक समाज और सरकार की यह मंशा रही है कि महिलाएं किसी भी प्रकार के हिंसा उत्पीड़न और दुर्व्यवहार से सुरक्षित रहे। समाज में महिलाओं को सुरक्षित माहौल मिले और काम करने का अधिकार मिले और वह आत्मनिर्भर बनकर समाज को सशक्त बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। इसके लिए भरसक प्रयास किया गया है। इसके लिए महिलाओं के हित सुरक्षा के लिए अनेक कानून और नीतियां है। जो उन्हें समाज में समान स्थान दिलाने के लिए जरूरी भी था।

दहेज प्रथा भारतीय समाज और महिलाओं के लिए एक अभिशाप था। और इसके उन्मूलन के लिए कानूनी प्रावधान रुपी सशक्त कानून दहेज प्रतिषेध अधिनियम (1961) बनाया गया जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498A का उद्देश्य दहेज की प्रताड़ना से प्रताड़ित महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए बनाया गया था। जो काफी कारगर भी सिद्ध हुआ है। इस कानून के कारण महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण सुरक्षा बहुत हद तक मिल रहा है। जिससे वह अपना सुरक्षित विकास कर सके।

अपने देश में जब भी सामाजिक न्याय, शोषण, लैंगिक समानता की चर्चा उठती है। तब सिर्फ महिलाओं को ही शोषित और प्रताड़ित माना जाता है जो कि सर्वथा अनुचित है। पुरुष भी प्रताड़ना के शिकार होते हैं घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं। उनके साथ भी अनुचित और घोर अमानवीय व्यवहार होता है।

पुरुष को भी घरेलू हिंसा से टॉर्चर किया जाता है और झूठे मुकदमों में फंसा कर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 जैसा एक तरफा कानून होने के वजह से पुरुषों को अपनी सुरक्षा के लिए कानूनी संरक्षण नही प्राप्त हो पाता है।

जिसके कारण वह खुद को लाचार और असहाय महसूस करते हैं। कुछ महिलाएं 498A धारा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। और दुर्भावना से प्रेरित होकर निर्दोष पुरुष और उनके परिवारों को इस कानून के दायरे में फंसाने के लिए उपयोग करने लगी हैं।

आप सोच कर देखिए यदि कोई महिला अपनी गलत मंशा की पूर्ति के लिए यदि इस कानून का अपने ससुराल वालों के खिलाफ इस्तेमाल करती है। या पति के खिलाफ इस्तेमाल करती है तो वह कितने असहाय हो जाते हैं।

और इसके अलावा हमारे समाज की मानसिकता ऐसी है कि जब भी स्त्री और पुरुष में कोई विवाद का मामला सामने आता है। तो बिना विचार किये पुरुषों को दोषी और अपराधी बता दिया जाता है। जबकि पुरुष भी दोषी हो सकता है महिला भी दोषी हो सकती है इसका पूरी संभावना रहती है।

अधिकांश पुरुष अपने घर की बातें समाज में ले जाने से भी अक्सर कतराते है। क्योंकि उसे उसी समाज में रहना होता है। और वह अपनी जग हंसाई से डरता है। और जब भी पुरुष दहेज के झूठे मुकदमे में फंसता है या घरेलू हिंसा का शिकार होता है तो वह ज्यादातर घुट घुट कर जीने को मजबूर हो जाता है।

क्योंकि वह जानता है कि ज्यादातर लोगों की सहानुभूति बिना हकीकत को जाने महिला पक्ष की तरफ रहेगी। उसका आत्मविश्वास पहले ही टूट जाता है।

और पुरुष प्रताड़ना का सबसे ज्यादा आधार बनते हैं वह नियम जो स्त्रियों को सुरक्षा देने के लिए बनाए गए। किसी भी वैवाहिक जीवन में विवाद की स्थिति आने पर दहेज प्रतिषेध अधिनियम (1961) के कानून धारा 498A का पत्नि और उनके परिवार वाले नाजायज और अनुचित फायदा उठाते हैं। और उन्हें कानून के आधार पर डरा धमकाकर अपनी अनुचित और नाजायज मांगो की पूर्ति करते हैं। और पुरुष अपने परिवारजन और अपने आप को बचाने के खातिर ब्लैकमेल होता रहता है।

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A, जो एक विवाहित महिला के प्रति उसके पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता से संबंधित है, अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 85 में शामिल की गई है। इस नए प्रावधान में मूल रूप से वही अपराध परिभाषित है, जिसमें किसी महिला के प्रति क्रूरता (शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक) को दंडनीय बनाया गया है, और इसमें कारावास की सजा, जो तीन साल तक हो सकती है, के साथ-साथ जुर्माना भी शामिल है।

कई बार इन कानूनो के वजह से ऐसा हो जाता है कि जहां तक उसके बर्दाश्त की सीमा होती है वहां तक वह यह प्रताड़ना झेलता रहता है। और जब यही प्रताड़ना हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो वह सुसाइड की तरफ अपना कदम बढ़ा लेता है।

और इसके एक नहीं अनेक समाज में उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। ऐसे प्रताड़ना के शिकार होकर मरने वाले पुरुषों की संख्या दिन-ब-दिन आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती ही जा रही है।

कुछ नाम हाल ही में चर्चा में आए। ऐसा कहा जा रहा है कि आगरा निवासी टीवीएस कंपनी के मैनेजर मानव शर्मा, बेंगलुरु के एआई इंजीनियर अतुल सुभाष, दिल्ली के सॉफ्टवेयर इंजीनियर सतीश या इनके जैसे अनेक लोग तथाकथित घरेलू हिंसा और पत्नी प्रताड़ना के शिकार हो गए हैं ।

यह दो-तीन नाम तो मात्र चर्चा में आए और सुर्खियों में आने के कारण लोग जान रहे हैं। लेकिन इनके अलावा भी हजारों ऐसे लोग हैं जो घोर प्रताड़ना के शिकार हैं। और जिनकी खोज खबर लेने वाला भी कहीं कोई नहीं है। वह मर मर कर जीने को मजबूर है।

यह सब कोई अशिक्षित, बेरोजगार युवा नहीं है बल्कि समाज में अच्छे ओहदे पर कार्यरत और पढ़े लिखे युवा थे। सोच कर देखिए इतने अच्छे ओहदो पर अपनी बुद्धि, क्षमता, कार्य कुशलता से पहुंचने वाले युवा आखिर ऐसी कौन सी स्थिति बन रही है कि अपने आप को खत्म कर ले रहे हैं। इस सवाल का जवाब समाज को ढूंढना बहुत जरूरी है।

इस पर समाज को विचार करने की बेहद आवश्यकता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो पुरुष वर्ग का विवाह नामक संस्था से विश्वास पूर्णतया उठ जाएगा। जो समाज में और भी अराजकता और दुराचार फैलाने का कारण बनेगा।

498A धारा का दुरुपयोग हजारों पुरुषों के जीवन को पूरी तरह तहस-नहस कर देता है। क्योंकि इस कानून के कारण उनको न्याय के लिए बुरी तरह भटकना पड़ता है। किंतु उसे उम्मीद की किरण नहीं दिखाई देती है। और यही निराशा उसकी जान ले लेती है।

एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार 498A के तहत दर्ज मामलों में लगभग 74% कोई ठोस सबूत नहीं मिला। 90% मामलों में पुरुष को अंततः बरी कर दिया गया क्योंकि वह निर्दोष थे। लेकिन इस प्रक्रिया, अवधि में उन्हें सामाजिक, आर्थिक, मानसिक प्रताड़ना का बुरी तरह शिकार होना पड़ा।

