हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विदेह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विदेह ☆

 

निचोड़ता रहा

उम्रभर देह,

कभी छू न सका

कोरा बचा रहा मन..,

जग में रहकर

जग का न होने का,

देह में रहकर

विदेह रहने का

जागृत उदाहरण है मन..!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 9:15 बजे, 6.9.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ पुस्तक चर्चा ☆ है हिन्दी हमारी बोली – इफ्तखार “बशर” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  इफ्तखार अहमद खान बशर  जी की पुस्तक “है हिन्दी हमारी बोली “ पर  पुस्तक चर्चा।

☆ पुस्तक चर्चा ☆ है हिन्दी हमारी बोली – इफ्तखार “बशर” ☆  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अंधेरे आकाश में जैसे बिजली कौंध कर पूरे परिवेश को प्रकाशित…कर देती है उसी तरह अपनी भाव तरंग को वाणी देकर कवि खुद अपने साथ अनेकों श्रोताओं और पाठकों को प्रफुल्लित कर देते हैं. यह कुशलता बहुतों में जन्मजात होती है.

इफ्तखार अहमद खान बशर में यह रूचि मैंने उनके छात्र जीवन में ही देखी थी यह उल्लेख अपनी पुस्तक है हिंदी हमारी बोली में प्रारंभ में ही उन्होंने किया है. अपने शासकीय सेवा काल में  विभिन्न कार्य भार  से दबे होने के कारण उनके कवि के मनोभावों ने अभिव्यक्ति कम पाई. सेवा से अवकाश पाकर उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रवृत्ति को पुनः अपनाया और लेखन  किया, यह एक अच्छी बात है, साहित्य प्रेम की रुचि खुद को आनंद देती है. साथ ही अनेकों पाठकों को भी सुख देते हुए सुखी करती है.

अपनी पुस्तक के प्रकाशन के कुछ समय बाद उन्होंने मेरी कुछ गजलो व कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद कर पुस्तक सहित जब मुझे प्रेषित किया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया उनकी पुस्तक में उनकी 40 गजलें, कविताएं व दोहे हैं. पुस्तक को पढ़कर मैंने उनके मनोभावों को समझने का प्रयास किया है. उनके बहुरंगी भावों को पढ़कर अच्छा लगा. कवि हृदय मनोभावों से लबरेज है. वे लिखते हैं

सूझते हैं मिसरे शायरी के मुझको

मुखड़े बहुत सारे मेरे जहन में है

पुस्तक का नाम ही कवि के मन की पवित्रता राष्ट्रप्रेम तथा मातृभाषा हिंदी के प्रति लगाव की गवाही देता है.

यह आरती की थाली है हिंदी हमारी बोली

अनुपम सुखद निराली है हिंदी हमारी बोली

 

कवि के मन में प्रकृति दर्शन की ललक दिखती है

इस दुनिया में जन्नत की अगर कोई निशानी है

ये हरियाली शाबादी फिजा की रूप रानी है

शरद पूर्णिमा की शोभा उसे आकर्षित करती है , मनमोहक लगती है उसे देख वे लिखते हैं

लो धवलता छा रही है इस गगन की नीलिमा में

है निखरती छटा शशि की इस शरद की पूर्णिमा में सामाजिक त्योहार भाईचारे और मन मिलन का संदेश देते हैं दीपावाली का त्यौहार प्राचीन काल से यही संदेश देता आ रहा है,  उन्होंने लिखा है

हुमायुं लक्ष्मी पूजा विधि विधान के साथ

करवाता था राज में दे दान खुले हाथ

सामाजिक व्यवहार चलते जाते हैं बदलाव नहीं दिखते

हुश्न के तेवर नहीं बदले जेवर बदलते जा रहे हैं

स्वार्थ पूर्ण व्यवहार बेईमानी कर्तव्य निष्ठा का अभाव भी वैसा ही चल रहा है

उनसे मुफ्त में उम्मीद क्या करें

रहनुमाई मिली जिनको कुर्सी खरीदकर

या

लोगों को तुम्हारी रोटियां सियासत की गोटियां हैं

ब्रिटिश शासकों ने बर्बरता से देश भक्तों का शिकार किया

घात की नज़दीकियों की अक्सर  फिकर है

झाड़ियों की ओट में आदिम शिकारी चल रहा है

 

अनेकों बहुरंगी भावों का गुलदस्ता उनकी यह कृति है.

आशा है भविष्य में भी कुछ और अच्छा उनसे पढ़ने को मिलेगा. गजलो का अंग्रेजी अनुवाद भी बहुत अच्छा है.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 64 – तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “ तुरपाई ।  निःस्वार्थ  सेवा /सहयोग का फल ईश्वर आपको कब देंगे आप नहीं जानते। एक भावप्रवण एवं सुखान्त लघुकथा । इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 64 ☆

☆ लघुकथा – तुरपाई

गांव में एक अनाथ बच्चा ‘तरुण’। घूम – घूम कर माँग कर खाता था। पता नहीं कब और कहाँ से आया। छोटा सा था और सब की बातें सुनता रहता था।

बस्ती में एक एक घर उसे पहचानने लगे थे। धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।  अब वह कभी-कभी किसी का काम कर देता था और जो मिल जाता था खाकर अपना गुजारा करता। जहां नींद लगता एक पट्टी डाल सो जाया करता था।

गांव में एक दर्जी जिनके पास अपना कहने को कोई नहीं और संपत्ति के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं था। एक सिलाई मशीन और टूटी फूटी झोपड़ी जो उन्होंने एक पेड़ और खंभे की आड़ से बना रखा था। जिसमें मशीन रखकर हर समय फटा पुराना सीते हुए दिखाई देते थे।

कभी-कभी तरुण वहीं पर आकर बैठता और कहता… बाबा मुझे कुछ बनना है कुछ काम सिखा दो। यहाँ पर कोई मुझे काम देना नहीं चाहता। दर्जी के मन में रोज सुनते सुनते दया की भावना उमड़ उठी। उन्होंने कहा.. चल मेरे भी कोई नहीं है और तू भी अनाथ है।

आज से तू और मैं एक नया काम करते हैं “रिश्तो की तुरपाई” तेरा भी कोई नहीं और मुझे भी एक सहारा चाहिए। फटे पुराने कपड़ों पर तरुण धीरे-धीरे तुरपाई का काम करने लगा।

मन में स्कूल जाने की चाहत हुई उसने कहा बाबा मुझे स्कूल जाना है। उन्होंने कहा.. चला जा और पढ़ाई कर धीरे-धीरे वह पढ़ाई से आगे बढ़ने लगा। गरीब जान सरकारी स्कूल से फीस माफ हो गई। उसे पढ़ने के लिए बाहर जाना पड़ा।

दर्जी ने सोचा चला गया। चलो अच्छा है जीवन सुधर जाएगा उसका। उसकी अपनी जिंदगी है।

कुछ वर्षों में सब भूल जाएगा।

वर्षों बाद एक दिन अचानक एक बार गाँव में अतिक्रमण हटाओ के अंतर्गत सभी झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा था। सयाने हो चुके दर्जी परेशान हो इधर उधर भागने लगे और गिड़गिड़ा कर कहने लगे.. अब इस उमर में मैं कहाँ जाऊँगा। मुझे यहीं रहने दो मेरी जिंदगी कितनी बची है। परंतु उसमें से कुछ आदमी निकलकर सारा सामान गाड़ी में भरने लगे और कहने लगे अब तुम्हें यहाँ नहीं रहना है साहब का आदेश है। डरकर दर्जी एक किनारे खड़ा हो गया। तुम्हें जहां छोड़ना है चलो गाड़ी में बैठो।

असहाय दर्जी अपने टूटे फूटे सामान और एक सिलाई मशीन की लालच में गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी एक दुकान के पास जाकर रुक गई। दर्जी ने सोचा यहाँ पर क्यों रुक गए? चश्मे से देखा दुकान के बोर्ड पर लिखा हुआ था “तुरपाई घर”। उसे समझते देर नहीं लगी। हाँफते हुए इधर – उधर देख अपने तरुण की खोज करने लगा। तरुण भी वहाँ बाहें फैला अपने रिश्ते को समेटने के लिए बेताब खड़ा था। आज सचमुच तुरपाई से भरपाई हो गई। दोनों ने गले लग जी भर कर रोया। सभी कर्मचारी कभी फटे हाल दर्जी और कभी अपने साहब को देख रहे थे। उनका आदेश था एक-एक सामान को संभाल कर दुकान पर लगा दिया जाए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी का साहित्य # 52 – आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है आपकी हिंदी रचना   “आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी”।  कन्या / भ्रूण हत्या  जैसे विषय पर आपके इस अभिनव प्रयास के लिए  हार्दिकअभिनन्दन। )

☆ रंजना जी का साहित्य # 52 ☆

☆ आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी ☆

 

आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी

खुशियों से तेरा मैं जीवन भरूंगी।।धृ।।

 

नही हूँ जो बेटा कहाँ कम  हूँ मै भी।

माँ ऊँची उड़ाने भर लूँगी  मैं भी।

तेरा सर हमेशा मैं उन्नत करूंगी।।1।।

आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी  ……

 

आने दो जीवन की बगिया में मुझको।

खुशबू की सौगात दे दूँगी सबको।

तोड़ो ना मैय्या मैं अनखिल रहूँगी।।2।।

आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी  ……

 

मानो ना मुझको तुम तो परायी।

मैय्या को अपनी कहाँ भूल पायी।

दोनो घरों की मैं छाया बनूँगी ।।3।।

आँगन की तेरी मैं गुड़िया बनूँगी  ……

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 64 ☆ सुगंधाचा तोरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता “सुगंधाचा तोरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 64 ☆

☆ सुगंधाचा तोरा 

 

साऱ्या फुलात वेगळी

छान भासते ही कळी

दुमड ही पाकळीची

जशी गालावर खळी

 

तिच्या सुगंधाचा तोरा

होता भाळलेला वारा

दोष फक्त त्याचा नाही

तीही पडेते ना गळी

 

कधी वेणी कधी हार

फूल दोरा झाले यार

जीव जीवात गुंतता

हळू उमलते कळी

 

पाकळीचे हे पदर

जसे मोकळे अधर

माशा घोंगावत आल्या

डंख दिला होता भाळी

 

आली वादळी वरात

होती कळी ही भरात

सुन्या सुन्या या बागेचा

हिरमुसलेला माळी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रूबाया ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ कवितेचा उत्सव ☆ ☆ रूबाया ☆☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

 

संघर्ष जयांची वाणी ते बंद जाहले ओठ

सत्तेची मिळता उब का सुटते यांचे पोट ….1

 

अस्वस्थ मनाचे क्रंदन ना कधी कुणाला कळले

न्यायाच्या शोधासाठी अन्याय साहूनी जगले ….2

 

रंक असो वा राजा भय सुटले नाही त्याला

जो तो रिचवत गेला नशिबाचा जहरी प्याला ….3

 

जे होऊन गेले थोर त्यांची कवने गाऊन झाली

आचरण्या त्यांचे काही पण वेळ कुणा ना जमली ….4

 

मामला असे चोरीचा भय उरले नाही कोणा

अंधार व्यापतो जगता झाला प्रकाश केविलवाणा ….5

 

सत्तेचा चाबूक दिसता सत्यास कापरे भरते

पाहूनी आंधळा न्याय गुन्ह्यास बाळसे धरते ….6

 

हे म्हणती नाही केली ते म्हणती नाही केली

मज सांगा मग कोणी ही भ्रष्ट व्यवस्था केली ….7

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆  जुगार!!! ☆ श्री सतीश  स.  कुलकर्णी

☆ जीवनरंग ☆  जुगार!!! ☆ श्री सतीश  स.  कुलकर्णी ☆ 

‘अपूर्वाई’ किंवा ‘पूर्वरंग’ याची अपूर्वाई आता काही राहिली नाही. तशी ती मीनाताईंनाही राहिली नव्हती. जपान, चीन, थायलंड, युरोपातले दहा देश पतिराजांबरोबर त्यांनी पाहिले होते. त्यांच्या दिवाणखान्यातील, माफ करा आलिशान हॉलमधील वस्तूच त्यांच्या वारंवारच्या परदेशगमनाची साक्ष देत होत्या.

ह्या वेळी मीनाताई अमेरिकेत गेल्या होत्या. त्यांची कन्या आणि जावईबापू तिथं होते. अमेरिकेत होते म्हणजे ‘आयटी’ मध्ये होते, हे वेगळं सांगायलाच नको. मीनाताईंचे ‘हे’ मात्र ह्या वेळी त्यांच्या सोबत नव्हते. त्यांच्या कंपनीचं काही तरी मोठं काँट्र्क्ट व्हायचं होतं, म्हणून ते तिथंच राहिले होते. मीनाताईंनी ठरवलं, ह्यांची जबाबदारी नाही म्हटल्यावर आपण अमेरिका मनसोक्त पाहायची आणि भारतात परतल्यावर पुण्या-मुंबईच्या दैनिक-साप्ताहिकांमध्ये दाबून लेख हाणायचे! त्यामुळेच त्या अगदी टिपणं वगैरे घेत होत्या.

मुलगी आणि जावयानं ठरवलं की, मीनाताईंना लास वेगासची सफर घडवून आणायची. वीकएंड तिथंच एंजॉय करायचा. अगदी अट्टल जुगाऱ्यासारखं खेळायचं. भरपूर जिंकायचं, नाही तर खिसा खाली करून परतायचं. त्यांनी मीनाताईंना बेत सांगितला. सगळी उत्सुकता दाबून ठेवत मीनाताईंनी वरवर विरोध केला. मग थोडा आग्रह झाला नि त्यांचा लटका विरोध गळून पडला.

ठरल्याप्रमाणं तिघं तिथं गेले. जावयानं सासूला आग्रह केला. म्हणाला, ‘‘बघा तुमचंही नशीब अजमावून एखाद्या डावात.’’ मान जोरजोरात हलवत मीनाताई म्हणाल्या, ‘‘मी इथपर्यंत आले तेच खूप झालं हं. जुगार नका खेळायला लावू. मी आयुष्यात एकच जुगार खेळले. हिच्या पप्पांच्या रूपानं मोठा जॅकपॉट लागला मला. त्यावर खूश आहे मी.’’

जावयानं बराच आग्रह केला. मग लेकीनं भारतीय पुराणातली उदाहरणं देत कधीमधी जुगार खेळणं कसं अनैतिक नाही, हे आईला पटवून दिलं. ‘अगदीच तुमचा आग्रह मोडायचा नाही म्हणून हं,’ असं म्हणत मीनाताई तयार झाल्या.

मीनाताईंचं नशीब फाटकंच होतं त्या दिवशी. पाच-सात डाव झाले, एकदाही त्यांच्या हाती काही लागलं नाही. जावयाचे डॉलर आपण उधळतोय या समजुतीनं त्या कानकोंड्या झाल्या. अजून पाच-सात डाव झाले. उं हू. नशीब बेटं काही त्यांची साथ देत नव्हतं. हिरमुसल्या झाल्या बिचाऱ्या. परतायची वेळ झाली. अखेर जावयानं तोडगा काढला. म्हणाला, ‘‘शेवटचा डाव खेळा पाहू. जिंकणारच तुम्ही.’’

मीनाताई काही तयार होईनात. शेवटी जावई परत पुढं आला. हमखास जिंकण्यासाठी त्यानं त्यांच्या कानात युक्ती सांगितली. म्हणाला, ‘‘मम्मी, तुमच्या वयाच्या आकड्यावर पैसे लावा. मोठ्ठा डाव जिंकताय तुम्ही.’’ आणि तो बाहेर गेला.

पाच मिनिटांनी जावई बापू परत येऊन बघतायेत तो काय, सासूबाई घामाघूम झालेल्या आणि त्याची बायको काळजीत. त्यानं लगबगीनं विचारलं, ‘‘का गं? काय झालं?’’

बायको म्हणाली, ‘‘काय झालं कुणास ठाऊक. तिनं ५० डॉलर  ५२   आकड्यावर लावले आणि चाकाचा काटा थांबला तो बरोबर ५८ ह्या आकड्यावर. ते पाहून तिला चक्कर आल्यासारखंच झालं!’’

 

©  श्री सतीश स. कुलकर्णी

(मुक्त पत्रकार, ब्लॉगर)

(इंटरनेटमुळे छान छान विनोद वाचायला मिळतात. विशेषतः इंग्रजीतले विनोद. त्यातल्याच काही छोट्या विनोदांना मराठी साज किंवा बाज देऊन थोडं विस्तारानं लिहिलं. एखाद्या धान्याचा दाणा फुलवून त्याची खमंग व कुरकुरीत लाही बनवावी, तसं. ह्या लघुकथा अशाच; वाचणाऱ्याच्या चेहऱ्यावर दोन-चार स्मितरेषा उमटल्या, तर हेतू साध्य झाला एवढंच! – श्री सतीश स. कुलकर्णी)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रेम ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

☆ विविधा ☆ प्रेम ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆ 

प्रेम हा अडीच अक्षरी शब्द. किती आपला, हवा हवासा वाटणारा.

ही एक अशी गोष्ट आहे जी केव्हाही, कुठेही आणि कोणाबरोबरही होऊ शकते. हा थांबा जरा, आता प्रेम म्हणलं की तिथे मुलगा आणि मुलगीच असली पाहिजेच अस काही नाही बरका. म्हणजे थोडक्यात प्रियकर आणि प्रेयसीच असली पाहिजे अस नाही.

माणूस जन्माला आल्यावर त्याच्यावर जर कोणी निस्वारथी पणे प्रेम करत असेल तर ती आई. या इवल्याश्या जीवाला ती प्रेम करायला शिकवते. वात्सल्याने भरलेली ही माता आपल्या पिलाला जिवापाड जपते, प्रेम करते. रडणार्‍या तान्ह्या मुलालाही जवळ घेतले, गोंजारले की ते शांत बसते मायेचा स्पर्श त्यालाही कळतो. आईचे प्रेम म्हणजे काय नुसते लाड करणे, गोंजारणे का ? अजिबात नाही.

त्याला चुकल्यावर कधी धपाटा घालून, कधी समजावून, कधी कठोर शिक्षा करणे म्हणजे ही प्रेमच की. आपला मुलगा चुकू नये म्हणून जेव्हा आई त्याला शिक्षा करत असते तेव्हा ती जणू स्वतः ला शिक्षा करत असते.

पुढे मुलं शाळेत जाऊ लागतात, आणि त्यांचे शाळेशी एक अतुट नाते निर्माण होते. शाळा म्हणजे अगदी जिव्हाळ्याचा विषय. शाळा जणू त्यांचे विश्व होऊन जाते. तिथे अनेकांशी प्रेमाचे नाते जुळते, आपल्या वर्ग शिक्षिका, शिपाई मामा, मित्र मैत्रिणी सारे आपले वाटू लागतात.

शिक्षक आणि विद्यार्थी हे नाते तरी विश्वासाच्या सुरेख धाग्यात गुंफले जाते. शिक्षक प्रेमाने, आपुलकीने, आत्मियतेने विद्यार्थ्यांना घडवतात. एक सुजाण नागरिक बनवतात.

जसे जसे मोठ्या इयत्तेत जाऊ तसे आपला असा एक वेगळा ग्रुप तयार व्हायला लागतो. आणि त्यांच्यात एक खास नाते तयार होते. मैत्रीचे नाते स्वच्छ सळसळणारी नदी म्हणजे मैत्रीचे नाते.

महाविद्यालयात गेल्यावर आपल्याला एखादी व्यक्ति विशेष आवडायला लागते. आणि त्याला एक विशेष जागा निर्माण होते हृदयात. आपल्याला मन आता फुलपाखरा प्रमाणे भासु लागते. आपण आपले उरतच नाही. ह्या प्रेमाच्या

महासागरात माणूस मात्र अखंड बुडून जातो.

खूप सुंदर नातं असत हे. खूप क्वचित जणांनाच हे मिळत ही गोष्ट वेगळी.

माझ्या वर कोणीतरी प्रेम करत ही भावनाच सुखावून जाते, बळ देऊन जाते. मग ती व्यक्ती कोणी असो आई, बाबा, मित्र, मैत्रीणी, सहचारिणी एखादी जिवलग सखी कोणीही. माझं कोणी आहे ह्याची जाणीव होते त्याने. आपलेही अस्तित्व आहे ह्याची जाणीव करून देते प्रेम. आपण ही कोणाला हवे आहोत ही भावनाच किती सुंदर असते.

सुंदर, निखळ, स्वच्छ मनाचा झरा म्हणजे प्रेम.

जिथे हक्कानी आपण काहीही बोलू शकतो, सांगू शकतो म्हणजे प्रेम.

काही वेळेला कोणतेच नात्याचे लेबल नसते लावलेले, तरीही एक आपुलकी वाटत असते एकमेकांबद्दल तेही प्रेमच की, मग तिथे ते प्रियकर असतीलच असे नाही, तरीही हे दोन जीव मनानी बांधले गेले असतात, शरीराने नाही, ना त्यांना त्याची गरज असते.

कोणीतरी आपल्यावर प्रेम करते, आपण कोणाला तरी हवे आहोत ही जाणीव जगण्याला बळ देऊन जाते.

निशब्द मायेची ऊब म्हणजे प्रेम,

विचारांवर आणि मनावर अधिराज्य करते ते प्रेम.

ज्यावर आपण डोळे मिटून विश्वास ठेवतो ते प्रेम. रणरणत्या उन्हांत मिळालेली सावली म्हणजे प्रेम.

सहज मनाच्या कोपऱ्यातून ?

 

©  सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

मो 9423566278

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ एक अविस्मरणीय अनुभव ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ मनमंजुषेतून ☆ एक अविस्मरणीय अनुभव ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

अविस्मरणीय प्रसंग –

हा प्रसंग आहे, नवसाक्षरांच्या मूल्यमापनाच्या समितीत मी होते आणि नवसाक्षरांचं म्हणजे प्रौढांच्या शैक्षणिक प्रगतीचं मूल्यमापन करत होते, तेव्हाचा. बहुदा 1994 हे वर्ष असावे.

मीरजेच्या वेगवेगळ्या भागात मूल्यमापनासाठी आम्ही जायचो. हे वर्ग संध्याकाळी भरायचे. मूल्यमापनाचे काम रात्री करावे लागे. समितीत आम्ही 8-10 जण होतो. शिक्षण विभागाची जीप साध्याकाळी सर्वांना घेऊन जाई. प्रत्येकाला एकेका गावात उतरवत. शेवटच्या गावात तासभर जीप थांबे व क्रमाक्रमाने सगळ्यांना घेऊन येई व घरोघरी पोचवलं जाई.

त्या दिवशी मिरज तालुक्याच्या पूर्व भागात आमचेमूल्यमापन होते. मी ठरलेल्या ठिकाणी उतरले. अरग, बेडगच्या पुढचं गाव होतं. गावात समितीचीच्या सदस्यांना सहकार्य करण्यासाठी सरकारी आदेश दिलेले होते. एका झाडाजवळ मला उतरवून जीप पुढल्या गावी निघाली आणि जोरात पाऊस सुरू झाला. तिथे बसलेल्या तिघांजवळ मी प्रौढशिक्षण वर्गाची चौकशी केली. तो तिथून दूरच्या वस्तीवर असल्याचे कळले. ‘तुम्ही म्हणत असात, तर जाऊ या’,  लोकांचा काही सहकार्य करण्याचा मानस दिसला नाही. तिथले लोक म्हणाले, या पावसात तिथे कुणी आलेले नसणार,’ मलाही तसंच वाटत होतं. वर्ग चालू नसेल, तर घरोघरी जाऊन  मूल्यमापन करावे, आशा आम्हाला सूचना होत्या. पण पावसानंतर इतका चिखल झालेला होता की चिखलातून त्या वस्तीवर जाणेही अवघड होते. दिवे गेलेले होते. सगळीकडे अंधार. काय करावे, या विचारात मी असताना तिथे मिरज तालुक्याचे तहसीलदार आले. ते गावात काही कामासाठी आले होते व मिरजेला घरी परत चालले होते. मी एकटीच बाई माणूस तिथल्या काही लोकांशी बोलते आहे असं बघून ते थांबले. पाऊस एव्हाना थांबला होता. मी त्यांना विनंती केली की ते मला घरी सोडतील का? कारण जीप येईपर्यंत कुठे कसे थांबावे कळेना. त्यांची मोटरसायकल होती. ते ठीक आहे म्हणाले. मी जीप आली की गेल्याचा निरोप द्या,  असं सांगून निघाले. त्यावेळी मोबाईल आलेला नव्हता. तिथल्या लोकांनी बला टळली म्हणून हुश्य केले असणार.

नाही म्हंटले तरी अनोळखी व्यक्तीबरोबर आपण रात्रीच्या वेळी निघालो आहोत. थोडीशी धडधड होत होतीच. रस्त्यात फारशी, का जवळ जवळ वाहतूक नाहीच. मला हिन्दी मराठी सिनेमातले, एकटी शिक्षिका किंवा नर्स निघाली आहे आणि तिच्यावर कसे, कसले प्रसंग ओढवतात, याची चित्रे मन:चक्षूंपुढे उभी राहिली.  वर्तमानपत्रातल्या बातम्या आठवू लागल्या.

वीसेक मिनिटांच्या प्रवासानंतर वाटेत एका ओढ्याचे पाणी रस्त्यावरून वाहत असताना दिसले. पाण्याला चांगलाच वेग होता. तो वेग पाहून मी त्यांना विचारले, मी खाली उतरून चालत येऊ का? ते नको म्हणाले. त्यांनी योग्य गतीने मोटरसायकल त्या फरशीवरील पाण्यातून बाहेर काढली. 4-5 मिनिटात आम्ही त्या पाण्यातून बाहेर पडलो. चालत येणंच जास्त धोकादायक होतं, हे माझ्या नंतर लक्षात आलं. त्या चार-पाच मिनिटात मला ओढ्यातून कुणी कुणी वाहून गेल्याच्या बातम्या आठवत होत्या. थोडं पुढे गेल्यानंतर त्यांनी मला सूचना दिली की मी काहीही बोलू नये. सुमारे पंधरा- वीस मिनिटे गेली आणि ते म्हणाले, आता आपण सुरक्षित ठिकाणी पोचलो आहोत. मागचा टापू हा दरोडेखोरांच्या हल्ल्यासाठी कुप्रसिद्ध होता. त्यानंतर आम्ही मिरजेत पोचलो. देवासारख्या धावून आलेल्या या तहसीलदारांनी मला सांगलीला घरी आणून पोचवले. या देवमाणसाचे नाव आज मला आठवत नाही, याची खंत वाटते.

 

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (23) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

(ॐ तत्सत्‌के प्रयोग की व्याख्या)

 

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।।23।।

 

‘‘ओंम तत्सत‘‘ कह ब्रह्म का करके जो गुणगान

पहले ब्राह्मण , वेद यज्ञ का हुआ निर्माण ।।23।।

भावार्थ :  ॐ, तत्‌, सत्‌ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए ।।23।।

“Om Tat Sat”: this has been declared to be the triple designation of Brahman. By that were created formerly the Brahmanas, the Vedas and the sacrifices. ।।23।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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