अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (21) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌।।21।।

 

जो फल की आशा लिये प्रत्युपकारी को दत्त

मन के दुख के साथ जो, राजस दान वह स्मृत ।।21।।

भावार्थ :   किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।।21।।

And, that gift which is made with a view to receive something in return, or looking for a reward, or given reluctantly, is said to be Rajasic.।।21।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 8 ☆ राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक ओजस्वी कविता राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा। यह कविता  राजा रघुनाथ शाह एवं  शंकरशाह जी को  समर्पित है जिनका कल दिनांक 18 सितम्बर को बलिदान दिवस था।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 8☆

☆ राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा ☆

जानते इतिहास जो वे जानते यह भी सभी

राजधानी गौड राजाओ की थी त्रिुपरी कभी

 

उस समय मे गौडवाना एक समृद्ध राज्य था

था बडा भूभाग कृषि, वन क्षेत्र पर अविभाज्य था

 

सदियों तक शासन रहा कई पीढ़ियों के हाथ में

अनेको उपलब्धियाॅ भी रही जिनके साथ में

 

रायसेन, भोपाल, हटा, सिंगौरगढ मे थे किले

सीमा में थे आज के छत्तीसगढ के भी जिले

 

खंडहर नर्मदा तट मंडला मे हैं अब भी खड़े

आज भी हैं महल मंदिर रामनगर मे कई बड़े

 

कृषि की उन्नति, वन की सम्पत्ति, राज्य में धन धान्य था।

स्वाभिमानी वीर राजाओं का समुचित मान था

 

दलपति शाह की छवि-कीर्ति जब मनभायी थी

दुर्गा चंदेलोें की बेटी बहू बनकर आई थी।

 

बादशाह अकबर से भी लड़ते ना जिसका डर लगा

उसी दुर्गावती रानी- माँ की फैली यशकथा

 

एक सा रहता कहाँ है समय इस संसार में

उठती गिरती हैं बदलती लहरें हर व्यवहार में

 

आए थे अंग्रेज जो इस देश मे व्यापार को

क्या पता था बन वही बैठेंगे कल सरकार हो

 

सोने की चिड़िया था भारत आपस की पर फूट से

विवश हो पिटता रहा कई नई विदेशी लूट से

 

उनके मायाजाल से इस देश का सब खो गया

धीरे धीरे बढ़ यहाँ उनका ही शासन हो गया

 

पल हमारी रोटियों पर हमें ही लाचार कर

मिटा डाले घर हमारे, गहरे अत्याचार कर

 

जुल्म से आ तंग उनके देश में जो अशांति हुई

अठारह सौ छप्पन में उससे ही भारी क्रांति हुई

 

झांसी, लखनऊ, दिल्ली, मेरठ में जो भड़की आग थी

उसकी चिंगारी और लपटों में जगा यह भाग भी

 

तब गढा मंडला में दुर्गावती के परिवार से

दो जो आगे आए वे रघुनाथशाह शंकरशाह थे

 

बीच चैराहे में उनकी ली गई तब जान थी

क्रूरतम घटना है वह तब के ब्रिटिश इतिहास की

 

बांध उनको बारूद के मुंह से चलाई तोप थी

पर चेहरों मे दिखी न वीरों के छाया खौफ की

 

देश के हित निडर मन में दोनों अपनी जान दे

बन गए तारे चमकते अनोखे बलिदान से

 

सुन कहानी उनकी भर आता है मन, उनको नमन

प्राण से ज्यादा रहा प्यारा जिन्हें अपना वतन

 

आती है आवाज अब भी नर्मदा के नीर  से

मनोबल के धनी कम होते हैें ऐसे वीर से

 

जिनने की ये क्रूरता वे मिट गए संसार से

नमन पर करते शहीदों को सदा सब प्यार से

 

यातनाएं कुछ भी दें पर हारती है क्रूरता

विजय पाती आई है इतिहास मे नित शूरता

 

गाता है जग यश हमेशा वीरता बलिदान के

याद सब करते शहीदों को सदा सम्मान से

 

जबलपुर से जुड़ा त्रिपुरी नर्मदा का नाम है

उन शहीदों को जबलपुर का विनम्र प्रणाम है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – स्वागत गुरु ☆डॉ.  सलमा जमाल 

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। अब तक १० पुस्तकें प्रकाशित।आपकी लेखनी को सादर नमन।) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

☆ गीत – स्वागत गुरु ☆

हर्षित हृदय से आपका,

शत् कोटी है वंदन ।

मन की गहराइयों से ,

करती तुम्हें नमन ।।

 

राहों में तुम्हारी मैंने ,

पलके बिछाईं हैं ।

श्रद्धा सुमन समर्पित ,

करती हूँ  तुम्हें अर्चन ।।

हर्षित ———————

 

क्या भेट दें तुम्हारी ,

गुरु दक्षिणा में हम ।

आशीष हो तुम्हारा ,

स्वीकारो अभिनंदन ।।

हर्षित ——————-

 

सरगम है यह सुरों की ,

वीणा की झंकार है ।

खुशियों के दीप जले ,

करता है मन नर्तन ।।

हर्षित ——————–

 

चंदा उतर के आया है ,

वसुधा की गोद में ।

तारों के गजरे लेकर ,

गुरु को करूं अर्पन ।।

हर्षित ——————-

 

आपकी दुआओं में सदा,

” सलमा” की याद हो ।

पावन-पुनीत ऋण को,

करती शत् शत् वन्दन ।।

हर्षित ———————-

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पी (19) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पी (19) ☆

शब्द थक जाएँ

तो संभाल लेती है चुप्पी,

चुप्पी टूटने लगे

तो शब्द सहारा बनते हैं,

शब्द और चुप्पी,

चुप्पी और शब्द,

शाश्वत प्रेम की

सनातन गाथा रचते हैं…!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 8:21, 17.10.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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English Literature – Poetry ☆ Speechless… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “अवाक ” . We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

 ☆ Speechless…☆

With proud filled

flashing eyes

Son-daughter duo

Kept narrating

the saga of their

struggles, perseverance

and sacrifices…

Tongue-tied

Wrinkled-faced parents

Kept listening to

their narrative

speechlessly!

 

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल कविता >>

☆ अवाक ☆

दर्प से चमकती

आँखों से

बेटा-बेटी

अपने त्याग, तप

और संघर्ष की गाथा

सुनाते रहे..,

झुर्रियों से घिरा

चेहरा लिये

माता-पिता

अवाक होकर

सुनते रहे!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature ☆ Stories ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 7 Finally Start ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  We are pleased to begin a series on excerpts from his well acclaimed book  “Samudramanthanam” .  According to Mr Ashish  “Samudramanthanam is less explained and explored till date. I have tried to give broad way of this one of the most important chapter of Hindu mythology. I have read many scriptures and take references from many temples and folk stories, to present the all possible aspects of portrait of Samudramanthanam.”  Now our distinguished readers will be able to read this series on every Saturday.)    

Amazon Link – Samudramanthanam 

 ☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 7 Finally Start ☆ 

Finally, the holy day of Makar Sankarnti came when actual churning of ‘Kshirasāgara’ started. The tortoise incarnation of Vishnu has held all the burden of churning which was taken place for good of universe. Motion of mount Mandara is in compete cyclic, once Sura pull the tail of Vasuki towards them, then Asura pull the mouth of Vasuki towards them. Clockwise then anti clockwise rotation was going on. All the demigods participated from the side of Sura. All the negative or tamas dominating creatures were helping Bali the king of Asura. All the great sage, Brahma etc. we’re watching this great churning of good and bad or sattwa and tamas.    ‘Kshirasāgara’ creature were restlessly moving here and there. Birds from sky throwing flowers over heroes of this activity.

After 10 days of churning a conch is blow, and all the Suras and Asura stop and their position was taken by other Sura and Asuras who were doing rest at that time. The first team came across and sat for food which was prepared by wives of rishis.

Some Rakshasa and Asura were not agree to eat this sattvic food. But it was demand of situation and order of their king Bali. So, they ate that sattvic food.

Before starting the fresh spell of churning by new and full of energy team members the food for Vasuki Naga also given.

On the Auspicious day of Basant Panchmi, churning started again. It was going on and on and on. On the day of Holi Bali ask from Brahma, “pram pita father of all nothing is happening and no output is visible. Are we doing something wrong? Can we have to replace our position with Sura?”

Then Varuna said, “great king of Sura, I am god of all types of oceans. When we start churning of anything in starting it will take time and also in starting negative or bad things appears before any gems. It not depends that either that churning is churning of milk or our own thoughts or of ocean. I can see that soon first outcome of this ocean churning is about to come”

Then all took deep breath of relax.

© Ashish Kumar

New Delhi

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझं जगणं ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ माझं जगणं ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

 

पापभीरू मी

 

स्वत:च्या सावलीला घाबरतो

पण पायरी धरून जगतो

 

अर्धा भाकरीत चंद्र शोधतो

तृप्तीने ढेकर देतो

 

जर कधी गजरा आणला

जाऊन येतो मनाने काश्मिरला

 

हक्काच्या छप्परासाठी झिजतो

कर्जाच्या वेताळाला पाठीवर घेतो

 

रोजच्या जगण्याला भिडतो

समाधानाची फोडणी देतो

 

मुलांसोबत गोकुळात रमतो

जन्मदात्याच्या सेवेत

विठूरुखुमाई  शोधतो

 

आणि

 

सुखाच्या कल्पनेला

मोत्यांची झालर लावून

दाराला तोरण बांधतो

घराला घरपण देत

माझं जगणं जगतो

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अधिकमास ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक 

श्रीमती अनुराधा फाटक

 ☆ विविधा ☆ अधिकमास ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक  ☆ 

दरवर्षीच्या बारा चांद्र मासापेक्षा अधिक असणारा असा अधिक मास १८ सप्टेंबरला सुरु होत असून १६ आक्टोबरला संपत आहे.साधारणपणे दोन वर्षे आठ महिन्यानी असा चांद्रमास येतो.

पृथ्वी जशी सूर्याभोवती फिरते तसा पृथ्वीचा उपग्रह चंद्र पृथ्वीभोवती फिरत असतो.चंद्राला पृथ्वीभोवती एक प्रदक्षिणा पूर्ण करण्यासाठी साधारणपणे २९.७५ दिवस लागतात. आपण ३०दिवसांचा (तिथींचा) एक चांद्रमास मानतो. चंद्राच्या उगवण्या-मावळण्याच्या वेळेप्रमाणे तिथीत वृध्दी किंवा क्षय होत असतो .त्यामुळे साधारणपणे आपले चांद्रवर्ष ३५४ दिवसांचे व सौरवर्ष ३६५ दिवसांचे असते या दोन प्रकारच्या वर्षात ११ दिवसांचा फरक पडतो अशी तीन वर्षे झाली एक महिना अधिक म्हणून ओळखला जातो. म्हणून दर दोन वर्षे आठ महिन्यानी अधिक महिना येतो.

चांद्रमासाच्या बारा महिन्यात आपल्या सणसमारंभाची जशी योजना असते तशी अधिक महिन्यात नसलयानेच कदाचित या महिन्याला मलमास म्हणत असावेत.

‘आपल्या कालावधीत इतर मासाप्रमाणे काहीच नसते’ याची खंत वाटून हा मलमास श्रीविष्णूकडे गेला. त्याने आपली दुर्लक्षितता भगवान विष्णूला सांगताच भगवान विष्णूने त्याला आपले ‘पुरुषोत्तम ‘ हे नाव दिले तेव्हापासून तो पुरुषोत्तम मास म्हणूनही ओळखला जाऊ लागला अशी एक आख्यायिका सांगितली जाते. या मासात ‘भागवत’ सप्ताह करण्याची प्रथा असून ‘माझ्या परिवाराचे आयुष्य अछिद्र व्हावे ‘ अशी प्रार्थना भगवान विष्णूला करून त्याच्या स्मरणार्थ अपूप( अनारसा) वाण देतात.

हिरण्यकश्यपूचा वध करण्यासाठी नरसिंहावतार झाला तो अधिक मासातच!

असे हे अधिक मासाचे महत्व !

आपल्या मनोकामनांचे पूर्तत्व करणारे !

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गणगोत ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ ज्योती विलास जोशी 

B.Sc Microbiology, P.G.Diploma in Hospital Management

 ☆ विविधा ☆ गणगोत ☆ सौ ज्योती विलास जोशी ☆ 

माझी परसबाग हे माझ्यासाठी माझं नंदनवन! ‘वृक्षवल्ली आम्हा सोयरी वनचरे’ हे संतांचे वचन तंतोतंत पटावं अशी ही विसाव्याची जागा! मनमोकळं व्हायच ठिकाण जणू! मौनातून बरच काही सांगून जाणार विश्वच ते! सजीव सचेतन असं जिवाभावाचं कुटुंब….

परस दारावर जाईचा नाजूक वेल पसरलाय. उंबर्‍यावर पाय पडताच तिचा सुवास श्वासात भरून जातो. शुभ्र पांढऱ्या फुलांचे सात्विक तेज मन उजळून टाकतो.

परसाच्या मध्य भागी आपल्या सावळ्या मंजिऱ्या लेऊन नटलेली कृष्ण तुळस मन प्रसन्न करते. तिचे भक्ती रूप दर्शन नतमस्तक व्हायला लावते.

तिच्याच बाजूला जास्वंद नम्रतेने वाकून तिला लाल फुलं अर्पण करतोय असं काहीसं दृश्य दिसतं.

अबोली नावाप्रमाणेच अबोल आणि शांत..,,

परस दाराच्या मागच्या दारापाशी वेगवेगळ्या रंगात गुलाब हसतात. काटेरी भाले अंगावर घेऊन जणू आतील सर्व गणगोतांचे चे ते संरक्षण करतात.

गुलाब भालदार तर बकुळ चोपदार सावळीशी अशी ही नाजूक पण दाराशी खडा पहारा ठेवते तिच्या सुगंधाने आकर्षित होऊन निमिष भर थांबून घराकडे एक दृष्टीक्षेप टाकून पुढे जाणाऱ्या प्रत्येका पासून बागेला दृष्ट लागू नये म्हणून ही सावळी सर्वांना काळं तीट लावते जणू!

आंबा गर्द सावली ढाळतो ते केवळ माझ्या मनी साठीच, असे मला वाटते कारण मनी दिवसभर त्याच्या सावलीत पहुडलेली असते.

वृद्ध पारिजात अंगणाची शोभा वाढवतो पारिजातकाची नाजूक फुलं रोज तुळशीवर बरसतात आणि तिची यथासांग पूजा होते.

चाफा निमुटपणे पान पिसाऱ्यातून दर्शन घडवतो तो अगदी माझ्या झोपायच्या खोलीपर्यंत पसरला त्यामुळे मलाही जणू त्याचाच सुगंध.

अशीही माझी परसाबाग माझ्या जिव्हाळ्याची…..

त्या दिवशी मी खूप उदास होते. आईचं वर्षश्राद्ध नुकतच झालं आणि बाबांचं एक दोन महिन्यावर येऊन ठेपलं होतं.आईला सोडून बाबांना जणूं एकट राहणं जमलच नाही गेले पाठोपाठ तिला भेटायला. आम्हाला इथे एकटं सोडून…

दोघांच्या आठवणीने डोळे पाणावले. नकळत हळूहळू टीपं ढाळू लागले. अंगणातील मंडळींच्या नजरेतून हे सुटले नाही आणि मग प्रश्नांचा भडिमार सुरू झाला.

“ताई काय झालं? का रडतेस? आमचं काही चुकलं का? काही तरी बोल बाई!” सर्वांनी एकदम गलका केला.

गुलाबाने री ओढली “ताई तू काळजी करू नकोस. तुझं सगळं दुःख मी पचवतो. सगळे काटे मी माझ्या अंगावर घेतो”

जास्वंद म्हणाले, “आता जाते कशी बाप्पाकडे आणि तुझी आणि त्यांची भेटच घडवते. मग हवं ते मग त्याच्याकडे”

चाफा म्हणाला, “रडू नको ताई. बोलून सगळे निपटूया. तू अगोदर तुझ्या मनात जे दाटलय ते मोकळं कर”

अबोली म्हणाली, “मी नावाचीच अबोली ग तुझी माझी बट्टी! सांग मला तुझ्या मनातलं आणि मोकळी हो.

बकुळ म्हणाली,“ दृष्ट लागली माझ्या ताईला, दृष्ट काढून टाकते आता ताबडतोब!”

आंबा म्हणाला,“अशी संतापू नकोस ताई शांत हो जराशी. ये पाहू माझ्या सावलीत आणि सांग मनातलं….”

मनी माझ्या दोन पायात घुटमळला लागली तिच्या झुबकेदार शेपटीने मला गोंजारायला लागली. मूकपणे मला बोलतं करायचा तिचा प्रयत्न होता.

तुळशी ने मौन सोडले. तिने माझ्या मनातलं जाणलं. “अगं ताई आई-बाबांच्या जाण्याने तू इतकी दुःखी झाली आहेस ते मला ठाऊक आहे तुझे अश्रूच ते सांगतात पण ‘उपजे ते नाशे’ या न्यायाप्रमाणे अशा घटना घडणारच.हे जीवन चक्र आहे. आपण वास्तव स्वीकारले पाहिजे. नाही का?

इतका वेळ शांत असलेला वृद्ध पारिजात बोलू लागला, “अगं बाळा मीच तुझा तात!

दारावरची जाई म्हणाली अगं राणी मीच तुझी आई!”

आई-बाबांना भेटल्याचा कोण आनंद झाला म्हणून सांगू?….. माझा मन मोर नाचू लागला.

इतक्यात वार्‍याची एक मंद झुळूक आली आणि गुलाब अबोली चाफा बकुळ जास्वंद सर्वांना घेऊन फेर धरून नाचू लागली. संपूर्ण आस मंतात एक मंद सुगंध दरवळू लागला. एक असा अप्रतिम गंध जशीअत्तराची कुपी सांडली जणू………

 

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ एम्. विश्वेश्वरय्या ☆ श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर

 ☆ इंद्रधनुष्य ☆ एम्. विश्वेश्वरय्या ☆ श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर

जेव्हा भारतात इंग्रजांची सत्ता होती, त्या वेळची गोष्ट आहे. खचाखच भरलेली एक रेल्वेगाडी चालली होती. इंग्रज प्रवाशांची संख्या जास्त होती. एका डब्यात एक प्रवासी गंभीर चेहरा करून बसला होता. रंगाने सावळा, देहयष्टीने साधारण, पोशाखही सामान्यच! त्यामुळे डब्यातील इतर इंग्रज प्रवासी त्याची कुचेष्टा करत होते; पण कोणाच्याही चेष्टेकडे त्याचे लक्ष नव्हते. अचानक त्याने उठून रेल्वेची साखळी खेचली. वेगात जाणारी रेल्वे तात्काळ काही अंतरावर थांबली. सर्व प्रवासी त्याला ओरडू लागले. थोड्या वेळाने रेल्वेचे सुरक्षा रक्षक तेथे आले व त्यांनी विचारले, ‘साखळी कोणी व का खेचली?’ त्या व्यक्तीने उत्तर दिले, ‘मी खेचली साखळी. माझा अंदाज आहे, साधारण एक फर्लांग अंतरावर रेल्वेचे रुळ उखडले आहेत.’

सुरक्षारक्षकाने आश्चर्याने विचारले, ‘तुम्हाला कसे काय कळले?’ तो म्हणाला, ‘महोदय, मी शांत बसून अंदाज घेत होतो. गाडीच्या गतीमध्ये मला फरक जाणवला. रेल्वे रुळाच्या आवाजातील फरकही मला पुढील धोक्याची सूचना करत होता.’

सुरक्षारक्षकांनी त्याला घेऊन रेल्वे रुळांची पाहणी केली, तर खरोखरच काही अंतरावर रुळांचे नटबोल्ट उखडले होते. इतर प्रवासी आता मात्र या व्यक्तीने एवढ्या मोठ्या अपघातातून सर्व लोकांचे प्राण वाचवले म्हणून त्याचे कौतुक करू लागले.

कोण बरे होते ते? ते होते एक इंजिनीअर. त्यांचे नाव होते ‘मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या.’

वैज्ञानिकांच्या पंक्तीत इंजिनीअर (अभियंते) कसे काय बसू शकतात, असा प्रश्न आपल्याला पडला असेल. खरे म्हणजे स्थापत्य क्षेत्रातही अनेक नवनवीन शोध लागत असतात. त्यामध्ये प्रतिभावान अशा अभियंत्यांचे बौद्धिक योगदान महत्त्वपूर्ण असते. भारत स्वतंत्र झाल्यानंतर भारत निर्माण आणि विकास यामध्ये इंजिनीअर तंत्रज्ञांची कुशलता महत्त्वाची ठरली आहे. यामध्ये महत्त्वाचा वाटा होता तो भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या यांच्या प्रेणादायी वाटचालीचा.

सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या म्हणजेच एमव्ही… अभियांत्रिकी, पाणी व्यवस्थापन, सिंचन व्यवस्थापन, औद्योगिकीकरण व शिक्षण व्यवस्थापनातील एक अलौकिक असे व्यक्तिमत्त्व! त्यांचा जन्म १५ सप्टेंबर १८६० रोजी म्हैसूर प्रांतातील मुदेनाहल्ली या गावात झाला. त्यांचे वडील पंडित श्रीनिवास शास्त्री वेदविद्येचे प्रकांड पंडित व आयुर्वेदतज्ज्ञ होते.

असेच एकदा शास्त्रीजी गंगावतरणाची गोष्ट सांगत होते. सात-आठ वर्षांच्या विश्वेश्वरैय्याच्या मनात या गोष्टीने घर केले. भगीरथाच्या प्रयत्नाने गंगा पृथ्वीवर आली, ही गोष्ट त्याने आपल्यासाठी आदर्श मानली. ज्ञान, आत्मविश्वास आणि साधनेच्या बळावर माणूस एखाद्या नदीची दिशा बदलू शकतो, गंगेला भागीरथी बनवू शकतो, हे त्यांना कळले. त्यांनी मन लावून अभ्यास केला. माध्यमिक शाळेत पहिल्या क्रमांकाने उत्तीर्ण झाले. त्यांच्यातील दडलेल्या भगीरथामुळे त्यांनी पुण्याच्या सायन्स कॉलेजमध्ये प्रवेश घेतला. १८८३मध्ये इंजिनीअर होऊन सहायक अभियंता या पदावरून त्यांनी श्रीगणेशा केला. पुढे एकेक यशोशिखर पादाक्रांत करत गेले. नदीचा प्रवाह जसा पुढे पुढे जातो, तसे विश्वेश्वरय्या यांनी मागे वळून कधी पाहिलेच नाही. सिंधू नदीवर धरण बांधले. या धरणामुळे दक्षिणेतील पठारी भागात सिंचनाची सोय तर झालीच, शिवाय सक्कर शहराला पाणीपुरवठाही होऊ लागला.

ते पुण्याच्या खडकवासला धरणाचे अभियंता असतानाची एक गोष्ट आहे. त्या काळी पुण्यामध्ये पाण्याची फार टंचाई होती. धरणासाठी ऑटोमॅटिक गेट सिस्टीम म्हणजे ‘स्वयंचलित दरवाजे’ हा एकमेव पर्याय होता; पण ग्रामीण भागात विजेशिवाय स्वयंचलित दरवाजे ही कल्पना म्हणजे अशक्य कोटीतील गोष्ट होती; मात्र ‘सर एमव्हीं’नी विज्ञानाच्या नियमांचा केवळ अभ्यासच केला नव्हता, तर ते नियम आपल्या रोजच्या जीवनात उतरवले होते. ‘पाण्यात बुडल्यानंतर कोणत्याही पदार्थाचे द्रव्यमान कमी होते,’ या विज्ञानाच्या साध्या नियमाचा त्यांनी खडकवासला धरणाचे दरवाजे बांधताना उपयोग करून घेतला. त्यासाठी त्यांनी दोर, गेट, डक्ट आणि प्रतिवजनाचा आधार घेतला. पाण्याचा दाब वाढला की पाणी डक्टमध्ये येते आणि प्रतिवजन कमी झाल्याने दरवाजे आपोआपच उघडतात. पाणी ओसरले, की प्रतिवजन पूर्वपदावर येते आणि दरवाजे आपोआप बंद होतात. विजेशिवाय चालणारे हे स्वयंचलित दरवाजे म्हणजे धरणक्षेत्रात नवीन क्रांतीच होती. या तंत्राचे पेटंट त्यांच्या नावे झाले; पण देशप्रेम व जनसेवा या गुणांमुळे या पेटंटचे पैसे घेण्यास त्यांनी नकार दिला.

सांडपाण्याचा योग्य निचरा करण्याची व्यवस्था त्या काळी नसल्याने ते सांडपाणी नदीच्या पाण्यात जाऊन पाणी दूषित होते, ही मोठी समस्या होती. अशा दूषित पाण्यामुळे प्लेग, नारू, अतिसार असे साथीचे रोग फैलावण्याचा सतत धोका असे. यावर उपाय म्हणून ‘सर एमव्हीं’नी बंद पाइपमधून शहराला पाणीपुरवठा करण्याची योजना तयार केली. भारतातील २१ शहरांसाठी पाणीपुरवठ्याच्या योजना त्यांनी आखल्या आणि प्रत्यक्षातही उतरविल्या. सॅनिटरिंग इंजिनीअरिंगमध्ये सर्वोत्कृष्ट कामगिरी करताना ‘सर एमव्हीं’ नी हैदराबाद, कराची आणि दक्षिण आफ्रिकेत एडन शहरासाठी मलनि:सारणाची भूमिगत योजना आखून दिली.

त्या काळी शेतीची सारी मदार पावसावर असे. पावसाच्या पाण्याचे योग्य व्यवस्थापन आणि जलविद्युत निर्मिती ही काळाची गरज होती. ही गरज ओळखून त्यांनी निरा नदीच्या किनारी सिंचनासाठी ब्लॉक व्यवस्थेची सुरुवात केली. या व्यवस्थेमध्ये पाण्याचे वितरण शास्त्रीय पद्धतीने केले गेले. त्यामुळे प्रभागाच्या एक तृतीयांश क्षेत्रात उसाचे व दोन तृतीयांश क्षेत्रात रब्बी आणि खरीपाची पीके घेता येऊ लागली. ही योजना तात्कालिक नव्हे, तर सार्वकालिक ठरली.

सर विश्वेश्वरय्या हे केवळ अभियंताच नव्हते, तर ते एक पर्यावरणतज्ज्ञ आणि हळव्या मनाचे छायावादी कवीही होते. त्याच भावनेतून त्यांनी प्रत्येक धरण आणि जलाशयाच्या आसपास उद्याने व वॉक वे तयार केले. प्रचंड मोठा पाणीसाठा आणि दूरवर पसरलेली हिरवाई! ‘स्वच्छ शहर, हरित शहर’ ही घोषणा बहुधा यातूनच आली असावी. कृष्णराजसागर धरण आणि वृंदावन गार्डन यांमुळेच ‘सर एमव्हीं’ना ‘आधुनिक म्हैसूरचे जनक’ असे म्हटले जाते. विश्वासार्हता, व्यवस्थापन कौशल्य, समर्पण वृत्ती आणि प्रामाणिकपणा या अद्वितीय गुणांमुळे म्हैसूरच्या महाराजांनी १९१२मध्ये त्यांची राज्याच्या दिवाणपदी नियुक्ती केली. दिवाण म्हणून काम करताना त्यांनी उद्योग आणि शिक्षण क्षेत्रात प्रभावी कामगिरी केली.

विकासासाठी, दळणवळणासाठी उत्तम व्यवस्था अपरिहार्य आहे, या विचाराने त्यांनी राज्यात रेल्वे सुविधेचे नवे जाळे विणले. तिरुमाला ते तिरुपती हा रस्तेमार्गही त्यांचीच देणगी. ‘सर एमव्हीं’चे जीवन म्हणजे जणू वाहता प्रवाहच! कुठेही ओंजळीतून पाणी घ्या, ते निर्मळ अमृतासारखेच असणार. त्यांना अनेक मानसन्मान मिळाले. सातहून अधिक संस्थांची मानद डॉक्टरेट त्यांना मिळाली. सुमारे दोन डझन संस्थांना त्यांचे नाव देण्यात आले आहे. ब्रिटिश सरकारचा सीआयई हा बहुमान त्यांना मिळाला. १९५५मध्ये त्यांना ‘भारतरत्न’ पुरस्काराने गौरविण्यात आले.

आपल्या देशाच्या विकासालाच त्यांनी सर्वोच्च प्राधान्य दिले. भारतीय संस्कृती सहकार्य आणि कार्यकौशल्याचे जणू प्रतीक म्हणजे सर एमव्ही. त्यांच्या कार्याला मानवंदना देण्यासाठी आणि त्यांच्यासारख्या इंजिनीअर्सच्या योगदानाचा गौरव म्हणून १५ सप्टेंबर हा त्यांचा जन्मदिवस सर्वत्र ‘अभियंता दिन’ म्हणून साजरा केला जातो. सहायक अभियंता ते भारतरत्न हा सर विश्वेश्वरय्या यांचा अद्भुत प्रवास साधी राहणी व उच्च विचारसरणी हे तत्त्व अधोरेखित करतो.

 

© श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर.

प्राथमिक शिक्षक, जि. प. केंद्र शाळा मसुरे नं. १ (ता. मालवण, जि. सिंधुदुर्ग)

मोबाइल : ९४२०७ ३८३७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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