जिससे वह टूट जाते हैं और वह इसलिए टूट जाते हैं क्योंकि उनकी बरसों की कमाई, मान, प्रतिष्ठा सब कुछ तहस-नहस कर दिया जाता है। एक पुरुष के लिए उसकी सामाजिक मान, प्रतिष्ठा और उसकी आर्थिक स्थिति काफी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। क्योंकि अभी भी अधिकांश घरों में परिवार की पहली जिम्मेदारी पुरुष के ऊपर ही होती है। उसके कंधों पर ही सारा भार होता है और परिवार में सिर्फ पत्नी नहीं होती है। उसके बच्चे होते हैं, माता-पिता होते हैं, छोटे- भाई बहन होते हैं। और यदि वह किसी झूठे केस और दहेज के झूठे मुकदमे में फंस जाता है। तो वह अपनी कोई भी जिम्मेदारी ढंग से पूरी नहीं कर पता है जिसके कारण भी वह बेहद गहरे अवसाद में चला जाता है और शायद ही वह फिर कभी अपनी पहले जैसी आर्थिक स्थिति, सम्मान, प्रतिष्ठा को वापस पाता है।

आखिरकार पुरुषों को भी एक सम्मान पूर्वक जीवन जीने का समान रूप से अधिकार है। इसके लिए सरकार जब तक ऐसे झूठे मुकदमे करने वाले लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही नहीं करेगी। तब तक इस स्थिति में सुधार नहीं आएगा। पुरुष घरेलू हिंसा के झूठे मुकदमों का शिकार होते रहेंगे और अपनी जान गंवाते रहेंगे।

यह तथ्य भी सही है कि स्त्री प्रताड़ना की बहुत अधिक शिकार होती हैं। लेकिन पुरुषों की प्रताड़ना को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। जितना नारी सशक्तिकरण आवश्यक है। उतना ही पुरुषों को भी न्याय मिलना आवश्यक है। दोनों के हितों की समान रूप से रक्षा होनी चाहिए।

अन्याय चाहे स्त्री के प्रति हो या पुरुष के प्रति हो अन्याय तो अन्याय ही रहेगा। इसलिए अब ऐसे कानून की बेहद आवश्यकता है। जो ऐसे झूठे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट के द्वारा जल्द से जल्द फैसला दिया जाए। ताकि निर्दोषो को तुरंत न्याय मिल सके। और वह शांति पूर्वक अपना पारिवारिक जीवन जी सके। एक सभ्य समाज का निर्माण समानता के धरातल पर ही टिक सकता है। स्त्री हो या पुरुष एक वर्ग का असंतोष पूरे समाज को प्रभावित करता है।

परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों को भी चाहिए कि यदि ऐसी स्थिति में प्रताड़ित हुआ कोई दोस्त मित्र उनके संज्ञान में आए तो वक्त पर उस व्यक्ति को मानसिक भावनात्मक सहारा अवश्य दें। जिससे कि वह अपने मानसिक तनाव से लड़ सके। ऐसा करना हो सकता है कि किसी की जान बचा ले।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री रेखा शाह आरबी

बलिया( यूपी )

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 651 ⇒ काली मूँछ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काली मूँछ।)

?अभी अभी # 651 ⇒ काली मूँछ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मूँछें मर्द की होती हैं ! वे शुरू में काली होती हैं, लेकिन उम्र के साथ सफेद होती चली जाती है। लेकिन चावल की एक किस्म होती है, जिसे भी काली मूँछ कहा जाता है। यह चावल काला नहीं सफेद होता है, लेकिन इसकी लंबाई के आखिर में हल्का सा कालापन दिखाई देता है, शायद इसीलिए इसे काली मूँछ कहते हों।

कृष्ण और सुदामा की दोस्ती में चावल का जिक्र ज़रूर होता है। मुट्ठी भर चावल की दास्तान ही कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की पहचान है। आज भी आप जगन्नाथ पुरी चले जाएं, जगन्नाथ के भात का भोग ही प्रसाद के रूप में भक्तों को प्राप्त होता है। चावल को अक्षत भी कहते हैं, बिना कंकू-चावल के पूजा नहीं होती। किसी खास अवसर पर निमंत्रण हेतु पीले चावल भिजवाए जाते हैं। और तो और बिना चावल के हाथ भी पीले नहीं होते। सावधान के मंत्र के साथ अक्षत वर्षा होती है, और वर-वधू सावधान हो जाते हैं।।

आप देश के किसी भी कोने में चले जाएं, भोजन में चावल का स्थान नमक की तरह निश्चित है। बासमती, जैसे कि इसके नाम से ही जाहिर है, खुशबू वाला चावल है। बिरयानी कहीं भी खाई जाए, बिना चावल के नहीं बनती।

यूँ तो छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा गया है, लेकिन पॉलिश और खुशबू वाले बासमती चावल की तुलना में यहाँ का चावल अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। जिस चावल में स्टार्च कम हो, वह अधिक लाभप्रद होता है। मणिपुर में एक काले चावल की प्रजाति पाई जाती है। औषधीय गुण की अधिकता के कारण इसकी कीमत 1800 ₹ किलो है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट अधिक मात्रा में पाया जाता है।

पसंद अपनी अपनी, स्वाद अपना अपना। ग्वालियर के आसपास पाया जाने वाला काली मूँछ चावल बासमती चावल की तुलना में आजकल कम प्रचलन में है। मूँछ हो या न हो, कभी काली मूँछ चावल का स्वाद भी चखकर देखें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ महावीर जयंती विशेष – महावीर स्वामी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

महावीर जयंती विशेष – महावीर स्वामी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

वर्धमान महावीर को, सौ-सौ बार प्रणाम।

जैन धर्म का कर सृजन, रचे नवल आयाम।।

*

तीर्थंकर भगवान ने, फैलाया आलोक।

परे कर दिया विश्व से, पल में सारा शोक।।

*

महावीर ने जीतकर, मन के सारे भाव।

जीत इंद्रियाँ पा लिया, संयम का नव ताव।।

*

कुंडग्राम का वह युवा, बना धर्म दिनमान।

रीति-नीति को दे गया, वह इक चोखी आन।।

*

वर्धमान साधक बने, और जगत का मान।

जैनधर्म के ज्ञान से, किया मनुज-कल्याण।।

*

पंच महाव्रत धारकर, दिया जगत को सार।

करुणा, शुचिता भेंटकर, हमको सौंपा प्यार।।

*

जैन धर्म तो दिव्य है, सिखा रहा सत्कर्म।

धार अहिंसा हम रखें, कोमलता का मर्म।।

*

तीर्थंकर चोखे सदा, धर्म प्रवर्तक संत।

अपने युग से कर गए, अधम काम का अंत।।

*

मातु त्रिशला धन्य हैं, दिया अनोखा लाल।

जो करके ही गया, सच में बहुत कमाल।।

*

आओ ! हम सत् मार्ग के, बनें पथिक अति ख़ूब।

मानवता की खोज में, जाएँ हम सब डूब।।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 246 ☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 246 ☆ 

☆ बाल गीत – हो अपना मधुर व्यवहार ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सहज , सरल जीवन बने

मानव कर उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

बिगड़े अपने काम बनेंगे

जीवन को हम महकाएँ ।

सत्यनिष्ठ , आचरण सुगंधित

फूलों – सा हम मुस्काएँ।

 *

मन पावन हो आचरण

बाँटें जग में प्यार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

द्वेष , कपट सब मिट जाते हैं

मन निर्मल हो जाता है ।

सोच  – समझकर मीठा बोलें

जटिल प्रश्न हल हो जाता है।।

 *

सदाचार का पाठ ही

है जीवन का सार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

जो भी मधु – सा मीठा बोलें

अपना ही उपकार करें।

गन्ने का रस मीठा बनकर

तन – मन में संस्कार भरें।

 *

भोजन शाकाहार का

करें प्रचार – प्रसार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

 *

कोमल मन पहचान बनाए

मधुर नेह को उपजाता।

शौर्य पराक्रम स्वयं मिलेगा

मानव अंबर छू पाता।

 *

सदभावों , गुण,  प्रेम से

खुद का हो उपकार।

मूल मंत्र मधुविद्या का

करें मधुर व्यवहार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

‘सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

💐 संपादकीय निवेदन 💐

💐 अभिनंदन! अभिनंदन! अभिनंदन! 💐

तितीक्षा इंटरनॅशनल ने आयोजित केलेल्या श्री गणेश या विषयावरील काव्य स्पर्धेत आपल्या समुहातील ज्येष्ठ कवयित्री उज्वला सहस्त्रबुद्धे यांना ह्रदयस्पर्शी या गटात पुरस्कार प्राप्त झाला आहे. इ अभिव्य्क्ती परिवाराकडून त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि शुभेच्छा. !

