हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष पर ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

( नव वर्ष पर प्रस्तुत है श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव जी का विशेष आलेख “नव वर्ष पर”।)

☆ नव वर्ष पर ☆

नवल वर्ष का धवल दिवस यह,  राही तुमको मंगलमय हो

कीर्ति मान यश से परिपूरित, जीवन का आलोक अमर हो

नये साल के पहले दिन सूरज की पहली किरण हम सबके जीवन में, सारे विश्व के लिए शांति, सुरक्षा, प्रसन्नता, समृद्धि और उन्नति लेकर आये यही कामनायें हैं. यद्यपि चिंतन योग्य शाश्वत सच तो यह है कि सूरज तो हर दिन उसी ऊर्जा के साथ ऊगता है, दरअसल यह हम होते हैं जो किसी तारीख को अपने व्यवहार और कामो से स्वर्ण अक्षरो में अंकित कर देते हैं, या फिर उस पर कालिख पोत डालते हैं. ये स्वर्णाक्षरों में अंकित दिन या कालिमा लिये हुये तारीखें इतिहास के दस्तावेजी पृष्ठ बन कर रह जाते हैं.

नववर्ष का अर्थ होता है  कैलेंडर में साल का बदलाव. समय को हम सेकेण्डों, मिनटों, घंटों, दिनों, सप्ताहों, महीनों और सालों में गिनते हैं. वर्ष जिसकी तारीखो के साथ हमारी  जिंदगी चलती है.  जिसके हिसाब से हम त्यौहार मनाते हैं, कैलेण्डर उन तिथियो का हिसाब रखता है. प्रकृति और मौसम में बदलाव के साथ हमारा खान पान, पहनावा,रहन सहन  बदलता रहता है,प्रकृति सदा से बिना किसी कैलेण्डर के नियमित और व्यवस्थित परिवर्तन की अनुगामी रही है, वास्तविकता तो यह है कि प्रकृति स्वयं ही एक सुनिश्चित नैसर्गिक कैलेण्डर है.  प्रकृति और मौसम के इस बदलाव को कैलेंडर महीनो और तारीखो में  गिनता है.  बैंको में वित्तीय वर्ष अप्रैल से शुरू होता है, तो भारतीय पंचांग की अपनी तिथियां होती हैं. विश्व के अलग अलग हिस्सो में अलग अलग सभ्यताओ के अपने अपने कैलेंण्डर हैं पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को आज वैश्विक मान्यता मिल चुकी है,  और इसीलिये रात बारह बजते ही जैसे ही घड़ी की सुइयां नये साल की ओर आगे बढ़ती हैं दुनिया हर्ष और उल्लास से सराबोर हो जाती है, लोग खा पी कर, नाच गा कर अपनी खुशी को व्यक्त करते हैं . परस्पर शुभकामनाओ तथा उपहारो  का आदान प्रदान करके अपने मनोभावो को अभिव्यक्त करते हैं .  हर कोई अपने जानने वालों को बधाई देता है और आने वाले समय में उसके भले  और सफलता की कामना करता है, मैं भी आप सबके साथ पूरे विश्व के प्रत्येक प्राणी की भलाई की कामना में शामिल हूँ. ईश्वर करे कि हम सबकी शुभकामना पूरी हो और यह जो प्रकृति जिसे हम परमात्मा की छाया कहते हैं उसका स्वरूप और सुंदर बन पाए. सब प्राणी एक-दूसरे का भला मांगते हुए, भला करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर हों, यही  प्रार्थना है.

