अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (9) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।

सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।।9।।

 

निर्धारित सब कर्म तो पार्थ कार्य रूचि साथ

फल इच्छा को त्याग कर करना ही है त्याग ।।9।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है।।9।।

Whatever obligatory  action  is  done,  O  Arjuna,  merely  because  it  ought  to  be  done, abandoning attachment and also the desire for reward, that renunciation is regarded as Sattwic!।।9।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ बेटियों से जुड़ी दो लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ बेटियों से जुड़ी दो  लघुकथायें

एक : परंपरा 

-मां , इस लोहे की पेटी को रोज रोज क्यों खोलती हो ?

– तेरी खातिर । मेरी प्यारी बच्ची ।

– मेरी खातिर ?

– तू नहीं समझेगी ।

-बता न मां ।

– जब मैं छोटी थी मेरी मां भी पेटी खोलती और बंद करती रहती थी । तब मैं भी नहीं जानती थी । क्यों ?

-मैं देखती रहती हूं कि जैसा दहेज मेरी मां ने मुझे दिया था , वैसा ही मैं तेरे लिए जुटा भी पाऊंगी ।

– छोड़ो न मां ।  मैं ब्याह ही नहीं करवाऊंगी ।

– मैं भी यही कहती थी पर शादी और दहेज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग करना मुश्किल है । मैं क्या करूं ?

 

 

एक : फासला

-अजी सुनते हो ?

-हूं , कहो ।

-आपकी बहन का संदेश आया है ।

-क्या ?

-वही पुराना राग गाया है ।

-यानी ?

-रक्षाबंधन का त्यौहार आ रहा है । आकर मिल जाओ ।

-अब शादी को इतने वर्ष हो गये । पर यह त्यौहारों पर आकर मिलने का संदेश अभी तक मिल रहा है ।

-चलो , जहां इतने वर्ष किया है , वहां इस वर्ष भी कुछ भेंट , उपहार दे आओ ।

-एक बात बताओगी ?

-पूछिए ।

-कभी हम अपनी बहन को मिलने बिना उपहार के गये हैं ?

-नहीं ।

– हम भाई-बहन दूर तो नहीं रहते पर उपहारों ने फासला इतना बढा दिया कि चाह कर भी मिलने नहीं जा सकते । कभी बहन का खुश चेहरा देख पाएंगे या यह हसरत ही रह जाएगी ?

 

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆ लघुकथा – रंगमंच ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघुकथा   “रंगमंच”.  )

☆ लघुकथा – रंगमंच

मनोहर रंगमंच का कलाकार था। स्थानीय स्तर पर होने वाले नाटकों में वह विभिन्न पात्रों को बखूबी निभाता था। उसके अभिनय की बहुत प्रशंसा होती थी।

विगत 6 माहों से वह घर पर ही बैठा था। इस विषम काल में नाटकों का मंचन भी बंद था। वह मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुंच गया था, उसे महसूस हो रहा था कि उसकी कला में जंग लग रही है।

एक दिन वह शहर के रंगमंच हाल में पहुंच गया। मंच के आगे पीछे  सन्नाटा पसरा हुआ था।  कुर्सियां भी दर्शकों के अभाव में टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में ऊँघती सी प्रतीत होरही थीं। यह वही हाल था जो कभी रोशनी से जगमगाता रहता था  जिसमें दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रहती थी। अब  न दर्शक, न श्रोता और न कोई नायक न खलनायक, बस आज चारों ओर खामोशियाँ पसरी पड़ी थीं।

मंच के ऊपर लगी दीवार घड़ी अब भी टिकटिक की आवाज करती चल रही थी। समय निरंतर अपनी गति से भाग रहा था। उसे महसूस हुआ कि ऊपर बैठा सबसे बड़ा नाटककार उससे कह रहा है – समय गतिशील है, आज का यह समय भी निकल जायेगा धैर्य रखो। समय की डोर अपने हाथों में थामे रखो। अचानक उसके अंदर नई ऊर्जा का संचार  हुआ और वह जिंदगी के रंगमंच में अपनी नई भूमिका  निभाने तेज कदमों  से आगे बढ़ गया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ जीवनरेखा  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ जीवनरेखा 

तप रहा है शरीर;