– आजच्या अंकात वाचूया त्यातील त्यांची एक पुरस्कारप्राप्त कविता – “गणेश – जन्म…”

– संपादक मंडळ

ई – अभिव्यक्ती, मराठी विभाग

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ गणेश – जन्म… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

गणांचा अधिपती, तू आहेस गणराय !

जन्म माघ चतुर्थीचा, असे मंगलमय !.. १

 *

 पार्वती पुत्र तू, भोळा शंकर तुझा पिता!

असशी तू बुद्धिवंत, तनय एकदंता… २

 *

तुझी जन्म कथा ऐकतो, असे तीही न्यारी !

लाभले गजमुख तुला, सकाळच्या प्रहरी !… ३

*

अवज्ञा तू केलीस, साक्षात श्री शंकराची!

शिरच्छेद केला त्याने, परिसीमा क्रोधाची !… ४

*

 माता पार्वती दुःख करी, पुत्र तिचा गुणी !

आणून द्या त्याचे शीर, माता बोले तत्क्षणी!… ५

*

पश्चात्ताप करी सांब, मातेचे दुःख पाहुनी!

पहिले शीर आणीन, निश्चय केला मनी !… ६

*

 प्रातःकाली दृष्टीस पडे, गजाचे आनन!

गणेशास मिळे पुनर्जन्म, झाला गजवदन!.. ७

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खरे सुख… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

खरे सुख☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆  

(आनंदकंद)

पैशात मोजलेले असते खरेच सुख का

दारिद्र्य शिकविते ते नसते खरेच सुख का

*

बापास कष्ट पडती पण लेक आयतोबा

खाऊन मेद वाढे फसते खरेच सुख का

*

शेतात राबतो अन कष्टास तोड नाही

पाहून पीक हिरवे कसते खरेच सुख का

*

मिळतेय वारसांना आज्यास कष्ट पडले

भांडून भाग मिळतो डसते खरेच सुख का

*

भाग्यात खूप होते ताटात सांडले पण

झोळीच फाटकी जर हसते खरेच सुख का

 

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – ही घटना म्हणजे – दत्तसेवेबद्दलची नकळत माझ्या मनावर चढू पहाणारी सूक्ष्मशा अहंकाराची पुटं खरवडून काढण्याची सुरुवात होती हे त्या क्षणी मला जाणवलं नव्हतंच. पण आम्हा सगळ्यांचंच भावविश्व उध्वस्त करणाऱ्या पुढच्या सगळ्या घटनाक्रमांची पाळंमुळं माझ्या ताईच्या श्रद्धेची कसोटी बघणारं ठरलं एवढं खरं! त्या कसोटीला ताई अखेर खरी उतरली पण त्यासाठीही तिने पणाला लावला होता तो स्वतःचा प्राणपणाने जपलेला स्वाभिमानच!!)

“हे गजानन महाराज कोण गं?” त्यादिवशी मी कांहीशा नाराजीने ताईला विचारलेला हा प्रश्न. पण ‘ते कोण?’ हे मला पुढे कांही वर्षांनी पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेल्यानंतर समजलं. अर्थात तेही माझ्या ताईमुळेच. तिच्या आयुष्यात आलेल्या, तिला उध्वस्त करू पहाणाऱ्या चक्रीवादळातही गजानन महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच ती पाय घट्ट रोवून उभी राहिलीय हे मी स्वतः पाहिलं तेव्हा मला समजलं. पण त्यासाठी मला खूप मोठी किंमत मोजावी लागली होती! तिचं उध्वस्त होत जाणं हा खरं तर आम्हा सर्वांनाच खूप मोठा धक्का होता! या पडझडीत ते ‘आनंदाचं झाड’ पानगळ सुरू व्हावी तसं मलूल होत चाललं.. आणि ते फक्त दूर उभं राहून पहात रहाण्याखेरीज आम्ही काहीही करू शकत नव्हतो. नव्हे आम्ही जे करायला हवे होते ते ताईच आम्हाला करू देत नव्हती हेच खरं. तो सगळाच अनुभव अतिशय करूण, केविलवाणा होता आणि टोकाचा विरोधाभास वाटेल तुम्हाला पण तोच क्षणभर कां होईना एका अलौकिक अशा आनंदाचा साक्षात्कार घडवणाराही ठरणार होता !!

एखाद्या संकटाने चोर पावलांनी येऊन झडप घालणे म्हणजे काय याचा प्रत्यय आम्हा सर्वांना आला तो ताईला गर्भाशयाचा कॅन्सर डिटेक्ट झाला तेव्हा! या सगळ्याबाबत मी मात्र सुरूवातीचे कांही दिवस तरी अनभिज्ञच होतो. मला हे समजलं ते तिची ट्रीटमेंट सुरू होऊन पंधरा दिवस उलटून गेल्यानंतर. कारण मी तेव्हा विदर्भ मराठवाड्यातल्या ब्रॅंचेसचा ऑडिट प्रोग्रॅम पूर्ण करण्यांत व्यस्त आणि अर्थातच घरापासून खूप दूर होतो. तेव्हा मोबाईल नव्हते. त्यामुळे मला वेळ मिळेल तसं मीच तीन चार दिवसांतून एकदा रात्री उशीरा लाॅजपासून जवळच असलेल्या एखाद्या टेलिफोन बूथवरून घरी एसटीडी कॉल करायचा असं ठरलेलं होतं. कामातील व्यस्ततेमुळे मी त्या आठवड्यांत घरी फोन करायचं राहूनच गेलं होतं आणि शिळोप्याच्या गप्पा मारायच्या तयारीने नंतर भरपूर वेळ घेऊन मी उत्साहाने घरी फोन केला, तर आरतीकडून हे समजलं. ऐकून मी चरकलोच. मन ताईकडे ओढ घेत ‌राहिलं. ताईला तातडीनं भेटावंसं वाटत होतं पण भेटणं सोडाच तिच्याशी बोलूही शकत नव्हतो. कारण तिच्या घरी फोन नव्हता. ब्रँच ऑडिट संपायला पुढे चार दिवस लागले. या अस्वस्थतेमुळे त्या चारही रात्री माझ्या डोळ्याला डोळा नव्हता. आॅडिट पूर्ण झालं तशी मी लगोलग बॅग भरली. औरंगाबादहून आधी घरी न जाता थेट ताईला भेटण्यासाठी बेळगावला धाव घेतली. तिला समोर पाहिलं आणि.. अंहं… ‘डोळ्यात पाणी येऊन चालणार नाही. धीर न सोडता, आधी तिला सावरायला हवं.. ‘ मी स्वत:लाच बजावलं.

“कशी आहे आता तब्येत?”… सगळ्या भावना महत्प्रयासाने मनांत कोंडून टाकल्यावर बाहेर पडला तो हाच औपचारिक प्रश्न!

“बघ ना. छान आहे की नाही? सुधारतेय अरे आता.. “

ताईच्या चेहऱ्यावरचं उसनं हसू मला वेगळंच काहीतरी सांगत होतं! ती आतून ढासळणाऱ्या मलाच सावरू पहातेय हे मला जाणवत होतं.

केशवरावसुद्धा दाखवत नसले तरी खचलेलेच होते. त्यांच्या हालचालीतून, वागण्या बोलण्यातून, उतरलेल्या त्यांच्या चेहऱ्यावरून, बोलता बोलता भरून येतायत असं वाटणाऱ्या डोळ्यांवरून, त्यांचं हे आतून हलणं मला जाणवत होतं!

