योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है।) 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका ☆ 

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  ने बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को शुद्धतम रूप में सारे विश्व में पहुँचाया. उनके इस अमूल्य योगदान के लिए सम्पूर्ण मानवता उनकी हमेशा ऋणी रहेगी.

विपश्यना बुद्ध द्वारा सिखाई गयी ध्यान की महत्वपूर्ण विधि है. बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात ५०० वर्ष तक उनकी वाणी और प्रयोगात्मक शिक्षा विपश्यना शुद्ध रूप में कायम रही. उसके बाद धीरे-धीरे वह क्षीण होते होते भारत से पूर्णत: लुप्त हो गयी. बाहर के कुछ देशों में बुद्ध की केवल वाणी कायम रही. लेकिन विपश्यना विद्या केवल बर्मा (अब म्यान्मार) में बहुत थोड़े से लोगों में कायम रखी गयी.

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  का जन्म बर्मा देश के मांडले शहर में २९ जनवरी १९२४ को  हुआ. उन्होंने कम उम्र में ही अनेक वाणिज्यिक और औद्योगिक संस्थानों की स्थापना की और खूब धन अर्जित किया. वर्ष १९५५ में .गोयनका जी माइग्रेन के सिरदर्द से बहुत दुखी हुए विशेषकर इस दर्द को दूर करने के लिए जो मॉर्फिन के इंजेक्शन  दिए जाते थे उनसे बहुत पीड़ित हुए. तब डॉक्टरों की सलाह पर वे सारे विश्व के बड़े बड़े देशों के प्रसिद्ध डॉक्टरों से इलाज कराने गए लेकिन निराशा ही हाथ लगी. उनके एक मित्र ने सुझाव दिया कि उनका यह असाध्य रोग मन से सम्बंधित है और उन्हें मानसिक शांति के लिए विपश्यना ध्यान करना चाहिए.

सयाजी ऊ बा खिन से .गोयनका जी ने विपश्यना विद्या सीखी और १४ वर्षों तक उनके चरणों में बैठकर अभ्यास करने के साथ बुद्धवाणी का भी अध्ययन किया. १९६९ में वो भारत आये और बम्बई (अब मुंबई) में पहला विपश्यना शिविर एक धर्मशाला में आयोजित किया. इसके बाद देश के अनेक स्थानों पर निरंतर शिविर होते रहे. १९७६ में इगतपुरी में पहला निवासीय विपश्यना केंद्र बना. आज सारे विश्व के ९४ देशों में, ३४१ स्थलों पर, जिनमें से २०२ स्थाई विपश्यना केंद्र हैं, १०-दिवसीय विपश्यना शिविर आयोजित किये जाते हैं. सबका संचालन नि:शुल्क होता है. भोजन, निवास आदि का खर्च शिविर से लाभान्वित साधकों के स्वेच्छा से दिए दान से चलता है.

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  ने बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को शुद्धतम रूप में सारे विश्व में पहुँचाया. आज भी विश्व भर में, १०-दिवसीय विपश्यना शिविर समान रूप से, पूर्ण अनुशासन में, संचालित होते हैं. शिविर में १० दिन तक साधक मौन रहकर एक भिक्षु की तरह शील-सदाचार का पालन करते हैं, ध्यान-समाधि का गहन अभ्यास करते हैं और बुद्ध की वाणी से ज्ञान-प्रज्ञा जागते हैं. इससे बेहतर अध्यात्म की कार्यशाला शायद ही कहीं कोई और हो. १० दिन में मानो पूरा जीवन ही बदल जाता है. उनके इस अमूल्य योगदान के लिए सम्पूर्ण मानवता उनकी हमेशा ऋणी रहेगी. भारत ही नहीं, विश्व भर में विपश्यना साधना निर्बाध रूप से बढती चली जा रही है और करोड़ों मानव-मानवी इससे लाभान्वित हुए हैं. ध्यान की यह विद्या सीखने हर संप्रदाय और हर वर्ग के लाखों लोग प्रतिवर्ष आते हैं.

