हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 63 ☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 63 ☆

☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆

अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह ना पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़, जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में ही सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, वे अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर, सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा…’ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिस से दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए, मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है, शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते, वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी ऊपर जाएगी। यदि हम जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, वह उतनी ऊपर की ओर जाएगी। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी। जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे, वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।

तूफ़ान में किश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं।ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य को बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। यह अकाट्य सत्य है कि वे ही उस मुक़ाम पर पहुंचते हैं, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन में विश्वास करते हैं। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है, सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और इंसान उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर-उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।

सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक अंधविश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल भर में टूट सकते हैं व ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। इगो (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है, जो बारह शब्दों के रिलेशनशिप ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार उनमें दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसीलिए मानव को बोलने से तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है, उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण बने रहते हैं और वह कभी भी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता।

मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और आपके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है, त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से उनके हित प्रार्थना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाव-वश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां-कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है। यह तो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय, आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं, जो आपको उन्नति करते देख आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर रहेंगे तथा मुसीबत में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर होंगे और आपके ज़ज़्बात समय-समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है, आप के मनोभाव आपके साथी की ज़ुबान बन जाते हैं… तभी यह संभव हो पाता है। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर, उसकी मंज़िल पर पहुंचा देते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ नन्ही गौरैया सी खुद को दीखती हूँ मैं/ I’m Like A Little Sparrow Myself… – सुश्री निर्देश निधि ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Ms. Nirdesh Nidhi’s  Classical Poem नन्ही गौरैया सी खुद को दीखती हूँ मैं with title  “I’m Like A Little Sparrow Myself… ” .  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

आपसे अनुरोध है कि आप इस रचना को हिंदी और अंग्रेज़ी में  आत्मसात करें। इस कविता को अपने प्रबुद्ध मित्र पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनकी प्रतिक्रिया से  इस कविता की मूल लेखिका सुश्री निर्देश निधि जी एवं अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को अवश्य अवगत कराएँ.

सुश्री निर्देश निधि

 ☆ नन्ही गौरैया सी खुद को दीखती हूँ मैं ☆ 

 

बरसों पहले गाँव के जो नाते

मैं भूल आई थी,

बरसों तक जिनपर

उपेक्षा की धूल मैंने खुद उड़ाई थी

इस बड़े शहर में

खोई हुई पहचान के संग, खोजती हूँ मैं

मरकरी रौशनी की सुन्न सरहदों में

गंवई चाँदनी की चादरें क्यों चाहती हूँ मैं

इस शहर के बुझे – बुझे से अलावों में

ऊष्मा अंगार की क्यों ढूंढती हूँ मैं

भीड़ के रेलों ठुंस – ठुंस कर भी

सब के सब चेहरे अपरिचित देखती हूँ मैं

इस शहर की आधुनिक बूढ़ियों में

माँ का झुर्रियों वाला चेहरा सलौना, ढूंढती हूँ मैं

अविराम से इस शहर के तेज़ कदमों के तले से

नीम की छाया तले के विश्राम वाले कुछ पहर खींचती हूँ मैं

ज्ञान के भंडार से इस शहर में

गाँव की ड्यौड़ी से छिटके कुछ निरक्षर से अक्षर

खूब चीन्हती हूँ मैं

तरण तालों के बदन पर थरथराती लड़कियों में

पोखरों की बत्तखेँ देखती हूँ मैं

सुनहरे बाज के सख्त पंजों में फंसी

नन्ही गौरैया सी खुद को दीखती हूँ मैं

आसमानों ने दिये कब पंछियों को आसरे

उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर

चलूँ अपनी धरतियों से अब गले मिलती हूँ मैं…

 

© निर्देश निधि

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

 ☆ I’m Like A Little Sparrow Myself… ☆

 

The age-old, long forgotten

relations of my village,

whom I’d buried myself

with the dust of neglect

I desperately search for

them in this big city,

with a lost identity…

 

In the mercury light,

with its insensitive limits

I keep seeking the

sheets of moonlight

of my rustic village…

 

In this town’s

blown-out bonfire

I do keep seeking

hot embers…

In the crowded

surge of humanity

I keep seeing only

the unfamiliar faces…

 

Among the stylish

gammers of this city

I keep searching for

my adorable

mother’s wrinkled face…

 

In midst of ever ceaseless,

fast-paced life of the city

I keep longing for the cool

shadow of my neem tree…

 

In this city, replete with

overflowing knowledge,

I do recognize the

unschooled characters

of my village

strewn across all-over…

 

In the bunch of damsels,

jiving rhythmically

at the glitzy floor

of swimming pools,

I envision the ducks

of rustic ponds…

 

Clutched in the

golden eagle’s talons

I see myself as a

hapless little sparrow…

But then,

when did sky ever

give shelter to the birds…

 

At this terminal stage of life

It’s the time for me to

nostalgically embrace

my own land…!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पराकाष्ठा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ – 

☆ संजय दृष्टि  ☆ पराकाष्ठा

 

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का अपना आप

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्त्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन

कविता से मिलन

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

 

©  संजय भारद्वाज 

(सोमवार दि. 30 .05 .2016, संध्या 7:15 बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 16 ☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि)

☆ किसलय की कलम से # 16 ☆

☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि 

एक सामाजिक प्राणी होने के कारण ही मनुष्य गाँवों और शहरों में एक साथ निवास करता है। मनुष्य अकेला रहकर सुरक्षित वह सुखमय जीवन यापन नहीं कर सकता। समाज में रहते हुए परस्पर आवश्यकताओं के विनिमय तथा सहयोग से ही मानव आज प्रगति की अकल्पनीय ऊँचाई पर पहुँच चुका है। इन गावों और नगरों से ही बने देश में हम एक प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करते हैं। हमारा देश भारत व्यापक भौगोलिक सीमा तथा विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। हमारे देश की संस्कृति, आचार-विचार, जीवनशैली, प्राकृतिक-परिवेश एवं वर्ण-व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं के कारण अन्य देशों से भिन्न है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथों में हमारी ऐसी अनेक विशेषताओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जहाँ अपने परिवार, परमार्थ, अपने समाज व अपने देश की आन-बान-शान को सर्वोच्च स्थान प्रदत्त है। समाज कल्याण व देशहित के ऐसे हजारों-हजार उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम ग्रंथों, काव्यों, पुस्तकों, लोकोक्तियों, मुहावरों सुभाषितों, नृत्य-नाटकों और अब रेडियो टी.वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं, देख और सुन भी सकते हैं।

सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों, विशिष्ट तथा आम लोगों द्वारा अपने समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन के जो कीर्तिमान स्थापित किए गए वे विश्व में अन्यत्र कहीं दिखाई या सुनाई नहीं देते। तत्पश्चात इस कलयुग में भी देशभक्त व जनहितैषी राजा-महाराजाओं, दिशादर्शकों एवं समाजसुधारकों की एक लंबी श्रृंखला है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई जैसे पूजनीय और चिरस्मरणीय व्यक्तित्वों का नाम आते ही सीना फूल जाता है। श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। देश और समाज के प्रति निर्वहन किए गए उनके कर्त्तव्य याद आते ही हम बौनेपन का अनुभव करने लगते हैं। उनके सामने तराजू के पासंग के बराबर भी स्वयं को नहीं पाते।

आखिर हममें इतना बदलाव कैसे आ गया? क्या केवल इसलिए कि आज हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं? क्या राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रगति और सामाजिक व्यवस्था की संपूर्ण जवाबदेही केवल शासन-प्रशासन की है? क्या हमें अपने और अपने परिवार के आगे किसी और के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए? क्या समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कोई दायित्व नहीं हैं? सच तो यही है कि अधिकांश लोगों की सोच कुछ ऐसी ही बन चुकी है। उन्हें न तो समाज हित दिखाई देता है और न ही राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन। इन सब के पीछे अनेक तथ्यों को गिनाया जा सकता है। किसी भी तथ्य को जानने के लिए उसके दोनों पहलुओं अथवा पक्षों का जानना अति आवश्यक होता है। सीधी सी बात है कि मिठास, अच्छाई और प्रेम को भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब हमें कड़वाहट, बुराई और घृणा के बारे में भी जानकारी हो। यदि मानव ने ये  स्वयं भोगे हों अथवा अनुभव किया हो तो उन सबके मूल्यों को वह अच्छी तरह से समझ सकता है।

आज स्वतंत्रता पूर्व के उन लोगों का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिन्होंने अपनी आँखों से अंग्रेजों के अत्याचार और स्वातंत्र्य वीरों की गतिविधियों एवं बलिदान को देखा या सुना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे अधिकांश लोगों को आजादी की कीमत और महत्त्व भलीभाँति स्मृत होगा। आजादी के लम्बे आंदोलन तथा अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्ठा ने मानवता की जो धज्जियां उड़ाई थीं, उसकी कल्पना मात्र भी आज की पीढ़ी को असहज कर सकती है।

हर इंसान इस सच्चाई को जानता है कि उसे एक न एक दिन सब कुछ छोड़कर मरना ही है, फिर भी वह निजी हितों के आगे सब कुछ भुला देता है। आज हमारे जीवनचर्या की भी अजीब विडंबना है। पहले हम अपनी सुख-शांति की चाह में उद्योग-धंधे, कोठियाँ और गाड़ियाँ खड़ी करने हेतु दिन-रात पैसे कमाने में जुटे रहते हैं, लेकिन सब कुछ मिल जाने के बाद कभी रात में नींद नहीं आती, तो कभी छप्पन भोग की व्यवस्था होने पर भी कुछ खा नहीं पाते। अनेक लोग कहीं शुगर से, कहीं हृदयाघात से और कहीं रक्तचाप जैसी बीमारियों से जूझते देखे जा सकते हैं। उनकी सारी धन-दौलत तथा सुख-संपन्नता किसी कोने में धरी की धरी रहती है।

आज एक ऐसा शोषक वर्ग बढ़ता जा रहा है जो गरीब, मजदूर व कमजोरों की रोजी-रोटी, लघु उद्योग एवं मजदूरी तक छीन रहा है। पहले ऐसे बहुत कुछ जरूरत के सामान व सामग्री हुआ करती थी, जो यह गरीब तबका बनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता था, लेकिन आज अधिकतर वही चीजें निर्माणियों में बनने लगी हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगारी की कगार पर खड़े हो गये हैं। क्या समाज के इस दीन-हीन वर्ग के हितार्थ ये धनाढ्य आगे नहीं आ सकते? आखिर आएँगे भी कैसे। बड़े से और बड़े होने की महत्वाकांक्षा जो इनके आड़े आ जाती है। इन पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों को समाज के प्रति इनके दायित्वों को भला कौन समझाने की जुर्रत करेगा?

आज की राजनीति बिना पैसों के असंभव है। एक साधारण व्यक्ति सारी जिंदगी छुटभैया नेता बनकर रह जाता है। एक ईमानदार, चरित्रवान, सामाजिक सरोकार में रुचि रखने वाले नेता का वर्तमान में कोई भविष्य नहीं है। धनाढ्यों की संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी देशप्रेम और देशहित की दुहाई दे देकर राजनीति करते रहते हैं। देश के प्रति समर्पण की भावना या समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का तो इनके पास समय ही नहीं रहता। अरबों-खरबों की धन दौलत वाले भी दिखावे के लिए ही समाज सेवा का ढोंग रचते देखे गए हैं। ऐसे देशहितैषी और समाजहितैषी धनाढ्यों को बहुत कम ही देखा गया है जो निश्छल भाव से अपनी कमाई का कुछ अंश देश और समाज हित में लगाते हैं।

आज की पीढ़ी को व्यवसाय आधारित शिक्षा ग्रहण करने हेतु जोर दिया जाता है। इसमें न रिश्ते होते हैं, न मान-मर्यादा का पाठ, न व्यावहारिक ज्ञान और न ही कर्त्तव्य बोध। जब शिक्षा ही केवल व्यवसाय और नौकरी के लिए होगी तब शेष व्यावहारिक संस्कार और कर्त्तव्यों को कौन सिखाएगा। उद्योग, व्यवसाय अथवा नौकरी पेशा माता-पिता तो सिखाएँगे नहीं, क्योंकि उनके पास अपनी संतानों के लिए भी इतना वक्त नहीं होता कि वे उनको स्नेह, लाड़-प्यार व अच्छी सीख दे सकें। रही सही अच्छी बातें जो आजा-आजी व नाना-नानी सिखाया करते थे तो उन लोगों से इन बच्चों का वर्तमान समय में मिलना-जुलना ही बहुत कम होता है। सही कहा जाए तो इन बच्चों के माँ-बाप स्वयं उनके आजा-आजी या नाना-नानी के पुराने विचारों व संस्कारों को सिखाने उनके पास रहने का अवसर ही नहीं देते। अब आप ही सोचें, जब बच्चों को कोई बड़े बुजुर्ग उन्हें धर्म, संस्कृति और संस्कारों की बात नहीं सिखाएगा, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन अध्ययन के पश्चात बच्चे जब सीधे उद्योग-धंधों अथवा नौकरियों में चले जायेंगे तब वे हमारे इतिहास, हमारी समृद्ध संस्कृति, सामाजिक उत्तरदायित्व व देशप्रेम को कैसे समझेंगे।

इसे हम आज की एक बड़ी भूल या कमी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यथार्थता के धरातल पर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह हमारे समाज व हमारे देश के लिए एक घातक बीमारी से कम नहीं है। हमारे पास सुखी व शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु साधन उपलब्ध हों। हमारी संताने भविष्य में सुखी-संपन्न जीवन यापन कर सकें, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन इससे भी आगे हम लालसा करें तो क्या यह उचित होगा? हमें परोपकार, समाज सेवा, तथा देशहित में कर्त्तव्य परायणता अन्तस में जगाना होगी। उक्त बातें कड़वी जरूर है लेकिन शांतचित्त और निश्चल भाव से सोचने पर सच ही लगेंगी। हम सबको खासतौर पर आजादी के बाद जन्म लेने वालों को स्वयं तथा अपनी संतानों में ऐसे भाव जाग्रत करने की आवश्यकता है, जिससे हम व हमारी संतानों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व निर्वहन की रुचि प्रमुखता से दिखाई दे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 62 ☆ मेघ ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपका एक भावप्रवण गीत  “मेघ । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 62 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – मेघ ☆

मेघा छाए काले काले

क्यों नहीं बरस जाते हो।

हर पल वो तो प्यास बुझाते।

क्यों नहीं दरस दिखाते हो।

मेघा..

 

उमड़ घुमड़ कर आते वे तो

सबकी खुशियां लाते है।

उदास किसान करते दुआएं

गीत बारिश के गाते है।

मेघा…

 

रस्ता देखे हम भी इनका

गरज गरज के जाते हो।

कब आओगे तरसे नयना

दुख ही दुख दे जाते हो।

मेघा..

 

ताल तलैया झील भी सूखी

नदिया सूखी जाती है।

नहीं बची है इनकी सांसे

क्यों नहीं  बरस  तुम जाते हो।

मेघा..

 

आस लगाए कब से बैठे

पानी कब बरसाओगे।

धरती को तर्पण कर दो

आकार कब हर्षाओगे।

मेघा छाए….

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 53 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 53☆

☆ संतोष के दोहे ☆

 

चिंतन पहले सब करें, बाद करें सब काम

तभी सफलता भी मिले, कभी न हों नाकाम

 

झूम उठा मन देख कर, निरखि नियति का रूप

उत्सव सा मौसम लगे, नित नव रंग स्वरूप

 

गली बगीचों में दिखें, नव युगलों की भीर

अब विस्मय क्या कीजिये, रखिये बस मन धीर

 

बिना चाह के हमें खुद, मिलता मान यथेष्ट

कर्मों की खातिर सदा, रहिये तनिक सचेष्ट

 

राह ताकती कौमुदी, पावस पूनम रात

पाकर मधु वो खिल उठी, पुलकित सब जज्बात

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ आशीर्वाद ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “आशीर्वाद ”)

☆ लघुकथा – आशीर्वाद  ☆

“अरे वाह मीनू, तुम्हारे तो ऑफिस के सारे के सारे लोग पहुंचे हुए हैं, रौनक लगवा दी तुमने तो,” अनिल ने कहा।

“बुलाने का तरीका होता है, ऐसे थोड़े ही कोई आता है,” मीनू ने मुस्कुराते हुए कहा।

“वह कैसे?” अनिल ने उत्सुकता से पूछा।

मीनू ने बताया, “मैं अपने ऑफिस में कार्ड के साथ सभी को मिठाई का डिब्बा दे रही थी। मैंने अपने सभी साथियों से कहा था, ‘मेरी बेटी की शादी में उसे आशीर्वाद देने अवश्य ही आइयेगा।’

इस पर सुशील बोला, ‘शायद मैं न आ पाऊँ, पर मैं प्रताप के हाथों शगुन का लिफाफा अवश्य ही भेज दूंगा।‘

इस पर मैंने कहा, ‘यदि आप नहीं आ सकते तो न आएं, किन्तु शगुन का लिफाफा भी मत भेजिएगा। मैं यह कार्ड और मिठाई शगुन के लिफाफे के लिए नहीं दे रही हूँ। ये मेरी अपनी ख़ुशी है जो मैं आप सब से साझा कर रही हूँ, और इसलिए दे रही हूँ कि यदि आप आएंगे तो मेरी बेटी की शादी में रौनक बढ़ेगी और उसे आप सबका आशीर्वाद भी मिलेगा। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप सभी लोग शादी में अवश्य आएं। और हां, शगुन का लिफाफा मैं सिर्फ उसी से लूंगी जो मेरी बेटी को शादी में उसे आशीर्वाद देने पहुंचेगा, अन्यथा नहीं।‘

“तभी आज शादी में ऑफिस के सभी लोग बेटी को आशीर्वाद देने आए हुए हैं।” अनिल मुस्कुरा दिया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – देणार प्राण नाही ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “देणार प्राण नाही )

☆ विजय साहित्य – देणार प्राण नाही ☆

 

(वृत्त आनंद)

गागालगा लगागा

सरणात जाळ नाही

मरण्यात शान नाही.

आरोग्य स्वच्छता ही

करणार घाण नाही.

वैश्विक हा करोना

ठरणार काळ नाही.

संसर्ग शाप झाला

अंगात त्राण नाही .

साधाच हा विषाणू

नाशास बाण नाही .

सोपे नसेल जगणे

हरण्यात मान नाही .

बकरा नव्हे बळीचा

देणार प्राण नाही .

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 7 – हा तुझा एकटीचा प्रवास  ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 7 ☆

☆ हा तुझा एकटीचा प्रवास  ☆

हा तुझा एकटीचा प्रवास

एकटीचा नाहीये बाळा

साताठशे मैलांचा जो

तू पित्यासह केलेला-

हा आहे एक चिरंतन प्रवास

जो जीवनाकडून जीवनासाठी जीवनाकडे झालेला—

शेकडो मैलांच्या या प्रवासात भेटली तुला ती होती सर्व

मेलेली माणसे-जी

मेलेल्या नजरेनेच तुला  न्याहाळत होती षंढपणे …

अशी सणसणीत चपराक तुझी

त्यांच्या ही कानाखाली

ज्यांची लाचार पत्रकारिता

नाचली फुटपाथच्या भवताली

अशी असावी जिद्द-

असावा असा कणखरपणा

आमच्याकडे का नसावा

एवढा मजबूत कणा?

इतकी प्रखर जीवनआस

कुठून बरं येते?

जन्मदात्यालाही जन्म द्यायची

ताकद कुठून येते?

दूर देशीच्या ‘राज’ कन्येनं

या ‘देश’ कन्येचं कौतुक करावं

आणि इथल्या बेशरम प्रजेला

हे अगदी उशिरा कळावं?

गर्भातल्या उमलत्या कळ्यांना

गर्भातच खुडणाऱ्यांना

आतातरी यावं आत्मभान

‘दिवट्या’ पेक्षा ‘ज्योती’ बरी

यातच सुचावं शहाणपण

अशी सणसणीत चपराक

ज्याची वाट बघावी

की आठवणीने आपली आपण रोज मारून घ्यावी?

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

25/5/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तू आणि मी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

जन्म – ४ जुलै १९५४.

शिक्षण – एम् ए.

प्रामुख्याने रत्नागिरी आणि सांगली येथे वास्तव्य झाले. आता पुण्यात स्थायिक! गृहिणी पदाच्या सर्व जबाबदाऱ्या पार पाडताना च शिशुवर्गापासून ते किशोर वर्गापर्यंत च्या मुलांना अध्यापन.

लेखनाची आवड जोपासली. विविध वर्तमानपत्रे आणि नियतकालिकात लेखन.’  जसं सुचलं तसं’  या लेख व कवितांच्या पुस्तकाचे प्रकाशन पुणे येथे १६ जून २०१९ रोजी  झाले.

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तू आणि मी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆ 

 

तुझ्या माझ्या आठवणींची

साठीही उलटून गेली!

पाठच्या बहिणीसम सखे,

तुझी माझी जोडी राहिली!

 

बालपणीची आपुली सोबत,

एकमेकीच्या घरी असे!

साजशृंगार तुझा माझा,

सारखाच मनी वसे !

 

एकीने घातली चार वेणी,

दुसरी लाही तशी हवी

तर कधी लांब वेणी वरी

रिबिनीची ही झूल हवी !

 

बालपणाने प्रवेश केला,

अलगद पणे तारुण्यात !

गोड गुपितांची लयलूट,

एकमेकींच्या कानात !

 

शैशवाचे दिवस सरले,

गेलो मांडवाच्या दारी !

ओढ आपली तरी न संपली,

होती अन् ती खरी खुरी!

 

मिळे अकल्पित वेळ कधी,

असे एकमेकीसाठी शकून!

सोडला ना एकही आपण,

भेटीचा तो असे सुकून !

 

आता उरलो एकमेकीचा,

विरंगुळा तोही मनोमनी !

आयुष्याच्या उरल्या क्षणांची,

साथ मिळेल ही क्षणोक्षणी !

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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