मी वयाने त्यांच्यापेक्षा खूप लहान. त्यांची समजूत तरी कशी आणि कोणत्या शब्दांत घालावी समजेचना.

“आपण तिला आत्ताच मुंबईला शिफ्ट करूया. तिथे योग्य आणि आवश्यक उपचार उपलब्ध असतील. ती सगळी व्यवस्था मी करतो. रजा घेऊन मी स्वत: तुमच्याबरोबर येतो. खर्चाची संपूर्ण जबाबदारी मी घेतो. तुम्ही खरंच अजिबात काळजी करू नका. ताई सुधारेल. सुधारायलाच हवी…. “

मी त्यांना आग्रहाने, अगदी मनापासून सांगत राहिलो. अगदी जीव तोडून. कारण थोडंसं जरी दुर्लक्ष झालं, उशीर झाला,.. आणि ताईची तब्येत बिघडली तर.. ? ती.. ती गेली तर?.. माझं मन पोखरू लागलेली मनातली ही भीती मला स्वस्थ बसू देईना.

केशवरावांनी सगळं शांतपणे ऐकून घेतलं. आणि मलाच धीर देत माझी समजूत घातली. बेळगावला अद्ययावत हॉस्पिटल आहे आणि तिथे सर्व उपचार उपलब्ध आहेत हे मला समजावून सांगितलं. त्यांनी नीट सगळी चौकशी केलेली होती आणि त्यांच्या म्हणण्याप्रमाणे सर्वदृष्टीने विचार केला तर तेच अधिक सोयीचं होतं. मी त्यापुढं कांही बोलू शकलो नाही. ते सांगतायत त्यातही तथ्य आहे असं वाटलं, तरीही केवळ माझ्याच समाधानासाठी मी तिथल्या डॉक्टरांना आवर्जून भेटलो. त्यांच्याशी सविस्तर बोललो. माझं समाधान झालं तरी रूखरूख होतीच आणि ती रहाणारच होती!

केमोथेरपीच्या तीन ट्रीटमेंटस् नंतर ऑपरेशन करायचं कीं नाही हे ठरणार होतं. ती वाचेल असा डॉक्टरना विश्वास होता. तो विश्वास हाच आशेचा एकमेव किरण होता! केमोचे हे तीन डोस सर्वसाधारण एक एक महिन्याच्या अंतराने द्यायचे म्हणजे कमीत कमी तीन महिने तरी टांगती तलवार रहाणार होतीच आणि प्रत्येक डोसनंतरचे साईड इफेक्ट्स खूप त्रासदायक असत ते वेगळंच.

ताईचं समजल्यावर माझी आई तिच्याकडे रहायला गेली. त्या वयातही आपल्या मुलीचं हे जीवघेणं आजारपणही खंबीरपणे स्वीकारून माझी आई वरवर तरी शांत राहिली. घरातल्या सगळ्या कामांचा ताबा तिने स्वतःकडे घेतला. तिच्या मदतीला अजित-सुजित होतेच. औषधं, दवाखाना सगळं केशवराव मॅनेज करायचे. ताईचे मोठे दीर-जाऊ यांच्यापासून जवळच रहायचे. त्यांचाही हक्काचा असा भक्कम आधार होताच. हॉस्पिटलायझेशन वाढत राहिलं तेव्हा योग्य नियोजन आधीपासून करून तिथं दवाखान्यांत थांबायला जायचं, आणि एरवीही अधून मधून जाऊन भेटून यायचं असं माझ्या मोठ्या बहिणीने आणि आरतीने आपापसात ठरवून ठेवलेलं होतं. प्रत्येकांनी न सांगता आपापला वाटा असा उचलला होता‌. तरीही ‘पैसा आणि ऐश्वर्य सगळं जवळ असणाऱ्या माझं या परिस्थितीत एक भाऊ म्हणून नेमकं कर्तव्य कोणतं?’ हा प्रश्न मला त्रास देत रहायचा. जाणं, भेटणं, बोलणं.. हे सगळं सुरू होतंच पण त्याही पलिकडे कांही नको? सुदैवाने ताईच्या ट्रीटमेंटचा संपूर्ण खर्च करायची माझी परिस्थिती होती. मला कांहीच अडचण नव्हती. ‘हे आपणच करायला हवं’ असं मनोमन ठरवलं खरं पण आजवर माझ्यासाठी ज्यांनी बराच त्याग केलेला होता त्या माझ्या मोठ्या बहिणीला आणि भावाला विश्वासात न घेता परस्पर कांही करणं मलाच प्रशस्त वाटेना. मी त्या दोघांशी मोकळेपणानं बोललो. माझा विचार त्यांना सांगितला. ऐकून भाऊ थोडा अस्वस्थ झाला. त्याला कांहीतरी बोलायचं होतं. त्याने बहिणीकडं पाहिलं. मग तिनेच पुढाकार घेतला. माझी समजूत काढत म्हणाली, ” तिच्या आजारपणाचं समजलं तेव्हा तू खूप लांब होतास. तू म्हणतोयस तशी तयारी मी आणि हा आम्हा दोघांचीही आहेच. शिवाय मी आणि ‘हे’ सुद्धा खरंतर लगेचच पैसे घेऊन बेळगावला भेटायला गेलो होतो. केशवरावांना पैसे द्यायला लागलो, तर ते सरळ ‘नको’ म्हणाले. ‘सध्या जवळ राहू देत, लागतील तसे खर्च करता येतील’ असंही ‘हे’ म्हणाले त्यांना, पण त्यांनी ऐकलं नाही. “मला गरज पडेल तेव्हा मीच आपण होऊन तुमच्याकडून मागून घेईन’ असं म्हणाले. मला वाटतं, या सगळ्यानंतर आता तू पुन्हा त्यांच्याकडे पैशाचा विषय काढून लहान तोंडी मोठा घास घेऊ नकोस. जे करायचं ते आपण सगळे मिळून करूच, पण ते त्या कुणाला न दुखावता, त्यांच्या कलानंच करायला हवं हे लक्षा़त ठेव. ” ताई म्हणाली.

केशवराव महिन्यापूर्वीच रिटायर झाले होते. फंड आणि ग्रॅच्युइटी सगळं मिळून त्यांना साडेतीन लाख रुपये मिळालेले होते. अजित आत्ता कुठे सी. ए. ची तयारी करीत होता. सुजितचं ग्रॅज्युएशनही अजून पूर्ण व्हायचं होतं. एरवी खरं तर इथून पुढं ताईच्या संसारात खऱ्या अर्थाने स्वास्थ्य आणि विसावा सुरू व्हायचा, पण नेमक्या त्याच क्षणी साऱ्या सुखाच्या स्वागतालाच येऊन उभं राहिल्यासारखं ताईचं हे दुर्मुखलेलं आजारपण समोर आलं होतं.. !

“तुला.. आणखी एक सांगायचंय…. ” मला विचारांत पडलेलं पाहून माझी मोठी बहिण म्हणाली.

पण…. आहे त्या परिस्थितीत ती जे सांगेल ते फारसे उत्साहवर्धक नसणाराय असं एकीकडे वाटत होतं आणि ती जे सांगणार होती ते ऐकायला मी उतावीळही झालो होतो… !!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ घरचं… बाहेरचं… ☆ सुश्री नीला महाबळ गोडबोले ☆

सुश्री नीला महाबळ गोडबोले

? जीवनरंग ?

☆ घरचं… बाहेरचं… ☆ प्रस्तुती – सुश्री नीला महाबळ गोडबोले ☆

परगावी शिकत असलेली लेक घरी आली म्हणून कौतुकानं इडली सांबाराचा बेत केला.

“काय गं आई.. तू घरी कशासाठी करतेस हे पदार्थ ? म्हणजे इडली छान असते तुझी.. पण सांबार… ते आमटीचं मावस नाहीतर चुलत भावंड होतं गं तुझं.. सांबार हॉटेलातलच खरं.. ऑथेंटिक.. आपण नं… इडली हॉटेलातच खात जाऊ किंवा हॉटेलमधून मागवत जाऊ.. ” माझा चेहरा इवलुसा झाला..