आचार्यजी का व्यक्तित्व अत्यंत मोहक था. एक साधारण मानवी की वेशभूषा, कोई आडम्बर नहीं. चेहरे पर हमेशा मंद-मंद मुस्कान, साधकों के लिए ह्रदय में गहन करुणा भाव लेकिन बाह्य रूप से पूर्णतः अनुशासन-प्रिय. आवाज़ बहुत बुलंद और गहरा प्रभाव डालने वाली. शिविर के दौरान सायंकालीन प्रवचन रोचक प्रसंगों से भरपूर लेकिन कुलमिलाकर धीर-गंभीर और बुद्ध वाणी का सरल भाषा में निचोड़. वैसे भी वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे – साहित्यकार, हिंदी-सेवी, समाज सेवक और उद्योगपति.

विपश्यना द्वारा धर्म-सेवा करने के लिए आचार्य सत्य नारायण गोयनका  को अनेकों विशिष्ट अलंकरणों से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने भारत तथा विश्व में सामाजिक सेवाओं के लिए वर्ष २०११ में  गोयनका जी को पद्मभूषण राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित किया. २९ सितम्बर २०१३ को मुंबई में उनका देहावसान हुआ. हमें लगता है कि आज भी कहीं दूर से, अपनी चिर-परिचित मुस्कान और करुणा-भाव से, हम सबको देखते हुए, वो वही आशीर्वचन कहते होंगे जो प्रत्येक संबोधन के उपरांत अपनी असरदार, जादुई वाणी में गायन कर कहते थे – भवतु सब्ब मंगलम! सबका कल्याण हो! सबका मंगल हो!

प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Our Famentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga

We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  ” पानी ” का अंग्रेजी अनुवाद  “Water”  शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  –  पानी 

 

आदमी की आँख का

जब मर जाता है पानी

खतरे का निशान

पार कर जाता है।

 

पानी की तासीर है

गला तर कर देना

पानी की तदबीर है

रीते सोतों को भर देना।

 

पेड़ की खुरदरी जड़ों को

लबालब सींचना

घास को रेशमी कर

हरियाली पर रीझना।

 

ताल, टप्पे, गड्ढों में

पंछियों के लिए ठिठक जाना

बंजर माटी की देह भिगोकर

उसकी कोख हरी कर जाना।

 

रास्ते में खड़ा काँक्रीट का जंगल

सोख नहीं पाता पानी

सीमेंट, एडेसिव, बस्ती का आदमी

मिलकर रोक देते हैं पानी।

 

पानी को पहुँचना है

हर प्यास तक

पानी को बहना है

हर आस तक।

 

थोड़ा नाराज हो जाता है

उफान पर आ जाता है

रोकने के सारे निशान

समेटकर बहता चला जाता है।

 

काँक्रीट का जंगल

थरथराने लगता है

छोटे मन का आदमी

बहाव के लिए रास्ते बनाने लगता है।

 

आदमी की आँख में

जब उतर आता है

पानी खतरे के निशान से

उतर जाता है पानी।

 

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘चेहरे’ से ली गई एक रचना।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ ईमानदार ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय लघुकथा   “ईमानदारी ”.)

☆ लघुकथा – ईमानदारी 

किराने का सामान लेकर प्रशांत घर पहुंचा । उसकी आदत किराने के बिल को चेक करने की थी। बिल चेक करने पर उसे समझ में  आया कि दुकानदार ने उसे सौ रुपये ज्यादा वापस कर दिए हैं।

दूसरे दिन कार्यालय से लौटते समय दुकानदार को  रुपये वापस लौटाते हुए उसने कहा – “कल किराना के बिल में आपने मुझे सौ रुपये ज्यादा दे दिये थे, ये वापस लीजिये।”

दुकानदार ने सौ रुपये रखते हुए कहा – “अरे, आप तो ज्यादा ही ईमानदार बन रहे हैं। आजकल कौन इतना ध्यान देता है कि सौ रुपये ज्यादा दे दिये या कम।”

