हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धरती  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – धरती 

 

औरत की लाज-सी

खींचकर धरती की हरी चुनर

उतार दिया जाता है,

पिघलता लोहा

उसकी कोख में,

सरियों के दम पर

खड़ी कर दी जाती हैं

विशाल अट्टालिकाएँ,

धरती के सीने पर

बिछा दिया जाता है

काँक्रीट, सीमेंट, रेत ऐसे

किसी नराधम ने मासूमों को

चुनवा दिया हो जैसे,

विवश धरती अपनी कोख में

पथरीली आशंका के साथ

छिपा लेती है

हरी संभावनाएँ भी,

समय बीतता है

साल दर साल इमारत

थोड़ी-थोड़ी खंडहर होती है,

धरती की चुनर

शनैः-शनैः हरी होती है,

इमारत की बुनियाद

झर जाती है

धरती की कोख

भर आती है,

खंडहर ढक जाता है

उन्हीं पेड़-पौधों,

घास-फूल-पत्तियों से

जिनके बीज

कभी पेट में छिपा लिये थे

धरती ने…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 29 – चेतना तत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “चेतना तत्व ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 29 ☆

☆ चेतना तत्व 

प्राण ब्रह्मांड में किसी भी प्रकार की ऊर्जा की मूल इकाई है। यह वह इकाई है जिसे हम देख नहीं सकते हैं, लेकिन सिर्फ अनुभव करते हैं। लेकिन महान ऋषि इसे देख सकते हैं। ऊर्जा उष्ण, बिजली, परमाणु इत्यादि जैसे सकल रूपों में भिन्न हो सकती है लेकिन मूल इकाई या ऊर्जा का सबसे कम संभव रूप प्राण ही है। प्राण कंपन या स्पंदन की आवृत्ति के अनुसार हमारे शरीर के अंदर विभिन्न रूपों में भी कार्य करता है जैसा कि मैंने पहले ही प्राण, अपान आदि के विषय में विस्तार से बताया था, जिनकी हमारे शरीर के अंदर अलग-अलग कार्यक्षमता है।

आशीष ने एक भ्रमित मुद्रा में पूछा, “महोदय, इसका अर्थ है की ऊर्जा के सभी रूप प्राण के विस्तार या अभिव्यक्ति ही हैं। लेकिन प्राण का मूल रूप क्या है? और यह कैसे कार्य करता है? और यह कहाँ से हमारे आस-पास या पृथ्वी पर आता है?”

उत्तर मिला, “प्राण जो हम साँस के माध्यम से शरीर के अंदर लेते हैं वास्तव में वायुमंडल में उपस्थित होता है और आयन (Ions,विद्युत् शक्ति उत्पन्न करनेवाला गतिमान परमाणु) के रूप में बने रहते हैं। हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में ये प्राण आयन 100-150 वोल्ट प्रति मीटर के आसपास विद्युत वोल्टेज में उपस्थित रहते हैं। प्राण ऊर्जा में दो प्रकार के आयन होते हैं :

1) ऋणात्मक आयन, जो आकार में छोटे और बहुत सक्रिय होते हैं। ये आयन शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा देते हैं। हम श्वास की प्रक्रिया के दौरान वातावरण से इन आयनों का सेवन करते हैं। ये आयन धूल, धुआं, धुंध, गंदगी, आदि से नष्ट हो जाते हैं। इन आयनों का वातावरण से कम होना ही प्रदूषण और वैश्विक तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है इन आयनों की उपस्थिति में हम स्वस्थ और अच्छा अनुभव करते हैं।

2) बड़े और कम सक्रिय हैं, इनमे कई परमाणु नाभिक होते हैं। ये छोटे आयनों के संयोजन का एक रूप होते है।

वायुमंडलीय प्राण, ऊर्जा का स्रोत सूर्य की अति उल्लंघन वाली किरणों की प्रकाश रासायनिक (photochemical) प्रतिक्रिया से उत्पन्न कम आवृत्ति की तरंगों (short wave) का विकिरण (radiation) है। प्राण के नकारात्मक आयनों का माध्यमिक स्रोत हमारे सौर मंडल के विभिन्न भागों से आता है। इसके अतरिक्त ये आयन विशेष रूप से समुद्र के पानी में तरंगों से भी उत्पन्न होते हैं।

आशीष कहता है, “ऐसा कहा जाता है कि जब कोई मर जाता है, तो प्राण उसके शरीर को छोड़ देते हैं। इसका अर्थ हुआ की प्राण चेतना का ही एक रूप है, क्योंकि जब व्यक्ति मर जाता है तो वह अपनी चेतना खो देता है”

उत्तर मिला, “यह सामान्य मनुष्यों के लिए बहुत भ्रमित है, लेकिन मैं आपको यह बताने का प्रयास करता हूँ। प्राण से चेतना (consciousness) अलग है। चेतना जागरूकता (awareness) का माप है या हम कह सकते हैं कि जागरूकता चेतना की मूल इकाई है। लेकिन जागरूकता भी प्राण को ईंधन (fuel) के रूप में उपयोग करती है। चेतना दो चीजों पर निर्भर करती है: पहला जागरूकता की तीव्रता या प्रगाढ़ता (intensity) और दूसरा जागरूकता की अवधि (duration) । या अधिक स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि चेतना प्रकृति का सत्त्विक गुण है जबकि प्राण प्रकृति का राजसिक गुण है और स्थूलता प्रकृति का तमस गुण है। प्राण चेतना से अलग है क्योंकि जब कोई व्यक्ति बेहोश या अचेत होता है तो वह अपने और उसके आस-पास के विषय में सचेत नहीं रहता है, लेकिन वह अभी भी जीवित है और कुछ समय बाद उसकी इंद्रियों में चेतना वापस आ जाती है, जिसका अर्थ है कि प्राण ने उसके शरीर को नहीं छोड़ा था।

दूसरी ओर जब प्राण शरीर छोड़ देता है, तो व्यक्ति मर जाता है, लेकिन योग में कुछ तकनीकें और कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां भी होती हैं, जो शरीर में प्राण के प्रवाह को फिर से सक्रिय कर सकती है और मनुष्य फिर से जीवन पा सकता है जैसे की लक्ष्मण के साथ हुआ था जब इंद्रजीत ने उन पर शक्ति से आक्रमण किया था और उन्हें संजीवनी बूटी द्वारा जीवनदान मिला था।

जबकि आत्मा हमेशा चेतना होती है या सरल शब्दों में कहे तो आत्मा का केवल एक गुण होता है, और यह हमारे सभी दृश्य और अदृश्य ब्रह्मांड की वर्तमान चेतना है, जो हमारे शरीर, मस्तिष्क, इच्छाओं, कर्मों आदि द्वारा सीमित प्रतीत होता है। इसलिए यही कारण है कि हमारी आत्मा अलग-अलग अनुलग्नकों (लगाव) से बंधने की वजह से सीमित चेतना दिखाती है। जब हम सभी अनुलग्नक छोड़ देते हैं, तो हमारी आत्मा की चेतना अपने वास्तविक सार्वभौमिक अनंत रूप में दिखाई देती है और हम स्वतंत्र हो जाते हैं और अनंत में विलय करते हैं। स्पष्ट रूप से व्याख्या करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। यहाँ पर मैं तुम लोगों के साथ बैठा हूँ और मेरे शरीर के अंदर प्राण वायु अपना कार्य कर रही है, और मैं भी अपने विषय में, मेरे विचारों, मेरे आस-पास, आप चारों के प्रति सचेत हूँ। लेकिन जब मैं सो जाऊँगा, सपने में, बाहरी दुनिया के साथ मेरा संबंध कट जाएगा या अधिक सटीक रूप से मेरी चेतना केवल मेरे मस्तिष्क के संस्कारों के अंदर तक ही सीमित हो जायगी, जहाँ से वो चेतना मेरे पिछले कर्मों की छाप से कुछ दृश्य उठा कर मुझे सपने दिखायगी। लेकिन इस स्थिति में भी मेरे शरीर के प्राण और उप-प्राण अभी भी वैसे ही कार्य करते हैं जैसे वह जाग्रत अवस्था में करते हैं, जो कि आसानी से सोते समय मेरी चलती साँसों से अनुभव किया जा सकता है। लेकिन स्वप्न की अवस्था में मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क में ही सिकुड़ या सिमट जाएगी। जब कोई मेरे शरीर पर चुटी काटेगा, तो मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क से फिर से मेरे शरीर तक फैल जाएगी और मेरी आँखें खुल जायँगी और मुझे अपने शरीर का फिर से अनुभव होने लगेगा, और लगभग उसी समय मेरी चेतना और फैलकर मुझे मेरे आस-पास के वातावरण का भी अनुभव देने लगेगी। जबकि गहरी नींद की अवस्था में मेरी चेतना और भी सिकुड़ कर केवल आत्मा तक ही सीमित हो जायगी।

एक वाक्य में प्राण आत्मा का एकमात्र गुण, ‘चेतना’ का एक वाहन है। अब अंतर स्पष्ट हुआ?”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 20 ☆ गंध प्राजक्ताचा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक और लग्न गीत “गंध प्राजक्ताचा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में  नववधू के गृह प्रवेश के समय में गाये जायेंगे।

विगत 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह सौ प्राजक्ता के साथ संपन्न हुआ। इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  उन्होंने  सौ प्राजक्ता के गृह प्रवेश की परिकल्पना करते हुए रचित किया था। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 20 ☆

☆ गंध प्राजक्ताचा ☆

माझी नातसून आली

आली सोन्याच्या पावली

पावलाने ओलांडून

माप घरात ती आली !!१!!

 

लावा हळद नि कुंकू

तिला औक्षण करुनी

गृहप्रवेश करुया

सगळ्यांनी आनंदुनी !!२!!

 

आली थाटात प्राजक्ता

शालू नेसुनी हिरवा

भरजरी पैठणीचा

रंग खुलतो बरवा !!३!!

 

जरीकाठी  नऊवारी

खुले तिच्या अंगावरी

दिसे कशी गोडवाणी

माझी सुंदर नवरी !!४!!

 

शकुनाच्या गं पाऊली

आनंदाने घरी आली

सत्वगुणी तुझं येणं

मांगल्याच्या गं पावली !!५!!

 

माझी आली नातसून !

तिचे करुया स्वागत !

तिच्या आगमने होई !

घरा आनंदी आनंद  !!६!!

 

झुले सुखाचा हिंदोळा

हिंदोळा गं तिच्या  मनीं

आई-बाबांची लाडकी

लाडकी गं त्यांची  सोनी !!७!!

 

माझ्या अवधूतसंगे

आनंदाची पखरण

व्होवो तुझ्या जीवनात

बांधू सुंदर तोरण !!८!!

 

माझ्या सुरेख अंगणीं दरवळला प्राजक्त

त्याने आसमंत सारा  झाला मंद सुगंधित !!९!!

 

©®उर्मिला उद्धवराव इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆ नागमोडी चाल ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “नागमोडी चाल”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆

☆ नागमोडी चाल

धूक्यातील तुझे केस

ढगा सारखे वाटतात

डोळयातील विजेतून

पावसाच्या सरी दाटतात ….

 

डोंगरावरील श्वेत धुके

हिमगिरि वाटतात

अलगद आकाशास

गवसणी घालतात….

 

वळणदार वळणावर

कमळाची पावले

नागमोडी चालताना

लयताल गाठतात….

 

© श्रीमती सुजाता काळे

हिंदी विभागाध्यक्ष, न्यू इरा हायस्कूल, पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆

तासभरापासून मित मुंबई सेंट्रल स्थानकावर उभा होता. मनांत असंख्य शब्दांनी गुंफून ठेवलेल्या शब्दगंधित माला रिमझिमच्या स्वागताला बेचैन होत्या. असंख्य भावांनी चेह-यावर गर्दी केली होती. जस-जसा घड्याळाचा काटा पुढे सरकत होता. तिला पाहण्याची ओढ वाढत होता. ती एवढी की त्याला स्वतःचं भान नव्हतं. काहीसा घाबरलेला, काहीसा लाजणारा, काहीसा काळजीत तर काहीसा खुशीत असे असंख्य आविर्भाव लपवून चेह-यावर स्मित त्याने मोठ्या शिताफीने आणले होते. आणि ते टिकवून ठेवण्याचे त्याचे प्रयत्न अत्यंत वाखाणण्याजोगे होते.  अधीरपणे तो रेल्वेची वाट पाहत उभा होता. असंख्यदा तीचा फोटो पाहूनही आणि फोनवर बोलुनही ती कशी दिसते आणि तिच्याबद्दल जाणून घेण्यासाठी तो किती उत्सुक होता.  हे ती बेचैनी स्पष्ट सांगत होती. प्रत्यक्ष भेटण्याची पहिलीच वेळ असल्याने आपण तिला  कसे सामोरे जाणार याच्या विचारात तो होता.

संपुर्ण लक्ष रेल्वेकडे असतांना त्याचा फोन वाजला परंतु त्याचं लक्ष नव्हतं. बाजूलाच जाणारी एक महिला त्याच्याजवळ थांबली आणि म्हटली “हॅलो युवर फोन इज रिंगीग ” त्याचं तिच्याकडे लक्ष गेलं. पण त्याच्या तंद्रीतून बाहेरच आला नाही. तो फक्त “हं….. ” एवढंच उत्तरला. आणि पुन्हा वाट पाहण्यात गुंग झाला. त्या महिलेला त्याचं असं वागणं आवडलं नसावं बहूतेक.  ती पुन्हा म्हटली ” हॅलो…” आणि दोनदा त्याच्याकडे, एकदा फोनकडे आणि बोटांनीच कानाला फोन सारखं करून इशारा केला. आणि निघून गेली.  तिचं असं तुच्छपणे बघणं मितला भानावर आणलं.पण त्याला त्याचा राग आला नाही. उलट आपल्या अधीरपणावर हसत त्याने स्वतःच हात मारून घेतला.  मोबाईल खिशातून काढेपर्यंत फोन वाजणं बंद झालं. त्याने दुर्लक्ष केलं आणि मोबाईल खिशात ठेवला. तेव्हा आवाज झाला ‘ यात्री कृपया ध्यान दे. गुवाहाटी से मुंबई आनेवाली गाडी कुछ ही देर मे प्लॅटफाॅर्म नं….. पर आनेवाली है. यात्रीयो से निवेदन है की…..’ आणि मित एकच सावध झाला. जेट विमान आपल्या सर्वोच्च वेगाने उडावे तसे त्याच्या काळजाची धड-धड चालू झाली. समोर पाहीलं तर गाडी स्टेशनवर प्रवेश करत होती. तशी त्याची धड-धड वाढत होती. गाडी थांबली. उतरणा-या प्रवाशांची लगबग सुरू झाली.  तसा मितही तीला शोधू  लागला.  पण ती त्याला भेटली नाही. तो निराश होऊन मागे फिरला आणि समोर पाहून अचानक थांबला .

 

(क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga in its purest form – Video #14 ☆ Shri Jagat Singh Bisht

 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

 ☆ Laughter Yoga in its purest form ☆ 

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #14

Early Morning Group Laughter in the Park:
We practice Laughter Yoga in its purest form for health, happiness and peace at the Shrinagar Extension Park, Indore every Sunday from 7.30 – 8.15 am. It’s absolutely free and all are welcome!

EVERY SUNDAY AT SHRINAGAR EXTENSION PARK, INDORE FROM 7.30 – 8.15 AM

We practice Laughter Yoga in its purest form for health, happiness and peace at the Shrinagar Extension Park, Indore every Sunday from 7.30 – 8.15 am. It’s absolutely free and all are welcome!

 

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

( अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना )

 

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ।।15।।

 

नहीं कोई कुछ जानता सब करते अनुमान

जगत्पति पुरूषोत्तम आपको ही सच ज्ञान।।15।।

      

भावार्थ :  हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! हे भूतों के ईश्वर! हे देवों के देव! हे जगत्‌के स्वामी! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं॥15॥

 

Verily, Thou Thyself knowest Thyself by Thyself, O Supreme Person, O source and  Lord of beings, O God of gods, O ruler of the world!

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 33 ☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “मैं, मैं और सिर्फ़ मैं”.  “मैं”  शब्द ही हमें हमारे हृदय में अपने आप अहं की भावना जागृत करता है। डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  ‘स्व ‘ से उठकर  ‘अन्य ‘ के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित करता है । इस आलेख का अंतिम  कथन “दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे। ” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 33☆

☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं 

 

‘कोई इंसान खुश हो सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुर्सत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखलाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।

मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन भी सदैव दोषारोपण करने को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लीन रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर आगे क्यों न बढ़ना पड़े। उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से उसे कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग मानव अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह पाते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्यों-दायित्वों का वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता।… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है, परंतु अब किसी को उसकी दरक़ार नहीं रहती।

इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर, अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस व्यूह से बाहर निकल संबंधों- सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना जाता है, उन अपनों में…अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर चलती है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम व सौहार्द की। सो! बचपन में माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की दरक़ार व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन-साथी अर्थात् केवल अपने परिवार से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा दोनों सुख- दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते। एक भाव है, तो दूसरा अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन है।

जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन से सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट आकर छूने का साहस भी नहीं जुटा पाता। वह मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और

आत्मावलोकन कर खुद में सुधार लाने की डगर पर  चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीर जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात्  पूरे संसार में उसे खुद से बुरा कोई नहीं दिखाई पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी नहीं मिलता। ऐसे लोग खुद को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।

कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर है। हां! पावों में चप्पल पहन कर चलना सुविधाजनक है। सो! समस्या का समाधान खोजिए, खुद को बदलिए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ करवाता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

मानव गल्तियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इसलिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज- संजो लीजिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी आवश्यकता ही महत्वपूर्ण है और आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जहां चाह, वहां राह… यह है, जीने का सही राह। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है, तो वह नवीन राह  ढूंढ निकालता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य मिलेगी।

हां! अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति हैं, आते-जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में दूसरा दस्तक देता है। इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग देंगे तथा खुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए नदारद हो जाएंगे। इसलिए परखिए नहीं, समझिए… यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगे, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना होती है। जब वे सामान्य लोगों की नज़रों का कांटा बन खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते जाना चाहिए।

ज़िंदगी हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं ज़िंदगी का सफ़र सुहाना है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल नहीं पा लेते तथा मन में केवल एक विचार रखो… तुम जो पाना चाहते हो, उसे हर दिन दोहराओ। अंत में उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयासरत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके अंतर्मन में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म अनुकरणीय है। आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव है, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिलवा कर सुक़ून पाते हैं। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆

 

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन,असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म,पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 33 ☆ होना नहीं उदास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद रचना ‘होना नहीं उदास ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 33 – साहित्य निकुंज ☆

☆ होना नहीं उदास 

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी, पथिक तुम्हारे पास।

पहले पहल कदम रखने पर

गिरते हैं इंसान ।

धीरे-धीरे होती जाती

हिम्मत से पहचान ।।

हिम्मतवाले पांव मचलते, चलता रहे प्रयास।

पांव चूमकर कंकर कांटे

मांगेंगे वरदान।

वैष्णवता की लाज बचाने

कर देना एहसान ।।

आज सभी कुछ मिल सकता है, मिले नहीं विश्वास।

उल्टे सीधे बढ़ते जाना

जिनको नहीं कुबूल।

जाहिर है उनके होते हैं

अपने सिद्ध उसूल ।।

किसी तरह कुछ पा जाने को कहते नहीं विकास।

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी पथिक तुम्हारे पास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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