पन्नासएक वर्षांपूर्वी आमच्या मिरजेतील ‘श्रीकृष्ण भुवन’ सारख्या उडपी हॉटेलात मिळणारं इडली-चटणी-सांबार आम्हाला स्वर्गीय वाटायचं.. वर्षातून एखादे वेळीच खायला मिळणारा हा पदार्थ अमृतासमान भासायचा.. लेकरांना फार आवडते म्हणून आमची माऊली बिचारी पाट्या-वरवंट्यावर वाटून इडली करायची.. सांबार मसाला ही कल्पनाही तेंव्हा नव्हती. वाटलेलं जिरं-खोबरं घालून ती सांबार करायची.. आणि कृतार्थतेनं आम्हाला रविवारचा पूर्ण दिवस आणि सोमवारचा अर्धा दिवस खाऊ घालायची.. चमचा आणि इडली यांची झटापट करत आम्ही कसेबसे इडलीचे तुकडे तोडायचो.. नि केवळ आकाराशी इमान राखणाऱ्या त्या इडलीला आपलसं करायचो.. नंतर मिक्सर आला तरी परिस्थिती फारशी बदलली नाही..

एखादं माहेर, मेनकासारखं मासिक आणि रुचिरासारखं पुस्तक सोडलं तर नूतन पाकशास्त्राचा कोणताही गुरू नसण्याच्या त्या काळात नवीन पदार्थ असा कितीसा बरा होणार? पावभाजी, पंजाबी डिशेस यांसारखे नवनवीन पदार्थ अवतरत होते आणि “आई” नावाची जमात त्याचे प्रयोग नवरा आणि मुले या सहनशील प्राण्यांवर करत होती..

तव्यापासून विभक्त व्हायची इच्छा नसलेला तुकडा तुकडा गॅंग डोसा, लाल तवंगाच्या झणझणीत मिसळीच्या नावालाही लाज आणणारी मंद पिवळ्या रंगातील चिंच-गुळ हा चवीची परमावधी असणारा मसाला घालून केलेली… खरंतर मटकीची उसळ असणारी तथाकथित मिसळ, मुलांच्या पोटात जास्तीतजास्त भाज्या जाव्यात हा एकमेव उद्देश ठेऊन बीट, दुधी, गाजर.. एवढे अपुरे म्हणून की काय पण गवार, घेवडा वगैरे समस्त भाज्यांची मांदियाळी घालून केलेला पावभाजी नामक पदार्थ… अशी किती नावे घ्यावीत.. ?

हे कमी होते म्हणून की काय.. पंजाबी डिशेसनी खाद्य रंगमंचावर प्रवेश केला.. पंजाबी भाजी बनवण्यापूर्वी… एवढं तूप, पनीर हृदयाला चांगलं नाही, कांदा-टोमॅटोच्या भाऊगर्दीत भाज्यांची चव काय लागणार.. असा संशयकल्लोळ पदराला खोचून केलेलं बटरपनीर, पालकपनीर पंजाबपेक्षा महाराष्ट्राकडचंच वाटायचं..

आईची एखादी मैत्रीण पुण्या-मुंबईहून यायची नि आईला रव्याचा केक, आईस्क्रीम, मॅंगोला असले शहरी फॅन्सी पदार्थ शिकवून जायची.. पुढचे काही दिवस केक नामक रव्याचा टुटीफ्रुटी घातलेला शिरा, चमच्याला शिरकाव करू न देणारी बर्फ नि दूध यांची आईस्क्रीमनामक जोडगोळी.. जर्द पिवळ्या आकर्षक रंगाचं मॅंगोला नावाचं एकाच वेळी मिट्ट गोड, आंबट नि कडु अशा चवींचं (अ)पेय… अशा पदार्थांची स्वयंपाकघर नावाच्या स्थळी प्रयोगशाळा उघडली जायची…

हे पदार्थ बनवतानाचा आईचा सळसळता उत्साह.. पोरांना नवनवे पदार्थ खिलवायची उमेद… आणि मोठ्यांना उलटून बोलणे हे महापातक असण्याचा तो काळ पाहता, पदार्थ कसाही झालेला असला तरी आम्हा पोरांची त्याविषयी बोलण्याची प्राज्ञा नसे.. !! आम्ही बापुडे तो पदार्थ चेहऱ्यावर हसरे भाव ठेऊन जिभेला बायपास करून डायरेक्ट पोटात ढकलत असू..

” हे काय करून ठेवलय.. ? ” या वडिलांच्या तिरसट प्रश्नामुळे आईच्या दुखावलेल्या अंत:करणावर आमचे हसरे चेहरे औषध ठरत… !!

प्रत्येक पदार्थात कमी तेल-तूप, बेताचं तिखट नि मसाले, सोड्याचा कमीत कमी वापर, भाज्यांचा नि कडधान्यांचा वर्षाव करून पदार्थाला कमीत कमी चमचमीत नि जास्तीत जास्त पौष्टिक बनवणारी आमची आई त्या काळात आम्हाला खाद्यजीवनातील खलनायिका वाटत असे..

आम्ही मुले मोठी झालो.. आम्हाला फुटलेली शिंगे आम्हाला नाही तरी आईला दिसू लागली..

“अगं तू कशाला त्रास घेतेस.. आम्ही बाहेरच खाऊ.. ” असे मधात घोळवलेले शब्द आईच्या तोंडावर फेकून आम्ही हॉटेलिंगचा आनंद लुटू लागलो.. हॉटेलच्या चमचमीत आणि झणझणीत पदार्थांनी आईच्या सात्त्विक पदार्थांवर सरशी मारली…

आईने वरणभात, पोळीभाजी, पुरणपोळ्या, गुळपोळ्या… फारतर दडपेपोहे, भजी, थालीपीठ, धिरडी, अळुच्या वड्या, सुरळीच्या वड्या, मसालेभात.. असले पदार्थ करावेत..

या मतावर आम्ही ठाम झालो..

“*** हॉटेलात कसली मस्त पावभाजी असते.. एकदा खाऊन बघ.. ” म्हणत पित्ताचा त्रास असणाऱ्या आईला हॉटेलात नेऊन पावभाजी खाऊ घालण्याचा बेमुर्वतपणाही केला..

नि तिखट भाजी सहन न झालेल्या आईला पावाला पाव लावून खाताना पाहून निर्लज्जपणे तिची टिंगल केली.. आज तिच्या वयाला पोहोचल्यावर ते आठवतं, डोळे आपोआप वाहू लागतात.. नि स्वत:ची लाज वाटते.. !!

माझं लग्न ठरलं.. प्रत्येक नववधुप्रमाणे अनेक स्वप्नं उराशी बाळगून सासरी पाऊल टाकलं.. “हृदयाकडचा मार्ग पोटातून जातो.. ” असल्या वाक्यांनी प्रभावित व्हायचं ते वय होतं.. भरपूर मसाले, तिखट, तेल यांची सोबत घेऊन हॉटेलच्या पदार्थांची बरोबरी करण्याचा मी आणि माझ्या समवयीन जावेनं लावलेला सपाटा.. आमच्या नवऱ्यांनी नि सासुसासऱ्यांनी कौतुक करत बिनबोभाट झेलला… !!

ती माणसेच सज्जन.. !!! कधीकधी दोघे भाऊ.. मित्रांचं निमित्त काढून बाहेरच जेवून येत.. हा भाग वेगळा… !!

“रविवारी संध्याकाळी स्वयंपाकघराला सुट्टी” अशी सकृतदर्शनी आम्हा जावा-जावांना खुशावणारी घोषणा सासऱ्यांनी केली… त्यात आमच्या पदार्थांच्या धास्तीचा वाटा किती नि आमच्या काळजीचा हिस्सा किती… हा संशोधनाचा विषय… !!

