हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #31 ☆ आस्था ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 31 ☆

☆ आस्था ☆

हमारे कार्यालय में काम करनेवाली मेहरी अनेक बार कोनों में झाड़ू का तिनका डालकर कचरा निकालती है। यदि कभी जल्दी निपटाने के लिए कहा जाए तो उत्तर होता है, ‘‘मैं अपना काम खराब नहीं कर सकती, अपना नाम खराब नहीं कर सकती।”

सृष्टि का मूलाधार है आस्था।

हर युग का मनुष्य मानता है कि बीते समय की तुलना में वह आधुनिक समय में जी रहा है। आधुनिक होने की एक आधारहीन परिभाषा अनेक जन को नास्तिक होना लगती है। वस्तुतः जग में नास्तिक न कोई हुआ, न हो सकेगा।

नास्तिक भी आस्तिक शब्द में ‘न’ उपसर्ग लगाकर तैयार हुआ है। आस्तिक में मूल शब्द है- आस्था। जिस शब्द के मूल में आस्था हो, वह नकारार्थी कैसे हो सकता है?

कोई एक व्यक्ति बताइए जिसे किसी किसी भी कर्म, प्रक्रिया, सिद्धांत या व्यक्ति के प्रति आस्था न हो। परले दर्जे की कल्पना भी कर लें तो जिसमें किसीके प्रति नहीं होती, उसे भी अपने नास्तिक होने के प्रति तो आस्था होती है न!  अपने आप पर आस्था तो हर किसी को है। फिर भला वह नास्तिक कैसे हुआ?

श्रीलंकाई  प्रोफेसर कोवूर स्वयं के नास्तिक होने का ढिंढोरा पीटता था। उसका बेटा हर रविवार चर्च जाने लगा। कोवूर चिंतित हुआ। बेटे से पूछा तो उसने बताया कि चर्च में सुंदर लड़कियाँ आती हैं। कोवूर आश्वस्त हुआ। बेटे का अगला वाक्य चौंकानेवाला था। बोला,‘’सुंदर लड़कियाँ देखने से मेरा पूरा सप्ताह अच्छा बीतता है।”

विश्वास या अंधविश्वास की अंतररेखा आज चर्चा का विषय नहीं है पर सप्ताह अच्छा बीतने का यह भरोसा, आस्था का ही स्वरूप है।

मनुष्य प्रायः अगली सुबह के कामों की अग्रिम योजना बनाकर सोने जाता है। याने सुबह उठने के प्रति आस्था है। यह आस्था आस्तिकों और घोर नास्तिकों (!) दोनों में विद्यमान होती है।

सृष्टि का मूलाधार है आस्था।

भाँति-भाँति की थिएरी ऑफ ओरिजिन में अभिप्रेत स्रष्टा के अस्तित्व से सहमत होने या न होने पर तर्क हो सकता है पर खुली आँखों से दिखती सृष्टि के प्रति अनास्था संभव नहीं।

अतः कहता हूँ-‘सृष्टि में नास्तिक न कोई हुआ, न हो सकेगा।’

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ मौसाजी जैह‍िन्द ☆ – प्रस्तुति श्री दिनेश चौधरी

श्री दिनेश चौधरी

संक्षिप्त परिचय –  रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और  व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।

यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए श्री दिनेश चौधरी जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “मौसाजी जैह‍िन्द ” – श्री दिनेश चौधरी ☆

☆ निराले बुंदेली मौसाजी भावुक कर देते हैं ☆

साझा रंगमंच द्वारा विगत 16 जनवरी 2020 को  शहीद स्मारक, जबलपुर में  ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ नाटक की प्रस्तुति दी गई। साझा रंगमंच नगर के रंगकर्म क्षेत्र में नया प्रयोग व अवधारणा है। साझा रंगमंच – नगर की रंग संस्थाओं जिज्ञासा, रंगाभरण एवं इलहाम का संयुक्त प्रयास है। यह प्रयोग जबलपुर में पहली बार हुआ है, जिसमें तीन संस्थाओं के रंगकर्मियों ने संयुक्त रूप से नाट्य प्रस्तुति दी। ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ व‍ि‍ख्यात साह‍ित्यकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित बुंदेली रूपांतरण है। नाटक का बुंदेली रूपांतरण, निर्देशन और मौसाजी की मुख्य भूमिका वसंत काशीकर ने निभाई।

क्या है कहानी- मौसाजी एक अद्भुत चरित्र है, जो अपनी दुनिया में जीते हैं। वे एक गरीब बुजुर्ग ग्रामीण हैं, लेकिन उनके जीने का अंदाज़ निराला है। मौसाजी बात-बात में आज़ादी की लड़ाई में अपनी ह‍िस्सेदारी के क‍िस्से सुनाते रहते हैं। वो व‍िपन्न हैं, परन्तु उनकी बातों से महसूस होता है क‍ि वे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक हैं। प्रत्येक क‍िस्से के नायक वे स्वयं हैं। गांव वाले उनकी हालत व स्थि‍त‍ि को जानते-समझते हैं। मौसाजी ने अपना एक झूठा संसार रच लिया है। उनके हिसाब से महात्मा गांधी उनके दोस्त थे। वाइसराय जब-तब आ कर उनके चरण स्पर्श करते हैं। गांव वाले भी मौसाजी के क‍िस्से व गप्पें मजे से सुनते और यह भ्रम बनाए रखते क‍ि वे उनकी बातों को सच मानते हैं। मौसाजी के तीन पुत्र हैं, जो छोटे-मोटे काम कर गुजारा कर रहे हैं। पुत्र उनकी चिंता नहीं करते हैं, लेकिन मौसाजी हर समय उनका गुणगान करते रहते हैं। नाटक के अंत में मौसाजी के साथ एक घटना घटती है, जिससे कहानी अचानक मोड़ लेती है।

अभि‍नय व समग्र प्रस्तुति- लगभग सौ म‍िनट की अवध‍ि का ‘मौसाजी जैह‍िन्द’ बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि का नाटक है। इसके संवाद सरल व सहज बुंदेली में है, इसलिए दर्शकों को पूरे समय मज़ा देते हैं। मौसाजी व अन्य ग्रामीण परिवेश के चरित्रों एवं क‍िस्सागोई शैली के कारण नाटक देखने में अंत तक रोचकता बनी रहती है। मौसाजी की भूमिका में वसंत काशीकर ने संवेदनशील अभ‍िनय किया। वे मौसाजी के चरित्र को आत्मसात क‍िए हुए हैं। उनके बुंदेली संवाद दर्शकों को नाटक से कनेक्ट कर देते हैं। नाटक में नमन म‍िश्रा  की थानेदार के रूप में न‍िभाई गई भूमिका अभ‍िनय व भाव भंगिमा के कारण आकर्ष‍ित करती है। अन्य भूमिकाओं में आयुष राय, शोभा उरकड़े, निम‍िषा नामदेव, ब्रजेन्द्र स‍िंह, शुभम जैन, तरूण ठाकुर, आयुष राठौर, अर्पित तिवारी, संदीप धानुक, लोकेश यादव, अमन म‍िश्रा और ह‍िमांशु पटैल न्याय करते हैुं और नाटक की गति को बढ़ाते हैं।

बैक स्टेज- मौसाजी जैह‍िन्द में अक्षय ठाकुर की प्रकाश परिकल्पना और न‍िमि‍ष माहेश्वरी का संगीत नाटक को प्रभावी बनाने में मदद करता है। मेकअप, कास्ट्यूम और सेट विषयवस्तु को समेटे हुए रहे। वैसे ही सेट की परिकल्पना रही। नाट्य प्रस्तुति में सुहैल वारसी, निम‍िष माहेश्वरी और ब्रजेन्द्र सिंह राजपूत का व‍िशेष सहयोग रहा।

☆ मौसाजी के जन्नत की हकीकत ☆

सच हमेशा सुंदर नहीं होता। अक्सर यह क्रूर या डरावने भेस में सामने आता है। जब भी कोई सपना टूटता है, हमेशा यही सामने होता है। हिंस्र पशु की तरह। डराता-चिढ़ाता हुआ-सा। यह बहुत ईर्ष्यालु होता है और इससे किसी की थोड़ी-सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती!

मौसाजी सारे जगत के मौसाजी हैं। उनका यह सम्बोधन इतना लोकप्रिय है कि उनके अपने बेटे उन्हें मौसाजी कहते हैं। बेटे उनके साथ नहीं हैं। मंच पर भी नहीं। उनका बस जिक्र आता है। दो ठीक-ठाक हैं और तीसरा आवारा है। उसकी यही आवारगी मौसाजी द्वारा निर्मित उस किले को ध्वस्त कर देती है, जो भले ही छद्म है पर उनके जीने का सहारा है।

मौसाजी क़िस्सागो हैं। बड़बोले हैं। लम्बी-लम्बी हाँकते हैं। गाँधीजी उनके बड़े नजदीकी रहे। मुख्यमंत्री से वे फोन पर ही बतिया लेते हैं। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर उनके साथ शिकार पर जाता है और बेटे की शादी में इतने बराती आए कि कुँए में ही शर्बत घोलनी पड़ी। मौसाजी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। गाँव वाले भी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। जनगणना अधिकारी को भी पता है कि मौसाजी झूठ बोल रहे हैं और अब दर्शकों को भी मालूम पड़ गया है कि मौसाजी अव्वल नम्बर के झुठल्ले हैं। पर सबकी सहानुभूति मौसाजी के साथ है। यही इस कथा की खूबसूरती है।

जैसे सच हमेशा सुंदर नहीं होता, वैसे ही झूठ की शक्ल हमेशा खराब नहीं होती। कभी-कभी ये अपनी शक्लें आपस में बदल लेते हैं। एक बूढ़ा आदमी है। अकेला है। पत्नी को गुजरे दशकों बीत चुके हैं। बेटे साथ नहीं हैं। उसने अपने लिए एक सपनों की दुनिया बुन ली है, तो किसी का क्या जाता है? वह खुश हो लेता है और गाँव वाले मजे ले लेते हैं। बस इतनी-सी बात!

खतरनाक झूठ तो वह होता है जो आंकड़ों के रूप में सरकारी फाइल में दर्ज होता है। रोटियों के लिए तरस रहे इंसान की ‘कैलोरी इंटेक” बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है। इंसान को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए रेखा को घसीटकर नीचे ले आया जाता है। यह उस लड़ाई के बाद और उसके बावजूद है, जिसका जिक्र मौसाजी बार-बार करते हैं। वे गाँधी के आखिरी आदमी से सूखी रोटी का एक टुकड़ा तक छीन लेना चाहते हैं। मौसाजी यह होने नहीं देते और उन्हें सचमुच ही जैहिन्द करने का मन करता है और थोड़े सर्द हो गए इस मौसम में उनके साथ चाय पीने का!

वसन्त काशीकर अभिनय और निर्देशन दोनों के लिए बधाई के पात्र हैं। वे सचमुच के मौसाजी लगते हैं। प्रस्तुति की डोर को कसकर थामे रहते हैं-कहीं कोई झोल नहीं। गाँव वालों के रूप में बाकी अभिनेताओं की संगत अच्छी है। सभी बेहद सहज लगते हैं, कोई बनावट नहीं।  बुंदेली में होने के कारण नाटक की रंजकता और बढ़ जाती है। सबसे दिलचस्प दृश्यों में मौसाजी और ‘डुकरो’ के बीच होनी वाली नोंक-झोंक है। “वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का एक टुकड़ा बेहद प्रभावशाली है। इसमें प्रयुक्त रोशनी भी। ‘अंधे अभिनेता’ का गला बड़ा सुरीला है।

मौसाजी दर्शकों को अपने साथ ‘कनेक्ट’ कर लेते हैं, इसलिए उनका अपमान दर्शकों को अपना अपमान लगता है। धक्का लगता है। काश की वह भरम बना रहता जो मौसाजी ने बड़े जतन से बनाया था! यह संवेदना और सह-अनुभूति ही नाटक का हासिल है।

 

मूल कथा : उदयप्रकाश

नाट्य रूपांतरण व निर्देशन : वसन्त काशीकर

मंडली : साझा रंगमंच

स्थान : शहीद स्मारक, जबलपुर

दिनांक : 16 जनवरी 20

आलेख एवं प्रस्तुति : श्री दिनेश चौधरी, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 33☆ लघुकथा – बेईमान आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज  की लघुकथ  ‘बेईमान आदमी ‘।  यह कथा ईमानदार आदमी के बेईमान बनने और बनाने की कथा  है।  कोई नौकरी के किसी पड़ाव पर बेईमान बन जाता है तो कोई पाक साफ़ नौकरी कर के रिटायर हो जाता है।  किन्तु , सुकून की जिंदगी कौन जीता है यह तो आपका अनुभव ही बताता है।  ऐसी सामाजिक  समस्या पर एक सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 33 ☆

☆ लघुकथा – बेईमान आदमी  ☆

 

गुल्लूभाई और कल्लूभाई कई दिन से दफ्तर के चक्कर काट रहे थे। मकान का नक्शा अटका था। बाबू सुनता ही नहीं था। कहता था, ‘नक्शे में नियमों का पालन नहीं हुआ है। यह पास नहीं होगा। दूसरा नियम के हिसाब से पेश करें।’

गुल्लूभाई और कल्लूभाई को यही नक्शा पास कराना है। आजकल कोई काम असंभव नहीं है। बाबू को इशारा दे चुके हैं कि उसकी सेवा का शुल्क चुकाया जाएगा। लेकिन बाबू विचित्र है ।चारा देखकर मुँह फेर लेता है। रट लगाये है, ‘दूसरा नक्शा पेश कीजिए।’

दोनों भाई दफ्तर के दूसरे लोगों से बात करते हैं तो जवाब मिलता है, ‘नया लड़का है। किसी की नहीं सुनता। उसूल बताता है। टाइम लगेगा। लाइन पर आ जाएगा।’

गुल्लूभाई कल्लूभाई दुनियादार आदमी हैं। पैसे की ताकत जानते हैं, इसलिए हिम्मत नहीं हारते। बार बार बाबू के सामने प्रलोभन लटकाते हैं। भरोसा है कि मज़बूत से मज़बूत दीवार भी बार बार की चोट से दरक जाती है।

गुल्लूभाई कल्लूभाई हर बार बाबू को ऊँच नीच समझाते हैं। समझाते हैं कि ईमानदारी अनेक कष्टों की जननी है, कि ईमानदारी से अन्ततः पछतावे के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता।

गुल्लूभाई कल्लूभाई देखते हैं कि उनकी बातों का असर हो रहा है। बाबू का प्रतिरोध धीरे धीरे कमज़ोर हो रहा है। आवाज़ में पहले जैसा दम नहीं रहा।

तापमान अनुकूल पाकर एक दिन गुल्लूभाई कुछ नोट बाबू के हाथ में खोंस देते हैं। प्यार से कहते हैं, ‘भैया, इसे रिश्वत मत समझना। यह आपके लिए हमारा आशीर्वाद है।’

बाबू झिझकते हुए नोट दबा लेता है। कहता है, ‘ठीक है। दो तीन दिन में आ जाइएगा। आपका काम हो जाएगा।’

बाहर निकलकर गुल्लूभाई कल्लूभाई के हाथ पर हाथ मारते हैं। कहते हैं, ‘मैंने कहा था न, कि सब ईमानदारी का ढोंग करते हैं। भीतर से साले सब बेईमान होते हैं।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 18 – महानगर में घर ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है महानगरीय जीवन पर आधारित एक  सार्थक  रचना ‘महानगर में घर ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 18  – विशाखा की नज़र से

☆ महानगर में घर  ☆

 

महानगरीय घरों में ,

बस एक दीवार का पर्दा है

उसके घर के कंपन से

मेरा घर हिलता है …

 

महानगरीय घरों में

बाहर का कोलाहल घर मे बसर करता है

वाहनों का शोर ही जब -तब

गजर का काम करता है ..

