हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तकलीफदेह है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तकलीफदेह है 

 

तकलीफ़देह है

बार-बार दरवाज़ा खोलना

जानते हुए कि

दस्तक नहीं दे रहा कोई,

ज़्यादा तकलीफ़देह है

हमेशा दरवाज़ा बंद रखना,

जानते हुए कि

दस्तक दे रहा है कोई,

बार-बार, लगातार..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह, *मैं नहीं लिखता कविता।*)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ आइना ☆ श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

☆ कविता  –  आइना ☆

कविता के जुलूस में

कवि ने पढा़ –

अंधेरे !

अगर वाकई तू

इतना ही सच्चा होता

तो क्या आइनों को

तोड़ कर

इस तरह भागता ?

–सूरत

छिपा कर हंसता

—बोलने से बचता

इस तरह खुश मत हो

अपनी ही घड़ी को

तोड़ कर

क्योंकि समय को

तोड़ने -फोड़ने के

फालतू अहंकार में

यह भी भूल गया तू

कि आइने के

जितने भी टुकड़े करेगा

उतने ही टुकड़ों में

चमकेगा

सूरज!

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 – व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला संस्मरणात्मक व्यंग्य  “यादों में पंगत – पंगत में गारी ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 ☆

☆ संस्मरणात्मक व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी   

पंगत में जमीन में बैठकर दोना पतरी में खाने का यदि आपने  आनंद नहीं लिया , तो खाने के असली सुख से वंचित रह गए।

एक बार परिवार मे संझले भाई की शादी में बारात में गए। गांव की बारात थी डग्गा में डगमगाते कूदते फांदते दो घंटा में बारात लगी, बारात गांव के गेवड़े में बने खपरैल स्कूल में रोकी जानी थी पर लड़की वालों का सरपंच से झगड़ा हो गया तो लड़की वालों ने आमा के झाड़ के नीचे जनवासा बना दिया। आम के झाड़ के नीचे पट्टे वाली दरी बिछा दी। सब बाराती थके हारे दरी में लेट गए। आम के झाड़ से बंदर किचर किचर करन लगे और एक दो बाराती के ऊपर मूत भी दिये। एक बंदर दूल्हे की टोपी लेकर झाड़ में चढ़ गया। रात को आगमानू भई तब बंदर झाड़ छोड़ कर भगे। दूसरे दिन दोपहर में पंगत बैठी। पंगत में बड़ा मजा आया, औरतें की गारी चालू हो गई थी…. “जैसे कुत्ता की पूंछ वैसे समधी की मूंछ….. कुत्ता पोस लो रे मोरे नये समधी…… कुत्ता पोस लेओ…………”

बड़े बुजुर्गों को सब परोसा गया।  फिर कुछ लोगों की मांग पर अग्निदेव परोसे गए, नाई ने जब देखा कि भोग लगने पर खाना चालू हो जाएगा, भोग लगने के पहले भरी पंगत में नाई खड़ा हो गया, बोला – “साब, इस पंगत में गाज गिर सकती है।”

बड़े बुजुर्ग बोले “गंगू,  यदि गाज गिरी तो सब के साथ तुम्हारे ऊपर भी तो गिर सकती है।” गंगू नाई ने सबके सामने तर्क दिया “साब, मैं तब भी बच जाऊँगा कयूं कि जैसे सबके पत्तल में  मही – बरा परसा गया  है पर मुझे छोड़ दिया गया है। यदि गाज बरा में गिरी  तो मैं बच जाऊँगा ……. ” तुरंत  गंगू नाई को दो दोना में मही बरा परसा गया तब कहीं पंगत में भोग लग पाया।

फिर लगातार चुहलबाजी चलती रही परोसने वाले थक गए। औरतें डर गईं कहीं खाना न खतम हो जाय इसलिए औरतों ने गारी गाना बंद कर दिया और पंगत में बंदरों ने हमला कर दिया। सब अपने अपने लोटा लेकर भागे। लड़की वालों की इज्जत बच गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #32 – घर बनायें स्वर्ग ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “घर बनायें स्वर्ग”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 32 ☆

☆ घर बनायें स्वर्ग 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

© अनुभा श्रीवास्तव्

 