यथावकाश पोटी कन्यारत्न जन्मलं… हे रत्न त्याच कुटुंबाचा अंश असलं तरी त्यांच्याइतकं सहनशील आजिबात नव्हतं नि नाही… आठ महिन्याच्या लेकरासाठी पुस्तके वाचून केलेल्या खिमट, लापशी, सूप्स, भाज्या घालून केलेला गुरगुट्या भात, उकड अशा बेचव पदार्थांना पहिल्या चमच्याला ” फुर्र.. फुर्र… ” करून एखाद्या निष्णात फलंदाजाला लाजवेल एवढ्या लांबवर तो पदार्थ तोंडातून उडवून.. नि मामीने केलेल्या चमचमीत इडली-सांबाराला मिटक्या मारून… तिने तिचे पाळण्यातले पाय दाखवले..

माझी पोर मोठी होत होती… त्याचबरोबर माझ्यातली आईही जोमाने वाढत होती.. एक म्हण आहे, “लेकराला खाण्यापेक्षा माऊलीला खायला घालण्याची इच्छा जास्त प्रबळ असते.. ” त्यानुसार मराठी, दाक्षिणात्य, पंजाबी, चायनीज, इटालियन, कॉंटिनेंटल, चाट.. , केक्स, आईस्क्रीम्स, कोल्ड-ड्रिंक्स.. कसले कसले पदार्थ पुस्तकात वाचून, यु-ट्युबवर पाहून करायला सुरुवात केली..

कोविडच्या काळात तर विचारूच नका.. !! मऊ झालेल्या चिकट नूडल्स, लसणाचा व मिरचीचा कमीत कमी वापर केल्याने बेचव झालेलं मांचुरियन, केवळ घरी करायच्या अट्टाहासापोटी जन्माला घातलेला कसातरी पिझ्झा…. जाऊदे… नावं तरी किती घ्यायची? यांचा एक घास घेऊन जेवणाला रामराम ठोकणारी माझी लेक पाहिली की माझ्यातलं मातृत्त्व चारी मुंड्या चीत होतं… !!

“आई, हे पदार्थ घरी नाही चांगले होत.. हॉटेलातलेच चांगले लागतात गं..

तू घरी कशाला व्याप करतेस? तू आपले मराठी पदार्थ.. फारतर डोसे, पराठे घरी करत जा… पावभाजी, पंजाबी, कॉंटिनेंटल, इटालियन आपण कधीतरीच खाऊ.. पण हॉटेलमधेच खाऊ.. उगीच हे पदार्थ घरी करून दुधाची तहान ताकावर कशाला भागवायची?” असं ती जेंव्हा कोणताही संदेह न ठेवता स्पष्टपणे सांगते तेंव्हा परीक्षेत नापास झाल्यासारखं वाटतं…

माझं कुठे चुकत असेल? मी एवढ्या मायेनं नि निगुतीनं पदार्थ करते.. अगदी हॉटेलसारखा करायचा प्रयत्न करते.. तरीही तो हॉटेलसारखा होतच नाही आणि हिला आवडत नाही..

कुठे चुकत असेल माझं? विचार केला.. केला.. नि लक्षात आलं… पदार्थ करताना माझ्यातली आई, बायको, जीवशास्त्राची विद्यार्थिनी सतत आड येते. तेल-तूप, लोणी, पनीर, चीज घालताना हृदय नि रक्तवाहिन्यांचं जाळं डोळ्यासमोर दिसू लागतं. साखरेचा डबा कॅलरीचा हिशोब नि मधुमेहाचं दर्शन घडवतो.. तिखट, मिरच्या, मसाले.. पोटात खड्डे पाडतात.. त्यांच्या दर्शनानंच पोटात जाळ पेटल्याचा भास होतो.. अजिनोमोटो, खाद्यरंग वगैरे कधीही शरीरात कॅन्सरला जन्माला घालतील.. हे सतत वाटत राहतं.. रेसिपीत दिलेल्या प्रमाणात तेल, तूप. तिखट, मसाले टाकायला हात धजत नाही… सगळं अगदी कमी कमी वापरलं जातं.. मग पावभाजी मिळमिळीत होते, नूडल्स चिकट होतात, पिझ्झा बेचव होतो, सांबार आमटीचा मामेभाऊ होतं, पंजाबी भाज्या पंजाबी रहातच नाहीत.. मिसळ नेभळट होते… साजुक तूप घालून केक केक न राहता मिठाईचा भाऊबंद होतो.. नि खिशालाही झेपत नाही… आईस्क्रीमचं तर न बोललेलंच बरं…

पैसा हा एकमेव उद्देश डोळ्यासमोर ठेऊन रसनेला लालूच दाखवत नि शरीराला डावलत बनवलेल्या मसालेदार, चमचमीत, चविष्ट, रंगीत अशा हॉटेलच्या पदार्थांसमोर… आपल्या जीवाभावाच्या माणसांचं पोषण आरोग्य, दीर्घायुष्य हेच उद्दीष्ट असणाऱ्या गृहिणीचे, आईचे….. चवीत, चमचमीतपणात मार खाणारे पदार्थ कसे जिंकतील?

आता मी ठरवलंय… फक्त. आपले साधे सरळ मराठी पदार्थ घरी करायचे.. नि पावभाजी, मिसळ, इटालियन, मेक्सिकन, चायनीज, कॉंटिनेन्टल पदार्थांसाठी सरळ हॉटेल गाठायचं… !! उगीच आपल्या हौसेची शिक्षा घरच्यांना कशाला.. ? आपणही खूश… आपली पोरंही खूश.. आणि हॉटेलवालेही खूश. नाहीतरी सरकारनं परवाच्या अर्थसंकल्पात आपल्याला एवढी सूट कशासाठी दिलीय? पैसा बाजारात फिरावा म्हणूनच नां?

एखादा पदार्थ कधीतरीच खावा… पण तो जिभेला, चवीला न्याय देऊन खावा.. केवळ टिकमार्कपुरता नको.. त्यावेळी कॅलरीज, पोट, हृदय… सगळं बाजूला ठेवावं.. नि जिव्हालौल्य मनमुराद उपभोगावं.. !!

आता तुम्ही म्हणाल ‘ आमची मुलं नाहीत हो अशी… आणि मीही नाही तशी.. मी अगदी चविष्ट बनवते आणि माझ्या मुलांना ते फार आवडतं बरं का… !! माझ्या स्वयंपाकाचं फार कौतुक होतं घरात.. ‘ 

तसं असेल तर चांगलंच आहे.. पण मग मला एकच सांगा.. हॉटेलं भरून का वाहतात ?

© सुश्री नीला महाबळ गोडबोले 

सोलापूर 

फोन नं. 9820206306,  ई-मेल- gauri_gadekar@hotmail. com; gaurigadekar589@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ उणिवांची जाणीव … लेखिका : सौ. साधना डोंगरे ☆ प्रस्तुती – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ उणिवांची जाणीव … लेखिका : सौ. साधना डोंगरे ☆ प्रस्तुती – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

ऐक ना…

परवा बोलता बोलता मी तिला म्हणाले….

तू नक्की भाग घे या स्पर्धेत…

तशी ती म्हणाली….

ती म्हणजे ती मुक्ता ग… आपण तिला allrounder म्हणतो…

ती म्हणाली मला…. म्हणजे बघ विचार करावास असे वाक्य होते म्हणजे आहे तिचे.

माझ्यातल्या उणीवांची जाणीव आहे मला. त्यामुळे नको ग सध्या तुला सांगते मी खरचच पुन्हा नव्याने आकर्षित झाले तिच्याकडे…

उणीवांची जाणीव…. या दोन शब्दांचे एकत्र येणे म्हणजे सुधारणेचा प्रगतीचा श्रीगणेशाच नाही का…

उणीवा जाणवणे हाच एक गुण दुर्मिळ झालाय आजकालच्या जगात…. जो तो स्वतः सिध्द असल्यासारखा वागतोय त्यावेळी ही मात्र… जिला खूप काही येतय ती म्हणते…. उणीवांची जाणीव आहे म्हणून… थांबूया सध्या…. आवडलेच मला तिचे असे म्हणणे…

बघ ना…

उणीवांची जाणीव झालीय तर त्या उणीवा कमी करण्यासाठी वेळ हवाय तिला….