लेकिन इस सबके साथ ही नये साल का मौका  वह वक्त भी होता है जब हमें अपने आप  से एक साक्षात्कार करना चाहिये. अपने पिछले सालो के कामो का हिसाब खुद अपने आप से मांगना चाहिये.अपने जीवन के उद्देश्य तय करने चाहिये. क्या हम केवल खाने पीने के लिये जी रहे हैं या जीने के लिये खा पी रहे हैं ? हमें अपने लिये  नये लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये और उन पर अमल करने के लिये निश्चित कार्यक्रम बनाना चाहिये. स्व के साथ साथ  समाज के लिये सोचने और कुछ करने के संकल्प लेने चाहिये. अपना, और अपने बच्चो का हित चिंतन तो जानवर भी कर लेते हैं, यदि हम जानवरो से भिन्न सोचने समझने वाले  सामाजिक प्राणी हैं तो हमें अपने परिवेश के हित चिंतन के लिये भी कुछ करना ही चाहिये, अपने सुखद वर्तमान के लिये हम अपने पूर्वजो के अन्वेषणो और आविष्कारो के लिये  समाज के ॠणी हैं, अतः  समाज के प्रति हमारी भी जबाबदारी बनती है और नये साल पर जब हम आत्म चिंतन करें तो हमें सोचना  चाहिये  कि अपने क्रिया कलापों से किस तरह हम समाज के इस ॠण से मुक्त हो सकते हैं. हमें समझना चाहिये कि पाने के सुख से देने का सुख कहीं अधिक महत्वपूर्ण और दीर्घजीवी होता है.

आइये नये साल के इस पहले दिन हम ढ़ृड़ संकल्प करें कि हम आगामी समय में अपने बुरे व्यसन छोड़ेंगे. महिलाओ का सम्मान करेंगे. अपने कार्य व्यवहार से देश भक्ति का परिचय देंगे. अपने परिवेश में सवच्छता रखेंगे और आत्म उन्नति के साथ साथ अपने परिवेश की प्रगति में मददगार बनेंगे. भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने में स्वयं का हर संभव योगदान देंगे. निहित स्वार्थों के लिये नियमो से समझौते नही करेंगे. मेरा विश्वास है कि यदि हम इन बिंदुओ पर मनन चिंतन कर इन्हें कार्य रूप में परिणित करेंगे तो अगले बरस जब हम नया साल मना रहे होंगे तब हमें अपनी आंखों में आँखें डालकर स्वयं से बातें करने में गर्व ही होगा. पुनः पुनः इन संकल्पों के सक्षम क्रियांवयन के लिये अशेष मंगलकामनायें.

 

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष का नव सोपान है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  की  नव वर्ष 2020 पर एक कविता  नव वर्ष का नव सोपान है .) 

 

 

☆ नव वर्ष का नव सोपान है ☆ 

 

नव प्रात लिए, नव आस लिए

नव वर्ष का नव सोपान है

नव प्रीत लिए, नव भाव लिए

पुरातन का अवसान है ।

 

है बीता जो भी अशुभ उसे

रखना नहीं है स्मरण में

नव ऊर्जा धारण करना है और

नव उत्ताप भी नव जागरण में ।

 

हो मन में स्नेह का नव अंकुर

नव उच्छ्वास का मलय बहे

क्रोध, अहं, द्वेष, विराग छोड़

नर-नार जगत में सदय रहे ।

 

ज्ञान, चेतना, मति की धारा

नव श्रृंखला में प्रवाहित हो

नव उद्दोग से नव वर्ष में

जन-जन उन्नत, पुलकित हो ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 28 – ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी के आयु के 71 वर्ष के शुभारंभ पर कविता   “साठोत्तरीय…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 28☆

☆ साठोत्तरीय……. ☆  

 

इकहत्तर की वय में, वही चेतना, प्राण वही है

परिवर्तित मौसम में भी, मन में अरमान वही है।

 

है, उमंग – उत्साह, बदन  में  चाहे  दर्द  भरा  हो

पीड़ा की पगडंडी यदि, मंजिल का एक सिरा हो

पा लेंगे चलते – चलते, जो सोचा यहीं कहीं है.

