हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 37☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘उधार देने का सुख ’  एक बेहतरीन व्यंग्य है और शायद ही कोई हो जिसका इस व्यंग्य के पात्रों से सामना न हुआ हो।आप भी आत्मसात कीजिये । ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 37 ☆

☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆

उनसे मेरा परिचय सिर्फ सलाम-दुआ तक ही था क्योंकि मुझे मुहल्ले में आये थोड़े ही दिन हुए थे। बुज़ुर्ग आदमी थे। उस दिन वे सबेरे सबेरे अचानक ही मेरे घर में आ गये। बैठने के बाद उन्होंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ायी। बोले, ‘वाह, बहुत सुन्दर। आपकी रुचि बहुत अच्छी है।’

मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, ‘जी,यह सब मेरी पत्नी का योगदान है। मेरा योगदान तो इसे यथासंभव बिगाड़ने में रहता है।’

वे हँसे और देर तक हँसते रहे। फिर बोले, ‘आपकी आयु अब कितनी हुई?’ मैंने मुँह बनाकर कहा, ‘आप तो दुखती रग छू रहे हैं। पचास पार हो गया।’ उन्होंने भारी आश्चर्य प्रकट किया, बोले, ‘आप तो बहुत तरुण दिखते हैं। आपको देखकर भला कौन कहेगा कि आप तीस से ज़्यादा हैं?’

यह भी अच्छा लगा। यह ऐसी तारीफ है जिसे सुनकर बूढ़ा सन्यासी भी पुलकित हो जाता है। मैं ठहरा सामान्य सद्गृहस्थ।

वे फिर बोले, ‘आपका बेटा बड़ा मेधावी है। बड़ा होशियार है। ‘मैंने सचमुच मुँह बनाकर कहा,’ नीट में तीसरी बार बैठ रहा है। ‘ वे थोड़ा अप्रतिभ हुए, लेकिन हारे नहीं। बोले, ‘लेकिन उसमें प्रतिभा ज़रूर है और एक दिन वह ज़रूर प्रकाशित होगी। ‘ मैंने कहा, ‘आपके मुँह में घी-शक्कर।’

और थोड़ी देर बैठकर, कुछ नैवेद्य ग्रहण करके उन्होंने विदा ली। दहलीज पार करके दो चार कदम चले होंगे कि ऐसे लौट पड़े जैसे एकाएक कुछ याद आ गया हो। बोले, ‘आपके पास पाँच सौ रुपये पड़े होंगे क्या? एक आदमी को देना है। कल बैंक से निकालना भूल गया। आज बैंक खुलते ही आपको लौटा दूँगा।’

मैंने ‘कैसी बातें करते हैं’ वाले पारंपरिक वाक्य के साथ उन्हें राशि अर्पित कर दी।

उसके बाद बैंक रोज़ खुलते और बन्द होते रहे, लेकिन वे पैसे देने नहीं आये। करीब एक हफ्ते बाद वे फिर आ गये। बैठकर आधे घंटे तक मुहल्ले-पड़ोस और शहर की बातें करते रहे। फिर उठे और उसी अदा से दहलीज से लौट आये। बोले, ‘वह आपका पैसा कुछ झंझटों के कारण नहीं दे पाया। दो तीन दिन में ज़रूर दे दूँगा। आप निश्चिंत रहिएगा।’ मैंने बुदबुदाकर ‘कोई बात नहीं’ कहा।

तीन चार महीने बाद एक दिन पीएच.डी. उपाधि मिलने के कारण मेरा अभिनन्दन हुआ। उस दिन जीवन में पहली बार अभिनन्दन का सुख जाना। उस दिन पता चला कि लोग अभिनन्दन के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं कि अभिनन्दन का खर्च ओढ़ने को भी तैयार रहते हैं।

अभिनन्दन ग्रहण करके कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता के मूड में स्कूटर पर लौट रहा था कि रास्ते में उन्होंने आवाज़ दी। कहने लगे, ‘कहाँ से आ रहे हैं?’ मैंने उन्हें अभिनन्दन के बारे में बताया तो उन्होंने मुक्तकंठ से बधाई दी। मैंने चलने के लिए स्कूटर स्टार्ट की तभी वे बोले, ‘वह जो आपका पैसा है, उसकी आप फिक्र मत कीजिएगा। जल्दी ही दे दूँगा।’

मैं चला तो आया लेकिन मेरे मूड का नाश हो गया। घर आकर मैंने निश्चय किया कि पाँच सौ रुपये से भले ही ग़म खाना पड़े, लेकिन इस बला को ख़त्म करना ही होगा।

