English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 21 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 21 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 21) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 21 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

मुख़्तसर सा गुरूर भी

ज़रूरी है जीने के लिए

ज़्यादा  झुक  के मिलो

तो  दुनिया पीठ को ही

पायदान  बना लेती है…

 

Some arrogance, too,  is

Necessary to live, if you

bend too much to meet

Then  the  world makes

your back a footmat only…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

माना  तेरी  उलझन हूँ  मैं

पर तेरी सुलझन भी हूँ  मैं…

थोड़ा दीवाना ही सही मैं

मगर  बड़ा दिलदार हूँ  मैं…

 

Agreed I’m your riddle only…

But I’m your solution too…

Though I am  bit crazy

But a large-hearted one!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

क्या करोगे अब तुम

मेरे पास आकर भी..

खो दिया है तुमने मुझे

बार-बार आजमा कर…

 

What will you do now

By coming close to me…

You’ve lost me for good

By trying again and again

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ कहो जीवन की जय ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता कहो जीवन की जय )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ 

☆ कहो जीवन की जय ☆ 

 

धरती माता विपदाओं से डरी नहीं

मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं

आसमान ने नीली छत सिर पर तानी

तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं

अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी

बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं

पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो

प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं

सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा

नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं

पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?

अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?

हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?

भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो

जान हथेली पर लेकर चलनेवाले

आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले

हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे

स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे

धीरज-धर्म परखने का है समय यही

प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही

सच मानो मावस में दीवाली होगी

श्वास आस की रास बिरजवाली होगी

बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं

हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं

जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय

गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय

प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो

पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो

मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो

महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 1 3 ☆

के.आसिफ़ अर्थात आसिफ़ करीम भारतीय फ़िल्म उद्योग के नामचीन निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने सर्वकालिक महान फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म बनाकर दुनिया के महान फ़िल्मकारों में स्थान पक्का कर लिया था। के.आसिफ़ का जन्म ब्रिटिश इंडिया के ज़िला इटावा में 14 जून 1922 को हुआ था, उनके पिता का नाम फ़ज़ल करीम था

वे महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा और महत्वपूर्ण है।

हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़, अभिनेता नज़ीर के भतीजे थे। शुरू में नज़ीर ने उन्हें फ़िल्मों से जोड़ने की कोशिश की लेकिन आसिफ़ का वहाँ दिल न लगा। नज़ीर ने उनके लिए दर्ज़ी की एक दुकान खुलवा दी। थोड़े दिनों में ही वो दुकान बंद करवानी पड़ी, क्योंकि ये देखा गया कि आसिफ़ का अधिकतर समय पड़ोस के एक दर्ज़ी की लड़की से रोमांस करने में बीत रहा था। नज़ीर ने तब उन्हें ज़बरदस्ती ठेल कर फ़िल्म निर्माण की तरफ़ दोबारा भेजा। बॉलीवुड के सफल फिल्म निर्माता और निर्देशकों की श्रेणी में टॉप पर रहने वाले के. आसिफ को लोग पागल फिल्म डायरेक्टर भी कहते थे।

उनकी पहली फ़िल्म फूल थी।  यह 1945 की चौथी सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म का निर्देशन के आसिफ ने किया था। पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। पृथ्वीराज कपूर, वीणा कुमारी, याकूब, सुरैया, दुर्गा खोटे और सितारा देवी ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं थीं।

1951 में उन्होंने हलचल फ़िल्म बनाई। एसके ओझा द्वारा निर्देशित है। मोहम्मद शफी, सज्जाद हुसैन संगीत निर्देशक थे और साथ फ़िल्म के गीत खुमार बाराबंकवी ने लिखे थे। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस, याकूब, जीवन और बलराज साहनी ने काम किया था।

