हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पराकाष्ठा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ – 

☆ संजय दृष्टि  ☆ पराकाष्ठा

 

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का अपना आप

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्त्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन

कविता से मिलन

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

 

©  संजय भारद्वाज 

(सोमवार दि. 30 .05 .2016, संध्या 7:15 बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 16 ☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि)

☆ किसलय की कलम से # 16 ☆

☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि 

एक सामाजिक प्राणी होने के कारण ही मनुष्य गाँवों और शहरों में एक साथ निवास करता है। मनुष्य अकेला रहकर सुरक्षित वह सुखमय जीवन यापन नहीं कर सकता। समाज में रहते हुए परस्पर आवश्यकताओं के विनिमय तथा सहयोग से ही मानव आज प्रगति की अकल्पनीय ऊँचाई पर पहुँच चुका है। इन गावों और नगरों से ही बने देश में हम एक प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करते हैं। हमारा देश भारत व्यापक भौगोलिक सीमा तथा विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। हमारे देश की संस्कृति, आचार-विचार, जीवनशैली, प्राकृतिक-परिवेश एवं वर्ण-व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं के कारण अन्य देशों से भिन्न है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथों में हमारी ऐसी अनेक विशेषताओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जहाँ अपने परिवार, परमार्थ, अपने समाज व अपने देश की आन-बान-शान को सर्वोच्च स्थान प्रदत्त है। समाज कल्याण व देशहित के ऐसे हजारों-हजार उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम ग्रंथों, काव्यों, पुस्तकों, लोकोक्तियों, मुहावरों सुभाषितों, नृत्य-नाटकों और अब रेडियो टी.वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं, देख और सुन भी सकते हैं।

सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों, विशिष्ट तथा आम लोगों द्वारा अपने समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन के जो कीर्तिमान स्थापित किए गए वे विश्व में अन्यत्र कहीं दिखाई या सुनाई नहीं देते। तत्पश्चात इस कलयुग में भी देशभक्त व जनहितैषी राजा-महाराजाओं, दिशादर्शकों एवं समाजसुधारकों की एक लंबी श्रृंखला है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई जैसे पूजनीय और चिरस्मरणीय व्यक्तित्वों का नाम आते ही सीना फूल जाता है। श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। देश और समाज के प्रति निर्वहन किए गए उनके कर्त्तव्य याद आते ही हम बौनेपन का अनुभव करने लगते हैं। उनके सामने तराजू के पासंग के बराबर भी स्वयं को नहीं पाते।

आखिर हममें इतना बदलाव कैसे आ गया? क्या केवल इसलिए कि आज हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं? क्या राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रगति और सामाजिक व्यवस्था की संपूर्ण जवाबदेही केवल शासन-प्रशासन की है? क्या हमें अपने और अपने परिवार के आगे किसी और के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए? क्या समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कोई दायित्व नहीं हैं? सच तो यही है कि अधिकांश लोगों की सोच कुछ ऐसी ही बन चुकी है। उन्हें न तो समाज हित दिखाई देता है और न ही राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन। इन सब के पीछे अनेक तथ्यों को गिनाया जा सकता है। किसी भी तथ्य को जानने के लिए उसके दोनों पहलुओं अथवा पक्षों का जानना अति आवश्यक होता है। सीधी सी बात है कि मिठास, अच्छाई और प्रेम को भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब हमें कड़वाहट, बुराई और घृणा के बारे में भी जानकारी हो। यदि मानव ने ये  स्वयं भोगे हों अथवा अनुभव किया हो तो उन सबके मूल्यों को वह अच्छी तरह से समझ सकता है।

आज स्वतंत्रता पूर्व के उन लोगों का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिन्होंने अपनी आँखों से अंग्रेजों के अत्याचार और स्वातंत्र्य वीरों की गतिविधियों एवं बलिदान को देखा या सुना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे अधिकांश लोगों को आजादी की कीमत और महत्त्व भलीभाँति स्मृत होगा। आजादी के लम्बे आंदोलन तथा अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्ठा ने मानवता की जो धज्जियां उड़ाई थीं, उसकी कल्पना मात्र भी आज की पीढ़ी को असहज कर सकती है।

हर इंसान इस सच्चाई को जानता है कि उसे एक न एक दिन सब कुछ छोड़कर मरना ही है, फिर भी वह निजी हितों के आगे सब कुछ भुला देता है। आज हमारे जीवनचर्या की भी अजीब विडंबना है। पहले हम अपनी सुख-शांति की चाह में उद्योग-धंधे, कोठियाँ और गाड़ियाँ खड़ी करने हेतु दिन-रात पैसे कमाने में जुटे रहते हैं, लेकिन सब कुछ मिल जाने के बाद कभी रात में नींद नहीं आती, तो कभी छप्पन भोग की व्यवस्था होने पर भी कुछ खा नहीं पाते। अनेक लोग कहीं शुगर से, कहीं हृदयाघात से और कहीं रक्तचाप जैसी बीमारियों से जूझते देखे जा सकते हैं। उनकी सारी धन-दौलत तथा सुख-संपन्नता किसी कोने में धरी की धरी रहती है।

आज एक ऐसा शोषक वर्ग बढ़ता जा रहा है जो गरीब, मजदूर व कमजोरों की रोजी-रोटी, लघु उद्योग एवं मजदूरी तक छीन रहा है। पहले ऐसे बहुत कुछ जरूरत के सामान व सामग्री हुआ करती थी, जो यह गरीब तबका बनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता था, लेकिन आज अधिकतर वही चीजें निर्माणियों में बनने लगी हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगारी की कगार पर खड़े हो गये हैं। क्या समाज के इस दीन-हीन वर्ग के हितार्थ ये धनाढ्य आगे नहीं आ सकते? आखिर आएँगे भी कैसे। बड़े से और बड़े होने की महत्वाकांक्षा जो इनके आड़े आ जाती है। इन पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों को समाज के प्रति इनके दायित्वों को भला कौन समझाने की जुर्रत करेगा?

आज की राजनीति बिना पैसों के असंभव है। एक साधारण व्यक्ति सारी जिंदगी छुटभैया नेता बनकर रह जाता है। एक ईमानदार, चरित्रवान, सामाजिक सरोकार में रुचि रखने वाले नेता का वर्तमान में कोई भविष्य नहीं है। धनाढ्यों की संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी देशप्रेम और देशहित की दुहाई दे देकर राजनीति करते रहते हैं। देश के प्रति समर्पण की भावना या समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का तो इनके पास समय ही नहीं रहता। अरबों-खरबों की धन दौलत वाले भी दिखावे के लिए ही समाज सेवा का ढोंग रचते देखे गए हैं। ऐसे देशहितैषी और समाजहितैषी धनाढ्यों को बहुत कम ही देखा गया है जो निश्छल भाव से अपनी कमाई का कुछ अंश देश और समाज हित में लगाते हैं।

आज की पीढ़ी को व्यवसाय आधारित शिक्षा ग्रहण करने हेतु जोर दिया जाता है। इसमें न रिश्ते होते हैं, न मान-मर्यादा का पाठ, न व्यावहारिक ज्ञान और न ही कर्त्तव्य बोध। जब शिक्षा ही केवल व्यवसाय और नौकरी के लिए होगी तब शेष व्यावहारिक संस्कार और कर्त्तव्यों को कौन सिखाएगा। उद्योग, व्यवसाय अथवा नौकरी पेशा माता-पिता तो सिखाएँगे नहीं, क्योंकि उनके पास अपनी संतानों के लिए भी इतना वक्त नहीं होता कि वे उनको स्नेह, लाड़-प्यार व अच्छी सीख दे सकें। रही सही अच्छी बातें जो आजा-आजी व नाना-नानी सिखाया करते थे तो उन लोगों से इन बच्चों का वर्तमान समय में मिलना-जुलना ही बहुत कम होता है। सही कहा जाए तो इन बच्चों के माँ-बाप स्वयं उनके आजा-आजी या नाना-नानी के पुराने विचारों व संस्कारों को सिखाने उनके पास रहने का अवसर ही नहीं देते। अब आप ही सोचें, जब बच्चों को कोई बड़े बुजुर्ग उन्हें धर्म, संस्कृति और संस्कारों की बात नहीं सिखाएगा, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन अध्ययन के पश्चात बच्चे जब सीधे उद्योग-धंधों अथवा नौकरियों में चले जायेंगे तब वे हमारे इतिहास, हमारी समृद्ध संस्कृति, सामाजिक उत्तरदायित्व व देशप्रेम को कैसे समझेंगे।

इसे हम आज की एक बड़ी भूल या कमी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यथार्थता के धरातल पर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह हमारे समाज व हमारे देश के लिए एक घातक बीमारी से कम नहीं है। हमारे पास सुखी व शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु साधन उपलब्ध हों। हमारी संताने भविष्य में सुखी-संपन्न जीवन यापन कर सकें, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन इससे भी आगे हम लालसा करें तो क्या यह उचित होगा? हमें परोपकार, समाज सेवा, तथा देशहित में कर्त्तव्य परायणता अन्तस में जगाना होगी। उक्त बातें कड़वी जरूर है लेकिन शांतचित्त और निश्चल भाव से सोचने पर सच ही लगेंगी। हम सबको खासतौर पर आजादी के बाद जन्म लेने वालों को स्वयं तथा अपनी संतानों में ऐसे भाव जाग्रत करने की आवश्यकता है, जिससे हम व हमारी संतानों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व निर्वहन की रुचि प्रमुखता से दिखाई दे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 62 ☆ मेघ ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपका एक भावप्रवण गीत  “मेघ । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 62 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – मेघ ☆

मेघा छाए काले काले

क्यों नहीं बरस जाते हो।

हर पल वो तो प्यास बुझाते।

क्यों नहीं दरस दिखाते हो।

मेघा..

 

उमड़ घुमड़ कर आते वे तो

सबकी खुशियां लाते है।

उदास किसान करते दुआएं

गीत बारिश के गाते है।

मेघा…

 

रस्ता देखे हम भी इनका

गरज गरज के जाते हो।

कब आओगे तरसे नयना

दुख ही दुख दे जाते हो।

मेघा..

 

ताल तलैया झील भी सूखी

नदिया सूखी जाती है।

नहीं बची है इनकी सांसे

क्यों नहीं  बरस  तुम जाते हो।

मेघा..

 

आस लगाए कब से बैठे

पानी कब बरसाओगे।

धरती को तर्पण कर दो

आकार कब हर्षाओगे।

मेघा छाए….

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 53 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 53☆

☆ संतोष के दोहे ☆

 

चिंतन पहले सब करें, बाद करें सब काम

तभी सफलता भी मिले, कभी न हों नाकाम

 

झूम उठा मन देख कर, निरखि नियति का रूप

उत्सव सा मौसम लगे, नित नव रंग स्वरूप

 

गली बगीचों में दिखें, नव युगलों की भीर

अब विस्मय क्या कीजिये, रखिये बस मन धीर

 

बिना चाह के हमें खुद, मिलता मान यथेष्ट

कर्मों की खातिर सदा, रहिये तनिक सचेष्ट

 

राह ताकती कौमुदी, पावस पूनम रात

पाकर मधु वो खिल उठी, पुलकित सब जज्बात

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ आशीर्वाद ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “आशीर्वाद ”)

☆ लघुकथा – आशीर्वाद  ☆

“अरे वाह मीनू, तुम्हारे तो ऑफिस के सारे के सारे लोग पहुंचे हुए हैं, रौनक लगवा दी तुमने तो,” अनिल ने कहा।

“बुलाने का तरीका होता है, ऐसे थोड़े ही कोई आता है,” मीनू ने मुस्कुराते हुए कहा।

“वह कैसे?” अनिल ने उत्सुकता से पूछा।

मीनू ने बताया, “मैं अपने ऑफिस में कार्ड के साथ सभी को मिठाई का डिब्बा दे रही थी। मैंने अपने सभी साथियों से कहा था, ‘मेरी बेटी की शादी में उसे आशीर्वाद देने अवश्य ही आइयेगा।’

इस पर सुशील बोला, ‘शायद मैं न आ पाऊँ, पर मैं प्रताप के हाथों शगुन का लिफाफा अवश्य ही भेज दूंगा।‘

इस पर मैंने कहा, ‘यदि आप नहीं आ सकते तो न आएं, किन्तु शगुन का लिफाफा भी मत भेजिएगा। मैं यह कार्ड और मिठाई शगुन के लिफाफे के लिए नहीं दे रही हूँ। ये मेरी अपनी ख़ुशी है जो मैं आप सब से साझा कर रही हूँ, और इसलिए दे रही हूँ कि यदि आप आएंगे तो मेरी बेटी की शादी में रौनक बढ़ेगी और उसे आप सबका आशीर्वाद भी मिलेगा। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप सभी लोग शादी में अवश्य आएं। और हां, शगुन का लिफाफा मैं सिर्फ उसी से लूंगी जो मेरी बेटी को शादी में उसे आशीर्वाद देने पहुंचेगा, अन्यथा नहीं।‘

“तभी आज शादी में ऑफिस के सभी लोग बेटी को आशीर्वाद देने आए हुए हैं।” अनिल मुस्कुरा दिया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – देणार प्राण नाही ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “देणार प्राण नाही )

☆ विजय साहित्य – देणार प्राण नाही ☆

 

(वृत्त आनंद)

गागालगा लगागा

सरणात जाळ नाही

मरण्यात शान नाही.

आरोग्य स्वच्छता ही

करणार घाण नाही.

वैश्विक हा करोना

ठरणार काळ नाही.

संसर्ग शाप झाला

अंगात त्राण नाही .

साधाच हा विषाणू

नाशास बाण नाही .

सोपे नसेल जगणे

हरण्यात मान नाही .

बकरा नव्हे बळीचा

देणार प्राण नाही .

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 7 – हा तुझा एकटीचा प्रवास  ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 7 ☆

☆ हा तुझा एकटीचा प्रवास  ☆

हा तुझा एकटीचा प्रवास

एकटीचा नाहीये बाळा

साताठशे मैलांचा जो

तू पित्यासह केलेला-

हा आहे एक चिरंतन प्रवास

जो जीवनाकडून जीवनासाठी जीवनाकडे झालेला—

शेकडो मैलांच्या या प्रवासात भेटली तुला ती होती सर्व

मेलेली माणसे-जी

मेलेल्या नजरेनेच तुला  न्याहाळत होती षंढपणे …

अशी सणसणीत चपराक तुझी

त्यांच्या ही कानाखाली

ज्यांची लाचार पत्रकारिता

नाचली फुटपाथच्या भवताली

अशी असावी जिद्द-

असावा असा कणखरपणा

आमच्याकडे का नसावा

एवढा मजबूत कणा?

इतकी प्रखर जीवनआस

कुठून बरं येते?

जन्मदात्यालाही जन्म द्यायची

ताकद कुठून येते?

दूर देशीच्या ‘राज’ कन्येनं

या ‘देश’ कन्येचं कौतुक करावं

आणि इथल्या बेशरम प्रजेला

हे अगदी उशिरा कळावं?

गर्भातल्या उमलत्या कळ्यांना

गर्भातच खुडणाऱ्यांना

आतातरी यावं आत्मभान

‘दिवट्या’ पेक्षा ‘ज्योती’ बरी

यातच सुचावं शहाणपण

अशी सणसणीत चपराक

ज्याची वाट बघावी

की आठवणीने आपली आपण रोज मारून घ्यावी?

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

25/5/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तू आणि मी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

जन्म – ४ जुलै १९५४.

शिक्षण – एम् ए.

प्रामुख्याने रत्नागिरी आणि सांगली येथे वास्तव्य झाले. आता पुण्यात स्थायिक! गृहिणी पदाच्या सर्व जबाबदाऱ्या पार पाडताना च शिशुवर्गापासून ते किशोर वर्गापर्यंत च्या मुलांना अध्यापन.

लेखनाची आवड जोपासली. विविध वर्तमानपत्रे आणि नियतकालिकात लेखन.’  जसं सुचलं तसं’  या लेख व कवितांच्या पुस्तकाचे प्रकाशन पुणे येथे १६ जून २०१९ रोजी  झाले.

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तू आणि मी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆ 

 

तुझ्या माझ्या आठवणींची

साठीही उलटून गेली!

पाठच्या बहिणीसम सखे,

तुझी माझी जोडी राहिली!

 

बालपणीची आपुली सोबत,

एकमेकीच्या घरी असे!

साजशृंगार तुझा माझा,

सारखाच मनी वसे !

 

एकीने घातली चार वेणी,

दुसरी लाही तशी हवी

तर कधी लांब वेणी वरी

रिबिनीची ही झूल हवी !

 

बालपणाने प्रवेश केला,

अलगद पणे तारुण्यात !

गोड गुपितांची लयलूट,

एकमेकींच्या कानात !

 

शैशवाचे दिवस सरले,

गेलो मांडवाच्या दारी !

ओढ आपली तरी न संपली,

होती अन् ती खरी खुरी!

 

मिळे अकल्पित वेळ कधी,

असे एकमेकीसाठी शकून!

सोडला ना एकही आपण,

भेटीचा तो असे सुकून !

 

आता उरलो एकमेकीचा,

विरंगुळा तोही मनोमनी !

आयुष्याच्या उरल्या क्षणांची,

साथ मिळेल ही क्षणोक्षणी !

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खरच माझं चुकलच ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर

☆ जीवनरंग ☆ खरच माझं चुकलच ☆ सौ. स्मिता माहुलीकर ☆ 

मी मिसेस प्रधान. मी माझ्या बद्दल जरा विस्तार पूर्वक सांगते. माझा जन्म एक संपन्न कुटुंबात झाला.मी एकूलत एक जरास लाडावलेल कन्यारत्न. कलकत्याला आमची मोठी बाडी म्हणजे बंगला होता. आसपास सतत नोकरांचा वावर. कॉलेज चे शिक्षण होस्टेल मधे झाले. स्वभावाने मी हेकेखोर आणि घमंडी म्हटले तरी चालेल. माझे लग्न आमच्या स्टेटसला शोभतिल असे प्रधान यांच्याशी झाले. येथे पण मी माझ्या टर्मस एन्ड कंडीशन प्रमाणे राहू लागले. आमचं अगदी व्यवस्थित चालले होते. यथोचित वेळेला ‘सोहम ‘ चा जन्म झाला. माझे  सोशियल वर्क, जिम, क्लब वगैरे चालू होते. मला कधी डाउन क्लास माणसं आवडली नाहीत. त्यांचे ते मध्यमवर्गीय परंपरा जपण मला आजिबात पसंत नह्वते. सोहम सॉफ्टवेअर इन्जिनियर होउन जगप्रसिद्ध कंपनीत नोकरी ला लागला आणि अमेरिकाला स्थायीक झाला. आता आम्ही दोघे येथे आमच्या साम्राज्यात मज्जेत रहात होतो. आत्ता पर्यंत माझे अस ठाम मत होतं की पैसा आणि हुशारी असली की काही अडत नाही. आमच्या शेजारी कुलकर्णीबाई आणि कुटुंबीय राहत आहे. टिपीकल मिडलक्लास  कुटुंब.  मी नेहमी त्यांचाशी अंतर ठेवून होते. कुलकर्णी बाई रिटायर्ड लायब्ररीयन आहेत. त्यांना पुढे पुढे करायची सवय आहे.मी तर त्यांना खडसावून सांगितले

” मला असे कोणी उगाच लुडबुड केलेली आवडत नाही.” असो. हे असे आमचं हाई स्टँडर्ड जीवन चालले होते. आणि एके दिवशी कोरोना ची साथ आपल्या देशात येउन ठेपली!…

भारतात लॉक डाउन जाहीर केले तसे आमच्या कडे असणारे स्वयंपाकी, मोलकरीण, ड्राइवर,माळी सगळ्यांनीच येण बंद केले. जास्त पैसे देऊन सुद्धा कोणी काम करायला तैयार नह्वत. आणि आमची हुशारी साधा चहा बनवायला पण कामास येणार नाही!! कसे बसे कोर्न फ्लेक्स, ऑट्स हे खाउन एक दिवस निभावून काढला. दुसरा दिवस लॉक डाउन चा, मी सकाळी उठले आणि टेरेस बाल्कनीे मध्ये गेले जरा फूल झाडानं कडे बघावे म्हणून. पाहते तर काय सगळ्या कुंड्याची माती ओली! जसे कोणी आत्ता च पाणी घातले असावे ! देवा समोर सुद्धा कधी न झुकणारी मी चक्क आकाशाकडे पाहिलं आणि हात जोडून नतमस्तक झाले. तेवढ्यात दारावरची बॅल वाजली. मी दार उघडलं तर समोर कुलकर्णी बाई हातात कॅसरॉल घेउन उभ्या होत्या.त्या सरळ आत जाऊन डबा ठेवत म्हणू लागल्या ” गरम मेथी चे पराठे आहे ते खाउन घ्या.”  मी आश्चर्याने बघत राहिले. “तुम्हाला कसे कळले की आमचा ब्रेकफास्ट बाकी आहे?”   “अहो त्यात न कळण्यासारखे काय आहे. तुमच्या   फूल झाडांना पण काल पासून पाणी मिळाले नाही नोकर माणसं नसल्याने, तर तुम्ही पण नीट काही खाले नसेल च. आधी झाडांना आमच्या बाल्कनीतुन च पाइपने पाणी शिंपडले. नंतर सुनबाईंनी केलेले पराठे तुमच्या साठी घेउन आले. ”  ” तुम्ही अश्या कशा हो!” असे म्हणत मी त्यांचा कडे आभारित होउन पहात होते. “मी म्हटलं तुम्ही तुमचा ताठरपणा सोडणार नाही च अहात  तर मग मी पण माझा मनमिळाऊपणा का सोडायचा?   आम्ही मध्यमवर्गीय माणसं साधी जीवन शैली आणि उच्च विचारसरणी जपतो. ” मी त्यांचा  समोर हात जोडले “खरंच माझ चुकलंच आत्ता पर्यंत हाई स्टँडर्ड च्या मोहात मी आपलेपण विसरले.”

© सौ. स्मिता माहुलीकर

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शब्दवेडी – शब्दकोडी ☆ सौ. अमृता देशपांडे

☆ विविधा ☆ शब्दवेडी – शब्दकोडी ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

शब्दकोडी सोडविणे हा छंद म्हणा, आवड म्हणा, सवय म्हणा किंवा वेड म्हणा, काही असले तरी त्याचे फायदेच आहेत. कित्तीतरी  फायदे. वेळ छान जातो, डोक्याला चालना मिळते, नवीन शब्द कळतात, वयाच्या पन्नाशीनंतर आत्मविश्वास वाढायला मदत होते.

मला तर शब्दकोडी सोडविणे हा छंद,सवय, आवड, आणि वेड सगळंच आहे. काही वर्षांपूर्वी मुद्दाम वेळ काढत असे. आवड असली कि सवड मिळतेच. वर्तमानपत्रातली छोटी छोटी शब्दकोडी पट्कन सुटतात. आता तर काय दुपारचा एक तास दोन मोठी म्हणजे 75- 80 शब्दांची कोडी सोडवता येतात. ते आता इतकं सवयीचं झालं आहे की दुपारी वर्तमानपत्र आणि पेन माझी वाट बघत असतात.

हो! डोक्याला चालना मिळते. आडव्या उभ्या शब्दांची एकमेकांशी सांगड घालताना शब्दांची वीण जमू लागली की एक सुंदर चित्र  तयार होते. पण कधी कधी एखादा शब्द इतका खट आणि हट्टी असतो, काही केल्या आठवत नाही. तेव्हा त्याला तिथेच सोडते आणि दुस-या शब्दाकडे जाते. अचानक तो हट्टी शब्द पटकन उतरतो.

काय गंमत असते बघा! एक बंदिस्त चौकोन, त्यात अनेक घरे, प्रत्येक घरात एक शब्द आणि त्यांचं नातं फक्त आडवं किंवा उभं. दोन शब्दांचा एकमेकांशी काहीही संबंध नाही.

जबाबदारी या शब्दापासून कामचुकारपणा शब्दापर्यंत, सभ्य, सालस या शब्दापासून कृतघ्न,हलकट, नीच, नराधम शब्दापर्यंत,  नाटककाराचे लांबलचक नाव ते एकांडे शब्द,  उदा. ख,ब्र,भ्रु, व, ठो, शी अशा वैविध्यपूर्ण शब्दापर्यंत, एक म्हण उभी 10 अक्षरांची तर आडवा वाक्प्रचार 12 अक्षरांचा. यापेक्षा ही अधिक range असलेली कोडी म्हणजे एक challenge असते.

हल्ली तर सणवारांप्रमाणे कोडी असतात.श्रावणातले सण, प्रत्येक दिवसाचे महत्त्व उलगडणारी कोडी, गणेशोत्सवात गणपतीच्या नावांची आणि स्थानांची, तसेच नवरात्रीची देवीच्या नावांची कोडी, तर चक्क राजकपूरच्या सिनेमांची, बच्चनच्या सिनेमातल्या त्यांच्या character च्या नावांची सुद्धा कोडी असतात.

मला ही शब्दकोडी बनविणा-यांच्या बुद्धीचं खरंच कौतुक वाटतं. अफाट बुध्दी वापरून करतात हे काम ही मंडळी. शब्दकोडी सोडवताना नवीन शब्दांची भर पडते आपल्या डिक्सनरीत. उदा. वस्तूंची यादी याला ‘ रकमाला’ हा शब्द,  खाट किंवा बाज ला नवार,  शिकलगार, वेठबिगार असे कालबाह्य झालेले शब्द परत समोर येतात.

पन्नाशीनंतर जेव्हा थोडासा विसरभोळेपणा हा गुण वर यायला लागला कि स्वतःवरच ओशाळायला होतं. तेव्हा जर शब्दकोडी सोडविणे हा नियम केला तर कोडी सोडवता सोडवता हा गुण/अवगुण कमी होऊन आत्मविश्वास वाढायला मदत होते. करून बघा!

‘ शब्दकोडी ‘, ‘ करमणूक’,    मनोरंजन अशी तीन मासिके उपलब्ध आहेत बरं का! त्यात 25 ते 50 कोडी असतात, एका कोड्यात 100 शब्द असलेली.

शब्दांचा हा उपलब्ध असलेला खजिना आणि आपला वेळ यांची आडवी – उभी सांगड घाला आणि सोडवा शब्दकोडी.  बघा किती मज्जा येईल.

मस्त रहा..स्वस्थ रहा….

 

© सौ. अमृता देशपांडे

9822176170

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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