हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 61 – हम जड़ें हैं ….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक और कालजयी रचना हम जड़ें हैं…..…..…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 61 ☆

☆ हम जड़ें हैं….. ☆  

हम जड़ें हैं

फूल फल यदि चाहते हो

सींचते रहना पड़ेगा,

याद रखना,

हम प्रकृति से हैं जुड़े

हमसे तुम्हें जुड़ना पड़ेगा,

ये मुखोटे

ये कृत्रिम से मास्क

सांसें शुद्ध कब तक ले सकोगे

एक दिन  थक-हार

कर फिर से यहीं पर

लौटना वापस पड़ेगा।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ऊहापोह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ ऊहापोह  ☆

 

वचन दिया था उसने

कभी नहीं लिखेगा

स्याह रात के किस्से..,

कलम उठाई तो जाना

केवल स्याह रातें ही

आई थीं उसके हिस्से!

 

#आपका समय प्रकाशवान हो।

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 11:19 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण-16- मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 16 – मेरा पुण्य तूने ले लिया………

नोआखली में गांधीजी पैदल गांव-गांव घूम रहे थे । वह दुखियों के आंसू पोंछते थे । उनमें जीने की प्रेरणा पैदा करते थे । वह उनके मन से डर को निकाल देना चाहते थे । इसीलिए उस आग में स्वयं भी अकेले ही घूम रहे थे ।

वहाँ की पगडंडियां बड़ी संकरी थी । इतनी कि दो आदमी एक साथ नहीं चल सकते थे । इस पर वे गंदी भी बहुत थी । जगह-जगह थूक और मल पड़ा रहता था ।

यह देखकर गांधीजी बहुत दुखी होते, लेकिन फिर भी चलते रहते । एक दिन चलते-चलते वे रुके । सामने मैला पड़ा था । उन्होंने आसपास से सूखे पत्ते बटोरे और अपने हाथ से वह मैला साफ कर दिया ।

गांव के लोग चकित हो देखते रह गये । मनु कुछ पीछे थी । पास आकर उसने यह दृश्य देखा ।

क्रोध में भरकर बोली “बापूजी, आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं? आपने मुझसे क्यों नहीं कहा? अपने आप ही यह क्यों साफ किया?”

गांधीजी हँस कर बोले, “तू नहीं जानती । ऐसे काम करने में मुझे कितनी खुशी होती है । तुझसे कहने के बजाय अपने-आप करने में कम तकलीफ है ।”

मनु ने कहा “मगर गाँव के लोग तो देख रहे हैं ।”

गांधीजी बोले, “आज की इस बात से लोगों को शिक्षा मिलेगी । कल से मुझे इस तरह के गंदे रास्ते साफ न करने पड़ेंगे । यह कोई छोटा काम नहीं है”

मनु ने कहा, “मान लीजिये गांव वाले कल तो रास्ता साफ कर देंगे । फिर न करें तब?”

गांधीजी ने तुरंत उत्तर दिया,”तब मैं तुझको देखने के लिए भेजूंगा । अगर राह इसी तरह गंदी मिली तो फिर मैं साफ करने के लिए आऊंगा ।”

दूसरे दिन उन्होंने सचमुच मनु को देखने के लिए भेजा । रास्ता उसी तरह गंदा था, लेकिन मनु गांधीजी से कहने के लिए नहीं लौटी। स्वयं उसे साफ करने लगी । यह देखकर गांव वाले लज्जित हुए और वे भी उसके साथ सफाई करने लगे । उन्होंने वचन दिया कि आज से वे ये रास्ते अपने-आप साफ कर लेंगे ।

लौटकर मनु ने जब यह कहानी गांधीजी को सुनाई तो वे बोले, “अरे, तो मेरा पुण्य तूने ले लिया! यह रास्ता तो मुझे साफ करना था । खैर, दो काम हो गये. एक तो सफाई रहेगी, दूसरे अगर लोग वचन पालेंगे तो उनको सच्चाई का सबक मिल जायेगा । ”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी का संस्मरण  “डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक”)

☆ संस्मरण – डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆

गुरु शिष्य का नाता बहुत ही गहरा होता है। गुरु को माता-पिता, ईश्वर से भी पहले स्थान दिया गया है। तभी तो कहा गया है–

