हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमोचन/समीक्षा ☆ परिदृश्य चिन्तन के – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री सुरेखा शर्मा

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  यह हमारे लिए गर्व का विषय है  कि – कल  दिनांक 7 फ़रवरी 2020 को डॉ मुक्त जी के दो निबंध/आलेख संग्रह  “परिदृश्य चिंतन के” और “हाशिये के उस पार”का विमोचन आदरणीय डॉक्टर पूर्णमल गौड़ (निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी)  के मुख्य आतिथ्य में  राज्य शैक्षिक अनुसंधान केंद्र  गुरुग्राम में  कादम्बिनी क्लब गुरुग्राम  के सौजन्य से संपन्न हुआ। इस अवसर पर  विशिष्ट अतिथि – डॉक्टर अशोक दिवाकर (उपकुलपति, स्टारैक्स युनिवर्सिटी  गुरुग्राम), डॉक्टर मुकेश गंभीर (निदेशक रेडियो -स्टेशन,पलवल), डॉक्टर सविता चड्ढा  (वरिष्ठ साहित्यकार ), डॉक्टर अमरनाथ अमर (उपनिदेशक दूरदर्शन ) एवं  सुश्री सुरेखा शर्मा-  संचालिका (कादम्बिनी क्लब गुरुग्राम) की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। इसी  संदर्भ में प्रस्तुत है सुश्री सुरेख शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक समीक्षा।  शीघ्र ही हम  “हाशिये के उस पार”की पुस्तक समीक्षा /आत्मकथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। )

☆ डॉ मुक्त जी की पुस्तकें – ‘परिदृश्य चिंतन के‘ और ‘हाशिये के उस पार‘  विमोचित – सुश्री शकुंतला मित्तल  ☆

7 फरवरी 2020, शुक्रवार ,कादंबिनी क्लब द्वारा गुरूग्राम ,राज्य शैक्षिक अनुसंधान केंद्र के अन्वेषण कक्ष में, हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक और राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित डॉ मुक्ता शर्मा कृत दो पुस्तकों- ‘परिदृश्य चिंतन के’और ‘हाशिए के उस पार’ का लोकार्पण और परिचर्चा का आयोजन अनेक सुधि साहित्यकारों, विद्वानों और कलमकारों की उपस्थिति में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

इस आयोजन में हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक डॉक्टर पूरणमल गौड़ मुख्य अतिथि के रुप में शोभायमान रहे। विशिष्ट अतिथि के रुप में डाॅक्टर अशोक दिवाकर (उप कुलपति ,स्टारैक्स  युनिवर्सिटी गुरूग्राम)  डाॅक्टर मुकेश गम्भीर ( निदेशक, रेडियो स्टेशन पलवल )  डाक्टर सविता चड्ढा जी (वरिष्ठ साहित्यकारा ) डॉ अमरनाथ अमर जी(उपनिदेशक दूरदर्शन) जैसी महान विभूतियां मंचासीन थी।

कार्यक्रम का शुभारंभ गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन व विख्यात कवयित्री वीना  अग्रवाल जी के मधुर कंठ में प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ ।इसके पश्चात  वरिष्ठ पत्रकार एवं हिंदी सेवी स्वर्गीय श्री मुकुल शर्मा जी और अखिल भारतीय शिक्षाविद् श्री मोहनलाल ‘सर’ जी की स्मृति में मौन रखकर सब उपस्थित साहित्यकारों ने उनके प्रति अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि समर्पित की ।कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात कवयित्री एवं लेखिका श्रीमती वीना अग्रवाल जी ने बहुत ही मोहक और भावपूर्ण ढंग से किया।इसके बाद सभी गणमान्य अतिथियों का स्वागत किया गया। तत्पश्चात सभी साहित्यकारों और मनीषियों की उपस्थिति में अतिथियों के कर कमलों द्वारा ‘परिदृश्य चिंतन के ‘और ‘हाशिये के उस पार ‘पुस्तक का लोकार्पण हुआ। फिर सभी अतिथियों ने डाक्टर मुक्ता को भी कार्यक्रम की मुख्य केन्द्र बिन्दु मान उन्हें सम्मानित किया। इसी मंच से कादंबिनी पत्रिका के जनवरी अंक का भी विमोचन किया गया।

लेखिका डॉ मुक्ता की पुस्तक ‘परिदृश्य चिंतन के’ की  विस्तृत समीक्षा कादंबिनी क्लब की संचालिका  एवं वरिष्ठ लेखिका श्रीमती सुरेखा शर्मा जी ने, दिल्ली नगर निगम के प्रशासनिक अधिकारी पद से सेवानिवृत्त वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती सरोज शर्मा जी ने और शिक्षिका मोनिका शर्मा ने की और दूसरी पुस्तक ‘हाशिये  के उस पार’ की समीक्षा सुविख्यात कवयित्री एवं शिक्षिका डॉ बीना राघव जी ने प्रस्तुत की।

सभी शिक्षकों ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक के लिए लेखिका को बधाई एवं शुभकामनाएँ समर्पित करते हुए उसे हर आयु वर्ग के लिए अत्यंत उपयोगी बताया। सुरेखा जी ने पुस्तक का बारीकी से समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि लेखिका ने इन निबंधों में अपना हृदय खोल कर रख दिया है। ये निबंध पाठकों के जीवन के ‘तमस’ को ‘आलोक’ में बदलने का मंत्र देने वाले सिद्ध होंगे। उन्होंने इन निबंधों को ध्यान समाधि की तरह जीवन की हर समस्या का समाधान देने वाला बताया।उन्होंने कहा कि  इस पुस्तक में जहाँ लेखिका की सूक्ष्म, गम्भीर ,पैनी जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है, वहीं इसमें व्यक्त  उनके विचार उनकी सरलता, विनम्रता और सहज उपलब्ध व्यक्तित्व का भी परिचय देते हैं।

श्रीमती सरोज शर्मा जी ने पुस्तक के आवरण की प्रशंसा करते हुए कहा कि आवरण को देख उन्हें शरीर के वे सात चक्र  अनायास  स्मरण हो आए जो मनुष्य को उर्ध्वगामी  बनाते हैं। उन्होंने कहा कि पुस्तक के निबंध हर वर्ग के व्यक्ति को विशेषतया  युवा वर्ग की  इच्छाशक्ति दृढ़ कर यह विश्वास देते है कि ‘तुम कर सकते  हो’। यह पुस्तक आत्मावलोकन पर बल देते हुए कोरी शिक्षा ही नहीं देती वरन व्यावहारिक समाधान भी देती है। सरोज शर्मा जी ने श्री सुमति कुमार जैन की भेजी हुई समीक्षा का भी वाचन  किया, जिसमें उन्होंने इस पुस्तक को समाजोपयोगी, सर्वजन हिताय और कल्याणकारी बताते हुए यह कहा यह चिंताओं का कोहरा हटाने में कारगर साबित होगी ।

शिक्षिका मोनिका शर्मा ने अपनी समीक्षा में इसे जीवन के उलझे धागों को सुलझाने में सहायक बताते हुए कहा कि इस पुस्तक के निबंध मिट्टी और संस्कारों से जुड़ने की प्रेरणा देते हुए प्रकृति के प्रत्येक कण से प्रेम करना सिखाते हैं। उन्होंने पुस्तक को विद्यालय और विश्वविद्यालय की शिक्षा में शामिल करने के लिए बहुत उपयोगी बताते हुए कहा कि यह पुस्तक नीव का पत्थर साबित होगी। उन्होंने पुस्तक के कुछ काव्यमय उद्धरण भी अपने मोहक अंदाज में प्रस्तुत किए।

सुविख्यात  कवयित्री एवं शिक्षिका डॉ बीना राघव जी ने लेखिका डाॅक्टर मुक्ता  की दूसरी पुस्तक ‘हाशिये के उस पार’ पुस्तक के लिए हृदय से बधाई  और साधुवाद देते हुए  समीक्षा की । यह लघुकथा संग्रह है।  उन्होंने इन लघुकथाओं को संक्षिप्त और  सारगर्भित बताते हुए कहा कि ये लघु कथाएँ ‘हाशिए के उस पार’ खड़े व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाती हैं और समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। इनमें विषय वैविध्य  है। संक्षिप्त और सारगर्भित ये लघु कथाएँ अपने आप  में भावों का पूरा सागर समेटे हुए हैं।बीना जी ने पुस्तक की एक लघुकथा का वाचन भी किया।

तत्पश्चात लेखिका डॉ मुक्ता ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। लेखिका डॉ मुक्ता ने बताया कि जब आर्थिक मंदी के दौर में कॉर्पोरेट क्षेत्र से निकाले गए युवा निराश हो आत्महत्या की ओर बढ़ रहे थे तो 2009 में उन्होंने ‘चिंता नहीं चिंतन’ पुस्तक लिख युवा वर्ग को उत्साहित करने का जो प्रयास किया था ‘परिदृश्य चिंतन के’ उसी कड़ी में उनका दूसरा प्रयास है। यह पुस्तक 43 निबंधों का संग्रह है। युवाओं को सकारात्मक सोच प्रदान कर इसके निबंध उन्हें चिंता, तनाव अवसाद से मुक्त कर उद्देश्य प्राप्ति के लिए अग्रसर करते हैं। लेखिका ने अपने निबंध में अतीत को ‘अंधकूप’ माना है और कहा कि भविष्य को तराशने और संवारने के लिए अतीत के अंधकूप से निकलना अति आवश्यक है। लेखिका ने चिंता को निकृष्ट और चिंतन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए व्यक्ति को अंतर्मन की शक्तियों ,प्रतिभा और एकाग्रता से अन्य विकल्प ढूँढ रास्ते बदलने की प्रेरणा दी है।रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं क्योंकि उनके अनुसार सिद्धांत संजीवनी और कवच बन मनुष्य की रक्षा करते  हैं। भौतिक सुखों के पीछे न भागते हुए हमें जीवन मूल्यों को सर्वोपरि रखते हुए सत्यम शिवम सुंदरम को जीवन में चरितार्थ करने का प्रयास करना चाहिए। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जीवन को उत्सव मानते हुए दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास, सकारात्मक सोच को उन्होंने सफलता के विभिन्न सोपान बताया है।

लेखिका के वक्तव्य ने सभागार में सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।

तत्पश्चात श्री अशोक दिवाकर जी ने डॉक्टर मुक्ता  को सार्थक और राह दिखाने वाली लेखिका  कहकर संबोधित करते हुए उनकी पुस्तक के लिए उन्हें बहुत सी बधाई और शुभकामनाएँ  प्रेषित की। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक लोगों को निराशा के अंधकार से बाहर निकालने में सहायक होगी और लेखिका के स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ मुक्ता हमारे बीच प्रेरणा पुंज बनकर आई है और इसी तरह आगे भी वे अपने सशक्त लेखन के द्वारा समाज  को रोशन करती रहेंगी।

सविता चड्ढा जी ने ‘पुस्तक परिदृश्य चिंतन के’ को ‘लाइट हाउसं (प्रकाश गृह) कहा और यह आशा व्यक्त की कि यह वाचन  कैसेट के रूप में भी उपलब्ध होनी चाहिए। उन्होंने अपने जीवन के उदाहरणों के द्वारा भी पुस्तक के निबंधों की सार्थकता को पुष्ट किया और कहा कि लेखिका ने अन्य लोगों के उद्धरणों को  भी निर्देशित किया है। लेखकों, खिलाड़ियों, भगवान महावीर, सिकंदर आचार्य महाप्रज्ञ और उन चिंतकों के विचारों का सारांश और उनके कथन को भी अपनी पुस्तक में पूरी तरह से आत्मसात किया है ।

डॉ अमरनाथ अमर जी ने ‘परिदृश्य चिंतन के’ पुस्तक को सरल, सहज, उदात्त, अनुकरणीय समीचीन, प्रासंगिक और प्रेरक बताया। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक को निश्चित रूप से पाठ्यक्रम में सम्मिलित होना चाहिए क्योंकि यह प्रगति की, रोशनी की और जीवन को रोशन करने की कला सिखाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि लेखिका ने जिस चिंतन की बात की है,उस  चिंतन से हम ‘ स्व’ से ‘सर्व’ की ओर अग्रसर होते हैं।

डाक्टर मुकेश गम्भीर ने  लेखिका और अपने  पारिवारिक संबंध की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पढ़ने पर इस पुस्तक ने मुझे उद्वेलित कर दिया। यूनान के एक प्रसिद्ध कथन की चर्चा करते हुए उन्होंने  विश्वास व्यक्त किया कि पुस्तक पढ़ने के बाद बच्चे में निश्चित रूप से अद्वितीय बनने की शक्ति आ जाएगी। उनका कहना था कि लेखिका के लेखन में उनका अनुभव टपकता है। लेखिका ने अपनी पुस्तक में  विद्यार्थी काल के अनुभव को, भिवानी के राजनैतिक वातावरण को, अध्यापन के अनुभवों को निचोड़ कर रख दिया है और पाठक उस अमृत का पान करके जागृत हो जाएगा। बुध और अष्टावक्र के उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि  इस पुस्तक के निबंध उनके उपदेशों की तरह पाठक को जागृत और दृष्टा बनाएंगे। समाज में हर बीज के अंदर संभावना और क्षमता होती है ।बहुत से बीज पनप नहीं पाते और उसका कारण है कि इस प्रकार की पुस्तकें बहुत कम लोग लिखते हैं लेखिका को समाज उपयोगी पुस्तक लिखने के लिए बधाई देते हुए उन्होंने इस पुस्तक को वजूद से साक्षात्कार का मेल कराने वाली मधुशाला बताया।