के.आसिफ़ ज़िल्ले इलाही जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के निज़ाम से अभिभूत थे और हों भी क्यों न, क्योंकि अकबर ने 13 साल की आयु से 49 सालों में हिन्दोस्तान को बिखरे रजवाड़ों से एक साम्राज्य में तब्दील किया था। अकबर ने राजपूत नीति से खड़ा किया अखिल भारतीय प्रशासनिक ढाँचा 1556 से 1726 याने 170 साल अगली तीन पीढ़ी तक क़ायम रहा। अकबर शासन के तात्कालिक नियमों पर अडिग रहकर उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करता था। मुग़ले आज़म सलीम-अनारकली की नहीं अपितु बादशाह अकबर की फ़िल्म है।

के.आसिफ़ ने सैयद इम्तियाज़ अली ताज के उपन्यास “अनारकली” को आधार बनाकर फ़िल्म की पटकथा लिखवाई थी। अकबर के अबुल फ़ज़ल कृत ऐतिहासिक  दस्तावेज “आइने-अकबरी” में सलीम-अनारकली के प्रेम प्रसंग से सलीम के विद्रोह और अकबर-सलीम लड़ाई का कोई ज़िक्र नहीं है। लाहौर में अनारकली नाम की कनीज़ का हवाला ज़रूर मिलता है, जिसके नाम पर अभी भी अनारकली-गली लाहौर में मौजूद है। मुग़ले आज़म के पूर्व भी अनारकली नामक फ़िल्म बन चुकी थी, जिसमें प्रदीप कुमार और बीनारॉय ने काम किया था। के.आसिफ़ ने सलीम-अनारकली की भूमिका के लिए चंद्रमोहन-नरगिस को लेने की सोचा था लेकिन चंद्रमोहन की मृत्यु हो जाने से काम रुक गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का अंतिम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका- 6

वो गहननिंद्रा में निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था। उनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था और वे एक बार फिर सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे। वे मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बाँटते दिखे। तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना।

अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे। उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने का जरिया मिल गया था। एक दिन जीवन के मस्ती भरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला। उस दिन सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आँसू बहा रही थी। कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी।

उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे। शायद यही उनकी आखिरी इच्छा थी  कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌ भूखे बेजुबानों के काम‌ आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे।  जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी।  प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी और चरवाहे बच्चों की आँखें नम थी।  जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे। इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया, जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता। स्वतन्त्रता संग्राम के ऐसे कई अनाम और गुमनाम योद्धा इतिहास के पन्नों में भी उपलब्ध नहीं हैं।

उपसंहार – यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है। मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग  को अपने इंद्रधनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है तो कभी‌ भावुक‌ हृदय को झकझोरती भी है।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ अभिप्राय ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ वाचकांचे अभिप्राय

अभिप्राय – 1

मा. श्रीमती उज्ज्वलाताई,

संपादक (ई-अभिव्यक्ती – मराठी)

नमस्कार ,

‘ई-अभिव्यक्ती मराठी आवृत्तीचे’ मनापासून स्वागत.

आजच्या   परिस्थितीत इलेक्ट्रॉनिक माध्यमाचा वापर  करून वाचक आणि लेखक या दोघांनाही आपण एक नवे दालन उपलब्ध करुन दिलंत! वाचन व लेखन यासाठी आपण हाती घेतलेला हा उपक्रम अत्यंत स्तुत्य आहे . तोही मराठी भाषेसाठी असल्यामुळे अभिमानास्पद आहे. छोट्या छोट्या लेखांच्या,गोष्टींच्या तसेच कवितेंच्या रुपातून ई- अभिव्यक्ती मार्फत हे साहित्य सहजपणे अनेकांच्या हातात पोचत आहे. जाता येता; कमी वेळात; कोठेही; सहजपणे वाचता येते. लॉकडाऊनमुळे वाचनालये बंद पडली आहेत. ई-अभिव्यक्ती वाचकांची तहान भागवण्याचे मोठं काम पार पाडत आहे. नवनवीन साहित्यकृती वाचायला मिळत आहेत. एक लेखिका म्हणून मला नवं आधुनिक व्यासपीठ मिळालं आहेच. पण एक वाचक म्हणून मिळणारा आनंद सुद्धा मोठा आहे.

