हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 52 ☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “कभी खुद से भी सवाल कर लेना। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 52☆

☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना  ☆

 

कभी खुद से भी सवाल कर लेना

जरा उसका भी ख्याल कर लेना

 

गैरों पै उँगलियाँ उठाई बहुत

चार तुम्हारी तरफ,मलाल कर लेना

 

हैं दुनिया में परेशानियाँ बहुत

मुश्किलों में दिल खुशहाल कर लेना

 

खुदा के बाद है माँ-बाप का रुतवा

दिल से उनकी संभाल कर लेना

 

माफ कर देना सभी अज़ीज़ों को

फ़राख दिली से कमाल कर लेना

 

बनाया है इंसान वा दुनिया को

कर इबादत उसे निहाल कर लेना

 

लाख दुश्वारियाँ राहों में मगर

“संतोष” का इस्तेमाल कर लेना

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विशेष – पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।  आज दिनांक 18 सितम्बर 2020 से पुरुषोत्तम मास (अधिक मास ) प्रारम्भ हो रहा है।  इस सम्बन्ध में प्रस्तुत है इस सन्दर्भ में श्री आशीष कुमार जी द्वारा लिखित विशेष आलेख  “पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व । )

 ☆ विशेष आलेख ☆ पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆

इस वर्ष पुरुषोत्तम मास आ रहा है, हरिद्वार समय के अनुसार 18 सितम्बर 2020 को प्रातः 01: 29 से अधिकःमास प्रारंभ हो जायेगा जो कि 16 अक्टूबर कि रात्रि 11: 15 तक रहेग।  पुरुषोत्तम मास के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक  महत्व को समझने का प्रयास करते है।

कहते हैं कि दैत्याराज हिरण्यकश्यप ने अमर होने के लिए तप किया ब्रह्माजी प्रकट होकर वरदान मांगने का कहते हैं तो वह कहता है कि आपके बनाए किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु ना हो, न मनुष्य से और न पशु से। न दैत्य से और न देवताओं से। न भीतर मरूं, न बाहर मरूं। न दिन में न रात में। न आपके बनाए 12 माह में। न अस्त्र से मरूं और न शस्त्र से। न पृथ्‍वी पर न आकाश में। युद्ध में कोई भी मेरा सामना न करे सके। आपके बनाए हुए समस्त प्राणियों का मैं एकक्षत्र सम्राट हूं। तब ब्रह्माजी ने कहा- तथास्थु। फिर जब हिरण्यकश्यप के अत्याचार बढ़ गए और उसने कहा कि विष्णु का कोई भक्त धरती पर नहीं रहना चाहिए तब श्री‍हरि की माया से उसका पुत्र प्रहलाद ही भक्त हुआ और उसकी जान बचाने के लिए प्रभु ने सबसे पहले 12 माह को 13 माह में बदलकर अधिक मास बनाया। इसके बाद उन्होंने नृसिंह अवतार लेकर शाम के समय देहरी पर अपने नाखुनों से उसका वध कर दिया। इसके बाद चूंकि हर चंद्रमास के हर मास के लिए एक देवता निर्धारित हैं परंतु इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई भी देवता तैयार ना हुआ। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने उपर लें और इसे भी पवित्र बनाएं तब भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह मलमास के साथ पुरुषोत्तम मास भी बन गया। ऐसी भी मान्यता है कि स्वामीविहीन होने के कारण अधिकमास को ‘मलमास’ कहने से उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इस बात से दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनको अपनी व्यथा-कथा सुनाई। तब श्रीहरि विष्णु उसे लेकर गोलोक पहुचें। गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया- अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूं। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुम में समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूं और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूं। आज से तुम मलमास के बजाय पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे। इसीलिए प्रति तीसरे वर्ष में तुम्हारे आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ कुछ अच्छे कार्य करेगा, उसे कई गुना पुण्य मिलेगा। इस प्रकार भगवान ने अनुपयोगी हो चुके अधिकमास को धर्म और कर्म के लिए उपयोगी बना दिया। अत: इस दुर्लभ पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान एवं दान करने वाले को कई पुण्य फल की प्राति होगी।

