हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62 ☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक सटीक  व्यंग्य एक श्वान के वेदनामय स्वर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 62

☆ व्यंग्य – एक श्वान के वेदनामय स्वर ☆ 

थैंक्यू आदरणीय जी…आपने अपने ‘मन की बात’ में देशी श्वानों को मान सम्मान देते हुए राष्ट्र के हर नागरिक को प्रेरणा दी कि वे देशी श्वान पालें, क्योंकि देशी श्वान पालने का खर्च भी कम बैठता है। आप महान हैं, ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले व्यक्तित्व हैं और सबके अच्छे दिन लाने में आपका अटूट विश्वास है। हम सब देशी श्वान आपकी दिल से तारीफ करते हुए आपको धन्यवाद देते हैं। अभी तक हमने दुनिया में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं देखा जैसे आप हो, इसीलिए हम सब श्वान गौरव महसूस कर रहें हैं। अधिकांश प्रधानमंत्री विदेशी कुत्ता पालने में विश्वास करते हैं एक अकेले आप ऐसे हैं जो देसी कुत्ता पालने की सलाह देते हैं, और देशी श्वानों के अच्छे दिन लाने जैसे प्रयास करते हैं। हर पल आप तरह-तरह से नये रिकॉर्ड बना देते हैं। आप में विश्व गुरु बनने के सारे गुण हैं। आप हमारे माई बाप हैं जो हमारा इतना ध्यान रखते हैं, और हमारा महत्त्व समझते हैं वरन् पिछले सत्तर सालों से यहां का हर नागरिक हमें पत्थर मारता रहा और विदेशी कुत्ता पालता रहा।आप खुद सोचिए कि पूरे देश में विदेशी श्वान पालने में सत्तर साल में कितने करोड़ अरबों रुपए खर्च हो गए होंगे,इतने रुपयों में तो पूरी गरीबी दूर हो जाती और सबको रोजगार मिल जाता।आप तो अच्छे से जानते हैं कि विदेशी श्वानों के कितने नखरे होते हैं चाहे वो चीन का श्वान हो, चाहे कहीं और का…..।

आप क्रांतिकारी प्रधानमंत्री हैं, विश्व गुरु बनने की तैयारी में हैं इसलिए ऐसे विस्फोटक निर्णय लेने में आपका जबाव नहीं। आपने मन की बात में श्वानों के साहस और देशभक्ति की जो तारीफ की,उसी दिन से देश भर के गली गली मोहल्लों में अब लड़के और शराबी देशी श्वानों को पत्थर मारने में संकोच करने लगे हैं, आप सही में गजब के आदमी हैं, इसीलिए हम लोग भी हर गली मोहल्लों में शेर जैसा सिर उठाकर घूमने लगे हैं और कोई सफेद कपड़े वाला ‘हाथ’ दिखाता है तो हम गुर्राने में संकोच नहीं करते हैं। सच्ची बात तो जे है कि अब विदेशी कुत्ते वाले मालिक हमसे जलने लगे हैं। पहले जब विदेशी कुत्ते लघुशंका और दीर्घ शंका के लिए सड़क पर आते थे तो उनका मालिक हमारे ऊपर पत्थर मारता था हालांकि विदेशी कुतिया हमें देखकर पूंछ हिलाती थी पर मालिक का अहंकार आड़े आ जाता था, विदेशी कुतिया को देखकर हम ललचाते भी थे। भाई गजब हुआ एक ही दिन से गजब का क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला कि अब बड़े बंगलों की मेडमे भी बड़े प्यार से बुलाकर हमें रोटी खिलाने लगीं हैं, अब वे सब हमें स्ट्रीट डाग कहने में संकोच करने लगीं हैं, चूंकि यह देशी श्वान पालने की सलाह राष्ट्रीय स्तर से दी गई है इसीलिए देश के हर नागरिक का मूड देशी नस्ल का श्वान पालने का बन गया है,हर फील्ड में हमें आत्मनिर्भर बनना है।

हमें आपको बताने में थोड़ा संकोच हो रहा है पर बताना भी जरूरी है कि पिछले बहुत सालों से देश में चल रहे श्वान नसबंदी कार्यक्रम से हमारी जनसंख्या घटती जा रही है। देश का करोड़ों अरबों रुपया श्वानों के बधियाकरण के काम में लगे लोग लूट रहे हैं।हर नगरनिगम और नगरपालिका में श्वानों के बधियाकरण के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। एक शहर में तो … एक बड़े अधिकारी की मेडम ने जुगाड़ लगाकर बधियाकरण का ठेका लिया और पिछले दो साल में बधियाकरण के नाम पर टुकड़े टुकड़े में दो करोड़ रुपए के बिल पास करा चुकी है,हर अधिकारी, महापौर, मंत्री के पास प्रर्याप्त कमीशन पहुंचा दिया जाता है और एक मंत्री जी को तो मेडम ने गिफ्ट में झबरा विदेशी कुत्ता भी दिया है।