आराम करो,

गहरा सोओ,

बीच में नींद खुले

तो भी लेटे रहो,

रात-बिरात या

जल्दी उठकर

कलम मत चलाओ,

इन्हीं सबसे

टूटते हैं पोर,

बिगड़ता है

शरीर का लेखा,

खंड-खंड होने

लगती है जीवनरेखा,

अपनों के, परिचितों के

चिकित्सक के निर्देश

अनवरत जारी थे..,

कुछ देर के

घोर नीरव के बाद

मैं चुपचाप उठा,

पिंजरे में कैद

तोते में बसे

किसी पौराणिक पात्र के

प्राण-सी सहेजी

अपनी कलम उठाई,

फिर कलम चलाई,

कुछ अक्षर झरने लगे

टूटे पोर जुड़ने लगे,

शरीर का लेखा

संवरने लगा,

देह में प्राण लौटने लगा,

खुली आँखों से

मैंने जादू देखा

फिर अखंड हो गई

मेरी जीवनरेखा…!

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 10:55, 27.09.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 40 ☆ व्यंग्य संग्रह – ५ वां कबीर – श्री बुलाकी शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री बुलाकी शर्मा जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “५ वां कबीर  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 40 ☆ 

पुस्तक – ५ वां कबीर

व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

पृष्ठ – ११२

मूल्य – १०० रु

पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह   – ५ वां कबीर  – व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

व्यंग्य यात्रा में हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है.. जाने माने व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य उनके मुख से सुन चुका हूं. पढ़ने तो वे प्रायः मिल ही जाते हैं. प्रकाशन के वर्तमान परिदृश्य के सर्वथा अनुरूप ११२ पृष्ठीय ” ५ वां कबीर ” में बुलाकी जी के कोई ४० व्यंग्य संग्रहित हैं. स्पष्ट है व्यंग्य ८०० शब्दो के सीमित विस्तार में हैं. इस सीमित विस्तार में अपना मंतव्य पायक तक पहुंचाने की कला ही लेखन की सफलता होती है. वे इस कला में पारंगत हैं.

जितने भी लोग नये साल को किसी कारण से जश्न की तरह नही मना पाते वे नये साल के संकल्प जरूर लेते हैं, अपने पहले ही लेख में लेखक भी संकल्प लेते हैं, और आत्मनिर्भरता के संकल्प को पूरा करने के आशान्वित भरोसे के साथ व्यंग्य पूरा करते हैं. जरूर यह व्यंग्य जनवरी में छपा रहा होगा, तब किसे पता था कि कोरोना इस बार भी संकल्प पर तुषारापात कर डालेगा. दुख के हम साथी, फिर बापू के तीन बंदर पढ़ना आज २ अक्टूबर को बड़ा प्रासंगिक रहा, जब बापू के बंदर बापू को बता रहे थे कि वे न बुरा देखते, सुनते या बोलते हैं, तो टी वी पर हाथरस की रपट देख रहा मैं सोच रहा था कि हम तो बुरा मानते भी  नहीं हैं…… पांचवे कबीर के अवतरण की सूचना पढ़ लगा अच्छा हुआ कि कबीर साहब के अनुनायियों ने यह नहीं पढ़ा, वरना बिना कबीर को समझे, बिना व्यंग्य के मर्म को समझे केवल चित्र या नाम देखकर भी इस देश में कट्टरपंथियो की भावनाओ को आहत होते देख शासन प्रशासन बहुत कुछ करने को मजबूर हो जाता है. लेकिन वह व्यंग्यकार ही क्या जो ऐसे डर से अपनी अभिव्यक्ति बदल दे. बुलाकी जी कबीर की काली कम्बलिया में लिखते हैं ” मन चंचल है किंतु बंधु आप अपने मन को संयमित करने का यत्न कीजीये. ” प्याज ऐसा विषय बन गया है जिसका वार्षिक समारोह होना चाहिये, जब जब चुनाव आयेंगे, प्याज, शक्कर, स्टील, सीमेंट कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही.उनका प्याज व्यंग्यकार से कहता है कि वह बाहर से खुश्बूदार होने का भ्रम पैदा करता है पर है बद्बूदार. अब यह हम व्यंग्यकारो पर है कि हम अंदर बाहर में कितना कैसा समन्वय कर पाते हैं.

अस्तु कवि, साहित्य, साहित्यिक संस्थायें आदि पर खूब सारे व्यंग्य लिखे हैं उन्होने, मतलब अनुभव की गठरी खोल कर रख दी है. बगावती वायरस बिन्दु रूप लिखा गया शैली की दृष्टि से नयापन लिये हुये है. डायरी के चुनिंदा पृष्ठ भी अच्छे हैं.

मेरी रेटिंग, पैसा वसूल ।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆ प्रीतिचा झरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “प्रीतिचा झरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆

☆ प्रीतिचा झरा 

 

डावी खिडकी हृदयाची या उघडायाला हवी

शुद्ध येईल हवा प्रीतिची तेव्हा हृदयी नवी

 

शृंगाराचा ऐवज माझा मी तर आहे परी

सुरूंग लावू आभाळाला बरसतील या सरी

 

चिरून घेते हृदय कोवळे फाळाकडुनी धरा

पाटामधुनी वहात आहे कसा प्रीतिचा झरा

 

अंधाराचे राज्य संपले वाटतोस तू रवी

प्रकाश किरणें मला खुलवती साथ तुझी रे हवी

 

असे गीत हे गाऊ आपण असेल त्याला गती

तुझ्या नि माझ्या मधे यायला नको कधीही यती

 

प्रीत सागरा नसे किनारा अधी वाटले बला

सहज पोहून गेलो नंतर छान वाटली कला

 

जमवू काड्या बांधू घरटे घरात लावू दिवा

कुणी तरी हा पुढे वारसा सांभाळाया हवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

“दोन वर्ष किंवा त्यापेक्षा जास्त ज्या आमदार-खासदारांना शिक्षा झाली असेल,  त्यांचं विधानसभा वा संसदेतील सदस्यत्व आपोआप रद्द होईल.”  सुप्रीम कोर्टाने जाहीर केले

“राजकारणातील अपराध्यांचं वर्चस्व कमी करण्यासाठी सुप्रीम कोर्टाने हे चांगले पाऊल आहे.” एक कार्यकर्ता दुसर्‍यायाला म्हणाला.

“हा निर्णय राजकीय पक्षांनी मानला तर ना! उमेदवारांना तिकीट देण्याची वेळ आली की ते म्हणणार, जिंकणार्‍या उमेदवारालाच तिकीट देण्याचा विचार केला जाईल.”

“हां! हेही खरं आहे.”

“असं कळतं, कोणत्याच गोष्टीबाबत एकमत न होणारे सर्व राजकीय एकत्र येऊन त्यांनी  बैठक घेऊन निर्णय घेतलाय की याच सत्रात सरकार सुप्रीम कोर्टाचा आदेश निष्प्रभ बनवण्यासाठी संशोधन विधेयक मांडणार आहे. त्या विधेयकाचं सर्वच राजकीय पक्षांनी समर्थन करावं. राजकीय पक्ष गुन्हेगारांच्या पकडीत आहे आणि संसद राजकीय पक्षांच्या. त्यामुळे संशोधन विधेयक पारीत होणारच!”

“तर मग संसदेच्या पुढल्या सत्रात संसद आणि विधानसभेत अपराध्यांसठी काही सीटचं आरक्षण असावं, असंही विधेयक मांडलं जाईल.” दोघांचं बोलणं ऐकणारा सामान्य माणूस म्हणाला.

 

मूळ कथा – अगला कदम        मूळ लेखक – श्री अतुल मोहन प्रसाद

भावानुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ एक उनाड दिवस ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

☆ विविधा ☆ एक उनाड दिवस ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆

एका रम्य पहाटे जाग आली, हो पहाट रम्यच होती पण मन मात्र अस्वस्थ होते, बेचैन होते, उठून काही करावे असे मुळीच वाटत नव्हते.

बाहेर पक्ष्यांचा किलबिलाट ऐकु येत होता . झाडावर बसुन ते ऐटीत झोके घेत होते. आपल्याच विश्वात मग्न होते जस काही एक उनाड दिवस साजरा करत आहेत. अगदी हेवाच वाटला मला त्यांचा, अस वाटले आपल्यालाही त्यांच्यात सामील होता आले असते तर?

इकडे माझ्या मनात सुरू होते आता उठून न्याहरी ला काय करायचे ह्याचे कॅलक्युलेशन. पुढे काय उठले तशीच मनात नसतानाही. खर तर अजून थोडं पडून रहायचे होते मला, शांत पक्ष्यांचा किलबिलाट ऐकत.

पण उठले फ्रीझ उघडला तर काय त्यातुन पडवळ, कारली डोकावत होती जणू विचारत होती जेवायला काय करणार आहे. तेव्हा परत चरफड झाली मनाची आणि आता मात्र पक्क ठरवले खूप झाले आता आज मनाचेच ऐकायचे. आज साजरा करायचाच एक उनाड दिवस.

छान गरम शॉवर घेतला, खूप दिवसानी चक्क जिन्स चढवली आणि स्वतः च्याच धुंदीत गाणी गुणगुणत गाडी बाहेर काढली.

बाहेर पडले ते थेट रम्य उद्यान गाठले. रम्य सूर्यकिरण किरण अंगावर घेतले, फुलांवरुन प्रेमाने हात फिरवला, फुलपाखरू धरायचा प्रयत्न केला. चक्क झोक्यावर बसुन उंच झोके घेतले. छान गप्पा मारल्या पक्ष्यांशी, गुणगुणली काही गाणी आणि तेवढ्यात आठवण झाली भुकेची. मग छान गाडी वळवली माझ्या आवडत्या रेस्टॉरंट कडे. ऐटीत ऑर्डर केली मसाला डोसा आणि दही वड्याची. वरती मस्त कोल्डकॉफी घेतली आणि मन प्रसन्न करून पुढच्या प्रवासाला निघाले. घड्याळात पाहिले दहा वाजले होते म्हणले चला आता विंडो शॉपिंग करावे. माझ्या आवडत्या मल्टिप्लेक्स मधे गेले छान विंडो शॉपिंग केले. आणि चक्क एक उनाड दिवस हा पिक्चर पाहिला. छान पॉप कॉर्न खाल्ले, पिझा ही घेतला होता. पुढे काय करायचे ते पिक्चर पाहतानाच ठरवले होते, तिथून बाहेर पडले ते थेट पोहोचले माझ्या बालसखी कडे. खूप दिवस नाही वर्षे झाली होती तिला भेटून. तिच्याशी खूप गप्पा मारायची इच्छा आज पूर्ण होणार होती. छान टवटवीत फुलांचा गुच्छ घेतला होता तिच्या साठी आणि पोचले की तिच्या दारात. मला पाहून दोघींचेही नेत्र वाहू लागले आनंदानी. घट्ट मिठी मारली चक्क दारातच आणि मन तृप्त होईपर्यंत गप्पा मारल्या.

गप्पांच्या ओघात कधी संध्याकाळ झाली हेच कळले नाही. तिथून फुलपाखराच्या मनानी बाहेर पडले ते थेट एका रम्य टेकडीवर जाऊन पोहोचले. रम्य, शांत, सुंदर निसर्गाने भरलेल्या अश्या ठिकाणी. शांत बसुन राहिले तिथे बराच वेळ मनाला शांती लाभे पर्यंत.

मैत्रिणीशी मारलेल्या गप्पांमुळे आणि ह्या रम्य निसर्गामुळे मन तृप्त झाले होते.

ह्याच प्रसन्न मनाने गाणी गुणगुणत गाडी घराच्या दिशेला वळवतच होती की तेवढ्यात हाक ऐकु आली अग उठते आहेस ना, जायचे आहे ना आज ऑफिसला !!! ब्रेक फास्ट नाही का बनवायचा ? आणि दचकून जागी झाले की हो म्हणजे हे सगळे स्वप्नच होते तर…

पण आज ह्या क्षणी एक निश्चयच करून उठले की हे पडलेले स्वप्न सत्यात आणायचेच तेही लवकरच

काय हे सारे तुम्हाला पण वाटत असेल नाही का?

तर मग होऊन जाऊदे,

असाच एक उनाड दिवस

सहज मनाच्या कोपऱ्यातून ☺️

 

©  सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

मो 9423566278

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचा ☆ आमची सामूहिक कविता ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

☆ क्षण सृजनाचा ☆ आमची सामूहिक कविता ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