गुरु गोविन्द  दोउ खड़े,

काके   लागूं  पाय।

बलिहारी गुरु आपने,

जिन गोविन्द दियो मिलाय।।

मेरे जीवन में भी गुरु जी का एक विशेष स्थान रहा है। ये गुरु स्कूल के न होकर पत्राचार पाठ्यक्रम चलाने वाले डॉ. महाराज कृष्ण जैन हैं। 31 मई 1938 को हरियाणा के एक छोटे से शहर अम्बाला छावनी में जन्म लेकर सारे देश और विदेश में लोकप्रिय हुए साहित्यकार, कहानीकार के रूप में। पांच वर्ष की आयु से ही पोलियोग्रस्त डॉ. जैन ने सन् 1964 में लेखन सिखाने के लिए ‘कहानी लेखन महाविद्यालय’ संस्थान की स्थापना की और पत्राचार द्वारा रचनात्मक लेखन सिखाने का कार्य आरम्भ किया। देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में डॉ. महाराज कृष्ण जैन ने कहानी को न केवल लिखा व लिखना सिखाया बल्कि बहुत करीब से जिया भी। डॉ. जैन मासिक पत्रिका ‘शुभ तारिका’ के संस्थापक/संपादक भी थे।

उनकी शारीरिक अक्षमता उनके जीवन में कहीं भी आड़े नहीं आयी। बौद्धिक व मानसिक रूप से वे अत्यन्त स्वस्थ और सजग थे। उनका मनोबल देखते ही बनता था।

‘कहानी लेखन महाविद्यालय, में व्यवस्थापक के पद पर रहते हुए मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। किताबों का ज्ञान तो सभी गुरु अपने शिष्यों को देते हैं, किन्तु जो किताबी ज्ञान के अलावा दुनियादारी का व्यावहारिक ज्ञान भी दे, उस ज्ञान का महत्त्व बढ़ जाता है।

  • मैंने अपने गुरु से व्यावहारिक ज्ञान सीखा। उन्होंने मुझे बताया कि कैसे सदा दूसरों की मदद के लिये तैयार रहना चाहिए, किस प्रकार किसी ऑफिस (बैंक, पोस्टऑफिस या अन्य) में जाकर अपना काम करवाना चाहिए।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कभी भी ऋणात्मक सोच न रखो। वे हमेशा ही सकारात्मक सोच रखते थे और दूसरों को भी ऐसी ही सलाह दिया करते थे।
  • वे अनुशासन प्रिय थे। वे हर काम को साफ-सुथरा और सलीके से करने और करवाने में विश्वास रखते थे।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कैसे खास मौकों पर करने वाले कामों की लिस्ट बना ली जाए और कौन-सा काम पहले करना है और कौन सा बाद में करना है। इससे एक तो कोई काम छूटता नहीं और दूसरे काम करने में कोई दिक्कत नहीं आती।

उनके जीवन की याद आज मेरे जीवन का मार्गदर्शक बन गई है। उन्हें याद कर मैं किसी भी कार्य को करने में हार नहीं मानता। धन्य हैं ऐसे गुरु। मेरा शत-शत नमन।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 42 ☆ एक छोटा सा गाँव ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर रचना  एक छोटा सा गाँव। श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 41 ☆

☆ एक छोटा सा गाँव ☆

 

एक छोटा सा गाँव

दूर शिक्षा की ठाँव

पढने जाते बहन भाई

बाबा की छांव

 

छोटी छोटी सी खुशियां खरीदे

पास बैठा सिखाये सलीके

हर कदम प्यार का .डांटे भी प्यार से

कहते पढ़ लो खड़े हो अपने ही पाँव

एक छोटा सा ……

 

बीता बचपन जवां हो गये हम

वक्त बढ़ता गया बढ़ गये हम

मन उमंगों भरा. दिल मे अरमां जगा

आये खुशियां ही खुशियाँ न गम का नाम.

एक छोटा…….।

 

याद आये वो गुजरा जमाना

संग परिवार के दिन बिताना

मां-पिता की मूरत. बसी नैनो मूरत

करते क्या हम रूकी जरा सी भी नाव

एक छोटा सा गाँव …….

 

कल्पना ही बस रह गयी अब

मन न अपना न पग ही रहे अब

काल चक्र चला समय हवा सा उड़ा

दूर ही से देखे जीवन के दाँव

एक छोटा सा गाँव…..

