हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का हार्दिक स्वागत है। आप व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

संक्षिप्त परिचय

जन्म 01.09.1954

जन्म स्थान – गंगापुर सिटी (राज0)

शिक्षा एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।

व्यवसाय – स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर से सेवानिवृत अधिकारी।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।

 ☆ व्यंग्य – फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में ☆

किबला मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी ने अद्भुत बात लिखी है कि इंसान को हैवाने जरीफ़ याने प्रबुद्ध जानवर कहा गया है और यह हैवानों के साथ बहुत बड़ी ज्यादती है। ओशो ने कहा था कि जानवर इसलिए नहीं हंसते क्योंकि वे ऊबते नहीं हैं। मुश्ताक साहब का कथन है कि इंसान एक मात्र अकेला ऐसा जानवर है जो मुसीबत पड़ने से पहले ही मायूस हो जाता है। मगर हास्य उसका एक मात्र ऐसा आलम्बन है जो उसे किसी भी मुसीबत से पार कर देता लेता है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में बहुत पहले हास्य के आठ प्रकार बता दिए थे। उनमें मुक्त हास्य, मंद हास्य एवं मौन हास्य प्रमुख हैं। अट्टहास, ठिठोली, ठट्ठा तथा ठहाका को मुक्त हास्य, मुस्कान को मंद हास्य और अंतर्हास को मौन हास्य कहा गया है। हास्य-कला का एक और वर्गीकरण है, ’अपहास’। यह निकृष्ट श्रेणी का हास्य है। उपहास, खिल्ली, खीस तथा कटाक्ष आदि अपहसित हास्य हैं। घोड़े की माफिक हिनहिनाना और लकड़बग्घी हंसी इसी श्रेणी के हास्य हैं। मुक्त हास्य इंसान को ईश्वर की नेमत है। कवि लिखता है, ‘हंसना रवि की प्रथम किरण सा, कानन के नवजात हिरण सा‘। सच, शिशु की भोली किलकारी सभी को सम्मोहित करती है। इंद्रजीत कौशिक ने बालक की खिलखिलाहट को ईश्वरतुल्य बताते हुए लिखा है- ‘संग खुदा भी मुस्कराया, जब एक बच्चे को हंसाया।’ यह मालूम नहीं कि निर्मल हंसी और निश्छल मुस्कान ईश्वर तक पहुंचती है या नहीं किन्तु यह दिल तक जरूर पहुंचती है। मुस्कान के बारे में इतना तक कहा गया है कि यह आपके चेहरे का वह झरोखा है, जो कहता है कि आप अपने घर पर हैं। महबूबा की उन्मुक्त हंसी पर अग्निवेश शुक्ल लिखते हैं- ’’जब्ज है दीवारों में तेरी हंसी और खुशबू से भरा है मेरा घर।’’ इसी मिज़ाज पर वीरेंद्र्र मिश्र ने लिखा है- ‘‘फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में।’’ आंग्ल भाषा में कथन है कि हैप्पीनेस इज नॉट ए डेस्टीनेशन। इट्स ए मैथड ऑॅफ लाइफ। यानी मस्त होकर हंसो, फिर मस्त रहो। ‘तमक-तमक हांसी मसक’ यानी मनभावक, मतवाली और मस्तानी हंसी एक चिकित्सा है। ‘लाफ्टथैरपी’ के कद्रदान कहते हैं कि हंसने से  ‘बक्सीनेटर‘, ‘आर्बीक्यूलेरिस,’ ’रायजोरिस’ तथा ’डिप्रेशरलेबी’ जैसी मुख्य मांस पेशियों समेत दो सौ चालीस मांसपेशियां सक्रिय होकर सकारात्मक प्रभाव पैदा करती हैं और जब, हंसी बुक्काफाड़ हो तो समझो कि मांसपेशियों की तो शामत आ जाती है। ऐसे ही हंसोड़ थे, रामरिख मनहर। मेरे महल्ले में भी उसी नस्ल के एक शायर रहते हैं। जनाब, गज़ब के ठहाकेबाज हैं। अस्सी पड़ाव लांघ चुके हैं लेकिन अब भी उनकी हंसी अनेक घरों को लांघती हुई मेरे घर में बेतकल्लुफ प्रवेश करती है। एक दिन मैंने उनसे दो सौ चालीस मांसपेशियों की सक्रियता का उल्लेख कर दिया। दूसरे दिन खां साहेब छड़ी ठकठकाते घर आ गए और बोले, ‘‘जिन दांतों से हंसते थे खिल खिल, अब वही रूलाते हैं हिलहिल।’’ बताओ कि वह कौन सी नामाकूल पेशी है?, जिसने हमारे दांतों में ऐसा भूचाल ला दिया कि कल हमने बुक्का क्या फाड़ा कि रात भर कराहते रहे और अभी अभी डॉक्टर को दिखाकर लौटे हैं। कमबख्त ने पर्चा भर कर दवाइयां लिख दी हैं।’’

मैंने कहा, ‘‘म्यां! यह मांसपेशी का कुसूर नहीं बल्कि आप बरसों से जर्दा-किवाम की गिलौरियों का जो जुर्म इन पर ढाते रहे हो, यह उसी का नतीजा है।’’ यह सुनकर बरखुदार लाहौलविलाकुव्वत बोलते हुए निकल लिए।

कुछ महानुभावों ने हास्य की इंद्रिय को इंसान की छठी इंद्रिय कहा है। कदाचित, इसी वजह से तमाम बदहालियों और बीमारियों के बावजूद देश की जनता हंसे-मुस्कराए जा रही है। भय, भूख, बेरोजगारी, अराजकता और अनाचार के बाद भी हम सदियों से हंस रहे हैं, खिलखिला रहे हैं। भ्रष्टाचार और कुव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश जताने की जगह खीसें निपोर रहे हैं। गाहे-बगाहे, क्रोध प्रदर्शन हो भी जाता है तो उनमें भी हंसते- मुस्कराते मुखड़े नजर आ जाते हैं। हैरत है कि दारूण प्रकरणों तथा अंतिम संस्कारों जैसे अवसरों पर भी लोग चहक लेते हैं। कवि रघुवीर सहाय भी कदाचित इस अवस्था को अनुभूत करते हुए लिख गए- ’’लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे। निर्धन जनता का शोषण है, कहकर आप हंसे। चारों ओर है बड़ी लाचारी, कहकर आप हंसे। सबके सब हैं भ्रष्टाचारी, कहकर आप हंसे।‘‘ चुनंाचे, आलम यह है कि आवाम ही नहीं बल्कि देश के दिग्गज राजनीतिबाज भी बात-बेबात मुस्करा रहे हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब चुनावों में मुंह की खाने के बाद भी शीर्ष नेता हंस-विहंस कर आत्मचिंतन की आवश्यकता जाहिर करते हैं। फिर नतीजा चाहे, ढाक के तीन पात निकले। गंभीर विषयों पर आयोजित नौकरशाहों की बैठकें अमूमन चाय-नाश्ते के चटखारे के साथ समाप्त हो जाती हैं। नतीजा वही ढाक के तीन…। टी.वी. स्क्रीन पर दिख रही चख..चख का नतीजा भी ढाक के तीन पात ही होता है। फिर वे चाहे लोकसभायी हों या न्यूज चैनल्स पर आमंत्रित माननीयों की। हम भी उस कुत्ता लड़ाई का पूर्णता से लुत्फ ले ही लेते हैं।

चुनांचे, अब वक्त आ गया है, जब बचे-खुचे लोग भी हंसने-मुस्कराने की इस पुनीत राष्ट्रीय धारा में शरीक हों और अपना स्वास्थ्य दुरूस्त रखें। इसके लिए किसी लॉफिंग-क्लब से जुड़ने लॉफ्टर शो आदि देखने की जरूरत नहीं। सिर्फ, सतर्कता से अपने आवास, दफ्तर, प्रतिष्ठान के आसपास के मौजूं का अवलोकन करें, बस इसी ताका-झांकी में आपको अनेक भी हास्य प्रसंग मिल जाएगा। इस मामले में थोड़ा सा मार्गनिर्देशन हम किये देते हैं- जब लोग गुलाब जामुन को रसगुल्ला। बाघ, चीता, तेंदुआ को शेर। किसी कंपनी की कार को मारूति। किसी भी मोटर साइकिल को हीरो होंडा। वनस्पति घी को डालडा और  लेमीनेट को सनमाइका कह कर पुकारें; तो आप यकीनन खिलखिला सकते हैं। आपके उपालंभ पर दूधिया कहे कि सा‘ब! मेरा दूध तो एकदम शुद्ध और पेवर है। आपका पड़ौसी बोले कि मैं तो रोज सुबह उठकर, डेली घूमता हूं। अधिकारी पूछे कि इन आंकड़ों का कुल टोटल क्या है? चिकित्सक नसीहत दे कि रोजाना फल-फ्रूट खाया करो अथवा अतिथि आपके चाय के प्रस्ताव पर नाक-भौं सिकोड़े और कहे कि टी तो मैं सिर्फ बेड-टी पर ही लेता हूं। गर्ज यह कि आप ऐसे प्रसंगों पर अपनी एक अद्द मुस्कराहट न्यौछावर कर सकते हैं। एक महिला अपने बच्चे को डॉक्टर को दिखाते हुए बोली- डॉक्टर साहब! देखिए तो इसके बाथरूम में सूजन आ गई है। उसकी उस बाथरूमी-संज्ञा पर चिकित्सक की इच्छा लहालौंट होने को अवश्य हुई होगी? किसी कस्बाई नेता का अभिनंदन है और प्रशंसा के बड़े-बड़े पुल बांधे जा रहे हैं कि इनके नेतृत्व से देश ही नहीं वरन विश्व को बड़ी बड़ी आशाएं हैं। तबादलित, जिला स्तर के अधिकारी के विदाई समारोह में भाषण झाड़े जा रहे हों कि इनकी कार्यकुशलता का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है अथवा सूदखोर सेठ को दानवीर कर्ण या भामाशाह की उपाधि से विभूषित किया जा रहा हो या धुर देहात में ग्रामीणों के मध्य कृषि संबंधी जानकारी अंग्रेजी में दी जा रही हो, किसी स्थानीय समाचार-पत्र का लोकार्पण या संगठन का अभ्युदय हो और उसे राष्ट्रीय स्तर के संबोधन दिए जा रहे हों तो ऐसे मौकों पर सिवा ठहाका लगाने के आप कर ही क्या सकते हैं?

चलिए, चलते चलते दिविक रमेश की ये पंक्तियां स्मरण करके ही हंस लें-

‘‘कुछ नालायक विचार भी प्यारे तो बहुत होते हैं। आते ही उनके हंसने लगती हैं, हमारी उदासियां।’’

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उत्क्राँति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – उत्क्राँति

कुआँ, पेड़,

गाय, साँप,
सब की रक्षा को
अड़ जाता था,
प्रकृति को माँ-जाई
और धरती को
माँ कहता था..,
अब कुआँ, पेड़,
सब रौंद दिए,
प्रकृति का चीर हरता है
धरती का सौदा करता है,
आदिमपन से आधुनिकता
उत्क्राँति कहलाती है,
जाने क्यों मुझे यह
उल्टे पैरों की यात्रा लगती है!

हम सब यात्रा की दिशा पर चिंतन करें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(दोपहर 1.55, 18.12.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 22 – वरदान और अभिशाप ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “वरदान और अभिशाप।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 22 ☆

☆ वरदान और अभिशाप

भगवान राम भी कर्म के कानून से नहीं बच पाए। उन्होंने एक वृक्ष के पीछे से बाली को मार डाला था, न कि लड़ाई की खुली चुनौती से। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाली को वरदान था कि अगर कोई उससे लड़ने के लिए उसके सामने आ जाए तो बाली को उसकी आधी शक्ति मिल जाएगी।

इसलिए भगवान विष्णु के अगले अवतार, भगवान कृष्ण के रूप में इस कार्य के लिए, उन्हें जरा (अर्थ : माँ) नामक एक शिकारी के हाथों वृक्ष के पीछे से छिप कर चलाये गए तीर से मृत्यु मिली। जानते हैं वो जरा कौन था? वह बाली का अगला जीवन था, जिसने अपने पिछले जन्म में भगवान राम द्वारा छिप कर चलाये हुए तीर से मृत्यु प्राप्त की थी जिसका परिणाम स्वरूप भगवान कृष्ण की मृत्यु भी समान रूप से हुई वो भी उसी केहाथोंजिसे उन्होंने पिछले जन्म में मारा था। इसी को कर्मोंका क़ानून कहते हैं।

क्या आप जानते हैं कि कर्म का अभिशाप और कानून इतना प्रभावी है कि उसने भगवान कृष्ण के सभी राज्यों को बर्बाद कर दिया था । बेशक अगर भगवान कृष्ण चाहते, तो वे उनसे बच सकते थे, क्योंकि यह सब स्वयं उनकी अपनी माया के तहत ही रचा गया था, लेकिन यदि वह ऐसा करते, तो ऐसा लगता कि भगवान अपने द्वारा बनाये गए नियम स्वयं ही तोड़ रहे हैं, तो आम लोग उनका अनुसरण क्यों करेंगे?

भगवान कृष्ण से अधिक बुद्धिमान कौन है? कोई नहीं।

वह कुरुक्षेत्र की लड़ाई में पांडवों के साथ थे क्योंकि उन्हें पता था कि यदि पांडव उस युद्ध को हार जायँगे, तो धर्म का नुकसान होगा और कौरव कभी भी आदर्श राजा नहीं बन पायेंगे जिससे कि कौरवों के शासन में, सभी आम लोगों को भारी मुसीबतों और परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए धार्मिक कानून स्थापित करने के लिए, भगवान कृष्ण को पता था कि पांडवों की जीत आवश्यक है। सभी जानते हैं कि कौरव सेना के पास पांडव सेना से ज्यादा कई और शक्तिशाली योद्धा थे।

 

© आशीष कुमार  

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सूचनाएँ/Information ☆ हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा ☆ – प्रस्तुति – श्री संजय भारद्वाज

सूचनाएँ/Information

हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा

(हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती समारोह के अंतर्गत सम्पन्न हुआ आयोजन)

हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे, राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई और महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी पुणे में आयोजित की गई थी। इसका विषय था, *हिंदी : घोषित राजभाषा, उपेक्षित राष्ट्रभाषा*।

संगोष्ठी का उद्घाटन सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सदानंद भोसले ने किया। डॉ. भोसले ने कहा कि गाँव की मंडी से लेकर संसद तक की भाषा हिंदी है तो हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं हो सकती? हिंदी चारों भाषाकुलों के बीच सेतु का काम करती है। आज़ादी की लड़ाई में भी हिंदी ही सेतु बनी। उन्होंने लिपि के प्रचार और अधुनातन तकनीक को अपनाने पर बल दिया।

हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे के अध्यक्ष श्री संजय भारद्वाज ने कहा कि राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा भी एक ही हो सकती है।अपनी भाषा में शिक्षा न होने के कारण प्रतिभाओं के दमन और शोध के क्षेत्र में मौलिकता के अभाव की ओर उन्होंने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि यही उपयुक्त समय है कि हम संकल्प को सिद्धि की ओर ले जाने की यात्रा आरम्भ करें।

हिंदी आंदोलन परिवार की  सहसंस्थापक सुधा भारद्वाज ने प्रस्तावना रखी। उन्होंने हिंदी की भाषागत वैज्ञानिकता और संवैधानिक स्थिति की चर्चा करते हुए विषय के विभिन्न पहलुओं पर मंथन का आह्वान किया।

महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, पुणे के संचालक श्री ज. गं. फगरे ने अपने वक्तव्य में कहा कि हिंदी उपेक्षित नहीं है। राजनीतिक विरोध का मुकाबला भाषा के प्रचार से करना चाहिए।

राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई की उपाध्यक्ष डॉ. सुशीला गुप्ता ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि भाषा अस्मिता से जुड़ी होती है। हिंदी की उपेक्षा अपनी पहचान को लुप्त करने जैसा है। इस सत्र का संचालन- स्वरांगी साने ने किया।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. दामोदर खडसे ने की। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा थी, है और रहेगी। आम नागरिक अँग्रेज़ी के खौफ़ से दबा है। निष्ठा और समर्पण से हिंदी के पक्ष में वातावरण तैयार करना होगा।

आबासाहेब गरवारे महाविद्यालय के हिंदी विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. नीला बोर्वणकर ने कहा कि हिंदी के कारण प्रांतीय भाषाओं की अस्मिता पर खतरे की आशंकाओं का निर्मूलन किया जाना चाहिए। स्वाधीनता के समय ही हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता तो भाषा को लेकर होनेवाले विवाद खड़े नहीं होते। हिंदी विभाग, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शशिकला राय ने कहा कि यह मानना पड़ेगा कि भारतीय भाषाएँ दम तोड़ रही हैं। बड़े अख़बार समूह व्यापार के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्होंने भाषा के क्रियोलीकरण पर  आपत्ति जताई। बैंक ऑफ महाराष्ट्र के सहायक महाप्रबंधक (हिंदी) डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव ने राजभाषा और राष्ट्रभाषा के तकनीकी अंतर को परिभाषित किया। राजभाषा के क्षेत्र में हुए कार्यों से स्थितियों में आए सकारात्मक बदलाव की उन्होंने विशद जानकारी दी। राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई के ट्रस्टी एवं संरक्षक श्री महेश अग्रवाल ने कहा कि हिंदी के राजनीतिक विरोध पर हिंदी के हितैषियों का मौन पीड़ादायक है।इस सत्र का संचालन डॉ. अनंत श्रीमाली ने किया।

द्वितीय सत्र में ‘क्षितिज’ द्वारा भाषा पर आधारित साहित्यिक रचनाओं की प्रस्तुति की गई।  *मेरी भाषा के लोग* नामक इस सांस्कृतिक आयोजन के लेखक-निर्देशक संजय भारद्वाज थे। उनके अलावा विजया टेकसिंगानी, आशु गुप्ता, अपर्णा कडसकर, रेखा सिंह, अनिता दुबे और समीक्षा तैलंग ने भी रचनाओं को स्वर दिया।

समापन सत्र में प्रतिक्रियाएँ एवं प्रश्नोत्तर हुए। इस सत्र का संचालन डॉ. ओमप्रकाश शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन अरविंद तिवारी ने किया।

कार्यक्रम की सफलता के लिए सुशील तिवारी, डॉ. लतिका जाधव, डॉ. पुष्पा गुजराथी ने विशेष परिश्रम किया। बेहद कसे हुए इस विचारोत्तेजक कार्यक्रम में बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित थे। प्रमुख उपस्थितों में माया मीरपुरी, उषाराजे सक्सेना, सत्येंद्र सिंह, डॉ. अहिरे, राजीव नौटियाल, डॉ. मेघा श्रीमाली, मीरा गिडवानी, डॉ. लखनलाल आरोही, माधुरी वाजपेयी, संध्या यादव, नीलम छाबरिया, महेंद्र मिश्र, माधव नायडू, सतीश दुबे, महेश बजाज, बीरेंद्र साह, दिवाकर सिंह आदि सम्मिलित थे।

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆ हाथों की गलियाँ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “हाथों की गलियाँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 20 ☆

☆ हाथों की गलियाँ

अपना लेखा मेहनत है
भाग्य के भरोसे क्यों रहे?
हाथ कभी क्यों फैलाए?
हम हाथ कभी क्यों जोड़े?

हाथों की गलियाँ तंग रही
नसीब कहां हम ढूँढेंगे?
मिट्टी गारा उठाते सही,
हीरा कोयले से पाएँगे।

कल नसीब हम बदलेंगे ,
हाथों पर कालिख ही सही
हम मेहनत करने वाले हैं ,
आज भले ये तंग सही।

नई रोशनी यहां आएगी,
नया सवेरा वह लाएगी।
हज़ारों किरणों को लेकर,
हाथों की गलियाँ बनाएगी।

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ मित….. (भाग-1) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ मित……  (भाग 1)☆

“Hi”

शेवटी तो मॅसेज आलाच ज्याची मागच्या महिन्याभरापासून मित वाट बघत होता. इंस्टाग्रामवर ” रिमझीम लवर” नाव असलेल्या त्या अकाउंटवर एका मुलीचा फोटो पाहून मित त्यावर मोहित झाला होता. कितीही झूम केला तरी फोटो फूलस्क्रीन होत नव्हता. आणि लहानशा गोलाकारात बघून त्याचे मन भरत नव्हते. म्हणून त्याने त्या अकाउंटला फाॅलो केले. प्रायवैट अकाउंट असलयामूळे “रिक्वेस्टेड” त्याच्या स्क्रिनवर दिसत होते. नाव लक्षात राहावे म्हणून त्याने स्क्रीनशाॅट काढून ठेवला. पुर्ण फोटो पाहण्याची त्याची बेचैनी काही कमी होत नव्हती. पण अशा नावाची अकाउंट्स ही मुलांची पण असतात. फेसबूक, इंस्टाग्राम किंवा अन्य सोशल मिडिया अॅप वर बनावट आय डी ओपन करून मुलींच्या शोधात असणा-या मुलांची निव्वळ टर उडवण्यासाठी, कधी कधी जवळच्या मित्राची फजिती  करण्यासाठी अशी अकाउंट तयार केली जातात. हे त्याच्या लक्षात आलेच होते. पण फक्त जाणून घ्यावे या उद्देशाने त्याने फाॅलो रिक्वेस्ट कॅन्सल केली नाही. बेचैनी एवढी होती की क्षणभर ही धीर त्याला निघत नव्हता. पण काय करणार, रिक्वेस्ट स्विकारली तेव्हाच त्याला तिची प्रोफाईल बघता येणार होती.

आज कित्येकदा मितने मोबाईल डाटा चालू करून इंस्टाग्राम नोटीफिकेशन चेक केले होते. एव्हाना सर्वच अॅपची नोटीफिकेशन त्याने बंद करून ठेवली होती. पण आज त्याने ती पुन्हा चालू करून पुन्हा पुन्हा तपासत होता. त्यांच हे बदलणं त्याच्या गृपच्या मुलांनाही नविन होतं. काहीतरी विचारांत राहणारा, शांत शांत एका कोप-यात राहणारा, आणि कोणाचा फोन आल्याशिवाय मोबाईलला न बघणारा मित  आज मात्र मोबाईलला खुपदा चालू करून पाहत होता.

रात्रीच्या जेवणानंतर नित्य सवयीप्रमाने शत पावली करण्यासाठी कॅटीनबाहेर गेला. चालता चालता न राहवून त्याने  पुन्हा मोबाईल डाटा चालू केला.  आणि फायनली त्याला ती नोटीफिकेशन मिळाली “रिमझिम लवर अॅक्सप्ट युवर फ्रेंड रिक्वेस्ट”. ती पाहून तो आनंदुन गेला. अवघ्या काही तासांत त्याची रिक्वेस्ट अॅक्सेस्ट झाली होती. अती उत्साह न दाखवता नेहमीप्रमाणे शांत डोकं ठेऊन तो रूमवर जाऊन बेडवर पडून निवांत फोटो पाहावे असा विचार करून तो रूमवर परतला. आणि कोणाशीही न बोलता आपल्या रूममध्ये घुसला. संघरत्न, महेश आणि मित अशा तिघांची ती रूम होती. संघरत्नला उत्कृष्ट वाद्य वाजवता येत असल्याने त्याच्या बेडच्या आजूबाजू गिटार वगैरे असं त्याचं आवडतं साहित्य पडलेलं होतं. मित रूममध्ये आला तेव्हा संघरत्न कोणती तरी धुन वाजवण्यात मग्न होता. तसाच महेशही उत्तम कलाकार आणि तो छान डान्सरही आहे हे त्याचे कपडे केसांची स्टाईल आणि त्याच्या वागण्यावरून  कोणीही ओळखून घेईल. मित आला तेव्हा संघरत्न त्याला म्हटला “मित अरे बघ तूझ्या नव्या नाटकासाठी मी नविन धून तयार करतोय. ती जरा एकून सांग मला कशी झालीय ते. तुला काही सुधारणा हव्या असतील तर त्या ही सुचव.” पण मित त्याची कोणतीही गोष्ट ऐकण्याच्या मनस्थितीत नव्हता. म्हणून त्याने स्मित हसून त्याला म्हटले “अरे बाळं तू आज पर्यंत ज्या धून बनवलेल्या आहेत त्या कधी फेल गेल्या आहेत का? छानच असेल ही पण. तू सुरु ठेव” मितचे असं उत्तर देणं त्याला आवडलं नाही. त्याने रागाने गिटार बाजूला ठेवली. तेव्हा मित त्याच्या जवळ बसला. “अरे डार्लिंग, रागवतोय कशाला.” संघरत्न थोडा चिडलाच होता. ” रागावतोय म्हणजे मी एवढी मेहनतीने ती धून तुझ्यासाठी बनवली आणि हारामखोरा, तू इग्नोर करतोय” आणि त्याने मान तशीच रागात वळवली. त्याची मान स्वत कडे करण्याचा प्रयत्न करत मित त्याला म्हणाला. ” अरे मेरी जान. आय लव यू बोल दे एक बार” पण तो काही मानत नव्हता. म्हणून मितने मोबाईल घेतला आणि त्याच्यापुढे केला. ” अरे बघ इंस्टाग्रामवर एक मुलगी भेटलीय. खुप सुंदर आहे यार तीने आत्ताच फ्रेंड रिक्वेस्ट अॅक्सेस्ट केली म्हणुन……” त्याचं बोलणं अपूर्णच सोडत संघरत्नने मोबाईल त्याच्या हातातुन घेतला. आणि म्हटला “काय? साल्या गुपचूप गुपचूप तू अशी कारस्थाने करतोयस आणि आम्हाला माहितीसुध्दा पडू देत नाही. दाखव कोण आहे ती, कशी आहे” मित ” अरे सावकाश. मी पण पाहिलं नाही तीला अजून पुर्ण” मितने त्याच्या हातातून मोबाईल परत घेतला. आणि नोटीफिकेशन आॅन केली. स्क्रिनवर “रिमझिम लवर” नावाचं अकाउंट दिसतं होतं. साधारण आठराएक फोटो पोस्ट केले होते. अधीर असलेल्या मितने पटकन एक फोटोवर क्लिक केले. फोटो फूलस्क्रीन दिसत होता. फोटो पाहताच त्याच्या अंगावर शहारा उठला. त्याचं. ह्रदय जणू बाहेर निघून नाचू लागलं होतं. तो हसत होता कि आणखी काही. हे त्यालासुद्धा कळत नव्हतं. त्याच्या चेह-यावरचे नेमके भाव काय आहेत हे सांगण्या पलिकडचे होते.  एवढं सुंदर देखणं रूप, जणू तारूण्याची ती मिसालच होती. ते बारीक-बारीक छोटे डोळे, लांबसडक काळेभोर दाट केसं, दिसायला सडपातळ पण सौंदर्याची खाणच होती ती. तिचे ते स्मित अधिकच मोहत होते. हसतांना गालावर पडलेली खळी तीला शोभून दिसत होती. जास्त नाही पण उंच सडपातळ असलेली ती लावण्यवतीच भासत होती. तीला पाहताच त्याचं ह्रदय प्रेमाच्या सागरात हेलकावे खाऊ लागलं होतं. त्याची दिवानगी फोटोगणिक वाढतच होती. संघरत्नचंही काहीसं असंच होतं. पण मितला त्या फोटोत पुर्णपणे बुडालेलं पाहून त्याने खांदा मारत म्हटले  ” अरे साल्या, कुठे भेटला हा कोहिनूर तूला.” मित फक्त स्मित देत होता. संघरत्नला कळाले कि त्याच्या मनात काय सुरू आहे. तो त्याला चिडण्यासाठी म्हटला ” काय? डायरेक्ट विकेट…….” मितने लाजून खाली मान घातली. संघरत्न ” अबे तू पण …….”

तो चकित होता. संघरत्न जेवढा मितला ओळखत होता. त्याला माहीत होतं प्रेम वगैरे या गोष्टींत मितला रस नव्हता. त्याच्या बाबांचं म्हणनं होतं की त्याने इंजिनियरींग करावं पण मितला लिखाणात फार रस होता. त्याने त्याच्या बाबांना सरळ सांगीतलं होतं कि त्याला लेखक, दिग्दर्शक व्हायचंय. त्याच्या निर्णयाचा सम्मान करत त्याच्या बाबांनी त्याला विद्यापिठात ड्रामा डिपार्टमेंटला प्रवेश घ्यायला परवानगी दिली होती. बाबांचा विश्वास सार्थ ठरवत मितने आतापर्यंत अनेक चांगल्या कथा लिहून त्यांना स्वतःच दिग्दर्शित करून अनेक बक्षिसांवर उत्कृष्ट दिग्दर्शक आणि लेखक म्हणून नाव कोरले होते. त्याने अनेक भयकथा, प्रेमकथा, प्रेरणादायी कथा लिहिल्या होत्या. त्याच्या शालेय जीवनात त्याने एक काव्य संग्रह ही प्रकाशीत केला होता. त्याला प्रेमकथा लिहीण्याची विशेष आवड होती. हे सांगणे अतिशयोक्तीचे नव्हते कि एवढ्या प्रेमकथा लिहीणारा मित अजूनही कोणत्या मुलीच्या प्रेमात पडला नव्हता. पण या मुलीचा फोटो पाहून तो तिच्यावर भाळला हे मात्र खरे होते. त्याने ते सर्वच फोटो कितीतरी वेळा झूम करून पाहिले होते.

 ( क्रमशः )

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय)

 

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ।।26।।

 

शुक्ल कृष्ण दो मार्ग हैं जग के ज्ञात महान

एक में तो निर्वाण है अन्य में फिर निर्माण।।26।।

 

भावार्थ : क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।)– जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।) फिर वापस आता है अर्थात्‌जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।।26।।

 

The bright and the dark paths of the world are verily thought to be eternal; by the one (the bright path) a person goes not to return again, and by the other (the dark path) he returns.।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ शब्द शब्द साधना ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “शब्द शब्द साधना”डॉ मुक्ता जी का यह प्रेरणास्पद आलेख किसी भी पीढ़ी के लिए वरदान है। अक्सर हम क्षणिक भावावेश में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग कर लेते हैं जिसके लिए आजीवन पछताते हैं किन्तु एक बार मुंह से निकले शब्द वापिस नहीं हो सकते। हम जानते हैं कि हमारी असंयमित भाषा हमारे व्यक्तित्व को दर्शाती है किन्तु हम फिर भी स्वयं को संयमित नहीं कर पाते हैं।  डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

 

☆ शब्द शब्द साधना

 

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है, शब्द शब्द में सार।

शब्द सदा ऐसे कहो, जिन से उपजे प्यार।’

वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है, जीवन का संदेश…  सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेमभाव प्रकट हो। कबीर जी का यह दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ खुद भी शीतल होय…उपरोक्त भावों की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं, जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म/ शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम। शब्द में नियत हैं खुशी व ग़म के भाव। परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है। शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहां वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं, वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है, शब्द ही मरहम है।  शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर मरहम का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है, कि आप किन शब्दों का चुनाव करते हैं।

‘हीरा परखे जौहरी, शब्द ही परखे साध।

कबीर परखे साध को, ताको मता अगाध।’

हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत् वचनों को ही महत्व प्रदान करता है। वह उसके संदेशों को जीवन में उतार कर सुख प्राप्त करता है और कबीर उस साधु को परखता है कि उसके विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है, उसकी सोच कैसी है…और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है, उचित है या नहीं। वास्तव में संत वह है जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और जिसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते, उसे सत् मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते, वही संत है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्म चर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व  स्पष्ट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, अपने विचारों को संभालें अर्थात् कुत्सित भावों व विचारों को अपने मनो-मस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें क्योंकि यह दोनों मानव केअजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को हानि पहुंचाता है, वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में जाने क्या-क्या कह जाते हैं, जिसके लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ता है। परंतु ‘ फिर पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना… हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के घाव कभी नहीं भरते, वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहां मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं, वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं।

शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और उसे विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है… आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति को अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना अनिवार्य है… सोच समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी गलती का अहसास दिलाना है तो उससे एकांत में बात करो… क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है, क्योंकि उस स्थिति में दोनों के अहं टकराते हैं अहं से संघर्ष का जन्म होता है और इस स्थिति में वह एक-दूसरे के प्राण लेने पर उतारू हो जाता है। गुस्सा चांडाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं… परशुराम का अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का क्रोध में अहिल्या का श्राप दे देना हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना चाहिए तथा उस विषम परिस्थिति में कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए, जिसे आप सहन कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति दुष्भावनाएं मत रखिए… उसके औचित्य-अनौचित्य का भी चिंतन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर, किसी के प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं…उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता. बिना सोचे-विचारे किए गए कर्म केवल आपको हानि ही नहीं पहुंचाते, परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि गलत हों, तो गुमराह कर देते हैं, यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त कथन हमें आग़ाह करता है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करो, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरू होता है, जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको गलत मार्ग व दिशा में जाने से रोकता है तथा आपकी उन्नति को देख प्रसन्न होता है, आपको उत्साहित करता है। पुस्तकें भी सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छा मित्र न  होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। हां!

सबसे बड़ी है, मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे से परिलक्षित होता है और व्यवहार आपके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करूणा, सहानुभूति आदि भावों को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना से दूर से सलाम कीजिए क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु वह उस स्थिति में अपना धैर्य नहीं खोता, दु:खी नहीं होता, बल्कि उनसे सीख लेता है तथा अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि सुख-दु:ख तो अतिथि हैं… जो आया है, अवश्य जाएगा। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए अर्थात् दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपको सत्मार्ग पर चलने में बाधा न बनें तथा अब गलत राह का अनुसरण न करने दे। क्योंकि पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देता है और उसमें उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे अमानुष बना देता है। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधा के बारे में सोचता है। इसलिए वहां यश व लक्ष्मी का निवास स्वतःहो जाता है। जहां सत्य है, वहां धर्म है, यश है और वहां लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है, सौहार्द व सद्भाव है, वहां मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है…उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय व सहोदर बनें। निष्कर्षत: हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी  ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है ☆☆

मि. डिनायल में नकारने की एक अद्भुत प्रतिभा है. क्या आप उनसे मिलना चाहेंगे? इसके लिये आपको उनकी रूह को महसूस करना होगा. रूह जो समूचे आर्यावर्त में भटक रही है और मौका-जरूरत इस या उस शरीर में आवाजाही करती रहती है. आज़ाद भारत में उसकी आवाजाही सबसे ज्यादा अमात्य परिषद में देखी गई है. कुछ दिनों पहले उसे वित्त-प्रमुख के शरीर में देखा गया, जो कह रहे थे कि जीडीपी गिरी नहीं है – ये हमारे अर्थव्यवस्था चलाने का नया अंदाज़ है. वो सीमांत प्रदेश-प्रभारियों में दीखायी पड़ती है जो असामान्य परिस्थितियों को स्थिति के सामान्य होने का नया अंदाज़ कहते हैं. आप उससे कहिये कि देश में भुखमरी है. वो तुरंत अमात्यों, जनपरिषद के सदस्यों के भोजन करते हुवे फोटो लेकर इन्स्टाग्राम पर डालेगी. फिर आप ही से पूछेगी – ‘बताईये श्रीमान, कहाँ है भुखमरी?’ वो मृत्यु को नकार सकती है – ‘ये किसानों की आत्महत्याएँ नहीं हैं, यमदूतों के आत्माएँ ले जाने का नया अंदाज़ है’. वो अनावृत्त होते नायकों से कहलवा देती है – ‘ये सियासत में खजुराहो को साकार करने का हमारा नया अंदाज़ है’.

एक बार मैंने रूह से पूछा – ‘तुम गंभीर से गंभीर मसलों को भी इतनी मासूमियत से कैसे नकार लेती हो?’ उसने कहा – ‘शुतुरमुर्ग मेरे इष्टदेव हैं. मैं उनसे प्रेरणा और शक्ति ग्रहण करती हूँ. तूफान आने से पहले रेत में सर छुपा लेती हूँ. जब गुजर जाता है तब सवाल करनेवालों से ही सवाल पूछ लेती हूँ – कहाँ है तूफान? जवाब सुने बगैर रेत में फिर सर घुसा लेती हूँ.’

संकटों से निपटने का उसका ये अनोखा अंदाज़ आर्यावर्त के राजमंदिर की हर प्रतिमा में उतर आया है. उसके डिनायल अवाक् कर देने वाले होते हैं. मि. डिनायल की रूह दंगे करवानेवालों में समा सकती है, बलात्कार करनेवालों में समा सकती है, स्कैमस्टर्स में तो समाती ही है. आप उससे नौकरशाहों में रू-ब-रू हो सकते हैं. वो आपको परा-न्यायिक हत्या के बाद कोतवालों में मिलेगी, सट्टेबाज क्रिकेटरों में मिलेगी, वो न्याय के पहरेदारों में मिलेगी, वो पॉवर की हर पोजीशन में मिलेगी. इस रूह का कोई चेहरा नहीं होता – वो बेशर्म होना अफोर्ड कर पाती है, दिल भी नहीं होता – निष्ठुर होना अफोर्ड कर पाती है, जिगर तो होता ही नहीं है – तभी तो वो कायराना हरकतें कर पाती है. वो जिस शरीर में उतर आती है उसमें सच स्वीकार करने का माद्दा खत्म हो जाता है.

मि. डिनायल की रूह की एक खासियत है, वो समानता के सिद्धान्त का अनुपालन करती है। वो किसी भी दल के किसी भी जननायक में समा सकती है, वो किसी भी समुदाय के किसी भी धर्मगुरु में समा सकती है, वो भाषा, मज़हब, प्रांत का भेद नहीं करती, सबसे एक जैसा झूठ बुलवाती है। वो अधिक पढ़े-लिखों में, बुद्धिजीवियों में, अधिकारियों में स्थायी होने की हद तक निवास करती है.

रूहें जवाबदेह नहीं होतीं, वो भी नहीं है. यों तो वो आपसे हर दिन मुखातिब है, मगर अब के बाद आप उसे ज्यादा शिद्दत से महसूस कर पायेंगे. निकट भविष्य में वो आर्यावर्त से फना होनेवाली तो नहीं ही है.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तलाश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  तलाश 

 

परिचितों की फेहरिस्त

जहाँ तक आँख जाती है

अपनों की तलाश में पर

नज़र धुंधला   जाती है 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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