परिवर्तित———-

 

आत्म शक्ति और  संकल्पों का, लेते हुए सहारा

आशाओं के बल पर, टिका हुआ विश्वास हमारा

शिथिल शिराएं हुई, किन्तु हम शक्तिहीन नहीं हैं

परिवर्तित———–

 

कई   तरंगे  रंग  बिरंगी, अन्दर   दबी  पड़ी  है

जग को कुछ नूतन देने को, तत्पर चाह खड़ी है

सब उतार दें कागज पर, जो अबतक नहीं कही है

परिवर्तित————

 

पाया जो जग से अब तक, लौटाने की है बारी

देखें  कर्ज चुकाने की, क्या की  हमने   तैयारी

सींचें उन्हें और, जिनसे जीवन रसधार बही है

परिवर्तित————

 

आदर्शों  की  लिखें  वसीयत  नवपीढ़ी के  नाम  करें

अबतक अपने लिए जिये, आगे कुछ ऐसे काम करें

नीर क्षीर हों पावन, जीने का ये मार्ग सही है

परिवर्तित————-

 

महकाएं  इस  मनमंदिर को, मुरझाने  से पहले

तन्मय हो निर्मल सरिता बन, अंतर्मन में बह लें

द्रष्टा बनें स्वयं के, बाहर के प्रपन्च सतही है

परिवर्तित मौसम में——

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

गांधीजी दो बातें कहते हैं .हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है और मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं। निश्चय ही  गांधीजी के मन में यह विचार युरोप की औद्योगिक क्रांति के, जो अठारहवीं सदी के अंत व उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुई थी और इसने सारे यूरोप को प्रभावित किया था, दुष्परिणामों को देखते हुए आया होगा। आरंभ में यह क्रान्ति वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण से हुई,  और फिर तरह तरह की मशीनों की खोज हुई। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने भाप  की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु  से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी युरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी।कच्चे माल को पाने के लिए यूरोप ने सारे विश्व में अपने उपनिवेश बनाए जो इन देशों की गुलामी का कारण बने। मशीनों ने उत्पादन बढ़ाया तो माल की खपत इन्ही उपनिवेश देशों में हुई फलत वहाँ के लघु उद्योग चौपट हो गये, माल बेचने से प्राप्त धन यूरोप मे अमीरी और औपनवेशिक देशों में गरीबी का कारण बना।औद्योगिक क्रान्ति के कारण आपसी मानवीय सम्बन्ध खराब हुए और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। गांधीजी जब यंत्रों का विरोध करते हैं तो वे तत्कालीन भारत की इन्ही कठनाइयों के परिप्रेक्ष्य में यह बात करते हैं।  जब गांधीजी कहते हैं कि गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा तो मुझे देश के वर्तमान हालात दीखते हैं। भारत के औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों ने, राजनीतिज्ञों व सरकारी अफसरों से गठजोड़ कर अनीतिपूर्वक जो धन कमाया है अंतत: उसकी परिणीती कालेधन में हुई है। इस काले धन ने सारे सिस्टम को तहस नहस कर दिया है, भ्रष्टाचार के फलने फूलने में इसी औद्योगिकरण का हाँथ है,    नोटबंदी जैसे प्रयास भी हमें इसके दुष्चक्र से मुक्ति नहीं दिला पाए हैं, आयकर विभाग, ईडी आदि लाख छापे मारें पर कभी कभार ही सफल होते दिखाई पढ़ते हैं। यही नैतिक पतन है जिसे गांधीजी ने एक सौ दस वर्ष पूर्व ही महसूस कर लिया था, और हमें चेताने की कोशिश की थी। उनकी चेतावनी का यह अर्थ कदापि न था कि हम यंत्रीकरण न करे उद्योगों की स्थापना न करे। वे तो बस इसके उचित बढ़ावे के पक्षधर थे। मशीनीकरण के अन्धानुकरण ने हमारे स्वास्थ को प्रभावित किया है। इससे भला कौन इनकार कर सकता है। हमने पैदल चलना और श्रम करना तो लगभग छोड़ ही दिया है। हमारे बच्चे इतने आलसी हो गए हैं कि वे सौ कदम भी नहीं चलना चाहते। उन्हें नजदीक के स्थान जाने के लिए भी वाहन चाहिए।  यही हमारे गिरते हुए स्वास्थ का कारण है।जब गान्धीजी यह कहते हैं कि  मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए तब वे स्वदेश में मशीनों व यंत्रो के उपयोग के पक्षधर दिखाई देते हैं। वे चाहते हैं कि हम बजाय विदेशी माल खरीदने के देश में ही यंत्रो का प्रयोग कर अपनी जरूरतों के मुताबिक़ उत्पादन करें।गांधीजी जब कहते हैं कि  समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए तो वे मशीनों व यंत्रों के उपयोग के समर्थन की बात करते हैं व उसका उपयोग मानव कल्याण के लिए करना चाहते हैं। गांधीजी बार बार कहते हैं कि  यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए, मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाना चाहिए और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार होने चाहिए। जब वे कहते हैं कि  ‘मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है‘। वे तो कहते हैं कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें।इन बातों को अगर हम ध्यान से सोचे तो पायेंगे कि  वे यंत्रों के विरोधी नहीं हैं ।