 

महानगरीय घरों में

खिड़कीयों ने अपना का कार्य तजा है

मन की तरह उनको भी

मोटे परदों से ढका है …

 

महानगरीय घरों में किसने

सूर्य उदय – अस्त देखा है

पिता का घर से जाना और लौटना ही

दिन – रात का सूचक होता है

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ फुले विद्यापीठ  .. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आज प्रस्तुत है भारत वर्ष में स्त्री शिक्षा में क्रान्ति लाने वाली महान स्त्री शक्ति  सावित्री बाई फुले पर आधारित उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति फुले विद्यापीठ  .. . . . !  )

 ☆ फुले विद्यापीठ  .. . . . !  ☆

(श्री विजय सातपुते जी की फेसबुक वाल से साभार )

तव्यावर भाकर भाजता भाजता

ज्योतिबाच्या इच्छेखातर,

गिरवाया शिकली  अक्षर

कधी पिठात. .  तर कधी. . धूळपाटिवर. . . !

लिवाय शिकली. . .  वाचाय शिकली,

तवा उमगलं माता सावित्रीला ..

या समाजानं अज्ञानाच्या चुलाण्यावर

रांधलेला रूढी परंपरेचा तवा .. .

तापायला नगं . . .  तळपायला हवा. . . !

बाईवर लादलेली ,  पिढ्या पिढ्यांची . .

वर्तुळाकार बंधन  . . . तिची तिनच मोडाया हवी. !

चूल नी मूल, यात गुतलेली बाई

परीघाच्या बाहेर पडायला हवी.

भाकर थापणारी बाई , साक्षर व्हायला हवी.

अशी सोत्ता साक्षर झालेली साऊ, घरा घरात पोचली.

तिच्या भाषणातून बोलायची ती.. .

”बाई तुझी दोन घर हाईत . .

एक मनातलं… आन् दुसर जनातलं . . . !

जनातल्या घरासाठीच जलमते तू . . .

आन् घरातल्या घरातच मरतेस तू. . . . !

पर बाई , तुझ्या काळजातल्या घराचं काय ?

त्याला बी गरज हाय . . . अन्नाची नाय ज्ञानाची .

गरज हाय आता, घराच घरपण राखायची. . . !

बाई तू फकस्त ‘बाई ‘ नाय ‘बाईमाणूस ‘ हाय.

आता बायांनो, चुलीतला जाळ नाय

मनातला जाळ फुलवायचा. . . !

निस्ती बाई नाय, बाईमाणूस जगवायचा . . . !

आता एकटीने नाय,एक जुटीन संसार रांधायचा. . . !

काळ्या पाटीचा चौकोनी तवा

माणूस वाचत गिरवायचा …!”

घरातल्या बाईला साक्षर करीत

घर जिवंत ठेवणार्‍या, भाकरीच्या पिठात

माता सावित्रीने, ज्ञानाचं पीठ पेरलं.

अडाण्याला ज्ञान दिलं ,विचारांच दान दिलं .

तवापासून बाईमाणसाला , शिक्षण क्षेत्र खुलं झालं.

समाजात प्रगती झाली, शिक्षणात क्रांती झाली.

म्हणूनच विद्येच्या माहेरी, या पुण्यात,

पुणे विद्यापीठाचं , फुले विद्यापीठ झालं .

माता सावित्रीचं ,  ‘फुले विद्यापीठ ‘ झालं. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 7 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 7 – नशे का जहर☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अपने पूर्वाध जीवनवृत्त में किस प्रकार ससुराल में पगली विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए जीवन यापन कर रही थी। उसके दिन फाकाकशी में कट रहे थे। अब आगे पढ़े—–)

ठंडा मौसम, सर्द गहराती रात के साथ शराब के ठेके पर नशे के प्रति दीवानगी का आलम।  पीने पिलाने वालों की बढ़ती संख्या देख ऐसा लगा जैसे शहद के छत्ते में मधु का पान करने हेतु मधुमक्खियों का समूह उमड़ा पड़ रहा हो।  वो बोतलें नहीं सारा ठेका ही पी जाने के चक्कर में हों।

उन्ही लोगों के बीच सबसे अलग थलग बैठे पगली के पति, के हलक में शराब का पहला प्याला उतरा, शराब की तलब थोड़ी कम हुई, तो उसकी सोई आत्मा जाग उठी, उसे पत्नी के  प्रति प्रेम तथा पुत्र की ममता कचोटनें लगी।

उसे बार बार उस बोतल में हताश पगली तथा उदास गौतम का चेहरा नाचता दिखाई देने लगा था, जिसमे उनकी बेबसी तथा पीड़ा झांक रही थी।  जिसे देखते ही उसकी आंखों से चंन्द बूंदें आंसुओं की छलक पड़ीं और उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कार उठी थी । उसने आज आखिरी बार शराब पीकर फिर कभी  राब को हाथ न लगाने की कसमें खाई थी।  वह नशे के सैलाब मे डूब कर मर  जाना चाहा था और शायद होनी को यही  मंजूर था।  हुआ भी यही।

उस दिन शराब के नशे में नाचते गाते लोग एकाएक गिरकर तड़पते हाथ पैर पीटते रोते नजर आ रहे थे।  उन्ही लोगों में एक पगली का पति भी था जो मदहोश हो नाचते हुए गिर पड़ था तथा तड़पते हुए मौत को सामने खड़ी देख रोते हुए गिड़गिड़ा उठा था। जान बचाने की गुहार लगा रहा था।  वह अब भी जमीन पर पड़ा हाथ पाँव पीटे जा रहा था।  देखते ही  देखते ठेके पर  भगदड़ मच गई थी।

ठेकेदार ठेका बंद कर भूमिगत हो गया था और शराब के जहरीले होने का सबको पता चल चुका था।

उस दिन  उस जहरीली शराब से सैकडो लोग मरे थे। कुछ लोग अब भी अस्पतालों में पड़े पड़े  अपनी मौत से जिन्दगी की जंग जीतने की चाहत में मौत से संघर्ष कर रहे थे। उनकी आंखों में मौत का खौफ  साफ  देखा जा सकता था सारा प्रशासनिक अमला अपराधियों के  पकड़ने का नाटक कर रहा था।  जगह  जगह छापेमारी। चल रही थी। उन मौत के सौदागरों को  जमीन खा गई अथवा आसमान निगल गया पता नही।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -8 –  अंत्येष्टि

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 7 ☆ उड़ता पंछी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता उड़ता पंछी । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #7 ☆ उड़ता पंछी 

 

मै उड़ता पंछी हूँ आसमान का,

मुझे पिंजरे में ना बांधों,

जीने दो मुझे खुल के,

रिवाज़ो की न दुहाई दो,

जीना है अपने तरीको से,

अपनी सोच की न अगवाई दो,

रहने दो कहना सुनना,

साथ रहने की सच्चाई दो,

जी लिया बहुत सिसक-सिसक के,

अब हंसने की फरमाईश दो,

अपने पर जो रखे थे समेट के,

उन्हें आसमा में फैलाने की बधाई दो,

सिर्फ अपनी परछाई नहीं,

साथ चलने के हक़ की स्वीकृति दो,

ना तुम ना मैं की लड़ाई,

“हम” बने रहने का आगाज़ दो,

मै उड़ता पंछी हूँ आसमान का,

मुझे पिंजरे में ना बांधों  . . .. . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा )

 

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌।।27।।

 

जो करता जो जीमता करता तप या दान

कर अर्पण मुझको हवन होकर निराभिमान।।27।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।।27।।

 

Whatever thou doest, whatever thou eatest, whatever thou offerest in sacrifice, whatever thou givest, whatever thou practiseth as austerity, O Arjuna, do it as an offering unto Me!।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “मौन”  as  ☆ Silence☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

☆ संजय दृष्टि  – मौन

 

जब कभी

मेरा कहा आँका जाय

कहन के साथ

मेरा मौन भी बाँचा जाय।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 26 – ज्ञान और दुविधा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “ज्ञान और दुविधा।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 26 ☆

☆ ज्ञान और दुविधा

कर्मिक कारण क्या था कि भीष्म को तीरों के बिस्तर पर पीड़ित होना पड़ा? इस प्रश्न के लिए कि उन्हें इस सजा से क्यों पीड़ित होना पड़ रहा है, भले ही उन्होंने पिछले 72 जन्मों के जीवन में कोई पाप नहीं किया था, भगवान कृष्ण ने उन्हें उत्तर दिया कि उन्होंने अपने पिछले 73 वें जन्म में एक मूर्खता की थी, जब उन्होंने एक कीड़े द्वारा काटे जाने के बाद उस कीड़े के शरीर में सुईया चुभा चुभा कर उसे तड़पा तड़पा कर मारा था। वो कांटे या सुईया अब आपके लिए तीरों के बिस्तर के रूप में वापस आये हैं। 72जन्मों तक आपके पापी कर्म निष्क्रिय रहे क्योंकि इन 72जीवनों में आप एक पवित्र व्यक्ति थे, लेकिन चूंकि अब आप दुर्योधन की ओर से अर्थात अधर्म की ओर से युद्ध का भाग बन गए हैं, तो आपके संचीत कर्म (जो तीन प्रकार के कर्मों में से एक है। यह किसी के पिछले सब जन्मों के कर्मों का जमा खाता होता है जिसमे से कुछ भाग उसे उसके वर्तमान जीवन में उसे भोगना पड़ता है जिन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं), इस प्रकार 73 वें जीवन में पक गए और उनमे से उस 73 जन्म पहले किये गएपाप को भोगने के लिए जरूरी वातावरण उन्हें मिल गया।

क्या आपको पता है की भीष्म का जन्म भी एक अभिशाप के कारण ही था।

एक बार ‘द्यौ’ नामक वसु ने अन्य साथ सात वसुओं के साथ वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु (अर्थ :सर्वश्रेष्ठ खुशी) का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यौ से कहा कि ऐसा कार्य तो मनुष्य करते हैं इसलिए तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएंगे, लेकिन इस ‘द्यौ’ को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी।

यह सुनकर वसुओं ने गंगाजी के पास जाकर उन्हें वशिष्ठजी के शाप को विस्तार से बताया और यह प्रार्थना की कि ‘आप मृत्युलोक में अवतार लेकर हमें गर्भ में धारण करें और ज्यों ही हम जन्म लें, हमें पानी में डुबो दें। इस तरह हम सभी जल्दी से मुक्त हो जाएंगे’ गंगा माता ने स्वीकार कर लिया और वे युक्तिपूर्वक शाँतनु राजा की पत्नी बन गईं और शाँतनु से वचन भी ले लिया। शाँतनु से गंगा के गर्भ में पहले जो 7 पुत्र पैदा हुए थे उन्हें उत्पन्न होते ही गंगाजी ने पानी में डुबो दिया जिससे 7 वसु तो मुक्त हो गए लेकिन 8वें में शाँतनु ने गंगा को रोककर इसका कारण जानना चाहा।गंगाजी ने राजा की बात मानकर वसुओं को वशिष्ठ के शाप का सब हाल कह सुनाया। राजा ने उस 8वें पुत्र को डुबोने नहीं दिया और इस वचनभंगता के कारण गंगा 8वें पुत्र को शाँतनु कोसौंपकर अंतर्ध्यान हो गईं। यही बालक ‘द्यौ’ नामक वसु था।

आप लोग जानते हैं कि शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण क्यों नहीं त्यागते हैं, जबकि उनका पूरा शरीर तीर से छलनी हो जाता है फिर भी वे इच्छामृत्यु के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं। भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं । भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही शरीर छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें अपने पिता शाँतनु से इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त था और वे तब तक शरीर नहीं छोड़ सकते जब तक कि वे चाहें, लेकिन 10वें दिन का सूर्य डूब चुका था। बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुँते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूँ । इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा माँगकर शरीर त्याग दिया।

 

© आशीष कुमार  

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