उणीवा नेमक्या कशा दूर करता येतील यावर विचार करण्यासाठी वेळ हवाय….

स्वाभाविक शारीरिक मानसिक अशा कुठल्या पातळीवर जाऊन आपण उणीवा दूर करु शकतो हे शोधण्यासाठी ती कामाला लागलीय…

आणि त्या दृष्टीने आत्मचिंतन ही चालू केलय तिने…

खरच उणीवांची जाणीव आपल्याला किती सामृध्दिक मोकळेपण देतेय हे विचारांती कळलय मला…

म्हणजे बघ ना….

उणीवांची जाणीव मला प्रतिक्रियेवर विचार कर सांगते.

एखाद्याच्या असाधारण व्यक्ततेवर किंवा होणाऱ्या टीकांवर भाष्य करताना खिलाडूवृत्तीने स्विकारल्यास तर माणासांना गमावणार नाहीस तू हे सांगते.

आणि मग आचरणातून आपोआप नम्रता डोकावायला लागते. आणि संवादास आवश्यक असे वातावरण ही तयार होते चुकांची जबाबदारी न टाळता उलट ती स्विकारून आत्म भान येतं ही आत्मजागरुकता आनंद देवून जाते….

आणि उणीवांची जाणीव खऱ्या अर्थाने वर्तुळ पुर्ण करते.

उणीवांची जाणीवेवर विचार मंथन करताना मधेच उलटे झालेल्या शब्दानी मी अंतर्बाह्य ढवळून निघाले….

ते शब्द होते…

“जाणीवेची उणीव“…

जाणीवेच्या उणीवेवर ही ऐक ना म्हणणार आहे तुला…

लेखिका : सौ. साधना डोंगरे 

प्रस्तुती – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ आत्मिक वैभव… ☆ श्री संदीप काळे ☆

श्री संदीप काळे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ आत्मिक वैभव… ☆ श्री संदीप काळे ☆

मागच्या विधानसभा निवडणुकीत सर्वात वाईट काय झाले असेल तर, यशोमती ठाकूर ताईला अपयश आले. ताईला भेटण्यासाठी मी अमरावतीला गेलो होतो. ताईची भेट काही कारणास्तव लांबणीवर गेली. पुढचे दोन दिवस या भागातल्या भेटीगाठी करायच्या, या उद्देशाने मी मेळघाटच्या दिशेने निघालो. मेळघाटमधल्या काही ओळखीतल्या लोकांशी संपर्क केला, तर ते सारे कामात होती. ‘वैभवभाई’ मेळघाटात आहेत, त्यामुळे यावेळी भेटणे शक्य नाही. असे दोन तीन जणांकडून निरोप आले. कोण ‘वैभवभाई’? असे विचारेपर्यंत शेवटच्या व्यक्तीनेही फोन ठेवला. मेळघाटामधल्या घटांग, मसुंडी, बेला, कोहना, जैतादेही, बिहाली, हत्तीघाट, सलोना, भवई अशा अनेक गावांत मी गेलो. त्या ठिकाणी गेल्यावर माझ्याशी परिचित असणारी व्यक्ती मला हेच सांगत होती. ‘वैभवभाई’ आताच येऊन गेले. कुठे किराणा सामान दिले. कुठे कपडे दिले. कुठे शाळेचे साहित्य, कुठे घरात लागणारे साहित्य, तर कुठे अन्य काही साधनसामुग्री दिली. बापरे, कोण आहे हा माणूस, ? जो या अत्यंत दुर्लक्षित असलेल्या भागात एवढे मोठे काम करतो, असा मला प्रश्न पडला होता. माझ्यासोबत याच भागातले किशन जांभोरी होते. मी त्यांना विचारले, ‘मामा हे ‘वैभवभाई’ कोण आहेत, ? त्यांनी मला वैभव यांच्याविषयी सांगितले. मी त्यांना म्हणालो, ‘लावा बरं फोन त्यांना’. मामाच्या फोनवर मी वैभवजी यांना बोललो. एक माणूस नि:स्वार्थीपणे या भागात काम करतोय, हे त्यांच्या बोलण्यावरून जाणवत होते. एका तासानंतर आमचे भांद्री या गावात भेटायचे ठरले. आम्ही भेटलो. खूप गप्पा झाल्या आणि वैभवचे कधीही कोठे न दाखवलेले खूप मोठे सामाजिक कामही माझ्या पुढे आले. काय काही काही माणसे असतात, जी प्रचंड मोठे काम करतात. त्यात वैभव एक होते.

