मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 26 – झुळूक ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता झुळूक )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #26☆ 

 

☆  झुळूक ☆ 

 

नभ दाटूनीया येता

मज तूच आठवते

आठवणी स्मरताना

मन पुन्हा हेलावते. . . . !

 

शहारतो बोलताना

जातो कबुली देऊन

आहे प्रेम तुझ्यावर

शब्द जाती ओठातून. . . . !

 

ऐकताच बोल माझे

येतो पाऊस ही गाली

थेंब थेंब पावसाचे

गाती प्रेमाचीच गाणी. . . . !

 

झुळुकही गंधाळते

वाट पाहे उत्तराची

मौनांतून कळे सारे

वेळ होते परतीची. . . . !

 

असा चाले मनामध्ये

पाठ शिवणीचा  खेळ

तुझ्या माझ्या गं मेघांचा

कधी जमणार मेळ ?

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय)

 

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।24।।

 

अग्नि ज्योति दिन शुक्ल पक्ष उत्तरायण छःमास

ब्रम्ह ज्ञानियों के लिये थे अवसर है खास।।24।।

 

भावार्थ :  जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। ।।24।।

 

Fire, light, daytime, the bright fortnight, the six months of the northern path of the sun (northern solstice)-departing then (by these), men who know Brahman go to Brahman.।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ डॉ श्रीराम लागू – विनम्र श्रद्धांजलि ☆

स्व डॉ श्रीराम लागू 

 ☆ सुप्रसिद्ध अभिनेता डॉ श्रीराम लागू नहीं रहे ☆ 

जन्म  – 16 नवम्बर 1927 ( सातारा )

निधन – 17 दिसंबर 2019 ( पुणे )

 

सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और रंगकर्मी श्रीराम लागू का 92 साल की उम्र में निधन हो गया. सातारा में जन्मे श्रीराम लागू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उन्हें मराठी थिएटर के 20वीं सदी के सबसे बेहतरीन कलाकारों में गिना जाता है. उन्होंने 100 से अधिक हिंदी और मराठी फ़िल्मों में काम किया था तथा वे मराठी, हिंदी और गुजराती रंगमंच से भी जुड़े रहे. श्रीराम लागू ने 20 से अधिक मराठी नाटकों का निर्देशन भी किया.

पेशे से ENT  विशेषज्ञ डॉ श्रीराम लागू  जी ने 42 साल की उम्र में थिएटर और फ़िल्मों की दुनिया में कदम रखा और  1969 में वह पूरी तरह मराठी थिएटर से जुड़ गए.

‘नटसम्राट’ नाटक में उन्होंने गणपत बेलवलकर की भूमिका निभाई थी जिसे मराठी थिएटर के लिए मील का पत्थर माना जाता है.  नटसम्राट के इस रोल के बाद डॉक्टर लागू को भी दिल का दौरा पड़ा था.

कई पुरस्कारों से सम्मानित / अलंकृत  थे.  उन्हें घरौंदा के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता का अवॉर्ड मिला था. उन्होंने नटसम्राट, सिंहासन, सामना, पिंजरा जैस मराठी फिल्मों और चलते-चलते, मुक़दर का सिंकदर, सौतन और लवारिस जैसे कई हिंदी और मराठी फ़िल्मों में  काम किया. रिचर्ड एटनब्रा की फ़िल्म गांधी में गोपाल कृष्ण गोखले  की उनकी छोटी सी भूमिका को हमेशा याद रखा जायेगा।  उनकी आत्मकथा ‘लमाण’ प्रत्येक अभिनेता के लिए प्रेरणा स्त्रोत से कम नहीं है.

 

ई- अभिव्यक्ति की ओर से उन्हें सादर विनम्र श्रद्धांजलि

 

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 27 – मी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक  पुरानी कविता  “सोनपरी .  सुश्री प्रभा जी  ने  की लेखनी में  वर्तमान ही नहीं अपितु बीते हुए दिनों के संस्मरणात्मक लेखन की अद्भुत क्षमता है।  उनकी कविता के एक एक शब्द और एक एक पंक्तियाँ  हमें स्वप्न सा अहसास दिलाती हैं।  ऐसा अनुभव होता है जैसे वे क्षण चलचित्र की भांति हमारे नेत्रों के समक्ष व्यतीत हो रहे हों।  वे पुराने दिन, वो गांव का घर, वो स्वप्निल वातावरण और ऐसे में स्वप्नों में सोनपरी का आगमन।  अद्भुत, अद्भुत कविता । मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 28 ☆

☆ सोनपरी ☆ 

(एक जुनी कविता)

 

मी झोपेत असते की जागेपणी?

मनाच्या गुहेत दाटून येतात,

असंख्य आठवणी!

एक चिमुकलं गाव मला साद घालतं,

तेव्हा आठवणींचे कळप

बेलगाम धावू लागतात,

शेतातून, मळ्यातून, फळांच्या बागातून, चिरेबंदी वाड्यातून!

आठवत रहाते….बैठकीची खोली,

माजघर, स्वयंपाकघर….खोल्याच खोल्या…

शेणानं सारवलेली हिरवीगार जमीन,

माडीवर जाणारा लाकडी जीना,

दारंच दारं….खिडक्याच खिडक्या….

दारादारास अडविणारा उंबरठा!

वाड्याभोवती दाट झाडी,

पिंपर्णीच्या झाडाखाली..

आजोबांची काळी घोडी!

पक्षांची किलबिल, ओढ्याची खळखळ…

मुलं माणसं, लगबग, वर्दळ!

पेटलेल्या चुली, पाट्यावरचं वाटण,

रांजणातलं लोणी, साखरेच्या गोणी,

धान्यांची पोती, शेंगा चे ढीग,

सारेच होते शिगोशिग!

तेव्हाच तिथे शिरली मनात,

एक स्वप्नाळू सोनपरी,

गोष्ट फार जुनी नाही,

याच काही वर्षातली !

सोनपरी चा नाॅस्टेल्जिया छेडत रहातो,

तिच धून, तिच गाणी….

मी झोपेत असते की जागेपणी?

मनाच्या गुहेत दाटून येतात….

असंख्य आठवणी!

 

-प्रभा सोनवणे

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साहित्यकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – साहित्यकार  ☆

(कविता संग्रह ‘योंही’ से)

नमन तुम्हें

भरत, विष्णु, कालिदास,

वंदन तुम्हें

रहीम, कबीर, सूरदास,

तुम्हारे अक्षय संग्रह से

पाती हमारी अनुभूति आकार,

तुम्हारी पहरनें ओढ़कर

हम कहलाते साहित्यकार।

हमारी चेतना अक्षय रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

मशीनों को लेकर गांधीजी के विचारों पर लोगों ने समय समय पर प्रतिक्रियाएं दीं। इसका संकलन महादेव हरी भाई देसाई ने हिन्द स्वराज के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में इस प्रकार लिखा है:

‘हिन्द स्वराज’ की प्रसंशाभरी समालोचना में सब लेखकों ने एक बात का जिक्र किया है : वह है गांधीजी का यंत्रों के बारे में विरोध। समालोचक इस विरोध को नामुनासिब और अकारण मानते हैं। मिडलटन मारी कहते हैं : ‘ गांधीजी अपने विचारों के जोश में भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, लेकिन इंसान की बनायी हुई एक अकुदरती- कृत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक़ तो उसका भी नाश करना होगा।‘ डिलाइल बंर्स कहते हैं : ‘यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमे छिपे रूप से यह बात सूचित की गयी है कि जिस किसी चीज का बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टी से हीन मानना चाहिए। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक

पर लगाया गया चश्मा भी  आँख की मदद करने को लगाया गया यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खींचने के पुराने से पुराने यंत्र भी शायद मानव जीवन को सुधारने के मनुष्य की हज़ारों बरस की लगातार कोशिश के आख़िरी फल होंगे। किसी भी यंत्र का बुरा उपयोग होने की संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमे रही हुई नैतिक हीनता यंत्र की नहीं, लेकिन उसका उपयोग करने वाले मनुष्य की है।‘

इन आलोचनाओं का सन्दर्भ लेते हुए महादेव हरी भाई देसाई लिखते हैं कि मुझे इतना तो कबूल करना चाहिए कि गांधीजी ने  अपने विचारों के जोश में’ यंत्रो के बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तक को फिर से सुधारने बैठे तो उस भाषा को खुद बदल देंगे।  क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकों के जो कथन दिए हैं उनको गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्र का इस्तेमाल करनेवाले रहें हैं, उन गुणों को उन्होंने यंत्र के गुण कभी नहीं माना। मिसाल के तौर पर १९२४  में उन्होंने जो भाषा इस्तेमाल की थी वह ऊपर दिए हुए दो कथनों की याद दिलाती है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आगे उसी साल दिल्ली में गांधीजी का रामचंद्रन के साथ जो संवाद हुआ उसका पूरा ब्योरा  अपनी इस प्रस्तावना में लिखा है।

स्वयं गांधीजी ने १९२१ में कहा कि ‘ मिलों के सम्बन्ध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तान की आज की हालत में मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए । (गांधीजी के यह विचार हिन्द स्वराज के परिशिष्ट -1 में लिखे हैं)।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 26 – ये भगोड़े दिन……. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “ये भगोड़े दिन…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 25☆

☆ ये भगोड़े दिन……. ☆  

 

रोज आते

मुँह चिढ़ाते

चिहुंकते से

फिर, निकल जाते

भगौड़े दिन ।

 

की शिकायत

सूर्य पहरेदार से

विहंसकर उसने कहा

क्यों, झांकते हो द्वार से,

अजब बहुरूपिया

पकड़ पाना असंभव

शीत,वर्षा,घाम, सुख-दुख

रूप इस फनकार के।

मुखोटे अनगिन, पहिन

सब को झिंजोड़े दिन

चिहुंकते से ……….।

 

रोज छिप जाता

अंधेरी खोह में, और

प्रातः फिर निकल आता

किसी की टोह में,

कौन सी बेचैनियां

तिल-तिल जलाये

व्यथित मन,भटके दिवस भर

किस अबूझ,व्यामोह में।

उबाते मन, डुबाते से

ये निगोड़े दिन

चिहुंकते से………।

 

गुणनफल और जोड़

विस्मृत हो गए

भाग दे कर, घटाने से जो

बचा है शेष, सपने धो गए,

वक्त प्रहरी गिन रहा

सांसें निरंतर

मन-पटल पर, विरक्ति के

बीज, अपने बो गए।

आवरण खुशफहमियों के

व्यर्थ ओढ़े दिन

चिहुंकते से ,

फिर निकल जाते

भगोड़े दिन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 4 ☆ कविता ☆ वतन के सिपाही ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है वतन  के सिपाही पर एक कविता  / गीत  “ वतन के सिपाही ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 4 ☆

☆ कविता/ गीत  – वतन के सिपाही  ☆

 

वतन के सिपाही फना हो ग‌ए हैं.

वो धरणी को शैय्या समझ सो ग‌ए हैं.

 

देती है माँ पुत्र, बेटा व भाई भी

सुहागिन का सिंदूर तक ले ग‌ए हैं.

 

तपे खूब चिंगारी, अंगार सह कर

मिले घाव सरहद पै’ सब सह ग‌ए हैं

 

अपमान, की मौन पीड़ा सही है

बनाकर वो इतिहास खुद खो ग‌ए हैं

 

बिछड़े हैं वे, देशवासी दुखी हैं

ग‌ए, आँसुओं से वो मुख धो ग‌ए हैं

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय)

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।।23।।

 

समय वो जब जाकर वहाँ नही लौटते लोग

पार्थ ! तुम्हें बतलाउगां कब वह शुभ संयोग।।23।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिए, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान ने इसका नाम ‘सृति’, ‘गति’ ऐसा कहा है।) शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गए हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को कहूँगा।।23।।

 

Now I will tell thee, O chief of the Bharatas, the times departing at which the Yogis will return or not return!।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆ वक्त के उस मोड़ पर ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “वक्त के उस मोड़ पर ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆

☆ वक्त के उस मोड़ पर

वक़्त के किसी-किसी मोड़ पर

ये आदमी भी

न जाने कौनसी छोटी-छोटी चीज़ों में

ख़ुशी ढूँढ़ लेता है, है ना?

 

कभी वो सहर की ताज़गी से मंत्रमुग्ध हो

कोई मुहब्बत की ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है,

कभी वो दरिया की लहरों संग बहते हुए

अपने अलफ़ाज़ को साज़ दे देता है,

कभी वो बारिश की नन्ही-नहीं बूंदों में

अपने अक्स को खोज मुस्कुरा उठता है,

कभी वो लहराती हुई सीली हवाओं से

न जाने क्या गुफ्तगू करने लगता है,

कभी वो ऊंचे खड़े हुए दरख़्त को देखते हुए

उसकी हरी-हरी पत्तियों सा खिलखिला उठता है,

कभी वो शाम के केसरियापन से रंगत चुरा

अपनी बातों में उसे चाशनी सा घोल देता है,

और कभी-कभी तो सारी रात बिता देता है

दूधिया चाँदनी के इठलाने को निहारते हुए!

 

शायद ये आदमी

वक़्त के उस मोड़ पर

जान लेता है

कि वो मात्र एक सूखा हुआ पत्ता है

और वो ज़िंदगी के आखिरी पल जी रहा है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

image_print

Please share your Post !

Shares