घर बनायें स्वर्ग

 

 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी

अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो

को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 31 – बालगीत – फटाके ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है अतिसुन्दर बालगीत “फटाके” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 31 ☆ 

 ☆ बालगीत – फटाके

 

हवे कशाला उगा फटाके

ध्वनी प्रदूषण वाढायला।

जीव चिमुकले,  प्राणी पक्षी

वाट मिळेना धावायला ।

 

आनंदाचा सण दिवाळी,

सारे आनंदाने गाऊ या।

मना मनाती ज्योत लावूनी,

आज माणूसकीला जागू या।

 

दीन दुखी नि अनाथ बाळा,

नित हात तयाला देऊ या।

अंधःकारी बुडत्या वाटा,

सहकार्याने उजळू या।

 

रोज धमाके करू नव्याने,

कुजट विचारा उडवू या।

ऐक्याचे भूईनळे लावूनी,

आनंद जगती वाटू या।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)

 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ।।21।।

 

स्वर्ग भोग क्षय पुण्य पर कर इहलोक प्रवेश

पड़ चक्कर में भोग के सहते विविध कलेश।।21।।

 

भावार्थ :  वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।।21।।

 

They, having enjoyed the vast heaven, enter the world of mortals when their merits are exhausted; thus abiding by the injunctions of the three (Vedas) and desiring (objects of) desires, they attain to the state of going and returning.।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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मराठी साहित्य – ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन ☆ कविता – जर ….! ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

हमारे लिए यह गर्व का विषय है कि  ९३ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, उस्मानाबाद  में वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे  जी की गरिमामय काव्य प्रस्तुति निमंत्रित कवि सम्मलेन  में आज 12 जनवरी 2020 को दोपहर 12 बजे से 2 बजे के सत्र में  मंडप – 2 सेतुमाधवराव पगड़ी साहित्यमंच पर सुनिश्चित की गई है। आप आज इस अभूतपूर्व अखिल भारतीय कार्यक्रम में अपनी कविता  ‘जर…..’ प्रस्तुत कर  रहीं हैं । हम आपकी यह रचना ससम्मान अपने पाठकों  के साथ साझा करने जा रहे हैं। )

इस गरिमामय प्रस्तुति के लिए ई-अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभकामनायें

☆ जर….. ☆ 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे….

तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…

कुणाला आवडो न आवडो…

त्यात असेल एक गाव….

परीकथेतला….

आजोबा म्हणायचे,

“तुम्ही काहीही  सांगाल, आम्हाला खरं वाटलं पाहिजे ना ? ”

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी,

परीकथेत असतील इतरही प-या,

यक्ष ,जादू च्या छड्या, चेटकिणी,

घडेल काही आक्रित,

नियती वाचवेल प्रत्येकवेळी परीला…..

परीला पडतील स्वप्न….अगदी साधीसुधी….

ती खेळेल भातुकलीचा खेळ

बाहुला बाहुलीचे लग्न ही लावेल….

 

ती हरवेल कधी जंगलात, कधी गर्दीत….

तिला सापडणार नाहीत हवे ते रस्ते…

ती रस्ता चुकेल, रडेल,

दुखेल, खुपेल तिलाही…

ती सहन करेल तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार…

 

आयुष्यात प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्ध च घडणार आहे,

हे माहित असूनही,

ती लावेल पत्त्यांचे

नवे नवे डाव आणि हरत राहिल वारंवार!

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी, गाईल गाणी,

खेळेल  ऐलोमा पैलोमा….

 

ती करेल स्वयंपाक, थापिल भाकरी, कधी सुगरण असेल ती तर कधी करपेल तिचा भात,पोळी कच्ची राहिल,

आडाचं पाणी काढायला जाताना…तिचे पडतील ही दोन दात…

केस पांढरे होतील, सुरकुत्या पडतील चेह-यावर…..

परी म्हातारी होईल, तरीही तिला काढावसं वाटेल आडाचं पाणी….

कुणी म्हणेल ही सहजपणे….

“धप्पकन पडली त्यात”

ती पडेल आडात,पाण्यात की खडकावर माहित नाही…..