अंत में साहित्य अकादमी के निदेशक पूरणमल गौड़ जी ने लेखिका डॉ मुक्ता जी को बधाई देते हुए उन्हें अपना प्रेरणास्रोत बताया। उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल पुस्तकों को ही जीवन में अपना मित्र बनाया। वे स्वेट  मार्टिन की पुस्तकें पढ़ते थे और यदि उन्हें यह पुस्तक पहले ही मिल जाती तो पता नहीं वे क्या बन जाते। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि इस पुस्तक को  पढ़ने से विद्यार्थी में जीवन मूल्य आएंगे और वे सजग होकर उन्नत शिखर पर पहुंचेंगे। उन्होंने इसके साथ ही यह भी आशा व्यक्त की कि लेखिका भविष्य में देश भक्ति और राष्ट्र भाव को जागृत करने वाले भावों पर भी एक पुस्तक इसी प्रकार की लिखे।

डाक्टर मुक्ता ने सभी समीक्षकों को सम्मानित करते हुए अतिथियों और सभी उपस्थित साहित्यकारों का आभार व्यक्त किया।

इस लोकार्पण समारोह में साहित्य  जगत की अनेक लोक प्रसिद्ध विभूतियाँ-त्रिलोक कौशिक जी,शशांक गौड़ जी,अमरलाल अमर जी,नरेन्द्र लाल जी,कृष्णा जैमिनी जी,कृष्ण लता यादव जी,डाॅक्टर स्मिता मिश्रा जी,परिणीता सिन्हा जी,मुक्ता मिश्रा ,शकुंतला मित्तल और अन्य अनेक साहित्यिक विभूतियों ने अपनी उपस्थिति से उस आयोजन को ऐतिहासिक बना दिया।

– प्रस्तुति –  सुश्री  शकुंतला मित्तल

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ परिदृश्य चिन्तन के ☆ सुश्री सुरेखा शर्मा ☆

पुस्तक –परिदृश्य चिन्तन के

लेखिका-डॉ मुक्ता

पृष्ठ संख्या –152

प्रथम संस्करण- 2019

मूल्य –250/-

प्रकाशक –दीपज्योति ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन, महावीर मार्ग, अलवर-301001.

 

☆ जीवन को सकारात्मकता ऊर्जा से परिपूर्ण करने वाला संग्रह ☆

सुश्री सुरेखा शर्मा

   ‘देखना है ग़र मेरी उड़ान को

तो ऊँचा कर दो आसमान को।’

इस विचारधारा के साथ लेखिका की लेखनी चली है एक चिंतक के रूप में।उनका मानना है कि इन्सान चिन्ता की जगह चिन्तन को यदि जीवन का मूलमंत्र स्वीकार कर ले, तो उसके जीवन में दु:ख, अवसाद व असफलता दस्तक दे ही नहीं सकते। ज़िन्दगी के दांव-पेंचों को बहुत निकटता से देखते हुए, समझते हुए, चिन्तन करते हुए लेखिका ने अपनी लेखनी के माध्यम से महापुरुषों  के वचनों को, सूक्तियों को, कहावतों व अनुभवों को आधार बनाकर ‘परिदृश्य चिन्तन के’ रूप में पुस्तक रूप में लिपिबद्ध किया है। एक-एक विषय जीवन का पाठ पढ़ाता है और जीवन में उतारने वाला अर्थात् अनुकरणीय है…और जीवन को संवारने व सार्थक करने वाला है। प्रत्येक विषय समस्या का समाधान देेेकर, सहज छाप छोड़ जाता है।

‘चिन्ता नहीं चिन्तन’ उनके प्रथम निबंध-संग्रह के विषय में पद्मभूषण श्रद्धेय कवि नीरज जी के मतानुसार ‘यह पुस्तक हर घर में होनी चाहिए।’ उनके ही शब्दों मे—“आपकी कृति के एक-एक पृष्ठ को बड़े ध्यान से पढ़ा। इसका हर आलेख सही जीवन-निर्माण मेें सहायक सिद्ध हो सकता है । हर माता-पिता को इसे स्वयं पढ़कर अपने बच्चों को भी पढ़वानी चाहिए। जो इसका पठन करेेेगा, उसके जीवन में एक नई क्रांंति घटित होगी। यह पुुुस्तक समाज-हित में मील का पत्थर साबित होगी।”

इसी प्रकार अखिल भारतीय हिन्दी सेवी संस्थान, इलाहाबाद से आदरणीय  श्री राजकुमार शर्मा जी लिखते हैं—“प्रेरणास्पद आलेखों से परिपूर्ण इस पुस्तक को प्रारम्भ से अंत तक, रात के तीन बजे तक  पढ़ता चला गया । न नींद आँखों में उतरी, न ही झपकी आई और न ही कुर्सी से उठकर कमर सीधी की। एक-एक शब्द मनो-मस्तिष्क में गहरे में पैठता चला गया ।”  आप स्वयं अनुमान लगा सकते है कि उनका प्रथम निबंध-संग्रह ही नहीं, द्वितीय संग्रह भी हमारे जीवन के लिए बहुत बड़ी धरोहर होगा।” डाक्टर सुभाष रस्तोगी जी ने भी उस संग्रह को “जीवन के उच्चाशयों का रेखांकन “ संज्ञा से परिभाषित किया है।

इसी कड़ी में डा• रामेश्वर प्रसाद गुप्त (प्राचार्य ) दतिया (म•प्र•) से ने दोहों के माध्यम से पुस्तक की बहुत ही सहज ,सरल व सार्थक समीक्षा की है।बानगी देखिए —

“जीवन में आए नहीं,बाधाएँ और  संत्रास।

कर्मशील बनकर रहो कभी न रहो उदास।।”

——-

“मुक्ता जी की सुकृति में ,मुक्ति हेतु विचार।

 ज्ञान भक्ति सत्कर्म का चिन्तन है साकार।।”

परिदृश्य चिंतन के’ कोई कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह, काव्य या गीत संग्रह की तरह, मनोरंजन  करने वाला संग्रह नहीं है, अपितु एक ऐसा अनूठा संग्रह है, जो ज़िंदगी की राह पर चलते हुए पग-पग पर मिलने वाले, कठिन से कठिन प्रश्नों का उपयुक्त हल ढूंढने की सामर्थ्य रख, जीवन की राह को आसान करने वाला है। इसीलिए मैथिली शरण गुप्त जी ने कहा भी है–

“केवल मनोरंजन ही कवि का न कर्म होना चाहिए।

उस में उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।”

महिला महाविद्यालय में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, पूर्व सदस्य केंद्रीय साहित्य अकादमी, साहित्य-सृजन में निरंतर रत, संवेदनाओं की गंभीरता संजोए… एक संवेदनशील सर्जक व गम्भीर चिंतक…माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित, बहुमुखी प्रतिभा की धनी आदरणीय डाॅ मुक्ता बधाई की पात्र हैं। सो! मैं उनका अभिवादन-अभिनंदन व उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ… ‘परिदृश्य चिंतन के’ जैसी अद्भुत, अद्वितीय व समजोपयोगी कृति के लिए…जो डॉ  मुक्ता का… सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज़ दूसरा निबंध-संग्रह है। लेखिका एक ऐसी साहित्यकार हैं, जिन्हें पढ़कर कथा सम्राट् मुंशी प्रेमचंद के शब्द स्मृति-पटल पर स्वतः ही उभर आते हैं। उनके शब्दों में –‘साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। उसे अपने अंदर भी और बाहर भी एक कमी-सी प्रतीत होती है। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। इसलिए वे कहते हैं — ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और  ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’ इस प्रकार ‘परिदृश्य चिंतन के ‘ निबंध-संग्रह उपरोक्त कसौटी पर खरा उतरता है ।

‘यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं,

क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियाँ बदलते हैं, जड़़ें नहीं…’

इन पंक्तियों के माध्यम से लेखिका ने आज की युवा- पीढ़ी को सचेत किया है…विशेषकर उन युवकों को, जो सत्य व समय की शक्ति को अनदेखा कर निरंतर पतन की राह पर अग्रसर हो रहे हैं। वे भूल जाते है कि समय बहुत बलवान् होता है, जिसे बदलते पल भर भी नहीं लगता।कई बार वक्त राह में कांटे बिछा देता है, तो कई बार कंटक भरी राह को फूलों से आच्छादित कर देता है– यह प्रेरित  करने वाली पंक्तियाँ हैं, ‘रास्ते बदलो, सिद्धांत नहीं’ निबंध की।

जीवन यदि एक जैसा चलता रहे, तो भी नीरसता आ जाती है । ‘एक बार एक पक्षी डाली पर सुस्त बैठा था। कुछ देर बाद वह दूसरे वृक्ष की डाली पर जा बैठा और इस प्रकार कूदता-फाँदता बहुत दूर चला गया। इसके बाद उसे मधुर वाणी सुनाई देने लगी। उसके मन  में विचार आया कि कुछ देर पहले वह एकरसता की ऊब से हताश व निराश था और जैसे ही उसने उड़ान भरी… तभी से ही उसके अन्तर्मन का कुहासा छंटने लगा। प्रकृति के परिवेश से तालमेल कर वह चहकने लगा है, मानो प्रकृति भी उसके साथ नृत्य करने लगी हो।’ – ये पंक्तियां हैं निबंध ‘परिवर्तन…आनन्द का पर्याय’ की, जिसमें सर्वोत्तम-सर्वश्रेष्ठ संदेश छिपा है। प्रकृति में परिवर्तन के माध्यम से लेखिका ने मानव जाति को प्रेरित किया है कि मानव कैसे अपना जीवन आनन्दमय बना सकते है!

निबंध व्यक्ति के चिंतन एवं भावात्मक अनुभूति का लिखित रूप होता है। निबंध आकार में लघु, सुसंगत एवं आत्मसमर्पण रचना होती है।निबंध चाहे वर्णना- त्मक हो, विचारात्मक या भावात्मक हो… लेखक उसमें अपना हृदय खोलकर रख देता है। वह अपनी अनुभूति या चिंतन को निस्संकोच पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। लेखक और पाठक के बीच संबंध स्थापित करने वाली निबंध-विधा सबसे सरल व प्रशस्त सेतु होती है। निबंधकार उपदेशक के रूप में स्वयं को नहीं देखता… वह तो केवल अपने विचार व भावनाएँ उन्मुक्त भाव से निबंध में व्यक्त करता है। निबंध पढ़ने से पारस्परिक संवाद- वार्तालाप व बातचीत-सा आनंद मिलता है और एक सौजन्य व सौहार्दपूर्ण वातावरण का सृजन होता है। इन सभी खूबियों से परिपूर्ण हैं, भावात्मक शैली पर आधारित निबंध-संग्रह ‘परिदृश्य चिन्तन के’ निबंध।

लेखिका, कवयित्री व कहानीकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उपरोक्त संग्रह में चालीस निबंध संग्रहित हैं, जो जीवन के विभिन्न रूपों से बखूबी परिचय करवाते हैं। निबंधों में काव्यात्मक आस्वाद के साथ-साथ गद्यात्मक कसाव भी परिलक्षित होता है। साहित्यिक, धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक निबंध भी भावात्मक हैं, जो उनके स्वस्थ जीवन-दर्शन को उद्घाटित करने में सफल सिद्ध  हुए हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी निबंध को कथ्यात्मक एवं लालित्यपूर्ण शैली से मंडित करके विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है।’

बोल-अबोल’ निबंध में हेलन कीलर के कथन की सार्थकता को सिद्ध करते हुए लिखा है-‘ दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़ें न देखी जा सकती हैं, न ही छुईं…उन्हें बस दिल से महसूस किया जा सकता है’  सो! यह कथन अत्यंत सत्य व सार्थक है। सृष्टि का रचयिता परमात्मा व आत्मा दर्शनीय नहीं है, परंतु उनकी सत्ता को अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि यही तत्व जीव जगत् का आधार है। इसी प्रकार इन्सान के बोल ही समाज में उसकी स्वीकार्यता- अस्वीकार्यता को निर्धारित करते हैं। रहीम जी का यह दोहा इस भाव को प्रकट करता है—

‘रहिमन जिह्वा बावरी,कर गई सरग पाताल

आपुहिं तो भीतर गई, जूती खात कपाल’

अर्थात् समय व सीमा का ख्याल रख, सोच-समझ कर बोलने की सलाह दी गयी है, इस निबंध में। ‘बोल-अबोल’ निबंध वास्तव में विचारात्मक होने के साथ-साथ प्रेरणास्पद भी है। अहं का त्याग कर, संयम व मौन रहकर, किस प्रकार संस्कृति व संस्कारों की रक्षा की जाए… यह संदेश निहित है, इस निबंध में।

‘कर्तव्य-परायणता’, ‘संयम बनाम ध्यान’ , ‘धैर्य, धर्म, विवेक’, ‘सत्संगति-सर्वश्रेष्ठ पूंजी’,’जैसी सोच वैसी क़ायनात’ ऐसे अनेक विषयों पर लेखिका ने अपनी लेखनी चलाई है । ये सामाजिक निबंध होने के साथ- साथ वैचारिक भी हैं, जिनमें लेखिका ने समाज और व्यक्ति के संबंधों का विश्लेषण कर, विकास की प्रक्रिया में सामाजिक ढांचे के बदलते हुए स्वरूप व वर्तमान परिस्थतियों में उनकी उपयोगिता-उपादेयता आदि को सिद्ध किया है। समाजिक चिंतन के संदर्भ  में एक ओर नए संदर्भों में अतीत की व्याख्या का प्रयत्न है और दूसरी ओर वैज्ञानिक व प्रगतिशील सोच का उन्मेष है, जिसमें लेखिका के अंतर्मन की अत्यंत अगाध आस्था और विश्वास की झलक है। वास्तव में परमात्मा से आत्मा के मिलन की प्रक्रिया ध्यान है और आज के परिवेश में व्याप्त चिंता, तनाव, अशांति, असंतुलन, आक्रोश, ईर्ष्या आदि की लकीरों को मिटाने तथा भौतिकतावादी मनोवृत्ति के तमस को आलोक में बदलने का सरल एवं सहज उपक्रम है। आज पूरी मानव जाति अवसाद रूपी नौका में सवार होकर, ज़िंदगी का सफ़र तय कर रही है । ऐसे में ‘परिदृश्य चिन्तन के ‘ निबंध,ध्यान- समाधि के प्रेरक रूप में कार्य करने में सक्षम हैं, सिद्ध-हस्त हैं।

संघर्ष करने वाले व्यक्ति को सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। उसे सफलता प्राप्त करने के लिए गलत राहों पर चलने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। यह संदेश मिलता है, इस संग्रह के निबंध “संघर्ष… सर्वोत्तम जीवन शैली ” में लेखिका के विचार द्रष्टव्य हैं…  ‘जीवन अविराम चलने का नाम है, राह में आने वाली दुश्वारियों के सम्मुख घुटने टेक देना, वास्तव में मृत्यु है। सो! संघर्ष ही जीवन है। संग +हर्ष अर्थात् खुशी से हर परिस्थिति को स्वीकारना और सुख- दुःख में सम स्थिति में रहना। इस प्रकार सभी निबंध-आलेख प्रेरक एवं महत्वपूर्ण हैं, जो ‘जीवन कैसे जीया जाए’ का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे विचारोत्तेजक आलेख लिखना, कहानी व कविता लिखने के समान सरल नहीं है, अत्यंत दुष्कर कार्य है, जिसमें जीवन के अनुभव तो हैं ही, रचनात्मक अध्ययन व वर्षों का पठन-पाठन भी निहित है, जिस आईने में उनका व्यक्तित्व  स्पष्ट रूप में प्रतिबिम्बित व परिलक्षित है।

इस संग्रह के समस्त निबंध पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि एक प्रबुद्ध साहित्यकार के समक्ष, जो भी प्रश्न  आए….चाहे वे सामाजिक ,आध्यात्मिक, वैचारिक , मानसिक व दैनिक जीवन से संबंधित थे, सबका उपयुक्त समाधान-हल सूक्तियों, कहावतों व दोहों के माध्यम से, निरपेक्ष भाव से चिन्तन-मनन कर, अपनी  सामर्थ्य-शक्ति व विवेक से जुटाने का प्रयास किया गया है। इन आलेखों में लेखिका ने अपनी सूक्ष्म व पैनी दृष्टि के साथ-साथ गंभीर विवेचन शक्ति का परिचय दिया है । ‘परिदृश्य चिन्तन के’ संग्रह का प्रत्येक निबंध अपनी आभा पृष्ठ -दर -पृष्ठ हमारे सम्मुख उलीचता-विकीर्ण करता हुआ, मनो-मस्तिष्क को आंदोलित कर, गहरे में पैठता चला जाता है। निबंधों में भाव-बोध की स्पष्टता व सरलता ने उसे उभारा है और भाषायी गरिमा ने धार दी है, जिन्हें पढ़कर पाठक एक ओर वर्तमान की पीड़ा, घुटन और जीवन के प्रति उदासीनता, असंतुष्टता व असंतुलन के बीच फैले अंधकार से मुक्त होगा, वहीं दूसरी ओर यह संग्रह जीवन के प्रति सार्थकता के बीज भी अंकुरित करेगा।

किसी भी व्यक्ति को उसके समस्त परिवेश में जानने का पूर्ण और सर्वोच्च माध्यम होता है…उसके रचनात्मक लेखन का पठन-पाठन। इस दृष्टि से  ‘परिदृश्य चिन्तन के’ निबंध डाक्टर मुक्ता के व्यक्तित्व के खुले पृष्ठ हैं, जिनका पठन व चिंतन-मनन कर, हम अपने जीवन को सकारात्मक ऊर्जा के साथ, शाश्वत आनंद भी प्राप्त कर सकते हैं। इस संग्रह को विद्यालयों व महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान उपलब्ध हो…ऐसा हमारा प्रयास होना चाहिए।

हिन्दी साहित्य जगत् को समृद्ध करने वाली आदरणीया मुक्ता जी स्वस्थ एवं दीर्घायु हों और साहित्य साधना-रत रहें, यही ईश्वर से प्रार्थना है। इस संग्रह को हिन्दी साहित्य जगत् खुले हृदय से स्वीकार कर, लाभान्वित होगा। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ लेखिका को पुनः बधाई व शुभाशीष।

 

सुश्री सुरेखा शर्मा(साहित्यकार)

सलाहकार सदस्या, हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी।

पूर्व हिन्दी सलाहकार सदस्या, नीति आयोग (भारत सरकार )

# 498/9-ए, सेक्टर द्वितीय तल, नजदीक ई•एस•आई• अस्पताल, गुरुग्राम…122001.

मो•नं• 9810715876

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 36☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  के व्यंग्य  ‘बात-वापसी समारोह ’ में  हास्य का पुट लिए लोकतंत्र  में जुबान के फिसलने से लेकर जुबान को वापिस उसी जगह लाने की  प्रक्रिया पर तीक्ष्ण प्रहार है। आप भी आनंद लीजिये ।  ऐसे विनोदपूर्ण  व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 36 ☆

☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह  ☆

 

नेताजी एक दिन जोश में विपक्षी पार्टियों को ‘जानवरों का कुनबा’ बोल गये। वैसे नेताजी अक्सर जोश में रहते थे और अपने ऊटपटांग वक्तव्यों से पार्टी को संकट में डालते रहते थे।

नेताजी के बयान पर हंगामा शुरू हो गया और विपक्षियों ने नेताजी से माफी की मांग शुरू कर दी। तिस पर नेताजी ने अपनी शानदार मूँछों पर ताव देकर फरमाया कि उनकी बात जो है वह कमान से निकला तीर होती है और उसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि वे बात वापस लेने के बजाय मर जाना पसन्द करेंगे। उनकी इस बात पर चमचों ने ज़ोर से तालियाँ बजायीं और ‘नेताजी जिन्दाबाद’ के नारे लगाये।

हंगामा बढ़ा तो नेताजी को उनकी पार्टी की हाई कमांड ने तलब कर लिया। उन्हें हिदायत दी गयी कि वे तत्काल अपनी बात वापस लें अन्यथा उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

नेताजी पार्टी दफ्तर से बाहर निकले तो उनकी शानदार मूँछें, जो हमेशा ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर रहती थीं, सात-पच्चीस बजा रही थीं।बाहर निकलकर पत्रकारों से बोले, ‘हाई कमांड ने वही बात कही जो कल रात से मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी। मुझे भी लग रहा था कि मैं कुछ ज्यादा बोल गया।वैसे मैं जानवरों को बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ और उनका बहुत सम्मान करता हूँ। अब मैं अपने पंडिज्जी से पूछकर बात वापस लेने की सुदिन-साइत तय करूँगा।’

बात-वापसी की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गयीं।एक लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक से अनुरोध किया गया कि वे अपने उपकरणों के ज़रिए पता लगायें कि बात जो है वह कहाँ तक पहुँची है। यह तो निश्चित था कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, लेकिन कितनी दूर तलक जाएगी यह जानना जरूरी था। चुनांचे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक ने डेढ़ दो घंटे की मगजमारी के बाद बताया कि बात जो थी वह धरती के छः चक्कर लगाकर भूमध्यसागर में ग़र्क हो गयी थी। वहाँ एक मछली ने उसे कोई भोज्य-पदार्थ समझकर गटक लिया था। बात को गटकने के बाद मछली की भूख-प्यास जाती रही थी और वह, निढाल, पानी की सतह पर उतरा रही थी।

यह जानकारी मिलते ही तत्काल वायुसेना का एक हवाई-जहाज़ गोताखोरों के दल के साथ भूमध्यसागर में संबंधित स्थान को रवाना किया गया। गोताखोरों ने आसानी से मछली को गिरफ्तार कर लिया और खुशी खुशी वापस लौट आये।पायलट ने मछली अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर सैल्यूट मारा और अधिकारियों ने खुश होकर वादा किया कि वे पायलट की सिफारिश विशिष्ट सेवा मेडल के लिए करेंगे।

पंडिज्जी की बतायी हुई साइत पर बात-वापसी की तैयारी हुई। स्थानीय समाचारपत्रों में आधे पेज का इश्तहार छपा कि नेताजी आत्मा की आवाज़ और हाई कमांड के निर्देश का पालन करते हुए अपनी अमुक तिथि को कही गयी बात को वापस लेंगे। इश्तहार में पार्टी के बड़े नेताओं का फोटो छपा, बीच में हाथ जोड़े नेताजी। समारोह स्थल पर विशिष्ट दर्शकों के लिए एक शामियाना लगाया गया और वहाँ बात-वापसी यंत्र लाया गया। बात वापसी देखने के उत्सुक लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। नेताजी एम्बुलेंस में लेटे थे।

पंडिज्जी के बताये शुभ समय पर कार्रवाई शुरू हुई। मशीन का एक पाइप मछली के मुँह में डाला गया और दूसरे पाइप का सिरा नेताजी के मुँह में। मशीन चालू हुई और मछली चैतन्य होकर उछलने कूदने लगी। उधर नेताजी एक झटका खाकर बेहोश हो गये। बात जो थी वह मछली के पेट से निकलकर नेताजी के उदर में पहुँच गयी।

एक मिनट बाद नेताजी ने आँखें खोलीं। मुस्कराते हुए टीवी के संवाददाताओं से बोले, ‘मैं हाई कमांड को बताना चाहता हूँ कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। मैंने पूरी निष्ठा से हाई कमांड के आदेश का पालन किया है। मुझे यकीन है कि अब मैं उनका कोपभाजन न रहकर स्नेहभाजन बन जाऊँगा। मुझे भरोसा है कि आप के माध्यम से मेरी बात हाई कमांड तक पहुँच जाएगी।’

इसके बाद नेताजी डाक्टरों की देखरेख में एम्बुलेंस में घर को रवाना हो गये। पीछे पीछे कारों में ‘नेताजी की जय’ के नारे लगाते चमचे भी गये।

नेताजी के जाने के बाद मछली की ढूँढ़-खोज शुरू हुई। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि एक दूरदर्शी अधिकारी ने गुपचुप मछली अपने घर भिजवा दी थी और, जैसा कि समझा जा सकता है, वहाँ मित्रों के साथ मत्स्य-भोज की तैयारी चल रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #34 ☆ सांस्कृतिक चेतना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 34 ☆

☆ सांस्कृतिक चेतना ☆

सबसे अधिक टीआरपी के लिए सीरियल्स में गाली-गलौज, लड़के-लड़कियों में हिंसक धक्कामुक्की को सहज घटनाओं के रूप में दिखाना और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ‘बहन जी’ को व्यंग और अपशब्द की तरह इस्तेमाल किया जाना अब आम हो गया है। मैं अवाक हूँ। भारतीय विचार और चेतना को क्या हो गया है? बेबात के विवाद, हंगामा और सामूहिक अराजकता के अभ्यस्त हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति कैसे सुप्त हो चले हैं? कैसी मरघटी वीरानगी ओढ़ ली है हम सबने?

‘बहन’ शब्द में सहोदर पवित्रता अंतर्भूत है। लंबे समय शिक्षिकाओं के लिए ‘बहन जी’ शब्द उपयोग होता रहा। अब कॉलेज में भारतीय परिधान धारण करने वाली लड़कियों को ‘बहन जी’ कहा जाता है। भयावह चित्र! अपने अस्तित्व, अपनी चेतना के प्रति वितृष्णा नहीं अपितु विद्वेष और उपहास कहाँ ले जाकर खड़ा करेगा? क्या हो चला है हमें?

इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का पाश्चात्यीकरण। इस पाश्चात्यीकरण का माध्यम भारतीय भाषाएँ बनती तो शायद नुकसान कम होता। शिक्षा से भारतीय भाषाओं को एक षड्यंत्र के तहत बेदखल किया गया। लोकोक्ति है कि अँग्रेज ख़ामोश हँसी हँसता है। इस समय अँग्रेज़ी ख़ामोश हँसी हँस रही है। विचारधारा के दोनों ध्रुवों पर या दोनों ध्रुवों के बीच आप किसी भी विचारधारा के हों,  यदि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के समर्थक हैं तो  यह *अभी नहीं तो कभी नहीं* का समय है।

अपने समय की पुकार सुनें। अपने-अपने घेरों से बाहर आएँ। भारतीय भाषाओं के आंदोलन को पांचजन्य-सा घोष करना होगा। शिक्षा का माध्यम केवल और केवल भारतीय भाषाएँ हों। इस उद्देश्य के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ने को तैयार हों। कोई साथी है जो ‘बहन जी’ और ऐसे तमाम शब्द जिन्हें उपहास का पात्र बनाया जा रहा है,  की अस्मिता की वैधानिक लड़ाई लड़ सके?