अतिशय नेटकेपणाने, काही ओळीतून मांडलेली अभिव्यक्ती  ‘थोडक्यात समजणे। थोडक्यात समजावणे। मुद्देसुद बोलणे। ही संवाद कला या संत तुकारामांच्या ओवीची आठवण करुन देते.

धन्यवाद ,

सौ. दीपा पुजारी, इचलकरंजी

अभिप्राय – 2

मी लिहीत असलेले माझे विचार ह्या माध्यमा मुळे लोकांपर्यंत पोचत आहेत, ह्याचा मला आनंद वाटतो. आमच्या सारख्या नवोदित लिहिणार्या साठी ही खूप मोठी संधी आहे जी आम्हाला केळकर काकू आणि पंडित सरांनी उपलब्ध करून दिली आहे.

या माध्यमातून मला ही अनेकांचे विचार कळण्यास मदत होते. मला सौ उज्ज्वला केळकर यांच्या मुळे ही संधी मिळाली.

त्यांना माझे मनापासून आभार.

सौ श्रेया सुनील दिवेकर

आभार 

सम्पादक मंडळ (मराठी) 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तो कोण ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तो कोण ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆ 

या फुलांना या धरेला

गंध तोची कोण देतो

तो अनादी सर्वसाक्षी

ईश सकला व्यापितो

तरुही बोले,पर्ण बोले

नाद तो झंकारतो

कोण स्पर्शे,तरल तनुला

त्या करांनी सुखवितो

झोपलेल्या त्या मुकुला

गुज स्वप्नी सांगतो

दिवस येता,मुग्ध रूपा

कोण तोची हसवितो

प्राणीमात्रा रूप द्याया

सृष्टीकर्मा जागतो

आस जैसी,फलित तैसे

सत्य हे साकारतो.

 

© सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर.

भ्र. 9552448461

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दरवळ ☆ सुश्री निलांबरी शिर्के

☆ कवितेचा उत्सव ☆ दरवळ ☆ सुश्री निलांबरी शिर्के ☆ 

डोक्यावर जडभार

कडेवर छोटे पोर

पावलाच्यापुढे

साऱ्या आयुष्याचा घोर

 

कडेवरच लेकरू

उद्या चालाया लागेल

शिरावरचाही भार

जरा हलका होईल

 

उरातील स्वप्ने सारी

माझ्या बाळात पहाते

तळपायीच्या काट्यांची

मज जाणीव ना होते

 

आज देह कष्टविते

पोटच्या या गोळ्यासाठी

तोच होऊनीया मोठा

माझ्या आधाराची काठी

 

सुशिक्षित लेकराची

स्वप्ने कष्टात पहाते

स्वप्नपुर्ततेचे हासु

मुखी सदा विलसते

 

हेच ध्येय जगताना

सारी संपेल ही वाट

माझी अन लेकराची

नवी जन्मेल पहाट

 

त्या सोनेरी प्रकाशी

सारे जाई उजळून

जगण्यातील कष्ट सारे

स्वाभिमाने ये फुलुन

 

स्वाभिमानाच्या फुलांचा

चिरंतन दरवळ

आयुष्याचा सुख झरा

वाहणार झुळझुळ

 

© सुश्री निलांबरी शिर्के

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ बाहुली ☆ सौ. मानसी काणे

सौ. मानसी काणे

☆ विविधा  ☆ बाहुली ☆ सौ. मानसी काणे ☆

 हजारो वर्षांपासून बाहुली आस्तित्वात आहे.  अगदी मोहेंजोदडो,  हडप्पा सारख्या प्राचीन उत्खननातसुद्धा बाहुल्या सापडलेल्या आहेत.  जगातल्या प्रत्येक देशात वेगवेगळ्या रुपात बाहुली पहायला मिळते.  मुलीला कळायला लागल की तिला पहिल खेळण आणल जात ते म्हणजे बाहुली.  मुलींच्या भावविडात बाहुलीला फार मोठ स्थान आहे.  अगदी मुली क्रिकेट,  कुस्ती किंवा बॉयिसंग खेळू लागल्या तरीही.  इतिहासात खोलवर डोकावल तर इसवीसनापूर्वीदेखील बाहुल्या असल्याची माहिती मिळते.  ‘‘लहान माझी बाहुली, मोठी तिची सावली. घारे डोळे फिरवीते,  नकटे नाक उडविते’’अस सुंदर वर्णनाच गाण प्रसिद्ध आहे. पूर्वी लाकडी ठोकळ्याला नाकडोळे काढलेल्या ओबडधोबड बाहुल्या असत.  त्याना ठकी म्हणत.  त्यानंतर चिंध्याच्या बाहुल्या आल्या.  मग प्लॅस्टिकच्या बाहुल्या आल्या.  आज डोळे फिरविणार्‍या,  बाटलीतून दूध पिणार्‍या अगदी खर्‍या बाळासारख्या दिसणार्‍या बाहुल्या मिळतात.  किी दिल्यावर नाच करणारी बाहुली,  छत्री आणि पंखा घेतलेली किमोनो घातलेली जपानी डॉल,  लांबडे हातपाय आणि लांब वेण्या घातलेली सँडी आणि या सर्वांवर कळस म्हणजे सोनेरी केसांची,  तरुणीच्या रुपातली बांधेसूद बार्बी.  आता बार्बीबरोबर तिचे कंगवे,  तिचे कपड्यांचे सेट,  तिच मेकअप किट,  तिच रंगीबेरंगी टुमदार घरसुद्धा मिळत.  इंटरनेटवर तिच्या हेअरस्टाईलचे वेगवेगळे प्रकार दाखविले जातात.  आपली ऐडर्या रॉय बार्बीच्या रुपात पहायला मिळते.  अनेक शहरात बाहुल्यांची संग्रहालये आहेत .   त्यात देशोदेशीच्या बाहुल्या पहायला मिळतात.  बाहुला बाहुलीचे लग्न हा बालपणीचा एक आवडीचा खेळ असतो.   चुरमुर्‍याच्या मुंडावळ्या आणि हार,  वाजंत्री,  मंगलाष्टक आणि वरात सुद्धा या खेळात असते.  पूर्वीच्या राजकन्यांच्या बाहुलीच्या लग्नाच्या रम्य आणि सुरस कथा वाचायला मिळतात.  लाडयया लेकीच्या लग्नानंतर कपाटातल्या तिच्या बाहुलीकडे पाहून तिच्या आठवणीत रमलेले आईबाबा पहायला मिळतात.  ‘‘सुनो छोटीसी गुडियाकी लंबी कहानी किंवा गुडिया हमसे रूठी रहोगी कबतक ना हँसोगी’ यासारखी गाणी प्रसिद्ध आहेत.  ‘‘जहाँ मैं चली जाती हूं वहीं चले आते हो ह्या किंवा बोल रे कठपुतली बोले या गाण्यावरचा पपेट डान्स खूप छान आहे.

परदेशात पपेट शो असतात.   राजस्थानात दोर्‍यांच्या सहायाने बाहुल्या नाचवून कथा सांगितल्या जातात.  रामदास पाध्यांच्या बोलयया बाहुल्या प्रसिद्ध आहेत.  त्यांचे अर्धवटराव आणि आवडाबाई कोण विसरेल?तसाच त्यानी तयार केलेला तात्या विंचू हा भयानक बाहुला.  त्यांच्या कुटुंबान बाहुल्यांच्या खेळासाठी,  शब्दभ्रम ही कला जिवंत ठेवण्यासाठी आयुष्य वेचल आहे.  बाहुली फ्क्त खेळातच असते अस नाही.   कपड्यांच्या,   दागिन्यांच्या दुकानात मॉडेल म्हणून तिचे वेगळे स्थान आहे.  घराला,  वाहनाना दृष्ट लागू नये म्हणून काळी बाहुली बांधतात.   जादूटोण्यासाठी कापडी बाहुल्या वापरतात. अनेक सिनेमात किंवा टीव्ही सिरिल्समधे बाहुली हे स्वतंत्र पात्र आहे. रहस्य निर्माण करण्यासाठी किंवा ते उलगडण्यासाठी तिचा उपयोग केला जातो. एखादी व्यक्ती दुसर्‍याच्या तालावर नाचत असेल,  दुसर्‍याच्या सांगण्यानुसार वागत असेल तर तिला कळसुत्री बाहुली म्हणतात.  छान दिसणार्‍या मुलीला बाहुलीसारखी गोड  ठेंगणी ठुसकी आहे अस म्हणतात.   नुसतीच नटून बसलेल्या मुलीला बाहुलीसारखी बसू नको काम कर अस म्हणतात.   आणखी एक बाहुली प्रसिद्ध आहे ती म्हणजे फिल्मफेअरची. तिच्यासाठी नटनट्या जीव तोडून प्रयत्न करत असतात. ऑस्करच्या बाहुलीसाठी तर सगळ्या जगात चढाओढ सुरू असते.  ***