तिने हातात गच्च धरून ठेवलेला शिंपला पडेल त्याच आडात…

 

आणि आजूबाजूच्या फेर धरणा-या तरूण प-या म्हणतील….

आडात पडला शिंपला…..तिचा खेळ संपला!

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…..

जी आली होती जन्माला बाईच्या जातीत…..आणि मेली ही बाई म्हणूनच!

 

आणि ही कथा तुम्हाला नक्कीच खरी वाटेल

परीकथा असूनही..

 

© प्रभा सोनवणे 

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

 

आदरणीया सुश्री प्रभा सोनवणे जी का अति-लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात”  शीर्षक से प्रत्येक बुधवार को नियमित रूप से प्रकाशित होता है। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #30 ☆ विश्वास☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 30 ☆

☆ विश्वास ☆

 

भोर अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना!! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुद को प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्य रूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाश प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी। प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?” मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में ।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8.29, 7.1.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 32 ☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज का व्यंग्य  है अफसर की कविता-कथा।  वास्तव में  अफसर की कविता – कथा  अक्सर अधीनस्थ  साहित्यकार की व्यथा कथा हो जाती है । डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता  और इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 32 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆

 

भूल मेरी ही थी कि मैं उस शाम अपने अफसर को कवि-सम्मेलन में ले गया। दरअसल मेरी नीयत उनको मस्का लगाने की थी। कवि-सम्मेलन में मैं तो वहाँ आने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए ‘वाह वाह’ करता रहा और अफसर महोदय अपने हीनभाव को दबाने के लिए बार बार सिर हिलाते रहे। मैं जानता था कि कविताएं उनके सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं और कविता जैसी चीज़ से उनका दूर का भी वास्ता नहीं था।

फिर हुआ यह कि एक कवि ने एक कविता सुनायी जो कुछ इस प्रकार थी—–

‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ,
फाइल ही मेरी ज़िन्दगी है।
फड़फड़ाता हूँ लेकिन मुक्ति कहाँ है?’

और मुझे लगा जैसे मेरे अफसर को किसी ने घूँसा मार दिया हो। कविता खत्म होने पर वे बड़ी देर तक ‘वाह वाह’ करते रहे। कविताएं चलती रहीं लेकिन वे सब कविताओं से बेखबर उस एक कविता को याद करके आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करते रहे।

कवि-सम्मेलन खत्म होने पर जब हम घर लौटे तो वे रास्ते भर ‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ’ दुहराते रहे। अलग होते समय उन्होंने मुझे कई बार धन्यवाद दिया। मेरी आत्मा गदगद हो गयी।

दूसरे दिन दफ्तर में दोपहर को साहब के पास मेरा बुलावा हुआ। उन्होंने बड़े आदर के साथ मुझे बैठाया। मैंने देखा, वे कुछ नयी बहू जैसे शर्मा रहे थे। मुख लाल हो रहा था। थोड़ी देर तक वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर कुछ और शर्माते हुए उन्होंने दराज़ से एक कागज़ निकाला और मुझे पकड़ा दिया। मैंने देखा, उस कागज़ पर एक कविता लिखी थी, इस प्रकार—–

‘टाइपराइटर की चटचट,
टेलीफोन की घनघन,
यही मेरा जीवन,
यही मेरा बंधन।
जो देखे थे सपने,
दफन हो चुके हैं,
बगीचे सभी
सूखे वन हो चुके हैं।
कहाँ खो गये हाय
वे सारे उपवन।’

इसी वज़न के तीन और छन्द थे। आखिरी पंक्ति थी, ‘खतम हो चुका है उमंगों का राशन।’

मैंने पढ़कर सिर उठाया।वे भयंकर उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। बोले, ‘कैसी है?’

मैंने सावधानी से उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’

वे मुस्कराये, बोले, ‘मेरी है।’

मैं पहले ही भाँप रहा था। कहा, ‘प्रथम प्रयास की दृष्टि से काफी अच्छी है। आप तो छिपे रुस्तम निकले।’

वे काफी प्रसन्न हो गये।

फिर वे रोज़ चार छः कविताएं लिखकर लाने लगे। रोज़ मेरी पेशी होती और मुझे सारी कविताएं सुननी पड़तीं। घरेलू समस्याओं का समाधान सोचते हुए मैं आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करता रहता। मेरा काम करना दूभर हो गया। उनसे धीरे से काम की बात कही तो उन्होंने मेरा ज़्यादातर काम छिंगे बाबू को सौंप दिया। नतीजा यह हुआ कि मेरे साथियों ने मेरा नाम ‘नवनीत लाल’ और ‘ठसियल प्रसाद’ रख दिया।

मेरे अफसर महोदय अपने को पक्का कवि समझ चुके थे। कई बार मुझे दफ्तर से घर पकड़ ले जाते और बची-खुची कविताओं को वहाँ सुना डालते। एक दिन भावुक होकर कहने लगे, ‘मिसरा जी, आपसे क्या छिपाना। मेरा दिल टूटा हुआ है। ब्याह से पहले मेरा एक लड़की से ‘लव’ चलता था। माँ-बाप ने दहेज के लालच में इनसे शादी कर दी, लेकिन मेरा दिल कहीं नहीं लगता। अब भी डोर वहीं बंधी है। मेरे भीतर कवि के सब गुण पहले ही थे, आपके संपर्क ने चिनगारी का काम किया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ।’

धीरे धीरे वे मेरे पीछे पड़ने लगे कि मैं उनको कवि सम्मेलनों में ठंसवा दिया करूँ। मैं बड़ी दौड़-धूप करके उनका नाम डलवाता। वे ‘हूट’ हो जाते तो उनके घावों पर मरहम लगाता। कहता, ‘साहब जी, समझदार श्रोता मिलते कहाँ हैं?’

एक दिन किस्मत मेरे ऊपर मुस्करायी। मेरा ट्रांसफर आर्डर आ गया। मैं अपने नगर में काफी गहरे तक स्थापित हो चुका हूँ, इसलिए मुझे पीड़ा तो काफी हुई लेकिन अफसर महोदय से छुटकारा मिलने की संभावना से प्रसन्नता भी कम नहीं हुई। लेकिन मेरे अफसर ने मुझे नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे ‘रिलीव’ करने से इनकार कर दिया और ऊपर लिख दिया कि मैं उनके लिए अपरिहार्य हूँ। वे मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। अभी तो मेरी प्रतिभा निखर रही है, तुम चले जाओगे तो मैं फिर जहाँ का तहाँ पहुँच जाऊँगा।’ अन्ततः मेरा तबादला रद्द हो गया।

प्रभु ने एक बार फिर मेरी सुनी। अबकी बार मेरे अफसर का ही ट्रांसफर हो गया। वे बड़े दुखी हुए। मैं प्रसन्नता लिए उन्हें सांत्वना देता रहा। मैंने कहा, ‘अब कविता की दृष्टि से आप बालिग हो गये, अपने पैरों पर खड़े हो गये। अब आपको किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है।’  लेकिन वे मुझसे अलग होते बड़े असहाय हो रहे थे।

मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गया। वे बेहद उदास थे।चलते समय कहने लगे, ‘मिसरा जी, मेरा काम आपके बिना नहीं चल सकता। मैं आपका तबादला भी वहीं करा लूँगा। आप चिन्ता मत करना।’

और वे इन शब्दों के साथ मुझे चिन्ता के सागर में ढकेलकर चले गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ ईमानदार होने की उलझन ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से  पुरस्कृत /अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ईमानदार होने की उलझन ।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ ईमानदार होने की उलझन ☆☆

 

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

 

 

ईमानदार होने की उलझन

एक उलझन में पड़ गया हूँ मैं.

एक छोटी सी बेईमानी करने से एक बड़ा लाभ मिलने का अवसर सामने है. उलझन ये कि बचपन में स्कूल में बालसभा में ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ पर जो भाषण मैंने दिया था वो बार बार प्रतिध्वनित होकर मेरे विवेक से टकरा रहा है.