वैभव वानखडे (९४२३४०१०००) अकोला येथील आदर्श कॉलनीमधला एक युवक. वैभवचे आजोबा आणि वडील हे सेवाभावी वृत्तीने प्रचंड झपाटलेले व्यक्तिमत्त्व होते. ‘आपला जन्म देण्यासाठी झाला’ हा विचार वैभव यांच्या मनात लहानपणापासून अगदी शिगोशीग भरला होता. वैभव म्हणाले, माझे वडील गेल्यावर अनेक मित्रांच्या मदतीने उभा केलेला खूप मोठा व्यवसाय तसाच बाजूला ठेवून बाबांच्या आठवणीत पूर्णवेळ सेवाभावी कार्यात स्वतःला झोकून द्यावं असा विचार करून मी बाहेर पडलो. एका वर्षाने मागे फिरून पाहिले तर ज्या अनेकांची भिस्त माझ्या व्यवसायावर होती, त्यांचे कुटुंब उघड्यावर पडायची वेळ आली होती. मी स्वतःला थोडे सावरत, थोडा व्यवसाय आणि अधिकचे सेवाभावी कार्य असे काम सुरू केले. जसे माझे आजोबा आणि वडील यांना ‘आत्मिक वैभवा’ची रुची निर्माण झाली होती, तशी रुची मलाही लागली होती. सर्व जण माझी काळजी करायचे. एकटी माझी आई मीरा वानखडेला सारखे वाटायचे, माझा मुलगा प्रत्येक पाऊल धाडसाने टाकतो. आई जेजे म्हणायची ते ते व्हायचं. एका महिलेकडे आणि युवकांकडे बोट करीत वैभव म्हणाले, ‘ही माझी पत्नी पूनम, आणि हा गौरव काटेकर हे दोघेंजण राज्यातील गरीब मुलांचे शिक्षण, गरिबी निर्मूलन उपक्रम, आणि मराठी शाळा या तिन्ही उपक्रमांचे काम पाहतात. ‘मी वैभव यांना म्हणालो, हे तिन्ही उपक्रम आहेत तरी काय’? वैभव म्हणाले, २०१२ ला मी ‘नि:स्वार्थ सेवा फाउंडेशन’ आणि ‘सेवा बहुउद्देशीय संस्था’ अशा दोन संस्था काढल्या. माझे बाबा गेले आणि बाबांच्या आठवणीत २०१९ पासून या दोन्ही संस्थांच्या कामाला प्रचंड गती मिळाली. या दोन्ही संस्थांच्या माध्यमातून नि:स्वार्थ सेवा होत आहेत, हे कळल्यावर राज्यातून शेकडो तरुण या कामासाठी पुढे आले. मेळघाटसारखे राज्यातले २८ गरिबी आणि भीषण संकटे असणारे भाग आम्ही निवडले. तिथे प्राथमिक स्वरूपात जे काही पाहिजे ते पुरवले. गरिबी फार वाईट असते, या काळात जो कुणी साथ देतो, तो देवापेक्षा मोठा वाटायला लागतो. माझ्या बाजूला असलेल्या एका महिलेकडे खुणावत वैभवजी मला म्हणाले, ‘ही अंजना याच मेळघाट भागातली. तिची सात मुले दगावली. कुपोषण, रोगराई, अज्ञान अशी कारणे त्या सात मुलांच्या जाण्यामागे सांगण्यात आली. माझ्या दृष्टीने ही मुले जाण्यामागे खरे कारण होते गरिबी. आता अंजना सोबत जो मुलगा उभा आहे. तो तिचा मुलगा शिवा आहे’. मी अंजनाकडे पाहत म्हणालो, ‘शिवा तर मला एकदम पैलवान वाटतो’. डोळ्यात आलेली आसवं पुसत अंजना म्हणाली, ‘दादा, कुठे तरी देव हाय ना जी’.. ! आपल्या पोटात नऊ महिने वाढवलेला मांसाचा गोळा जेव्हा डेडबाॅडी होऊन आपल्याच हातावर असतो ना, तेव्हा त्या आईला धरणीमाय जागा देत नाही. त्या आईचा आक्रोश कुणालाही दिसत नाही, तो आतला आक्रोश फार भयंकर असतो. माझ्या तिसऱ्या बाळापासून वैभवदादांची ओळख झाली. एक तरी बाळ वाचेल असे वाटत होते, पण छे ! आठव्या बाळंतपणाच्या वेळी पूनमवहिनी आणि वैभवदादा मला त्यांच्या घरी अकोल्याला घेऊन गेले. चांगल्या दवाखान्यात माझी प्रसूती झाली. पुढे वैभव भाऊने अनेक फिरते दवाखाने या भागात सुरू केले. ज्यातून माझ्यासारख्या अनेक अंजनाला त्यांचे मातृत्व मिळाले. आम्ही बोलत, बोलत त्या मेळघाटातल्या भागात वैभव यांच्यामुळे झालेल्या अनेक सामाजिक कामांचे दाखले अनुभवत होतो. वैभव यांनी गौरव काटेकर, तृप्ती महाले, पूनम कीर्तने, गिरीश आखरे, वैशाली जोशी, अशा अनेकांची ओळख करून दिली. चर्चेतून आमचा रस्ता ‘अमरावती’च्या दिशेने कटत होता. ३४० जणांची पूर्णवेळ काम करणारी टीम, हे तिन्ही उपक्रम मोठ्या उत्साहाने राबवत होती. मेळघाटामध्ये गरिबी निर्मूलन उपक्रम, शाळाबाह्य मुलांसाठी उभे केलेले वैभव यांचे काम पाहून कोणीही थक्क होईल, असे ते काम होते. या स्वरूपाचे काम केवळ मेळघाटामध्ये नव्हते तर, राज्यात छत्तीस जिल्ह्यांत सुरू होते. अगदी कुठलाही गाजावाजा न करता. आमच्या गाडीत वैभव यांनी सुरू केलेल्या त्या तिन्ही उपक्रमांविषयी चर्चा सुरू होती. आता ‘मराठी शाळा वाचली पाहिजे’ या उपक्रमाविषयी समजून घेण्याची मला उत्सुकता लागली होती. वैभव म्हणाले, ‘आपण सारे आपल्या मराठी शाळेत शिकलो’. कसे वागायचे, जगायचे हे सारे संस्कार आम्हाला मराठी शाळेने शिकवले. अशा जीव की, प्राण असणाऱ्या शाळा वाचाव्यात यासाठी आम्ही राज्यभरात सर्व्हे करून एक रूपरेषा ठरवली. सर्व राज्यांत २४० शाळा निवडल्या, ज्या शाळेतून बाहेर पडणारी दीड लाखाहून अधिक मुले दुर्दम्य आत्मविश्वास घेऊन आभाळाला गवसणी घालायचे काम करतात. कोण किती वाईट आहे, यंत्रणा किती कामचुकार आहे, यात आम्ही कधीही घुसत नाही. आम्ही आमचे ठरवलेले काम करतो. आम्ही अमरावतीजवळच्या घटांग या शाळेत पोहचलो. त्या त्या शाळेतले अनेक प्रयोग वैभव आणि त्यांची टीम मला सांगत होती. तिथे असणाऱ्या श्रीजया, विजया, कान्होपात्रा या तिन्ही बहिणी एका पाठोपाठ नवोदयला लागल्या. त्यांचे वडील साधी पानपट्टी चालवतात. त्या शाळेत कोणी स्पर्धा परीक्षांची तयारी करते. कोणी खेळाची. कुणी छान कविता लिहितो. हे याच शाळेत का पाहायला मिळत होते, त्याचे कारण या शाळेत वैभव आणि त्यांच्या टीमने मुलांच्या सर्वांगीण विकासाचा विचार करून अनेक उपक्रम विकसित केले होते. या घटांगच्या शाळेसारख्या राज्यात २४० शाळांमध्ये लाभ घेणाऱ्या विद्यार्थांना भेटायचे आहे त्यांच्या ‘वैभवभाई’ यांना. आभार मानणारे पालक, शिक्षक, विद्यार्थी त्यांच्या पुढे अगदी साधेपणात नतमस्तक झालेले वैभव, त्या शाळेतला सारा प्रसंग मी अगदी डोळे भरून पाहत होतो. वैभव यांच्या सर्व टीमने त्या शाळेतील कामामध्ये स्वतःला गुंतवले होते. बाजूला मी आणि वैभव दोघे बोलत बसलो होतो. वैभव म्हणाले, ‘माझे आजोबा कृष्णराव वानखडे यांनी पदरमोड करून आणि लोक वर्गणीतून बहुजनांच्या मुलांसाठी अनेक शाळा सुरू केल्या. या काळात आपण नव्या शाळा काढू शकत नाही, पण आहे त्या शाळा चांगल्या करू शकतो. वडिलांचेही माझ्याविषयी खूप स्वप्न होते. वडिलांच्या आठवणीतून डोळे पाणावलेल्या वैभव यांचे लक्ष एका उत्साहाने धावत येणाऱ्या मुलीकडे गेले. ती मुलगी ‘बाबा’ म्हणत, वैभव यांच्या गळ्यात येऊन पडली. तिने वैभवच्या डोळ्यातून बाहेर पडणारे अश्रू पुसले. ती मुलगी म्हणाली, ‘तुम्हाला कोणाची आठवण येते?, माझ्या आजोबांची की तुमच्या आजोबाची?. वैभव काहीच बोलले नाहीत. त्यांनी पुन्हा त्या मुलीला घट्ट पकडले. त्या दोघांचेही डोळे अश्रूनी भरली होती. एकमेकांच्या स्पर्शातूनच त्यांचे बोलणे सुरू होते. थोडे भानावर येत वैभव मला म्हणाले, ‘ही माझी मुलगी शिवन्या. शिवन्या आणि माझी आई आताच मुंबईवरून आलेत. या दोघींनाही माझ्या सामाजिक कामात प्रचंड रुची आहे’. वैभव यांच्या आईची ओळख झाली. बऱ्याच गप्पा झाल्यावर मी जाण्यासाठी निघालो. वैभव यांच्या आईच्या पायावर मी डोके ठेवत आईला म्हणालो, ‘आई, अनेक जन्म साधना केल्यावर तुम्हाला असा पुत्र मिळाला असेल’. माझे बोलणे ऐकून आईचे डोळेही पाणावले होते. मी निघालो. थोडे पुढे गेल्यावर मलाही अश्रू आवरेनात. माझे अश्रू त्या ‘आत्मिक वैभवा’साठी होते, ज्याला वाटते सगळीकडे ‘चिरंतन टिकणारा’ विकास झाला पाहिजे. ज्यांना वाटते, सगळीकडे चांगले झाले पाहिजे. तुम्हालासुद्धा हे ‘आत्मिक वैभव’ मिळायचे असेल तर, तुम्ही नक्की ‘वैभव’च्या पावलावर पाऊल टाका, बरोबर ना.. !

© श्री संदीप काळे

चीफ एडिटर डायरेक्टर एच जी एन मीडिया हाऊस मुंबई.

मो. 9890098868

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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