मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #31 – ☆ Generation Gap ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  ‘Generation Gap‘.  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  सुश्री आरुशी जी का आज का आलेख दो  पीढ़ियों के बीच मानसिक द्वंद्व का पर्याय ही तो है।  यह आलेख पढ़ कर हमें अपनी पिछली पीढ़ी का यह वाक्य  कि “हमारे  जमाने में तो …” अनायास ही  याद आ जाता है और हम अगली पीढ़ी को भी अपने अनुभव ऐसे ही उदाहरण देकर थोपने की कोशिश करते हैं। यह पीढ़ियों से चला आ रहा है। हम भूल जाते हैं कि हमारे समय मैं वह कुछ नहीं था जो आज की पीढ़ी को मिल रहा है चाहे वह रहन सहन से सम्बंधित हो, रुपये का अवमूल्यन हो या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ‘ मीडिया’  का तकनीकी विकास हो। यदि हम इन तथ्यों पर विचार कर आपसी सामंजस्य  बना लें तो  दो पीढ़ियों के बीच के  Generation Gap की प्रत्येक समस्या का हल संभव हो जावेगा। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #31 ☆

☆ Generation Gap☆

 

काय ही आजकाल ची मुलं, आमच्या वेळी असं नव्हतं बाई !

आपल्याला हे वाक्य आधीच्या पिढीच्या तोंडून बऱ्याच वेळा ऐकायला मिळतं. आणि ते खूप अंशी खरं ही आहे. कारण गोष्टी बदलत असतात, दगडासारखं दगडही बदलतो, त्याचं रूप, रंग बदलतो. वातावरणाचा परिणाम गडदामध्येही नैसर्गिक रित्या बदल घडवून आणतो… मानव निर्मित बदल तर खूप होतात… काही आवश्यक, काही अनावधानाने, काही दुर्लक्ष केल्यामुळे…

आता बघा ना, पूर्वी स्त्रिया रोज साडी नेसत असत, पण आता बऱ्याच स्त्रिया रेग्युलर बेसिस वर ड्रेस घालतात. ह्यात साडीला कमी दर्जा द्यायची भावना नसते, पण ड्रेस जास्त सोयीस्कर असल्याने त्याचा वापर वाढला आहे.

पूर्वी फ्रीज नव्हते, दिवे नव्हते, मिक्सर नव्हते पण मानवाने ह्या गोष्टींचा शोध लावून आपले आयुष्य सोपे करायचा मनापासून प्रयत्न केला आहे, ह्यात काहीच वावगं नाही.

पण म्हणतात ना अति तिथे माती, ही म्हण कायम लक्षात ठेवायला हवी. नवीन गोष्टी आत्मसात करताना निसर्गाची हानी होणार नाही ह्याची खबरदारी घेणं तितकंच आवश्यक आहे. नाही तर आज आपण जी दुष्काळाची परिस्थिती भोगतो आहोत अशा अनेक कठीण प्रसंगांना आपल्याला तोंड द्यावं लागेल आणि ही हानी थांबली नाही तर गोष्टी कंट्रोल च्या बाहेर जायला वेळ लागणार नाही.

आपल्या खूप सखोल अशी भारतीय संस्कृती मिळाली आहे, त्यात सुद्धा मानव आणि निसर्ग ह्याचा समतोल कसा राखता येईल ह्याची योग्य शिकवण आहे, पण आपण सोय आणि पैसा ह्यापुढे काहीच बघत नाही. ते मिळवण्यासाठी इतर नुकसान झाले तरी त्या कडे कणा डोळा केला जातोय, जे भविष्यासाठी खूप घटक आहे. मानवी संस्कृती टिकवण्यासाठी फक्त स्वार्थ उपयोगी पडणार नाही. कितीही जागतिकीकरण झाले, तरी मूळ मूल्यांना विसरून चालणार नाही. आधीची पिढी किती बुरसटलेली होती असे म्हणणे योग्य ठरणार नाही, कारण त्यांच्या वेलची जीवन व्यवस्था आणि आजच्या पिढीची जीवन व्यवस्था ह्यात आणि विचारसरणी ह्यात खूप फरक असतो, आणि हा फरक स्वीकारला तरंच दोन्ही पिढ्यामधील अंतर कमी व्हायला मदत होईल. दोन्ही पिढ्यांनी एकमेकांना थोडं तरी समजून घ्यायला हवं. ओपन minded असायला हवं, दोन्ही पिढ्यांमध्ये सुसंवाद असायला हवेत.

म्हणून जून तेच योग्य हाही विचार सोडला पाहिजे, किंवा त्या पिढीची मते अयोग्य आहेत हेही मनात ठेवून वागता कामा नये, तेव्हाच नवीन गोष्टी आत्मसात करू शकतो. नाही तर विकासाचे मार्ग बंद राहतील, कोणीच आपल्या बुद्धीचा वापर करणार नाही, त्यातून प्रगती होणार नाही… सगळं जैसे थे राहील … आणि मग जीवन कदाचित कंटाळवाणं होईल, नाही का? एकाच ठिकाणी असून न राहता, जुन्यातील योग्य, नव्यातील फायदे लक्षात घेऊन पावलं पुढे टाकली पाहिजेत.

ही Generation Gap खूप काही घडवून आणते, निदान वैचारीक उलाढाल नक्की घडते…

Generation Gap हा कधीही न संपणारा विषय आणि पण त्यातून होणारे वाद विवाद नक्किच कमी करता येऊ शकतात. त्यासाठी दोन्ही पिढ्यांमध्ये मैत्रीचं नातं एडेल तर सुसंवाद घडू शकतो आणि दोघांमधील वैचारिक दरी कमी होऊ शकते. ह्यासाठी दोन्ही गटांना किंवा व्यक्तींना फकेक्सिबल किंवा open minded असणं उपयुक्त ठरेल. जून तेच योग्य हा हेका थोडा बाजूला ठेवून नवीन घडणाऱ्या गोष्टींकडे सकरतामक दृष्टीने पाहिलं तर अनेक समस्या दूर होतील. तसेच लहान मोठा, गरीब श्रीमंत, उच्च नीच हा भेदभाव दूर ठेवला तर वादाचे मुद्देच कमी होतील. माणूस म्हणून त्याच्या मताचा आदर करणे, मीच फक्त बरोबर, हा हट्ट न करणे, तो कोण मला सांगणारा हा अहंकार जवळ येऊ न देणे, ह्यातूनच दोन पिढीतील अंतर कमी होऊन योग्य निर्णय घेतले जातील.

 

© आरुशी दाते, पुणे

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 1 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – भाग 1 – बचपन ☆

 

जी हाँ यह कहानी है उस पगली माई की जो त्याग, तपस्या, दया, करूणा तथा प्रेम जैसे गुणों की साक्षात् प्रतिमूर्ती थी। उस में हिमालयी चट्टानों का अटल धैर्य था, तो कार्य के प्रति  समर्पण का जूनूनी अंदाज भी।  वह हर बार परिस्थितिजन्य पीड़ा से टूट कर बिखर जाती लेकिन फिर संभलकर अपने कर्मपथ पर अटल इरादों के साथ चल पड़ती। उसकी जीवन मृत्यु सब समाज के लिए थी।

दमयंती के चेहरे पर सारे जमाने का भोलापन था। वह किसान परिवार में पैदा हुई अपनी माँ बाप की इकलौती संतान थी।

बचपन में उसका अति सुंदर रूप था। गोरा-गोरा रंग ऐसा जैसे विधाता ने दूध में केशर घोल उसमें नहला दिया हो। चेहरे के बड़े बड़े नेत्र गोलक किसी मृगशावक के आंखों की याद दिला देते।  उसके चेहरे का कोमल रूप-लावण्य देखकर लगता जैसे प्रातः ओस में नहाई गुलाब कली खिल कर मुस्कुरा उठी हो। जो भी उसे देखता
उस सुन्दर परी जैसी जीवन्त गुड़िया को गोद में उठाकर नांच उठता। उसकी  खिलखिलाहट भरी हंसी सुनते-सुनते मन  की वीणा के तार झंकृत हो उठते। उस का जन्म का नाम तो दमयन्ती था, पर माता-पिता प्यार से  उसे पगली कह के बुलाते। तब उन्हें कहाँ पता था कि उनका संबोधन एक दिन सच हो जायेगा। वह बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन गृह कार्य में दक्ष तथा मृदुभाषी थी। बहुधा कम ही बोलती।

धीरे धीरे समय बीतता रहा। बचपना कब बीता, किशोरावस्था कब आई समय के प्रवाह में किसीको पता ही नही चला।

उसी गाँव में एक सूफी फकीर रहा करते थे। सारा गाँव उन्हें प्यार से भैरव बाबा कह के बुलाता था। उनकी वेशभूषा तथा दिनचर्या अजीब थी। उनका आत्मदर्शन  तथा जीवन जीने का अंदाज़ निराला था। वे हमेशा खुद को काले लबादे में ढंके कांधे पर  झोली टांगे हाथ में ढपली लिए गाते घूमते रहते थे। वे हमेशा बच्चों के दिल के करीब रहते, बच्चों को बहुत प्यार करते थे।

जब कोई भी बच्चा उनके पैरों  को छूता तो वो उसका माथा चूम लेते तथा उसे एक मुठ्ठी किसमिस का प्रसाद अवश्य मिल जाता। वे जब भिक्षाटन पर जाते तो सिर्फ एक घर से ही पका अन्न लेते और उसे वही बैठ खा लेते। कभी पगली के दरवाजे पर “माई भिक्षा देदे” की आवाज लगाते तो पगली भीतर से ही “आयी बाबा कह उनसे दूने जोर से चिल्लाती तथा आकर बाबा के पावों मे लेट जाती। उस दिन उसे मुठ्ठी भर प्रसाद अवश्य मिल जाता खाने को।

वह भी घर में बने भोजन से थाली सजाती  और उसी भाव से खिलाती मानों भगवान का भोग लगा रही हो।  इस प्रकार खेलते खाते समय कब  बीत चला किसी  को पता नही चला।

अब पगली जवानी की दहलीज पर कदम  रख चुकी थी।  पिता ने संपन्न सजातीय वर देख उसका विवाह कर  दिया।

वह जमाना भारत देश की गुलामी से आजादी का दौर था। देश स्वतंत्र था, फिर भी देश पिछडापन, अशिक्षा, नशाखोरी, गरीबी, तथा रूढिवादी विचारधाराओं का दंश झेल रहा था।  उन्ही परिस्थितियों में जब माता पिता ने उसे विवाह के पश्चात डोली में बिठाया तो पगली छुई मुई सी लाज की गठरी बन बैठ गई थी। उसे माता पिता तथा सहेलियों का साथ छूटना, गाँव की गलियों से दूरी खल रही थी। वह डोली  में बैठी सिसक रही थी कि सहसा उसके कानों में ढपली की आवाज के साथ  भैरव बाबा की दर्द भरी  आवाज में बिदाई गीत गूंजता चला गया।

उस बेला में भैरव बाबा की आंखें  आंसुओं से बोझिल थी, तथा ओठों पे ये दर्द में डूबा गीत मचल रहा था—–

ओ बेटी तूं बिटिया बन,
मेरे घर आंगन आई थी।
उस दिन सारे जहाँ की खुशियाँ,
मेरे घर में समाई थी।
मुखड़ा देख चांद सा तेरा,
सबका हृदय बिभोर हुआ।
तू चिड़िया बन चहकी आंगन में,
घर में मंगल चहुं ओर हुआ।
हम सबने अपने अरमानों से,
गोद में तुमको पाला था।
पर तू तो धन थी पराया बेटी,
बरसों से तुझे संभाला  था।
राखी के धागों से तूने,
भाई को ममता प्यार दिया।
अपनी त्याग तपस्या से,
माँ बाप का भी उद्धार किया।
तेरी शादी का दिन आया,
ढ़ोलक शहनाई गूंज उठी।
मंडप में वेद मंत्र गूंजे,
स्वर लहरी गीतों की फूटी।
मात-पिता संग अतिथिगणों ने,
तुझको ये आशीष दिया।
जीवन भर खुशियों के रेले हो,
तू सदा सुखी रहना  बिटिया।
जब आई घड़ी बिदाई की,
तब मइया का दिल भर आया,
आंखें छलकी गागर की तरह,
दिल का सब दर्द उभर आया।
द्वारे खड़ी देख पालकी,
पिता की ममता जाग उठी।
स्मृतियों का खुला पिटारा,
दिल के कोने से आवाज उठी।
ओ बेटी सदा सुखी रहना,
तुम दिल से सबको अपनाना।
अपनी मृदु वाणी सेवा से,
तुम सबके हिय में बस जाना।
जब उठी थी डोली द्वारे से,
नर-नारी सब चित्कार उठे।
बतला ओ बिटिया कहां चली,
पशु पंछी सभी पुकार उठे।
तेरे गाँव की गलियां भी,
सूनेपन से घबराती हैं।
पशु पंछी पुष्प लगायें सब,
नैनों से नीर बहाते हैं।
ये विधि का विधान है बड़ा अजब,
हर कन्या को जाना पड़ता है।
छोड़ के घर बाबुल का इक दिन,
हर रस्म निभाना पड़ता है।
खुशियों संग गम के हर लम्हे,
हंस के बिताना पड़ता है।

उस दर्द में डूबे गीत को भैरव बाबा गाये जा रहे थे। आंखों से आंसू सावन भादों की घटा बन बरस पड़े थे। इसी के साथ सारा गाँव  रो रहा  था।  इसी के साथ पगली की डोली सर्पाकार पगडंडियो से होती हुई ससुराल की तरफ बढ़ चली थी।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -2 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ ओ सम्मान वालो ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय  स्तर ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की  एक सार्थक एवं कटु सत्य को उजागर करती एक  कविता  “ओ सम्मान वालो ।” इसमें कोई दो मत नहीं है कि  पुरस्कारों/सम्मानों की लालसा और इस दौड़ में अक्सर ऐसा हो रहा है। किन्तु, यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि वास्तव में जो सम्मान के हकदार हैं वे  इससे वंचित रह जाते हैं और सभी समान दृष्टि से देखे जाते हैं।  फिर कई ऐसे भी हैं जो बिना किसी लालसा के शांतिपूर्वक स्वान्तः सुखाय साहित्य सेवा किये जा रहे हैं, जो कदापि इस रचना के पात्र नहीं हैं । श्री मनीष तिवारी जी को उनकी इस बेबाक कविता के लिए हार्दिक बधाई। )

☆ ओ सम्मान वालो  ☆

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

लेना है शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र

तो रुपये निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान करने वाली

थोक दुकान पर आओ

फुटकर सम्मान वाली

दुकान पर मत जाओ

हमसे यश पा लो

अपना चेहरा चमका लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे कोई मतलब नहीं

रचनाएं आपकी हैं

या आपके बाप की हैं

जिन रचनाओं को सुनकर

जनता आपको सर पर

उठा लेती है

उनमें आपकी कम

माँ बाप की छवि

ज्यादा दिखाई देती है,

पास आओ, बैठो

थोड़ा मुस्करा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

हमें इससे क्या लेना देना

कि, आपने अपनी

उधार ली हुई प्रतिभा

सबको दिखाई है,

और पूर्वजों की रचनाएं लेकर

पुस्तक अपने नाम से छपवाई है।

तुम तो बस हमारे पास आओ

शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र पा लो

खुद सम्हलो और हमें सम्हालो

कार्यक्रम का खर्च निकालो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो

♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥  ♥

सम्मान के संयोजक महोदय

आपने जिन जिन विभूतियों का

सम्मान किया है,

विधाता ने भी

उनके भाग्य में क्या रचा है

समाज में उनका

सम्मान ही नहीं बचा है।

फिर भी,

आपने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को

अनेकानेक विशेषण लगाकर

तथाकथित रूप से

जितनी तेजी से

पुरस्कृत और परिष्कृत किया है।

समाज ने उतनी ही तीव्र गति से

उसी दिन से उन्हें तिरस्कृत किया है।

आपसे निवेदन है

उनकी इज्ज़त बचा लो

अपना सम्मान पत्र, शाल, श्रीफल

उनके घर से

सरेआम उठा लो

ओ सम्मान वालो

ओ सम्मान वालो।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न 9424608040 / 9826188236

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (12-13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ।।12।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ।।13।।

 

संयम से सब द्वार रूंध मन से हदय निरोध

प्राणों को धर शीर्ष में साधक साधे योग।।12।।

ओंकार का नाद कर मुझे जो करते याद

जो तजता है देह वह पाता पद अविवाद।।13।।

            

भावार्थ :  सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है ।।12 – 13।।

 

Having closed all the gates, confined the mind in the heart and fixed the life-breath in the head, engaged in the practice of concentration,।।12।।

Uttering the  monosyllable  Om-the  Brahman-remembering  Me  always,  he  who departs thus, leaving the body, attains to the supreme goal.।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]`

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 44 ☆ ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद ☆ – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–44

☆ ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद

 प्रिय मित्रों,

आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।

‘ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,00,800+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’ शीर्षक से आपके साथ संवाद करना निश्चित ही मेरे लिए गौरव के क्षण हैं।  इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में  स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ आपके अपार स्नेह के लिए।  आप सबका हृदयतल से आभार। 

 ?  ?  ?

वैसे तो मुझे कल ही आपसे विमर्श करना था जब आगंतुकों की संख्या 1,00,000 के पार हो गई थी। किन्तु, हृदय कई बातों को लेकर विचलित था। उनमें कुछ आपसे साझा करना चाहूंगा। कल मेरे परम पूज्य पिताश्री टी डी बावनकर जी की पुण्य तिथि थी, जिनके बिना मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं होता। यह सप्ताह भोपाल गैस त्रासदी का गवाह था जिसमें कई निर्दोष लोगों की जान गई जिनकी स्मृतियाँ उनके परिजनों के अतिरिक्त किसी के पास नहीं हैं। यह सप्ताह ‘एक और निर्भया’ की हृदयविदारक पीड़ा को समर्पित था। और कल के ही दिन भारत के संविधान निर्माता डॉ भीमराव आम्बेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस था। भला ऐसे में लेखनी कैसे चलती?

मेरे पास ‘एक और निर्भया’ से सम्बंधित और समय समय पर ‘जीवन के कटु सत्य’ को उजागर करती  रचनाएँ आती हैं किन्तु, स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति की सीमाएं मुझे प्रकाशित करने से रोकती हैं जिसके लिए मैं सम्माननीय लेखकगणों से करबद्ध क्षमा चाहूंगा। इस सन्दर्भ में मैं अपने परम आदरणीय गुरुवर डॉ राजकुमार ‘ सुमित्र’ जी की आशीर्वाद स्वरुप कविता उद्धृत करना चाहूंगा जो मेरी मार्गदर्शक हैं और इस वेबसाइट के मुखपृष्ठ पर अंकित हैं।

सन्दर्भ : अभिव्यक्ति 

संकेतों के सेतु पर, साधे काम तुरन्त ।
दीर्घवायी हो जयी हो, कर्मठ प्रिय हेमन्त ।।

काम तुम्हारा कठिन है, बहुत कठिन अभिव्यक्ति।
बंद तिजोरी सा यहाँ,  दिखता है हर व्यक्ति ।।

मनोवृत्ति हो निर्मला, प्रकट निर्मल भाव।
यदि शब्दों का असंयम, हो विपरीत प्रभाव।।

सजग नागरिक की तरह, जाहिर  हो अभिव्यक्ति।
सर्वोपरि है देशहित, बड़ा न कोई व्यक्ति ।।

 –  डॉ राजकुमार “सुमित्र”

आपसे काफी कुछ कहना है और अब मेरा प्रयास रहेगा कि मैं आपसे नियमित संवाद करूँ। आशा है ईश्वर मुझे मेरी लेखनी को आपसे जोड़ने की शक्ति प्रदान करे।  अंत में मैं गैस त्रासदी पर अपनी रचना के कुछ अंश के माध्यम से श्रद्धांजलि देते हुए लेखनी को क्षणिक विराम देता हूँ।

गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

और …. दूर

गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।
ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।
अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।
उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।
जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।
धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।
सबको श्रद्धांजलि!
 – हेमन्त बावनकर

आपसे अनुरोध है कि हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को यदि हम अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी से साझा करें तो उन्हें निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। इस प्रयास में हमने आचार्य भगवत दुबे जी एवं डॉ राजकुमार ‘ सुमित्र’ जी की चर्चा की है। इस रविवार हम प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  ससम्मान आलेख प्रकाशित कर रहे हैं।  आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम  पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के कार्यों को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें। 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7 दिसंबर  2019

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संतुलन

 

लालसाओं का

अथाह सिंधु,

क्षमताओं का

चिमुक भर चुल्लू,

सिंधु और चुल्लू का

संतुलन तय करता है

सिमटकर आदमी का

ययाति रह जाना

या विस्तार पाकर

अगस्त्य हो जाना!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆ मत का दान ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “मत का दान”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆

☆ मत का दान

मत का दान दे उनको
जो करें मत का राज।

मत का दान न देना उनको
जो करें मन का राज।

गरीब को भी जी जाने दो
ऊँगली में स्याही लगने दो।

ना मस्तवाल का राज हो
जी भर जीवन जीने दो।

गणतंत्र का राज हो
वाणी अधिकार मिलने दो।

राम राज्य अब आ जाए
हर जीवन में खिलने दो।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित” ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी  द्वारा लिखित नवनीत के दिसम्बर अंक में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश जी दीक्षित की स्मृति में एक लेख प्रकाशित हुआ है।  हमारे आग्रह पर श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा यह लेख  हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षितआपसे साझा कर रहे हैं।  ) 

 

☆” हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित”  – श्री संजय भारद्वाज

5 नवंबर 2019 को हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष और रस सिद्धांत के पुरोधा आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित का निधन हो गया। पुणे विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन करने वाले डॉक्टर दीक्षित 1985 में हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। तत्पश्चात वर्ष 2010 तक वे प्राध्यापक के रूप में सक्रिय रहे।

आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित

डॉक्टर दीक्षित का जन्म माघ शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत 1980 (अंग्रेजी वर्ष 1923/24) को हुआ था। माता-पिता के अलावा घर में तीन भाई और थे, दो उनसे बड़े और एक छोटा। पिता संस्कृत के अध्यापक थे। दोनों बड़े भाई भी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए थे। फलत: साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से मिला। नवीं में पढ़ते थे तब मासिक ‘दीपक’ में ‘मातृस्नेह’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। आरंभिक दिनों में वे ‘सर्वजीत’ उपनाम से लिखा करते थे। उन दिनों बच्चन जी की ‘सप्तरंगिणी’ प्रकाशित हुई थी। इस पर दीक्षित जी का  आलोचनात्मक लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली वाले ‘विश्वबंधु’ ने पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। पंडित विजयशंकर भट्ट ने एस लेख की प्रशंसा की थी। यहीं से कविता की आलोचना के क्षेत्र में उनकी रुचि, उनका जीवन बन गई।

वर्ष 2016 में हिंदी आंदोलन परिवार की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। रुचि को जीने की इस यात्रा पर इस साक्षात्कार में उन्होंने भाष्य किया था। बकौल डॉ. दीक्षित, “कविता में अर्थ की जो गहनता हम पाते हैं, वह किसी दूसरी विधा में नहीं मिलती। पहली बार तो कविता का केवल ऊपरी अर्थ समझ में आता है, उसके प्रति आसक्ति जागृत होती है। यदि आप विचारक हैं तो उसका अर्थ समझने के लिए आगे बढ़ेंगे। उसके लिए बार-बार कविता पढ़नी पड़ेगी। बार- बार पढ़ने से कविता ऐसी रच जाएगी कि अर्थ पर अर्थ निकलने लगेंगे। तब कविता चमत्कारी चीज़ हो जाती है।”

समकालीन कविताओं को लेकर उनका मानना था कि आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके छंद और उक्ति में परिवर्तन है। पुरानी कविता में कोई सूक्ति रहती थी, कोई ना कोई उपमान रहता था जिससे सौंदर्य आता था। उसकी विशेषताएं आकर्षित करती थीं। अब कविता पत्रकारिता की तरह हो गई है। वर्तमान का वर्णन करके वे चुप हो जाती हैं। जब आप घटित के बारे में लिखने लगते हैं तो इससे एकरूपता आ जाती है। इनसे इतिहास तो हमें मिल जाएगा लेकिन भविष्य में इनसे जीवन का दृश्य क्या मिलेगा?

अलबत्ता कविता की प्रयोजनीयता सर्वदा बनी रहेगी। कविता अच्छी नहीं है तो निष्प्रयोजन हो जाएगी लेकिन इससे सारी कविताएँ  निष्प्रयोजन नहीं हो जातीं। आदमी सदैव कविता पढ़ना चाहेगा।

आलोचना की मीमांसा करते हुए उन्होंने टिप्पणी दी, “आलोचना दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार अध्ययन करके गहनता से आलोचनात्मक लेख लिखना है तो दूसरा प्रकार समीक्षाएँ लिखना है। समीक्षा ऊपरी तल पर रह जाती है। विवेकपूर्ण लंबी आलोचना जो समझदारी से लिखी जाती है, उसका महत्व होते हुए भी मैं यह मानता हूँ कि आलोचक दूसरे दर्जे का नागरिक बनता है। आलोचक तब लिखेगा जब उसके सामने सर्जन होगा। सर्जनात्मकता पहली चीज़ है। सर्जनात्मकता में भावुकता है, आलोचना में विवेक को संभालना पड़ता है। तर्क-वितर्क संभालना पड़ता है, शास्त्र का ध्यान रखना होता है। आलोचना बहुत कठिन कर्म है।”

कवि की अनुभूति और आलोचक द्वारा ग्रहण किये गए भाव के अंतर्सम्बंध पर उनका कहना था कि कई बार आलोचक वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। लेकिन यह भी है कि कई बार कवि का सोचा हुआ भी नहीं होता।

उनसे बातचीत में अनेक पहलू खुलते गए। आज का लेखक अपनी कमजोरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस पर चर्चा नहीं करना चाहता। अपना अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि  जिन भी कवियों को उन्होंने उनकी कविता की कमजोरियों के बारे में बताया, उनमें से अधिकांश बुरा मान गए।

आचार्य जी भाषा के क्रियोलीकरण के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि इसके पक्षधर विशेषकर समाचारपत्र यह दिखाना चाहते हैं कि व्यवहार में इस तरह की भाषा चलती है। अख़बारवालों को लगता है कि ऐसी मिली-जुली भाषा के उपयोग से युवा वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। वस्तुतः हमें इस बात का अभ्यास नहीं है कि हम शुद्ध भाषा का उपयोग कर सकें।  हम कभी शब्दकोश देखने या सोचने का भी प्रयत्न नहीं करते। सत्य तो यह है कि दुभाषिया भी शब्दश: अनुवाद न करके सार अपनी भाषा में कहता है।

हिंदी विषय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तुलनात्मक रूप से घटती संख्या का सबसे बड़ा कारण उन्हें इस विषय को  पढ़कर विद्यार्थियों को रास्ते खुलते हुए नहीं दिखाई देना लगता था। विडंबना है कि ज्ञान के लिए जो हिंदी पढ़ना चाहता है उसे केवल साहित्य पढ़ाया जाता है। साहित्य तो बिना पाठशाला या कॉलेज में पढ़े अलग से पढ़ा जा सकता है। लोगों को इंजीनियर या टेक्नीशियन बनना है तो केवल साहित्य पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हिंदी को समुचित स्थान दिलाने के लिए जो किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया जा सका है।

हिंदी वालों से एक शिकायत उन्हें सदा रही कि हिंदीक्षेत्र में काम करने वाले लेखक को ही वे लेखक मानते हैं लेकिन जो बाहर निकल आए हैं या अहिंदीभाषी प्रदेशों के रहनेवाले हैं, उन्हें वे लेखक नहीं मानते। जब आप हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते हैं तो सभी प्रदेशों के लोगों का सहयोग चाहिए। हिंदी के विस्तार को हमने खुद ही रोक दिया है। एक बात और, जो मराठीभाषी हिंदी पढ़ कर हिंदी में लिख रहा है, मराठी मंच उसे स्वीकार नहीं करता। यहाँ बस गए हिंदी के लेखकों को हिंदी प्रदेशों के मंच अब याद नहीं करते। ऐसे लेखक दोनों ओर से तिरस्कृत हैं।

सांप्रतिक जीवन में संवाद के अभाव को लेकर वे चिंतित थे। “आजकल संवाद नहीं हो रहा है।  बिना संवाद के बुद्धि विकसित नहीं होती। संवाद से तर्क-वितर्क सामने आते हैं। मालूम होता है कि आप जो सोच रहे हैं, उसके प्रतिपक्ष में कोई सोच सकता है। शास्त्र में दो पक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति जब शास्त्र लिखता है तो दोनों पक्षों को लिखता है। इसका अर्थ है कि विवेक जागृत करने के लिए दूसरे पक्ष को भी सामने रखना आवश्यक है।”

“लोग कहते हैं कि मैं रसवादी हूँ। मैं रस में विश्वास नहीं करता। यदि वादी हूँ तो मैं विवेकवादी हूँ। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ‘विवेक’ शब्द का प्रचुर प्रयोग किया है। विवेक क्या है? भले बुरे को समझना, क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इन दोनों के बीच से सही रास्ते को ढूँढ़ना, निरंतर शोध करना ही विवेक है। विवेक मंथन करने के बाद आता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए आत्ममंथन आवश्यक होता है।”

भविष्य को लेकर वे सदा आशावादी रहे। “जीवन में बहुत कुछ करना अभी बाकी है। हमारी संस्कृति को मिली-जुली कहा जाता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए मैं संस्कृत ग्रंथों का पारायण करना चाहता हूँ। अपने संस्कारों से हमें कितना जुड़ाव है, कितना होना चाहिए, कितना हम उन से हटे हैं, इसका विवेक पैदा करना ज़रूरी है। मैं इस्लाम की मूल पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ। इस्लाम की पूरी जानकारी करना चाहता हूँ। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि अगर यह मिली-जुली संस्कृति है तो हम आपस में इतना लड़ते क्यों हैं? आपसी लड़ाई से बचाव के लिए मैं इस तरह का अध्ययन आवश्यक मानता हूँ।”

भाषाविज्ञान, संपादन, अध्यापन, अनुवाद, लेखन, पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य दीक्षित का योगदान बहुमूल्य रहा। उनके अनेक विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हुए। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई अध्येता हो जिसने डॉ. दीक्षित की कोई पुस्तक संदर्भ के लिए न पढ़ी हो। ‘आलोचना-रस सिद्धांत : स्वरूप विश्लेषण’,   ‘साहित्य : सिद्धांत और शोध’  त्रेता : एक अंतर्यात्रा’,  ‘हिंदी रीति परंपरा : विस्मृत संदर्भ’, ‘रसचिंतन के विविध आयाम’ (मराठी के 15 लेखकों के साहित्य का अनुवाद), ‘हरिचरणदास ग्रंथावली’ (काव्यखंड), ‘प्रताप पचीसी’, ‘दौलत कवि ग्रंथावली’, ‘आज के लोकप्रिय कवि शिवमंगल सिंह सुमन’, ‘कबीर ग्रंथावली’ ‘मैथिलीशरण गुप्त’  ‘सुमित्रानंदन पंत : आलोचना, प्रक्रिया और स्वरूप’,  ‘कबीरदास : सृजन और चिंतन’, ‘मराठी संतों की हिंदीवाणी’ जैसे अन्यान्य ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद हिंदी साहित्य को उनकी महती देन है।

सरकारी और गैरसरकारी अनेक संस्थाओं और संस्थानों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें प्राप्त प्रमुख अलंकरणों में साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’, हिंदी साहित्य समिति इंदौर द्वारा ‘अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार’,  साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’  हिंदी साहित्य समिति कानपुर द्वारा ‘साहित्य भारती’ आदि सम्मिलित हैं।

हमारे एक आयोजन में उन्होंने कहा था कि लिखने के लिए वे दो सौ वर्ष जीना चाहते हैं। अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ वे जीवन के अंत तक सक्रिय रहे। जब मैंने उनसे जानना चाहा कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर खुद डॉ. दीक्षित के मन में किस तरह का चित्र उभरता है तो उनका उत्तर था, ” मुझे अच्छा लगता है लेकिन ऐसा कोई भाव पैदा नहीं होता जिसे मैं अहंकार कह सकूँ। हाँ, लगता है कि मैं जीवित हूँ।”

अपने सृजन के रूप में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित सदा जीवित रहेंगे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं? ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं. आज प्रस्तुत है उनका एक आलेख  “हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं?”.)

 

☆ हम अपने कर्तव्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध है, या केवल औपचारिकता पूरी करते हैं? ☆

 

कर्तव्य* अर्थ – किसी भी कार्य को पूर्ण रूप देने के लिए सजीव व निर्जीव दोनों नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हैं l तथा दोनों  कर्तव्य के साथ अपनी भागीदारी का पालन करते हैं l हम जानते हैं कि कर्तव्य से किया गया कार्य हमे एक विशेष परिणाम उपलब्‍ध करवाता है l जो वर्तमान एवं भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है l इंसान को कर्तव्य का प्रभाव केवल इंसानों में ही नजर आता है l परन्तु इस धरा पर इंसान के अलावा पशु – पक्षी और निर्जीव वस्तुएँ भी अपना महत्वपूर्ण कर्तव्य अदा कर रहे हैं l यह किसी को नजर नहीं आता है l क्योकि वर्तमान में इंसान अपने स्वार्थ को पूरा करने में दिन – रात दौड़ भाग कर रहा है l उसके लिए एक पल भी किसी को समझने का नहीं है l

आईए *कुमार जितेन्द्र* के साथ *कर्तव्य* को विभिन्न विश्लेषण के साथ समझने का प्रयास करते हैं :-

*मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति कितना प्रतिबद्ध है और कितना नहीं यह हम सब जानते हैं l सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य “माँ” के रूप में निभाया जाता है l माँ अपने बच्चे को गर्भ से लेकर बड़े होने तक सभी भूमिकाओं को अपना कर पूरा करती है l क्योकि माँ के दिये गये संस्कार से बच्चा अपना भविष्य तय करता है l बच्चा अपना सबसे ज्यादा वक्त माँ के पास गुजारता है l तथा दूसरे नंबर पर देखा जाए तो पिता भी बच्चे के जीवन को दिशा देने के लिए अपने कर्तव्य का पूर्ण निर्वाह करता है l तीसरे स्थान पर नजर डाली जाए तो शिक्षक भी अपना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाता है l वह बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर भविष्य के लिए तैयार करता है l मनुष्य के रूप में कर्तव्य का पालन परिवार, समाज और संस्कृति सब समय – समय भूमिका अदा करते हैं l परन्तु वर्तमान में एक नजर डाली जाए तो मनुष्य ने कर्तव्य की परिभाषा बदल दी है l सब अपने अपने कर्तव्य से पीछे हट रहे हैं l केवल औपचारिक रूप कर्तव्य को अपने का कार्य कर रहे हैं l वर्तमान में मनुष्य के अंदर एक भयंकर बीमारी स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष ने कर्तव्य को बहुत पीछे तक धकेल दिया है l हर कोई अपने कर्तव्य से पीछे भाग रहा है l समय रहते इंसान को अपने जीवन के महत्‍वपूर्ण भाग कर्तव्य को समझना होगा l

*पशु – पक्षी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* क्या यह सही है कि पशु पक्षी भी अपने कर्तव्य का पालन करते हैं l जिस हाँ हम सही पढ़ रहे हैं l इस धरा पर केवल मनुष्य ही नहीं पशु – पक्षी भी समय समय अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं l जैसे सुप्रभात वेला में मुर्गा, गाय और सभी पक्षी अपनी मीठी मीठी वाणी से इंसान को जगाने का कार्य करते हैं l प्रभात वेला में मानो ऎसा लग रहा होता है जैसे कोई प्यारी सी आवाज में संगीत सुना रहा हो l दूसरी ओर देखा जाए तो कुत्ता भी रात के वक्त अपने घर, मोहल्ले में अनजान व्यक्ति के प्रवेश करने या कुछ घटती होने पर हमे सावधान होने के सचेत करता है l यानी पशु पक्षी भी अपने कर्तव्य का पालन सही तरीके से करते हैं l परन्तु वर्तमान में इनमे भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा है l जो चिंतनीय है l

*पेड़ – पौधे अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध*  इस धरा पर कर्तव्य के प्रति पेड़ – पौधे भी प्रतिबद्ध है l जैसे इंसान को जीवन रखने के लिए हर वक्त स्वच्छ प्राण वायु उपलब्ध करवाते हैं l अपने आसपास का वातावरण शुद्ध रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं l इंसान को प्राण वायु के साथ भोजन पकाने के लिए ईधन के रूप लकड़ी, गर्मी के मौसम बैठने के लिए छाया, ठंडी हवा और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विभिन्न प्रकार के फल और अपने आसपास के वातावरण को खुशबूदार बनाने के लिए फूल हमे प्रदान करते हैं l यानी तक देखा जाए तो इंसान के अंतिम समय में भी पेड़ – पौधे लकड़ी के रूप जलकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान ने पेड़ – पौधो की ऎसी स्थिति पर लाकर खड़ा कर दिया है l जिसके बारे में निःशब्द हूँ l यानी पेड़ – पौधों का अस्तित्व धीरे धीरे खत्म हो रहा है l जिस पर इंसान को चिंतन मनन करने की जरूरत है l

*निर्जीव वस्तुएँ भी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* जी हां हम यह भी सही पढ़ रहे हैं l निर्जीव वस्तुएँ भी अपना कर्तव्य निभाने में कोई कमी नहीं रखते हैं l जैसे पहाड़ जो इस धरा पर सदियों से अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है l इंसान के जीवन में हर पल सहयोग करता आ रहा है l जैसे तेज तूफान को अपनी ओट में रोक कर इंसान को नुकसान होने से बचाता है l बारिश के मौसम में पानी को नाले के रूप एकत्रित कर पीने योग्य बनाता है l तथा रहने के लिए अपने को टुकड़े टुकड़े में बांट कर मकान के रूप में खड़ा कर देता है l दूसरे रूप में निर्जीव इस धरा पर विभिन्न प्रकार के पदार्थों के रूप में समय – समय इंसान के जीवन में उपयोगी बन कर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं l यानी निर्जीव भी अपने कर्तव्यों को सही तरीके से से निभाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान ने इनको भी अपने कर्तव्यों से भटका दिया है l यह भी चिंतनीय विषय है l

*प्राकृतिक परिवर्तन भी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध* कर्तव्य को निभाने में प्राकृतिक परिवर्तन भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं l जैसे जैसे समय अपने पथ की ओर चल रहा है वैसे वैसे प्राकृतिक परिवर्तन भी समय – समय पर हो रहे हैं l जैसे बारिश अपने चक्र के अनुसार सही समय पर होती है l इसी प्रकार सर्दी, गर्मी सभी परिवर्तन अपने तय समय और सीमा पर होते हैं l और इंसान को सभी सुविधाओं को उपलब्ध करवाते हैं l परन्तु वर्तमान में इंसान के स्वार्थ के प्रति भावना के कारण इसमें भी बदलाव देखने को मिल रहा है l समय से पहले बारिश, गर्मी और सर्दी का आना   और जाना l कभी अत्यधिक बारिश तो कभी सूखा देखने को मिल रहा है l इस पर विचार करने योग्य है l समय रहते इन समस्याओं से समाधान ढूढना होगा l अन्यथा भविष्य के परिणाम कुछ और ही होंगे l

*आओ हम सभी मिलकर अपने कर्तव्य के प्रति संकल्प ले* इस आलेख में हमने सजीव से लेकर निर्जीव तक अपने कर्तव्यों के पालन के बारे में समझने की कोशिश की है l अंत में कहने का तात्पर्य यह है कि जो पहले समय में कर्तव्य देखने को मिलता था अब उसमे बहुत कुछ परिवर्तन आ गया है l यह परिवर्तन इस धरा पर सभी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है l अगर समय रहते उचित कदम न उठाए तो l और हम सब अपने स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष और दूसरो को गिराने की भावना को त्याग कर जीवन को सर्वश्रेष्ठ कैसे बनाए इस पर चिन्तन करे और भविष्य को उज्ज्वल बनाए l यही हमारा इस जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य है l

 

कुमार जितेन्द्र

(कवि, लेखक, विश्लेषक, वरिष्ठ अध्यापक – गणित)

साईं निवास मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान) मोबाइल न 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 – लक्ष्मी प्राप्ति  ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “लक्ष्मी प्राप्ति ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 ☆

☆ लक्ष्मी प्राप्ति 

 

तब भगवान राम ने भगवान हनुमान को देवी सीता को उनकी जीत के विषय में सूचित करने और सम्मान के साथ लाने के लिए भेजा। देवी सीता यह खबर सुनकर बहुत खुश थीं और भगवान हनुमान से पूछा कि वह वांछित किसी भी वरदान के लिए पूछें। भगवान हनुमान उन राक्षसों के खिलाफ क्रोध से भरे हुए थे जो देवी सीता की रक्षा कर रहे थे क्योंकि वे हमेशा उनके लिए परेशानी पैदा करते रहते थे और उन्हें डराने का प्रयत्न करते रहते थे। तो भगवान हनुमान देवी सीता से उन्हें सबक सिखाने की अनुमति चाहते थे। देवी सीता ने अपनी असीम करुणा और महानता का प्रदर्शन करते हुए भगवान हुनमान से कहा कि ये राक्षस रावण के सेवकों के रूप में केवल असहाय रूप से अपना कर्तव्य पालन कर रहे थे, और हमें इन्हें दंडित करने का अधिकार नहीं है, तब देवी सीता ने भगवान हुनमान को एक कहानी सुनायीं:

एक बार वन में एक शिकारी एक शेर का शिकार करते हुए गिर गया और अपने हथियार को खो दिया। शेर ने शिकारी का पीछा करना शुरू कर दिया। शिकारी भाग कर एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसने वृक्ष पर देखा कि एक भालू बैठा था। आदमी पूरी तरह से असहाय और डरा हुआ था और उसने भालू के आश्रय में अपने जीवन को छोड़ने के लिए अनुरोध किया । इस बीच शेर वृक्ष के नीचे आया और भालू को आदमी को धक्का देने के लिए प्रेरित किया ताकि वे दोनों आदमी को खा सके । भालू ने इनकार कर दिया और कहा कि उस आदमी ने उसके घर आश्रय लिया है और इसलिए वह उसे नीचे नहीं फेकेगा। कुछ समय बाद भालू सो गया और शेर ने शिकारी से कहा, “मुझे बहुत भूख लग रही है, इसलिए आप सोते हुए भालू को वृक्ष से नीचे धकेल दो ताकि मैं उसे मार सकूं और उसे खा सकूं और जिससे आपकी जान बच जायगी”

असभ्य शिकारी अपने जीवन के विषय में इतना चिंतित था, कि उसने सोते हुए भालू को पेड़ से धक्का दे दिया। गिरने के दौरान भालू किसी तरह जाग गया और वृक्ष की एक शाखा को पकड़ लिया, और वो बच गया। शेर ने भालू को बताया कि भालू ने शिकारी को बचाने की कोशिश की, फिर भी उसने उसे नीचे धक्का दे दिया। इसलिए अब भालू को शिकारी को नीचे धक्का देकर शेर की सहायता करनी चाहिए । संत भालू ने उत्तर दिया कि महान आत्माओं के पास दूसरों के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण नहीं होता है, और उनकी यह दयालु प्रकृति दूसरों की बुरी प्रकृति होने के बावजूद भी रहती है। इस प्रकार, भालू अपने सिद्धांतों पे खड़ा था और उसने शिकारी को नुकसान नहीं पहुँचाया जो अब बहुत शर्मिंदा था”

 

© आशीष कुमार  

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