हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #34 – उम्मीदें ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “उम्मीदें”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 34 ☆

☆ उम्मीदें

लोकतंत्र का पंचवर्षीय महोत्सव पूरा हुआ. करोड़ो का सरकारी खर्च हुआ जिसके आंकड़े शायद सूचना के अधिकार के जरिये कोई भी कभी भी निकलवा सकता है, पर कई करोड़ो का खर्च पार्टियो और उम्मीदवारो ने ऐसा भी किया है जो कुछ वैसा ही है कि “घी कहां गया खिचड़ी में..” व्यय के इस सर्वमान्य सत्य को जानते हुये भी हम अनजान बने रहना चाहते है. शायद यही “हिडन एक्सपेंडीचर”  राजनीति की लोकप्रियता का कारण भी है. सैक्स के बाद यदि कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. अधिकांश उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय घोषित कर चुके हैं, वह हमसे छिपी नही है. एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है, वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि- आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है? क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है? मेरे तो बच्चे और पत्नी तक मेरे ऐसे ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है, राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादाद में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में. इसका अर्थ तो यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं, जिसे मेरे जैसी मूढ़ बुद्धि समझ नही पा रहे.

तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते.  देश ही नही दुनिया भर में हमारे ‘रामभरोसे’ की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. ‘रामभरोसे’ के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से कर रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करता हूं. हर बार बेचारा ‘रामभरोसे’ ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है ‘रामभरोसे’, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर ‘रामभरोसे’ का सपना हर बार टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है. नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं, जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला ‘रामभरोसे’ पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है. मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छवियाँ होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में ‘रामभरोसे’ के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल ‘रामभरोसे’ के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं ‘रामभरोसे’ के खर्चे पर. वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है. तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है. नई सरकार से मेरी यही उम्मीद है कि, और शायद यही ‘रामभरोसे’ की भी उम्मीद होगी कि पिछली सरकारो के गड़े मुर्दे उखाड़ने में अपना श्रम, समय और शक्ति व्यर्थ करने के बजाय सरकार कुछ रचनात्मक करे. कागजो पर कानूनी परिवर्तन ही नही समाज में और लोगो के जन जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाने के प्रयास हों.

केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस हो. सरकार से हमें केवल देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें ही तो हैं, और क्या?

© अनुभा श्रीवास्तव्

image_print

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – ☆ Laughter Meditation – Video #2 ☆ – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

 ☆ Laughter Meditation  ☆ 

Have you ever had the experience of laughter meditation?

It is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have. But you have to experience it yourself. It is a mystery. It cannot be told in words by anyone to you.

When you laugh, you forget the past. You can’t bother about the future. And, you are oblivious of the surroundings. Laughter starts to flow like a fountain. There is no laugher, it’s only laughter. The laugher mingles with laughter and they become one. It is something Divine. It is pure and pristine bliss. The mind becomes serene and radiant like the full moon.

I have got my deepest fulfilment while conducting laughter meditation. The participants feel cathartic and fully liberated. All the pain and agony has gone. It feels so good and light. There is no trace of physical, mental or emotional stress anywhere near. Every molecule of the universe is tranquil. All the blockages are cleared. Consciousness flows happily and freely. You become a part of the joyous cosmic dance. A Sufi inside you starts singing the most enchanting melodies.

Laughter opens a beautiful door to transcendence.

Laughter meditation is a state of no mind. Complete mindlessness. But it is total existence. You have a feel of totality for the first time. It is a paradise that you can create on your own. Anytime, anywhere.

According to Dr Madan Kataria, the founder of laughter yoga, “Laughter meditation is the purest kind of laughter and a very cathartic experience that opens up the layers of your subconscious mind and you will experience laughter from deep within.”

In some of the Zen monasteries, every monk has to start his morning with laughter, and has to end his night with laughter – the first and the last thing every day. Says Osho, “If you become silent after your laughter, one day you will feel God also laughing, you will hear the whole existence laughing – trees and stones and stars with you!”

I recommend laughter meditation for all those who face a lot of stress at the workplace. It is also beneficial for students and homemakers.