सर जी, ये मेडम हम देशी श्वानों की नसबंदी बेरहम तरीके से कराती है जिससे हमारे भाई लोगो की मौत भी हो जाती है। इस मेडम ने एक खण्डहरनुमा कमरा किराए पर लिया है जिसकी छत जर्जर और दरवाजे टूटे हुए हैं, बारिश के रिसते पानी में जंग लगे औजारों व अव्यवस्थाओं के बीच हमारे श्वान भाईयों बहनों की नसबंदी करवाती है, इसी जानलेवा तरीके के चलते कुछ सालों से हमारे बहुत से श्वान भाई बहनों की जान जा चुकी है, कुल मिलाकर नसबंदी की आड़ में जमकर कमाई की जाती है, आम जनता को इस बात का पता न चले इसलिए मेडम स्थानीय पत्रकारों और चैनल वालों को भी भरपूर खुश रखती है, और ये शायद सब जगह ऐसा ही हो रहा होगा।

आपको यह बताते हुए हम सब देशी श्वानों को शर्म आ रही है कि नसबंदी वाले जर्जर कमरे के बाहर श्वानों की नसबंदी करने की आदर्श गाइड लाइन का बोर्ड लगा है जिसमें लिखा है कि श्वानों की नसबंदी कैसे की जानी चाहिए और इसमें क्या क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए, साथ में लाल बड़े अक्षरों से लिखा है कि गाइड लाइन का सख्ती से पालन होना चाहिए। सर जी गाइड लाइन में तो ये भी लिखा है कि श्वानों की नसबंदी के लिए एक स्वच्छ विकसित आपरेशन थियेटर एवं कुशल चिकित्सक भी होना चाहिए। आपरेशन के बाद श्वनों के आराम करने के लिए एक बढ़िया सेपरेट कमरा होना चाहिए उनके खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम होना चाहिए, जगह भी साफ-सुथरी होना चाहिए ताकि आपरेशन के दौरान या बाद में श्वानों को इंफेक्शन न हो, लेकिन यहां तो सब उल्टा-पुल्टा है, एक गन्दे कमरे में सिवाय गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।

सर जी हम श्वानों को इस बात का भी दुख है कि बधियाकरण के नाम पर हमारे स्वस्थ भाई-बहनों को भी पकड़कर इस कमरे में बीमार बना दिया जाता है। बड़े बड़े बंगलों में राज कर रहे विदेशी श्वानों का कभी बधियाकरण नहीं किया जाता, क्योंकि बाजार में उनकी संतानों को मुंह मांगे दाम पर लिया जाता है। सर जी आपने हम देशी श्ववानों पर विश्वास कर हमारी जाति पर बड़ा उपकार किया है, आपने अपने अनुभव से पूंछ हिलाते आदमीनुमा श्वानों को भी देखा है इसका हम सबको गर्व है।

आदरणीय जी, कृपया एक छोटा सा निर्णय और ले लेते तो देश का बड़ा भला हो जाता,यह कि विदेशी श्वानों के पालन पोषण पर प्रतिबंध लग जाता और देशी श्वानों के बधियाकरण पर रोक लग जाती, ताकि हमारी जाति के लोग आसानी से हर जगह उपलब्ध हो जाते। आदरणीय जी आपने हमारे वेदनामय स्वरों को धैर्य और संयम से सुना और मन की बात में हम श्वानों को मान दिया, इसके लिए आपका दिल से शुक्रिया।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #9 ☆ कोरोना का कहर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना कोरोना का कहर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #9 ☆ 

☆ कोरोना का कहर ☆ 

 

ये कैसा मंजर है

दिल में चुभता खंजर है

आंखें पथरा सी गई है

शरीर जैसे बंजर है

अस्पतालों में जगह नहीं है

बचने कीं कोई वजह नहीं है

दम तोड़ रहे मरीज अंदर

बाहर घर वालों को खबर नहीं है

श्मशानो की हालत बदतर है

जगह की भारी कमतर से

लाईन में लगीं है लाशें ही लाशें

श्मशान बन गया लाशों का घर है

अखबारों में छाया है कोरोना

आंकड़े देख आ रहा है रोना

कैसी महामारी आयी हुई हैं

मनुष्य बना,मौत के हाथ का खिलौना

अब तो संक्रमण तेजी

से बढ़ रहा है

निहत्था इन्सान बिना

टीका के लड़ रहा है

कहां जाकर रूकेगी

यह महामारी

कोरोना नित नए

किर्तीमान है गढ़ रहा है

कोरोना वालेंटियर्स

को सलाम

इतिहास में दर्ज होगा

उनका नाम

जान देकर दूसरे को बचाया

खुद रह गये वो गुमनाम

आओ मित्रों,

हम खुद को संभालें

प्रतिबंधों को

सख्तीसे पाले

जीवन है

बहुमुल्य हम सबका

सुरक्षित घर में रहकर

इसे बचाले

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ लुब्ध होई धरा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ लुब्ध होई धरा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

 

विष्णुकांती नभा, लुब्ध होई धरा

साठवे मृत्तिका, हर्ष तो बावरा

लुब्ध होई धरा…

 

स्पर्श नाजूकसा, थेंबधी झेलता

शिर्शिरी सृष्टिला, पावसा तोलता

गंधवा~यासही नाद ये मदभरा

लुब्ध होई धरा…

 

