श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 33 ☆
☆ शारदीयता ☆
कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।
वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।
मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।
दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है-मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।
मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है। देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।
एक प्रसंग साझा करता हूँ। देश के विभाजन के समय लाहौर से एक सिख परिवार गिरता-पड़ता दिल्ली पहुँचा। बुजुर्ग महिला, एक शादीशुदा बेटा, बहू, नन्हीं पोती और शादी की उम्र का एक कुँआरा बेटा। दिल्ली की एक मुस्लिम बस्ती में मस्जिद के पास सिर छुपाने को जगह मिली। बुजुर्ग महिला जब तक लाहौर में थी, रोजाना पास के गुरुद्वारा साहिब में मत्था टेककर आतीं, उसके बाद ही भोजन करती थीं। बेटों को माँ का यह नियम पता था पर हालात के आगे मज़बूर थे। अगली सुबह दोनों बेटे काम की तलाश में निकल गए। शाम को लौटे। बड़े बेटे ने कहा,” बीजी, मैंने पता कर लिया है। एक गुरुद्वारा है पर दूर है। थोड़े दिन यहीं से मत्था टेक लो, फिर गुरुद्वारे के पास कोई मकान ढूँढ़ लेंगे।” माँ ने कहा,”मैं तो मत्था टेक आई।”..”कहाँ?”..”यह क्या पास में ही तो है”, इशारे से दिखाकर माँ ने कहा।..”पर बीजी वह तो मस्जिद है।”..”मस्जिद होगी, उनके लिए। मेरे लिए तो गुरु का घर है”, माँ ने उत्तर दिया।
देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जागृत रहे।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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