पुरुषोत्तम मास जिस चंद्र मास में सूर्य संक्राति नहीं होती, वह अधिक मास कहलाता है और जिस चंद्र मास में दो संक्रांतियों का संक्रमण हो रहा हो उसे क्षय मास कहते हैं। इन दोनों ही मासों में माँगलिक कार्य नहीं होते हैं। हालांकि इस दौरान धर्म-कर्म के पुण्य फलदायी होते हैं। इसके लिए मास की गणना शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक की जाती है। सामान्यत: एक अधिक मास से दूसरे अधिक मास की अवधि 28 से 36 माह तक की हो सकती है। कुछ ग्रंथों में यह अवधि 32 माह और 14 दिवस 4 घटी बताई गई है। इस प्रकार यह कह सकते है कि हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास आता ही है। यदि इस अधिक मास की परिकल्पना नहीं की गई तो चांद्र मास की गणित गड़बड़ा सकती हैं। विशेष बात यह है कि अधिक मास चैत्र से अश्विन मास तक ही होते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष पौष मास में क्षय मास होते हैं तथा माघ फाल्गुन में अधिक या क्षय मास कभी नहीं होते। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का रहता है। दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का अंतर रहता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है। सूर्य-चन्द्र के भ्रमण से 3 वर्ष के अंतर पर अधिक मास की स्थिति बनती है। जिस किसी मास में सूर्य की संक्रांति नहीं आती है वह अधिक मास पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है। यह एक खगोलशास्त्रीय तथ्य है कि सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार कर लेता है और यही सूर्य का सौर महीना है। ऐसे बारह महीनों का समय जो 365.25 दिन का है, एक सौर वर्ष कहलाता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष में 354.36 दिन ही होते हैं। यह अंतर 32.5 माह के बाद एक चंद्र माह के बराबर हो जाता है। इस समय को समायोजित करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति होती है। यह प्राकृतिक नियम है। जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ या अधिक मास होता है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जायें तो क्षय माह होता है। क्षय मास कभी कभी होता है। मलमास में कुछ नित्य कर्म, कुछ नैमित्तिक कर्म और कुछ काम्य कर्मों को निषेध माना गया है। जैसे इस मास में प्रतिष्ठा, विवाह, मुंडन, नव वधु प्रवेश, यज्ञोपवित संस्कार, नए वस्त्रों को धारण करना, नवीन वाहन खरीद, बच्चे का नामकरण संस्कार आदि कार्य नहीं किए जा सकते। इस मास में अष्टका श्राद्ध का संपादन भी वर्जित है। जिस दिन मल मास शुरू हो रहा हो उस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान सूर्य नारायण को पुष्प, चंदन अक्षत मिश्रित जल अर्पणकर पूजन करना चाहिए। अधिक मास में शुद्ध घी के मालपुए बनाकर प्रतिदिन काँसे के बर्तन में रखकर फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करें। जो कार्य पूर्व में ही प्रारंभ किए जा चुके हैं, उन्हें इस मास में किया जा सकता है। इस मास में मृत व्यक्ति का प्रथम श्राद्ध किया जा सकता है। रोग आदि की निवृत्ति के लिए महामृत्युंजय, रूद्र जपादि अनुष्ठान भी किए जा सकते हैं। इस मास में दुर्लभ योगों का प्रयोग, संतान जन्म के कृत्य, पितृ श्राद्ध, गर्भाधान, पुंसवन सीमंत संस्कार किए जा सकते हैं। इस मास में पराया अन्न तथा तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए।

पुरुषोत्तम मास की एकादशी का बहुत ज्यादा महत्व है जो कि पुरुषोत्तमपद्मिनी(शुक्लपक्ष)एवं परमा(कृष्णपक्ष) है।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – मी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “मी….!” )

☆ विजय साहित्य – मी….! ☆

मी….!

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..

परीचितांना अपरीचित आणि

अपरिचितांना परीचित वाटतोय मी.

अविश्वासात विश्वास आणि

निस्वार्थात स्वार्थ गोवतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

पुस्तकातले कुटुंब, समाज

त्यांच्यातच रमतोय मी.

माणूस माणूस जोडलेला

पुन्हा पुन्हा वाचतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

गणिताची आकडेमोड

आकडेवारीत विस्तारतोय मी

माझ्याच गरजा, नी जबाबदा-या

कार्य कारण भाव निस्तरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चालतोय मी , थांबतोय मी

माझ्यातल्या मीला शोधतोय मी

लिहितोय मी, वाचतोय मी

विस्तारीत जगणे , आवरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कुणाच्या जमेत , कुणाच्या खर्चात

क्षणा क्षणाला साचतोय मी

ऊन्हातला मी, सावलीतला मी

चक्रवाढ व्याजात नाचतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चुकतोय मी , मुकतोय मी

संसार नावेत, डुलतोय मी

कधी काट्यात , कधी वाट्यात

जीवन बाजारात , भुलतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कधी भूतकाळात तर कधी

वर्तमानात जगतोय मी

अनुभूती वेचताना थकलो तर

तुझ्याच अंतरात वसतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 6 – कविता ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 6 ☆

☆ कविता ☆

 

आपण समजतो तेवढी सोपी नसते कविता

भावनांचा उद्रेक होतो तेव्हा जन्म घेते कविता

तुम्ही नाहीयेत तिचे जन्मदाते बाबांनो

उलट तिच्यामुळे तुमचा होतो जन्म  कवी म्हणून मित्रांनो

कविता म्हणजे असतं एखाद्याचं जिवंतपणे जळणं

कविता म्हणजे काळजातला खंजीर स्वतः ओढून मरणं

कविता असते बाणासारखी रुतणारी

छातीत घुसून पाठीतून आरपार निघणारी

कविता म्हणजे पायातला न दिसणारा काटा

कविता म्हणजे भावनांना हजार लाख वाटा

कविता म्हणजे असतो काळजावरचा घाव

कविता म्हणजे असतो एक मोडुन पडलेला डाव

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

17/05/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सखी ☆ श्री यशवंत माळी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ सखी ☆ श्री यशवंत माळी ☆ 

 

सखी

आयुष्यभर आपण

पुरवलेच ना

देहाचे डोहाळे ?

चांगलं -चुंगलं खायला

प्यायला ?

निदान ब-यापैकी.

रंग रंगोटीसाठी

जमेल तेवढी

कॉस्मेटिक्स.

कपडे अन् दागिने.

आता काय?

चेहऱ्यावर वर्दळ

सुरकुत्यांची.

आणि सैल बुरख्यासारखे

लोंबणारे कातडे

……शरीरभर.

काय करायचं या देहाचं?

आग्नीला स्वाहा…..?

…..मूठमाती?

की  देहदान ?

 

©  श्री यशवंत माळी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ संगत ☆ सौ.प्रियदर्शिनी तगारे

सौ. प्रियदर्शिनी तगारे

अल्प परिचय

रसायनशास्त्र व शिक्षणशास्त्रातील पदवी.  कथा , कविता व ललित लेखन.

मासिके व दिवाळी अंकासाठी नियमित कथालेखन. तीन कथासंग्रह आणि दोन कादंबऱ्या प्रकाशित. कथासंग्रहांना विविध लेखनपुरस्कार.

 ☆ जीवनरंग ☆ संगत ☆ सौ.प्रियदर्शिनी तगारे ☆ 

काकीनं रव्यासमोर काळा कळकट चहा ठेवला.

“त्याला बटर दे की” असं काकानं म्हणताच काकीनं रागानं बघितलं. आणि रव्यासमोर बटर आदळला. खरं तर रव्याच्या पोटात भुकेचा डोंब उसळला होता.पण काकीपुढं बोलणं शक्य नव्हतं.

गडबडीनं चहा पोटात ढकलून तो बाहेर पडला.नऊ वाजायला आले होते. पाच मिनिटं उशीर झाला तरी गॅरेजचा मालक तोंडाचा पट्टा सोडत असे. जीव खाऊन सायकल मारत तो गॅरेजवर गेला.

कोपऱ्यातला झाडणीचा बुरखुंडा उचलून त्यानं अंगण झाडलं. नळावरनं पाणी आणून  शिंपडलं. तेवढ्यात मालक आला. गॅरेजचं कुलूप काढताच आतून डिझेल आणि आॅईलचा घाणेरडा वास नाकात घुसला. रव्याचं डोकं वासानं भणभणलं. दुपारपर्यंत जीव तोडून काम करून तो जेवायला घरी गेला. काकी झोपली होती. चुलीपुढं त्याच्यासाठी  ताट वाढून ठेवलं होतं. ताटात दोन गारढोण भाकरी ,आमटीचं खळगूट आणि चिमटभर भात होता. आईच्या आठवणीनं रव्याच्या घशाशी आवंढा आला. आई दररोज त्याच्यासाठी मसालेदार भाजी , घट्ट डाळ असं चवीचं पोटभर जेवण करायची.

रव्याला ते दिवस आठवले. तो डोक्यानं हुशार होता. वडलांच्या माघारी चार घरी राबून आईनं त्याला वाढवलं होतं.बारावीपर्यंत तो चांगल्या मार्कांनी पास होत असे.आईला समाधान वाटे. आपला मुलगा खूप मोठा झाल्याची स्वप्नं तिला पडू लागली होती.

तो कॉलेजात गेला. त्याची दोस्ती पप्या आणि सागऱ्याशी झाली. मग दररोज कॉलेजच्या कट्ट्यावर बसून त्यांच्या टवाळक्या सुरू झाल्या.तास बुडवणं सुरू झालं. कधीतरी रव्याला आतून टोचणी लागे.तो वर्गात जायला निघाला की दोस्त म्हणायचे ,” अरे ,बस लेका.आलाय मोटा शिकणारा ”

असं होता होता रव्याचं आभ्यासातलं मन उडून गेलं. सलग दोन वर्षं तो नापास झाला.आणि कॉलेज सोडून घरात बसला.

आईनं मग त्याला तिच्या ओळखीनं एका घरी कामाला लावलं.अंगण झाडायचं ,गाड्या पुसायच्या. एवढं काम झालं की तो दोस्तांच्या कंपनीत रमायचा.त्या अड्ड्यावर मुलींच्या  गप्पा निघायच्या.एकदा रव्या बोलला ,” मी काम करतो त्यांची पोरगी बेष्ट आहे. कपडे तर एकदम हिरॉईन सारके घालती रे”

यावर पप्या ओरडला ” अरे ,पटव ना मग तिला. आईशप्पत तुला सांगतो ;या पोरींना आपल्यासारकीच पोरं आवडतात बघ ”

हळूहळू रव्याला तिच्याबद्दल आकर्षण वाटायला लागलं.त्याचं मन चळलं.ती गाडी काढायला आली की तो मुद्दाम तिथं घुटमळायचा. रोज दोस्तांची शिकवणी चालूच होती.

त्यादिवशी ती लाल टी-शर्ट आणि तोकड्या स्कर्टमध्ये भन्नाट दिसत होती. रव्याच्या डोक्यात भडका उडाला. काही कळायच्या आत त्यानं तिला घट्ट मिठी मारली. क्षणार्धात ती ओरडली. घरातून तिचे आईवडील थावत आले.

त्यांनी रव्याला पोलिसच्या हवाली केलं. आईनं हातापाया पडून सोडवलं. पण त्यांनी अट घातली की पुन्हा या गावात हा दिसता कामा नाही. रव्याची रवानगी इथं काकाकडं झाली. काकीचा सासुरवास सुरू झाला. आणि गॅरेजचा कळकट वास कायमचा त्याच्या आयुष्याला चिकटला.

© सौ.प्रियदर्शिनी तगारे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सागरतीरी ☆ श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

☆ विविधा :  सागरतीरी – श्री राजीव पुरुषोत्तम दिवाण 

“सागरकिनारी”

मी परवा  असाच एकटा समुद्राकाठी बसलो होतो. आजूबाजूला बरेचजणं होते,कोणी खेळत होते, हातात हात घेऊन एकमेकांच्या प्रेमात गुंतून गेले होते, कोणी भेळ खात होते वगैरे वगैरे !!!

जवळच एक जोडपं बसलं होतं,एकमेकांपासून बर्या पैकी अंतरावर…..बहूधा नवविवाहित आणि तेही arranged marriage वालं असावं. तो बोलत असताना तिची मान खाली आणि ती बोलत असताना  त्याचे डोळे तिच्या चेहर्यावर थबकलेले.

थोड्या वेळाने दोघांनी एकमेकांकडे पहात पहात वाळूवर एकमेकांची नावे कोरली आणि पहात राहीले…. तो तिच्या नावाकडे आणि ती त्याच्या…..दोघेही भावी आयुष्यातील स्वप्नात जणू बुडून गेले होते. आजूबाजूला काय घडतंय याची त्यांना जाणीवही नव्हती….. असाच बराच वेळ झाला….आणि दोघेही अचानक भानावर आले………भरतीच्या लाटेनं कधी गाठलं ते कळलंच नाही. त्याच लाटेनं त्या जोडप्यानं कोरलेली नांवेही पुसून टाकली. दोघेही सावकाश उठले. हातात हात गुंफले… ती त्याच्या दंडावर डोकं टेकवून  बिलगली आणि दोघंही चालू लागले.

मी मात्र सुन्न झालो होतो नि संतापलो समुद्राच्या या कृतघ्नपणाला…..खरंतर ते दोघेही माझे कोणीही नव्हते….तरीही मला वाटलं..त्या दोघांच्या नाजूक भावनांशी खेळायचा समुद्राला काय अधिकार???? आणि थेट समुद्रालाच तो सवाल ठोकला……

समुद्राला खळाळून हासू फुटलं….. आणि मला उत्तरला……अरे वेड्या, हे तुझ्या मनाचे खेळ आहेत. तुला काय वाटलं त्यांनी कोरलेली नावं माझ्या लाटेनं पुसून टाकली?? अरे, ते दोघे इथून जाताना पाहीलं नाहीस????

त्याने तीचा हात हाती घेतला….प्रेमानं आणि तीही त्याच्या दंडावर विसावली….विश्वासानं. यालाच संसार म्हणतात,हेच खरं प्रेम असतं,यातंच सार्या आयुष्याचं सुख दडलेलं असतं. तुला वाटत असेल माझी लाट भुसभूशीत वाळूवर रेखाटलेली नावं पुसून टाकते. अरे हट… इथून जाणारं प्रत्येक जोडपं घेऊन जातं असं प्रेम कि जे माझ्यासारखं  अथांग आहे, तितकंच गहीरं आहे……ऊथळ नाही. काही कालानंतर हेच जोडपं पुन्हा इथं येईल, ते आपल्या चिमुकल्याला घेवून. त्यावेळी ते बांधतील वाळूत एक चिमुकलं घर….पुन्हा माझी लाट ते घर माझ्यात सामावून घेईल….पण ते आईबाबा नाराज नाही होणार कारण त्यांनी केलेलं घर विश्वास आणि प्रेमाच्या धाग्यांत घट्ट आहे. कोणतीही लाट ते उध्वस्त नाही करू शकणार……

पायावर आलेल्या लाटेच्या स्पर्शाने मी भानावर आलो…..खूप खूप सुखावलो…..आणि  लक्षात आलं……समुद्र कधीच काहीच उध्वस्त करत नाही……उध्वस्त करतात ती माणसांना न कळलेली एकमेकांची मनं!!!!! आणि इतके दिवस जे मला वाटतं होतं कि  कांहीतरी चुकतंय माझ …..आज अचानक मला जाणवलं….कांही  नावं पुसून टाकण्यांन सुखाच्या लाटा आयुष्यात येत असतात.

हे सागरा…..शतशः धन्यवाद!!!

 

© राजीव पुरुषोत्तम दिवाण

बदलापूर(ठाणे)

फोन:९६१९४२५१५१

वॉट्स ऍप :८२०८५६७०४०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचे ☆ जन्म-1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ क्षण सृजनाचे : जन्म – 1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

या गोष्टीला खूप म्हणजे खूपच वर्षं झाली. पण काही वेळा स्मृतीच्या तळातून ती अचानक वर उसळून येते. १९६७ सालची गोष्ट. त्या वर्षी मी बी.एड. करत होते.फेबु्रवारी महिना. आमचा फायनल लेसन प्लॅन लागला होता. परीक्षेच्या वेळी पहिल्या दिवशी पहिलाच माझा मराठीचा लेसन होता. युनीट कोणत घ्यावं, कसा लेसन घ्यावा इ. विचार स्वाभाविकपणेच मनात घोळत होते. लेसनसाठी पाठ्य पुस्तकातील कविता निवडावी, की बाहेरची? असं सगळं विचार मंथन चालू होतं. त्यातच माझी मासिक पाळी सुरू झाली. यावेळी चार-पाच दिवस उशीर झाला होता. तरी पाठपरीक्षेपूर्वी ३-४ दिवस सहज सगळं निपटलं असतं. पण यावेळी नेहमीप्रमाणे चार-पाच दिवसानंतरही ब्लिडींग थांबेना. मग मात्र धाब दणाणलं. पाठ परीक्षा हातची गेलीच बहुतेक, असं म्हणत डॉक्टरांकडे गेले.

डॉ. श्रीनिवास वाटवे हे त्या वेळचे नावाजलेले गायनॅकॉलॉजीस्ट. त्यांना दाखवले. त्यांच्याशी बोलणे झाले. त्यांनी `क्युरेटिन’चा सल्ला दिला. संध्याकाळी अ‍ॅडमिट झाले. रात्री सात-साडे सातला क्युरेटीन होणार होते. त्याप्रमाणे मला प्रिपेअर करून टेबलवर घेतले. तिथे भिंतीला लागून असलेल्या शो-केसमध्ये सर्जरीची साधने होती. वेगवेगळ्या आकाराच्या सुर्‍या, कात्र्या, चाकू , सुया, पकडी आणखी किती तरी. लखलखित. चकचकित.

अ‍ॅनॅस्थेशिया देणारे डाक्टर अद्याप यायचे होते. त्यामुळे डॉक्टर, सहाय्यक, नर्सेस सगळी मंडळी डॉक्टरांची वाट बाहेर उभे होते. रूममध्ये टेबलावर फक्त मी आणि भोवतीनं शो-केसमधली लखलखित साधने. हत्यारे.

मी मनाशी पाठाबद्दलचा विचार करायचे ठरवत होते. कशी सुरुवात करायची्… कोणते प्रश्न विचारायचे? वगैरे… वगैरे… पण त्यातलं काही डोक्यात येतच नव्हतं. भरकटलेल्या विचारांना शब्द मिळत गेले-

 

घटका भरत आलेली

जीवघेणी कळ

मस्तक भेदून गेलेली

ललाटीची रेषा,

वाट हरवून बसलेली

घड्याळाची टिक टिक

जिण्याचा तोल साधत

सांडत असलेली

 

इतक्यात डॉक्टर आले. मला भूल दिली गेली. डॉक्टरांनी आपलं काम पूर्ण केलं.

काही वेळाने माझी भूल उतरली. भूल उतरता उतरताही मगाच्याच ओळी मनावर उमटत राहिल्या. त्या पुसून मी पुन्हा पाठाचा विचार करू लागले. पण तो विचार मनातून हद्दपारच झाला. त्याच्याच पुढच्या ओळी प्रगटत राहिल्या.

 

इथरची बाधा

नसानसातून शरीरभर भिनलेली…

लाल… हिरवी… पिवळी… निळी वर्तुळं

काळवंडत गेलेली…

पांढर्‍या शुभ्र ठिपक्यांच्या

लयबद्ध हालचाली.

पाजळत्या रक्तपिपासू हत्यारांची

लांबच लांब पसरलेली

अशुभ सावली.

संज्ञा बधीर होताना

सारं सारं दूर सरतय.

रक्तात उमलणार्‍या

गुलबकावलीचं हसू,

लाटालाटांनी मनभर उसळतय.

अणूरेणू व्यापून उरतय.

 

इथे माझ्या नेणिवेने क्युरेटिनचं `सिझेरियन केलं होतं आणि कल्पनेनं गुलबकावलीचं फूल माझ्या ओंजळीत ठेवलं होतं. माझ्या `जन्म’ या कवितेचा जन्म अशा रीतीने तिथे ऑपरेशन टेबलवर झाला.

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (19) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।।19।।

 

किसी मोह के भाव से, जनहित को नुकसान

पहुँचाने होता जो तप, तामस की पहचान।।19।।

 

भावार्थ :   जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ।।19।।

The austerity which is practised out of a foolish notion, with self-torture, or for the purpose of destroying another, is declared to be Tamasic. ।।19।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 44 ☆ लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा मैडम ! कुछ करो ना।  भ्रूण /कन्या हत्या और  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 44 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना  

अस्पताल में विक्षिप्त अवस्था में पड़ी वह बार-बार चिल्ला उठती थी- मत फेंकों, मत फेंकों मेरी बच्चियों को नदी में। मैं….. मैं पाल लूँगी किसी तरह उन्हें। मजूरी करुँगी, भीख माँगूगी पर तुमसे पैसे नहीं माँगूगी। कहीं चली जाउँगी इन्हें लेकर, तुन्हें अपनी शक्ल भी नहीं दिखाउँगी| छोड़ दो इन्हें, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। इन बेचारी बच्चियों का क्या दोष? ………. और फिर मानों उसकी आवाज दूर होती चली गयी।

बेहोशी की हालत में वह बीच-बीच में कभी चिल्लाती, कभी गिड़गिड़ाती और कभी फूट-फूटकर रोने लगती। नर्स ने आकर नींद का इंजेक्शन दिया और वह औरत निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर गयी। दर्द उसके चेहरे पर अब भी पसरा था।

नर्स ने पास खड़ी समाज सेविका को बताया कि पिछले एक महीने से इस औरत का यही हाल है। नदी के पुल पर बेहोश पड़ी मिली थी| कोई अनजान आदमी अस्पताल में भर्ती करा गया था। पता चला है कि इसके पति ने इसकी पाँच, तीन और एक वर्ष की तीनों बच्चियों को इसके सामने पुल से नदी में फेंक दिया। जब इसने देखा कि पति ने दो बेटियों को नदी में फेंक दिया तो एक वर्ष की बच्ची जो इसकी गोद में थी उसे लेकर यह भागने लगी। उस हैवान ने उसे भी इसके हाथों से छीनकर नदी में फेंक दिया। तब से ही इसका यह हाल है। बहुत गहरा सदमा लगा है इसे।

मैडम ! क्यों करते हैं लोग ऐसा? फूल-सी बच्चियों को मौत की नींद सुलाते इनका दिल नहीं काँपता? नर्स गिड़गिड़ाती हुई बोली- मैडम ! कुछ करिए ना। आप तो समाज सेविका हैं, बहुत कुछ कर सकती हैं। समाज सेविका पथरायी आँखों से बिस्तर पर बेसुध पड़ी औरत को एकटक देख रही थी। पत्थर दिल समाज से टकरा-टकराकर उसके आँसू भी सूख गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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