मित्रो! हम भारत में जन्मे हैं। हम भारत के नागरिक हैं। हमारी भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता का संरक्षण, प्रचार और विस्तार हमारा मूलभूत अधिकार है। अधिकारों का दमन बहुत हो चुका, अब नहीं।

अनुरोध है कि साथ आएँ ताकि इसे एक बड़े और सक्रिय आंदोलन का रूप दे सकें। आप सब मित्रों का इस कार्य के लिए विशेष आह्वान है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 21 – चाहत /हसरत  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक अतिसुन्दर दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘चाहत /हसरत  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 21  – विशाखा की नज़र से

☆ चाहत /हसरत   ☆

 

कुछ जद थी

कुछ ज़िद थी

कुछ तुझ तक  पहुँचने की हूक थी

मैं नंगे पांव चला आया

 

खाली था कुम्भ

मन बावरा सा मीन

नैनों में अश्रु

रीता / भरा

कुछ मध्य सा मैं बन आया

 

कुछ घटता रहा भीतर

कुछ मरता रहा जीकर

साँसों को छोड़, रूह को ओढ़

मै कफ़न साथ ले आया

 

तेरी चाहत का दिया जला है

ये जिस्म क्या तुझे पुकारती एक सदा है

जो गूँजती है मेरी देह के गलियारों में

अब गिनती है मेरी आवारों में

 

बस छूकर तुझे मै ठहर जाऊँ

मोम सा सांचे में ढल जाऊँ

गर तेरे इज़हार की बाती मिले

मै अखंड दीप बन जल जाऊँ

 

आत्मा पाऊँ ,

शरीर उधार लाऊं ,

प्यार बन जाऊँ,

प्रीत जग जाऊँ ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ प्रेम असे. . .  प्रेम तसे. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आज प्रस्तुत है  एक प्रेम से परिपूर्ण भावप्रवण  कविता प्रेम असे. . .  प्रेम तसे. . . ! )

 

 ☆  प्रेम असे. . .  प्रेम तसे. . . ! ☆

 

सुख आणि दुःख जणू, दोघे प्रेमाचे सोबती

दुःख तुझ्या आभासात, सुख  आपल्या सांगाती.

 

प्रेम लाजाळूचे झाड, वर्षावात कोमेजते

विरहाच्या चटक्याने, पुनः नव्याने फुलते.

 

प्रेम जळणारी वात, प्रेम तेवणारा दिवा

तेलवात करणारा, हात सदा हाती हवा.

 

प्रेम सोसाट्याचा वारा, प्रेम सुगंधी बहर

पिढ्या पिढ्या चालू आहे, त्याचा लहरी कहर.

 

प्रेम कधी दूरध्वनी, तर कधी चलभाष

कसा साधावा संवाद, सांगे आपलाच श्वास.

 

प्रेम गजर्याची भाषा, प्रेम तळहात रेषा

अंतराने अंतराची, घ्यावी जाणूनीया दिशा.

 

प्रेम गुलाबाचे फूल, प्रेम संसाराची चूल

कल्पनेने वास्तवाची, करू नये दिशाभूल.

 

प्रेम मौनाचा कागद, प्रेम आसवांची शाई

मने जुळण्याआधीच, नको वाचायची घाई.

 

प्रेम असे, प्रेम तसे , दोन डोळ्यातले ससे

नजरेने नजरेला, सांग शोधायचे कसे?

 

प्रेम सृजनाच लेणं, प्रेम संस्काराच देणं

भावनांच जाणिवांशी , अविरत देणं घेणं.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 10 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 10 – आतंकवाद का कहर  ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली विवाहित हो  ससुराल आई। बडा़ मान सम्मान मिला ससुराल से, संपन्नता थी ससुराल में, लेकिन सुहागरात के दिन की घटना अनकही कहानी बन कर रह गई।  पगली के जीवन में दिन बीतता गया, एक पुत्र की प्राप्ति, हुई नशे के चलते, संपन्नता दरिद्रता में बदल गई। फाकाकशी करने पर पगली मजबूर हो गई । नशे के शौक ने पगली से उसका पति छीन लिया, फिर भी पगली का हौसला टूटा नहीं। उसने गौतम को पढा़या लेकिन आतंकवाद ने ऐसा कहर ढाया कि पगली टूट कर बिखर गई। अब आगे पढ़े——)

गौतम की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था।  छुट्टियां बीत चली थी।  आज उसे शहर वापस जाना था।

पगली ने बड़े प्यार से रास्ते में नाश्ते के लिए पूड़ी सब्जी, तथा गौतम के पसंद की कद्दू की खीर  बनाकर   गौतम के बैग में रख दिया था। गौतम स्कूल जाते समय गांव के बड़े बुजुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता  था। यही विनम्रता का गुण उसे सारे  समाज में लोकप्रिय बनाता था।  उस दिन घर से बिदा लेते समय महिलाओं बड़े बुजुर्गों ने मिल कर सफल एवम् दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन तब कौन जानता था कि विधि के विधान में क्या लिखा है? होनिहार क्या देखना और क्या दिखाना चाहती है?

उस दिन गौतम की मित्र मंडली उसे रेल्वे स्टेशन तक छोड़ने गई थी।  पगली सूनी सूनी आंखों से  उसी रास्ते को निहार रही थी, जिस रास्ते उसका गौतम गया था। मित्र गौतम को रेलगाड़ी में बैठा वापसी कर चुके थे।
आज ना जाने क्यों पगली का दिल उदास था उसे अपने लाडले की बहुत याद आ रही थी।  उसका दिल रह रह कर किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठता।  ऐसे में उसे कहीं चैन नही मिल रहा था वह बेचैन हो इधर उधर टहल रही थी।  उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

इधर रेलगाड़ी अपनी तेज चाल से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। रेल के डिब्बों में बैठे कुछ लोग ऊंघ रहे थे।  कुछ लोग समय बिताने के लिए ताशों की गड्डियां फेट रहे थे। कुछ लोग देश और समाज की चिंता में वाद विवाद करते दुबले हुए जा रहे थे।  कोई सरकार बना रहा था, कोई सरकार गिरा रहा था, जितने मुंह उतनी बातें इन सब की बातों से बेखबर गौतम अपनी मेडिकल की किताबों में खोया उलझा हुआ था। उसे देश दुनियाँ की कोई खबर नही थी। वह किताब खोले अध्ययन में तल्लीन था। कि सहसा रेल के डिब्बे में धुम्म-धड़ाम की कर्णभेदी आवाज के साथ विस्फोट हुआ और गाड़ी के कई डिब्बों के परखच्चे  एक साथ ही उड़ गये, सारी फिजां में एकाएक बारूदी गंध फैल गई।  बड़ा ही हृदय बिदारक दृश्य था।  जगह जगह रक्त सनी अधजली लाशें, अर्ध जले मांस के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

उनमें कई लाशें ऐसी थी जिनके चेहरे नकाब से ढ़के थे, लेकिन मरते समय मौत का खौफ उनकी आंखों में साफ झलक रहा था, कपड़े जगह जगह से जले हुये थे। उन सबके बीच बाकी बचे लोगों में चीख पुकार आपाधापी मची हुई थी, सबके दिलों में मौत का खौफ पसरा हुआ था।  ऐसे में लोग अपनों को ढूंढ़ रहे थे।

लोगों का रो रो कर बुरा हाल था, उन्ही लोगों के बीच उस अभागे गौतम की क्षतविक्षत लाश पडी़ थी।  उसके हाथ में पकडी़ पुस्तक के अधजले पन्ने अब भी हवा के तीव्र झोंकों से उड़ उड़ कर उसकी आंखों में मचलते सपनों की कहानी बयां कर रहे थे।  वही पास पडा़ खाने का डिब्बा और उसमें पडा़ भोजन एक मां के प्यार की दास्ताँ सुना रहा था।  गौतम के परिचय पत्र से ही उसके टुकड़ों में बटे शव की पहचान हो पाई थी।

जिस समय गौतम का शव लेकर पुलिस गाँव पहुंची, उस समय सारा गाँव पगली के दरवाजे पर जुट गया था।

पगली का विलाप सुन उसके दुख और पीड़ा की अनुभूति से सबका दिल हा हा कार कर उठा था।  सबकी आँखे सजल थी,  उस दिन गांव में किसी घर में चूल्हा नही जला था पगली को तो मानो काठ मार गया था।  वहजैसे पत्थर का बुत बन गई थी उसकी आंखों से आंसू सूख गये थे।  उसका दिमाग असंतुलित हो गया था।

अपने सपनों का टूटना एक माँ भला कैसे बर्दाश्त कर पाती।  पगली अपनी ना उम्मीदी भरी जिंदगी पर ठहाके लगा हाहाहाहा कर हंस पडी़ थी, अपनी पीड़ा और बेबसी पर।

उस समय सिर्फ़ पगली के सपने ही नहीं टूटे थे, उसकी ही पूंजी नही लुटी थी, बल्कि कई माँओं की कोख एक साथ उजड़ी थी।  कई पिताओं के बुढ़ापे की लाठियां एक साथ टूटी थी, कई दुल्हनें एक साथ बेवा हुई थी कई बहनों की राखियाँ सूनी हो गई थी।

पगली ने उन सबके सपनों को आतंकी ज्वाला में जलते देखा था। वह गौतम के अर्थी की आखिरी बिदाई करने की स्थिति में भी नही थी। उस दिन, उस गाँव के क्या हिंदु क्या मुस्लिम क्या सिक्ख, सारे लोग अपनी नम आँखों से अपने लाडले को आखिरी बिदाई देने श्मशान घाट पहुंचे थे। उस दिन सारे समाज ने पहली बार आतंकी विचारधारा के दंश की पीड़ा महसूस की।

इन्ही सबके बीच कुछ भटके हुए आतंकवादी अपने जिहादी मिशन की कामयाबी का जश्न मना रहे थे  इंसानियत रो रही थी और हैवानियत जमाने को अपना नंगा नाच दिखा रही थी।  गौतम की चिता जले महीनों बीत चले थे, सारा गाँव इस दुखद हादसे को भुलाने का  जतन कर रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 11 –  धत पगली 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Adding Value To Laughter Yoga Session – Video #15 ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ Adding Value To Laughter Yoga Session ☆ 

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #15

‘Follow the Leader’ is an exercise that can be added to a session of Laughter Yoga to make it more interesting and encourage participation.

One by one, the participants come forward and become leaders for a short while. They enact an exercise which the others follow. No verbal instructions are given. You just have to follow the leader.

It should be emphasized that simple gestures and movements are to be initiated, followed by laughter and no brisk or difficult moves introduced so that all have fun.

(We are grateful to Shri Ram Kishan ji for providing us the video clip from the Certified Laughter Yoga Leader Training.)

 

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

( अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना )

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ।।16।।

जिन विभूति से विश्व में व्याप्त आप आभास

उन सबका भी दें मुझे कृपया सब आभास।।16।।

 

भावार्थ :  इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।।16।।

 

Thou shouldst  indeed  tell,  without  reserve,  of  Thy  divine  glories  by  which  Thou existeth, pervading all these worlds. (None else can do so.)।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा-कहानी ☆ झांनवाद्दन ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “झांनवाद्दन ”।  मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। इस रचना को तो सामयिक भी नहीं कह सकता। एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के अंतर्मन को पढ़ सकती है और इतनी गंभीरता से  लिपिबद्ध कर सकती है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि – यदि आपने इस रचना को एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर दिया तो समाप्त किये बिना रुक न सकेंगे। अनायास ही मुंशी प्रेमचंद के कथानकों के पात्र  वर्तमान कालखंड में नेत्रों के समक्ष सजीव होने लगते हैं।  सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं। उन्होंने समय समय पर हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए सुश्री निर्देश निधि जी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे  हमने विगत अंकों में प्रकाशित भी किया है और अपेक्षा करते हैं कि भविष्य में हमारे पाठक उनसे ऐसी उत्कृष्ट रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद आत्मसात कर सकेंगे।)

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 
  4. नदी नीलकंठ नहीं होती 

☆ कथा-कहानी :  “झांनवाद्दन”

हम सब उसी दिन ‘चार वाली’ से अपने गांव आये थे, चार वाली मतलब, सुबह के चार बजे हल्दौर स्टेशन पर पहुंचने वाली ट्रेन। वैसे तो यह सुबह लगभग पौने छह बजे पहुंची थी, अब तो कभी-कभी सात बजे भी पहुंचती है पर उसके नाम में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बड़ी बुआ बताती थीं कि फिरंगियों के समय में मजाल है जो घड़ी भर भी लेट होती हो। ठीक चार बजे स्टेशन पर आ कर खड़ी होती। खैर महाशय चाचा तो बैलगाड़ी लेकर हमें लेने चार बजे ही आ गये थे। उन्होंने बैलों के आगे बोरी में हरी कुट्टी रख रखी थी, ट्रेन को आते देख बोरी समेटी और बैलगाड़ी के नीचे वाले हिस्से में बंधे टाट के झूले जैसी जगह रख दी। जब तक ट्रेन रुकी चाचा ने बैलों को गाड़ी में जोत लिया। शुरू-शुरू में जब हम बैलगाड़ी में बैठते तो हम सारे बहन-भाई आगे भर जाते या सारे के सारे पीछे पैर लटका कर बैठना चाहते। आगे सारे बैठते तो बैलों पर जुए का जोर ज्यादा पड़ता चाचा हमें पीछे होकर बैठने को कहते। अगर हम सारे पीछे बैठ जाते तो चाचा बड़े प्यार से कहते, “बेट्टे जरा से आग्गे कू होज्जाओ नई तो गाड्डी उडल जागी।“ उडलना मतलब गाड़ी का आगे वाला हिस्सा हवा में, पीछे वाला जमीन पर सारे सवार भी जमीन पर। अब हम सारे परफैक्ट थे पूरा बैलेंस बनाकर बैठते।

स्टेशन से घर तक लगभग एक घंटे का समय लगा। घर आ चुका था, हमारा प्यारा घर। ताला खोलकर पहले मैं और पहले मैं करके घर के अन्दर आये । साल भर से झड़ी हमारे नीम की पत्तियाँ, आंधियों में टूट गई टहनियां, अंधड़ों में उड़ कर आई धूल, कूड़े – करकट, फटे कागज और कटी हुई पतंगों से आंगन पटा पड़ा था। आपसी सहयोग का समय था, सबने हाथ बटाया तो शाम तक घर का चेहरा ऐसा चमक उठा जैसे दादा – दादी के देहावसान के बाद वो ही हमारा बुजुर्ग हो और हमारे घर आने पर अपने पौढ़ चेहरे पर गम्भीरता भरी मुस्कान बिखेर रहा हो। हमारा घर दरअसल हमारे बुज़ुर्गों की बड़ी सी हवेली थी। पिता जी ने जिसका आधुनिकीकरण  करवा लिया था। अपने गाँव और अपने इस घर से पिता जी का अटूट रिश्ता था। कोई छुट्टियां मनाने कहीं जाता, कोई कहीं और पिता जी अपने सारे परिवार के साथ चले आते अपने गाँव। वो पुलिस में अफसर थे, पूरी तरह अनुशासित उसूल के पक्के यानी साल में साढ़े दस महीने बिना नागा पुलिस की नौकरी और पूरे डेढ़ महीने गाँव में पिकनिक या कहें उत्सव।

सारा दिन साफ़ – सफ़ाई और सामान लगाने में किसी तेज़ रफ्तार पंछी – सा छू हो गया। गर्मियों के लंबे दिन की सांझ आंगन को पार करती हुई घर की छत से उतर कर विदा ले रही थी। बात पैंतीस से चालीस वर्ष पुरानी होगी, उन दिनों गाँव में बिजली की व्यवस्था की सुध किसी राजनीतिक पार्टी को आई नहीं थी अतः पिछले बरस साफ करके रखी गई लालटैन और लैम्प्स  झाड़े जा रहे थे। जिससे कि अंधेरा  होने से पहले ही उजाला फैल सके। चाची रात का खाना बनाकर ले आई थी। खाना खाने की तैयारी अभी चल ही रही थी कि अचानक वातावरण में किसी की आवाज, आवाज क्या किसी का जोर-जोर से चिल्लाना तैर गया। शान्त-सुन्दर सांझ आज ही से शुरू हो रहा था हमारा ग्रामीण उत्सव। पिताजी जितनी तो नहीं, पर उनसे थोड़ी ही कम उत्सुकता के साथ हम सब भी इस उत्सव की प्रतीक्षा साल भर करते। हम सब भले ही थक गये थे पर थे उत्साह से भरे हुए। ऐसे में ये कराहते, चीखते शब्द जो कह रहे थे,

“छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“

एक बार, दो बार, दस बार, पचास बार, सौ बार यानी अनगिनत बार। ये ही शब्द अनवरत दोहराए जा रहे थे। मन बड़ा खराब हो गया । खाना भी बड़ी मुश्किल से खाया गया। आवाज हमारे घर के पिछवाड़े से आ रही थी। मेरा बालमन तुरन्त खोजने पर आमादा हो गया, कौन है ये क्यों चिल्ला रही हैं? यह अजीजा कौन है? इसे कब छोड़ेगा? वगैरह – वगैरह, और भी न जाने कितने प्रश्न एक के बाद एक, शायद एक ही साथ मन में कौंधने  लगे। अम्मा ने चाची से पूछा, “कौन है ये और क्यों चिल्ला रही है ?” “यो……यो झांनवाद्दन है, इसका दिमाग चल था इसलियों इसै बांध  रक्खा है इसके जेठ नै।“ चाची ने बड़ा संक्षिप्त उत्तर दिया, तब के लिए जैसे इतना काफी था।

हमारा घर हिन्दुओं का आखिरी घर था। उसके बाद सारे मुसलमान रहते थे, कुछ शेख, कुछ जुलाहे लेकिन जुलाहों के साथ ही खड्डी चलाकर कपड़ा बनाने का काम शेख भी करते थे। मुझे गाँव की पूरी स्थिति की खबर होती क्योंकि मैं छोटी थी, बच्चों के साथ खेलते-खेलते सारे गाँव का चक्कर लगाकर आती ग्रामीण जीवन मुझे भी बड़ा लुभाता। और कौतूहलवश मैं सारी बातें अपने ग्रामीण मित्रों से पूछती। सारे बाल मित्र  तत्परता से मुझे सही-सही जानकारी देते। मसलन पथवारे में चमनों चाची की जगह कौन सी है? इतने सारे उपले कहां रखे जाते हैं? बिटौड़ा कैसे बनाता है? उसे बरसात में भीगने से बचाने के लिए बूंगा, यानी फूंस का कवर कैसे बनता है? छान कैसे छाई जाती है? डंगरो की क्या देखभाल होती है, दुधारू गाय-भैंस को बिनौले की खल ही खिलाना क्यों अच्छा होता है। ताजिये कहां बनते हैं? किस सामान से बनते हैं, कौन सबसे अच्छा कारीगर है या हमारे घर के पीछे रह रहे मुसलमान जुलाहे खड्डी कैसे चलाते हैं, चैक का कपड़ा कैसे बुना जाता है और सादा कैसे, कौन सबसे अच्छा सूत कातती है? वगैरह-वगैरह ।  जब मैं अपने गाँव से लौटती तो मुझे गाँव का अच्छा खासा ज्ञान हो जाता। मेरे इस ज्ञान पर पिताजी बहुत खुश होते, और मुझे ढेर सा लाड़ करते।

मैं गाँव में कितना भी घूमती पर किसी के घर बैठती नहीं थी। बस एक रेशमा का व्यक्तित्व और उसका साफ-सुथरा घर मुझे वहाँ बैठ जाने का आमन्त्रण देता और मैं अक्सर उसकी चारपाई पर बैठ जाती। रेशमा गोरी-चिट्टी, लम्बी-तगड़ी शेखनी, तीन छोटे-छोटे बेटों की माँ, पर चेहरे से किशोरी सी दिखती , कहते थे कि उसकी माँ पर किसी अंग्रेज का दिल आ गया था वो जिसका परिणाम थी। उसकी हल्की नीली आँखेँ, गोरा-गुलाबी रंग, सुनहरे बाल, उसके नैन-नक्श और उसका आश्चर्यजनक रूप से समय का पाबन्द और अनुशासित होना मुखरता से इस अफवाह की पुष्टि करते। उसमें गजब का आकर्षण था। इतना कि छोटी सी मैं साल भर बाद आकर भी उससे मिलना नहीं भूलती। चाची की बेटी सोम्मी और दूसरे बच्चों के साथ मैं  सबसे पहले उसी के घर जाती। मेरे जाने पर वो भी खुश होती। उसने मुझे नाम से कभी नहीं पुकारा, वो मुझे अफसर की बेट्टी कहकर पुकारती। बड़े से घर में  उसके सास – ससुर, जेठ – जिठानी, उनके सात – आठ अविवाहित बड़े – छोटे लड़के – लड़कियां, एक विवाहित बेटा और उसका परिवार रहता । उसी घर के आँगन के एक कोने में रसोई और एक कोठरी उसके हिस्से में आई थी, रसोई के पास ही उसका चरखा और ढेर सारी रूई रहती जिसे वो महीन-महीन कातकर ढेर सारी पूनियां बना लेती। आजादी के बाद तब तक बहुत लम्बा समय नहीं गुज़रा था, हथकरघा उद्योग जीवित था और लोग उसका  कपड़ा पहनते भी थे।

रेशमा का पति अपने दस बहन – भाइयों में आठवें नम्बर पर था। अजीजुद्दीन सबसे बड़ा था, उसकी पत्नी उसके बड़े मामा की बेटी थी और रेशमा उसके छोटे मामा की जिसे अजीजुद्दीन की पत्नी अपने देवर रईसुद्दीन के साथ ब्याह कर ले आई थी। रेशमा जैसी अनिंद्य सुन्दरी को पाकर वो सीधा – सादा  नौजवान धन्य  हो गया। नई-नई पत्नी, अनिंद्य सुंदरी  रेशमा की उपस्थिति उसे हर वक्त घर आने का आमन्त्रण देती। कभी सूत के बहाने, कभी रूई के बहाने, कभी खाना-पीना तो कभी कपड़े। जब कोई भी बहाना ना मिलता तो बस  यही पूछने चला आता कि शाम का खाना बनाने की लिये पर्याप्त लकड़ियाँ हैं या नहीं? उसके आते ही रेशमा झट से कोठरी की तरफ दौड़ती। नया-नया प्रेम, मन से तन तक प्रयोग कर लेने की पूरी छूट। पति ही सबसे अच्छा प्रेमी साबित हो सकता है, रेशमा का मन पूरी तरह इस विश्वास से भर गया था। ना कुछ अनैतिक, ना कुछ अनर्थ और ना ही सामाजिक खींचतान। जब कोई अविवाहिता किसी लड़के से प्रेम कर बैठती है तो उसे कितना तनाव होता है, घर का, समाज का, यहां तक कि अपनी नैतिकता का। प्रेमी की आँख से निकलती आनन्द की क्षणिक रश्मियां तन-मन पर अपना चटख रंग फेंकती तो जरूर है पर अगले ही क्षण सारी ऊर्जा उस चटखपन को छिपाने में खर्च हो जाती है और ना छिपा पाने की स्थिति तो उसे अन्दर तक निस्तेज  कर जाती है, यह जानती थी वह। जैसे प्रेम ना हुआ किसी के खून का संगीन अपराध हो। इसलिये उसका रईसुद्दीन ही उसका सबसे बेहतर प्रेमी था। दोनों  एक दूसरे की, पूरी तरह पसन्द। उनकी छोटी सी कोठरी उनके तन-मन की ही तरह प्यार से लबालब भरी थी।

पर इस प्रेम की बड़ी हानि उठानी पड़ी रेशमा को। वो सोचती, शायद प्रेम किसी से बर्दाश्त होता ही नहीं है भले वो पति-पत्नी का ही क्यों ना हो। रईसुद्दीन की उस पर दीवानगी देखकर, जिसकी वो सौ प्रतिशत अधिकारिणी थी, घर की सभी औरतों के सीनों में ईर्ष्या घर कर गई थी। स्वयं उसकी तहेरी बहन जो उसे अपने देवर के लिए ब्याह कर लाई थी, उसकी शत्रु बन बैठी थी। वैसे तो उसका अप्रतिम सौन्दर्य ही बहुत था घर की औरतों में ईर्ष्या पैदा करने के लिए, उस पर चाँदी पहनने वाली औरतों के बीच रेशमा का सोने की मुरकियां और बुलाक पहनने और रईसुद्दीन के प्यार-मोहब्बत ने आग में घी का काम किया। सास को तो उसके नाम से भी नफरत होने लगी थी। जब भी रेशमा सूत कातने बैठती वह उसे किसी ना किसी बहाने उठाती रहती जिससे कम सूत कातने पर रईसुद्दीन उस पर गुस्सा करे। परन्तु उस स्फूर्ति के भण्डार को खाविंद की वाहवाही लूटने से कौन रोक सकता था? खाविंद भी कब पीछे रहता था, जब भी कपड़ा बेचने बाजार जाता, उसके लिये, चूढ़ियां, पायल, चुटीला, रिबन, लाली, पाउडर, चप्पल वगैरह – वगैरह कुछ ना कुछ लेकर ही लौटता। वो इन चीजों को लेकर ही इतनी खुश हो जाती जैसे दुनिया की सारी सम्पत्ति उसे मिल गई हो। अपने आप को पूर्णतः सन्तुष्ट समझती, और ज्यादा की हवस बिल्कुल ना करती। उसका ये सन्तोष भी दूसरों को भड़काने का छोटा कारण नहीं था। ठीक ही कहते हैं  कि नज़र और हाय तो पत्थर को भी चटका देती है। सचमुच उसके सुख का ये पक्का पत्थर चटकने ही जा रहा था।

गाँव के किसी शेख के यहां उसका कोई रिश्तेदार आया। जो अरब जाकर बड़ा अमीर हो गया था, अब भी अरब में ही रह रहा था। रईसुद्दीन की मेहनत और लगन देखकर उसे अपने साथ ले जाने की बात कही, उसे अरब जाकर अपनी फकीरी से रईसी तक का सफर कह सुनाया, अथाह धन  का भी लालच दिया। यूं तो रईसुद्दीन यहां गांव में भी अच्छा ही कमा लेता दिन-रात मेहनत करता, खड्डी चलाता। परंतु शायद रेशमा को रानी बनाकर रखने का लालच मन में समाया या जो भी कारण रहा, उसने अरब के शेख का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। रेशमा लाख रोई गिड़गिड़ाई, छोटे-छोटे बच्चों का हवाला दिया, अपने प्यार की कसमें दीं पर उसकी एक नहीं चली। रेशमा जानती थी, आखिर मर्द बच्चा अपने निर्णय खुद लेता है, उसको अदनी सी औरत कैसे बदल सकती है? वही हुआ जो वह चाहता था। वो शेख जैसा अमीर बनने का सपना आँखों में लेकर उसके साथ चला गया।

रेशमा का अनन्य प्रेमी जा चुका था, रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया था। रेशमी गुड़िया अब मुरझा गयी थी। कैसा पत्थर दिल खाविंद था जिसे अपनी घरवाली के आंसू और बेतहाशा खूबसूरती भी न रोक पाई। ना उसके अकेलेपन से ही उसने कोई खौफ खाया। वैसे भी खूबसूरत पत्नियों पर तो मर्द का विश्वास थोड़ा कम ही होता है। न जाने उसने इतना विश्वास रेशमा पर कैसे कर लिया कि उसे अकेली छोड़ कर चल दिया । क्या वो नहीं जानता था कि अकेली औरत अधिकांश  पुरुषों की नजर में सिर्फ एक देह होती है। अकेलेपन में उसे सहारा देने के लिये सैकडों हाथ बढ़ते तो जरूर हैं, पर क्या उनमें से एक भी उसका दैहिक परिचय लिये बगैर उसका साथ देने को राजी होता है? होने को तो ऐसा भी जरूर होता होगा पर क्या हर औरत का भाग्य इतना अच्छा होता है कि उसे कोई ऐसा मिल पाए? क्या वो नहीं जानता होगा, कि परदे ही परदे में क्या-क्या दुस्साहस नहीं हो जाते? क्या वो नहीं जानता होगा कि दुर्भाग्यवश स्त्री  जात को सबसे बड़े खतरों का सामना अपने ही घर में करना पड़ता है? घर में सहजता से उपलब्ध जो होती है फिर लोक-लाज उसका मुंह बन्द किये रखती है। वो औरत थी, वो ये सब जानती थी। वो अपने आपको सुरक्षित रखना चाहती थी अपने प्रेमी पति के लिये। पर सीधा – सादा रईसुद्दीन ये तो वास्तव में नहीं जानता होगा कि वो अपने ही घर में अपनी औरत के लिये आदमखोरों की खेप छोड़कर जा रहा था। जाते वक्त रेशमा को समझाकर गया था, “तू अकेल्ली कां है? आद्धा खानदान तो इसी हवेल्ली मैं रै रया और आद्धा पड़ौस मैं, फेर तू अकेल्ली  कां है? जो और किसी की तू ना बी मान्नै तो अम्मी-अब्बू तो रैंगे तेरे साथ। जी कू भारी मतना करै। खुसी-खुसी रइये, बालको कू देखिये। पैस्से लाऊंगा शेख जी साब की तरो, जब तू कैगी हाँ तुमने ठीक करा जो गए।’’

क्या रेशमा के प्रति उसके पति का आकर्षण भी सिर्फ दैहिक था? जो सन्तानों के हो जाने के बाद कुछ फीका पड़ गया था। ऐसा ही होगा वरना कोई ऐसा कैसे हो सकता है कि प्रेम के अमृत से भरी गहरी, साफ-सुन्दर झील को छोड़कर चन्द सिक्कों के पीछे तपते रेगिस्तान में दौड़ता फिरे। शायद उसने रेशमा से प्रागैतिहासिक युग के उस गुरिल्ले जैसा ही प्रेम किया था जो मादा की गंध मात्र के पीछे पागल होकर सन्तति निर्माण हेतु एक निश्चित समय के लिये ही  जोड़ा बनाता होगा। इन्सानी विकास के अनगिनत वर्षों बाद भी गंध  से रूप तक का ही सफर तय कर पाया था ये रईसुद्दीन नाम का गुरिल्ला। जो भी हो रेशमा का घर बिखर चुका था।

इस बार जब मैं रेशमा से मिलने गई, मुझे देखकर वो हर बार की तरह खुश हो गई थी, खुशी थोड़ी बेस्वाद ही सही पर वो झट से भागकर कोठरी में से अरबी खजूर ले आई थी और बोली,  “अफसर की बेट्टी ये खजूर खाओ  अरब सै भेज्जे हैं बालको के अब्बू नै, भौत मीट्ठे है।“ मीठे खजूर भेजकर बड़ा खुश था कमबख्त, शायद जानता नहीं था कि उसने रेशमा के जीवन को कितनी कड़वाहट से भर दिया था। अकेली जान पर वो कितनी जिम्मेदारी थोप  गया था। जब गया था तो तीसरा बच्चा पेट में था अब वो  भी चलने-फिरने लायक हो गया था, तीनों बच्चों की जिम्मेदारी, सास – ससुर का काम, सूत कातना, खड्डी चलाना, और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी उसे खुद अपने आपको सुरक्षित रखना। बरसों ना तो रईसुद्दीन आया और ना कुछ खास पैसा ही भेज पाया था। बल्कि जिस शेख के साथ रईसुद्दीन गया था उसका पत्र आया था जिसमें उसने बताया था कि रईसुद्दीन ने कोई अपराध  कर दिया है, वैसे तो यहां का कानून बड़ा सख्त है पर फिर भी मैं उसे जेल से छुड़वाने की पूरी कोशिश करूंगा। अरबी शेख के गांव वाले रिश्तेदार के घर से ही दबी-दबी सी खबर निकली थी कि रईसुद्दीन किसी हादसे में मारा गया। जिस पर विश्वास नहीं किया था रेशमा ने। पर इस खत ने तो उसके सिर से आसमान और पैरों से जमीन ही छीन ली। एक तरफ अकेलेपन का दंश रेशमा को आहत किये दे रहा था । दूसरी तरफ घर की ईर्ष्यालु औरतें खुश थीं और मर्द सहानुभूति रखने लगे थे। पर उसने किसी की तरफ ध्यान नहीं दिया। दिन – रात खड्डी चलाकर अपने बच्चों का पेट अकेली ही पालने लगी। अब खाविंद से अलग रहने की झुंझलाहट धीरे – धीरे उसका खूबसूरत चेहरा ढकने लगी थी। जिस खानदान के सहारे वो उसे छोड़कर गया था वो साथ रहने का दिखावा मात्रा निकला, और वही निकला उसके लिये सबसे बड़ा खतरा भी । । जबसे रईसुद्दीन के लौटने की आशा धूमिल पड़ी थी तबसे उसके बड़े भाई अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के लड़के की नज़र रेशमा पर कुछ ज्यादा ही ठहरने लगी थी। कई बार उसकी हरकतों के विषय में रेशमा ने अपने सास-ससुर से कहा भी था। परन्तु उन्होंने बात आई – गई कर दी थी।

पूस की काली स्याह, ठिठुरती रात, उस पर बेवक्त मूसलाधार बारिश, जलते अलाव और रजाई ओढ़ने के बावजूद शरीर जमे जा रहे थे। रेशमा एक ही चारपाई पर अपने तीनों बच्चों को समेटे पड़ी थी जैसे कोई चिड़िया अपने अण्डे निषेचित करती है कि उसके दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ हुई। रेशमा ने पूछा,

“कौन है?” बाहर से कोई धीमी और महीन आवाज आई। उसने फिर पूछा, फिर वही महीन आवाज आई,

“खोल तो मैं हूँ।“ जैसे घर की कोई औरत बोल रही थी, रेशमा ने आधा सुना, आधा न सुना और दरवाजा खोल दिया। तेज़ बारिश के साथ ही घुप्प अंधेरा  था, आने वाले की परछाई तक दिखाई नहीं दी। रेशमा टॉर्च उठाने के लिये टटोलती हुई पीछे हटी, आने वाले ने सांकल लगा ली रेशमा ने जैसे ही टॉर्च जलाई उसे एक लम्बा तगड़ा आदमी दिखाई दिया जिसने अपने चेहरे पर ढाटा बांध  रखा था। परन्तु उसकी कद-काठी देखकर रेशमा को समझते देर नहीं लगी कि वो कौन था। आगन्तुक ने हाथ से टॉर्च छीन कर दूर फेंक दी टॉर्च की रोशनी देर तक इधर से उधर लुढ़क कर बंद हो गई ।  आगंतुक  उसका हाथ पकड़कर बेरहमी से  खींचते हुए कोठरी के एक कोने में ले गया। रेशमा ने पुरजोर विरोध  किया, चीखी-चिल्लाई पर किसी को कोई आवाज़ नहीं गई या किसी ने जान बूझकर नहीं सुना। शारीरिक बल से हांका हुआ पुरुष का वासना भरा अहंकार एक स्त्री  के साथ जो सबसे बुरा कर सकता था, वो उसने किया। वो हट्टी-कट्टी शेखनी सचमुच अबला बन रह गई थी। उसकी चीत्कार से उसके तीनों बच्चे जाग गए थे। सोचकर बुरी तरह  सहम गए कि उनकी मां को कोई जान से मारने आया है। अपनी मां को जीवित देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। परन्तु उन्हें क्या पता कि उनकी मां मर ही चुकी थी अब जीवित थी तो केवल उसकी देह ।

रेशमा बारिश में गिरती-पड़ती, भीगती- भागती, बदहवास सी अपनी सास के पास जाकर रोते हुए  चीख-चीख कर अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के बेटे की करतूत बता रही थी, पर सास कुछ नहीं बोली। शायद सबकी मौन स्वीकृति थी। अब तक रईसुद्दीन की मौत की खबर लगभग पक्की हो गई थी। और उसकी सारी ‘सम्पत्ति’ पर दूसरे घरवालों का कानूनन हक था। अतः वो हार कर अपनी कोठरी में लौट आई। आबरू ही नहीं आत्माभिमान, सम्मान सब कुछ तार-तार हो गया था। अब क्या? क्या करेगी जीकर?

रात में कितने ही बुरे-बुरे कारनामे क्यों ना हो जाएँ, सुबह होती जरूर है। उस रात के बाद भी एक सुबह हुई थी बारिश बन्द हो गई थी पर हवा की तेजी ने सर्दी को और बढ़ा दिया था। अभी तक रेशमा अपने सुसर के सामने कभी नहीं निकली थी पर अब उसके लिये किसी से पर्दे का कोई अर्थ नहीं था। अतः वो मुंह पर पर्दा किये बिना ही अपने ससुर के सामने आ खड़ी हुई थी। जैसे आदेश दे रही थी,

‘‘रईसुद्दीन कू बुला दो।’’

ससुर चुप रहा, सास का तीखा बाण निकला,

“बेशर्मी की बी हद होत्ती है, एक तो सुसर के सामनै मुंह खोल्लो खड़ी है ऊपर सै खाविंद का नाम ले रई है। जुबान जल जा तेरी। कलमुंई जा जाक्के डूब जा कईं।“

अपने खाविंद का नाम बी ना लूं और दूसरे मरद के सामने अपने आपकू…….छिः। कहते-कहते रुक गई रेशमा।

सास बहुत ही बुरे शब्द बोली,

‘‘रईसुद्दीन मर गया है हम सबकू पता है, आज तू बी जान ले। एक औरत मैं होवैई क्या है जो इतनी मरी जा रई है, गाड्डी भर गोश्त लेक्कै घूम रई है । इंघे ऊंघेई  बी तो बखेरती फिरैगी, घर केई मरद कै रै जागी तो कौन सा आसमान फट पड़ेगा?’’

रेशमा सास की बात सुनकर बुरी तरह तिलमिला गई थी? बोली,

‘‘मैं रईसुद्दीन की ब्याहता हूँ, उसके सिवा इस दुनिया मैं और किसी कै ना रहने की हूँ ।’’

“तो जा पंचों सै करवा ले फैसला। “ सास फिर बोली

“पंचों के धोरे जक्कै क्या कर लूँगी, बे तो सब बुड्ढे के लंगोटिया यार हैं, बिकाऊ हैं।“ कहकर हारी हुई स्त्री अपनी कोठरी में वापस लौट गई, जानती थी पंच भी मर्द ही तो थे, ठीक उसके घर के मर्दों जैसे ।

इस दुनियाँ में कितनी ही औरतें, अनपढ़ अपनी तरह और पढ़ी – लिखी अपनी तरह से, स्त्रीवादी होकर पुरूषों के अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ती हैं। परन्तु कितनी अजीब बात है कि जितना वे पुरुषों के खिलाफ होती है उससे कहीं ज्यादा होती हैं एक दूसरे के खिलाफ। चाहे अनपढ़ हों या पढ़ी – लिखी, एक औरत दूसरी के साथ कुछ थोड़ा अन्याय नहीं करती। एक मर्द ने रेशमा के साथ अन्याय किया, दूसरे ने उसके साथ हुए अन्याय को समझना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि वो औरत का दर्द नहीं समझता था। परन्तु एक औरत की कौन – सी मजबूरी थी जो वो दूसरी का दर्द नहीं समझी? जिस तरह प्राचीन युग से आद्य युग तक भारतीय रियासतें आपसी द्वेष रखकर विदेशी आक्रान्ताओें को भारत पर विजय दिलाती रहीं । ठीक उसी तरह है स्त्री समाज भी, आपसी ईर्ष्या ने इसे पूरी तरह खोखला और कमजोर रखा इसी लिये इस पर राज किया पुरुष समाज ने। अपनी सास के अपराध के सामने रेशमा को अजीजुद्दीन के लड़के का अपराध कुछ खास बड़ा नहीं लग रहा था। उसका मन चाहा कि बुढ़िया का यहीं गला दबा दे। पर वो अबला है सबसे हार जाने वाली अबला, वो अपने जाते हुए पति को नहीं रोक पाई, बलात्कारी को नहीं रोक पाई अब अपनी ही जाति वाली को अनर्गल बकवास करने से नहीं रोक पाई। वो समझ गई थी कि औरत में भावनाएँ , विचार वगैरह कुछ नहीं, बस एक देह होती है वो भी मर्द के लिये, अपना नहीं तो दूसरे किसी के लिये। उसका रोम-रोम कराह उठा। अब किससे क्या कहे, बाप के घर चली जाए ? बाप को मरे तो दो बरस हो गए, भाई-भाभी तो मां को ही घास नहीं डालते। फिर भी उसने किसी के हाथ अपने भाई को बुला भेजा था। भाई आया, परन्तु उसे बाहर दालान में ही बैठा लिया गया। रेशमा के सास-ससुर, अजीजुद्दीन सबने मिलकर, पति की अनुपस्थिति में रेशमा का चाल-चलन सही ना होने की बात को उसके दिमाग में ठीक से बैठा दिया। सबूत और एक दूसरे की गवाही से हर झूठ को सच और सच को झूठ बना दिया। औरत की बदकिस्मती, कितना नाजुक बनाया चरित्र, गलत काम किये बिना भी खराब हो जाता है। और सबसे बड़ी विडम्बना ये कि उसके सगे सम्बन्धी  भी इस झूठ पर अपना समर्थन देने लगते हैं। किस भाई को अपनी बहन की किशोरावस्था से शिकायत नहीं होती?  किशोरी का चंचल मन खाली दर्पण सा होता है, जो कोई सामने देर तक खड़ा रहे उसी का अक्स उस पर उभरने लगता है। हर किशोरी के सपनो का राजकुमार कोई ना कोई तो बन ही जाता है। हर भाई की नजर गैलीलियो की दूरवीन बनकर बहन के कोरे-कोरे, दबे-छिपे सपनों को ताड़ लेती हैं । बहन का यही अल्हड़ प्रेम या आकर्षण, जो भी कहो भाई के दिल में उसके चरित्र के विषय में अविश्वास का बीज बो देता है। यही रेशमा के भाई के साथ हुआ। अद्वितीय सुन्दरी बहन पर कड़ी निगाह रखता। उसे याद है चौदह-पन्द्रह वर्ष की रेशमा एक हिन्दू लड़के की दीवानी हो गई थी। बड़ी सख्ती से सम्भाला था उसने। बहन का ब्याह कर वो इस घटना को लगभग भुला चुका था, परन्तु आज उसके ससुराल वालों के सबूतों और दलीलों ने उस घटना को पुनः जीवित कर दिया था, उसने मान लिया कि रेशमा ही गलत है, तब भी थी, आज भी है। ये कभी नहीं सुधरेगी, मेहमान ने गलत किया जो इसे अकेले छोड़कर इस पर भरोसा किया। वो अन्दर रेशमा के पास आया तो जरूर, परन्तु उसे ही हिदायत दे गया,

“सम्भाल के रख अपने आप कू-कुलच्छन मत ना दिखावै ।“

वो चुप खड़ी रह गई । भाई चला गया । अब उसे किसी का सहारा नहीं था जीवन भी अपना, मौत भी और प्रतिशोध  भी अपना । वो चुपचाप अपनी कोठरी में चली गयी, सारा दिन वहीं पड़े-पड़े गुज़र जाता। ना बच्चों का ध्यान रहा ना अपना, महीनों मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। क्रोध  अन्दर ही अन्दर पकता रहा। ढाई-तीन महीने बीत गए। जाड़े जा चुके थे घर के मर्द गर्मी के कारण खुले में सोने लगे थे इतने दिनों खामोश रहकर अपना प्रतिशोध लेने के लिए जो ऊर्जा जुटाई थी आज रेशमा ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। सब सो चुके थे, उसने दो तकुए आंच में लाल किये और बाहर गई जहां उसका अपराधी  सोया हुआ था। वो जलते हुए तकुए उसने अपने अपराधी  की दोनों आंखों में घुसा दिये। अपराधी  की आंखों से धुएँ के साथ मुंह से एक हृदयविदारक चीख निकली। सब जाग गए, रेशमा वहीं खड़ी रही, उसने अपने अपराधी को सजा दे दी थी। घर का कोई छोटा – बड़ा सदस्य उसपर लात – घूंसे बरसाए बिना नहीं रहा । शरीर चोट खा रहा था तो क्या, प्रतिशोध लेकर मन शांत हो गया था। किसी ने कहा डायन है, ये तो सबको खा जाएगी किसी ने कहा पुलिस को बुलाओ, और भी अनेक राय आई पर अजीजुद्दीन ने किसी की कोई बात नहीं सुनी, उसने क्षण-भर में रेशमा के लिए एक नायाब सज़ा सोच ली थी।

उसी दिन लोहे की दो लम्बी-लम्बी मजबूत जंजीरें लाई गईं, रेशमा का एक पैर और एक हाथ अलग-अलग जंजीर  से बांधकर उसे अपने बाहर वाले चबूतरे के बीचों – बीच  खड़े शीशम के पेड़ के साथ बांध दिया। वह दिन-रात, सुबह-शाम वहीं बंधी रहती। वहीं एक प्लेट में, कुत्ते की तरह एक – आध  रोटी डाल दी जाती, बस सुबह के समय घर की औरतें उसे जंगल तक ले जाती, शौच के लिये वो भी किसी पुरूष की निगरानी में, बस इनती ही थी उसकी स्वतंत्रता। घर की पर्दानशीं अनिंद्य  सुन्दरी अब गलियारे से गुजरने वालों के मनोरंजन का साधन बन गई। उसी में दोष लगाकर गांव भर में उसके प्रति घृणा प्रचारित की गई। वहाँ से गुजरने वाला हर औरत-आदमी उस पर थू-थू करता। खासकर औरतें, यही तो एक मौका था अपने-अपने मर्दों को ये दिखा देने का कि वे चरित्रहीन का साथ नहीं दे सकतीं क्योंकि वे बड़ी ही सच्चरित्र, साध्वी स्त्रियां हैं । कोई कहती,

“कुल्टा अब बैट्ठी है हें गलियारे मैं, शर्म-हया तो है कोयना।“

“कुलच्छनी मर्दमार हो रई है । मर्दों  सै बराबरी करने पै उतरी थी।“ कोई कहती ।

कोई कहती, “अपने मर्द कू तो खाई गई अब सब दूसरों कू ऐसे मारे काट्टेगी।“ और भी न जाने क्या-क्या। कई दिनों तक रेशमा अपना मुंह घुटनों में छिपाकर बैठी रही शायद ये सजा उसने सोची नहीं थी अपने लिये। औरतें रोज आतीं उसे रास्ते में बैठे रहने के ताने मारतीं। एक दिन उससे रहा नहीं गया, जैसे चिल्ला पड़ी थी उस दिन वो, “जो मेरे साथ मेरी कोठरी मैं होया गलियारे में बैठना उस्सै बुरा ना है।“ औरतें सहम गईं । दिन चहल-पहल से बचते गुजरता और रात खुद को सन्नाटे से बचाते-बचाते बहुत लम्बी होकर जाती। पति की परम प्रिया, बच्चों की स्नेहमयी माँ, एक सच्चरित्र औरत इस खौफनाक सज़ा को पाकर कितने दिन अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रख पाई होगी आखिर ? धीरे-धीरे  वो सचमुच चेन से बांधने लायक ही हो गई।

वो जहांनाबाद की थी। गांव में प्रचलन होता है किसी स्त्री को उसके अपने नाम के बजाय उसके गांव के नाम से पुकारते हैं सो उसके गाँव के नाम को अपभ्रंश बनाकर ‘‘झानंवाद्दन’’ बोला जाता। शीशम के पेड़ से बंधी पर्दानशीं झांनवाद्दन हमेशा तने की तरफ मुंह करके बैठती। पेड़ की टहनियां तोड़कर उसने अपने लिये चूल्हा, चरखा, चारपाई, बर्तन आदि सभी ‘‘सुविधाएँ ’’ जुटा ली थीं । उन टहनियों को बड़े करीने से सहेजती, उन्हें ही अपनी सम्पदा समझ सबसे उनकी रक्षा भी करती। पथवारे जा रही औरतें अपने मनोरंजन के लिये मुट्ठी भर गोबर, दूर से ही, उसके चबूतरे पर फेंक देती और कहती, “झांनवाद्दन इस गोब्बर कू अपने चौंतरे पै फैर लें।“ वो सफाई की दीवानी, उस गोबर में अपने पानी पीने वाले लोटे से ही पानी मिलाती और चबूतरे को बड़ी अच्छी तरह से लीपती। कोई न कोई उसे रोज गोबर दे जाता और वो रोज यही दोहराती। दिन फिर भी शांति से निकल जाता,पर शाम उसके लिये बड़ी दुःख देने वाली होती। गांव के छोटे-छोटे लड़कों की टोलियाँ आतीं, कभी डण्डियों से उसका करीने से रखा सामान या कहें ‘‘सम्पदा’’ बिखेर देतीं, कभी उसके चबूतरे पर मिट्टी या पत्ते फेंक देतीं, कोई उसकी कमर पर डण्डी मार कर भाग जाता। वो चिल्लाती, ‘‘हाय मुझें मार दिया, मेरा घर उजाड़ दिया उत्तों नै, तुम मर जाओ कमबख्तों, तुमै हैज्जा लेज्जा।’’

और वो इसी तरह घण्टों रोती-बड़बड़ाती और अपनी टहनियां फिर करीने से लगाने लगती। आस-पड़ोस  की औरतें बच्चों पर गुस्सा करतीं। इसलिये नहीं कि वो रेशमा को परेशान होने से बचाना चाहती थीं बल्कि इसलिये कि शाम के समय रो-धोकर, गालियां देकर उसके फैलाए अपशगुन से खुद को बचा सकें। एक बात तो थी, उसे किसी ने जैसे भी चिढ़ाया हो पर उसका शारीरिक शोषण करने की बात कोई सोच भी नहीं पाया, भले ही वो दिन-रात अकेली शीशम से बंधी चबूतरे पर क्यों ना पड़ी रही हो

उस बार जब मैं बच्चों के साथ घूमने निकली तो बच्चे सबसे पहले मुझे झानंवाद्दन ही दिखाने ले गए। वो बार-बार कहे जा रही थी, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“ मेरे साथ के बच्चों में से एक ने उसकी पीठ पर डण्डी मारकर उसका ध्यान अपनी ओर किया, दूसरा बोला, “झांनवाद्दन-झांनवाद्दन मैं जा रया हूँ अजीजा के पास, मैं छुड़वाऊँगा तुजै। तू गाक्कै सुना। “ वो पगली अपनी छोड़ दे रे अजीज़ा, छोड़ दे रे अजीजा की रट छोड़ कर तुरन्त गाने लगी,

“पत्ता टूटा डाल से और ले गई पवन उड़ाय अबके बिछड़े ना मिलैं कहीं दूर बसैंगे जाए रे, अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ उसका गाना खत्म हुआ तो, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की रट फिर शुरू हो गई थी। इस बार दूसरे लड़के ने कहा, “तुझे मैं छुड़वाऊँगा अजीजा से, चल नांच कै दिखा।“ और वो अपनी मुँह से कुछ संगीत सा निकालने लगा। मैं उस लड़के को रोकना चाहती थी पर मुंह से शब्द ही नहीं निकले, मैं घर की तरफ मुड़ने लगी। इसी बीच झांनवाद्दन की नज़र मुझ पर पड़ गई वो बड़ी कर्कश आवाज में चिल्लाई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी रुक जा मैं तेरे लिये खजूर ला रही हूँ, खाक्कै जाना।“

तो ये झांनवाद्दन रेशमा है ! नहीं, ये भयानक औरत वो रेशमी गुड़िया कैसे हो सकती है?  इतनी जानी पहचानी वो, मुझे जरा भी पहचान में नहीं आई। उसकी रेशमी-गुलाबी चमड़ी काली स्याह पड़कर जगह-जगह से चटक गई थी। हल्की नीली आंखेँ गहरे काले गड्ढों में बन्दिनी बनी पड़ी थी। उसके रेशमी-घने, सुनहरे बाल आपस में बुरी तरह गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। चेहरा कुल मिलाकर ऐसा हो गया था, जिसे ज्यादा देर देख पाना मेरे लिये सम्भव नहीं था। किसने किया उसका इतना बुरा हाल? भगवान उसे सजा जरूर देंगे। मेरी आंखों में आंसू आ गए। इस बार वो थोड़े धीमे स्वर में बोली, “ए अफसर की बेट्टी, अफसर से कहना कि मुजै अजीजा से छुडवा दें। इंघे कू आ ना मेरे धोरे कू।“ जाने कौन सी भावना के वशीभूत हुई मैं चबूतरे के बिल्कुल पास चली गई, वो भी चेन को थोड़ी ज्यादा खींचकर मेरी तरफ आई। उसके हाथों में मेरे बाल आ गए। मेरे साथ आए सारे बच्चे सहम गए। मैं नहीं जानती मुझे उससे डर क्यों नहीं लगा? मैं और थोड़ी आगे खिसक गई। उसने मेरे बाल छोड़ दिये, मेरे सिर पर अपना हाथ बड़ी जोर से रखकर मुझे आशीष देने लगी। “अल्ला तुजै लम्बी उमर दे, तू जीती रे”, और फिर वो फफक-फफक कर रो पड़ी थी। “अफसर की बेट्टी अजीजा ने मेरे सारे बालकों कू मार दिया।“ वो मेरा हाथ पकड़कर बार-बार यही कहे जा रही थी। मेरे साथी बच्चों ने मेरा दूसरा हाथ पकड़कर कर मुझे खींच लिया था। वो चिल्लाती ही  रह  गई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी मेरी बात सुनती जा,  अफसर की बेट्टी मेरी बात तो सुनती जा।“