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता शब्द की गाथा।) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू 

 

मेरे आँसू भी कितने अनमोल थे,

आँखों में आंसुओं के तो जैसे खजाने भरे थे ||

 

हर कहीं हर कभी निकलने को बेताब रहते,

दोनों आँखों से जी भर कर आँसू निकल जाते थे ||

 

खुद के ग़म में तो सभी आँसू बहाते हैं,

हमारे आंसू तो दूसरों के  गम में भी बह निकलते थे ||

 

मौका नहीं छोड़ती आंखे आंसू बहाने के,

आँसू भी दोनों ही आँखों से बेतहाशा निकलते थे  ||

 

लोग जो आज मेरे आस-पास खड़े होकर रो रहे हैं,

उनमें से  कुछ तो जीते जी मेरे मरने  की दुआ करते थे ||

 

कुछ वो लोग भी हैं जो मुझे देख कन्नी काट लेते थे,

रोते  हुए किसी  के भी आज यहां आँसू थम नहीं रहे थे ||

 

एक ही दिन में इतना प्यार लुटा दिया सबने मुझ पर,

जी करता है सबको जी भर के गले लगा लूँ जो मुझ पर रो रहे थे||

 

काश! कल मुझसे लिपट जाते तो आँसुओ से तर कर देते,

गिले शिकवे मिट जाते, मेरे आँसू भी उनके लिए निकलने को तड़प रहे थे ||

 

सबने खूब झझकोरा मेरी खुली आँखे बंद कर दी,

आज आँखों में आंसुओं का अकाल था, आँखों ने आज दगाई कर दी थी ||

 

कमबख्त आँसू भी धड़कन की तरह दगा दे गए,

जिन आँखों में समुन्द्र था वो आज एक बूंद आँसू को तरस रही थी||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 63 – पूर्वज ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक विषय पर आधारित अतिसुन्दर नवीन रचना  पूर्वज। पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों का स्मरण करने की अपनी अपनी परंपरा एवं अपना अपना तरीका है। सुश्री प्रभा जी ने इस काव्याभिव्यक्ति के माध्यम से अपने पूर्वजों का स्मरण किया है। जो निश्चित ही अभूतपूर्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 63 ☆

☆ पूर्वज  ☆

पूर्वज माझे लढवय्यै अन पराक्रमी ही

तलवारींची खूण सांगते त्यांची कहाणी

इतिहासाच्या पानावरती खरेच शोधा

रक्ताच्या अक्षरात लिहिली त्यांची गाथा

 

“मर्द मावळ्या रक्ताची मी” म्हणणारी ती

पूर्वज माझी आत्या आजी खापरपणजी

घराण्यातले होते कोणी  माझ्या समही

नर्मदा कुणी वडिलांचीही  आत्या होती

 

जुने पुराणे किस्से सांगत माणिक मामा  ,

“तुझा चेहरा अगदी आहे नमुआक्काचा”

भागिरथी काकींची स्वारी  घोड्यावरती

ऐटबाज अन ताठ कण्याच्या सा-या दिसती

 

आठवते मज माझी आजी आई काकी

स्वर्गस्थ त्याही पहात असती धरणीवरती

किती पिढ्यांशी नाळ जोडली जाते आहे?

पूर्वज सारे या काळी मी स्मरते आहे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ना बोललो तरीही ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ कवितेचा उत्सव : ना बोललो तरीही – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

 

ना बोललो तरीही सांगून काय गेलो

ना बोलावताही जवळी कशास आलो.

 

अजाणतेपणीही किमया अशीच घडते

फासे असे सुखाचे पडणे उचित होते

 

ठरवून काय मन हे प्रेमात गुंतते का ?

ओथंबल्या घनाला कुणी थांबवू शके का ?

 

रिवाज रिती यांची झाली बहुत ख्याती

मार्गावरी जराशी पेरीत जाऊ प्रीती.

 

सुख सावलीत बांधू अपुले सुरेख घरटे

माझ्या तुझ्या मनीचे डोळ्यात स्वप्न दाटे.