उसकी इस ठंडी प्रतिक्रिया से प्रशांत का मन आहत हो गया। उसे लगा था कि दुकानदार उसकी ईमानदारी पर धन्यवाद देते हुए उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहेगा किंतु, उसकी आंखों को देखकर ऐसा लगा जैसे वह कह रहा हो बेवकूफ, ज्यादा ही ईमानदार बनता है।

एक क्षण को उसे महसूस हुआ जैसे उसने सौ रुपये लौटाकर कोई गुनाह किया हो, किंतु उसके अंतर्मन ने कहा – ‘तुमने रुपये लौटाकर  अपना फर्ज अदा किया है। सब बेईमान हो जायेंगे तो क्या तुम भी बेईमान हो जाओगे? हरगिज नहीं।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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English Literature – Poetry ☆ Water ….. ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwj’s Hindi Poetry “पानी ” published previously as संजय दृष्टि – पानी   We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

☆ Water… ☆

 

Whenever the water

of man’s eyes dies

It crosses all the limits

of the Danger sign…

 

Quenching thirst

is water’s nature

Filling up the springs

is water’s attribute

 

Moistening up the countless

Rugged roots of the trees

Turning the grass velvety

Making it bask in greenery

 

Pausing merrily for the

Pools, ponds and pits

Soaking the barren soil

making her womb green!

 

Inimically concrete jungle enroute

prevents the water absorption

Cement, rubble, garbage  dumps

Together,  try to deter water flow…

 

As water has to quench

every thirsty soul around

It has to reach every possible

creature and the organism…

 

Interruptions make it little furious

Enraging it in a turbulent mood

As it blows away all the possible

Reasons of the stoppages enroute

 

Concrete jungles start shaking

Forcing every ungrateful man

to promptly start creating myriad

avenues for its natural free flow….

 

When the water comes back

In the eyes of abject mankind

Sensing it, the water level too

recedes below the Danger mark!

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡  ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM
Pune

 

 

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #6 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है” – श्रीमती अर्चना पांडेय ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  श्री गणेश गनीके विचार “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #6 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” – श्रीमती अर्चना पांडेय ☆

स्त्रियां घर लौटती हैं

कुछ कविताएं न केवल मर्म को छू जाती हैं बल्कि उन्हें पढ़कर हमारे भीतर की वो संवेदना जग जाती है जो कि दुनिया की चीख-पुकार में कहीं  खो गई थी विवेक के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं ‘ में शामिल कविताएं ऐसी ही कविताएं हैं प्रेम पर ऐसी सघन, ऐसी बारीक बुनावट वाली कविता ‘मीठी नीम’ देखिए

मीठी नीम

एक गन्ध ऐसी होती है

जो अंतस को छू लेती है

चन्दन सी नहीं

गुलाब सी नहीं

मीठी नीम सी होती है

तुम ऐसी ही एक गन्ध हो।।

एक कविता है ‘पिता की याद’, इसे पढ़कर मैं हैरत में पड़ गई क्या पिता के प्रेम की व्यंजना को ऐसे भी अनुभव किया जा सकता है? जबकि प्राय: साहित्य में पुरुष सत्ता की आलोचना ही बिखरी पड़ी है

‘भोर होने को है’ में यह देखना विस्मयकारी है कि एक पुरुष कवि कैसे ऐसी स्त्रीमूलक कविता रच पाता है इन कविताओं को पढ़कर बार बार ये अनुभव होता है कि कवि अपनी रचना के भीतर अपना व्यक्तित्व छोड़ कर पैठ गया है

और ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ तो शायद इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है इतनी समग्र कविता कम देखने मिलती है इस कविता का आखिरी अंश देखिए

…स्त्रियों का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।

लगता है कि विवेक अपनी कविताओं का सूक्ष्म ट्रीटमेंट करने में सक्षम कवि हैं कुछ भी छूटता नहीं है कविता एक पूरा जगत समेटकर चलती है

इस संग्रह का किसी पाठक के पास होना सच में  एक उपलब्धि है।।

– अर्चना पांडेय 

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 36 – पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है आपकी एक सामयिक एवं भावपूर्ण कविता  “पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 36 ☆ 