मैं रुकना चाहती थी पर चाची की बेटी सोम्मी मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचती हुई घर ले आई। घर आकर अम्मा से मेरी शिकायत लगाने लगी, कि मैं झांनवाददन के चबूतरे के पास चली गई थी। अम्मा मुझ पर थोड़ा सा गुस्सा भी हुई थी। झांनंवाद्दन की आवाज हमारे घर तक आ रही थी। वो गाना गा रही थी। “पत्ता टूटा डाल सै और ले गई पवन उड़ाय अब कै बिछड़े ना मिलै कहीं दूर बसैगें जाए रे अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ मुझे लगा जैसे इस बार वो ये गाना मुझे ही सुना रही थी। गाना थोड़ी देर गाया होगा कि फिर वही, “छोड़ दें रे अजीजा, छोड़ दें रे अजीजा ” की रट शुरू कर दी थी उसने।

उस दिन घर लौट कर मैं बेहद उदास थी, पिता जी से कहा, पिता जी रेशमा को छुड़वा दो प्लीज। अगले दिन पिता जी ने अजीजुद्दीन को बुलवाकर उससे बात भी की, रेशमा को किसी पागल खाने में भरती कराने के लिए। अजीजुद्दीन ने बताया कि एक बार वो उसे छोड़कर आया था, पर वो भागकर घर आ गई, उसे एक बार उसके पीहर भी छोड़कर आया था पर वो वहां से भी भागकर आ गई थी। कौन जाने वो हर जगह से लौट कर अपने नन्हें-मुन्नों की किलकारियां सुनने और अपने अरब गये प्रेमी की प्रतीक्षा करने के लिए, दौड़ कर खुशी-खुशी जंजीरों से बंधने के लिए वापिस वहीं आ जाती हो। अजीज कहता था उसे खोलकर तो नहीं रखा जा सकता। क्योंकि वो सोचता होगा कि रेशमा ना जाने कब किसकी आंखों में गरम तकुए घुसा देगी। पर मूर्ख था वो जानता नहीं था कि उस आत्माभिमानिनी को तो सिर्फ अपने अपराधी  को ही सजा देनी थी। ये भी सुना गया कि अजीजुद्दीन ने रेशमा के तीनों बच्चे उसी अरब के शेख को बेच दिये, उससे कहा कि तीनों मर गए, तभी उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह बिगड़ गई थी। जब मैं अम्मा को रेशमा के विषय में बता रही थी, चाची तपाक से बोली थीं, “जाद्दै दया करने की जरूरत ना है इसपै, इन्नैं बी छोटा गुनाह ना करा, औरत होक्कै इन्नै अपने जेठ के बेट्टे की दोन्नों आंख फोड़ दई थीं।“ “चाची औरत होक्के मतलब ?” इस पर चाची ने उत्तर दिया तो मैं अवाक रह गई थी, “ मरद की जात कुछ बी कल्ले औरत कू यो सब सोभा नईं देत्ता, अभी ना समझनेकी है तू, बड़ी होज्जागी न जब समझगी ।“  मर्द की जात कुछ भी कर ले मतलब ? अजीब बात थी चाची तो सच्चाई जानती थी फिर भी उसी को अपराधिनी ठहरा दिया। माना कि आंखेँ आदमी के लिए उसकी अनमोल धरोहर हैं। पर समाज में स्त्री की आबरू उससे कम है क्या? क्या लुटी हुई आबरू के साथ, समाज किसी स्त्री को सम्मानित ओहदा देता  है? या कहें, दे पाता है क्या ? खुद स्त्री का अपना पति भी उसके साथ हुई इस दुर्घटना को भूलकर अपने आपसी सम्बन्ध  को सहज नहीं बना पाता। कोई उसे ताने दिये बगैर नहीं छोडता, ज्यादातर औरतें ऐसे हादसों के बाद आत्महत्या तक कर लेती हैं फिर रेशमा का अपराध अजीजुद्दीन के बेटे के अपराध  से बड़ा कैसे हुआ ? मैं तब भी नहीं समझ पाई थी ना आज समझ पाई हूँ और संभवतः यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा अनुत्तरित ही रहेगा। क्या वो अपराधी  बड़ा नहीं जिसने अपराध की शुरूआत की?

डेढ़ महीने तक मैं रोज उससे मिलती रही, अम्मा की डांट पड़ते रहने के बावजूद, दो-चार आंसू भी उस पर बहाती रही। इस बार डेढ़ महीने का उत्सव मेरे लिये उदासी बनकर आया था। उसके अगले बरस हम गांव नहीं आ सके थे। जहां पिता जी की पोस्टिंग थी वहां दो विरोधी पक्षों के बीच तनाव हो गया था। कर्तव्य को प्राथमिकता देने वाले पिता जी ने अपना डेढ़ माह का ग्रामीण उत्सव इस बार बलिदान कर दिया था। हम सब सारी छुट्टियाँ वहीं बोर होते रहे। मुझ बच्ची की कल्पनाओं में सारी छुट्टियों में झांनवाद्दन घूमती रही। जैसे अजीजुद्दीन ने उसका इलाज करा दिया होगा और वो फिर से वहीं रेशमा बना गई होगी। रईसुद्दीन लौट आया होगा और अब वो फिर अपने उसी घर में अपने पति और अपने तीनों बच्चों के साथ खुशी-खुशी रहने लगी होगी। जब मैं इस बार जाऊँगी तो मुझे प्यार से खाट पर बैठा देगी। इस बार वो अरबी खजूर नहीं मुझे गुड़ ही खिलाएगी अपने गांव का बना हुआ। खूब सूत कातने लगी होगी, जितने समय नहीं काता उसके हिस्से का भी। और भी ना जाने क्या-क्या अच्छा – अच्छा सोचती में अपनी उस प्रिया के लिए । वो साल बिना गांव आए बीत गया।

जब हम उसके अगले बरस गांव आए तो आते ही मैं सबसे पहले छत पर से वो चबूतरा देखने को भागी जिसके बीचों – बीच  खड़े शीशम के पेड़ से रेशमा बंधी  रहती थी। परन्तु चबूतरा खाली था। उस पर लोहे की दोनों चेन पेड़ से अभी भी बंधी  पड़ी थी। शायद अजीजुद्दीन ने उन्हें गांव की औरतों को ये सजा याद दिलाते रहने की वजह से ना खोला हो पर अब अजीजुद्दीन से, “छोड़  दे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की गुहार लगाने वाली झांनवाद्दन वहां नहीं थी। अजीजुद्दीन ने उसे कभी स्वतंत्र नहीं किया तो क्या? वो खुद उड़ गई थी सारे बन्धन छुड़ाकर।

उस रेशमी गुड़िया पर मौसमों की कितनी भी मार क्यों ना पड़ गई हो या उसके बेतहाशा रूप पर कुरूप, डरावनी झांनवाद्दन का भयानक चेहरा क्यों ना चढ़ गया हो, मैं उसे रेशमा के नाम से ही जानूंगी, याद करूंगी। उसके खिलाए खजूरों की मिठास मेरी स्वाद ग्रन्थियां आजीवन नहीं भूलेंगी। मैं, हमेशा मानूंगी उसने साहस या दुस्साहस जो भी किया था व्यर्थ नहीं गया। अजीजुद्दीन के लड़के जैसे निरंकुश वासना से भरे पुरुष एक बार तो ये सोचने पर मजबूर हुए होंगे कि कोई स्त्री ऐसा भयानक प्रतिशोध  भी ले सकती है। किसी को तो उसके इस प्रतिशोध  ने डराया भी होगा । वो डर अगर किसी एक भी रेशमा की आबरू बचा पाया तो अपना सब कुछ खोकर भी रेशमा अमर हुई। मैं छत पर खड़ी – खड़ी अभी यह सब सोच ही रही थी कि बच्चों का वही पुराना शोर सुनाई दिया मैंने चौंककर देखा तो कोई पागल सा दिखने वाला आदमी  फटे – चुटे, मैले – कुचैले कपड़े पहने  मुंह से अपनी खिचड़ी हो आई दाढ़ी पर लार टपकाता, बगल में पानदान दबाए,  कभी डरता, कभी असपष्ट से शब्द उच्चारित करता, कभी ज़ोर – ज़ोर से  चिल्लाता हुआ लंगड़ाता, गिरता – पड़ता, आगे – आगे भाग रहा था ।  पीछे – पीछे बच्चे उसे कंकड़ – पत्थर मारते, शोर  मचाते हुए भाग रहे थे । वह कुछ जाना पहचाना सा लगा । अजीजुद्दीन………?

 

निर्देश निधि,

विद्या भवन,  कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]                  phone – 9358488084

17-6-19

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सूचनाएँ/Information – ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल “कर्मवीर सम्मान” से सम्मानित ☆

श्री राकेश कुमार पालीवाल

☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल “कर्मवीर सम्मान” से सम्मानित ☆

ग्राम सेवा समिति भोपाल के लिए यह गर्व और हर्ष का विषय है कि  सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल (आईआरएस) जो कि वर्तमान डायरेक्टर जनरल इन्वेस्टीगेशन के पद पर आयकर विभाग हैदराबाद में पदस्थ हैं का सम्मान विगत 24 जनवरी को माधवराव सप्रे संग्रहालय, भोपाल द्वारा किया गया।

ज्ञात हो कि श्री पालीवाल जी  गांधीजी के विचारों को आत्मसात कर ग्रामीण अंचल के विकास में लगे हुए हैं। ग्राम सेवा समिति, भोपाल भी उन्ही के दिमाग की उपज है। इसके पूर्व जब वे दिल्ली में थे तब भी उन्होंने योगदान संस्था के गठन में बड़ी भूमिका निभाई थी। अपनी सुदीर्घ सेवा अवधि में उन्होंने चार ग्रामों का सर्वांगीण विकास गांधी जी के विचारों के अनुरूप किया है। मध्यप्रदेश में छेडका और तेलंगाना में गोंगलूर के विकास की कहानी आजकल  चर्चा में है।

सौम्य एवं निर्भीक स्वभाव के धनी श्री पालीवाल जी आयकर विभाग में अपनी ईमानदार छवि के कारण  सम्मानपूर्वक जाने जाते हैं। उन्हें  स्व. माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा संपादित कर्मवीर पत्रिका के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर  वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह के कर-कमलों से कर्मवीर सम्मान से सम्मानित किया गया। श्री दिग्विजय सिंह ने भी डाक्टर पालीवाल के सामाजिक सरोकारों की भूरी भूरी प्रसंशा की।

( पद्मश्री श्री विजय दत्त श्रीधर जी, श्री राकेश कुमार पालीवाल जी, श्री दिग्विजय सिंह जी,  श्री पी सी शर्मा जी, और श्री दीपक तिवारी जी )

डॉ पालीवाल जी ने अपने संबोधन में कुछ इसी तरह के उद्गार व्यक्त किए – “कभी कभी विश्वास नहीं होता कि हमारी आजादी के नायकों ने किस निष्ठा से देश को आजाद करने के लिए किस हद तक जाकर कुर्बानियां दी हैं और अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। गांधी की अगुवाई में चले संघर्ष में “कर्मवीर” की निर्भीक पत्रकारिता की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिससे माखनलाल चतुर्वेदी और माधवराव सप्रे जैसी विभूतियों का नाम जुड़ा है।

यह भी एक सुखद संयोग बना कि कस्तूरबा और गांधी जी की 150 वी जयंती के साथ साथ कर्मवीर की पत्रकारिता का भी यह शताब्दी वर्ष है। स्व माधवराव सप्रे संग्रहालय में एक सादगीपूर्ण एवं भव्य आयोजन में मुझे भी अनन्य हिंदी सेवी कैलाशचंद पंत, जैव विविधता संरक्षण में जुटे बाबूलाल दहिया और कर्मठ पत्रकार रमेश नय्यर जैसे अग्रजो के साथ कर्मवीर सम्मान से सम्मानित किया गया।

इस तरह के सम्मान हम पर अतिरिक्त जिम्मेदारी डालते हैं कि हम इन सम्मानों का सम्मान बरकरार रखते हुए भविष्य में और अधिक कर्मठता से काम करें।“

समारोह में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के वाइस चांसलर श्री दीपक तिवारी, मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री श्री पी सी शर्मा और संयुक्त मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह और गांधी भवन भोपाल के सचिव श्री नामदेव जी, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के डायरेक्टर जनरल इनकम टैक्स श्री टुटेजा और मध्य प्रदेश के प्रधान आयकर निदेशक डॉ विनोद गोयल, ग्राम सेवा समिति के गणमान्य सदस्यों एवं भोपाल के प्रमुख प्रबुद्ध जनों ने भी समारोह में शिरकत की।

(ई- अभिव्यक्ति की ओर से महात्मा गांधी जी एवं कस्तूरबा गांधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारधारा के प्रणेता  श्री राकेश पालीवाल जी को इस महत्वपूर्ण  सर्वोच्च सम्मान के लिए हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई। हम श्री पालीवाल जी से ई – अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए उनके उत्कृष्ट साहित्य की अपेक्षा करते हैं।)

श्री अरुण डनायक जी एवं श्री राकेश कुमार पालीवाल जी के फेसबुक से साभार
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