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लघुकथा – विचार … भावानुवाद ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ जीवनरंग : लघुकथा – विचार … भावानुवाद ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

गीताताई मला मोठ्या बहिणीसारखी होती. तिचे यजमान वारले तेव्हा मी परदेशात होतो. पुढचं एक वर्षही मी स्वदेशी येऊ शकलो नाही. आता मात्र आल्याबरोबर मी तिला भेटण्यासाठी सरळ तिच्या घरी गेलो. ती घरी नव्हती. ती शाळेत गेली आहे असं कळलं तेव्हां मी शाळेत गेलो. ताईच्या चेहऱ्यावर दुःखाचा लवलेशही नव्हता. उलट तिने माझं हसतमुखाने स्वागत केलं, आणि माझी समजूत घातली. “हेबघ, आपण कितीही रडलो तरी तुझे जिजाजी परत येणार नाहीत. मला दुःखी बघून इतरांना वाईटच वाटेल. म्हणून मी स्वतःला गुंतवून घेऊन आनंदी रहाण्याचा प्रयत्न करते. शाळेची प्रगती करण्याचं ध्येय्य मी ठरवलं आहे. मला स्वतः ला मूल नाही, शाळेतल्या विद्यार्थ्यांनाच मी माझी मुलं मानीन आणि शिक्षकपणाचा धर्म प्रत्यक्षात आणीन.

मूळ हिंदी लघुकथा-‘सोच’ – लेखक – डॉ. नरेंद्र नाथ लाहा

मूळ लेखकाचा पत्ता—२७,ललितपुर कॉलोनी, डॉ. पी. एन. लाहा मार्ग, ग्वालियर—म.प्र.-  ४७४००९ मो.९७५३६९८२४०.

मराठी अनुवाद – श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वृक्षसखी ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

संक्षिप्त परिचय

शिक्षण- बी. एस सी. (जियोलॉजी)

साहित्य – ‘अकल्पित’ कथासंग्रह आणि ‘श्रावणसर’ कविता संग्रह प्रकाशित.

विजयन्त, विपुलश्री,दै.केसरी, सत्यवेध, उत्तमकथा, ऋतुपर्ण, आभाळमाया यासारख्या मासिके, दिवाळी अंकात,पेपरमधून कथा, कविता, विविध लेख प्रसिद्ध झाले आहेत. राष्ट्र सेविका समितीच्या हस्तलिखितात ६-७ वर्षे कथा , कविता लेखन समाविष्ट. अनेक आनलाईन संमेलनात कविता वाचन केले.

सांगली आकाशवाणी वरून अनेक कार्यक्रमांचे लेखन व सादरीकरण.

‘ओवी ते अंगाई’ या सांस्कृतिक कार्यक्रमास लेखन सहाय्य व सादरीकरण.अंदाजे ७५ प्रयोग केले.

satsangdhara.net  या आध्यत्मिक साईटसाठी श्रीमत भागवत पुराण आणि श्रीदेवी भागवत या ग्रंथाचे भावार्थ वाचन केले.

अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनात(सांगली) कविता सादरीकरण आणि संमेलनाच्या कथासंग्रहात कथा प्रकाशित.

साहित्य भूषण (कुसुमाग्रज प्रतिष्ठान, नाशिक), साहित्य भूषण(नाशिक) चा ‘गोदामाता’ पुरस्कार’ , कथालेखन,कथावाचन, चारोळी पुरस्कार.

विविधा: वृक्षसखी – सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ?

“वसुधा, खूप छान वाटलं बघ तुला अशी पारावर निवांत बसलेली पाहून.अशीच आनंदात रहा. अग,तुझ्यामुळेच माझे आजचे हे रूप आहे. वसुधाने चमकून वर पाहिले. तिच्या डोक्यावरचा गुलमोहर बोलत होता.

“अगदी खरे आहे हे वसुधा,” शेजारचा बहावा बोलला.वसुधा त्याला निरखू लागली. पिवळ्या घोसांनी पूर्ण लगडला होता.ती नाजूक झुंबरे वाऱ्यावर डोलत होती.

तो म्हणत होता,”आमच्या दोघांचे सुरवातीचे रूप आठवते ना? मोठ्या धुमधडाक्यात या रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला वृक्षारोपण झाले. या दोन खड्ड्यात माझी आणि या गुलमोहराची स्थापना झाली. हार-तुरे- फोटो- भाषणे- गर्दी सगळे सोपस्कार झाले.पण पुढे काय? पुढे कोणी आमच्याकडे फिरकले सुध्दा नाही.आमच्या बाजूच्या रोपांनी सुकून माना टाकल्या. अधून-मधून पडणाऱ्या पावसाने आम्ही कशीबशी तग धरून होतो. तेव्हा तू आमच्या मदतीला धावलीस. आमची किती काळजी घेतलीस. म्हणूनच आज आम्हाला दोघांनाही हे देखणे रूप प्राप्त झाले आहे.”

वसुधाला सर्व आठवत होते. मुळातच वसुधा म्हणजे झाडाझुडपांची, फळाफुलांची प्रचंड आवड असणारी एक निसर्ग वेडी होती. तिने आपल्या बंगल्याच्या दारापुढची बाग लहान मुलाला जपावे तशी सांभाळलेली होती. वेगवेगळ्या प्रकारची फुलझाडे,फळझाडे नीट आखणी करून लावली होती. योग्य खत-पाणी, वेळच्यावेळी छाटणी करून त्यांना छान आकार दिला होता. ती बागेला खूप जपत असे. त्यातच वृक्षारोपणात गेटजवळ लावलेल्या दोन रोपांनी तिचे लक्ष वेधून घेतले. त्यांची परवड बघून तिला खूप वाईट वाटले.ती त्या रोपांची पण आता नीट काळजी घेऊ लागली. हळूहळू जोम धरून त्यांनाही बाळसे येऊ लागले.

वसुधाने घरावरील छतावर पडून वाहणारे पावसाचे पाणी एका मोठ्या टाकीत साठवायला सुरुवात केली.त्यातून वाहणारे जास्तीचे पाणी बोअर जवळ पाझरखड्डा  करून त्यात  सोडले.बागेच्या पाण्याची सोय झाली. बागेच्या एका कोपर्‍यात खड्डा काढून त्यात घरातला ओला कचरा, बागेतले गवत, पालापाचोळा टाकायला सुरुवात केली. छान खत तयार होऊ लागले. घरचे खतपाणी मिळाल्याने झाडे फुलाफळांनी लगडली. दारापुढची गुलमोहर बहवा जोडी सुद्धा लाल पिवळ्या फुलांनी बहरून रंगांची उधळण करू लागली. वसुधाने या दोन्ही झाडांना छोटे-छोटे पार बांधले. येणारे-जाणारे त्यावर विसावू लागले.वसुधाच्या बागेत वेगवेगळे पक्षी, फुलपाखरे भिरभिरू लागली.

वसुधाला निसर्गाची खूप ओढ होती.त्यामुळे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, वृक्षतोड, लागणारे वणवे यांच्या बातम्यांनी तिला खूप वाईट वाटे. निसर्ग आपल्याला किती भरभरून देतो मग आपण त्याची तितकीच जपणूक केली पाहिजे. प्रत्येकाने घराबरोबरच  घराबाहेरचा परिसर स्वच्छ राखला पाहिजे. आपल्या मुला-बाळां प्रमाणेच झाडांची, नदी-नाल्यांची, प्राणिमात्रांची काळजी घेतली पाहिजे. ते सुद्धा आपले जिवलग आहेत अशी तिची भावना होती. तिच्या घरा पुढील रस्ता वृक्षतोडीमुळे उघडा बोडका रूक्ष झाला होता.त्यामुळेच तिच्या घरापुढची सुंदर फुललेली बाग एखाद्या ‘ओअॅसिस’ सारखी होती. येणाऱ्या-जाणाऱ्याचे पाय आपोआप तिथे रेंगाळत. कौतुकाने बाग न्याहाळत. लाल-पिवळ्या वैभवाने बहरलेली दारापुढची जोडगोळी तर रस्त्याचे आकर्षण बनून गेली होती.

अशी ही वृक्षवेडी वसुधा.बागेत छान रमायची. आपले प्रत्येक सुखदुःख त्या झाडांशी बोलायची. त्यांचा सहवास तिला मोठी सोबत वाटायची.’ वृक्षवल्ली आम्हा सोयरे’ हे प्रत्यक्षात जगणाऱ्या वसुधाचा ध्यास प्रत्येकाला लागायला हवा. आता तर पाऊसही पडतो आहे. ओली माती नवीन रोपांच्या प्रतीक्षेत आहे. मग काय मंडळी,  कामाला लागू या ना !

© सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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