 ☆ पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे

हाल माझ्या देशाचे हे पाहाल का राजे।

पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे।।धृ।।

न्याय निती शिस्त सारी मोडीत निघाली।

गल्लोगल्ली लांडग्यांची झुंडशाही आली।

मोकाट या श्वापदांना थांबवा ना राजे।।१।।

 

परस्री मातेसम ही प्रथा बंद झाली।

रोज नव्या बालिकांची होळी सुरू झाली।

अभयचे दान आम्हा द्याल ना हो राजे।।२।।

 

मद्य धुंद दाणवांनी आळी माजली हो।

सत्ता पिपासूंनी त्यात पोळी भाजली हो।

घडी पुन्हा राज्याची या बसवा ना राजे।।३।।

 

जिजाऊंच्या गोष्टी आज विसरून गेल्या।

रोज नव्या मालिकात माताजी रंगल्या।

संस्कारांचे बाळकडू  पाजाल का राजे ।।३।।

 

आवर्षण महापूर  संकटांची माला।

सावकारी फासात या बळी अडकला।

फासातून मान त्याची सोडवा ना राजे।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35 ☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक भावपूर्ण कविता “चौगड्डे के सिग्नल से ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35

☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से   

ओलम्पिया के सामने

पोल पर बैठा कौआ

अपने छोटे बच्चे को

दाना चुगने का गुर

बार बार सिखा रहा है

नीचे से करोड़ों की

कारें भी गुजर रहीं हैं

दिन डूबने के पहले

ऊपर से उड़नखटोलों

की भागदौड़ मची है

ओलम्पिया के चौगड्डे में

खूब हबड़ धबड़ मची है

ऊपरी मंजिल से लोग

झांक झांक कर कौए

को दाना न दे पाने का

खूब अफसोस कर रहे हैं

एक नये जमाने की मां

चोंच में दाना डालने के

तरीके भी सीख रही है

जीवन इतना सुंदर है

देखकर खुश हो रही है

 

     * चौगड्डे  ->चौराहे 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #38 – मुखिया मुख सो चाहिये ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मुखिया मुख सो चाहिये”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 38 ☆

☆ मुखिया मुख सो चाहिये

देश की आजादी से पहले स्वतंत्रता के आंदोलन हुये. आजादी पाने के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजियां लगा दी. अनेक युवा हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गये. सत्य की जीत और आजादी पाने के लिये महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, अनशन, उपवास, अहिंसा का एक सर्वथा नया मार्ग प्रशस्त किया. देश स्वतंत्र हुआ, अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. लेकिन प्रश्न है कि वह क्या कारण था कि देश का हर व्यक्ति आजादी चाहता था? उन दिनो तो शहरो में बसने वाले देश के संपन्न वर्ग के लोग आसानी से विदेशो से शिक्षा ग्रहण कर ही लेते थे, राज परिवारो, जमीदारों, अधिकारियों, उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोगो के अंग्रेजो से सानिध्य के लिये हर शहर कस्बे में क्लब थे. सुसंपन्न चाटुकार महत्वपूर्ण लोगो को रायबहादुर वगैरह के खिताब भी दिये जाते थे. गांवो की जनसंख्या तो अंग्रेजो के शासन में शहरी आबादी से कहीं ज्यादा थी और, “है अपना हिंदुस्तान कहाँ? वह बसा हमारे गांवो में”. गांवो से सत्ता का अधिकांश नाता केवल लगान लेने का ही था. संचार के साधन बहुत सीमित थे. लोगो की जीवन शैली में संतोष और समझौते की प्रवृत्ति अधिक बलवान थी, लोग संतुष्ट थे.  फिर क्यों आजादी की लड़ाई हुई ? बिना बुलाये जन सभाओ में क्यो लोग भारी संख्या में एकत्रित होते थे ? अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वह पीढ़ी आजादी क्यो पाना चाहती थी?  इसका उत्तर समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा ही है.