दूसरे दिन शाम को मैं उनके घर गया। वे बड़े प्रेमभाव से मिले। कुछ बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘मैं एक बात कहने आया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा पैसा देने में आप कुछ दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इंसानियत के नाते मैं चाहता हूँ कि आप उस कर्ज को भूल जाएं। एक दूसरे की इतनी मदद तो करनी ही चाहिए।’

वे मेरी बात सुनकर रुआंसे हो गये। बोले, ‘आप कैसी बातें करते हैं? मैंने आज तक किसी का कर्ज नहीं रखा। आपका पैसा नहीं चुकाऊँगा तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी। हमारे घर में देर होती है, अंधेर नहीं होता। आप ऐसा करने के लिए मुझे विवश न करें।’ उन्होंने मेरी तरफ देखकर हाथ जोड़ दिये। मैं उनके पाखंड को देखकर कुढ़कर चला आया।

महीने भर बाद वे फिर घर आ गये। बड़ी देर तक मौसम और राजनैतिक स्थिति की चर्चा करते रहे। फिर उठे, दहलीज तक गये और कुछ याद करके लौट पड़े। तभी मैं पर्दा उठाकर तीर की तरह भीतर भागा और बाथरूम में घुसकर मैंने भीतर से सिटकनी चढ़ा ली।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ कालजयी कविता ☆ वो मैं ही थी… ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “वो मैं ही थी…”

मैं निःशब्द हूँ, स्तब्ध भी हूँ शब्दशिल्प से और सहज गंभीर लेखन से ।सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए इस कालजयी रचना का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे आज के अंक में आप निम्न लिंक पर भी पढ़ सकते हैं। )

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 
  4. नदी नीलकंठ नहीं होती 
  5. झांनवाद्दन
  6.  दे जाना उजास वसंत

☆ वो मैं ही थी… ☆

जो प्रेम के निर्जीव तन पर

निर्ममता से पाँव रख, लांघ गई थी उस

उलझी – उलझी,

सदियों लंबी साँझ को

वो मैं ही थी

 

तुमने मेरे शांत स्थिर हुए चित्त में

सरकाईं थी अतीत की तमाम शिलाएँ

रखा था मन की सब झंकारों को मौन जिसने

वो मैं ही थी

 

तुम लाए थे तोड़ – मरोड़ कर प्रेम तंत्र की सब शिराएँ

नहीं गूँथा था मैंने किसी एक का, कोई एक सिरा भी दूसरी से

बैठी रही थी निश्चेष्ट, निर्भाव सी

वो मैं ही थी

 

सही थीं जिसने वियोग वाद्य की, उदास धुने बरसों बरस

वो भी कोई और नहीं

मैं ही थी

 

तुम चाहते थे अतीत की गहरी खदानों को

बहानों की मुट्ठी भर रेत से पाटना

यह देखकर जो मुस्काई थी तिर्यक मुस्कान

कोई और नहीं

मैं ही थी

 

तुम्हारे अपराध बोध की झुलसती धूप में

जिसने सौंपा नहीं था अपने आँचल का कोई एक कोना भी

और खड़ी रही थी तटस्थ

वो मैं ही थी

 

अगर होती हैं तटस्थताएँ अपराध तो

अपनी सब तटस्थताओं का अपराध स्वीकारा जिसने

वो भी तो मैं ही थी

 

ओझल होते ही तुम्हारे

अपनी सब तटस्थताओं को भुरभुरा कर रेत बनते देख

जो विकल हो डूबी थी खारे पानियों में

तुम मानो न मानो

वो भी कोई और नहीं

मैं ही तो थी

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #35 ☆ ढाई आखर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 35 ☆

☆ ढाई आखर ☆

(14 फरवरी के संदर्भ में)

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनाभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 22 – जियो और जीने दो ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘जियो और जीने दो ‘।आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22  – विशाखा की नज़र से

☆ जियो और जीने दो  ☆

 

बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मैं

बिखरें बालों को समेट कर

तुम्हारे चौड़े ललाट पर

उँगलियों की पोरों से

तुम्हारी बैचैनी, तुम्हारी अकुलाहट

और बहुत कुछ ….

 

तुम्हारे हल्के नकार में रिसती

पसीने की बूंदों को

मैं अपने फाउन्टेन पेन में भर

महाकाव्य रच देना चाहता हूँ

इस स्याह रात में ….

 

स्याह रात !

जो बदनामी के डर से

और काली हो चली है

चंद्रकोर भी ढ़क चली है

कि, कोई गवाह ना रहे हमारे प्यार का

एक  सितारा भी नज़र ना आ सके

हमारे इकरार का ..

 

पर मैं ये ना समझूँ

कि क्यों प्यार छुपाया जाए

प्यार में ख़ून बहाया जाए

दीवारों पर चुनवाया जाए

सूली पर लटकाया जाए

 

कुछ तो सुन लो कानों को बंद किये आदमी

जमाने भर के पैबंद लिए आदमी

प्यार से उपजे आदमी

आदम हौवा की संतानें आदमी

कि,

इश्क अगर बीमारी है तो होने दो

रिसते है जख्म तो रिसने दो

इसे महामारी में बदलने दो

 

यूँ तो नफरतों से बाजार भरा पड़ा है

प्यार एक कोने में दुबका खड़ा है

कहीं तो प्यार परवान चढ़ने दो

जियो और जीने दो ……….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ माझी कर्मभूमी… . . !   ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आज प्रस्तुत है  उनके फेसबुक पेज से साभार एक भावप्रवण कविता माझी कर्मभूमी… . . ! )

 ☆  माझी कर्मभूमी… . . !   ☆

माझी कर्म भूमी,  संस्काराचा गाव,

मानव्याचे नाव, देऊ त्याला. . . . . !

 

वागायचे कसे ,  बोलायचे कसे

दिसायचे कसे,  शिकविले. . . . !

 

अनुभव देई ,  रोज नवे धडे

तारतम्य घडे,  जीवनात .. . . !

 

नको बडेजाव,  नको  अभिमान

व्यर्थ गुणगान,  श्रीमंतीचे. . . !

 

स्वातंत्र्याधिकार ,  आहे  प्रत्येकास

व्यक्ततेची आस, कर्तृत्वात. . . . !

 

मायाजाल  देई,  विकारांचे जल

तिथे कर्मफल ,  जन्मा येई. . . . !

 

कर्मभूमी माझी, माझा परीवार

स्वार्थाचा विचार  घात करी. .. . . !

 

मती आणि गती,  विचारांचे  जाते

माणसाशी नाते ,  जोडलेले. . . . !

 

कुटुंबास हवा ,  आधाराचा हात

कर्तव्याची बात, चुको नये. . . !

 

कर्मभूमी देई,  पद, पैसा, किर्ती

आदर्शाची मूर्ती,  स्मरणात. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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English Literature – Classical Poetry – ☆ It was me only…! ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

Captain Pravin Raghuvanshi ji  is not only proficient in Hindi and English, but also has a strong presence in Urdu and Sanskrit.   We present an English Version of Ms. Nirdesh Nidhi’s  Classical Poetry  “वो मैं ही थी…”with title  “It was me only…!” .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

सुश्री निर्देश निधि

इस कविता की मूल लेखिका सुश्री निर्देश निधि और कैप्टन साहब के प्रति आभार प्रकट करते हुए इस रचना मूल हिंदी  संस्करण आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं

>>> वो मैं ही थी…

मैं निःशब्द हूँ, स्तब्ध भी हूँ शब्दशिल्प से और सहज गंभीर लेखन से ।सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

आपसे अनुरोध है कि आप इस रचना को हिंदी और अंग्रेज़ी में पढ़ें और इस कविता को अपने प्रबुद्ध मित्र पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनकी प्रतिक्रिया से  सुश्री निर्देश निधि जी एवं अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी को अवश्य अवगत कराएँ.

 ☆ It was me only…!☆

Who had ruthlessly trampled

over the lifeless body of the love;

And, got over the infinitely

complicated, centuries long never-ending evening!

Yes, it was me…

 

You moved all the rocks of the past, shaking all the thoughts of my mind

which had maintained stark silence and tranquility, hitherto!

It was me only…

 

You had brought all the veins

of love totally bruised

And I, didn’t even attempt to tender even a single one,

Kept sitting lacklusterly,

Indifferently to your presence!

That was me only…

 

The one who listened to all the sombre tunes,

Of instrument of separation,

For years and years on…

That one was no one else

But me only…!

 

You wanted to fill the deep

gorge of the past

With a handful of sandy excuses

The one who extended the

mocking smile on seeing this

That was no one else

But me only…!

 

In the scorching sun of your guilt

One, who never offered

any soothing shade

And stood stoically detached

That was also me only…!

 

If apathy is a crime, then

The one who confessed the

crime of being indifferent

That was me only…

 

Soon after you were gone,

Witnessed all the detached neutralities falling apart resolutely

Turning into heap of dry sand

Only to get restlessly drowned in the brackish saline water,

You won’t believe

That was no one else

But me only…!

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

Originally Written in Hindi by Nirdesh Nidhi

English Translation by Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd), Pune

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 11 – धत् पगली ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली पर किस प्रकार दुखों का पहाड़ टूट पडा़ था। परन्तु वह विधि के विधान को समझ नही पा रही थी कि उसके भाग्य  में अभी और कौन  सा दिन देखना बाकी है। पहले पति मरा फिर आतंकी घटना नें उससे जीने का आखिरी सहारा भी छीन लिया पगली का हृदय आहत हो बिलबिला उठा था।  बिछोह की पीड़ा ने उसे चीत्कार  करने पर विवश कर दिया।अब आगे पढ़े——)

पगली के बेटे गौतम की अर्थी निकले महीनों  गुजर चुके थे।  गांव के सारे लोग उस गुजरे हादसे को अपने स्मृतियों से भुलाने में लगे थे, लेकिन फिर भी पगली का सामना होते ही लोगों की स्मृति में  गौतम का क्षत-विक्षत शव का दृश्य तैर जाता और लोग उस घटना को याद कर सिहर उठते।  लोगों के मन में दया करूणा एवम्ं सहानुभूति का ज्वार पगली के प्रति उमड़ पड़ता।

लोग पगली के प्रति नियति की कठोरता पर  विधाता को कोसते।  उसे देख कर जमाने के लोगों के दिल में हूक सी उठती तथा आह निकल जाती।  पति तथा पुत्र के असामयिक निधन ने उसके चट्टान से हौसले को तोड़ कर रख दिया।  उसका सारा हौसला रेत के घरोंदे जैसा भरभरा कर गिर गया।

पगली का व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की मानिन्द बिखर गया। पगली भीतर  ही भीतर टूट चुकी थी।  उसके जीवन से जैसे खुशियों के पल रूठ कर बहुत दूर चले गए हो। पति का बिछड़ना तो पगली ने बर्दाश्त कर लिया था।  उसनें गौतम के साथ जीने और मरने के सपने सजाये थे, लेकिन गौतम की असामयिक मृत्यु ने उन सपनों को  चूर चूर कर दिया, वह विक्षिप्त हो गई थी।

उस पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे थे। उसे देख ऐसा लगता जैसे जीवन से उसका ताल मेल खत्म हो गया हो।  सूनी सूनी आंखें, बिखरे बिखरे बाल, तन पर फटे चीथड़ों के शक्ल में झूलती साड़ी, तथा अस्त व्यस्त जीवन शैली।  उसके दुखी जीवन के पीड़ा की कहानी बयां करती, जिन्दगी से उसकी सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी।

वह लक्ष्य विहीन जीवन जीती आशा और निराशा में भटकती कटी हुई पतंग की तरह फड़फड़ा रही थी।

वह प्राय:मौन हो यहाँ वहाँ घूमती, यदि गाँव की महिलायें दया भाव से कुछ दे देती तो वह उसे वही बैठ चुपचाप खा लेती।  कभी कभी वह अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाती, उसकी बातों का मतलब लोगों के लिए अबूझ पहेली थी।  मानों वह विधाता से अपने भाग्य की शिकायत कर रही हो।

फिर चाहे गर्मी की तपती दोपहरी हो अथवा रातों की नीरवता जाड़े की रात हो अथवा बारिशों का दौर वह दुआ मांगने वाले अंदाज में दोनों हाथ ऊपर उठाये एक टक् खुले आकाश की तरफ निहारा करती।

उसके साथ घटी घटनाओं ने उसका हृदय तार तार कर के रख दिया, जिससे उपजे दुख और पीड़ा ने उसे अक्सर बेख्याली में चीखने चिल्लाने पर मजबूर कर दिया।  जरा सा छेड़छाड़ हुई नही कि वह साक्षात् रणचंडी बन जाती। गांवों के बच्चे कभी उसे पगली पगली कह चिढ़ाते कभी पत्थर मारते, तो वह भी गुस्से में उन्हें गालियां देते मारने के लिए दौड़ा लेती। शरारती बच्चे भाग लेते, लेकिन उसी समय घटी एक साधारण सी घटना नें पगली के हृदय पर ऐसी असाधारण चोट पहचाई कि उसका हृदय विदीर्ण हो गया, वह कराह उठी।

उसने उस दिन पत्थर फेकते बच्चों की टोली को दौड़ाया तो उसी आपाधापी में एक बच्चा डर के मारे चीख कर बीच सड़क पर गिर गया। चोट उसके सिर पर लगी थी।

शायद पगली के दिल पर भी, बच्चे के सिर से रक्तधारा बह चली थी, अपना खून देख बच्चा बेसुध हो रोने लगा था। उसके चोट से बहती रक्तधारा देख पगली के हृदय में करूणा उमड़ आई। उसकी सोई ममता जाग उठी।  आखिर ऐसा क्यों न हो उसका दिल  भी तो एक माँ का दिल था।  उसकी ममता अभी जिन्दा थी।  उसने अपनी चीथड़ों की शक्ल में झूलती साडी़ का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे की चोट पर बांध दिया और बच्चे को गोद मे चिपका कर रो पड़ी।

वह रोये जा रही थी, तथा बच्चे के गाल से बहता रक्त भी पोंछ रही थी।  मानों अंजाने में हुए अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हो।  तभी बच्चे का चोला चैतन्य हुआ और बच्चा [धत् पगली] कह गोद से उठकर अपना
हाथ छुड़ाते उठ भागा था।

उस समय पगली को ऐसालगा जैसे हाथ छुडा़ उसका अपना गौतम ही भागा हो। उसका भावुक हृदय चित्कार कर उठा।  वह भी उस बच्चे के पीछे (अरे मोरे ललवा, कहाँ छोड़कर पहले रे) चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी थी।

तब से ही पगली बेचैन रहती है उसका दिन का चैन और रातों की नींद खो गई है, वह रात दिन रोती रहती है।  जब रात की नीरवता के बीच कुत्तों के झुण्ड से रोनें तथा सितारों की टोली से हुआँ हुआँ के बीच अरे मोरे ललवा कंहाँ छोडि़ के पहले रे की आवाज वातावरण में तैरती है, तो उसका करूण क्रंदन सुन लोगों की रूह कांप जाती है।  लोग उसकी पीड़ा देख विधाता को कोसते हैं।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 12 – गोविन्द—

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रसहीन ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – रसहीन  

प्रकृति से दूर कांक्रीट के जंगल में भटकती हुई एक तितली गिफ्ट सेंटर पर लटके सजावटी रंगबिरंगे फूलों की माला पर आकर्षित होकर , कभी इस फूल पर , कभी उस फूल पर बैठती एवं कुछ देर पश्चात पुनः उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठती । यह प्रक्रिया कुछ देर चलती रही और फिर तितली निढाल अवस्था में वहीं शो केस के कांच पर बैठ गई ।

उसे क्या पता था कि इन फूलों में रस नही है , ये केवल दिखावटी हैं । इन्हीं प्लास्टिक के फूलों की तरह मनुष्य भी प्राकृतिक सौंदर्य से दूर केवल बनावटी जीवन में ही रस ढूंढ़ते हुए रसहीन हो चुका है ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga: A Complete Session/ हास्य-योग: एक संपूर्ण सत्र – Video #22 ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  Laughter Yoga: A Complete Session/ हास्य-योग: एक संपूर्ण सत्र☆ 

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #22

हास्य-योग करने की शुद्ध विधि इस विडियो में सुन्दर व सरल ढंग से समझायी गयी है. इसे देखकर आप सही ढंग से हास्य-योग करना सीख सकते हैं और सिखा सकते हैं. हास्य-योग के चार चरणों को इस विडियो में समझाया गया है. ये चार चरण हैं:

१. ताली बजाना
२. गहरी सांस
३. बच्चों की तरह मस्ती
४. हास्य व्यायाम

This video explains in a simple and beautiful manner how to do Laughter Yoga in the correct manner. After watching this video, you can learn and teach the four basic steps of Laughter Yoga.

The four steps of Laughter Yoga are:

1. Clapping and chanting
2. Deep breathing
3. Child like playfulness
4. Laughter Exercises

हास्य-योग बिना किसी कारण हंसी और प्राणायाम का मिश्रण है. कोई भी बिना चुटकुलों के, यहाँ सिर्फ हास्य व्यायामों के माध्यम से देर तक लगातार हंस सकते हैं. बच्चों की तरह मस्ती और नज़रें मिलने से हंसी वास्तविक हंसी में परिवर्तित हो जाती है और एक-दूसरे की देखा-देखी सब खुलकर हंसने लगते हैं.

Laughter Yoga is a unique concept of prolonged voluntary laughter created by an Indian physician Dr Madan Kataria in the year 1995 in Mumbai. We begin laughter as an exercise and it soon becomes contagious by eye contact and childlike playfulness.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (23) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)।

 

रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌।।23।।

 

रूद्रों में शंकर हूँ मैं औ” यक्षों में कुबेर

वसुओं में पावक हूँ मैं शिखरों में हूँ मेरू।।23।।

 

भावार्थ :  मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ॥23॥

 

And, among the Rudras I am Shankara; among the Yakshas and Rakshasas, the Lord of wealth (Kubera); among the Vasus I am Pavaka (fire); and among the (seven) mountains I am the Meru.

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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