मेघ वर्षावती श्वास ओथंबले

वल्लरी वृक्षही भारले, गंधले

आगळे तेज ये शुभ्रशा निर्झरा

लुब्ध होई धरा…

 

सप्तरंगी झुला इंद्रधनु बांधतो

सोहळा देखणा पंख फ़ैलावतो

मीलनातूरसे रूप ये अंबरा

लुब्ध होई धरा…

 

चेतना अमृती जीवनी जागते

धुंद आलिंगनी नभ-धरा गुंगते

गर्भ मातीतला अंकुरे साजिरा

लुब्ध होई धरा…

 

गर्द हिरवा ऋतू ,सृष्टि नादावते

रोमरोमी तिच्या सौख्य रेंगाळते

तृप्ततेच्या नभी घन खुले हासरा

लुब्ध होई धरा…

 

©  सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

चेन्नई

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 15 ☆ निंदक… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “निंदक … )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 15 ☆ 

☆ निंदक … ☆

 

निंदका वंदावे, निंदका गुणावे

नेहमी निंदका, सन्मानित करावे

 

निंदक आहेत म्हणून,

आपण वंदक होतो

निंदक आहेत म्हणून,

आपण घडत असतो

 

असे हे निंदक नेहमी,

आपल्या पाळतीवर असावेत

असे हे निंदक नेहमी ,

आपल्या शेजारीच रहावेत

 

ते असतील शेजारी,

कृती आपली श्रेष्ठ होईल

ते असतील जवळपास

वर्तन आपोआप सुधारेल

 

झाडाची छाटणी केली,

झाड मस्त फोफावते

निंदनीय कृत्यापुढे,

वंदनीय कार्य बळावते

 

अश्या ह्या माझ्या चालू जीवनात

जे आलेत प्रत्यक्षात, अप्रत्यक्षात

 

त्या सर्व निंदकाचे मी,

आभारच मानतो

त्या सर्व निंदका मी,

असाच साथ द्या म्हणतो

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन

वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ माहेरची ओटी ☆ सौ. मुग्धा कानिटकर

☆ जीवनरंग ☆ माहेरची ओटी ☆ सौ. मुग्धा कानिटकर ☆ 

गेट वाजलं. मुलांचा आवाज ऐकू येऊ लागला. आत्ता भरदुपारी कोण आलं आहे असं मनात  म्हटलं आणि दार उघडले. मुलांसह तिला पाहून लगेच ओळखलं. दारातच पार्वती मला  नमस्कार करायला खाली वाकली आणि  पाठोपाठ मुलं सुद्धा. मला आवडलं पण  ही अशी अचानक भेट.

तिच्या चेहऱ्यावर हसू होतं  पण पापण्या ओल्या पाहून लगेच मी तिला माझ्या जवळ बसवलं. दोन मिनिटे झाली आम्ही निःशब्दच.

मुलं अंगणात पळाली होती.तिने हातात घेतलेले माझे हात अलगद कधी सुटले होते मलाच कळले नाही.

घोटभर पाणी पिताना तिच्या मनात काय तरी चालू आहे हे लक्षात यायला मला वेळ लागला नाही.ईकडच्या तिकडच्या गप्पा झाल्या. तिला मनमोकळ्या गप्पा मारताना पहिल्यांदा मी अनुभवत होते.

तीन वर्षांपूर्वी अशीच एकदा रात्री  ती घरी एकटी आली होती. डोळे सुजलेले, ओठ सुकलेले, चेहऱ्यावर तीव्र व्रण, तिची पार रयाच गेली होती. काय घडलं असावं याचा मला अंदाज आलाच. तिची समजूत काढली आणि  तिला धीर देऊन काय केले पाहिजे या विषयी सुचवले. प्रयत्नांती परमेश्वर म्हणत मी तिची ओटी भरली होती.

तिच्या चांगल्या संसाराला नवऱ्याच्या वाईट व्यसनांचे गालबोट लागले होते. तिने पतीस समुपदेशन केंद्रावर नेण्यासाठी आटोकाट प्रयत्न केले.  तिच्या तपस्येला उशीरा का होईना पण चांगले फळ लाभले होते.”देर है लेकीन दुरुस्त है” अशा उक्तीला सार्थ ठरवत नवऱ्याने तिला बचतगट स्थापन करण्यास प्रोत्साहन दिले होते.त्यामुळे तिला स्वतःची अशी एक खास ओळख त्या गावात

आईबापाविना  असणाऱ्या या  मुलीचा संसार उद्धवस्त होण्यापूर्वीच सावरला होता. मोठ्या समाधानाने सासरी जाणाऱ्या या माझ्या मानसकन्येला निरोप देताना माझेच डोळे भरून आले होते.

 

© सौ. मुग्धा कानिटकर

सांगली

फोन 9403726078

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मी आणि पाऊस ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

लेखिका, कवयित्री, निवेदिका, मुलाखतकार

व्याख्याती म्हणून निमंत्रित

लोकसत्ता, महाराष्ट्र टाईम्स, लोकमत, ठाणे वैभव अश्या अनेक नामांकित वृत्तपत्रात लेखन प्रसिद्, आध्यात्मिक लेख ही प्रसिद्ध

कोकण मराठी साहित्य परिषद-ठाणे शाखा, आचार्य अत्रे कट्टा– ठाणे या संस्थेच्या कार्यकारिणीवर कार्यरत तसेच

कोकण मराठी साहित्य परिषद-ठाणे तर्फे लेखिका म्हणून जेष्ठ नाटककार लेखक नाट्यदिग्दर्शक नाट्यअभिनेते श्री अशोक समेळ यांच्या हस्ते सत्कार २०१९ , अनेक सन्मान

☆ विविधा ☆ मी आणि पाऊस ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

पावसात मला भिजायला आवडतंच. बेभान होऊन पाऊस अंगभर गोंदवून घेण्यासाठी तर मी वेडीपिशी होते पण हव्या त्या वेळी हव्या त्या ठिकाणी आणि हव्या त्या आपल्या माणसासोबत धुँवाधार पावसात भिजण्याची माझी अनावर इच्छा प्रत्येकवेळी पूर्ण होतेच असं नाही.  माझी आणि माझीच वेडावणाऱ्या पावसाची गोष्ट…

माझ्या आयुष्यातला पहिला पाऊस  पहिला पावसाळा मी बघितला माझ्या इवल्या नाजूक डोळ्यांनी पण दुसऱ्या पावसाळ्यात मात्रं पावसाचे टपोरे थेंब अंगावर घेण्यापासून कुणीही रोखू शकलं नाही मला.. पावसातलं माझं  रूप बघून सगळ्यांना कोण आनंद झाला. कित्येक पावसाळे आले आणि गेले …रांगायला,चालायला लागलेली असताना कुतूहल म्हणून माझं पावसात भिजणं हळूहळू मागे पडत गेलं. पाऊस आला की ” सर आली धावून मडके गेले वाहून ” हे म्हणायला शिकलेल्या शाळकरी वयात फक्त माहीत होतं. दप्तर न भिजवता एका हाताने छत्री धरून दुसऱ्या हाताने गणवेश सावरत वाटेत आडव्या येणा-या खड्डयात थुईथुई नाचत घर गाठणं. मुसळधार पावसात कपडे, दप्तर भिजण्याची पर्वा न करता सायकल दामटवत रस्त्यावरून  बेफिकीरपणे जाण्याचं मला नेहेमीचं माझचं कौतुक वाटत राहायचं. खिडकीच्या गजातून हात बाहेर काढून तळहातावर पाऊसथेंब झेलण्यावरचं मला बऱ्याचवेळा समाधान मानावं लागलं. मैत्रींणींसोबत मजा म्हणून पावसात भिजल्यानंतर मिळालेला आईचा ओरडा , खाल्लेला मार आणि पुढे चार दिवस गळणारं नाक मला आजही विसरता आलेलं नाहीय…

खऱ्या अर्थानं मला पाऊस आपलासा वाटला  मी स्त्री असण्याची सगळी बंधन झुगारून पाऊस रोमारोमात भरून घ्यावासा वाटला जेव्हा माझ्यात ऋतूबदल झाला तेव्हा..एक नवाचं पाऊसबहर माझ्या मुक्कामाला आला.  आणि पाऊस मला माझा

जीवलगसखा प्रियकर वाटायला लागला.  मी डोळ्यांत पाऊस आणून पावसाची वाट पाहायला लागली  आणि तो येण्याच्या नुसत्या चाहुलीनेही कावरीबावरी होऊ लागली.  पाऊस मला  खुणवायचा  हातवारे करायचा तेव्हा मी मनोमन लाजायची, खट्याळ हसायची. माझ्यातल्या  कोवळ्या वृत्ती तरारून यायच्या. मी आंतर्बाह्य पावसाळी होऊन जायची.  मग सगळी बंधनं झुगारून एका अधिर उत्कटतेने प्रत्येक भेटीवेळी त्याच्या बाहुपाशात शिरून रीती व्हायची पण तरीही प्रत्येकवेळी नव्याने भेटणारा तो पाऊस मात्र मला अजूनही परिपूर्ण वाटत नव्हताच. चिंब भिजल्यावरही माझ्या मनाचा एक कोपरा कोरडाच  असायचा. काहीतरी चुकल्यासारखं वाटत राहायचं….मला काहीतरी गवसलंय पण… अजून जे खूप मौलिक आहे पण ते हवं होतं. माझ्या  नजरेला कशाची तरी ओढ होती .. कुणाची तरी आस होती. . पण कशाची आस, कुणाची ओढ?

आणि मग अशाच एका मुसळधार पावसात मला तो भेटला. भर पावसात छत्री असूनही ती न उघडता हात पसरून पाऊस कवेत घेणारा.. पावसाइतकाच प्रिय वाटणारा माझा  प्रियकर.  “पाऊस ओढ”  हा आम्हां दोघांमधला सामाईक दुवा ..अजून काय हवं होतं मग..!

मला पावसाइतकीच त्याचीही ओढ वाटायला लागली. ” ये बारीश का मौसम है मितवा, ना अब दिल पे काबू है मितवा” असंच काहीसं मी  गुणगुणायला लागलेली. आभाळ भरून आलं की अंगात वारं भरल्यासारखी मी त्याला भेटायला जायची.  तेव्हा तो म्हणायचा, ” जब तू हसती है, बारीश होती है ” तेव्हा माझा उभा देह पाऊस होऊन जायचा  मला त्याच्यासोबत पावसात भिजायचं असायचं. त्याचा हात हातात घेऊन त्याला बिलगून धो धो कोसळणारा पाऊस मनात , देहात साठवून घ्यायची मी.. माझ्या ओल्या केसातून ओघळणारे पाऊसथेंब तो तळहातावर घ्यायचा आणि  पिऊन टाकायचा तेव्हा तर भर पावसात माझे भरून आलेले डोळे तो त्याच ओल्या तळहाताने पुसायचा. तेव्हा ती म्हणायची, ” आपल्या घराचं नावही आपण पाऊसच ठेवायचं.” पावसाचे काही थेंब वरच्या वर अलगद झेलून तो माझ्या ओंजळीत द्यायचा.

असे कितीतरी प्रेमपावसाळे आम्ही  अनुभवले. जगण्याचा उत्सव केला. माझ्या मनातला एक कोरडा असलेला कोपरा चिंब चिंब  भिजून गेला होता. माझ्यातल्या अपूर्णत्वाची जागा पूर्णत्वाने घेतली होती. नदी दुथडी भरून वाहत होती. मनातल्या समुद्राला भरती आली होती. “आकंठ” या शब्दांची अनुभूती मी साक्षात जगत होती. माझ्या मनात ढोलताशे वाजत राहायचे. त्याने माझ्या आत दडून बसलेला मनमोर शोधून द्यायला मदत केली होती. मी तो मनमोर प्राणपणाने जपला त्याच्यासोबतीनं.. मनमोराचे पिसारा फुलवून नाचणे हे मी आतल्या आत अनुभवत राहिली.

पण मग एक दिवस खूपच मोठा अवकाळी पाऊस आला. मी आणि माझ्या प्रियकरानं भर पावसात  पावसाच्या साक्षीनं हातात हात घेऊन रंगवलेली सगळी स्वप्नं एका क्षणात माझ्या नजरेच्या टप्प्यापासून फार दूरवर वाहून गेली.  पाऊस झेलून परतताना त्यानं मला दिलेलं आणि मी  खिडकीवर टांगून ठेवलेलं चिमणीचं घरटंही  उडून खाली पडलं. खिडकीचे गज हातात घट्ट पकडून मी  पुढचे कित्येक दिवस बाहेरच्या पावसाकडे मुद्दाम दुर्लक्ष करत माझ्या डोळ्यातूनचं पाऊस सांडत राहिली. आणि तो पुन्हा कधीच पावसात भिजणार नसल्याचा निरोप माझ्या जवळ ठेऊन गेला.

माझं अवखळ ,अल्लडपण मागे पडलं, माझं गावं बदललं , घर बदललं घरातली माणसं बदलली  पण पाऊस मात्रं होता तसाचं राहिला माझा पहिला वहिला प्रियकर…

मला आजही त्याच्या आठवणीत नखशिखांत पावसात भिजावसं वाटतं. आता मी पावसात माझा  पाऊसवेडा प्रियकर पाहते.

माझ्या  बदललेल्या जगात मला हवाहवासा पाऊस सतत माझा पदर धरून  असतोही.  पण आता मात्रं निर्बंधांच्या साखळ्या अधिक मजबूत झालेल्या आहेत.

आकाशात काळे ढग दाटून आले की स्वतःची पावसात भिजण्याची इच्छा बाजूला ठेऊन दोरीवर वाळत घातलेले कपडे भिजू नयेत याची मला काळजी घ्यायची असते. घरात पाऊस येऊ नये म्हणून  दारं खिडक्या गच्च लावून घ्यायच्या असतात.. घ्याव्या लागतात.  घरातल्यांच्या  “अद्रकवाली चाय” च्या व   “गरमागरम कांदाभजीच्या”  फर्माईशी पुऱ्या करायच्या असतात. खिडकीतून दिसणारा पाऊस बघत बघत कपात चहा ओतताना प्रियकरासोबत पावसात भिजलेली , मनात पुन्हा पुन्हा उसळी मारून वर येणाऱ्या त्या  ” ओल्या आठवणी'”  डोळ्यांच्या तळ्यातून डोकं वर काढून बाहेर येऊ नयेत म्हणून जिवाचा आटापिटा करायचा असतो. केलेला असतो.. साडीचा पदर कमरेला खोचून पावसात भिजून आलेल्या त्याच्या ‘ “टाॕवेल दे ”, शर्ट दे'” सारख्या मागण्याही पूर्ण करायच्या असतात. शाळेतून भिजून आलेल्या मुलांची दप्तरं सुकवायची असतात.  या सगळ्या धावपळीत मला माझा पाऊस सतत खुणावत असतो, प्रेमाने हात पुढे करत असतो. मला मिठीत घेण्यासाठी आसुसलेला असतो पण मला त्याच्याकडे एक साधा कटाक्ष  टाकायलाही आताशा उसंत मिळत नाही…

माझी धांदल संपत आलेली असते. तेव्हा पाऊस वेड्यासारखा धुँवाधार बरसून निघून गेलेला असतो. खिडकीचे गज धरून पुढचा कितीतरी वेळ मी  डोळ्यातून अखंड पाऊस सांडत राहते पाठमोऱ्या पावसाकडे बघत….

 

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

9870451020

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लॉकडाऊन चार नंतर भेटलेल्या मैत्रिणी ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

☆ विविधा ☆ लॉकडाऊन चार नंतर भेटलेल्या मैत्रिणी ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

अनलॉक ४ नंतर भेटलेल्या मैत्रिणी

(जूना लेख नवीन बदलांसह)

ठिकाण: लोणावळा

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अरे अजून कशी आली नाही ही स्वारगेट हिरकणी एव्हान यायला पाहिजे होती. माझी तर आता  निघायची वेळ झाली असे विचार बोरिवली शिवनेरीच्या मनात येत असतानाच लोणावळा एक्झीट मधून अर्ध गोलाकार वळण घेत धापा टाकत. ठाणे – स्वारगेट हिरकणी अवतरली.

अग हो, हो,  जरा हळू,

उशीर झाला म्हणून एवढं जोरात यायचं? लागलं असतं की तुलाच.. शिवनेरी जरा काळजीच्या भावनेने म्हणाली..

ए शिवनेरी Sorry हं,  जरा उशीरच झाला मला, आता नेहमी सारख्या गप्पा नाही जमणार गडबड होईल इती – हिरकणी

‘अगं असू दे ‘ गप्पा काय संध्याकाळी परत येताना करु, तू आधी ३० रुपयाचा नाष्टा करुन ये. उपमा घे आज. मस्त आहे गरम. पण त्या आधी हे घे आधी सॅनिटायझर. स्वच्छ हात धू. कोण कोण असतं गाडीत देव जाणे. आपणच आपली काळजी घ्यायची

हो गं,  किती वाईट दिवस होते मागचे.  डेपोत नुसते पडून होतो. एक दोन दिवसात आपले मेकॅनिक मामा येऊन फक्त आपल्याला चालू करुन जायचे आपण कायमचे बंद पडू नये म्हणून खूप आठवण यायची सगळ्यांची

अग जातीयस ना नाष्ट्याला

नको ग, अजून काही दिवस बाहेरचे नको. घरुनच डबा आणलाय मी. स्वारगेटला पोहोचले की खाईन.

अगं पण एवढा घाट चढून आलीयस. दमली असशील की निदान चहा तरी घे.

नको गं शिवनेरी,  सध्या नुसते गरम पाणी.  तो बघ थर्मास भरुन ठेवलाय. निघताना घेईन पाणी.

शिवनेरी, घाटावरुन आठवलं,मला तर बाई या आपल्या कोकणातल्या मैत्रिणींच नवल वाटत. कशा एकदम फीट ना. ती अशोक लेल्यांची सून माहित आहे ना.

‘हो ना गं’ किती ते मोठे घाट असतात ना कोकणात. या आपल्या कोकणातल्या मैत्रीणी एकदम बिंधास्त. मी  मात्रफारशी त्या मार्गावर जातच नाही

आपला हा पुणे-मुंबई बोर घाटच बरा.

हो ना, नाहीतर आपण. अमृतांजन पाँईंट ला केंव्हा टाटा करतो असं होऊन जातं आपल्याला.

हिरकणी , तो बघ अश्वमेध येतोय, दादर – पुणे स्टेशन, बोलायचं का त्याच्याशी

“काही नको ग”, तो कुठं आपल्याशी बोलतो ग्रुप वर. तो फक्त  पुणे – दादर – पुणे  शिवनेरींशींच  बोलतो. आपला ग्रुप त्यानेच बनवून दिला अन   एकंदरीत  पुणे – दादर –  पुणे ची मक्तेदारी   आपण सगळ्या  ग्रुप मध्ये आल्यामुळे  मोडली गेलीय ना , त्याचे  त्यांना  दुःख आहे ग , लक्ष देऊ नकोस तू . आणि मुख्य म्हणजे तो दोन्हीकडच्या कंटॅन्मेंट झोन मधून येतो. येतोय तो, मास्क घाल निट. आणि मगाच पासून सारखं खालीवर का करतीयस हा मास्क. अजिबात असे करायचे नाही हं

हो ग बाई, अजून नीट सवय झाली नाही ना गं. पण घेईन काळजी

ए आपली

‘परळ – सातारा’ ती नाही ग दिसली ब-याच दिवसात नेहमीच्या वेळेला इथे

अग गणपती असतो ना तिच्याकडे  साता -याला. मला म्हणलेली  एक दिवस  पुणे – सांगली रूट  करून ये दर्शनाला . पण नाही ग जमलं . उद्या परत जॉईन होतीय ती  परळ डेपोत.

तिने गणपती विसर्जनाचे फोटो पाठवलेले की . नाही पाहिलेस  ग्रुपवर ?

नाही ग , राहून गेलं . पण ही परळ खूप सरळ हो . किती दमते  बिचारी.   आपण पुण्यापर्यतच जातो ग बिचारीला साता-या पर्यत जाऊन रात्री उशीरा पर्यत परत परळला  यावे लागते. खूपच हेक्टिक काम आहे तिचे.

हो ना. कुणाला कधी नाही म्हणत नाही. ग्रुप मध्ये सगळ्यात जास्त टोल पार्टी देणारी म्हणून तिचे सगळेच कौतुक करतात. आता उद्या मुद्दाम जरा  जास्त थाबते लोणावळ्याला अन कंदी पेढ्याचा प्रसाद. तिच्याकडून घेऊनच निघेन म्हणते

शिवनेरी,  ती बघ यशवंती .हाक मारतीय आपल्याला

यशवंती, ये  चहा घेऊन जा ..

अग नको  अजून चार चकरा मारायच्या आहेत  लोणावळा ते कार्ला आणि मी अजून बाहेरचे  काहीच खात नाही सध्या. भेटू परत केंव्हातरी

कमाल आहे ना या मुलीची.  केव्हा ही बघा ही आँन लाईन असतेच. जवळच्यांची खूप काळजी घेते, मैत्रीण असावी तर हीच्या सारखी

खरंय ग

ए शिवनेरी, तो बघ तुझा राजा हिंदुस्तानी आला ‘

“आले का सगळे का कोण राहिलय”

या आवाजाने मला जाग आली तेंव्हा ही शिवनेरी आणी समोरची हिरकणी माझ्याकडे बघून गालातल्या गालात हसतायत असा भास मला झाला

तरीही त्यांचा संवाद संपत नव्हता:-

हो हो , चल आज खूप वेळ झाला, आता बोरिवलीला केव्हा पोचणार देव जाणे

नीट जा ग , सायन पासून पुढे बांद्रया पर्यत प्रत्येक  ९ मिटरवर खोल खडडे आहेत. कंबरडं मोडून जाईल

हो हो  काळजी घेईन, थॅक्स हं

मोरया ?

एसटीचे अनलॉक पर्व  ????

लोणावळ्याला जमू सर्व

 

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (22) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।।22।।

 

अनुचित देश औ” काल में, अनुचित जन को दान

बेमन, निंदा-क्रोध से ,जो वह तामस दान ।।22।।

 

भावार्थ :   जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ।।22।।

 

The gift which is given at the wrong place and time to unworthy persons, without respect or with insult, is declared to be Tamasic. ।।22।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 65 ☆ व्यंग्य >> उनकी यादों में हम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक सार्थक  व्यंग्य  ‘उनकी यादों में हम’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा  और मानवीय व्यवहार पर उसके प्रभाव पर तीक्ष्ण  प्रहार किया है। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 65 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी यादों में हम

  वे मेरे पुराने मित्र थे। एकाएक उन्हें अन्यत्र एक स्वर्णिम अवसर मिला और वे ‘निष्ठुर परदेसी’ की तरह हमारे शहर के प्यार की अवहेलना करते हुए नये सूरज की तलाश में चले गये। बीच बीच में पता चलता रहा कि वे स्थितियों को अपने पक्ष में करते, ‘लफड़ों’ से बचते, अपनी प्रगति का मार्ग साफ कर रहे हैं और मुस्तकिलमिजाज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। मनुष्य सभी देवताओं को फूल-प्रसाद चढ़ाता जाए,कभी किसी देवता को रुष्ट न करे,तो इस असार संसार में विकास के द्वार स्वतः खुलते जाते हैं।

बीच बीच में पता चलता था कि वे काम-काज से हमारे शहर आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन वे मेरे घर कभी नहीं आये, न मुझे कभी संदेसा भेजा। उनके आने और इस तरह चले जाने की खबर पाकर मैं दुखी होता रहा और वे मुझे बार बार दुखी करते रहे। कई बार सुना कि वे मेरे मुहल्ले तक आये और अपना कोई काम साधकर, हवाओं में अपनी खुशबू छोड़ते हुए चले गये। फूलों, पत्तों, मुहल्ले की गलियों और गलियों के कुत्तों ने उनके आने की खबर दी, लेकिन उन्होंने मेरे घर की तरफ रुख़ नहीं किया, न मुझे याद किया।

फिर उड़ती खबरें मिलीं कि उनकी प्रतिभा और निखरी है तथा वे शिक्षा मंत्री की माकूल सेवा करके किसी सरकारी अकादमी के अध्यक्ष बन गये हैं। उसके बाद एक दिन एक लंबा-चौड़ा लिफाफा मेरे घर में गिरा। खोल कर देखा, वह उसी अकादमी के एक कार्यक्रम की सूचना थी जिसमें मुझे ‘शोभा बढ़ाने’ के लिए आमंत्रित किया गया था। अध्यक्ष के पद के ऊपर मित्र महोदय का नाम अंकित था।

बड़ी देर तक सोचता रहा कि इस सरकारी अकादमी को मेरे जैसे मामूली आदमियों की याद कैसे आयी। हम तो अपने शहर में भी ‘शोभा बढ़ाने’ के काबिल नहीं समझे जाते,तो शहर के बाहर वालों को हमसे यह उम्मीद कैसी? सोचते सोचते ज्ञान का विस्फोट हुआ कि यह कोई आमंत्रण नहीं था, यह तो केवल सूचना थी कि हर आमोख़ास को मालूम हो कि हमारे मित्र अकादमी की बुलन्द कुर्सी पर बैठ चुके हैं और इस देश के गली-नुक्कड़ में बैठे उनके भूले-बिसरे परिचितों का फर्ज़ बनता है कि उन्हें अपनी बधाई भेजें।

लिफाफे में फिर से झाँक कर देखा तो उसमें एक पत्र भी था। पत्र अकादमी के पैड पर था जिसमें बड़े अक्षरों में अध्यक्ष का नाम था, और बाकायदा पत्र- क्रमांक आदि अंकित था। पत्र में लिखा था कि उन्हें अध्यक्ष के पद पर बैठा कर फालतू झंझट में डाल दिया गया है। उन्हें पुराने मित्रों की बहुत याद आती है और उनसे मिलने का बड़ा मन करता है। मेरे लिए अनुरोध था कि जब भी उनके शहर जाऊँ, उनसे मिलना न भूलूँ। पत्र में उन दिनों को याद किया गया था जब कभी हम शाम को सदर बाज़ार में आवारागर्दी करते थे और पुलिया पर बैठकर मूँगफली चटकाते थे। काफी मार्मिक पत्र था।

मैंने बधाई भेजकर उनकी जयजयकार करने का फर्ज़ पूरा किया। पत्र में उन्हें लिखा कि उनके अध्यक्ष बनने से मेरे जैसे उनके सभी मित्र खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं और हम दिन-रात पालथी मारकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे इसी तरह नयी बुलन्दियाँ छूते रहें और हम मित्रों को उन पर गर्व करने का मौका देते रहें।

इसके बाद उनका पत्र तो नहीं आया, लेकिन कार्यक्रमों के कार्ड बराबर आते रहे। अपने खर्चे पर कहीं जाने से, पहले अपनी शोभा बिगड़ जाती है, इसलिए मैं उनके कार्यक्रमों की शोभा नहीं बढ़ा पाया।

एक बार उनके शहर जाने का मौका मिला। उनके कार्यालय गया। वे अपने पूरे गौरव के साथ उपस्थित थे। मुझसे ऐसे गले मिले जैसे शायद  सुदामा से कृष्ण से भी न मिले हों। इतनी देर तक मुझे भींचे रहे कि मुझे घबराहट होने लगी। छूटा तो तीन चार लंबी सांसें लेकर सामान्य हुआ। उन्होंने अपने सचिव को बुलवाया, मेरे लिए चाय मंगायी। बड़ी देर तक पुराने दिनों और पुराने मित्रों को याद किया। बीच बीच में कहते रहे, ‘कहाँ फँस गया, यार!’
विदा लेते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर बड़ी देर तक मेरे कंधे पर सिर धरे रहे। फिर चपरासी के हाथ से मेरा ब्रीफ़केस बाहर भिजवाकर सरकारी कार से मुझे गंतव्य तक पहुँचाया।

इस प्रेम-मिलन के कुछ दिन बाद सरकार बदल गयी और, जैसा कि होता है, सभी राजनीतिक नियुक्तियों पर झाड़ू मार दी गयी। पता चला कि मेरे मित्र भी इस सफाई अभियान में बुहार दिये गये। उसके बाद उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली।
कुछ दिन बाद फिर शहर के फूलों पत्तों और हवा में सरगोशियाँ शुरू हुईं कि वे आते और जाते रहते हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी अपने आने की सूचना नहीं दी। एक बार वे एक कार की अगली सीट पर बैठे हुए धीमी रफ़्तार से मेरी बगल से गुज़रे। उन्हें देखकर मैंने प्रसन्नता दिखाते हुए दाँत निकाले, लेकिन वे मुझे ऐसे देखते हुए निकल गये जैसे मैं पारदर्शी काँच का बना हूँ।

एक दिन एक मित्र ने बताया कि वे एक ‘ज़रूरी’ काम से उसके घर पधारे थे और चूँकि ‘काम’ था, इसलिए बड़ी देर तक आत्मीयता के साथ उसके घर में बैठे थे। उसने बताया कि बातचीत में कहीं मेरा ज़िक्र आया था, लेकिन उन्होंने माथे पर बल देकर कहा था, ‘उन्हें जानता तो हूँ, लेकिन कोई खास परिचय नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – # 63 ☆ मानस प्रश्नोत्तरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  ?? मानस प्रश्नोत्तरी?? ☆

प्रश्न- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।

 

प्रश्न- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।

 

प्रश्न- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परकाया प्रवेश आना चाहिए।

 

प्रश्न- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।

 

प्रश्न- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।

 

प्रश्न- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।

 

प्रश्न- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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