आजादी के रण बांकुंरो की आत्मायें यदि बोल सकती, तो वे यही कहती कि उनने एक समर्थ तथा समृद्ध भारत की परिकल्पना की थी. आजादी का निहितार्थ यही था कि एक ऐसी शासन प्रणाली लागू होगी जिसमें संस्कार होगें. सत्य की पूछ परख होगी. राम राज्य की आध्यात्मिकता जिसके अनुसार “मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक,  पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ” वाले अधिकारी होंगे.देश का संविधान बनते और लागू होते तक यह विचार प्रबल रहा तभी तो “जनता का, जनता के लिये जनता के द्वारा ” शासन हमने स्वीकारा. पर उसके बाद कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई. आजादी के बाद से देश ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया. जहाँ एक सुई तक देश में नहीं बनती थी, और हर वस्तु “मेड इन इंग्लैंड” होती थी. आज हम सारी दुनिया में “मेक इन इण्डिया” का नारा लगा पाने में सक्षम हुये हैं. हमारे वैज्ञानिको ने ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है कि हम चांद और मंगल तक पहुँच चुके हैं. अमेरिका की सिलिकान वैली की सफलता की गाथा बिना भारतीयो के संभव नहीं दिखती. पर दुखद है कि आजादी के बाद हमारे समाज का चारित्रिक अधोपतन हुआ. आम आदमी ने आजादी के उत्तरदायित्वो को समझने में भारी भूल की है. हमने शायद स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता लगा लिया.

सर्वमान्य सत्य है कि हमेशा से आदमी किसी न किसी डर से ही अनुशासन में रहता आया है. भगवान के डर से, अपने आप के डर से या राजा अर्थात शासन के डर से. सच ही है “भय बिन होई न प्रीति “. आजादी के बाद के दशको में वैज्ञानिक प्रगति ने भगवान के कथित डर को तर्क से मिटा दिया.

भौतिक सुख संसाधनो के बढ़ते माया जाल ने लोगो को संतुष्टि से “जितना चादर है उतने पैर फैलाओ” की जगह पहले पैर फैलाओ फिर उस नाप के चादर की व्यवस्था करो का पाठ सीखने के लिये विवश किया है. इस व्यवस्था के लिये साम दाम दण्ड भेद, नैतिक अनैतिक हर तरीके के इस्तेमाल से लोग अब डर नहीं रहे. “‌‌ॠणं कृत्वा घृतं पिवेत् ” वाली अर्थव्यवस्था से समाज प्रेरित हुआ. राजा शासन या कानून  का डर मिट गया है क्योकि भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है, लोग रुपयो से या टेलीफोन की घंटियो के बल पर अपने काम करवा लेने की ताकत पर गुमान करने लगे हैं. जिन नेताओ को हम अपनी सरकार चलाने के लिये चुनते हैं वे हमारे ही वोटो से चुने जाने बाद हम पर ही रौब गांठने के हुनर से शक्ति संपन्न हो जाते हैं, इस कारण चुनावी राजनीति में धन व बाहुबल का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनेता सरकारी ठेकों, देश की प्राकृतिक संपदा के दोहन, सार्वजनिक संपत्तियों को अपनी बपौती मानने लगे हैं. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई क्योकि कलम से जनअधिकारो की रक्षा की अपेक्षा थी  किंतु पूंजीपतियो तथा राजनेताओ ने इसका भी अपने हित में दोहन किया है.अनेक मीडिया हाउस तटस्थ होने की जगह पार्टी विशेष   के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय हैं. आम जनता दिग्भ्रमित है हर बार चुनावो में वह पार्टी बदल बदल कर परिवर्तन की आशा करती है पर नये सिरे से ठगी जाती है.  इस तरह भय हीन समाज निरंकुश होता जा रहा है.

लेकिन सुखद बात यह है कि आज भी जनतांत्रिक मूल्यो में देश में गहरी आस्था है. हमारे देश के चुनाव विश्व के लिये उदाहरण बने हैं. इसी तरह न्यायपालिका के सम्मान की भावना भी हमारे समाज की बहुत बड़ी पूंजी है. समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना व  वर्तमान समाज में सुधार हेतु आशा की किरण कानून और उसके परिपालन के लिये उन्नत टेक्नालाजी का उपयोग ही सबसे कारगर विकल्प दिखता है. अंग्रेजो के समय के लचर राज पक्षीय पुराने कानूनो की विस्तृत विवेचना समय के साथ जरूरी हो चुकी है. नियम उपनियम,पुराने फैसलो के उदाहरण,  कण्डिकायें इतनी अधिक हो गईं है  कि नैसर्गिक न्याय भी कानून की किताबों और वकील साहब की फीस के मकड़जाल में उलझता जा रहा है. एक अदालत कुछ फैसला करती है तो उसी या उस जैसे ही प्रकरण में दूसरी अदालत कुछ और निर्णय सुनाती है. आज समय आ चुका है कि कानून सरल, बोधगम्य और स्पष्ट बनें. आम आदमी भी जिसने कानून की पढ़ाई न की हो नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उनहें समझ सके और उनका अमल करे. समाज में नियमों के परिपालन की भावना को सुढ़ृड़ किया जाना जरूरी हो चुका है.आम नागरिको के  नियमो के पालन को सुनिश्चित करने के लिये  प्राद्योगिकी व संचार तकनीक का सहारा लिया जाना उपयुक्त है. हमारी पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह रेल रिजर्वेशन में कम्प्यूटरीकरण से व्यापक परिवर्तन हुये, सुविधा बढ़ी, भ्रष्टाचार बहुत कम हुआ. वीडियो कैमरो की मदद से आज खेल के मैदान पर भी निर्णय हो रहे हैं, जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानो, कार्यालयों में और तेजी से कम्प्यूटरीकरण किया जावे, संचार तकनीक से आडियो वीडियो निगरानी बढ़ाई जावे. इस तरह न केवल अपराधो पर नियंत्रण बढ़ेगा वरन आजादी के सिपाहियो द्वारा देखी गई समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा मूर्त रूप ले सकेगी. कानून व तकनीकी निगरानी के चलते जनता, अधिकारी या नेता हर कोई मूल्य आधारित संस्कारित व्यवहार करने पर विवश होगा. धीरे धीरे यह लोगो की आदत बन जायेगी. यह आदत समाज के संस्कार बने इसके लिये शिक्षा के द्वारा लोगों के मन में भौतिक की जगह नैतिक मूल्यो की स्थाई प्रतिस्थापना की जानी जरूरी है.  जब यह सब होगा तो आम आदमी आजादी के उत्तरदायित्व समझेगा स्वनियंत्रित बनेगा,अधिकारी कर्मचारी स्वयं को जनता का सेवक समझेंगे और  नेता अनुकरणीय बनेंगे.  देश में अंतिम व्यक्ति तक सुशासन पहुंचेगा. देश में प्राकृतिक या बौद्धिक संसाधनो की कमी नहीं है, जरूरत केवल यह है कि मूल्य आधारित प्रणाली से देश के विकास को सही दिशा दी जावे. भारत समर्थ है, हमारी पीढ़ी को इसे  समृद्ध भारत में बदलने का सुअवसर समय ने दिया है, इस हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना जरूरी है. इस अवधारणा को लागू करने के लिये हमें कानून व प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (31) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।31।।

 

पावन कर्ता पवन हूँ धनुर्वीर श्रीराम

नदियों में गंगा नदी,मत्स्य मगर उद्दाम।।31।।

 

भावार्थ :  मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ।।31।।

 

Among the purifiers (or the speeders) I am the wind; Rama among the warriors am I; among the fishes I am the shark; among the streams I am the Ganga.।।31।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 38☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘दो कवियों की कथा ’ हास्य का पुट लिए हुए एक बेहतरीन व्यंग्य है । इस व्यंग्य में  तो मानिये किसी अतृप्त कवि की आत्मा ही समा गई हो। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 38 ☆

☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा  ☆

कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।

कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।

धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’

वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘

कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।

वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’

उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘

कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’

‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘

कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’

वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘

कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’

वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’

कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’

वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘

कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘

वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’

‘ठीक है। ‘

कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।

चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘

वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘

कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘

जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’

वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘

कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘

वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘

कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘

वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘

कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘

वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘

कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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