ऐसे में मेरी मदद को सिन्हा सर आगे आये. बोले – ‘यार शांति, ऑनेस्टी एक बेस्ट पॉलिसी है, मगर तुम्हारे लिये है ऐसा तो किसी ने नहीं कहा. जो कहा गया है उससे कहीं ज्यादा अनकहा है. कहा गया है – ‘द बेस्ट पॉलिसी’, अनकहा है – ‘फॉर अदर्स’. इसे एक साथ पढ़ो यार. जो नीति वाक्य मंच से कहे जाते हैं वे सुननेवालों के लिये हुआ करते हैं, वक्ताओं के लिये नहीं. होते तो ये नायक, जननायक, संत, कथावाचक, जीवन-प्रबंधन गुरु, उपदेशक, तकरीर करनेवाले धनसंचय के उस मक़ाम पर नहीं पहुँच पाते जहाँ वे आज हैं.’

‘लेकिन सर मैं तो हमेशा ही ईमानदार…’ – मैंने टोका.

‘हमेशा के लिये किसने बोला है तुम्हें ? कहाँ लिखा है ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी फॉर एवर’. स्कूल में हम भी पढ़े हैं यार और ठीक-ठाक ही पढ़े हैं. हमने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा. ईमानदारी हर पल बदलनेवाली शै है. जब तक आप आम नागरिक हैं तब तक ये बेस्ट पॉलिसी है, जब अफसर हैं तब नहीं है. जब तक आप मंच के ऊपर हैं तब तक है, नीचे उतर आये तब नहीं है. जब आप विपक्ष में हैं तब है, जब आप सत्ता में हैं तब नहीं है. जब तक आप ग्राहक हैं तब तक है, जब आप विक्रेता हैं तब नहीं है. जब आप वादी के वकील हैं तो ईमानदार तकरीरें अलग है जब आप प्रतिवादी के हैं तब की ईमानदार तकरीरें अलग हैं.’

‘बट सर,  बेस्ट से मेरा मतलब है कि…’

‘यार तुम भोत भोंठ आदमी हो, कसम से.’ – झुंझला गये वे. – ‘ये ना बेस्ट-वेस्ट कुछ नहीं होता, हर समय बेस्ट से बेटर कुछ तो होता ही है. प्रेक्टिकल बनो लाईफ में. अपने मेहरा साब से सीखो. ईमानदारी का डंका बजता है उनका. जब वे टेन परसेंट का कट बेस्ट मान कर लेते थे तब भी उनके पास फिफ़्टीन परसेंट का बेटर ऑफर तो रहता ही था. इन्फ़्लेशन बढ़ा. फिफ़्टीन परसेंट बेस्ट हुआ, एट्टीन बेटर. अनु बिटिया की शादी है सो ईमानदारी का फुट्टा एट्टीन परसेंट पर ले जाने का मन बना लिया बॉस ने. ऑनेस्ट इस कदर कि अपनी बेस्ट लिमिट को उन्होने कभी क्रॉस नहीं किया. और, हेड ऑफिसवाले रामामूर्ति सर! उनका बेस्ट वन लेक प्लस से शुरू होता है. उससे कम रिश्वत की संभावनाओं वाले केसेस में जबरजस्त ईमानदार और कड़क अफसर माने जाते हैं. ए बेटर इज आल्वेज बेटर देन द बेस्ट माय डियर शांति.’

‘और जो बचपन में पढ़ा वो ?”

‘तुमने बालसभा में भाषण दिया, शील्ड मिली, प्रमाणपत्र मिला, फोटू खिंचा, ऑनस्टी ओवर. अब भूल जाओ उसको. नैतिक शिक्षाएँ ऑप्शनल सब्जेक्ट में पढ़ाई जातीं हैं, उनके सबक भी जीवन में ऑप्शनल होते हैं. एक छोटे स्टेप से बड़े फायदे की मंज़िल तक पहुँचने का ऑप्शन अभी है तुम्हारे पास. ये राह तुम नहीं चुनोगे तो कोई और चुनेगा.’ – उन्होने कंधा थपथपाया और बोले – ‘उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक तुम अपनी मंज़िल पर न पहुँच जाओ. जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो दुनियादारी में सफल बहुत सारे लोग मिलेंगे तुम्हें. ऑल द बेस्ट.’

मैं अब भी उलझन में हूँ.

 

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