© सौ. मानसी काणे

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ अनेकरंगी शब्द-बहारदार ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ विविधा ☆  अनेकरंगी शब्द-बहारदार ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

‘बहारदार’ हा एरवी मी अनेकदा ऐकलेला, वाचलेला आणि स्वत: ही बर्याचदा वापरलेला शब्द..! पण आज लेखनाचा विषय म्हणून याचा विचार सुरु झाला,तेव्हा या शब्दाने शब्द आणि भाषा यांच्यातल्या नात्यांचे बहारदार रंग अधिकच रंगतदार होत असल्याची समृध्द करणारी जाणिव मन प्रसन्न करुन गेली.

‘बहर’ म्हंटलं कि निसर्ग आठवतो आणि बहार हा शब्द अनेक जुन्या हिंदी सिनेमांच्या सुखद बहारदार आठवणी ताज्या करतो.बहर या शब्दात सुगी,सराई,मोसम,अशा अनेक सुखद विविधरंगी निसर्गावस्था जशा लपलेल्या लपलेल्या आहेत तसेच बहर हाच शब्द नव्हाळी, टवटवी, ताजगी, जोम अशा विविध अर्थरंगातली नवतारुण्याची चाहूलही सूचित करतो.

‘बहार’ या शब्दाने जागवलेल्या अनेक जुन्या हिंदी चित्रपटांच्या आठवणी बहार या शब्दाचे विविध रंग अधोरेखित करणार्याच आहेत. ‘बहार’, ‘बहारोंके सपने’,’बहारे फिर भी आयेंगी’ही अशा काही चित्रपटांची प्रातिनिधिक उदाहरणे. ‘बहार’ हे चित्रपटाचे नाव. त्या नावात समृध्दी, भरभराट, संपन्नता यातल्या समाधान, संतुष्टता यांचे सूचन आहे. ‘बहारों के सपने’ विपन्नावस्थेतील गरीबांनी पाहिलेली समृध्दीची स्वप्ने रंगवणारा वाटतो, तर ‘बहारे फिर भी आयेगी’ निराश मनोवस्थेला दिलासा देणारा हेही दिवस जातील अशा आशावादाचा परिसस्पर्श करुन सावरु पहाणारा असल्याचे लक्षात येते.

बहर, बहार या शब्दांनी अशा अनेक उमलत्या आनंद सौख्य, समृध्दीच्या अर्थरंगानी आपल्या मनात सुखद असोशी निर्माण केलेली असते.पण या सुखद वास्तवाचा मोसम कायम टिकणारा नसतो हे आपण गृहीत धरलेले नसेल तर बहरानंतर येणारा शिशीर आपल्याला अधिकच चटके देणारा वाटण्याची मात्र शक्यता असते.तसे होऊ नये म्हणूध बहर असो वा शिशिर दोन्हीही क्षणभंगूर आहे हे लक्षात घेऊन सुखात तरंगत न रहाता,आणि दु:खाने खचून न जाता या दोन्ही अवस्थेत मनाला सावरणारे ओठावरले गाणे आपण अलगद जपायला हवे.

बहारदार या शब्दनिर्मितीतील वैशिष्ठेही लक्ष वेधून घेणारी आहेत. बहार आणि दार या दोन शब्दांनी बनलेला हा संयुक्त शब्द..! एक नाम आणि दुसरा विशेषण. नामाचं वर्णन करण्यासाठी एरवी विशेषण वापरले जाते आणि ते नामाच्या आधी येते आणि आपलं वेगळं अस्तित्व जपतही असते. उदाहरणार्थ -सुखद धक्का, दुष्ट माणूस, लाल गुलाब इत्यादी. ‘बहारदार’ मधे मात्र ‘बहार’ या नामाच्या नंतर ‘दार हे विशेषण येते. गंमत म्हणजे हे विशेषण स्वत:चे वेगळे अस्तित्व न जपता त्या नामाशी संलग्न होते. पण हे होत असताना स्वत:चं वैशिष्ठ हरवत नाही.तर प्रत्यय बनून त्या नामालाच स्वत:त सामावून घेऊन स्वत:चा रंग त्याला देते. म्हणजे इथे ‘ दार ‘ या विशेषणाच्या स्पर्शाने ‘बहार’ या नामाचे बहारदार या वेगळ्या विशेषणात रुपांतर होते. दार हा शब्द श्रीमंत या अर्थाचा.बहार म्हणजे सौंदर्याची, रंगरसांची, अभिवृध्दीची श्रीमंती..! बहारदार सादरीकरण, बहारदार रंगत, बहारदार अभिनय,  याप्रमाणे हे विशेषण वापरले जाते. दार या विशेषणाच्या प्रत्यय रुपातल्या नामसंलग्नतेतून तयार झालेली चवदार, रंगतदार, मजेदार अशी इतरही उदाहरणे आहेत.

‘बहारदार’ या शब्दाच्या स्पर्शाने माझ्या मनात उमटलेले हे विचारतरंग भाषासमृध्दीसाठी निदान माझ्यापुरतेतरी शब्दांशी खेळायला प्रवृत्त करणारे ठरलेयत हे मात्र खरे..!

© श्री अरविंद लिमये

सांगली

मो ९८२३७३८२८८

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ काळ आला होता पण ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

☆ मनमंजुषेतून ☆ काळ आला होता पण ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

रोजच्यासारखीच मी बँकेत जायला निघाले होते. आदल्या दिवशी पित्ताचा प्रचंड त्रास झाल्याने खूप अशक्तपणा

जाणवत होता. पण किल्ल्यांची जबाबदारी असल्याने जाणे भागच होते. म्हणून टूव्हीलर ऐवजी रिक्षाने निघाले होते. एक दीड कि. मि. गेले असेन, आणि अचानक मला खूपच अस्वस्थ वाटायला लागलं. छाती जड झाली. कुणीतरी बरगड्यांची घट्ट मोळी बांधत आहे असं वाटायला लागलं. जीवाची घालमेल व्हायला लागली.

नकळत मी रिक्षाच्या सीटवरच आडवी झाले… परत उठत होते ..झोपत होते. माशासारखी तडफड व्हायला लागली. रिक्षा वाला पार घाबरून गेला. “परत” घरी सोडतो म्हणाला. पण परत जाईपर्यंत मी मरेन असं मला आतून तीव्रपणे जाणवत होतं. पुढे वाटेत एक नामांकित हॉस्पिटल असल्याचं आठवलं.

‘तिथे घेऊन चला’ म्हटल्यावर ‘रस्ता माहिती नाही’ म्हणत तोच रडवेला झाला. मग मीच कसातरी रस्ता दाखवला.

तिथे पोहोचताच तिथल्या मोठ्या लॉबीतून कशीबशी चालत मी रिसेप्शनपाशी गेले. तिथली मुलगी फोनवर बोलण्यात इतकी गुंग होती की तिने माझ्याकडे बघितलेही नाही. आता आधार घेत उभे राहणेही अशक्य होत होतं.

समोर एक स्ट्रेचर ट्रॉली दिसताच मी कशीतरी जाऊन त्यावर झोपले. काही मिनिटे मी तिथेच तडफडत पडले होते. तिथून चाललेल्या वयस्करशा दोन ‘ मावशींनी’ मला पाहिलं आणि पटकन ती ट्रॉली ढकलत मला आत कुठेतरी नेऊन ठेवलं.

शिकाऊ दिसणारे दोन तीन डॉक्टर्स तिथे बसलेले होते. वॉर्डबॉयने मला तिथल्या टेबलवर झोपवलं. माझी तळमळ जास्त वाढली होती. मग एक एक करत तिथला प्रत्येक जण घरचा, बँकेचा फोन नंबर विचारायला लागला.

‘आधी काहीतरी इलाज करा‘

असं शेवटी मी ओरडले, तेव्हा ऑक्सिजन मास्क लावला गेला यात किती वेळ गेला कोण जाणे. मग आमचे मॅनेजर सर्वात आधी तिथे पोहोचले.

कुठल्याशा फॉर्मवर त्यांनी सही केली, आणि ” काळजी करू नका” एवढेच बोलून, किल्ल्या घेऊन ते निघूनही गेले. पुन्हा मी सोडून सगळे शांत … एव्हाना माझा घसा आवळल्यासारखा व्हायला लागला होता. छाती-पाठ- मान गळच प्रचंड दुखत होतं. शुद्ध हरपेल असं वाटत होतं. मग त्यांनी मला एक इंजेक्षन दिलं, आणि स्ट्रेचर-ट्रॉलीवर झोपवून लिफ्टमध्ये नेले. लिफ्टमध्ये मला माझी बहीण दिसली आणि माझी शुद्ध पूर्ण हरपली.

संध्याकाळी कधीतरी मी शुद्धीवर आले….आणि सकाळपासून घडलेला एक एक प्रसंग मला आठवायला लागला. प्रत्येक प्रसंगात, माझं आयुष्य संपवायला आलेला काळ जाणवायला लागला.

पण तरी अजून मी जिवंत कशी काय होते?….. मग हळूहळू लक्षात यायला लागलं की…… काळ आला होता हे तर १००% सत्य होतं, कारण त्या अवस्थेत ते मला क्षणाक्षणाला जाणवत होतं. पण वेळ? ती नक्कीच आली नसावी. कारण ती आली असती ,तर त्याही अवस्थेत हॉस्पिटलमध्ये जाण्याची अंतः प्रेरणा श्री स्वामींनी मला दिलीच नसती. रिक्षावाला मला वाटेतच उतरवू शकला असता.

त्या दोन मावश्यांना माझ्याकडे लक्ष द्यावं असं वाटलं नसतं. जे एक अत्यावश्यक इंजेक्शन तेव्हा मला दिलं लं, ते केमिस्टकडून आणायला माझ्याबरोबर कुणीच नव्हतं हे लक्षात येताच तिथला वॉर्ड – बॉयरुपी देवमाणूस ट्कन जाऊन, त्या इंजेक्शनचे ४००० रू स्वतःच्या नावावर लिहायला सांगून, ते घेऊन आला नसता. अर्थात हे मला नंतर कळलं होतं……. आणि या सगळ्यांनी मिळून, काळ बरोबरच घेऊन आलेल्या त्या वेळेला भक्कमपणे अडवून गदी वेळीच परतून लावलं होतं, म्हणून मी जिवंत राहिले होते…..त्या सर्वांची मी आजन्म ऋणी आहे.

दुसऱ्या दिवशी डॉक्टर तपासायला आले तेव्हा अगदी गंभीरपणे म्हणाले की” अजून अर्धा तास उशीर झाला असता तर यांचं काही खरं नव्हतं”……. आणि त्यांच्या त्या बोलण्याने मला मात्र तेव्हा नकळतच हसू आलं होतं.

© सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

पत्ता : ४, श्रीयश सोसायटी, ५७१/५७२, केंजळे नगर, पुणे  ४११०३७.

मोबाईल: ९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares