मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचे ☆ जन्म – 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ क्षण सृजनाचे : जन्म – 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

मी जन्म १- कविता लिहिली, त्या गोष्टीला दहा वर्षं होऊन गेली.  सालातील शेवटच्या आकड्यांची उलटापालट झाली. १९७६ साल. या वर्षी खरोखरच गुलबकावलीचं फूल माझ्या उदरात वाढत होतं. प्रेशस बेबी म्हणून जसं खूप कौतुक होतं, तसंच देखभाल, काळजीही खूप होती. डॉ. श्रीदेवी पाटील या त्या काळातल्या निष्णात आणि लौकिकसंपन्न डॉक्टर होत्या. त्यांच्या दवाखान्यात महिना-दीड महिना बेड रेस्टसाठी रहावं लागलं होतं. मला तसं काहीच होत नव्हतं, पण तसं डॉक्टरांना म्हंटलं की त्या म्हणायच्या, `तुला काही होतय म्हणून नव्हे, काही होऊ नये म्हणून दवाखान्यात ठेवलय.’ या काळात मला कथांचे अनेक विषय मिळाले आणि त्यानंतर काही काळाने मी कथालेखन सुरू केलं.

अखेर प्रसूतीचा काळ जवळ आला. मी दिवसभर कळा देत होते. पण फारशी काही प्रगती नव्हती. संध्याकाळची पाच- साडे पाचची वेळ असेल. मला कळा येण्याचं इंजक्शन दिलं आणि लेबर टेबलवर घेतलं. दोन कळातलं अंतर कमी होत होतं, पण म्हणावी तशी प्रगती नव्हती.

एवढ्यात हॉस्पिटलच्या दारात एक रिक्षा उभी राहिली. त्यातून दोन महिला उतरल्या. एकीचा चेहरा वेदनेने पिळवटलेला. दुसरी तिला धरून आता आणत होती. ती बहुधा तिची आई असावी.

तिला पाहिल्याबरोबर नर्सनी मला लेबर टेबलवरून खाली उतरवलं आणि तिला टेबलवर घेतलं. आकांती वेदनेनं ती किंचाळली. एकदा… दोनदा… आणि नर्सच्या हातात तिचं बाळ होतं. मी विस्मित होऊन तिच्याकडे पाहत राहिले. कळा द्यायचीच विसरून गेले. नंतर तिला रूममध्ये हलवलं आणि मला टेबलवर घेतलं. मी कळा देत होते पण डोळ्यापुढे मात्र तिची प्रसूती होती. मनात शब्द उतरत होते-

 

पापणीवर उतरणारा गडद अंधार

प्रकाशाची भिरभिरणारी वलयं

त्यात विरघळून गेलेली.

झुलत्या पुलावरची अरुंद निसरडी वाट

अजूनही सरत नाही.

दोन्ही बाजूच्या खोल डोहात पसरलीय

गूढ, भयाण आकारहीन सावली.

पायातलं सारं बळ ओसरलय..

प्राण कासावीस झालेत, श्वास कोंडलेत.

दूरच्या सुरक्षित निवांत किनार्‍यावरून वळलेल्या नजरा कुजबुजताहेत,

इतकं का अवघड आहे सारं?

थोडं सोसायला हवं…सोसायलाच हवं.

एवढा बाऊ कशासाठी?

काहीच कळत नाही… उमजत नाही. अपराध्यासारखं वाटतय.

पण अंगातलं सारं त्राण सरलय.

आणि इतक्यात…

मायेने ओलावलेला गहिरा स्वर

अंगभर थरथरत जातो संजीवनी होऊन.

सारी वाटचाल सरलीय… आता फक्त वितीचं अंतर

एवढी एकच कळ… एवढंच… थोडा धीर धर…

मरगळलेल्या प्राणात पेटतात पुन्हा चैतन्याचे पलिते

जीवाच्या कराराने घेतली जाते एक साक्षात्कारी झेप

आणि त्याच सुरक्षित किनार्‍यावर टेकतात पाय

छातीशी बिलगलेल्या नन्ह्या फरिश्त्याचं वरदान घेऊन.

तिने बाळाला जन्म दिला होता. मी कवितेला. असा त्यावेळी माझ्या बाळाच्या जन्माआधी माझ्या `जन्म’ कवितेचा जन्म झाला होता.

 

©  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (20) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌।।20।।

उचित काल औ” देश में उचित व्यक्ति को दान

बिना स्वार्थ, अनुपकारी को जो वह सात्विक दान ।।20।।

 

भावार्थ :   दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्‌ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है॥20॥

That gift which is given to one who does nothing in return, knowing it to be a duty to give in a fit place and time to a worthy person, that gift is held to be Sattwic.।।20।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 62 ☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख वक्त, दोस्त व रिश्ते। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 62 ☆

☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆

 

‘वक्त, दोस्त व रिश्ते हमें मुफ़्त में मिलते हैं। पर इनकी कीमत का पता, हमें इनके खो जाने के पश्चात् होता है और वक्त, ख्वाहिशें और सपने हाथ में बंधी घड़ी की तरह होते हैं, जिसे उतार कर कहीं भी रख दें, तो भी चलती रहतीं है।’ दोनों स्थितियों में विरोधाभास है। वास्तव में ‘वक्त आपको परमात्मा ने दिया है और जितनी सांसें आपको मिली हैं ,उनका उपयोग-उपभोग आप स्वेच्छा से कर सकते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उन्हें व्यर्थ में खो देते हैं या हर सांस का मूल्य समझ एक भी सांस को रखते व्यर्थ नहीं जाने देते। आप जीवन का हर पल प्रभु के नाम-स्मरण में व्यतीत करते हैं और सदैव दूसरों के हित में निरंतर कार्यरत रहते हैं। यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है कि आप वर्तमान में शुभ कर्म करके आगामी भविष्य को स्वर्ग-सम सुंदर बनाते हैं या बुरे कर्म करने के पश्चात् नरक के समान यातनामय बना लेते हैं। वर्तमान में कृत-कर्मों का शुभ फल, आपके आने वाले कल अर्थात् भविष्य को सुंदर व सुखद बनाता है।

वक्त निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं और आप लाख प्रयत्न करने व सारी दौलत देकर, उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते। जीवन की अंतिम वेला में इंसान अपनी सारी धन-संपदा देकर, कुछ पल की मोह़लत पाना चाहता है, जो सर्वथा असंभव है।

इसी प्रकार दोस्त, रिश्ते व संबधी भी हमें मुफ़्त में मिलते हैं; हमें इन्हें खरीदना नहीं पड़ता। हां! अच्छे- बुरे की पहचान अवश्य करनी पड़ती है। इस संसार में सच्चे दोस्त को ढूंढना अत्यंत दुष्कर कार्य है, क्योंकि आजकल सब संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कुछ रिश्ते जन्मजात अर्थात् प्रभु-प्रदत्त होते हैं, जिन्हें आप चाह कर भी बदल नहीं सकते। वे संबंधी अच्छी व बुरी प्रकृति के हो सकते हैं और उनके साथ निर्वाह करना अनिवार्य ही नहीं, आपकी विवशता होती है। परंतु आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। खून के रिश्ते–माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी व विश्वासपात्र दोस्त का मिलना अत्यंत दुष्कर है, टेढ़ी खीर है। आधुनिक युग प्रतिस्पर्द्धात्मक युग है, जहां चारों ओर  संदेह, शक़ व अविश्वास का दबदबा कायम है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री व भाई-बहिन के संबंध भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। जहां समाज में अराजकता व विश्रंखलता का वातावरण व्याप्त है, वहां मासूम बच्चियों से लेकर वृद्धा तक की अस्मत सुरक्षित नहीं है। वे उपभोग व उपयोग की वस्तु-मात्र बनकर रह गयी हैं। आजकल हर रिश्ते पर प्रश्नचिन्ह लगा है और सब कटघरे में खड़े हैं।

हां! आजकल दोस्ती की परिभाषा भी बदल गई है। कोई व्यक्ति बिना स्वार्थ के, किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। आजकल तो ‘हैलो-हॉय’ भी पद- प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो हर इंसान आत्म-मुग्ध अथवा अपने में व्यस्त है तथा उसे किसी की दरक़ार नहीं है। कृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती की मिसाल तो ढूंढने पर भी नहीं मिलती। आजकल तो दोस्त अथवा आपका क़रीबी ही आपसे विश्वासघात करता है…आपकी पीठ में छुरा घोंपता है, क्योंकि वह आपकी रग-रग से वाकिफ़ होता है। विश्व अब ग्लोबल-विलेज बन गया है तथा भौगोलिक दूरियां भले ही कम हो गई हैं, परंतु दिलों की दूरियां इस क़दर बढ़ गई हैं कि उन्हें पाटना असंभव हो गया है। हर इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संग्रह करना चाहता है और उसके लिए वह घर-परिवार व दोस्ती को दाँव पर लगा देता है। इसमें शक़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। शक़ दिलों में दरारें उत्पन्न कर देता है, जिसका जन्म अनास्था व अविश्वास से होता है। विश्वास तो न जाने पंख लगा कर कहां उड़ गया है, जिसे तलाशना अत्यंत दुष्कर है। परंतु इसका मुख्य कारण है … कानों-सुनी बात पर विश्वास करना। सो! संदेह हृदय में ऐसी खाई उत्पन्न कर देता है, जिसे पाटना असंभव हो जाता है। शायद! हम कबीरदास जी को भुला बैठे है… उन्होंने आंखिन-देखी पर विश्वास करके शाश्वत साहित्य की रचना की, जो आज भी विश्व-प्रसिद्ध है। शुक्ल जी ने भी यही संदेश दिया है कि जब भी आप बात करें, धीरे से करें, क्योंकि तीसरे व्यक्ति के कानों तक वह बात नहीं पहुंचनी चाहिए। परंतु दोस्ती में संबंधों की प्रगाढ़ता होनी चाहिए; जो आस्था, निष्ठा व विश्वास से पनपती है।

यदि आप दूसरों की बातों पर विश्वास कर लेंगे, तो आपके हृदय में क्रोध-रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाएगी… आप अपने मित्र को बुरा-भला कहने लगेंगे तथा उसके प्रति विद्वेष की भावना से भर जायेंगे। आप सबके सम्मुख उसकी निंदा करने लगेंगे और समय के साथ मैत्रीभाव शत्रुता के भाव में परिणत हो जायेगा। परंतु जब आप सत्यान्वेषण कर उसकी हक़ीक़त से रू-ब-रू होंगे… तो बहुत देर हो चुकी होगी और संबंधों में पुन: अक्षुण्ण प्रगाढ़ता नहीं आ पायेगी। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रहेगा।

परंतु वक्त, दोस्त व रिश्तों की कीमत का पता, इंसान को उनके खो जाने के पश्चात् ही होता है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए समय को सबसे अनमोल धन कहा गया है और उसकी कद्र करने की नसीहत दी गयी है। समय का सदुपयोग कीजिए …उसे व्यर्थ नष्ट मत कीजिए। खूब परिश्रम कीजिए तथा तब तक चैन से मत बैठिये, जब तक आपको मंज़िल नहीं मिल जाती। वक्त, ख्वाहिशें व सपने जीने का लक्ष्य होते हैं तथा उन्हें जीवित रखना ही जुनून है, ज़िंदगी जीने का सलीका है, मक़सद है। समय निरंतर नदी की भांति अपने वेग से बहता रहता है। इच्छाएं, ख्वाहिशें, आशाएं व आकांक्षाएं अनंत हैं…सुरसा के मुख की भांति फैलती चली जाती हैं। एक के पश्चात् दूसरी का जन्म स्वाभाविक है और बावरा मन इन्हें पूरा करने के निमित्त संसाधन जुटाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है, परंतु इनका पेट नहीं भरता। इसी प्रकार मानव नित्य नये स्वप्न देखता है तथा उन्हें साकार करने में आजीवन संघर्षरत रहता है। मानव अक्सर दिवा-स्वप्नों के पीछे भागता रहता है।  उसके कुछ स्वप्न तो फलित हो जाते हैं और शेष उसके हृदय में कुंठा का रूप धारण कर, नासूर-सम आजीवन सालते रहते हैं। यहां अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती है कि ‘मानव को खुली आंखों से स्वप्न देखने चाहिएं तथा उनके पूरा होने से पहले अथवा मंज़िल को प्राप्त करने से पहले मानव को सोना अर्थात् विश्राम नहीं करना चाहिए, निरंतर संघर्षरत रहना चाहिए ।’

ख्वाहिशों व सपनों में थोड़ा अंतर है। भले ही दोनों में जुनून होता है; कुछ कर गुज़रने का …परंतु विकल्प भिन्न होते हैं। प्रथम में व्यक्ति उचित-अनुचित में भेद न स्वीकार कर, उन्हें पूरा करने के निमित्त कुछ भी कर गुज़रता है, जबकि सपनों को पूरा करने के लिए, घड़ी की सुइयों की भांति अंतिम सांस तक लगा रहता है।

सो! वक्त की क़द्र कीजिए तथा हर पल को अंतिम पल समझ उसका सदुपयोग कीजिए…जब तक आपके सपने साकार न हो सकें और आपकी इच्छाएं पूरी न हो सकें । इसके लिए अच्छे-सच्चे दोस्त तलाशिए; भूल कर भी उनकी उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि सच्चा दोस्त हृदय की धड़कन के समान होता है। विपत्ति के समय सबसे पहले वह ही याद आता है। सो! उसके लिए मानव को अपने प्राण तक न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहना अपेक्षित है। इसलिए संबंधों की गहराई को अनुभव कीजिए और उन्हें जीवंत रखने का हर संभव प्रयास कीजिए …जब तक वे आपके लिए हानिकारक सिद्ध न हो जाएं, संबंधों का निर्वहन कीजिए। इसके लिए त्याग व बलिदान करने को सदैव तत्पर रहिए, क्योंकि रिश्तों की माला टूटने पर उसके मनके बिखर जाते हैं तथा उनमें दरार रूपी गांठ पड़ना स्वाभाविक है। लाख प्रयत्न करने पर भी उसका पूर्ववत् स्थिति में आ पाना असंभव हो जाता है। सो! संबंधों को सहज रूप में विकसित व पुष्पित होने दें। सदैव अपने मन की सुनें तथा दूसरों की बातें सुन कर हृदय में मनोमालिन्य को दस्तक न देने दें, ताकि संबंधों की गरिमा व गर्माहट बरक़रार रहे। यदि ऐसा संभव न हो, तो उन्हें तुरंत अथवा एक झटके में तोड़ डालें। सो! सहज भाव से ज़िंदगी बसर करें। हृदय में स्व- पर व राग-द्वेष के भावों को मत पनपने दें। अपनों का साथ कभी मत छोड़ें तथा सदैव परोपकार करें। लोगों की बातों की ओर ध्यान न दें। दोस्तों को उनके दोषों के साथ स्वीकारना उत्तम, बेहतर व श्रेयस्कर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पाक़-साफ़ नहीं होता। यदि आप ऐसे शख़्स की तलाश में निकलेंगे, तो नितांत अकेले रह जायेंगे। वैसे भी वस्तु व व्यक्ति के अभाव अथवा न रहने पर ही उनकी कीमत अनुभव होती है। उस स्थिति में उसे पाने का अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता। ‘जाने वाले चाहे वे दिल से जाएं या जहान से…कभी लौट कर नहीं आते।’ सो! जो गुज़र गया, कभी लौटता नहीं… यह कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल अथवा भविष्य, जो वर्तमान बन कर आता है… वह सदैव सत्य ही होगा। इसलिये हर पल को जी लो, सत्कर्म करो तथा अपनी ज़िंदगी को सार्थक बनाओ। यह आपकी सोच व नज़रिये पर निर्भर करता है कि आप विषम परिस्थितियों में कितने सम रहते हैं। सो! सकारात्मक सोच रखिए, अच्छा सोचिए और अच्छा कीजिए… उसका परिणाम भी शुभ व मंगलमय होगा, सर्वहिताय होगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अवाक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अवाक ☆

 

दर्प से चमकती

आँखों से

बेटा-बेटी

अपने त्याग, तप

और संघर्ष की गाथा

सुनाते रहे..,

झुर्रियों से घिरा

चेहरा लिये

माता-पिता

अवाक होकर

सुनते रहे!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 11:54 बजे, 4.9.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 15 ☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट)

☆ किसलय की कलम से # 15 ☆

☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट 

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न नहीं हो सकता। समय एवं परिस्थितियाँ नौकर-मालिक या राजा-रंक की दशा बदल देती हैं। भले हम कहें कि श्रम व समर्पण सुपरिणाम देते हैं लेकिन कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ सब उलट-पुलट कर देती हैं। इसीलिए युगों-युगों से मजदूरों का अस्तित्व रहा है और आगे भी निरंतर रहेगा। प्रत्येक मालिक व उद्योगपतियों का उद्देश्य बड़े से और बड़ा होना होता है। मजदूरों का शोषण जानबूझकर तो किया ही जाता है, अनजाने में भी होता है। दुनिया में शोषित व शोषक वर्ग सदैव से रहे हैं। समय साक्षी है कि श्रम का मूल्यांकन तथा आदर हमेशा कम ही हुआ है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर का हमारा समाज कितना आदर करता है। अपनी गृहस्थी व अपने परिवार हेतु एक मजदूर अपना घर, अपने परिवार के सभी सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दर-ब-दर भटकता है। ये हजारों-हजार किलोमीटर की दूरी केवल इसलिए नाप लेते हैं ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके। उनके बच्चे पढ़-लिख सकें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मजदूर जीवन भर अपना शरीर खपाता रहता है और अंत तक मजदूर का मजदूर ही रहता है। उनकी कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ न ही उन्हें संपन्न बना पातीं और न ही उनकी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं।

बदलती तकनीकि व इक्कीसवीं सदी के अंधाधुंध व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने आज जीवन के एक-एक क्षण की आरामदेही हेतु नवीनतम यांत्रिक सुविधायें उपलब्ध करा दी हैं। श्रम, दूरी, यातायात, मनोरंजन, दूरसंचार के साधनों सहित स्वच्छता, जल, हवा, ऊर्जा, ईंधन आदि हरेक जरूरतों की पूर्ति आज चुटकी बजाते ही पूर्ण हो जाती है। पहले सिर पर मटकी से पानी लाना, पैदल या बैलगाड़ी से आवागमन, चूल्हे जलाना, संदेश वाहको से संदेश भेजना, हल और हाथों से कृषि करना आदि सभी में मानवशक्ति का ही अधिक उपयोग होता था। इस तरह सभी के पास रोजगार, उद्योग-धंधे व मजदूरी हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हर कार्य मशीनों द्वारा अच्छा व जल्दी होने लगा। उत्पादों, साधनों एवं सेवाओं में लागत भी कम पड़ने लगी। एक तरह से धीरे-धीरे मजदूरों का कार्य मशीनें करने लगीं। यहाँ तक भी ठीक था लेकिन जब मानवशक्ति का उपयोग आधे से भी कम हुआ, तब इस मजदूर वर्ग की मुसीबतें और बढ़ना शुरू हो गईं। अब मजदूर अपने परम्परागत हुनर को विवशता में त्यागकर अन्य कार्य करने हेतु बाध्य होने लगा। घर से हजारों किलोमीटर दूर जाने हेतु भी तैयार हो गया। कुछ बचे हुए लोगों ने अपने परम्परागत रोजगार-धंधे जैसे हैंडलूम, मिट्टी एवं धातुओं के बर्तन व विभिन्न सामग्री, हस्त निर्मित फर्नीचर आदि बनाकर आगे बढ़ना चाहा लेकिन इन सब में समय व परिश्रम अधिक लगने और लागत बढ़ने के कारण लोगों की अभिरुचि मशीन निर्मित वस्तुओं की ओर ज्यादा बढ़ती गई। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि इन कारोबारियों, हस्तशिल्पियों व कुशल कारीगरों की अनदेखी एक दिन इन लोगों का अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। सर्वविदित है कि मानवशक्ति का अधिक से अधिक उपयोग हो, इसीलिए हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी ने हथकरघा निर्मित खादी के वस्त्रों पर जोर दिया था।

आज हमें बस थोड़ी सी उदारता व संतोष रखकर सहृदयतापूर्वक कुछ ही अधिक मूल्य देकर इनसे सामग्री खरीदना होगी। आपके द्वारा किये गए प्रयास न जाने कितने लोगों को मजदूरी का अवसर दे सकते हैं और इस बहाने हम मजदूरों और कारीगरों की कला का सम्मान भी कर पाएँगे। यही इन लोगों के श्रम का मूल्यांकन भी होगा। आज हम देख रहे हैं कि बड़ी-पापड़ और दोना-पत्तल से लेकर कपड़ों की धुलाई, सिलाई, अनाजों की पिसाई सब कुछ मशीनों से होने लगा है। अब तक इन धंधों में लगे मजदूरों को आखिर अन्य काम तो करने ही होंगे। काम न मिलने पर ये पलायन भी करेंगे। आज ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हर शहरों में कुछ स्थान नियत हो गए हैं जहाँ सुबह-सुबह मजदूरों का हुजूम दिखाई देता है। एक अदद मजदूर की तलाश में आए व्यक्ति के चारों ओर काम मिलने की आस में मजदूर झुण्ड के रूप में उस व्यक्ति को घेर लेते हैं। आशय यह है कि अब यह भी निश्चित नहीं है कि यहाँ एकत्र सभी मजदूरों को उस दिन काम मिल ही जाए। सीधी और स्पष्ट बात यह है कि अब मजदूरी के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बावजूद इसके कभी-कभी बिना मजदूरी और पैसों के खाली हाथ घर वापस भी आना पड़ता है। घर में या तो फाके की स्थिति होती है अथवा बची खुची सामग्री से घरवाली पेट भरने लायक कुछ बना देती है और यदि ऐसा ही कुछ दिन और चला तो भूखे मरने की नौबत भी आ जाती है। आज भी यह सब होता है। हो रहा है। सरकारें चाहे जितने वायदे करें, प्रमाण दें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि कल का मजदूर आज भी उतना ही मजबूर और भूखा है।

क्या कभी ऐसे आंकड़े जुटाए गए हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त मजदूर की पाँच-दस साल बाद क्या स्थिति है। निःशुल्क आंगनवाड़ी एवं निःशुल्क शिक्षा के बावजूद मजदूरों के कितने प्रतिशत बच्चे स्नातक अथवा उच्च शिक्षित हो पाए हैं। आखिर हमारी योजनाएँ ऐसी अधूरी क्यों है? आखिर इतना सब करने के पश्चात भी हम गरीब या मजदूरों को वे सारी सुख-सुविधाएँ व शिक्षा देने में असफल क्यों हैं। सत्यता व कागजी बातों के अंतर को पाटने हेतु ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? वैसे भी हमारे देश में इस मजदूर वर्ग की हालत एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। अधिकांश मजदूर व उनके परिवार आज भी नारकीय जीवन जीने हेतु बाध्य हैं। अभावग्रस्त मजदूर बस्तियों में आज भी बिजली-सड़क-पानी की संतोषजनक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बस्तियाँ बजबजाती नालियों से भरी पड़ी रहती हैं। सारे वायदे व घोषणाएँ केवल चुनावी दौर में सुनाई देते हैं। फिर अगले पाँच साल तक सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है।

कुछ समय पूर्व तक ठीक नहीं पर काम चलाऊ तो था परंतु कोविड-19 के बढ़ते कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह ऐसी विभीषिका है जो इसके पूर्व कभी देखी नहीं गई। विश्व के द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में अभी भी कोविड-19 महामारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। खौफ इतना बढ़ा कि प्रायः सभी मजदूर अपने परिवार और अपने घर में ही पहुँच कर एक साथ जीना-मरना चाहते हैं। मजदूरों की घर वापसी न मालिक रोक पाए न सरकार। बिना पैसे के, बिना रुके, भूखे-प्यासे मजदूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूरी तय कर एनकेन प्रकारेण अपने घरों तक पहुँच गए। घर की जमापूँजी घर चलाने में खर्च होने लगी। अब मजदूरी न के बराबर ही है। वापस आए मजदूर आखिर अपने गाँव अथवा समीप के शहरों में क्या और कितना करेंगे। लोगों के काम-धन्धों पर मंदी की मार पड़ रही है। निर्माण और अन्य ऐसे अन्य काम जिनमें मजदूरों की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन के पश्चात रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं। हम उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो जब माँग ही नहीं होगी तो उत्पादन क्यों किया जाएगा? उत्पादन अथवा काम न होने का तात्पर्य यह है कि मजदूरों के काम की छुट्टी। बिना काम किए जब मजदूरी ही नहीं मिलेगी तो क्या होगा इन बेचारों का। उद्योग, कारखाने एवं धंधे-व्यवसाय वालों ने मंदी के चलते अपने मजदूरों की छटनी शुरू कर दी है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या पहले से ही है और अब कोरोना के कहर से बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा है। यदि यही हाल रहा तो आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना जमापूँजी वाले मजदूरों और उनके परिवार की क्या दशा होगी? आज मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट इसी कोविड-19 जैसे हालात निर्मित न कर दे, इस पर दीर्घकालीन शासकीय योजनाएँ व नीतियों की अविलम्ब आवश्यकता है। आज मजदूर वर्ग में आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनमें असंतोष व्याप्त नहीं है। आप मानें या न मानें कल की चिंता हर मजदूर व गरीब तबके को सता रही है। इन्हें शीघ्र अतिशीघ्र रोजगार, व्यवसाय अथवा धंधों में लगाने की महती आवश्यकता है, ताकि ये भविष्य की रोजी-रोटी के प्रति निश्चिंत हो सकें। वर्तमान में यह मजदूर वर्ग इतना टूट चुका है कि वह अपने व अपने परिवार के उदर-पोषण हेतु कुछ भी करने को आमादा हो सकता है। अनैतिक कार्यों व धंधों में संलिप्त हो सकता है। लूटमार, चोरी-डकैती जैसी वारदातें भी बढ़ सकती हैं। ऐसी कठिन व अराजक परिस्थितियाँ आने के पूर्व भविष्य की नजाकत को देखते हुए शासन का आगे आना बहुत जरूरी हो गया है, वहीं समाज के सभी सक्षम व्यक्तियों, धनाढ्य, उद्योगपतियों से भी अपेक्षा है कि वे अपने कर्मचारियों को इस विपदा की घड़ी में जितना बन पड़े अपनापन और आर्थिक सहयोग देने से पीछे न हटें। मजदूर व गरीबों के लिए जन सामान्य, संस्थाएँ व प्रशासन यथोचित मदद हेतु आगे आएँ, ताकि मानवता कलंकित होने से बच सके।

इस कठिन समय में स्वार्थ, कालाबाजारी, जमाखोरी, धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर इन मजदूरों को रोजगार देने का प्रयास करें। इनकी यथायोग्य सहायता करें। इनके रोजगार, व्यवसाय आदि में मदद करें। आपका एक छोटा सा प्रयास, आपकी सलाह, आपका परोपकार एक मजदूर ही नहीं उसके पूरे परिवार की खुशहाली के द्वार खोल सकता है। इस तरह हम सब आज मजदूरों पर बढ़ती बेरोजगारी के संकट का समाधान कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 61 ☆ तुम यहीं हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं परम आदरणीया माँ स्व डॉ गायत्री तिवारी जी  (27 दिसंबर 1947 – 8 सितम्बर 2015)को सस्नेह समर्पित एक भावप्रवण कविता  “तुम यहीं हो। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 61 – साहित्य निकुंज ☆

☆ तुम यहीं हो ☆

तुम मेरी यादों के

झरोखे में झाँकती

मुझे तुम निहारती

मै अतीत के उन पलों

में पहुंच जाती हूँ ।

 

तुम्हारा रोज मुझसे

बात करना,अपना

मन हल्का करना।

मैं खो जाती हूँ तुम्हारे

आँचल की छाँव में

जहां मिलता था

मुझे सुकून, मुझे चैन।

 

तुम्हारा प्यार, तुम्हारा

ममत्व अक्सर

ख्वाबों में भी आराम

देता है।

नींद में भी तुम्हारे

हाथों का स्पर्श

यकीन दिला जाता है कि

तुम हो मेरे ही आस पास।

 

मन में आज भी एक

प्रश्न चिन्ह उठता है

जिंदगी पूरी जिये

बिना तुम क्यों चली गई

और जाने कितने सवाल

छोड़ गई हम सब के लिए।

जो आज भी अनसुलझे है।

 

तुम गई नहीं हो

तुम हो

तिलिस्म के साए में

ऐसी माया है जिससे वशीभूत

होकर व्यक्ति उसके मोह जाल में

फँस जाता है।

माँ

हो मेरे आसपास

मेरे अस्तित्व को मिलता है अर्थ

नहीं है कुछ भी व्यर्थ।।

तुम मेरी यादों में ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 52 ☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “कभी खुद से भी सवाल कर लेना। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 52☆

☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना  ☆

 

कभी खुद से भी सवाल कर लेना

जरा उसका भी ख्याल कर लेना

 

गैरों पै उँगलियाँ उठाई बहुत

चार तुम्हारी तरफ,मलाल कर लेना

 

हैं दुनिया में परेशानियाँ बहुत

मुश्किलों में दिल खुशहाल कर लेना

 

खुदा के बाद है माँ-बाप का रुतवा

दिल से उनकी संभाल कर लेना

 

माफ कर देना सभी अज़ीज़ों को

फ़राख दिली से कमाल कर लेना

 

बनाया है इंसान वा दुनिया को

कर इबादत उसे निहाल कर लेना

 

लाख दुश्वारियाँ राहों में मगर

“संतोष” का इस्तेमाल कर लेना

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विशेष – पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।  आज दिनांक 18 सितम्बर 2020 से पुरुषोत्तम मास (अधिक मास ) प्रारम्भ हो रहा है।  इस सम्बन्ध में प्रस्तुत है इस सन्दर्भ में श्री आशीष कुमार जी द्वारा लिखित विशेष आलेख  “पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व । )

 ☆ विशेष आलेख ☆ पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) – वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व ☆

इस वर्ष पुरुषोत्तम मास आ रहा है, हरिद्वार समय के अनुसार 18 सितम्बर 2020 को प्रातः 01: 29 से अधिकःमास प्रारंभ हो जायेगा जो कि 16 अक्टूबर कि रात्रि 11: 15 तक रहेग।  पुरुषोत्तम मास के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक  महत्व को समझने का प्रयास करते है।

कहते हैं कि दैत्याराज हिरण्यकश्यप ने अमर होने के लिए तप किया ब्रह्माजी प्रकट होकर वरदान मांगने का कहते हैं तो वह कहता है कि आपके बनाए किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु ना हो, न मनुष्य से और न पशु से। न दैत्य से और न देवताओं से। न भीतर मरूं, न बाहर मरूं। न दिन में न रात में। न आपके बनाए 12 माह में। न अस्त्र से मरूं और न शस्त्र से। न पृथ्‍वी पर न आकाश में। युद्ध में कोई भी मेरा सामना न करे सके। आपके बनाए हुए समस्त प्राणियों का मैं एकक्षत्र सम्राट हूं। तब ब्रह्माजी ने कहा- तथास्थु। फिर जब हिरण्यकश्यप के अत्याचार बढ़ गए और उसने कहा कि विष्णु का कोई भक्त धरती पर नहीं रहना चाहिए तब श्री‍हरि की माया से उसका पुत्र प्रहलाद ही भक्त हुआ और उसकी जान बचाने के लिए प्रभु ने सबसे पहले 12 माह को 13 माह में बदलकर अधिक मास बनाया। इसके बाद उन्होंने नृसिंह अवतार लेकर शाम के समय देहरी पर अपने नाखुनों से उसका वध कर दिया। इसके बाद चूंकि हर चंद्रमास के हर मास के लिए एक देवता निर्धारित हैं परंतु इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई भी देवता तैयार ना हुआ। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने उपर लें और इसे भी पवित्र बनाएं तब भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह मलमास के साथ पुरुषोत्तम मास भी बन गया। ऐसी भी मान्यता है कि स्वामीविहीन होने के कारण अधिकमास को ‘मलमास’ कहने से उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इस बात से दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनको अपनी व्यथा-कथा सुनाई। तब श्रीहरि विष्णु उसे लेकर गोलोक पहुचें। गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया- अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूं। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुम में समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूं और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूं। आज से तुम मलमास के बजाय पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे। इसीलिए प्रति तीसरे वर्ष में तुम्हारे आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ कुछ अच्छे कार्य करेगा, उसे कई गुना पुण्य मिलेगा। इस प्रकार भगवान ने अनुपयोगी हो चुके अधिकमास को धर्म और कर्म के लिए उपयोगी बना दिया। अत: इस दुर्लभ पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान एवं दान करने वाले को कई पुण्य फल की प्राति होगी।

पुरुषोत्तम मास जिस चंद्र मास में सूर्य संक्राति नहीं होती, वह अधिक मास कहलाता है और जिस चंद्र मास में दो संक्रांतियों का संक्रमण हो रहा हो उसे क्षय मास कहते हैं। इन दोनों ही मासों में माँगलिक कार्य नहीं होते हैं। हालांकि इस दौरान धर्म-कर्म के पुण्य फलदायी होते हैं। इसके लिए मास की गणना शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक की जाती है। सामान्यत: एक अधिक मास से दूसरे अधिक मास की अवधि 28 से 36 माह तक की हो सकती है। कुछ ग्रंथों में यह अवधि 32 माह और 14 दिवस 4 घटी बताई गई है। इस प्रकार यह कह सकते है कि हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास आता ही है। यदि इस अधिक मास की परिकल्पना नहीं की गई तो चांद्र मास की गणित गड़बड़ा सकती हैं। विशेष बात यह है कि अधिक मास चैत्र से अश्विन मास तक ही होते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष पौष मास में क्षय मास होते हैं तथा माघ फाल्गुन में अधिक या क्षय मास कभी नहीं होते। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का रहता है। दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का अंतर रहता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है। सूर्य-चन्द्र के भ्रमण से 3 वर्ष के अंतर पर अधिक मास की स्थिति बनती है। जिस किसी मास में सूर्य की संक्रांति नहीं आती है वह अधिक मास पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है। यह एक खगोलशास्त्रीय तथ्य है कि सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार कर लेता है और यही सूर्य का सौर महीना है। ऐसे बारह महीनों का समय जो 365.25 दिन का है, एक सौर वर्ष कहलाता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष में 354.36 दिन ही होते हैं। यह अंतर 32.5 माह के बाद एक चंद्र माह के बराबर हो जाता है। इस समय को समायोजित करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति होती है। यह प्राकृतिक नियम है। जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ या अधिक मास होता है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जायें तो क्षय माह होता है। क्षय मास कभी कभी होता है। मलमास में कुछ नित्य कर्म, कुछ नैमित्तिक कर्म और कुछ काम्य कर्मों को निषेध माना गया है। जैसे इस मास में प्रतिष्ठा, विवाह, मुंडन, नव वधु प्रवेश, यज्ञोपवित संस्कार, नए वस्त्रों को धारण करना, नवीन वाहन खरीद, बच्चे का नामकरण संस्कार आदि कार्य नहीं किए जा सकते। इस मास में अष्टका श्राद्ध का संपादन भी वर्जित है। जिस दिन मल मास शुरू हो रहा हो उस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान सूर्य नारायण को पुष्प, चंदन अक्षत मिश्रित जल अर्पणकर पूजन करना चाहिए। अधिक मास में शुद्ध घी के मालपुए बनाकर प्रतिदिन काँसे के बर्तन में रखकर फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करें। जो कार्य पूर्व में ही प्रारंभ किए जा चुके हैं, उन्हें इस मास में किया जा सकता है। इस मास में मृत व्यक्ति का प्रथम श्राद्ध किया जा सकता है। रोग आदि की निवृत्ति के लिए महामृत्युंजय, रूद्र जपादि अनुष्ठान भी किए जा सकते हैं। इस मास में दुर्लभ योगों का प्रयोग, संतान जन्म के कृत्य, पितृ श्राद्ध, गर्भाधान, पुंसवन सीमंत संस्कार किए जा सकते हैं। इस मास में पराया अन्न तथा तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए।

पुरुषोत्तम मास की एकादशी का बहुत ज्यादा महत्व है जो कि पुरुषोत्तमपद्मिनी(शुक्लपक्ष)एवं परमा(कृष्णपक्ष) है।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – मी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “मी….!” )

☆ विजय साहित्य – मी….! ☆

मी….!

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..

परीचितांना अपरीचित आणि

अपरिचितांना परीचित वाटतोय मी.

अविश्वासात विश्वास आणि

निस्वार्थात स्वार्थ गोवतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

पुस्तकातले कुटुंब, समाज

त्यांच्यातच रमतोय मी.

माणूस माणूस जोडलेला

पुन्हा पुन्हा वाचतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

गणिताची आकडेमोड

आकडेवारीत विस्तारतोय मी

माझ्याच गरजा, नी जबाबदा-या

कार्य कारण भाव निस्तरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चालतोय मी , थांबतोय मी

माझ्यातल्या मीला शोधतोय मी

लिहितोय मी, वाचतोय मी

विस्तारीत जगणे , आवरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कुणाच्या जमेत , कुणाच्या खर्चात

क्षणा क्षणाला साचतोय मी

ऊन्हातला मी, सावलीतला मी

चक्रवाढ व्याजात नाचतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चुकतोय मी , मुकतोय मी

संसार नावेत, डुलतोय मी

कधी काट्यात , कधी वाट्यात

जीवन बाजारात , भुलतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कधी भूतकाळात तर कधी

वर्तमानात जगतोय मी

अनुभूती वेचताना थकलो तर

तुझ्याच अंतरात वसतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 6 – कविता ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 6 ☆

☆ कविता ☆

 

आपण समजतो तेवढी सोपी नसते कविता

भावनांचा उद्रेक होतो तेव्हा जन्म घेते कविता

तुम्ही नाहीयेत तिचे जन्मदाते बाबांनो

उलट तिच्यामुळे तुमचा होतो जन्म  कवी म्हणून मित्रांनो

कविता म्हणजे असतं एखाद्याचं जिवंतपणे जळणं

कविता म्हणजे काळजातला खंजीर स्वतः ओढून मरणं

कविता असते बाणासारखी रुतणारी

छातीत घुसून पाठीतून आरपार निघणारी

कविता म्हणजे पायातला न दिसणारा काटा

कविता म्हणजे भावनांना हजार लाख वाटा

कविता म्हणजे असतो काळजावरचा घाव

कविता म्हणजे असतो एक मोडुन पडलेला डाव

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

17/05/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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