यंत्रों का उपयोग मानव कल्याण के लिए हो ऐसी गान्धीजी  की भावना का पता हमें उनके इस कथन  से चलता है: “हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 6 ☆ कविता – दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक कविता  दत्त-चित्त बनकर तो देखो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 6 ☆

☆ दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆

 

तन्मयता हर लेती है जब,विकल दृगों का नीर

संयम, धैर्यशीलता हरती दुखी हृदय की पीर

 

सिहरन, ठिठुरन ठंडी साँसों को करती श्रमहीन

किन्तु उठाकर जोखिम सेवन करते नित्य समीर

 

वेणी गोरी बालों में, पड़ रही सुनहरी धूप

चपल सुन्दरी चली झूमती बनकर राँझा-हीर

 

चली रसोई से माँ लेकर पकवानों का थाल

खोज रही थी नजर चितेरी वहाँ प्यार की खीर

 

निर्भयता धारण करने से बन जाते हर काम

दत्त-चित्त बनकर तो देखो होगा हृदय कबीर।

 

सोच समझकर सदा बोलिए अंकुश हो वाणी पर

पिंजरे की बुलबुल को कोई मार न जाए तीर

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बूँदें ओस की ☆ – श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। )

 

☆ बूँदें ओस की

 

पत्तियों के सतह पे टूटे काँच सा बिखरा हुआ,

हरी चादर को सफ़ेद रत्न सा जकड़ा हुआ,

चमकती, सिहरती रवि के तपन से,

थिरकती, मचलती पवन के कंपन से,

छूने से ही एक नाजुक एहसास करा दे,

महसूस करने पे जो सोये ख़्वाब जगा दे,

रात में शुरू होकर दिन में खत्म होती कहानी एक निर्दोष की,

चँद लम्हों में ही खुद को जीकर, ज़िन्दगी जीना सिखाती बूँदें ओस की।

 

© दिवयांशु  शेखर

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

जगत की उत्पत्ति का विषय )

 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ।।9।।

 

कर्मो की आसक्ति से , उदासीन मैं तात

कर्म न मुझको बांधते जल जैसे जलजात।।9।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश (जिसके संपूर्ण कार्य कर्तृत्व भाव के बिना अपने आप सत्ता मात्र ही होते हैं उसका नाम ‘उदासीन के सदृश’ है।) स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते।।9।।

These actions do not bind Me, O Arjuna, sitting like one indifferent, unattached to those acts!।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ माँ– एक तस्वीर सी ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक  भावप्रवण लघुकथा  माँ– एक तस्वीर सी)

 

माँ– एक तस्वीर सी ☆

 

नानी कहती थी माँ बड़ी  खूबसूरत थी, तस्वीर सी। कहाँ जानती थी बेचारी कि उसकी सुगढ़ सलोनी बिटिया धीरे धीरे मूक तस्वीर में ढल रही है ।

बताया था चाची ने रमा को, कि पढ़ी लिखी गोल्ड मेडलिस्ट माँ की आँखे उसी दिन पथरा गईं थीं– जिस दिन किरानी के सामान जिसमें बंध कर आए थे, अखबार के उन  टुकड़ों को माँ को पढ़ता देखकर, सासु माँ के ताने पर देवरजी, बडे़ जेठजी और अन्यों की व्यंगात्मक हंसी पर झुकीं– माँ की आँखों ने उठना बंद कर दिया था।   नानाजी के घर मे निरे बचपन से पढीं चंदामामा, नंदन, पराग और बाद में प्रसाद, प्रेमचंद, महादेवी के रचना-अक्षर नृत्य करने लगे माँ की पथराई आँखों और जड़ होते तन-मन के सामने । सयानी होती रमा ने भी माँ को तस्वीर में ढलते देखा। जिंदगी भर बडे़ बाबूजी, चाचाजी की बेजा गर्जना पर पिताजी की एक उठी आवाज के लिए माँ के मन-प्राण-कान तरसते रहे। माँ की गूंगी बहरी संवेदनाओं और भीरू पिता के पंगु सायों में पलते भैया का कुचला बचपन माँ के भीतर नासूर बनता रहा। अन्य बच्चों की गलतियों को भैया पर थोपे झूठे इल्ज़ामों को समझ कर भी भैय्या को ही पीट पीट कर खुद अधमरी ठूंठ सी मेरी स्नेह वंचिता भावुक जननी—-उस अभिमानी परिवेश में दो बेटों के माता-पिता होने के गर्वोन्नत सिरों के सामने बेटी की माँ होने का अभिशाप झेलती भीतर से नितांत अकेली मेरी असहाय माँ– अचल तस्वीर बन चली।

माँ का दिमाग पूरी तरह चुक गया था। जड़ हो चुकी थीं वे। मनः चिकित्सा अबूझ रही।माँ की विदेही पीड़ा की साक्षी और न्यायाधीश दोनों मैं रमा ही थी, परंतु कठघरे में किसे खड़ा करूं? बेमेल विवाह के दोषी नाना मामा को, भीरु सीधे साधे दब्बू बाबूजी को या उस जमाने की पाखंडी संस्कृति को— जहाँ स्त्रियां इंसान नहीं मात्र देह होतीं थीं। जीते जी ही दीवारों पर टंगी तस्वीरें होती थीं बस !!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतिम सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  अंतिम सत्य 

 

कुछ राजपथ

कुछ स्वर्णपथ

मद-भोग के मार्ग

विलास के कुछ पथ,

चमचमाती कुछ सड़कें

विकास के ‘एलेवेटेड रास्ते’,

चमचमाहट की भीड़ में

शेष बची संकरी पगडंडी-

जिससे बची हुई हैं

माटी की आकांक्षाएँ

और जिससे बनी हुई हैं

घास उगने की संभावनाएँ,

बार-बार, हर बार

मन की सुनी मैंने

हर बार, हर मोड़ पर

पगडंडी चुनी मैंने,

मेरी एकाकी यात्रा पर

अहर्निश हँसनेवालो!

राजपथ, स्वर्णपथ

विलासपथ चुननेवालो!

तुम्हें एक रोज

लौटना होगा मेरे पास

जैसे ऊँचा उड़ता पंछी

दाना चुगने, प्यास बुझाने

लौटता है धरती के पास,

कितना ही उड़ लो,

कितना ही बढ़ लो

रहो कितना ही मदमस्त,

माटी में पार्थिव का क्षरण

और घास की शरण

है अंतिम सत्य!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #30 – चेहऱ्यावर चेहरे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “चेहऱ्यावर चेहरे”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 30☆

 

☆ चेहऱ्यावर चेहरे ☆

 

आसवांना अंतरी दडवू नको

आरश्याला तू असे फसवू नको

 

मखमली हा चेहरा नाराज का ?

चेहऱ्यावर चेहरे चढवू नको

 

सूर्य पाठीशी उभा असता तुझ्या

भर दुपारी काजवे जमवू नको

 

नेत्रपल्लव त्यात मजला झाक तू

तेथुनी मजला पुन्हा हलवू नको

 

जन्मठेपेची सजा तू दे मला

अन् जगापासून हे लपवू नको

 

सूर अपुले पाहुनी घेऊ जरा

मैफिलीचे काय ते ठरवू नको

 

बेत ठरला जर नकाराचा तुझा

ठेव हृदयी तो मला कळवू नको

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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