माझ्या भाच्याला शाळेत सैनिकांना पत्र लिहून पाठवायचे होते. त्या पत्रातून त्यांना उत्तेजन देण्यासाठी कविता लिहून हवी होती. माझ्या बहीणीचा तसा आम्हाला फोनवर मेसेज आला. आम्ही सर्वांनी तो वाचला.आणि आमच्या डोक्यात विचार सुरु झाला. कशी कविता लिहावी ते नीट सुचत नव्हते. आमच्या ग्रुपमध्ये मी आणि माझा चुलत भाऊ आम्ही नेहमीच आमच्या कविता लिहून पाठवत असू.पण त्या दिवशी आम्हाला काही करून कविता सुचत नव्हती. तेव्हा वाट पाहून शेवटी माझ्या दुसऱ्या बहीणीने कविता लिहून पाठवली आणि मग ती वाचल्यावर सर्वांना सुच लागली. आम्ही त्या माझ्या बहीणीने लिहलेल्या पहिल्या तीन कडव्याना धरूनच पुढील कडवी लिहीली. आणि आमची सामुहिक कविता तयार झाली.  कशी ते पहा.

भारत भू च्या सीमेवरती

सदैव रक्षणा तत्पर असती

नाही विसावा ना विश्रांती

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।१।।

आले ते घरदार सोडुनी

मायेचे ते पाश तोडूनी

देशसेवेचे व्रत घेऊनी

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।२।।

आम्ही इथे सुखाने राहतो

मौजमजा अन् सणात रमतो

आम्हासाठी प्राण आर्पिती

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।३।।

धन्य त्यांची देशभक्ती

स्वार्थापलीकडे जनहित साधती

तिरंग्यात ऐसे लपेटून जाती

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।४।।

अलौकीक शौर्य छाती निधडी

देहाची करुनी कुरवंडी

राष्ट्रवेदीवर अर्पुनी जाती

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।५।।

धेय्य एकच डोळ्यापुढती

शस्त्र सदा घेऊन हाती

अखंड ठेवू मात्रूभू जगती

सलाम माझा त्या वीराप्रती।।६।।

या कवितेत पहिली तीन कडवी सौ. स्मिता ठाकुरदेसाई,चौथ कडव तिची मुलगी कु. सायली, पाचव कडव माझा चुलतभाऊ श्री. अतुल नवरे,आणि सहाव कडव मी म्हणजे अनिता खाडीलकर. अशी सहा कडव्यांची कविता आम्ही चौघांनी लिहीली.

याशिवाय माझ्या चुलतबहीणीने

‘नाही स्वतःची चिंता

उभे सैनिक सीमेवर

देशाचे रक्षण करत

झेलीत गोळ्या छातीवर।।१।।

आहात तुम्ही म्हणून

जगतो आम्ही आरामात

न गुरफटता नात्यात

चिंता करता देशाची।।२।।

नाही जुमानत कधी

उन पाऊस वारा

तुमच्यामुळेच आहे आज

सुरक्षित भारत सारा।।३।।’

 सौ.अनुश्री जाहगीरदार. हिने लिहिली.

तर  माझ्या भाच्चीनं

‘देशरक्षणापुढे इतर सर्व गौण

ठेवूनिया त्यांच्या त्यागाची जाण

घेऊनीया भूमातेची आण

प्रयत्ने चुकवू त्यांचे ऋण…

ही चारोळी कु.सायली ठाकुरदेसाई. हिने लिहिली.

अशा प्रकारे कधीच कविता न लिहणाऱ्या माणसांनी कविता लिहल्या. आणि पत्र पुर्ण करून पाठवले.

 

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पंडित संजीव अभ्यंकर ☆ श्री प्रसाद जोग

☆ मनमंजुषेतून ☆ पंडित संजीव अभ्यंकर ☆ श्री प्रसाद जोग ☆

पंडित संजीव अभ्यंकर

वाढदिवस / जन्म : ५ ऑक्टोबर १९६९

त्यांना घरातच गुरु हजर होता. त्यांची आई शोभा अभ्यंकर यांनी त्यांना प्राथमिक  सांगीतिक  धडे दिले. पं. गंगाधरबुवा पिंपळखरे यांनी  संजीव अभ्यंकर याना  मार्गदर्शन केले. हिराबाई बडोदेकर आणि वसंतराव देशपांडे यांनी त्यांना जसराजांकडे शिकायला पाठविण्याची शिफारस केली. जसराजांचे शिष्यत्व स्वीकारल्यानंतर त्यांची दिनचर्या पूर्णत: बदलली.

गुरु शिष्य परंपरेप्रमाणे शिक्षण घेण्यासाठी गुरूच्या घरातील वेगळा दिनक्रम सुरु झाला. आपले आपण उठून शिष्यांनी रियाजाच्या खोलीत रियाज सुरू करावा, अशी गुरुजींची   शिकवण होती. त्यांच्या घराच्या गच्चीत रियाजाची छोटी खोली होती. तिथे जाऊन गायला बसायचे, त्यांना मनात येईल तेव्हा जसराज यायचे आणि शिकवायचे. त्यांनी शिकवलेले सकाळ, दुपार, संध्याकाळ असे तीन वेळा गायचे असा नियम होता. त्या त्या वेळचे राग म्हणायचे. रोज तेव्हा चार ते साडेचार तास गायन व्हायचे. त्यावेळी गळा तयार करायचा होता त्यामुळे सगळे राग गळ्यावर चढवायचा रियाज असायचा.

गुरु-शिष्य परंपरेनुसार त्यांचे शिक्षण चालू असताना,पं. जसराजांच्याबरोबर भारतभर दौरे, संगीत मैफिलींमध्ये त्यांना साथ-संगत आणि त्याचवेळी हिंदुस्तानी संगीतातील अभिजात स्वरांचे धडे, अशा नानाविध मार्गांनी त्यांची सांगीतिक प्रगती झाली . अकराव्या वर्षी संगीताची पहिली मैफल गाजविणार्‍या संजीव अभ्यंकरांनी त्यानंतर देशभरातील विविध महोत्सवांमध्ये आपल्या गायकीची छाप पाडली.

देशभरातील प्रख्यात संगीत महोत्सव आणि परदेशातील अमेरिका, कॅनडा, ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका या भागांतही  पं.संजीव अभ्यंकरांची गायकी  पोचली आहे. अभिजात शास्त्रीय संगीताबरोबर पार्श्वगायन, भावसंगीत आणि भक्तिसंगीताच्या प्रांतांतही त्यांनी स्वतःची छाप  उमटवली. हिंदी-मराठी भजने आणि बंदिशींच्या माध्यमातून  देशभरातील संगीतरसिकांच्या घरांत त्यांचे नाव पोचले आहे. स्वतःच्या काही बंदिशी रचून त्यांनी स्वतंत्र ओळख निर्माण केली आहे.

महाराष्ट्र शासनाने समर्थ रामदास स्वामी लिखित “दासबोध “पं.संजीव अभ्यंकरांच्या कडून गाऊन घेतला आहे व तो शासनाच्या अधिकृत संकेतस्थळावर उपलब्ध आहे व तो विनाशुल्क डाउन लोड करता येतो.

‘माचिस’, ‘निदान’, ‘दिल पे मत ले यार’ अशा चित्रपटांसाठी त्यांनी पार्श्वगायन केले आहे. ‘गॉडमदर’ चित्रपटातील गाण्यासाठी त्यांना राष्ट्रीय पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आले आहे. पं. जसराज जीवनगौरव पुरस्कार, सूररत्‍न यांसारख्या अनेक पुरस्कारांनी त्यांना सन्मानित करण्यात आले आहे. मध्य प्रदेश शासनाने ‘कुमार गंधर्व पुरस्कार’ देऊन त्यांना गौरवले आहे.ऑल इंडिया रेडिओ ने १९९० साली त्यांना उत्कृष्ठ पार्श्वगायकाचा पुरस्कार दिला होता.

थोड्या  दिवसांपूर्वी आयॊध्येला राममंदिराच्या उभारणीच्या भूमिपूजनाचा कार्यक्रम झाला आणि जगभरातली सर्वाना ध्यान लागलें रामाचें त्या प्रित्यर्थ पंडित संजीवजीं नी गायलेला अभंग

ध्यान लागलें रामाचें । दुःख हरलें जन्माचें

राम पदांबुजावरी । वृत्ति गुंतली मधुकरी

रामवदनमयंकीं । चक्षुचकोर जाले सुखी

तनुमेघश्याम मेळे । चित्तचातक निवाले

कीर्तिसुगंधतरुवरी । कुजे कोकिळा वैखरी

रामीरामदासस्वामी । प्रगटले अंतर्यामीं

यूट्यूब लिंक >>>  ध्यान लागलें रामाचें

पंडित संजीव अभ्यंकरांना  वाढदिवसाच्या खूप खूप शुभेच्छा .

 

© श्री प्रसाद जोग

सांगली.

९४२२०४११५०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares