English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 23 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 23 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 23) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 23☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तमाम  उम्र  मैं  इक

अजनबी घर में  रहा

सफ़र न करते हुए भी

हमेशा  सफ़र में  रहा

 

वो  तो जिस्म ही था जो

भटका किया  ज़माने में,

मगर दिल तो मेरा हमेशा

तेरी डगर में भटकता रहा…

 

All my life kept staying

In  a  stranger’s  house

Even while not traveling

I remained in journey only

 

That was just my body which

Kept wandering everywhere,

But my heart always kept

Following  your footsteps…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरी मोहब्बत ने हमे

तो बेनाम कर दिया,

हमे  हर  ख़ुशी  से

मरहूम  कर  दिया

 

हमने तो कभी चाहा ही

नहीं कि हमे मोहब्बत हो,

मगर तेरी पहली नज़र ने

हमें तो नीलाम कर दिया…

 

Your love has made

Me utterly nameless,

It  deprived  me  of 

every possible pleasure

      

I had never desired

To ever fall in love, but

Your very glance itself

Got  me  auctioned …

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 23 ☆ गीत – आज के इस दौर में भी☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी का एक  गीत – आज के इस दौर में भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 23 ☆ 

☆ गीत – आज के इस दौर में भी ☆ 

आज के इस दौर में भी समर्पण अध्याय हम

साधना संजीव होती किस तरह पर्याय हम

 

मन सतत बहता रहा है नर्मदा के घाट पर

तन तुम्हें तहता रहा है श्वास की हर बाट पर

जब भरी निश्वास; साहस शांति आशा ने दिया

सदा करता राज बहादुर; हुए सदुपाय हम

 

आपदा पहली नहीं कोविद; अनेकों झेलकर

लिखी मन्वन्तर कथाएँ अगिन लड़-भिड़ मेलकर

साक्ष्य तुहिना-कण कहें हर कली झरकर फिर खिले

हौसला धरकर; मुसीबत हर मिटाने धाय हम

 

ओम पुष्पा व्योम में, हनुमान सूरज की किरण

वरण कर को विद यहाँ? खोजें करें भारत भ्रमण

सूर सुषमा कृष्ण मोहन की सके बिन नयन लख

खिल गया राजीव पूनम में विनत मुस्काय हम

 

महामारी पूजते हम तुम्हें; माता शीतला

मिटा निर्बल मंदमति, मेटो मलिनता बन बला

श्लोक दुर्गा शती, चौपाई लिए मानस मुदित

काय को रोना?, न कोरोना हुए निरुपाय हम

 

गीत गूँजेंगे मिलन के, सृजन के निश-दिन सुनो

जहाँ थे हम बहुत आगे बढ़ेंगे, तुम सिर धुनो

बुनो सपने मीत मिल, अरि शीघ्र माटी में मिलो

सात पग धर, सात जन्मों संग पा हर्षाय हम

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२९-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ व्हाट्सएप्प साक्षात्कार – व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल – मेरे जवाब ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।

आज कोरोना महामारी ने सबकुछ ऑनलाइन कर दिया है । ऐसे में साक्षात्कार भी व्हाट्सप्प  / ज़ूम मीटिंग और कई अन्य डिजिटल मंचों  पर आरम्भ हो गए हैं। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक ऐसा ही साक्षात्कार – व्हाट्सएप्प साक्षात्कार – व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल – मेरे जवाब। )

☆ व्हाट्सएप्प साक्षात्कार – व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल – मेरे जवाब ☆

व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप समूह पर श्री रणविजय राव अद्भुत साक्षात्कार का आयोजन प्रति सप्ताह कर रहे हैं. सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डा प्रेम जन्मेजय, श्री लालित्य ललित जी के मार्गदर्शन में बना व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप समूह १७५ व्यंग्यकारो का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्हाट्सअप समूह है. इसमें भारत सहित केनेडा, दुबई, अस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशो के हिन्दी व्यंग्यकार सक्रिय भागीदारी के साथ जुड़े हुये हैं. व्यंग्यकार श्री रणविजय राव हर हफ्ते खुले मंच पर किसी एक व्यंग्यकार से सवाल पूचने के लिये समूह पर आव्हान करते हैं. व्यंग्यकारो से मिले सवालो के जबाब वह व्यंग्यकार देता है. इस तरह व्यंग्य पुरोधाओ के सवाल, व्यंग्यकार के जबाब से गंभीर व्यंग्य विमर्श होता है. इस हफ्ते सवालों के कटघरे में मुझे खड़ा किया गया है. मेरे चयन के लिये श्री रणविजय राव का हृदय से आभार, इस बहाने मुझे भी कुछ सुनने, कहने, समझने का सुअवसर मिला.

आइये बतायें क्या पूछ रहे हैं मुझसे मेरे वरिष्ठ, मित्र और कनिष्ठ व्यंग्यकार.

पहला सवाल है श्री शशांक दुबेजी का…अर्थशास्त्र में एक नियम है: “कई बार बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है”। क्या व्यंग्य में भी आजकल यही हो रहा है?

मेरा जबाब.. आदरणीय शशांक जी स्वयं बहुत सुलझे हुये, मददगार व्यंग्ययात्री हैं.  प्रायः अखबारो में जो संपादकीय मेल लिखा होता है उस पर इतनी अधिक मेल आती है कि संबंधित स्तंभ प्रभारी वह मेल देखता ही नही है, या उस भीड़ में आपकी मेल गुम होकर रह जाती है. मुझे स्मरण है कि कभी मैने शशांक जी से किसी अखबार की वह आई दी मांगी थी जिस पर व्यंग्य भेजने से स्तंभ प्रभारी उसे देख ले, तो उन्होने स्वस्फूर्त मुझे अन्य कई आईडी भेज दी थीं. अस्तु शशांक जी के सवाल पर आता हूं. मैने बचपन में एक कविता लिखी थी जो संभवतः धर्मयुग में बाल स्तंभ में छपी भी थी ” बिल्ली बोली म्यांऊ म्यांऊ, मुझको भूख लगी है नानी दे दो दूध मलाई खाऊं,….   अब तो जिसका बहुमत है चलता है उसका ही शासन. चूहे राज कर रहे हैं… बिल्ली के पास महज एक वोट है, चूहे संख्याबल में ज्यादा हैं. व्यंग्य ही क्या देश, दुनियां, समाज हर जगह जो मूल्यों में पतन दृष्टिगोचर हो रहा है उसका कारण यही है कि बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर रही है.

अगला सवाल वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री आशीष दशोत्तर जी का है.

व्यंग्य नाटकों के अभाव और इस क्षेत्र की संभावना पर आप क्या सोचते हैं?

सवाल मेरी प्रोफाईल के अनुरूप पूछा है आषीश जी ने. मेरी व्यंग्य की ५ किताबों के साथ ही नाटक की ३ पुस्तकें छप चुकी है. मेरे लिखित कुछ नाटक डी पी एस व अन्य स्कूलो में खेले गये हैं. मुझे म प्र साहित्य अकादमी से मेरे नाटक संग्रह हिंदोस्तां हमारा के लिये ३१००० रु का हरि कृष्ण प्रेमी सम्मान मिल चुका है. अस्तु आत्म प्रवंचना केवल परिचय के लिये.

मेरा जबाब.. मेरा मानना है कि नुक्कड़ नाटक इन दिनो बहुत लोकप्रिय विधा है. और व्यंग्य नाटको की व्यापक संभावना इसी क्षेत्र में अधिक दिखती है. लेखको का नाटक लेखन के प्रति लगाव दर्शको के प्रतिसाद पर निर्भर होता है. जबलपुर में हमारे विद्युत मण्डल परिसर में भव्य तरंग प्रेक्षागृह है, जिसमें प्रति वर्ष न्यूनतम २ राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह होते हैं, सीजन टिकिट मिलना कठिन होता है. बंगाल, महाराष्ट्र, दिल्ली में भी नाटक के प्रति चेतना अपेक्षाकृत अधिक है. यह जरूर है कि यह क्षेत्र उपेक्षित है, पर व्यापक संभावनायें भी हैं.

अगला सवाल वरिष्ठ व्यंग्यकार, संपादक, समीक्षक बेहद अच्छे इंसान श्री दिलीप तेतरवे जी का रांची से है.

विवेक भाई, क्या आपको नहीं लगता कि व्यंग्य के टार्गेट्स पूरे भारत में कोरोना की तरह पसरे हुए हैं ?

मेरा जबाब… दिलीप जी से मेरी भेंट गहमर में एक साहित्यिक समारोह में हुई थी. स्मरण हो आया, हमने आजू बाजू के पलंग पर लेटे हुये साहित्यिक चर्चायें की हैं. सर कोरोना वायरस एक फेमली है, जो म्यूटेशन करके तरह तरह के रूपों में हमें परेशान करता रहा है, पिछली सदी में १९२० का स्पेनिश फ्लू भी इसी की देन था. मैं आपसे शतप्रतिशत सहमत हूं, मानवीय प्रवृत्तियां स्वार्थ के चलते रूप बदल बदल कर व्याप्त हैं, भारत ही क्या विश्व में और यही तो व्यंग्य का टार्गेट हैं.

अगला प्रश्न: विवेकरंजन जी, आप राजनीतिक व्यंग्य के संदर्भ में क्या विचार रखते हैं?  पूछ रही हैं व्यंग्य के क्षेत्र में तेजी से उभरती हुई युवा व्यंग्य यात्री सुश्री अपर्णा जी

मेरा जबाब.. अपर्णा जी, राजनीती जीवन के हर क्षेत्र में हावी है. हम स्वयं चार नमूनो में से किसी को स्वयं अपने ऊपर हुक्म गांठने के लिये चुनने की व्यवस्था के हिस्से हैं. असीमित अधिकारो से राजनेता का बौराना अवश्य संभावी है, यहीं विसंगतियो का जन्म होता, और व्यंग्य का प्रतिवाद भी उपजने को विवश होता है. अखबार जो इन दिनो संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य के पोषक बने हुये हैं, समसामयिक राजनैतिक व्यंग्य को तरजीह देते हैं. और देखादेखी व्यंग्यकार राजनीतिक व्यंग्य की ओर आकर्षित होता है. मैं राजनैतिक व्यंग्यो में भी मर्यादा, इशारो और सीधे नाम न लिये जाने का पक्षधर हूं.

श्री प्रभाशंकर जी उपाध्याय

व्यंग्य: आपका एक व्यंग्य संग्रह है —‘कौवा कान ले गया’।  मुझे पता नहीं है कि इस पुस्तक में इस विषय पर कोई पाठ है अथवा नहीं किन्तु हालिया माहौल में यह कहावत पुरजोर चरितार्थ हो रही है। सोशल मीडिया के जरिए अफवाहें प्रसारित की जा रही है वीडियो आनन फानन वाइरल हो रहे हैं। इन्हें पढ़ने और देखने वाले अपने कानों की सलामती का परीक्षण किए बगैर कौवे के पीछे दौड़ पड़ते हैं। व्यंग्य लेखन के तौर पर इसमें  हमारी निरोधात्मक भूमिका  क्या हो?

मेरा जबाब… स्वयं विविध विषयो पर कलम चलाने वाले वरिष्ठ जानेमाने व्यंग्यकार आदरणीय उपाध्याय जी का यह सवाल मुझे बहुत पसंद आया. बिल्कुल सर, कौआ कान ले गया मेरा संग्रह था. जिसकी भूमिका वरिष्ठ व्यंग्य पुरोधा हरि जोशी जी ने लिखी थी. उसमें कौवा कान ले गया शीर्षक व्यंग्य के आधार पर ही संग्रह का नाम रखा था.अफवाहो के बाजार को दंगाई हमेशा से अपने हित में बदलते रहे हैं, अब तकनीक ने यह आसान कर दिया है, पर अब तकनीक ही उन्हें बेनकाब करने के काम भी आ रही है. व्यंग्यकार की सब सुनने लगें तो फिर बात ही क्या है, पर फिर भी हमें आशा वान बने रहकर सा हित लेखन करते रहना होगा. निराश होकर कलम डालना हल नही है. लोगों को उनके मफलर में छिपे कान का अहसास करवाने के लिये पुरजोर लेखन जारी रहेगा.

श्री मुकेश राठौर जी

प्रश्न: व्यंग्य के अल्पसंख्यक जानकर कहते हैं कि व्यंग्य करुणा प्रधान होने चाहिए जबकि बहुसंख्यक पाठक चाहते हैं कि व्यंग्य हास्यप्रधान होने चाहिए|ऐसे में एक व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में किस तत्व को प्रमुख हथियार बनाये?

मेरा जबाब... यह व्यंग्यकार की व्यक्तिगत रुचि, विषय का चयन, और लेखन के उद्देश्य पर निर्भर है. हास्य प्रधान रचना करना भी सबके बस की बात नही होती. कई तो अमिधा से ही नही निकल पाते, व्यंजना और लक्षणा का समुचित उपयोग ही व्यंग्य कौशल है. करुणा व्यंग्य को हथियार बना कर प्रहार करने हेतु प्रेरित करती ही है.

श्री लालित्य ललित जी

प्रश्न..  आप अपने को कितने प्रतिशत कवि और कितने प्रतिशत व्यंग्यकार मानते हैं ? —

मेरा जबाब…मेरा मानना है कि हर रचनाकार पहले कवि ही होता है, प्रत्यक्ष न भी सही, भावना से तो कवि हुये बिना विसंगतियां नजर ही नही आती. मेरा पहला कविता संग्रह १९९२ में आक्रोश आया था, जो तारसप्तक अर्ढ़शती समारोह में विमोचित हुआ था, भोपाल में.आज भी पुरानी फिल्में देखते हुये मेरे आंसू निकल आते हैं,  मतलब मैं तो शतप्रतिशत कवि हुआ. ये और बात है कि जब मैं व्यंग्यकार होता हूं तो शत प्रतिशत व्यंग्यकार ही होता हूं.

श्री टीकाराम साहू आजाद‘, नागपुर

प्रश्न..क्या आप व्यंग्य को विधा मानते हैं? व्यंग्य विधा नहीं है, तो क्या है? क्योंकि वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री डा. अशोक चक्रधर जी ने कहा कि व्यंग्य विधा नहीं है।

श्री के पी सक्सेना जी  दूसरे

प्रश्न.. आदरणीय, 131 व्यंग्यकारों के संचयन के लोकार्पण समारोह में आदरणीय पद्मश्री अशोक चक्रधर ने व्यंग्य को विधा नहीं, किसी भी विधा में प्रवेश की एक सुविधा निरूपित किया है। और वैसे भी व्यंग्य को एक विधा के रूप में स्वीकारने में कई विद्वानों में हिचकिचाहट देखी गयी है। आप क्या कहते हैं?

मेरा जबाब… किसी भी व्यक्तव्य को संदर्भ सहित ही समझना जरूरी है, डा अशोक चक्रधर ने कल जो कहा उसका पूरा संदर्भ समझें तो उन्होंने अलंकारिक प्रस्तुति के लिये कहा कि व्यंग्य सुविधा है, पर उसका मूल मर्म यह नही था कि व्यंग्य अभिव्यक्ति की विधा ही नही है. मेरा मानना है कि व्यंग्य अब विधा के रूप में सुस्थापित है. उनके कहने का जो आशय मैने ग्रहण किया वह यह कि उन्होने बिल्कुल सही कहा था कि किसी भी विधा में व्यंग्य का प्रयोग उस विधा को और भी मुखर, व अभिव्यक्ति हेतु सहज बना देता है. फिर बहस तो हर विधा को लेकर की जा सकती है, ललित निबंध ही ले लीजीये, जिसे विद्वान स्वतंत्र विधा नही मानते, पर यह हम व्यंग्यकारो का दायित्व है कि हम इतना अच्छा व भरपूर लिखें कि अगली बार अशोक जी कहें कि व्यंग्य उनकी समझ में स्वतंत्र विधा है.

श्री रमेश सैनी जी

प्रश्न.. विवेकरंजन जी आप बहु विधा में लिख रहें हैं,पर वर्तमान समय में व्यंग्य लेखन प्राथमिकता में दिख रहा है। लेखन में व्यंग्य की  प्राथमिकता (विषय) बदल गई है। आप की दृष्टि में व्यंग्य लेखन में क्या नहीं होना चाहिए ?

मेरा जबाब… रमेश सैनी जी मेरे अभिन्न मित्र व बड़े भाई सृदश हैं, व्यंगम के अंतर्गत हम साझा अनेक आयोजनो में व्यंग्यपाठ कर चुके हैं. व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर दूरदर्शन भोपाल में एक चर्चा में भी वे मेरे साथ थे. मैं हिन्दी में वैज्ञानिक विषयो पर सतत लिखता रहा हूं, बिजली का बदलता परिदृश्य मेरी एक पुस्तक है, विज्ञान कथायें मैने लिखी हैं, कवितायें तो हैं ही, समसामयिक लेखों के लिये मुझे रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार मिल चुका है,पर मेरी मूल धारा में व्यंग्य १९८१ से है. व्यंग्य लेखन में क्या नही होना चाहिये इस सवाल का सीधा सा उत्तर है कि  व्यक्तिगत कटाक्ष नही होना चाहिये, इसकी अपेक्षा व्यक्ति की गलत प्रवृति पर मर्यादित अपरोक्ष प्रहार व्यंग्य का विषय बनाया जा सकता है. व्यंग्य में सकारात्मकता को समर्थन की संभावना ढ़ूंढ़ना जरूरी लगता है. जैसे मैं एक प्रयोगधर्मी व्यंग्य लेख लिख रहा हूं लाकडाउन में सोनू सूद के द्वारा किये गये जन हितैषी कार्यो के समर्थन में.

शशि पुरवार जी

प्रश्न: व्यंग्य विधा नहीं अपितु माध्यम है सभी विधाओं में अपनी सशक्त अभिव्यक्ति का.. क्या व्यंग्य  गद्य ही नहीं अपितु  पद्य विधा में भी मान्य है ?

मेरा जबाब… शशि जी आपके सवाल में स्वयं आपने उत्तर भी दे रखा है. पद्य में भी व्यंग्य मान्य है ही. मंचो पर तो इसका नगदीकरण तेजी से हो रहा है.

श्री राजशेखर चौबे जी

प्रश्न: आप परसाई जी की नगरी से आते हैं। उन तक कोई भी पहुंच नहीं सकता। इस दौर के व्यंग्यकारों में किसे आप उनके सबसे नजदीक पाते हैं ?

मेरा जबाब… राजशेखर जी, आप को मैं बहुत पसंद करता हूं और आपके व्यंग्य चाव से पढ़ा करता हूं लेते लेटे, क्योकि आप व्यंग्य को समर्पित संपूर्ण संस्थान ही चला रहे हैं, ऐसा क्यो मानना कि कोई परसाई जी तक नही पहुंच सकता, जिस दिन कोई वह ऊंचाई छू लेगा परसाई जी की आत्मा को ही सर्वाधिक सुखानुभुति होगी. एक नही अनेक  अपनी अपनी तरह से व्यंग्यार्थी बने हुये हैं, पुस्तकें आ रही हैं, पत्रिकायें आ रही हैं, लिखा जा रहा है, पढ़ा जा रहा है शोध हो रहे हैं, नये माध्यमो की पहुंच वैश्विक है, परसाई जी की त्वरित पहुंच वैसी नही थी जैसी आज संसाधनो की मदद से हमारी है. आवश्यकता है कि गुणवत्ता बने.नवाचार हो. मेरे एक व्यंग्य का हिस्सा है जिसमें मैंने लिखा हे कि जल्दी ही साफ्टवेयर से व्यंग्य लिखे जायेंगे. यह बिल्कुल संभव भी है. १९८६ के आस पास मैने लिखा था ” ऐसे तय करेगा शादियां कम्प्यूटर ” आज हम देख रहे हैं कि ढ़ेरो मेट्रोमोनियल साइट्स सफलता से काम कर रही हैं. अपनी सेवानिवृति के बाद आप सब के सहयोग से मेरा मन है कि साफ्टवेयर जनित व्यंग्य पर कुछ ठोस काम कर सकूं. आप विषय डालें,शब्द सीमा डालें लेखकीय भावना शून्य हो सकता है, पर कम्प्यूटर जनित व्यंग्य तो बन सकता है.

सुष राजनिधि जी

प्रश्न: क्या एक कवि बहुत बेहतरीन व्यंग्यकार हो सकता है? और हास्य और मार्मिक व्यंग्य के अलावा भी किस किस भाव में व्यंग्य लिखे जा सकते हैं?

मेरा जबाब.. बिल्कुल हो सकता है, भावना तो हर रचनाकार की शक्ति होती है, और कवि को भाव प्रवणता के लिये ही पहचाना जाता है. प्रयोगधर्मिता हर भाव में व्यंग्य लिखवा सकती है.

श्री प्रमोद ताम्बट जी, भोपाल

प्रश्न :विवेकरंजन जी,आप व्यंग्य लेखन के अलावा  नाटक में भी सक्रिय हैं। नाटकों में व्यंग्य के प्रयोग का प्रचलन काफी पुराना है। शरद जी, प्रेम जी और भी कई व्यंग्यकारों ने नाटक लिखे और बहुत सारे व्यंग्यकारों की रचनाओं के नाट्य रूपांतरण भी हुए। श्रीलाल जी का राग दरबारी देश भर में खूब खेला गया फिर भी हिंदी में नाटकों की भारी कमी है। क्या आपको नहीं लगता कि देश भर के व्यंग्यकारों को यह कमी पूरी करने के लिए कमर कसना चाहिए?

मेरा जबाब… बहुत अच्छा संदर्भ उठाया है प्रमोद जी आपने. हिन्दी नाटको के क्षेत्र में बहुत काम होना चाहिये. नाटक प्रभावी दृश्य श्रव्य माध्यम है. पिताश्री बताते हैं कि जब वे छोटे थे तो  नाटक मंडलियां हुआ करती थीं जो सरकस की तरह शहरों में घूम घूम कर नाटक, प्रहसन प्रस्तुत किया करती थीं. जल नाद मेरा एक लम्बा नाटक है जिसके लिये प्रकाशक की तलाश है. निश्चित ही व्यंग्यकार मित्र नाटक लेखन में काम कर सकते हैं, पर सप्लाई का सारा गणित मांग का है.

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा जी

प्रश्न : व्यंग्य रचना की पहचान करने के लिए कोई रेटिंग स्केल बनाना हो तो आप कैसे बनायेंगे ?

मेरा जबाब — इसके मानक ढेर से है । जैसे विज्ञान में  फंक्शन आफ लिखकर ब्रेकेट में अनेक पैरामीटर लिख सकते हैं, उसी तरह व्यंग्य के मानकों में  अपरोक्ष प्रहार, हास्य, करुणा, पंच, भाषा, शैली, विषय प्रवर्तन, उद्देश्य, निचोड़, बहुत कुछ हो सकता है जिस पर स्केलिंग की जा सकती है । मन्तव्य यह कि मजा भी आये, शिक्षा भी मिले , जिस पर प्रहार हो वह तिलमिलाए भी तो बढिया व्यंग्य कहा जा सकता है । सहमत होंगे  आप ?

श्री परवेश जैन जी

प्रश्न : व्यंग्य विधा को स्थापित करने हेतु हमें अपने नाम के पूर्व व्यंग्यकार जोड़ना क्या सही कदम होगा ? आपके पिता एक अच्छे कवि हैं आप पिता से अलग राह पर चल रहें हैं l  आखिर जीवन में साहित्यिक क्षेत्र में क्या देखना चाहते हैं और क्या स्थापित करना चाहते हैं ? व्यंग्य की नयी पौध को व्यंग्य के मूल तत्वों को समझने और जानने हेतु व्यंग्य सिद्धांत के तौर पर किन पुस्तकों को पढ़ना चाहिए ?

मेरा जबाब — परवेश जी आप स्वतः व्यंग्य और कविता को नये मानकों व नये माध्यमों से जोड रहे सक्रिय रचनाकार हैं. व्यंग्य अड्डा को विदेशों से भी हिट्स मिल रहे हैं. मेरे पूज्य पिताश्री ने संस्कृत के महाकाव्यों के हिन्दी श्लोकशः पद्यानुवाद किये हैं जिनमें भगवत गीता, रघुवंश आदि शामिल हैं. वे छंद बद्ध राष्ट्रीय भाव की रचनाओ के लिये जाने जाते हैं. ९४ वर्ष की आयु में भी सतत लिखते रहते हैं. मैं उनके लेखन से प्रोत्साहित तो हुआ पर मेरी रुचि व्यंग्य में हुई, मेरी बिटियों की भी किताबें आ गईं हैं पर उनकी व्यंग्य लेखन में रुचि नही. दरअसल लेखन अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत कला व अभिरुचि का विषय होता है. जैसा मैने राजशेखर जी के सवाल के जबाब में लिखा व्यंग्य में कुछ तकनीकी नवाचार कर पाऊ तो मजा आ जाये, पर यह अभी विचार मात्र है. मैंने अपने शालेय जीवन में जिला पुस्तकालय मण्डला की ढ़ेर सारी साहित्यिक किताबें पढ़ी और नोट्स बनाये थे. आज भी कुछ न कुछ पढ़े बिना सोता नही हूं . किससे क्या अंतर्मन में समा जाता है जो जाने कब पुनर्प्रस्फुटित होता है, कोई बता नही सकता. इसलिये नई पौध को  मेरा तो यही सुझाव है कि पढ़ने की आदत डालें, धीरे धीरे आप स्वयं समझ जाते हैं कि क्या अलट पलट कर रख देना है और क्या गहनता से पढ़ना है. क्या संदर्भ है और क्या वन टाइमर. हर रचनाकार स्वयं अपने सिद्धांत गढ़ता है, यही तो मौलिकता है. नई पीढ़ी छपना तो चाहती है, पर स्वयं पढ़ना नही चाहती. इससे वैचारिक परिपक्वता का अभाव दिखता है. जब १०० लेख पढ़ें तब एक लिखें, देखिये फिर कैसे आप हाथों हाथ लिये जाते हैं. गूगल त्वरित जानकारी तो दे सकता है, ज्ञान नही, वह मौलिक होता है, नई पीढ़ी में मैं इसी मौलिकता को देखना चाहता हूं.

श्रीमति अलका अग्रवाल सिगतिया जी  

प्रश्न.. आपने व्यंग्य के विषय चयन पर भी व्यंग्य लिखा है।यह बताएँ आप व्यंग्य लेखन के लिए विषय कैसे चुनते हैं। विषय,व्यंग्य को चुनता है,या,व्यंग्य विषय को? कितनी सिटिंग में परफेक्शन आता है? क्या व्यक्तिगत मतभेद के आधार पर आपके व्यंग्य में पात्र गढ़े हैं?…

मेरा जबाब… अलका जी, आप बहुविधाओ में निपुण हैं. आप में उत्सुकता और तेजी का समिश्रण परिलक्षित होता है. मैं सायास बहुत कम लिखता हूं, कोई विषय भीतर ही भीतर पकता रहता है और कभी सुबह सबेरे अभिव्यक्त हो लेता है तो मन को सुकून मिल जाता है. विषय और व्यंग्य दोनो एक दूसरे के अनुपूरक हैं, विषय उद्देश्य है और व्यंग्य माध्यम. मुझे लगता है कि कोई रचना कभी भी फुल एण्ड फाइनल परफेक्ट हो ही नही सकती, खुद के लिखे को जब भी दोबारा पढ़ो कुछ न कुछ तो सुधार हो ही जाता है.  चित्र का कैनवास बड़ा होना चाहिये, व्यक्ति गत मतभेद के छोटे से टुकड़े पर क्या कालिख पोतनी.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग-१ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–१

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

श्लोक—

यत्रसाक्षान्महादेवो देहान्तेस्ययीश्वर:।  व्याचष्टे तारकंब्रह्म तत्रैवहविमुक्तके।।१।।

वरूणायास्थ चास्येमध्ये वाराणसीं पुरी। तत्रैवस्थितंतत्वं नित्यमेव विभुक्तमं।।२।।

वाराणस्या:परस्थानं भूतों न भविष्यति। यत्र नारायणो देवों महादेवों दीवीश्वर:।।३।।

महापातकिनों देवी ये तेभ्यपापवृत्तमा:। वाराणसींसमासाद्यं तेयांति परमांम् गति।।४।।

तस्मान्मुमुक्षुर्नियतो बसे द्वै मरणांतकम्। वाराणस्यो महादेवान्ज्ञान लब्ध्वा विमुच्यते।।५।।

(पद्मपुराण स्वर्गखंड ३३–४६—४९–५०–५२—५३)

अर्थात् अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी में (वरूणा और असि) के बीच के क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होने पर मैं अर्थात महादेव जीवन जगत को तारक मंत्र (रामनाम) का उपदेश दे कर मोक्ष प्रदान करता हूँ। वरूणा और असि का यह क्षेत्र ही वाराणसी पुरी के नाम से विख्यात है। जहां नित्य विमुक्त तत्व विराज मान है। वाराणसी से उत्तम स्थान न तो हुआ है न तो होगा। जहां भगवान श्री नारायण हरि तथा मै महादेव स्वयं काशी के कण कण में विराजमान हूँ। हे देवि जो महापात की पापाचार में लिप्त है, वो वाराणसी में आकर समस्त पापों से मुक्ति पाकर मोक्ष प्राप्त करता है। मुमुक्षु पुरुष तो मृत्यु पर्यंत काशी वास की कामना करते हैं। जहां वह मुझसे आत्मज्ञान पा परमगति मोक्ष पा कर बंधनों से मुक्त हो जाता है।

पौराणिक श्रुति के अनुसार इस काशी का अस्तित्व शिव के त्रिशूल पर टिका है, जहां पिशाच मोचन कुंड पर भगवान विश्वनाथ कपर्दीश्वर महादेव के रूप में पूजित हो जीव को प्रेत योनि से मुक्त करते हैं। और व्यक्ति ब्रह्महत्या के पातक दोष से मुक्त हो जाता है। इस क्रम में पद्मपुराण में वर्णित  शंकुकर्ण ऋषि तथा प्रेतात्मा संवाद कथा पठन योग्य है। जहां धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी व्यक्ति प्रेतात्मा दोष निवारणार्थ तथा पितृ मोक्ष हेतु गया तीर्थ जाने से पूर्व पिशाच मोचन कुंड में स्नान कर  कपर्दीश्वर महादेव का पूजन कर पिंडदान करने का शास्त्रोक्त विधान है।

चौपाई —

विश्वनाथ मम नाथ पुरारी,

त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी।

(रा०च०मानस० बा०काण्ड१०६)

श्रीरामचरितमानस का पाठ करते समय अचानक इस चौ० के चरणांश पर नजरें सहसा ठिठक जाती है। तब काशी के अधिष्ठाता भगवान विश्वनाथ का स्वरूप काशी की महिमा उसकी अलमस्त शाही फकीराना अंदाज की जीवन शैली तथा काशी का प्राचीन इतिहास हमारी स्मृतियों में सजीव हो झांक उठता है।

ये वही काशी है, जिसकी आत्मा, मिट्टी तथा जीवन शैली में अध्यात्म गहराई से रचा बसा है। यहाँ की गलियों में बसे मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों, गिरजाघरों से उठती धूप, दीप, लोहबान, फूलो, अगरबत्तियों आदि की सुगंध तथा पवित्र मन से की गई पूजा आराधना घंटों घड़ियालों की ध्वनि वेद ऋचाओं का पाठ, मस्जिदों के परकोटो से आती अजान की ध्वनि, यहाँ की फक्कड़पन भरी जीवन शैली वाली फिज़ा में अमृत वर्षा करती कानों में मिठास घोल जाती है। गंगा घाटों के उपर मंडराते प्रवासी पक्षियों के झुंड तथा मस्ज़िदों के परकोटे पर दाना चुगते परिंदो की जमातें, जाति धर्म के झगड़ो से परे प्यार की बोली, भाषा समझने वाले जीव उन्मुक्त गगन में पंख  पसारे सिर के उपर गुजरते है तो बहुत कुछ कह जाते है। वे कभी मंदिर मस्जिद में भेद नहीं मानते।

वहीं पर गंगा की धारा पर स्वछंद अठखेलियां करती, विचरती  रंग बिरंगी नावें सहजता से आकाश में उड़ने वाली  पतंगो का भ्रम पैदा कर देती है। ऐसा लगता है कि रंग-बिरंगी पतंगों से आच्छादित आकाशगंगा धरती पर उतर आई हो। वहीं उन नावों में सवार  यात्री समूहों से उठने वाली भक्ति रस से सराबोर लोक धुनों पर आधारित स्वर लहरियां बरबस ही लोगों के ध्यानाकर्षण का केंद्र ‌बिंदु बन जाती है।

वे ध्वनियां जब कर्णपटल से टकराती है, तब मन के तार झंकृत करती हुई दिल में उतर जाती हैं। यहाँ की प्राचीन सभ्यता आज भी अपने आप में ‌इंसानियत का दामन थामे शांति पूर्ण सौहार्द के वातावरण का सृजन करती है।

यही कारण है कि आज भी हिंदू धर्मावलंबी मोक्षकामना लिए तथा अन्य लोग शांति की चाह लेकर काशी की जीवन पद्धति समझने के लिए आते हैं और अपने जीवन के अनमोल क्षण काशी को समर्पित करना चाहते हैं। कुछ तो मोक्ष की चाहत में यहीं के होकर रह जाते हैं।

श्री रामचरितमानस जिसकी रचना संत तुलसीदास जी ने काशी की गोद में बैठ कर की थी, काशी की महिमा लिखते हुए कहते हैं।

सोरठा—

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।

तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥

(रा०च०मानस किष्किंधा—२)

अर्थात् जो जन्म के बंधनों से मुक्ति देती है, ज्ञान की खान है पापों का नाश करने वाली है, उस काशी का सेवन क्यों न करें। जब काल कूट बिष के प्रभाव से सृष्टि का जीवन जल रहा था, उस विष को लोक हित में  जिसने पिया हो, ऐ मूढ़ मतिमंद इस शिव के समान दूसरा कौन कृपालु है जिसके लिए तूं अन्यत्र भटक रहा है, वैसे काशी और काशी के नाथ विश्वनाथ का इतिहास युगों-युगों पुराना है, ऐसा विद्वानों तथा पुराणों का मत है। लेकिन मेरा अपना मानना है कि काशी गंगा से भी अतिप्राचीन इतिहास के कालखंड का हिस्सा है। पौराणिक काल की गंगा अवतरण का किस्सा तो राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयास का परिणाम है, लेकिन उनके कई पीढ़ी पूर्व उनके पूर्वज काशी आकर सत्यपथ का अनुसरण कर खुद को डोमराजा के हाथ बेच चुके थे। यह तथ्य पौराणिक कथाओं के अध्ययन से  उद्घाटित होता है। इसकी अपनी अलग ही सांस्कृतिक विरासत तथा समृद्धशाली जीवन शैली है। जहां के लोग कुछ पाने नहीं कुछ देने का भाव रखते हैं।

ये वही काशी है जहां की गरिमा तथा मर्यादा की रक्षा में विरक्तिपूर्ण त्यागमयी जीवन शैली अपनाकर नित्य उच्च आदर्शो के नये किर्तिमान गढ़ते संत समाज के दर्शन किए जा सकते हैं। इसी जीवन क्रम में शंकराचार्य, संत रविदास, संत कबीर दास, संत तुलसीदास, पं मदन मोहन मालवीय, मीरा, झांसी की रानी (मनु), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रशेखर आजाद के त्याग तपस्या, भक्ति तथा साहित्य साधना के कर्मों के इतिहास सिमटे भरे पड़े हैं, जो काशी को गरिमामयी गौरव प्रदान करते हैं तथा काशी की गरिमा में चार चांद लगा देते हैं।

शेष क्रमशः अगले अंक में ——-

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ अभिप्राय ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ वाचकांचे अभिप्राय 

मला उज्ज्वला केळकर यांनी ई-अभिव्यक्तीच्या लिंक शेअर केल्या. त्यातील साहित्य मी वाचते. अनेक नवीन लेखक/लेखिकांचे साहित्य वाचायला मिळाले.

सध्या आमची लायब्ररी बंद असल्यामुळे पुस्तके वाचायला मिळत नाहीत.  ई-अभिव्यक्ती वर वेगवेगळे साहित्य प्रकार वाचायला मिळाले. त्यासाठी संपादक मंडळ ई-अभिव्यक्ती यांचे मनःपूर्वक आभार !

मला ज्योती जोशी यांचा माझी दुपार हा लेख  आणि मंजुषा मुले यांची आशीर्वाद ही अनुवादित लघुकथा आवडली.

– अलका परांजपे

आभार 

सम्पादक मंडळ (मराठी) 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मध्यमवर्ग ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ मध्यमवर्ग ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆ 

यावेळचा पाऊस

खूप खूप मोठ्ठा होता.

काऊचं शेणाचंच नव्हे, तर

चिऊचं मेणाचं घरही वाहून गेलं.

काऊ चिऊकडे धावला

मदत मागायला.

पण चिऊ स्वतःच झाली होती बेघर.

 

काऊ गेला परत, विचार करत

आता काय करू?

कोणा हाक मारू?

तोच  काऊकडे  आला  कोणी

घेऊन बिस्कीटे -चहापाणी.

दुसरा आला खिचडी घेऊन

तिसरा आला कपडे घेऊन

एकेकजण येतच गेला

काऊला मदत देतच गेला

काऊ रिलिजियसली रांगेत उभा.

कधी  रॉकेलच्या

कधी अंथरुणाच्या

कधी कपड्यांच्या

कधी पांघरुणांच्या

हळूहळू काऊचं घर उभं राहिलं.

 

चिऊकडे कोणीच नाही आलं

रांगेत उभं राहणं,  नव्हतं

तिच्या प्रतिष्ठेला शोभणारं

जवळच्यांनी केली मदत प्रथम

नंतर चिऊलाच ऑकवर्ड वाटू लागलं,

रोज रोज त्यांची मदत घ्यायला.

त्यांनाही वाटायचं हिला विचारलं

तर हिचा इगो दुखावणार  नाही ना?

उगीच रिलेशन्स  नको स्पॉईल  व्हायला.

चिऊला  वाटायचं, कसं मागू?

शरमेने भरून जायचं तिचं मन.

 

काऊचं  घर केव्हाच उभं राहिलं

-पूर्वीपेक्षाही चांगलं.

चिऊ मात्र अजून

जमवतेय काड्या काड्या

घर बांधायला.

 

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

फोन नं. 9820206306.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ऋतूरंग ☆ सौ. सुरेखा सुरेश कुलकर्णी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ ऋतूरंग ☆ सौ. सुरेखा सुरेश कुलकर्णी ☆ 

 

संपता संपता शिशिराने वसंताला साद दिली .

गोड गुलाबी थंडीतून  पानझडी संपून गेली .

जुनीपुराणी पिवळी पाने गळून

आता पाचोळा झाली.

उघड्या बोडक्या झाडावरती नवी वस्त्रे लेवू लागली.

हिरवी कोवळी छान पालवी झाडे आता पांघरु लागली.

वसंत ऋतुचे वैभव सारे हिरवाई हीघेऊ लागली  .

 

आम्रतरूवर मोहर फुलतो

गंधा संगे सूरही जुळतो .

कोकीळ सुस्वर पाना आडून रंगामध्ये तान मिसळतो.

ग्रीष्म तापला तरीही येथे फुले बहावा गुलमोहर तो

आषाढाचा काळा मेघही अमृतधारा इथे बरसतो.

सप्तरंगी ते इंद्रधनू नभी मोर हीनाचे पिसेफुलारूनी

 

निसर्ग पटला वरती उधळण नवरंगाची वर्षा ऋतुनी.

 

शरद ऋतूचे शुभ्र चांदणे दुधात न्हाली धरतीओली

समृद्धीचा रंग पसरला धनधान्याची रास ओतली.

हेमंताचा प्रेम गोडवा संक्रांतीचा रंगीत हलवा

फळा फुलांनी तरु बहरले ऋतू रंगाचा कुंचला नवा.

कृपाछत्र हे सहा ऋतूंचे नेम याचा कधीन चुकला

जीवनात ते रंग बहरती सुख-समृद्धी या जगताला.

 

© सौ. सुरेखा सुरेश कुलकर्णी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रिंइन्व्हेंट ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ ज्योती विलास जोशी 

☆ जीवनरंग ☆ रिंइन्व्हेंट ☆ सौ ज्योती विलास जोशी ☆ 

 

आज रविवार… म्हणून सहजच विद्याला सकाळ सकाळी फोन केला.

“काय विद्या काय चाललंय?”

“काही नाही गं !नेहमीचच जगण्यासाठीची धडपड …..

तिच्या या उत्तराने मी सटपटले.

” का ग ,काय झालं ?बरं नाही का?”

” मला काय धाड झाली.” पुन्हा तसाच सूर विद्याचा….

“गडबडीत आहेस का? नंतर फोन करते.”

तिचा मूड खराब आहे हे लक्षात आलं.

“नाही गडबड कसली? पण जिवाला शांतपणा म्हणून नाही बघ! सकाळी उठल्यापासून…….

“नुसती जगण्यासाठी धडपड असंच ना ?” मी तिला टोकले.

“नाहीतर काय अगं !”

पण झालं तरी काय सांगशील…..

“अगं अगदी रेसचा घोडा झाले बघ !!थांबायचं कुठं हे मला समजलं पण उपयोग काय त्याचा? लगाम ज्याच्या हाती त्याला तर समजायला हवं ना ?”

म्हणजे कामानं थकली आहेस म्हण….

“मला वाटलंच तुला असच वाटलं असणार!!”

सोड ना आता ती बँकेची नोकरी…व्हीआरएस घे . काय प्रॉब्लेम आहे ?

“तेच तर मला करायचं नाहीये ना”

दोन्हीकडून बोलतेस बाई! मनात तरी काय आहे तुझ्या? तुझा प्रॉब्लेम सोडवायचा तरी कसा?

“मला रिंइन्व्हेंट व्हायचयं ”

मी आ वासला .

“अगं खरंच फ्रस्ट्रेशन आलयं. इतकी वर्ष काम करते मी बँकेत .कधी म्हणून मला कंटाळा आला नाही ….अगदी आवडीचं काम आहे ते माझं. ना बॉसची कटकट न सहकाऱ्यांची पण आताशा नकोच वाटायला लागलयं सगळं .कधी एकदा आठवडा संपतो असं वाटतं आणि रविवारी सगळा राग घरातल्यावर निघतो ”

मला तरी अजून तुझा विषय समजलेला नाही. बोलून मोकळी हो बरं आणि री इन्व्हेंट म्हणजे काय हे ही सांग. “अगं काळाशी मिळतंजुळतं न घेणारी माणसे कालबाह्य होतात स्वतः ला री इन्व्हेंट न करणारी माणसे स्पर्धेतून बाद होतात”

अच्छा म्हणजे कामाचं प्रेशर आहे तर …मी अजून कोड्यातच !!

“तसं म्हण हवं तर!” असं म्हणून ती बोलू लागली.

” काय झालंय आताशा कोर बँकिंग सुरू झाले आहे. सगळं काही डिजिटल कॉम्प्युटराईजड!!… पेनलेस आणि पेपरलेस असं कामाचं स्वरूप आहे. इतके दिवस आम्ही जे मॅन्युअली करत होतो ते सगळं आता कॉम्प्युटर वर करावे लागते आम्हाला ते जमत नाही. बँकेने कॉम्प्युटर हाताळणारी प्रशिक्षित टीम अपॉईंट केली आहे आम्हा प्रत्येकाच्या मागे त्यातील एक कॅंडिडेट असतो. दिवसभर त्यांची मदत घेऊन आम्हाला काम करावे लागते .”

मग तुला प्रॉब्लेम काय आहे ?नवीन पिढीला महत्व दिलं म्हणून इतकी चिडली आहेस का ?

“जखमेवर मीठ चोळलसं माझ्या! तसं नाही गं, स्वतःबद्दल आम्ही मंडळी साशंक झालो आहोत. आम्हाला हे जमेल का? आकलन होईल का ?या मुलां इतका स्पीड येईल का? कस्टमर समोर सुद्धा बऱ्याच वेळेला की बोर्ड सहज हाताळता येत नसल्याने अपमान होतो .

बालवाडीत असल्यासारखं वाटतं. फरक इतकाच की त्यावेळी आम्ही निरागस होतो त्यामुळे अपमान हा शब्द आमच्या शब्दकोशात आलेला नव्हता .पण आताशा ‘इगो ”अपमान ‘असे शब्द आमच्या शरीराला चिकटलेले आहेत .एकदा वाटतं बस झालं व्हीआरएस घ्यावी पण मन हार मानायला तयार नाही .तुला काय वाटतं ?”विद्यानं मला बोलायला वाट करून दिली .

‘ विद्या मी तुला एक उदाहरण सांगते. बघ पटतंय का ते हरिणाला ठाऊक असतं की अत्यंत वेगवान अशा सिंहा पेक्षा जोरात पळाव लागेल नाहीतर आपण शिकार झालोच म्हणून समजा.त्याच प्रमाणे सिंहालाही ठाऊक असते की आपल्या पेक्षा जोरात पळणाऱ्या हरणाला गाठायचं असेल तर वेग वाढवायला हवा नाहीतर आपला उपवास ठरलेला! तुला वाटणारी ही रेस ही स्पर्धा म्हणजे जीवनाचा अपरिहार्य अविभाज्य असा भाग आहे. यथाशक्ती प्रयत्न करत राहणं हेच आपल्या हातात आहे. तुझ्या वयात एक्सेप्टन्स असणं जरुरी आहे .

मन हार मानायला तयार नाही हे तुझं वाक्य सकारात्मक आहे….. मनाला ऊर्जा देणारे औषध आपल्या शरीरात आहे हे ध्यानात असू दे.

“थोडक्यात काय बँकेच्या दारा बाहेर अपमान अहंकार सोडून आत प्रवेश करते आणि स्वतःला युवापिढीच्या मदतीने रिंइन्व्हेंट करते. इतकं सोपं आहे ते”.

माझ्या एका सहज केलेल्या फोन मुळे विद्याचे चित्त शांत झालं याचं मला आत्यंतिक सुख वाटलं.

 

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

[email protected]

9822553857

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ काळ आला होता पण ☆ श्री उद्धव भयवाळ

श्री उद्धव भयवाळ

☆ विविधा ☆ काळ आला होता पण … ☆ श्री उद्धव भयवाळ  ☆ 

 स्टेट बँकऑफ हेद्राबादच्या शहागड शाखेतून माझी बदली हिंगोली शाखेला झाल्यामुळे मला एक आठवड्याचा ‘जॉईनिंग पिरियड’ (नवीन शाखेत रुजू होण्यासाठीचा अवकाश ) मिळाला म्हणून मी आणि माझी पत्नी सौ. निर्मला एक आठवड्यासाठी औरंगाबादला घरी थांबलेलो होतो. त्या दरम्यान नऊ ऑक्टोबर २००४ रोजी ही घटना घडली.

माझा मोठा मुलगा मनोज आणि सुनबाई सौ. अर्चना इथेच राहात होते.  मध्यंतरी माझा छोटा अपघात झाल्यामुळे मला भेटण्यासाठी म्हणून छोटा मुलगा रवींद्रही मुंबईहून आदल्या दिवशीच आला होता.

नऊ ऑक्टोबर रोजी सकाळी साडेसहा वाजेच्या दरम्यान नेहमीप्रमाणे सौ. फिरण्यासाठी बाहेर गेली आणि मी, घरात येऊन पडलेले ताजे वर्तमानपत्र हातात घेऊन वाचू लागलो. मुले साखरझोपेमध्ये होती. साधारणपणे साडेसातच्या दरम्यान सौ. ‘मॉर्निंग वॉक’ हून परत येईल आणि नंतर चहा करील असा अंदाज बांधून मी ब्रश करण्यासाठी बेसिनजवळ गेलो. एका हातात टूथपेस्ट घेतली अन् दुसऱ्या हातात ब्रश घेतला. पण दोन्ही हात जणू गळून गेल्यासारखे झाले. त्यामुळे पेस्ट आणि ब्रश एकत्र येईचना. मी ब्रशवर पेस्ट लावण्याचा प्रयत्न करीत असतांनाच छातीत जोरात कळ आली. मी हातातील ब्रश आणि पेस्ट खाली सोडून दिली अन् पटकन जमिनीवर पाठ टेकली. दोन्ही पाय सरळ केले. तितक्यात माझ्या छातीवर जणू हत्तीने पाय दिल्यासारखे आणि कुणीतरी माझी छाती आवळल्यासारखे वाटले अन् पूर्ण अंग घामाने ओलेचिंब झाले. लगेच माझ्या मनात विचार चमकून गेलाकी, “हीच माझी शेवटची घटका आहे. मी आता मरणार आहे.” त्या क्षणी मी अक्षरश: मृत्यूच्या दारात उभा आहे असे मला वाटले.

मी तशाही स्थितीमध्ये मुलांना हाक मारण्याचा प्रयत्न केला. पत्नी अद्याप फिरून आली नव्हती. मुलांनी आवाज ऐकला आणि दोन्ही मुले वरच्या बेडरूममधून पटकन खाली आली. काय झाले असेल ते त्यांच्या लक्षात आले आणि त्यांनी मला ताबडतोब कारमध्ये बसवून हेडगेवार रुग्णालयामध्ये हलविण्याची तयारी केली. इतक्यात पत्नीही आली. तिला काहीच कळेना. तिला मुलांनी काहीही न सांगता फक्त गाडीत बसण्यास सांगितले. ती वेळ घरातील सर्वांसाठीच कसोटीची होती. हेडगेवार रुग्णालयामध्ये तिथल्या डॉक्टरांनी मला क्षणाचाही विलंब न लावता ताबडतोब दाखल करून घेतले आणि सॉर्बिट्रेटची गोळी जिभेखाली धरायला लावली. हळूहळू छातीमधल्या वेदना कमी झाल्या आणि मला बरे वाटू लागले.

“इस्केमिक हार्ट डिसीज” असे माझ्या हृद्यरोगाचे डॉक्टरांनी निदान केले. पुढे जवळजवळ आठवडाभर मी हॉस्पिटलमध्ये राहून नंतर घरी आलो. मुलांनी तातडीने मला त्या दिवशी हॉस्पिटलमध्ये नेले म्हणून मी मृत्यूच्या दारातून परत आलो. त्या दिवशी काळ आला होता पण वेळ आली नव्हती हेच खरे.

 

© श्री उद्धव भयवाळ

१९, शांतीनाथ हाऊसिंग सोसायटी, गादिया विहार रोड, शहानूरवाडी, औरंगाबाद -४३१००९

मोबाईल: ८८८८९२५४८८ / ९४२११९४८५९

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ओझं… ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

☆ मनमंजुषेतून ☆ ओझं… ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

मावळतीच्या उतारावरून परत निघालेला निस्तेज सूर्य रोजच दिसतो खरा. पण आज मात्र त्याला पाहून आपसूकच जाणवलं की, आपलीही गाडी आता उताराच्या दिशेने जायला लागली आहे. गाडीतल ओझं फारच वाढल्याचं आताशा  वाटायला लागलंच होतं; आणि उताराला लागण्याआधी ते हलकं करायला हवंच होतं. मग हिम्मत करून आयुष्याचं जडशीळ गाठोड एक दिवस उघडायला घेतलं. त्याला घातलेल्या गाठींमधली पहिली गाठ लवकर सुटली. हेही माझे, तेही माझे करताकरता किती काय काय साठवून ठेवले होते मीच…. आता या अडगळीची विल्हेवाट लावून टाकायचीच अशा निश्चयाने कामाला लागले. कारण अजून थोडी तरी शक्ती बाकी होती. तीही संपल्यावर, हे प्रचंड ओझं सोबत घेऊनच पुन्हा पुढच्या गाडीत बसावं लागणार याची खात्री होती. पहिली गाठ सोडताच दिसल्या, मीच साठवलेल्या असंख्य वस्तू…… काही गरज म्हणून, काही आवडल्या म्हणून, आणि त्याहीपेक्षा जास्त वस्तू, केवळ हिच्याकडे- तिच्याकडे आहेत, मग माझ्याकडे हव्यातच, या हव्यासापोटी घेतलेल्या ….. पण या वस्तू “दानधर्म” म्हणत वाटून टाकणं फारसं अवघड गेलं नाही. दरवेळी मनावर मोठा दगड ठेवून ते काम त्यामानाने सहज उरकलं.

दुसरी गाठ मात्र जास्तच घट्ट होती. ती सोडवण्यात खूप वेळ गेला. आणि मग तो पसारा कसा आवरायचा कळेचना. त्यात होत्या….. नात्या-गोत्यांमुळे, ओळखी-पाळखींमुळे, कळत-नकळतजमा झालेल्या असंख्य आठवणी… काही जागरूकपणे आवर्जून जपलेल्या, आणि बऱ्याचश्या नकळतच साठत गेलेल्या. तो गुंता सोडवतांना हळूहळू लक्षात आलं की, हा पसारा आवरण्यात वेळ घालवण्याची गरज नाही.  उतारावरून जातांना औपचारिक आठवणी आपोआपच घसरून पडतील. आणि आवर्जून जपलेल्या आठवणी.. सोबत नेण्यासाठीच तर वर्षानुवर्षे जपल्यात. मग ती गाठ हलकेच पुन्हा मारून टाकली.

शेवटची गाठ सोडवताना मात्र दम संपायला लागला. खूप प्रयत्नांती थोडे सैल झालेले काही पदर ओढून पाहताक्षणी प्रचंड दचकले. जणू गारुड्याची पोतडीच होती ती. नको नको त्या मिजासींचे खवले मिरवणारे अहंकाराचे पुष्ट साप, द्वेष-असूया-मत्सर अशा जालीम विषांचे डंख मारायला टपलेले विंचू, मोह-मायेचे गोंडस पण फसवे रूप घेऊन वश करणाऱ्या कितीतरी बाहुल्या, ऐहिक सुखाच्या राशींवर बसून अकारण फुत्कारणारे मदमत्त नाग, आणि लहानशा सुखासाठी सुद्धा सतत वखवखलेल्या इंगळ्या………

बाप रे….. हे इतकं सगळं माझ्याकडे कधी, कसं आणि का साठवलं गेलं होतं ते मलाही कळलंच नव्हतं. पण हे ओझं इथेच उतरवून टाकलं नाही तर जिथे जायचंय ते ठिकाण नक्कीच गाठता येणार नाही, याची मात्र आता उशिराने का होईना, खात्री पटली होती. हा पसारा आवरणे खूपच कठीण आणि वेळखाऊ असणार हे मनापासून उमगल आणि मग चंगच बांधला. सुरुवातीला अशक्य वाटून धीर खचायला लागला होता खरा. पण याच पोतडीत अगदी तळाला जाऊन दडलेली दिव्य अस्त्रे नजरेस पडली……. सतप्रवृत्ती, सारासार विवेक आणि आजपर्यंत कधीच न जाणवलेला स्वतःतला ईश्वरी अंश… अशी कित्तीतरी अनमोल अस्त्रे बाहेर काढून लखलखीत केली आणि त्या इतर घातक गोष्टींना वारंवार चांगलंच झोडपून नेस्तनाबूत करणे सुरू केले. हळूहळू पण निश्चितपणे तो पसारा बराचसा आवरला गेला. यात अतिशय वेळ गेला, अंगातलं त्राणच गेलं हे खरं. पण मन मात्र खूप प्रसन्न झालं. आता गाडीत बसतांना ओझं वाटण्यासारखं काहीच बरोबर असणार नव्हतं. असणार होत्या ठेवणीतल्या प्रसन्न आठवणी, आणि भक्तिभावाची कोरांटीची फुलं ….हो. कोरांटीच. कारण आयुष्य सरत आलं तरी, येतांना आणलेले भक्तीच्या मोगरीचे इवलेसे रोप नीट रुजले आहे का ते पहायचं, त्याला खतपाणी घालायच, हे विसरतांना कारणांची कमी भासलीच नव्हती कधी. आणि आवराआवर करतांना शेवटी, एका कोपऱ्यात तग धरून राहिलेली ही कोरांटी दिसली…. त्या मोगऱ्याच्या जागी. पण तिची फुलेही पांढरीशुभ्र होती, त्यामुळे मन जरा शांतावले.  आणि ज्याच्याकडे जायचं होतं त्याला भेट काय द्यायची हा संभ्रम तर नव्हताच …. मी स्वतःच तर होते ती भेटवस्तू…………..

आता गाडी कधीही आली तरी मी तयार आहे ………..

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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