हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हर समय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  हर समय

 

समय सबसे धनवान है, समय बड़ा बलवान है। समय से दिन है, समय से रात है। जीवन समय-समय की बात है।

समय दौड़ता है। बच्चा प्राय: समय के आगे-आगे दौड़ता है। बच्चे की खिलखिलाहट से आनंद झरता है। युवा, समय के साथ चलता है। वह वर्तमान से जुड़ता है, सुख भोगता है। सुखभोगी मनुष्य धीरे धीरे तन और मन दोनों से धीमा और ढीला होने लगता है। यथावत दौड़ता रहता है समय पर  राग, अनुराग,भोग, उपभोग से बंधता जाता है मनुष्य। समय के साथ नहीं चल पाता मनुष्य। साथ न चलने का मतलब है कि पीछे छूटता जाता है मनुष्य।

मनुष्य बीते समय को याद करता है। मनुष्य जीते समय को कोसता है। ऊहापोह में जीवन बीत जाता है, जगत के मोह में श्वास रीत जाता है। आनंद और सुख के सामने अपने अतीत को सुनाता है मनुष्य, अपने समय को मानो बुलाता है मनुष्य। फिर मनुष्य का समय आ जाता है। समय आने के बाद क्षण के करोड़वें हिस्से जितना भी अतिरिक्त समय नहीं मिलता। मनुष्य की जर्जर काया  द्रुतगामी समय का वेग झेल नहीं पाती। काया को यहीं पटककर मनुष्य को लेकर निकल जाता है समय।

समय आगत है, समय विगत है। समय नहीं सुनता समय की टेर है। जीवन समय-समय का फेर है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ कितनी और निर्भया ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “कितनी और निर्भया ”.     डॉ  मुक्ता जी ने  इस आलेख के माध्यम से यौन अपराध  और उससे सम्बंधित तथ्यों पर विस्तृत विमर्श किया है। यह समझ से परे है कि इस तथ्य को सामयिक कहें या असामयिक, यह निर्णय आप पर है। किन्तु,  दुखद यह है कि अगली दुर्घटना होते तक या दुखद ब्रेकिंग न्यूज़ आते तक समाज निष्क्रिय क्यों रहता है ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।  )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ कितनी और निर्भया

 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या, उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख, मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं, चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा, गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं। लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद-हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे अपराध की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए? संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा। और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं। वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे, तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि भय  बिनु होइहि न प्रीति तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए कठोर दंड व्यवस्था का प्रावधान करना हमारा प्रमुख दायित्व होगा, ताकि समाज में सत्यम्,  शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता  ‘अनुरागी’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆ नजरिया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक सामायिक कविता  “नजरिया ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆

☆ नजरिया ☆

कल अचानक

मानवाधिकार

संगठन के

पदाधिकारी

से बात हो गई .!

हमने पूछा

आपकी

मानवता

बेटियों पर

कहाँ सो गई..?

सुनकर थोड़ा

झुंझलाए.!

फिर थोड़ा

करीब आये..!!

बोले हम तो

शिकायत पर

काम करते हैं.!

साबित होने पर

हिदायत तमाम

करते हैं..!!

हमने कहा

आपको

निर्भया, प्रियंका

के साथ घटित

घटना का इल्म है..?

झट बोले हां

ये तो बहुत बड़ा

जुल्म है..!

हमने बात

आगे बढ़ाई..!

कुछ आगे भी

बोलो भाई..!

जुल्म तो सबको

पता है.!

पर उस बेटी के

पास कुछ न

बचा है..!!

बोला हम इसकी

घोर निंदा करते हैं.!!

हमने कहा क्या आप

उन्हें ज़िंदा करते हैं..?

यह सुनकर

वह थोड़ा वहां से

खिसके..!

थोड़ा झिझके..!

फिर थोड़ा हुए रोबीले.!

एक नए अंदाज़ में बोले.!

महिलाएं भी इसमें

हैं जिम्मेदार.!

फैशन का है

उन पर भूत सवार..!!

हमने कहा

बस करो यार..!

सारी बंदिशें

पाबंदी सिर्फ

क्या बेटियों पर.?

और बेटों की आज़ादी

बुलंदियों पर..!!

बेटियों पर नजर.!!

बेटों से बे-खबर.!!

यही तो हमारी

कमजोरी है.!!

नजरिया बदलना

बहुत जरूरी है..!!

अब तो कुछ नेता भी

बेतुके बयान देते हैं..!

कुछ तो जाति धर्म

का नाम देते हैं..!!

इन्हें हर बात में

राजनीति याद

आती है..!

इनकी मानवता

जाने कहाँ सो जाती है..?

पर आप तो

मानवाधिकार के

पदाधिकारी हैं.!

आपकी सबसे बड़ी

जिम्मेदारी है..!!

इनकी अस्मत

बचाएं.!

सुरक्षा का माहौल

बनाएं..!!

“संतोष” बेटियों से

ज्यादा बेटों पर

लगाम लगाएं

उन्हें माँ, बहिन, बेटियों

का सम्मान सिखाएं..!!

तब ही आगे

बढ़ेंगी बेटियाँ.!

तब ही आगे

पढ़ेंगी बेटियाँ..!

तब ही आगे

बचेंगी बेटियाँ..!!

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ बाबासाहेबांचे महापरिनिर्वाण आणि हृदयात वाहत असलेली दुःखाश्रूची धार ☆ – श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हम भविष्य में श्री कपिल जी की और उत्कृष्ट रचनाओं को आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

आज प्रस्तुत है  उनका  स्वर्गीय डॉ बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर महापरिनिर्वाण दिवस पर  अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ विशेष आलेख  “बाबासाहेबांचे महापरिनिर्वाण आणि हृदयात वाहत असलेली दुःखाश्रूची धार”।  )

 

बाबासाहेबांचे महापरिनिर्वाण आणि हृदयात वाहत असलेली दुःखाश्रूची धार

 

साल 1956. डिसेंबर महिन्याचा सहावा दिवस. अन् हृदयत धडकी भरवणारी, उभ्या भारताच्या काळजाचा ठोका चूकवणारी बातमी सुर्य प्रकाशाच्याही अती वेगाने भारतासह जगात पसरते. समतेची, ज्ञानाची आणि न्यायाची ज्योत पेटवून ती अखंडपणे तेवत ठेवण्याची जबाबदारी प्रत्येक भारतीयांवर सोपवून ज्ञानाच्या प्रखर तेजाने तडपणारा क्रांतीचा सुर्य, प्रत्येक भारतीय जनमानसाच्या डोळ्यांचे तेज असणारा एक प्रखर तेजोमेघ दिल्लीत मावळतो. आणि न भूतो न भविष्यति असा अश्रूंचा महापूर संपूर्ण भारतातून एकसोबत वाहतो.

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचे महापरिनिर्वाणाची बातमी एकून धरणीही शहारते. या भारत भूमीची शान आज तिच्या कुशीत शांत झोपी गेली होती. आकाशात तडपणारा सुर्यच्याही अंगाला काटे फुटले असावेत. महासागरातही एवढा ओलावा नसेल एवढी ही भारतभूमी पाणावली होती. ज्वालामुखीच्या जबरदस्त स्फोटाने प्रचंड हादरे बसावेत तसा दिल्लीचा दरबार हादरला. जनसामान्यांपासून ते तत्कालीन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपतींपर्यंत सगळ्यांचीच पायाखालची जमीन सरकली. त्या गुरूवारच्या रात्री दोनच्या सुमारास ‘त्या’ तेजोमेघाला घेऊन विमान मुंबईला उतरलं. दादरस्थित राजगृहावर नेण्यात आले. तोपर्यंत अरब सागरालाही लाजवेल. असा प्रचंड जनसागर तेथे धडकला होता. दादरच्याच शिवाजी पार्कवर अरबी समुद्राच्या किनारी चैत्यभूमीवर उभ्या भारताचा भाग्य विधाता चंदनाच्या चितेवर चिरनिंद्रेत झोपला होता. तेव्हा तो अरब सागरही बाबासाहेबंना डोळे भरून पाहण्यासाठी, वंदन करण्यासाठी दादरच्या किनारी धावून आला. आणि बाबासाहेबांचे अंतीम दर्शन घेऊन ढसाढसा रडला. आणि समोर उभा असलेला बाबासाहेबचा विचारांचा जनसागर पाहून शेवटचे बाबासाहेबांच्या  पायावर नतमस्तक होऊन माघारी फिरला.

बाबासाहेबांनी शेवटचा श्वास आजपासून 63 वर्षाआधी दिल्लीत घेतला. 56 साली डिसेंबरच्या पहिल्या गुरूवारी ही बातमी भारतासोबतच जगभर पसरली. आणि आकाशात सुर्य मावळावा तसा ज्ञानाच्या प्रखर तेजाने तडपणारा क्रांतीसुर्य भारतात मावळला आणि जनसामान्यांच्या मनांत काळोख झाला. पण बाबासाहेबांनी त्या गर्द काळोखातही जीवनरूपी रस्ता पार करण्यासाठी संविधान नावाची एक ज्योत भारतीय नागरिकांच्या हाती दिली. आणि प्रत्येक परिस्थितीला तोंड देण्यासाठी आपल्या विचारांचं सुरक्षाकवच प्रत्येक भारतीयाला दिले.

बाबासाहेबांच्या पश्चात 63 वर्षापासून भारतीय संविधान सामान्य माणसाचं, पददलित,  गोरगरिब जनतेचं आणि स्त्रियांची रक्षण करतेय. अमानवी अत्याचाराने भरलेल्या त्या विषमतावादी सापाला आपल्या विचारांच्या धारेने ठेचून काढतंय.

संविधानाच्या  अंमलबजावणीच्या दिवसापासून ते आज पावेतो काल परवाच हैदराबादला प्रियंका रेड्डी सोबत पिशाची वृत्तीचा नराधामांनी माणूसकीला काळीमा फासणारी घटना घडली. तशा घटना तेव्हापासून एव्हाना त्याच्याही आधीपासून घडताहेत. मग ती दिल्लीची निर्भया असो, कि खैरलांजीची प्रियंका भोतमांगे, जम्मूची आसिफा असो कि माग हैदराबादची प्रियंका रेड्डी. नाव, चेहरे, ठिकाण बदलतंय. नराधामांची कृती मात्र तीच. असले पिशाची कृत्य करणारे लोकं त्या मानसिकतेचे असतात. जे वासनेची भूक भागवण्यासाठी स्वतःच्या घरचे दरवाजे तोडायलाही मागे पुढे पाहणार नाहीत. अशा नीच मानसिकतेच्या लोकांची शिक्षा एकच आणि ती म्हणजे अंत. नव्हे क्रूर अंत.

पण प्रश्न असा उपस्थित राहतो. की अशा लोकांना शिक्षा देण्यात कायदा कमी पडतोय का?  मागील काही दिवसांपासून सोशल मिडियाच्या माध्यमातून कायद्यावर, प्रशासनावर बोट ठेवलं जातंय. काहींनी तर कायदा पूर्णपणे निष्क्रिय आहे असे शिक्कामोर्तब देखील केले. माझ्या वाचनात आलेल्या ज्या काही ट्विट किंवा फेसबूक, व्हाटसअॅप वरिल मॅसेज होते. त्या मॅसेजेस किंवा नेटकरी बांधवांबद्दल किंवा त्याच्या ट्विटस बद्दल काही म्हणायचे नाही. पण एक गोष्ट मी जरूर म्हणेन की ज्या दिवशी संविधानाचा स्विकार केला गेला त्या दिवशी म्हणजे 26 नोव्हेंबर 1949 रोजी ‘ संविधान कितना ही अच्छा क्यो ना हो वो अंततः बुरा साबित होगा अगर उसे इस्तेमाल मे लाने वाले लोग बुरे होंगे और संविधान कितना ही बुरा क्यो ना हो वो अंततः अच्छा साबित होगा अगर उसे इस्तेमाल मे लाने वाले लोग बुरे होंगे इसलिए जनता या राजनीतिक दलों को संदर्भ मे लाये बिना संविधान पर कोई भी टिप्पणी करना मेरे विचार मे व्यर्थ है’  हे स्टेटमेंट दस्तुरखुद्द डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच आहे. आणि मला वाटतं जे कायदा व प्रशासनावर बोट ठेवताहेत त्यांना. हे नक्कीच समाधानकारक उत्तर आहे. आणि बाबासाहेबांचे ते विधान व्हीडीओ स्वरूपात युटयुब किंवा गुगलवर अगदी सहज सापडेल.

कोणावर टिका करायची नाही. किंवा माझं कोणाशी वैर नाही. फक्त मागील दिवसांमध्ये जे सोशल मिडियाद्वारे कायदा कमकुवत दाखवण्याचा ट्रेड चालू आहे. त्यावर आणि त्यासारख्या अनेक प्रश्नांवर बाबासाहेबांचं वरिल स्टेटमेंट अगदी योग्य उत्तर आहे असं मला वाटतं. कायदा कितीही कठोर असला तरी त्याचा अंमल योग्य होत नसेल तर त्यात कायद्याची चूक नसते तर तो राबवणा-यांची चूक असते. जर 2006 ला खैरलांजीची प्रियंका भोतमांगे आणि आजवर जेवढे बलात्कारच्या घटना घडल्या त्यांच्या गुन्हेगारांना जर फाशी किंवा देहांताची शिक्षा झाली असती तर आज हैदराबाद मध्ये प्रियंका रेड्डीला नरक यातना सोसाव्या लागल्या नसत्या. प्रियंका रेड्डीच नव्हे तर असंख्य त्या मुली ज्यांना नराधामांच्या वासनेला बळी पळावे लागले नसते. आणि आजवर ज्याही मुली या नराधामांच्या वासनेला बळी पडल्या आहेत त्यांना शिक्षा झाली तरच येणा-या काळात आपल्या आया-बहिणी सुरक्षित राहू शकतील. त्यासाठी  कायद्याचे काटेकोरपणे पालन व्हावे. असेच वाटते. जेणे करून भविष्यात अशा घटना घडणार नाहीत.

बाबासाहेबांना आदरांजली वाहत असतांना डोळ्यांतली एक धार त्या सर्व पिडीतांच्या दुःखासाठीही वाहत आहे.

 

 

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार (महाराष्ट्र)

मो  9168471113

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌।।10।।

 

मरण समय में अडोल मन से हो भक्ति से युक्तओै योग बन से

भ्रू मध्य प्राणों को साध सम्यक कर याद मिलना अचल अमर से।।10।।

 

भावार्थ :  वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।।10।।

 

At the time of death, with unshaken mind, endowed with devotion and by the power of Yoga, fixing the whole life-breath in the middle of the two eyebrows, he reaches that resplendent Supreme Person.।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 18 – OM ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “OM.)

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 18

☆ OM ☆

 

The sky is in complete disarray today-

There is a lot of helplessness

In its flowing silver hair,

Its eyes have lost the twinkle,

The clouds have covered

Its luscious lips, forbidding it to speak,

The red moon on its forehead

Seems ferocious, as if on a revenge,

And bats fly all over the periphery

Crying aloud to hunt their preys.

 

I

Simply close my eyes,

Breathe in and out gently

Summoning your light O Lord,

And chant “Om”!

 

When I open my eyes again,

There is complete calm!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  बीज

 

जलती सूखी ज़मीन,

ठूँठ से खड़े पेड़,

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे,

दरकती माटी की दरारें,

इन दरारों के बीच पड़ा

वह बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ,

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र  है,

यह जो समाये है

विशाल संभावनाएँ

वृक्ष होने की,

छाया देने की,

बरसात देने की,

फल देने की,

फिर एक नया

बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ प्रेम ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह कहानी  ‘प्रेम’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । मनुष्य मोह माया के मोहपाश में  बंधा हुआ यह भूल जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के अतिरिक्त और स्वयं से अधिक कोई भी सगा नहीं है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 

 कथा-कहानी  – प्रेम 

 

शहर के वयोवृद्ध नेता एवं उद्योगपति उमाकान्त जी का कल देहावसान हो गया। उनकी विशाल कोठी के बरामदे में उनका पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा हेतु तैयार रखा था। पूरा परिवार, चारों बेटे-बहुयें, तीनों बेटियां-दामाद एवं नाती पोते मोहल्ले वाले एवं पार्टी के सदस्य एक ओर खडे़ थे। पंडितजी का इशारा मिलने पर ज्यों ही उनको उठाने का प्रयास हुआ, सब का तीव्र क्रंदनयुक्त रुदन चालू हो गया।

पत्नी, बहुऐं दहाड़ें मार कर रोने लगीं, बेटे भी- बाबूजी आप क्यों चले गये अब हम कैसे रहेंगे-ऐसा कह कर फफक पडे, नाती पोते तो दादाजी को मत ले जाओ ऐसा आग्रह करने लगे, बडा पोता तो बाकायदा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। पार्टी सदस्य भी रुमाल में आंखें ढंक कर रोने जैसा कुछ करने लगे-आप नहीं होंगे तो पार्टी कैसी चलेगी ऐसा कुछ बोलते जा रहे थे। बेटियों ने सामूहिक मांग कर दी कि बाबूजी को खोल दो। मंझली बेटी तो अर्थी पर ही पछाड खाकर गिर पड़ी।

हमारी हिन्दू मान्यता के अनुसार उस समय उमाकान्त जी की आत्मा कंपाउंड के पास पेड पर बैठी यह सीन देख रही थी। उनका दिल भी पिघल आया और उन्होंने यमदूत से कहा- “भाई देख रहे हैं, मेरे बिना ये कैसे हो रहे हैं, मुझे केवल चौबीस घंटे और दे दो।“

यमदूत ने भी पता नहीं किस भावना में कहा- “ठीक है, जाओ एक दिन और रह लो तुम्हारी इस प्यारी दुनिया में।
यह कहते ही उमाकान्त जी ने आंखें खोल दी और कसमसाकर बोले अरे राजन, खोलो मुझे।”

इस अनपेक्षित घटना से पहले तो सब ओर अचानक सन्नाटा छा गया फिर सन्नाटे को तोडती पत्नी की आवाज आई- “इनका तो शुरू से ऐसा ही है, कोई भी काम ढंग से नहीं करते। कल से सबने इतनी मेहनत की, सब बेकार !!! लो अब करो स्वागत इन साहब जी का।”

पीछे-पीछे बड़ी बहू के बोल फूटे – “लो, अब बाबूजी को अदरक की चाय चाहिये होगी, फिर रात का खाना खायेंगे। चलो अपन तो किचन में ही भले।”

बड़े बेटे ने खीजते हुये कहा- “क्या बाबूजी, क्या है ये ? इतना रुपया पैसा समय, तैयारी सब बेकार कर दिया, इससे अच्छा तो मैं दुकान पर ही बैठा होता, आज की ग्राहकी भी गई। हट्.  .  .”

छोटा बेटा अंशुल थोडा व्यावहारिक बुद्धि का था। उसने मन ही मन सोचा अरे, मैं तो श्मशान से लौट कर जैन वकील साहब को बुलाने वाला था, बाबूजी की वसीयत खुलवाते। हाय, कहां गया मेरा नया बिजनेस !! हाय री किस्मत !!!

छोटी बेटी भी अचानक इस बीच होश  में आकर कूद पड़ी – “क्या बाबूजी आप भी, मैंने तो सोचा था कि मेरा हिस्सा मिल जायेगा तो लखनऊ में एक प्लॉट देखा था उसका सौदा फायनल कर देती, पर हाय रे भाग !!”

जो बड़ा पोता मत ले जाओ, मत ले जाओ की रट लगा रहा था – प्रगट में बोला “वाह दादाजी अच्छा हुआ आप आ गये, अब मुझे बाल नहीं कटाना पडेंगे, पर मन ही मन बोला लो ये बूढे बाबा वापस आ गये अब फिर से पढाई करो, फोन पर ज्यादा बात मत करो, सिगरेट मत पियो ये सब ज्ञान सुनना पडेगा। अरे भगवान, यार ये चमत्कार मेरे ही यहां होना था क्या ?”

रस्सियों से बंधे बंधे ही उमाकान्त जी ने अपनी लाडली पोती की ओर देखा जिसका मेकअप रोने के कारण पूरा बह निकला था, वह भी मन में भुनभुना रही थी- “अब ये दादू वही राग अलापेंगे, लडकों से बातें मत करो, स्कर्ट, फटी जींस, शॉर्ट्स  टॉप मत पहनो, खाना बनाओ, देर तक घर से बाहर मत रहो। शिट्, क्या लाइफ है।“

इस चखचख में उनके कान में पार्टी के कार्यकर्ता की दबी आवाज आई- “अबे तिवारी, ये बुढऊ तो लौट आया यार, अब ये फिर से चंदे का हिसाब, बिल वाउचर सब मांगेगा। यार हम कैसे काम करेंगे। बडी मुसीबत है ये बूढा।“

अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर उमाकान्त जी का दिल जाने कैसा हो आया, उन्होंने उसी पेड पर बैठे यमदूत की ओर इशारा किया और फिर आंखें मूंद लीं –

इस बार हमेशा के लिये .  .  .  .

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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