आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (17) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ।।17।।

 

अहोरात्र विद बताते,ब्रम्ह देव का लेख

युग सहस्त्र की रात्रि औ” उतने का ही दिन एक।।17।।

 

भावार्थ :  ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को जानने वाले हैं।।17।।

 

Those who know the day of Brahma, which is of a duration of a thousand Yugas (ages), and the night, which is also of a thousand Yugas’ duration, they know day and night.।।17।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]`

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 27 – मी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “मी.  सुश्री प्रभा जी  ने  ‘मी ‘ अर्थात ‘ मैं ‘  शीर्षक से  अपने बारे में जो बेबाक विचार लिखे, हैं वे अकल्पनीय है। वास्तव में स्वयं के बारे में  लिखना अथवा आत्मावलोकन कर लिपिबद्ध करना अत्यंत कठिन है। किन्तु, उन्होंने इतने कठिन तथ्य को अत्यंत सहज तरीके से कलमबद्ध कर दिया है कि कोई भी बिना उनसे मिले या बिना उनके बारे में जाने भी उनके व्यक्तित्व को  जान सकता है।  स्वाभिमान एवं सम्मानपूर्वक मौलिक व्यक्तित्व एवं मौलिक रचनाओं की सृष्टा, एक सामान्य इंसान की तरह, बिना किसी बंधन में बंधी  एकदम सरल मुक्तछंद कविता की तरह। मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 27 ☆

☆ मी ☆ 

 

मी नाही देवी अथवा

समई देवघरातली!

मला म्हणू ही नका

कुणी तसले काही बाही !

 

कुणा प्रख्यात कवयित्री सारखी

असेलही माझी केशरचना,

किंवा धारण केले असेल मी

एखाद्या ख्यातनाम कवयित्री चे नाव

पण हे केवळ योगायोगानेच !

मला नाही बनायचे

कुणाची प्रतिमा किंवा प्रतिकृती,

मी माझीच, माझ्याच सारखी!

 

एखाद्या हिंदी गाण्यात

असेलही माझी झलक,

किंवा इंग्रजी कवितेतली

असेन मी “लेझी मेरी” !

 

माझ्या पसारेदार घरात

राहातही असेन मी

बेशिस्तपणे,

किंवा माझ्या मर्जीप्रमाणे

मी करतही असेन,

झाडू पोछा, धुणीभांडी,

किंवा पडू ही देत असेन

अस्ताव्यस्त  !

कधी करतही असेन,

नेटकेपणाने पूजाअर्चा,

रेखितही असेन

दारात रांगोळी!

 

माझ्या संपूर्ण जगण्यावर

असते मोहर

माझ्याच नावाची !

मी नाही करत कधी कुणाची नक्कल

किंवा देत ही नाही

कधी कुणाच्या चुकांचे दाखले,

कारण

‘चुकणे हे मानवी आहे’

हे अंतिम सत्य मला मान्य!

म्हणूनच कुणी केली कुटाळी,

दिल्या शिव्या चार,

मी करतही नाही

त्याचा फार विचार!

 

कुणी म्हणावे मला

बेजबाबदार, बेशिस्त,

माझी नाही कुणावर भिस्त!

मी माणूसपण  जपणारी बाई

मी मानवजातीची,

मनुष्य वंशाची!

मला म्हणू नका देवी अथवा

समई देवघरातली!

मी नाही कुणाची यशोमय गाथा

मी एक मनस्वी,

मुक्तछंदातली कविता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संभावनाएं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  संभावनाएं

बारिश मूसलाधार है। हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम बारफ़्तार दौड़ रही थी।

आज का दिन संभावनाओं से भरा हो।

 

संजय भारद्वाज

[email protected]

प्रात: 8:18, 7.12.2019

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 25 – किससे कहें, सुनें अब मन की—- ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “किससे कहें, सुनें अब मन की—–। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ किससे कहें, सुनें अब मन की—– ☆  

 

किससे कहें, सुनें

अब मन की।

 

नित नूतन आडंबर लादे

घूम रहे,  राजा के प्यादे

गुटर-गुटर गूँ  करे कबूतर

गिद्ध, अभय के करते वादे,

बात शहर में

जंगल, वन की।

किससे कहें……..

 

सपनों में, रेशम सी बातें

स्वर्ण-कटारी, करती घातें

रोटी  है  बेचैन, – कराहे

वे खा-खा कर नहीं अघाते,

बातें भूले

अपनेपन की।

किससे कहें……….

 

अब गुलाब में, केवल कांटे

फूल, परस्पर  खुद  में बांटे

गेंदा, जूही, मोगरा- चंपा

इनको है, मौसम के चांटे,

रौनक नहीं, रही

उपवन की ।

किससे कहें……….

 

है अपनों के बीच दीवारें

सद्भावों के, नकली नारे

कानों में, मिश्री रस घोले

मिले स्वाद,किन्तु बस खारे

कब्रों से हुँकार

गगन की ।

किससे कहें ………

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 3 ☆ गीत ☆ पर्यावरण को चोट ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है पर्यावरण संरक्षण पर एक गीत  “पर्यावरण को चोट”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 3 ☆

☆ कविता/ गीत  – पर्यावरण को चोट ☆

ना काटो,ना काटो, ना काटो सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– एक –
पेड़ पौधे  दवाइयों के तुमने काटे,
पीपल, अश्वगंधा  और बरगद सारे.
नीम ,चंदन,तुलसी के पेड़ काट डारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– दो –
सुन्दर फूलों की बगिया उजारी
चम्पा, गुलाब, गेंदा, और चमेली
जारुल ,पलास और कमल भी उजारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– तीन –
बांस, बबूल, शीशम, इमली निबुआ,
अमरुद, आम, केला, तरबूज तेन्दुआ,
 पानी न दे पाये, सब मिट गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– चार –
काट सारे पेड़ दिये, हवा पानी रोक लिये
कहाँ रूके बदरा कहाँ पानी बरसे
उड़ उड़ निकर के विखर गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– पाँच –
धरती की बोली समझ लो सारे
पेड़ और पौधे फिर से लगाओ रे
छोटे बड़े सभी लग जाओ सारे.
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :-  यह तो कपडे के बारे में हुआ। लेकिन यंत्र की बनी तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेश से लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देश में दाखिल करने होंगे।

उत्तर:- सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनी के यंत्रों से बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिन से लेकर कांच के झाड-फानूस की तो बात क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये चीजें यंत्र से नहीं बनती थी तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक हम उसके बिना अपना काम चला लेंगे। झाड-फानूस को आग  लगा देंगे। मिटटी के दिए में तेल डालकर और हमारे खेत में पैदा हुई रुई की बत्ती बनाकर दिया जलाएंगे। ऐसा करने से हमारी आँखे (खराब होने से) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज की धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समय में करेंगे या एक ही समय में कुछ लोग यंत्र की सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकडे यह जरूरी है; बाद में उसके मुताबिक़ काम होगा। पहले एक आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ- यों नारियल की कहानी की तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग  जो काम करते हैं उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझे तो बात छोटी और सरल है। आपको मुझे और दूसरों  के करने की राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ ले त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोएगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दम्भी कहलायेगा।

प्रश्न:- ट्रामगाडी और बिजली की बत्ती का क्या होगा?

उत्तर :- यह सवाल आपने बहुत देर से किया। इस सवाल में अब कोई जान नहीं रही। रेल ने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो सांप का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं सैकड़ों सांप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होंगे वहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्राम गाडी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजली की बत्ती की जरूरत रहती है। आप जानते होंगे विलायत में भी देहातों में बिजली की बत्ती या ट्राम नहीं है। प्रामाणिक वैद्य और डाक्टर आपको बताएँगे कि जहाँ रेलगाड़ी, ट्रामगाडी वगैरा साधन बढे हैं, वहाँ लोगों की तंदुरुस्ती  गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर में जब पैसे की तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों, डाक्टरों की आमदनी घट गई थी, लेकिन लोग तंदुरस्त हो गए थे।

यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जब कि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूँ।

प्रश्न :- यह सारा लिखा हुआ यंत्र की मदद से छापा जाएगा और उसकी मदद से बांटा जाएगा, यह यंत्र का गुण है या अवगुण?

उत्तर :- यह ‘जहर की दवा जहर है’ की मिसाल है। इसमें यंत्र का कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते-मरते कह जाता है कि ‘मुझसे बचिए, होशियार रहिये; मुझसे आपको कोई फायदा नहीं होने का।‘ अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्र ने इतनी ठीक कोशिश की, तो यह भी उन्ही के लिए लागू होता है, जो यंत्र के जाल में फँसे हुए हैं।

लेकिन मूल बात न भूलियेगा। मन में यह तय कर लेना चाहिए कि यंत्र खराब चीज है। बाद में हम उसका धीरे-धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल रास्ता कुदरत ने बनाया ही नहीं है कि जिस चीज की हमें इच्छा हो वह तुरंत मिल जाय। यंत्र के ऊपर हमारी मीठी नजर के बजाय जहरीली नजर पड़ेगी, तो आखिर वह जाएगा ही।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – ☆ हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(आज प्रस्तुत है  श्री कुमार जितेंद्र जी  का विशेष आलेख “हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान ”।  इस आलेख के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत  सन्देश दिया गया   है.

☆हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆

 

*हैवानियत* अर्थ पशुओं के समान क्रूर आचरण, अमानवीय व्यवहार जो मानव के मानव होने को कलंकित करे। अगर इसमे पशुओं को हटा दिया जाए तो कितना अच्छा रहेंगा क्योंकि वर्तमान का पशु तो क्रूर आचरण शायद ही कोई करे। ऎसा सुनने में बहुत कम आता है। और अगर सौभाग्य से सुनने को मिल जाता है तो यह बात सुनने को मिलती है कि उस पशु ने उस इंसान की जान बचाई। वर्तमान की परिस्थितिया कुछ और ही बया कर रही है। वर्तमान में मनुष्य ख़ुद अपने ही समाज मनुष्य के लिए हैवानियत बन गया है। प्रतिदिन विभिन्न प्रकार की घटनाएँ सुनने को मिल रही है। जो भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है।

आईए विश्लेषण से समझते हैं *हैवानियत* को.

*दीवारें बोल उठी, अब तो सुधर जा इंसान* – पौराणिक कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। मतलब किसी भी बात को दूसरे को गोपनीय तरीके से बताना जिसे अन्य किसी व्यक्ति को पता नहीं चले। परन्तु वर्तमान समय कुछ ऎसी स्थितियां लेकर प्रकट हुआ है। जिससे मुकबधिर, निर्जीव दीवारे भी बोल उठी है…चिल्ला उठी….. बेटी बचाओं, बेटी बचाओं। पेड़ो ने अपनी हवा रोक ली, सूर्य ने तेज किरणें फैला दी फिर भी इंसान सोया हुआ है। जिस इंसान को जाग उठना था, वह इंसान आज रंगीन रंगो में रंगा हुआ है। फिर तो अंतर सामने आ ही गया है निर्जीव और सजीव में। आज उसका विपरीत परिणाम देखने को मिल रहा है। सजीव ख़ुद निर्जीव बनते जा रहे हैं, और निर्जीव इस वक्त सजीव बन चिल्ला रहे हैं। इस समय इस धरा पर दुष्कर्म की घटनाओं ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। धरा अपने आंसुओ को रोक नहीं पा रही है, जब सामने रक्त की धार बहती है। वही दूसरी ओर अख़बारों के पन्नो को पलटते ही दुष्कर्म की एक वारदात दिखाई पड़ती है, उसे ठीक से पूरा पढ़ ही नहीं पाते हैं। की टेलीविजन या सोशल मीडिया के माध्यम से दूसरी घटना घटित हो जाती है।  अपराधी बिना डर के अपराध को अंजाम दे रहे हैं। धन्य हो मनुष्य…. सड़को के चौराहे पर मोमबतिया जला के अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाते हैं। पर उन दीवारों की चीख, पुकार… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं… कौन सुनेंगा। क्या अखबारों के पहले पन्ने पर मोमबतिया लेकर पंक्तिबद्ध खड़े रहने से… बेटी बचा पाओंगे? क्या एक – दूसरे पर आरोप लगाने से अपराध कम हो जाएंगे? अनगिनत प्रश्न सामने खड़े है। इंसान मूक बधिर क्यू हो गया है। हे! मनुष्य तू क्या से…. क्या हो गया है। इतना स्वार्थी जिसका आंकलन करना नामुमकिन है। जिस कोख में पला – बढ़ा… जिस कोख ने तुम्हारी पल – पल रक्षा की… आज तू उसका ही बदला ले रहा है। हे! मनुष्य तेरा अंत निश्चित है फिर भी तुझे डर नहीं। थोड़ा संभल जहां वक्त पे…. अन्यथा बह जाएंगा नदी की धार में।…. दीवारें बोल उठी… चीख उठी…. पुकार रही है… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं।.

*फर्क’… इंसान और पशु में कितना फर्क है*….

यह ख़ुद इंसान ने साबित कर दिया है….ऎसा तो कभी इंसान के बारे में पशु ने सोचा तक भी नहीं था। उदाहरण देख ही लीजिए……. एक बेजुबान जीव, तेज गर्मी के मौसम में सड़क के किनारे पर मृत अवस्था में पड़ा हुआ था। धरा रक्त से रंगीन हो गई थी, लग रहा था किसी ने टक्कर मार गिरा दिया है। पास से होकर दुनिया के रईस लोगो की बड़ी गाड़ियां गुजर रही है, किसी का ध्यान उस मृत बॉडी की तरफ नहीं गया क्योकि वह बॉडी जब जिंदा थी तब बोल नहीं सकी..और…… न दुनिया छोड़ देने के बाद… उसके कोई परिवार वाले है जो उसकी पैरवी कर सके…. जहां है वही है… सुरज भी अपनी किरणो को समेटे हुए शाम की आंचल में छिप गया। धीरे – धीरे… धरा पर लालीमा चाहने वाली….सड़क के आँसू बह रहे थे। बार बार उस पशु को देखते हुए…क्या यह मेरी ही कोख में समा गया……..अगर उस पशु की जगह कोई इंसान होता तो… न.. जाने अब तक उस हाइवे पर.. भीड़ जमा हो गई होती।   न जाने कितने बड़े बड़े बोलने वाले … चिल्लाते हुए नजर आते… कितनी जांच एजेंसियों ने हाइवे को घेर लिया होता… पता नहीं कितने फैसले लिए होते.. पर इस जीव के कोई सामने तक नहीं देख रहा है। रोजाना ऎसे पशु मौत के घाट उतार दिया दिए जाते हैं सड़को पर.. फिर उनकी कोई देखभाल तो दूर सामने तक नहीं देख पाते हैं। ….इंसान रंगीन रंगो में रंगा हुआ पास से गुजर रहा है.l  क्या मनुष्य और जानवर में इतना बड़ा फर्क… जबकि जानवर तो मनुष्य के किसी न किसी रूप में जरूर सहयोग दिया है। जितने पशु मनुष्यों के उपयोगी है उतने तो इंसान भी आज पशुओं की देखभाल नहीं कर रहे हैं। वर्तमान स्थिति में देखा जाए सड़को के इर्दगिर्द व चौराहे के मार्ग पर बहुत सारे बेजुबान जीव विचरण  करते हुए नजर आते हैं। पर उनकी तरफ देखने वाला कोई नहीं है। केवल बड़ी बड़ी बाते करने के लिए सोशल नेटवर्किंग पर व्याख्यान देते नजर आते हैं। वास्तविक धरातल पर मनुष्य आज जीव जंतुओं के लिए समय नहीं दे रहा है। मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में लगा हुआ है। हें! प्राणी….. समय रहते तुम्हें बदलना होगा…. पशु को अपना परिवार मानना होगा…. उसका जीवन भर साथ देना होगा…. तभी तुम्हारा जीवन सार्थक होगा…

*खुद के विकास से – पेड़ो का कत्ल*….क्या यह भी हैवानियत से कम है…. कुछ वक्त पहले एक रास्ते से गुजरने दौरान दौड पड़ी नजर कटे हुए वृक्षों पर……. और कुछ पल सोचने को मजबूर कर दिया……. पेड़ है, तो यही जाना कि वह रहेगा नहीं……. सुनने में भले ही अजीब लगे… पर यह हकीकत है…. जो निस्वार्थ मनुष्य के जीवन को जिंदा बनाए रख रहे हैं…निःशुल्क ऑक्सिजन उपलब्‍ध करा रहे हैं… जहरीली गैसों को ग्रहण कर रहे हैं… फिर भी आज वही मनुष्य अपने खुद के विकास के लिए…खुद के जीवन के लिए उन पेड़ो का जीवन समाप्‍त कर रहे हैं…. क्या दोष उन पेड़ो का…. जो अपनी युवा अवस्था में ही जिंदगी खो रहे हैं। उन्हें न पता था कि इस जगह जन्म लेने से अपनी जिंदगी युवा अवस्था में ही चली जाएंगी।….. जब किसी मनुष्य की दुर्घटना होती है तो पता नहीं कितना बवाल खड़ा कर देता…..विभिन्न प्रकार की जांच की मांग कर देता है…. न जाने कितने तरीको का इस्तेमाल कर लेता है…. पर आज इन बेजुबान पेड़ो पर जब तीव्र गति से जे सी बी दौड पड़ती है…. एक पल में जिंदगी समाप्‍त कर दी जाती है…. मनुष्य देख रहे यह सब… फिर वह कुछ नहीं कर पाता… पेड़ बेचारे निःशब्द है… एक तरफा पेड़ लगा रहे हैं… दूसरी तरफ युवा पेड़ो की जिंदगी दाँव पर लगी है..

  *आओ मिलकर हैवानियत का संधि विच्छेद कर एक अच्छा प्रण ले* आओ इस धरा पर जहर रूपी फैल रहा शब्द हैवानियत का संधि विच्छेद कर उसमे से *हैवा* को अलग कर देते हैं। और अपने आसपास के वातावरण में अच्छी *नियत* को प्रकाशमान करे। ताकि भविष्य के लिए अच्छी नियत वाले मनुष्य के बीच रहने का सौभाग्य मिले। हें! प्राणी मनुष्य जीवन बड़ा अनमोल है, इस अनमोल रत्न को अनमोल ही रहने दें।.

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ।।16।।

ब्रम्ह लोक इत्यादि से आना होता लौट

किंतु मुझे पा फिर कभी जन्म नहीं न सोच।।16।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं।।16।।

 

(All) the worlds, including the world of Brahma, are subject to return again, O Arjuna! But he who reaches me, O son of Kunti, has no rebirth!।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆ विसाल ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “विसाल”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆

☆ विसाल

ज़ाफ़रानी* शामों में

मैं जब भी घूमा करती थी

नीली नदी के किनारे,

नज़र पड़ ही जाती थी

उस बेक़रार से दरख़्त पर

और उस कभी न मानने वाली

बेल पर!

 

आज अचानक देखा

कि पहुँचने लगी है वो बेल

उस नीली नदी किनारे खड़े

अमलतास के

उम्मीद भरे पीले दरख़्त पर,

एहसास की धारा बनकर|

 

शायद

वो खामोश रहती होगी,

पर अपनी चौकन्नी आँखों से

देखती रहती होगी

उस दरख़्त के ज़हन के उतार-चढ़ाव,

महसूस किया करती होगी

उस दरख़्त की बेताबी,

समझती होगी

उस दरख़्त की बेइंतेहा मुहब्बत को…

 

एक दिन

बेल के जिगर में भी

तलातुम** आना ही था,

और आज की शाम वो

अब बिना किसी बंदिश के

बह चली है

एहसास की धारा बनकर

विसाल*** के लिए!

 

*ज़ाफ़रानी = saffron

**तलातुम = waves

***विसाल = to meet

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  स्त्रीत्व

 

उन आँखों में

बसी है स्त्री देह,

देह नहीं, सिर्फ

कुछ अंग विशेष,

अंग विशेष भी नहीं

केवल मादा चिरायंध,

सोचता हूँ काश,

इन आँखों में कभी

बस सके स्त्री देह..,

केवल देह नहीं

स्त्रीत्व का सौरभ,

केवल सौरभ नहीं

अपितु स्त्रीत्व

अपनी समग्रता के साथ,

फिर सोचता हूँ

समग्रता बसाने के लिए

उन आँखों का व्यास

भी तो बड़ा होना चाहिए!

 

समाज की आँख का व्यास बढ़ाने की मुहिम का हिस्सा बनें। आपका दिन सार्थक हो।

 

संजय भारद्वाज
[email protected]

प्रात: 9.24 बजे, 5.12.19

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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