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #2

 

LAUGHTER MEDITATION SEQUENCE

GENTLE WARM UP – hoho haha

PENDULUM BREATHING – aaa ha ha haaa

VOWEL BREATHING & LAUGHTER – a e i o u

ALOHA BREATHING & LAUGHTER – alo o o ha ha haaaa

GIBBERISH

LAUGHTER MEDITATION

HUMMING – hummm

CLOSING RITUAL – hoho haha (4 times), aa hahahaaa (3 times)

 

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer
Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (1) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

( विभूति योग)

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ।।1।।

 

श्री भगवान ने कहा –

महाबाहु सुन फिर मेरा अनुपम आप्त विचार

जो मैं तेरे भले को बतलाता सुखसार।।1।।

 

भावार्थ :  श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा।।1।।

 

Again, O mighty-armed Arjuna, listen to My supreme word which I shall declare to thee who art beloved, for thy welfare!।।1।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ भावना शुक्ल

श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी, डॉ मुक्त जी, श्री अ कीर्तिवर्धन जी एवं डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  डॉ भावना शुक्ल जी की कलम से। मैं  डॉ भावना शुक्ल जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। साहित्यिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी  श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ जी हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  – डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) 

जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्य साधक स्व। माणिकलाल चौरसिया के पुत्र, कवि स्व.जवाहरलाल ‘तरुण’ के अनुज स्वनाम धन्य श्री कृष्ण कुमार पथिक ने विरासत को सहेजा सँवारा और बढ़ाया है।

5 मई 1937 को जन्मे श्री पथिक जी ने साहित्य विशारद और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन कार्य किया और सेवा निर्वृत हुए.

श्री पथिक जी ने सन 1960 के आसपास काव्य रचना प्रारंभ की और अपने विशिष्ट कृतित्व के कारण उन्हें मान्यता और प्रतिष्ठा मिलती चली गई स्थानीय पत्रों के अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं और आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई. जिन संकलनों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई हैं उनमे  सर्वश्रेष्ठ विरह गीत (संपादक नीरज जी), हिन्दी के मनमोहक गीत (संपादक विराट), युद्धों का आव्हान (डॉ सुमित्र), मिलन के कवि, चेतना के स्वर, स्वप्न गीत, मधु श्रंगार, मानसरोवर, प्रेम गीत, काव्यांजलि, पहरुए जाग उठे आदि.

भावुकता और बतरस के धनी श्री पथिक जी के संदर्भ में उनके काव्य ग्रंथ में कितना सटीक परिचय दिया गया है-

“काव्य की अराजकता के युग में भी पथिक ने अपने को छंदानुशासित रखा है जो उसकी परंपरा प्रियता और काव्य सामर्थ्य का प्रतीक है। पूजा और प्यार के इस  गायक ने राष्ट्रीय भाव भूमि को भी स्पष्ट किया है।

पथिक जी का कुल कृतित्व परिमाण और गुणवत्ता की दृष्टि से विस्मय जनक है। प्रदेश की प्रतिभाओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करने वाली दृष्टि पथिक का विस्मरण नहीं कर पाएगी।”

पथिक के गीत—-

वास्तव में श्री पथिक जी के कव्योन्मेष में छंदों के लिए अपरिचित लय ताल और शब्दों के नए संगीत सम्बंधों की गर्माहट मिलती है। जीवंत भाषा के व्यावहारिक स्वरूप को ग्रहण कर काव्य भाषा की ताजगी को संजोने का अविकल लगाओ भी मिलता है। कवि की व्यापक दृष्टि होने से उसमें शिल्प की समृद्धता भी परिलक्षित होती है। पथिक ने अपनी समस्त अनुभूति और प्रेरणा की पूंजी लेकर छंदों की अराजकता और विश्रंखलता के युग में सुलझेपन से सुगठित छंद विधान अपनाकर एक प्रौढ़ और विचारशील कवि व्यक्तित्व का प्रभावी परिचय दिया है। अभिव्यक्ति की अकुलाहट और नए अर्थ के लिए आंतरिक छटपटाहट ने इनके गीतों को ग्राह्य बना दिया है।

पथिक जी के गीतों में हमें संगमरमर शिल्प सौंदर्य के बीच प्रवाहित नर्मदा को चंचल किंतु संयमित धारा का श्रुतिमधुरनाद नयन मोहक रूप जाल और हृदयस्पर्शी भावोद्रेक भी मिलता है

 

” चरण चिह्न मिट चले चांद के

डूब चले हैं कलश किरण के

धूल प्रतिष्ठित हुई जहाँ कल

चर्चित थे चर्चे चंदन के.

मधुबन में पतझड़ ठहरा है

फूल खिलाओ हरसिंगार के.”

 

उपर्युक्त पद में अनुप्रास एक आनंद के साथ भावानुकूल भाषा प्रवाह भी है। बोधगम्यता है शब्दों में नगीनो-सा कसाव है।

पथिक जी ने काव्य और कथाओं को टकसाली सौंदर्य देने वाली मुहावरा बंदी का प्रयोग भी किया है।

 

” यात्रा जीवन की लंबी है

पांव थके पग दो पग चल के

उमरें अपावन, पावन कैसे

बोलो बिन गंगाजल के

भौतिक भ्रम पग-पग गहरा है

द्वार दिखाओ हरिद्वार के

अंधकार बेहद गहरा है

दीप जलाओ मीत प्यार के.”

 

सौंदर्य के प्रति अनुराग, तद्जन्य मानसिक तनाव और रूप आकर्षण के प्रति लगाव, पथिक जी की अभिव्यक्ति को सहज और विशिष्ट बनाते हैं।

 

“आह की अदालत में हारा यह मन

कुर्क किया अपनों ने अपना ही धन

 

काजल की कथा लिखी

हुई बड़ी भूल

प्रीति की पराजय पर

हंस पड़े बबूल

कदमों की कांवर को

कांधों पर लाद

यात्रा तय कर लेंगे

तुमको कर याद

तुमने जो दर्द दिया

मन को कुबूल

प्रीति की पराजय पर

हंस पड़े बबूल, ”

 

यहाँ “आह की अदालत” और “कसमों की कांवर” जैसे नए प्रतीक कवि की सूझबूझ के परिचायक है।

कवि नए अर्थों का अन्वेषी है। अछूती कल्पना की भाव भूमि को सफलता से मोड़ता चलता है ताकि कविता का पौधा पुष्टता ग्रहण करें। पीड़ा को धंधा मिले। प्यार में पूजा भाव की प्रतिष्ठा कर कवि अपनी उदात्त भावना का परिचय देता है।

 

” रास रंग राहों में,

नीलमी निगाहों में

गौर वर्ण हाथों पर

मेहंदी की छांहों में

हमने भाषा प्रणाम तेरा है।”

 

आज के यांत्रिक युग में जबकि व्यक्ति अपने सम्बंध विसर्जित करता जा रहा है गीतकार सम्बंधों की गंगा को शीश झुका रहा है।

 

“मन में फर्क ज़रा भी आए

ऐसी कोई बात न करना

अपनी रजत मयी पूनम पर

कभी अंधेरी रात न करना

परिचय से सम्बंध बड़े हैं

सम्बंधों को शीश झुकाना”

 

एक ओर तो कभी सम्बंधों को स्थिर रखने पर बल दे रहा है, दूसरी ओर वह यथार्थ परक दृष्टि भी रखता है…

 

“ठीक वहीं पर मन फटता है

वर्षों के सम्बंध टूटते

पीछे ने निबंध छूटते

आपस के झगड़े में तेरे

अपने ही आनंद लूटते

मान प्रतिष्ठा का घटता है

सौदा जिधर ग़लत पटता है।”

 

परिचय और प्रीति ही तो जीवन की शक्ति है। यदि यह दोनों को कुहासे से घिर जाएँ तब कभी यही कहेगा…

 

“हमने तो परिचय पाले पर तुमने भुला दिए

तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए

याद याद न रही

भ्रम में ऐसे भटक गए

रंग चुनरिया के कांटो

में जाकर अटक गए

बदले कौन जन्म के तुमने मुझसे भांजा लिए

तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए.”

 

कवि पथिक की आंखों में सपने हैं किंतु यथार्थ से जुड़े हैं। कवि ने जीवन को संपूर्णता के साथ स्वीकार किया है।

 

“जीवन जो भी जिया उसे स्वीकार किया

बिखरे बिंब दरकते दर्पण

और अधूरे नेह समर्पण

तुमने जो दे दिया उसे स्वीकार किया

चंदन द्वारे वंदन वारे

सारी खुशियाँ नाम तुम्हारे

मुझे मिला मर्सिया, उसे स्वीकार किया

पाषाणों का स्वर अपनाया

तुमने मेरे द्वार बनाया

जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर

खंडित एक सांतिया, उसे स्वीकार किया

जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर

तुमने सारे रंग भर दिए

छोड़ दिया हाशिया, उसे स्वीकार किया।”

 

जीवन को नया मोड़ देने की आकांक्षा रखने वाला कवि, गहराई से चिंतन करता है और निष्कर्ष देता है…

 

“ज्योति यह कब तक जलेगी यह न सोचें

तिमिर भरते चलें हम

*

जब तलक यह उजाला है

दूरियों को पार करने

उम्र की क्षणिका अनिश्चित

बात हम दो चार कर ले

यात्रा कब तक चलेगी यह न सोचें

पाव भर धरते चलें हम …

 

पंडित श्रीबाल पांडे जी के शब्दों में “पथिक जी के गीत उन पहाड़ी स्रोतों के समान प्रवाहित होते हैं जिनके पत्थरों के दिल भी पसीजे रहते हैं। उनके गीत बंजारों की मस्ती और अंगारों की तड़पन लिए रहते हैं।”

विगत दिवस जबलपुर में पथिक जी के गीत संग्रह “पीर दरके दर्पणों की” का विमोचन हुआ। अतः यह स्पष्ट है की इनकी लेखनी आज भी गतिमान है हम इनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

C – 904 प्रतीक लॉरेल, नोएडा (यूपी) पिन 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 34☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मोबाइल और उत्सुकता का अन्त‘ हमें  सूचना क्रान्ति  के साथ ही हमारे जीवन में उसके प्रभाव और उनसे सम्बंधित परिवर्तन पर दिव्य दृष्टि डालता है। डॉ परिहार जी ने इस बार मोबाईल  क्रान्ति के सूचना विस्फोट पर गहन शोध किया है। संभवतः डॉ परिहार जी के मस्तिष्क में मोबाईल पर सोशल मीडिया विस्फोट  विषय पर  भी निश्चित ही कुछ न कुछ तो चल ही रहा होगा । डॉ परिहार जी एवं हमारी समवयस्क पीढ़ी ने अब तक की जो सूचना क्रान्ति देखी है उसकी कल्पना भी नवीन और आने वाले पीढ़ियां नहीं कर सकती। ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 34 ☆

☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त ☆

यह सूचना-विस्फोट का युग है। जिधर देखिए, धाँय धाँय सूचना के बम फूट रहे हैं। कुछ भी पोशीदा, कुछ भी अज्ञात नहीं रहा। मीडिया के खबरची और कैमरामेन सब तरफ बौराए से दौड़ते रहते हैं—-ड्राइंगरूम से बेडरूम तक, धरती से आकाश तक, गुलशन से सहरा तक। सूचना-तन्तु चौबीस घंटे घनघनाते रहते हैं।

मोबाइल आने के बाद लगता है, आदमी सामान्य नहीं रहा। जो बातें करना कतई ज़रूरी नहीं,वे भी होती रहती हैं क्योंकि मोबाइल को थोड़ी थोड़ी देर में मुँह और कान से चिपकाये बिना चैन नहीं पड़ता। ‘क्यों भैया, उठ गये? नाश्ता हो गया? कल शाम कहाँ थे? और क्या हाल है? आज क्या प्रोग्राम है?’

एक दिन एक सज्जन मेरे घर के सामने सड़क पर इधर से उधर घूमते और अपने आप से ज़ोर ज़ोर से बातें करते दिखे। मैं समझा दिमाग़ से कमज़ोर होंगे। फिर ग़ौर किया तो देखा वे कान से मोबाइल चिपकाये थे। कई लोग दूर से ऐसे दिखते हैं जैसे कान पर हाथ धर कर कोई सुर साध रहे हों, लेकिन पास जाने पर पता चलता है कि मोबाइल पर बात कर रहे हैं।

ऐसे ही एक बार ट्रेन में एक अनुभव हुआ। एक महिला सबेरे उठते ही मोबाइल लेकर ऊँचे स्वर में शुरू हो गयीं। उन्होंने एक एक कर दूर घर में बैठे सब बच्चों की कैफियत ले डाली। पहले चुन्नू को बुलाया, फिर मुन्नू, टुन्नू, पुन्नू और चुन्नी को भी।  ‘नहा लिया?’ ‘नाश्ता कर लिया?’ ‘स्कूल क्यों नहीं गये?’ ‘आपस में लड़ना मत’, ‘ठीक से रहना’—–रिकॉर्ड जो चालू हुआ तो रुकने का नाम नहीं। ट्रेन की खटर पटर उनकी बुलन्द आवाज़ में दब गयी। सुनते सुनते दिमाग काठ हो गया, लेकिन उनकी हिदायतें चालू रहीं।

मोबाइल ने जीवन से उत्सुकता और संशय का अन्त कर दिया। अब सब कुछ उघड़ा उघड़ा, खुला खुला है। अनुमान और कयास लगाने को कुछ नहीं बचा। लेकिन मुश्किल यह है कि ज़िन्दगी श्याम-श्वेत, सुख-दुख, प्रेम-द्वेष, भय-निश्चिंतता, हर्ष-विषाद का मिला-जुला पैकेज होती है। आदमी की ज़िन्दगी में सुख ही सुख हो तो उबासियाँ आने लगती हैं। मेरे एक मित्र के संबंधी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में सब कुछ उपलब्ध था, करने को कुछ नहीं था। इसीलिए बहुत से लक्ष्मीपुत्र सुकून और सार्थकता की तलाश में इधर उधर भटकते दिखायी पड़ते हैं। अपने देश में चैन नहीं मिलता तो भारत का रुख करते हैं।

पहले बहुत सा वक्त दूर बैठे मित्रों-संबंधियों की चिन्ता में गुज़र जाता था। चिट्ठी चलती थी तो घूमती घामती बहुत दिनों में किनारे लगती थी। टेलीफोन दुर्लभ था। टेलीफोन के दफ्तरों से ट्रंककॉल होता था जिसके लिए घंटों लाइन लगानी पड़ती थी।

ऐसे में अज़ीज़ों की चिन्ता करने और उनके लिए दुआएं करने के सिवा और कुछ नहीं रह जाता था। अब सूचना का ऐसा आक्रमण है कि मिनट मिनट की सूचना मिल रही है। लेकिन सूचना की उपयोगिता तभी है जब आदमी कुछ कर सके। यदि कहीं किसी संबंधी का आपरेशन चल रहा है तो सूचना मिलने पर हज़ार मील दूर बैठे लोग पूरे समय बदहवास तो हो सकते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इससे बेहतर तो यह है कि जब आपरेशन हो जाए तभी कुशल मंगल का समाचार मिले।

ऐसा नहीं है कि सूचना से भला ही होता है। बहुत सी बातें पोशीदा, ढकी-मुँदी रहना ही बेहतर होती है। कई ज़िन्दगियाँ मुगा़लतों में कट जाती हैं, यदि हकीकत सामने आ जाए तो बर्दाश्त न हो। तीस-पैंतीस साल पुरानी प्रेमिका अगर अब अचानक सामने आ जाए तो भूतपूर्व प्रेमी को बिजली का झटका लगेगा। पैंतीस साल से सहेजी दिलकश छवि चूर चूर हो जाएगी। इसलिए अब उनका दीदार न हो तो भला।

मोपासां की एक कहानी है जिसमें पत्नी बहुत से गहने खरीदती है और पति के पूछने पर समझाती है कि वे गहने नकली और सस्ते हैं। पत्नी की अचानक मृत्यु हो जाने पर पति उन गहनों की जाँच कराता है और पता चलता है कि गहने असली और बहुमूल्य हैं। यह खुलासा होने पर पति का भ्रम और पत्नी की छवि कैसे टूटती है यह समझा जा सकता है।

लेकिन अब मुगा़लतों, भ्रमों की कोई गुंजाइश नहीं है। सब कुछ सूचना के दायरे में है। अब फिल्मों में हीरोइन यह गीत नहीं गाएगी—‘तुम न जाने किस जहाँ में खो गये’ या ‘बता दे कोई कौन गली गये श्याम’। अब श्याम जहाँ भी होंगे, पाँच मिनट में मोबाइल के मार्फत ढूँढ़ लिये जाएंगे।

मोबाइल के माध्यम से अब घर में आगन्तुक की इतनी सूचना आ जाती है कि उसके आने का कुछ मज़ा ही नहीं रहता। दिल्ली से बैठते हैं तो मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झाँसी से फोन करते रहते हैं, यहाँ तक कि सुनने वाला परेशान हो जाता है। आखिरी फोन आने पर जब घरवाले पूछते हैं, ‘कहाँ तक पहुँचे भैया?’ तो जवाब मिलता है, ‘आपके गेट पर खड़े हैं।’ अब ऐसे मेहमान का आना क्या और न आना क्या।

इसमें शक नहीं कि सूचना-क्रांति ने बहुत सी जगहें भर दीं, बहुत से शून्य पाट दिये, लेकिन साथ ही साथ इंतज़ार, संशय और रोमांच के जो क्षण खाली हुए हैं वे कैसे भरे जाएंगे, इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #32 ☆ भवसागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 32 ☆

☆ भवसागर  ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ें लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाइवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं।  जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का  आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई
मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में जीव को मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11.05 बजे, 22.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ  समय समय पर उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।  कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया । इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है उनका विशेष आलेख ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन’. )

☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन

कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था।  सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी अध्ययन की वैश्विक दृष्टि और इसके साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखने, पढ़ने और समझने के तरीके पर ध्यान केंद्रित करना था।  इस आयोजन ने विश्व साहित्य और हिंदी साहित्य के बीच की खाई को पाटने में अनुवाद और अनुवाद अध्ययन की भूमिका को भी संबोधित किया।

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन एक बड़ी सफलता था। एक उत्सवपूर्ण माहौल में, जहां दुनिया भर के शिक्षाविदों, साहित्यकारों और भाषाविदों को एक मंच पर एकत्रित होने का अवसर मिला। जहाँ उन्होंने अपने शोध कार्यों, बुद्धिशीलता, ज्ञान, नवीनतम विचारोँ और घटनाओं को साझा किया।

 

मुझे यह सूचित करने में सम्मान महसूस हो रहा है कि मुझे ‘भाषा और अनुवाद’  सत्र की अध्यक्षता करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके साथ ही  मुझे एक शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए भी आमंत्रित किया गया, विषय: “हिंदी-उर्दू अनुवादों के माध्यम से अंतर सांस्कृतिक संवाद”, जिसे मंच द्वारा सराहा गया।

इस “ट्रांसलेशन सेंटर” ने दुनिया भर के कई विद्वानों की मेजबानी की है, जैसे कि गैब्रिएला निक इलीवा (न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय), एडविन जेंट्ज़लर (यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट, यूएसए), जूडी वाकबायशी (केंट स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएसए), सिरी नेरगार्ड (फ्लोरेंस विश्वविद्यालय, इटली), मिलिना ब्रेटोवा (सोफिया यूनिवर्सिटी, बुल्गारिया), तोमोको किकुची, अजमल कमल के अलावा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों में हरीश त्रिवेदी, सुकृता पॉल कुमार, इंद्र नाथ चौधरी, गीता धरमराजन, रक्षंदा जलील, अशोक वाजपेयी, लीला  धर मंडलोई, अजय नावरिया, गगन गिल और अशोक चक्रधर अन्य।

 क्या कहूँ इस सम्मेलन के विषय में? विद्वानों का जमावड़ा वो भी पारिवारिक उत्सव के माहौल में… कितना प्रेम, कितना अपनत्व… शब्द कम पड़ रहे हैं आभार व्यक्त करने को… यूँ ही कुछ उद्गार  हैं आप सब के लिए… समय इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में थम सा गया है…

यादों का कारवाँ, यूँही थक कर

गुज़िश्ता पलों में थम सा गया है

न जाने क्यों, वक्त की दीवार में इक

ज़िंदा बुत की मानिंद चुन सा गया है…

इस सम्मेलन ने यह सिद्ध कर दिया कि सही चुने गए विषयों पर केंद्रित, सुरूचिपूर्ण और गरिमामय आयोजन के लिए   ईमानदारी, कर्मठता, सोच और दूरदृष्टता से हिंदी को विश्व पटल पर बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। बीज वक्तव्यों का चयन बहुत बुद्धिमत्ता और सावधानी से किया गया था और वो विषय ऐसे थे जिन में सभी की रुचि हो। समान्तर सत्रों को भी इस तरह से रखा गया था कि हर  प्रतिभागी को अपनी रुचि के अनुसार विषय मिल सकें। कई बार समान्तर सत्रों में से किसी एक को चुनना मुश्किल हो रहा था लेकिन उस से बचा नहीं जा सकता था।

सम्मेलन में समस्थ व्यवस्थाएँ पर्याप्त थीं। लेकिन भौतिक व्यवस्थाओं से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, उस के पिछी  छुपी भावनाएँ। आयोजन समिति के हर एक सदस्य और विद्यालय की हर एक छात्रा और स्वयंसेवक ने वह सब कुछ किया जो वह कर सकने में सक्षम थे और कई बार उस से कहीं अधिक भी किया।

विशेष रूप से ‘कविता फ़िल्मों का प्रदर्शन और परिचर्चा’ और अकादमिक सत्रों में संतोष चौबे जी की अध्यक्षता में ‘हिंदी और राजभाषा” पर आधारित सत्र बहुत ही अच्छे रहे।

सभी विदेशी प्रतिभागियों ने अपने उत्कृष्ट हिंदी ज्ञान से अत्यंत प्रभावित किया। सांस्कृतिक प्रोग्राम भी अत्यंत मनोरंजक और मनोहारी थे।

आयोजनकर्ताओं और संयोजकों ने एक बेहद सफल और सार्थक सम्मेलन आयोजित किया, जिसके दूरगामी और प्रभावशाली परिणाम होंगे।

 

प्रस्तुति –  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी (नौसेना मेडल) , पुणे

image_print

Please share your Post !

Shares

रंगमंच स्मृतियाँ ☆ जबलपुर में साझा रंगमंच ☆ – प्रस्तुति – श्री वसंत काशीकर एवं श्री दिनेश चौधरी

श्री वसंत काशीकर

( ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से रंगमंच स्मृतियों स्तम्भ में सहयोग के लिए  वरिष्ठ नाट्यकर्मी  एवं अग्रज श्री वसंत काशीकर जी  का हृदय से आभार। श्री वसंत काशीकर  जी को उनकी हाल ही में स्थापित की गई  कला, साहित्य  एवं संस्कृति पर आधारित संस्था ‘जिज्ञासा ‘ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। जबलपुर में साझा रंगकर्म की नींव रखने में अन्य रंगकर्म संस्थाओं के संस्थापकों में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वैचारिक मतभेदों के पश्चात इतनी रंगकर्म संस्थाओं का एक मंच पर आना एक ऐतिहासिक घटना है । इस सद्कार्य  के लिए सभी संस्थाओं को ई -अभिव्यक्ति का साधुवाद )

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।)

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री वसंत काशीकर जी एवं श्री दिनेश चौधरी जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   

– हेमन्त बावनकर

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर में साझा रंगमंच – श्री वसंत काशीकर ☆

स्थानीय रंगसंस्थाओं विवेचना रंगमंडल, समागम रंगमंडल, जिज्ञासा, रचना, विमर्श, नाट्यलोक, रंगाभरण, इलहाम, द्वारा जारी साझा वक्तव्य

“जबलपुर रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के केंद्र में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है।नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी  और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला ,साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

अरुण पांडे,वसंत काशीकर,आशीष पाठक,समर सेनगुप्ता,डॉ प्रशांत कौरव,सत्येंद्र रावत,संजय गर्ग,आयुष राय,बृजेन्द्र राजपूत,विनोद विश्वकर्मा ,आशुतोष द्विवेदी द्वारा 23 जनवरी 2020 को तरंग प्रेक्षागृह में विवेचना रंगमंडल के नाट्य समारोह रंगपरसाई 2020 के अवसर पर जारी।

 

प्रस्तुति –  श्री वसंत काशीकर, जबलपुर, मध्यप्रदेश

श्री दिनेश चौधरी

संक्षिप्त परिचय –  रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और  व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर का साझा रंगकर्म बनाम स्टेम सेल – श्री दिनेश चौधरी ☆

वैचारिक मतभेद के मूल में विचार ही होते हैं। इसका होना समाज के लिए शुभ-संकेत होता है। इसके बरक्स जहाँ विचार शून्यता होती है, वहाँ सारे फसाद अहम को लेकर होते हैं। ऐसी संस्थाएँ बहुत दिनों तक अपनी रचनात्मकता कायम नहीं रख पातीं और उन अवसरों की तलाश में होती हैं  जहाँ ‘शत्रु पक्ष’ को उखाड़ा जा सके और इस तरह उनके छद्म-अहम को खुराक मिलती रहे। यों थो बल्किड़ा-बहुत अहम होना भी कोई खराब बात नहीं होती, बशर्ते यह आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे और आत्म-सम्मान को बचाने के लिए कवच की तरह काम करे। यह मसला अलबत्ता विशुद्ध वैयक्तिक है और सामूहिक कार्यों इसके लिए कोई जगह नहीं होती।

जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है।

रंग-परसाई 2020 में प्रवीण गुँजन के नाटक “कथा” के मंचन से पहले कल जबलपुर की सभी रंग-संस्थाएं एक मंच पर एक साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। प्रतिनिधियों को आमंत्रित करते हुए आशुतोष द्विवेदी ने कहा कि यह सच है कि संस्थाएँ इस बीच टूटी भी हैं, पर उनके टूटने से नई संस्थाओं का निर्माण भी हुआ है। तो यह एक तरह से विखंडन नहीं, बल्कि विस्तार है। बात सच है। इन दिनों चिकित्सा-जगत में “स्टेम सेल थेरेपी” बहुत ज्यादा प्रचलित हो रही है और यह असाध्य रोगों को भी ठीक करने के काम आ रही है। स्टेम सेल वे कोशिकाएं होती हैं जो विखंडित होकर नई बन जातीं हैं और उन कोशिकाओं को ‘रिप्लेस’ कर देती हैं जो क्षतिग्रस्त हों। हमारे समाज में भी कई किस्म के रोग पनप रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए रंग-कोशिकाएं इन व्याधियों को दूर करने का प्रयास करेंगी।

रंग-संस्थाओं की ओर से वरिष्ठ निर्देशक वसंत काशीकर ने एक सयुंक्त-बयान जारी किया। यह बयान है:

” जबलपुर में रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है। नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला , साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

मंच को निम्न प्रतिनिधियों ने साझा किया:  विवेचना रंगमंडल-अरुण पांडे,

समागम रंगमंडल-आशीष पाठक,

जिज्ञासा- बसंत काशीकर

विमर्श –समर सेन गुप्ता

आयुध कला मंच-सत्येंद्र रावत

रंगा भरण- बृजेंद्र सिंह राजपूत

इलहाम-आयुष राय,

रंग विनोद- विनोद विश्वकर्मा

नाट्य लोक- संजय गर्ग

रंग पथिक-शुभम अर्पित

रचना – प्रशांत कौरव।

प्रस्तुति – श्री दिनेश चौधरी , जबलपुर, मध्यप्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ समय ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

( डॉ मौसमी परिहार जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  6 मार्च 1981 को संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित जिनमें महत्वपूर्ण हैं वुमन आवाज सम्मान, अटल सागर सम्मान, महादेवी सम्मान हैं। संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक। हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता ‘समय’ )   

 ☆ कविता  – समय ☆

समय ने आज पूछा…

मुझसे एक सवाल

क्यों, कैसी हो…?

क्या हैं तुम्हारे हाल….?

 

बुझी बुझी सी,

परेशानियों की

झुर्रियां लिये,

मैं देख रही थी

एक टक….,

घड़ी की सुइयों को,

 

जो हंस रही थी

मुझ पर,

मेरी  हालत पर…!!

 

समय ने कहा…

“जरा एक बार,

अतीत को झांक तो जरा,”

और उठ समेट खुद को

मुझको तो हरा…!!

 

बीते कल में,

गुजरा बहुत कुछ,

क्यों भूलूँ उन,

अहसासों को…!!

जो बीता सुखद था

सब कुछ,,, दोष

क्यों दूं..

वक्त के पहरेदारों को…!!

 

© डॉ मौसमी परिहार, भोपाल

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 19 – प्रश्न आत्मा का परमात्मा से ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ☆

 

जिस तरह चुनती हूँ मैं

पूजा के फूल अगली सुबह

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

चुनते हो आत्मा के फूल मुरझाए हुए ?

 

जिस तरह रखती हूँ मैं

बदले में उसके सुहासित पुष्प

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

बदलते हो कलेवर को ?

 

यह छोटी सी क्रिया मेरा पूजन है

कुछ अर्पण है तेरे नाम का

क्या तेरी क्रिया भी पूजन है

और ये मन्त्र है बदलाव का ?

 

जिस तरह  करती हूँ जप

रखती हूं व्रत तेरे नाम का

शेष शय्या पर लेटे हुए

या पुष्प पर बैठे हुए

क्या स्मरण तुझे मेरे नाम का ?

 

हम इस धरा के सूक्ष्म से थलचर

पृथ्वी के घ्ररूण संग फिरते है हम, हर पल

जन्म – मरण के इस चक्र में

हे देव ! क्या  रूप बदल

करते हो भ्रमण हमारे लिए ?

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

image_print

Please share your Post !

Shares